tag:blogger.com,1999:blog-2884095429375378267.post3274982700514186964..comments2023-09-03T03:32:57.985-07:00Comments on अविराम: अविराम के अंकउमेश महादोषीhttp://www.blogger.com/profile/17022330427080722584noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-2884095429375378267.post-71571473171966372262013-08-20T08:48:22.891-07:002013-08-20T08:48:22.891-07:00कुछ और मित्रों के पत्रांश......
000 महेन्द्रसिंह ...कुछ और मित्रों के पत्रांश......<br /><br />000 महेन्द्रसिंह महलान, राजकीय पशु चिकित्सालय के सामने, तिजारा-301411, अलवर (राज.) <br />.....अविराम साहित्यिकी को अप्रैल-जून 2013 अंक के रूप में पहली बार देखा। देखने में यह पत्रिका बहुत साधारण-छोटी सी लगी। परन्तु अंदर पृष्ठों को पढ़ने लगा तो पढ़ता ही चला गया। आवरण चित्र, अन्य चित्र व रेखांकन, माइक पर, सामग्री विवरण, लघुकथाएं, समीक्षाएं, आजीवन सदस्य, चिट्ठियां, गतिविधियां, प्राप्ति स्वीकार आदि रूप में ढेर सारी सामग्री सांचे में फिट की हुई सी मिली। लेखकों का सचित्र परिचय भी मिला। डॉ. बलराम अग्रवाल द्वारा प्रस्तुत सियाह हाशिये (सआदत हसन मंटो) इस अंक को अतिरिक्त गरिमा प्रदान करता है। डॉ.योगेन्द्रनाथ व डॉ. प्रद्युम्न की कहानियां तथा जितेन्द्र जौहर की कविताएं विशेष अच्छी लगीं।<br /><br /><br />000 आचार्य भगवत दुबे, पिसनहारी-मढ़िया के पास, जबलपुर-482003 (म.प्र.) <br />.....स्व.सआदत हसन मंटो की अमर लघुकथाओं की प्रस्तुति अभिनंदनीय है। इसके लिए श्री बलराम अग्रवाल साधुवाद के पात्र हैं। कतिपय कविताओं एवं कहानियों को छोड़कर यह पूरा अंक लघुकथाओं को ही समर्पित है। विविधवर्णी लघुकथाओं के माध्यम से रचनाकारांे ने समय की विरूपताओं को बड़ी सिद्दत के साथ उजागर किया है।....<br /><br /><br />000 डॉ.रसूल अहमद सागर, रामपुरा, जालौन (उ.प्र.) <br />.....मुझे यह अंक अच्छा लगा। आपका श्रम सार्थक हुआ। कुशल संपादन हेतु बधाई।....<br /><br /><br />000 डॉ.रामकुमार घोटड़, राजगढ़, चूरू-331023 (राज्र.) <br />.....अविराम साहित्यिकी दिन-प्रतिदिन निखरती जा रही है। हर अंक अपने आप में एक नए कलेवर में होता है। आलेख, कहानियां, कविताएं, लघुकथाएं, साहित्यिक गोष्ठियां, नये प्रकाशन की जानकारी तथा पुस्तक समीक्षा देखकर पूर्णता का आभास देती हैं। महंगाई के दौर व पाठकों के साहित्य के प्रति कम रुचि वाले युग में भी आत पत्रिका की निरंतरता बनाये हुए हैं। साधुवाद।...<br /><br /><br />000 कन्हैयालाल अग्रवाल ‘आदाब’, बंगला नं. 89, गवालियर रोड, नौलक्खा, आगरा-282001(उ.प्र्र.) <br />....अप्रैल-जून 2013 अंक सदैव की भांति प्रभावशाली है। लगभग सभी विधाओं को समेटे इस अंक का मुख्य आकर्षण मंटो की रचना सियाह हासिये’ का रूपान्तरण है, जो शिल्प में उनकी अन्य रचनाओं से कुछ हटकर है। लघु पत्रिकाओं से संबंधित आपने पत्रिका में परिचर्चा शुरू की है, वह भी पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।....