आपका परिचय

गुरुवार, 24 मई 2012

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1, अंक : 08-09, अप्रैल-मई 2012  


।।जनक छन्द।।

सामग्री :  महावीर उत्तरांचली के जनक छंद। 



महावीर उत्तरांचली




सात जनक छन्द




1.
फूलों की रसगन्ध-सी
तन-मन में आ बसी
हो घुलती मकरन्द सी




2.
आकर्षक ये सयन हैं
जिसे देखकर हे पिये
मंत्र-मुग्ध ये नयन हैं


3.
पुलकित उर का तट हुआ
साथ मिला है आपका
तन-मन वंशी वट हुआ


4.
दृश्य छायांकन : अभिशक्ति 
मंत्र-मुग्ध करने लगा
तेरा रूप अनूप है
मन की सुध हरने लगा


5.
घोर निराशा छा गई
देख-देख फिर आपको
आस किरन लहरा गई


6.
सजन मिलन को आय ज्यों
पनघट पे पनहारियां
गगरी छलकत जाय ज्यों


7. 
गोरी तेरे गांव में
स्वर्ग बना शीतल पवन
कल्पवृक्ष की छांव में

  • बी-4/79, पर्यटन विहार, बसुन्धरा एंक्लेव, नई दिल्ली-110096

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1, अंक : 08-09,  अप्रैल-मई 2012 


।।व्यंग्य वाण।।

सामग्री : डॉ. राजेन्द्र मिलन का व्यंग्यालेख इन्टैलकचुअल्स इलैक्शन



डॉ. राजेन्द्र मिलन


इन्टैलकचुअल्स इलैक्शन

   चुनाव कौ मौसम आयो देख हमारे भीतर की चौधराहट ऊ कुलबुलाई। महंगौ सौदा जानके टिकट लेवे की दमखम तौ नाय हती और निर्दलीय खड़े हैबे की हिम्मतऊ जुटा नहीं पाए। बस