<br /><br /><br />000 कुंवर प्रेमिल, एमआईजी-8, विजय नगर, जबलपुर-482002 (म.प्र्र.) <br />....‘अविराम साहित्यिकी’ के अंक तो सभी हृदयस्पर्शी होते हैं। बहस (लघु पत्रिकाओं को आर्थिक सहयोग सार्थक या निरर्थक) अपने-आप में पूर्ण है और सभी ने लघु पत्रिकाओं को आर्थिक सहयोग को स्वीकारा है। यह एक ईमानदार सच है। जिनके पास स्वयं का बजट है, वे अंगुली पर गिनी जाने वाली पत्रिकाएं ही होंगी और स्पष्ट है ये पत्रिकाएं इतने बड़े पाठक वर्ग को यथेष्ट नहीं ही होंगी।....<br /><br /><br />000 अमरनाथ, 401-ए, उदयन-1, बंगला बाजार, लखनऊ (उ.प्र्र.) <br />....सआदत हसन मंटो को समर्पित यह अंक अन्दर तक मन को छू गया।...वैसे तो पूरा अंक ही पठनीय है, फिर भी सुभाष नीरव की लघुकथा- धर्म-विधर्म, श्री रामेश्वर काम्बोज के गांव की चिटठी पर दोहे, डा. कपिलेश भोज जी का अगीत- काम्बिग जारी है तथा ज्योति कालड़ा जी की क्षणिका- घुटने दुखना बेहद पसन्द आये। इन सभी रचनाकारों को मेरा नमन!....<br /><br /><br />000 श्याम सुन्दर गर्ग, सम्पादक शब्द सामयिकी, पो.बा.न.ं 60, भीलवाड़ा-311001 (राज्र.) <br />....लघु पत्रिकाओं को आर्थिक सहयोग सार्थक या निरर्थक बहस निःसन्देह महत्वपूर्ण एवं सार्थक है। आपके कुशल सम्पादन में इतनी अच्छी पत्रिका प्रकाशित रने के लिए बधाई स्वीकारें। आप जिस मेहनत और लगन से पत्रिका निकाल रहे हैं वह दुर्लभ है, आपका श्रम प्रशंसनीय है।<br /><br /><br />000 राजेन्द्र कृष्ण श्रीवास्तव, सी-6/48, साहित्य प्रोत्साहन नगर, राजाजीपुरम्, लखनऊ-226017 (उ.प्र.) <br />....पत्रिका में कहानियां, लघुकथाएं, गीत, ग़ज़ल, पाठकों के पत्र, प्राप्त पुस्तकें, प्राप्त पत्रिकाएं आदि सभी पर दृष्टि डाली ही नहीं, मन से पढ़ा। जहां तक अच्छी लगने का प्रश्न है सभी रचनाओं ने अपनी ओर आकर्षित किया। लघुकथाओं पर और लघुपत्रिकाओं को सहायता देने संबंधी विचार और सुझाव भी स्वागत योग्य है।....उमेश महादोषीhttps://www.blogger.com/profile/17022330427080722584noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2884095429375378267.post-33721108029314852312013-08-20T08:45:51.354-07:002013-08-20T08:45:51.354-07:00कुछ और मित्रों के पत्रांश......
000 डा. ए. कीर्ति...कुछ और मित्रों के पत्रांश......<br /><br />000 डा. ए. कीर्तिवर्द्धन, 53, महालक्ष्मी एनक्लेव, जानसठ रोड, मुजफ्फरनगर-251001(उ.प्र.)<br />....अप्रैल-जून अंक ‘सआदत हसन मंटो’ मेरे सम्मुख है। आज बैठकर पूरा अंक पढ़ा। ‘सियाह हाशिये’ का हिन्दी रूपान्तरण (डॉ. बलराम अग्रवाल की कलम से) पढ़ा। कलम का सच, मंटो की छोटी-छोटी बातों से, जो हालात का सचित्र वर्णन करती हैं, जाना जा सकता है। साहित्य क्या और कैसा हो, प्रत्येक काल में बहस का मुद्दा रहा है। मगर जो बात अपको हर काल में आज की ही लगे, वही अमर साहित्य है। मंटो को पढ़ना भी कुछ ऐसा ही है। आज भी बटवारे के समय का यह दर्द सीमाओं से सिमटकर हिन्दू-मुस्लिम की शक्ल में हर गली-मुहल्ले में वैसा ही मौजूद है। जो बात अहमद हसन असकरी साहब ने मंटो के विषय में व्यंग्यपूर्वक कही थी, आज भी वही बात जिन्दा है। ऐसे समय में ‘अविराम’ जैसी पत्रिकाएं हैं, जो नये साहित्यकार को ‘मंटो’ बनने का मंच प्रदान करती हैं। जनाब असकरी साहब जैसे वर्तमान महानुभावों को समर्पित-<br />माना कि आप इल्म के, खलीफा ’ए खास हैं।<br />वर्षों का तजुर्बा आपका, कीमती असआर हैं।<br />मगर हमको भी आप, कमतर न आंकिये,<br />हमारे पास भी इस दौर के, कुछ जज्बात हैं।<br />हो सकता है न उतरें खरे, आपकी कसौटी पर,<br />मिट्टी के खिलौने सही, किसी बच्चे के खास हैं।<br />आप ख्वाब सजायें, चाँद पर जाने के, मगर<br />रेत के घरोंदे भी, दिलों के आसपास हैं।<br /> लघु पत्रिकाओं को आर्थिक सहयोग पर परिचर्चा पढ़ी। यह सच है कि बिना आर्थिक सहयोग के पत्रिका का चलना मुश्किल है। प्रश्न यह है कि आर्थिक सहयोग सरकार करे, समाज करे या स्वयं लेखक? हर जगह परेशानी है। सरकार करती है तो केवल कागजी पत्रिकाओं की बाढ़ आ जाती है, समाज करता है तो पहले अपने लाभ देखता है और लेखक की मजबूरी को कोई नहीं समझता। क्या कोई भी लघुपत्र/पत्रिका लेखक को मानदेय देने की स्थिति में है, नहीं ना, फिर लेखक अपना श्रम भी अपने ही पैसे से (लिखना, टाइप, पोस्टेज, पत्रिका को सहयोग) प्रकाशित करवाये, जिसकी कीेई गारंटी भी नहीं, क्योंकि संपादक का अपना दायित्व व मजबूरियाँ तथा गुणवत्ता का भी प्रश्न है। इससे भी आगे पत्रिका का आजीवन शुल्क भेजा और पत्रिका आनी बन्द, इसका क्या करें?<br /> मेरा मानना है कि जो व्यक्ति नई पत्रिका प्रारम्भ करे, वह यह विचारकर करे कि उसमें पत्रिका चलाने की सामर्थ्य है? उसके बाद जो भी सहयोग मिलेगा, वह उसे ऊर्जा प्रदान करेगा, जैसाकि ‘अविराम’ द्वारा आरम्भ से ही किया जा रहा है। मेरे विचारों को अन्यथा न लें, यह किसी भी लेखक की पीड़ा है। शानदार अंक के लिए बधाई!<br /><br /><br />000 डा.पूरन सिंह, 240, बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008 <br />....मेरे प्रिय लेखक ‘सआदत हसन मंटो’ पर सामग्री है, इसके लिए आभारी हूँ। इसके अलावा अंक में बहुत अच्छी-अच्छी और ज्ञानवर्धक लघुकथाएं भी पढ़ी। अच्छा लगा। लघुकथाओं के क्षेत्र में अग्रणी स्थान बनाती जा रही अविराम साहित्यिकी का जलजला यूं ही बना रहे और साथ ही आपका संपादन भी अनवरत रहे, यही चाहूंगा।....उमेश महादोषीhttps://www.blogger.com/profile/17022330427080722584noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2884095429375378267.post-77853669195414718632013-08-20T08:42:43.463-07:002013-08-20T08:42:43.463-07:00000 प्रदीप पंत्र, सी-2/31, ईस्ट ऑफ कैलाश, नई दिल्ल...000 प्रदीप पंत्र, सी-2/31, ईस्ट ऑफ कैलाश, नई दिल्ली-110065 <br />.....श्री बलराम अग्रवाल द्वारा रूपान्तरित और प्रस्तुत ‘सियाह हाशिये’ इस अंक का न केवल मुख्य अकर्षण है बल्कि उपलब्धि भी। इसके लिए बलराम अग्रवाल, अंक संपादक उमेश महादोषी और आपको जितनी बधाइयां दी जाएं कम हैं। इसके तहत छोटी-छोटी कहानियां मिलकर विभाजन के हाहाकार और दारुण स्थितियों को मानो एक बड़े कैनवस पर पेश कर देती हैं जिसमें धर्मांधता, सांप्रदायिकता, पाशविकता, बलात्कार, लूटपाट और जाने कितनी तरह की वारदातों का एक विषादपूर्ण कोलाज़ उतरता चला जाता है। एक-एक, दो-दो पंक्तियों वाली घटनाएं भी मानो अंदर तक हिला देती हैं। उपरोक्त के अतिरिक्त रूपसिंह चंदेल और सतीश दुबे के लेख मुझे अच्छे लगे। साथ ही सुभाष नीरव व मधुदीप की लघुकथाएं भी। चंदेल, दुबे, नीरव और मधुदीप आदि सही अर्थों में लघुकथाओं के महत्वपूण लेखक हैं। लघुकथा को चुटकुलेबाजी से मुक्त करने में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान है। महावीर रंवाल्टा की लघुकथा और राजकुमार कुम्भज, डॉ. कपिलेश भोज तथा रचना श्रीवास्तव की कविताएं भी अच्छी लगीं।<br /><br /><br />000 श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी, द्वीपान्तर, ला.ब.शास्त्री मार्ग, फतेहपुर-212601 (उ.प्र.)<br />....स्वस्थ कलेवर और सुरुचिपूर्ण विपुल सामग्री देखकर अत्यंत हर्ष हुआ। मंटो की रचनाएं अंक का श्रंगार हैं। उसके लिए आपके साथ-साथ ‘भाई साहब’ को भी धन्यवाद! कृपया हार्दिक बधाई स्वीकारें।...<br /><br /><br />000 कृष्ण सुकुमार, 153-ए/8, सोलानी कुंज, भा. प्रौ. सं., रूड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखण्ड) <br />.....हालांकि ’अविराम साहित्यिकी’ का प्रत्येक अंक संग्रहणीय और महत्वपूर्ण होता है, किंतु मंटो के थोड़े से हिस्से में आया ’अविराम साहित्यिकी’ का अप्रैल-जून, 2013 अंक विशेष महत्वपूर्ण बन गया है। मंटो की ये लघु रचनाएं इतनी दमदार हैं कि विभाजन के उस दौर में हुए दंगों के दौरान उस अमानवीयता का क्रूर, कुत्सित और वीभत्स चेहरा हमें आज भी भयभीत कर डालता है। हृदय को विदीर्ण कर डालने वाले साकार चित्र हैं ये! यह मंटो की रचनात्मकता का ही कमाल है कि मात्र एक वाक्य भी एक संपूर्ण रचना में तब्दील हो जाता है। ऐसे अंक की प्रस्तुति के लिए आप और बलराम अग्रवाल जी साधुवाद के पात्र हैं। <br /><br /><br />000 अवधेश, अध्यक्ष हिन्दी साहित्य परिषद, 2, ब्रह्मपुरी, सीतापुर-201001 (उ.प्र्र.) <br />....हिन्दी लेखन में मौलिकता से प्रतिबद्ध कलम चलाने पर आप आस लगाए बैठे हैं? यह साहित्यिक चोरी तो सन्दर्भ इकट्ठा करते हुए सभी पीएच.डी. वाले जन्म से करते आए हैं। कौन विश्वविद्यालय, इन शोधकों को रोक सका है। स्वच्छ लेखन व शुद्ध लेखन भारतेन्द्र युग में रहा होगा, इस युग में तो हजारों का लेन-देन है पीएच.डी. पाने में, डी.लिट. लेने में। आप और हम कहाँ तक मौलिकता की आड़ में नवीन सृजन चाहेंगे। लेखन से अधिक एक लेख में शोध पुस्तकों के नाम व पृष्ठ होते हैं। आप माने या न माने, मैं सम्पादक होने के नाते स्वयं खिन्न हूँ कि किसे मौलिक 24 कैरेट माना जाए? वैसे हिन्दी की श्रेष्ठता उसके मौलिक अभिव्यक्ति से है।उमेश महादोषीhttps://www.blogger.com/profile/17022330427080722584noreply@blogger.com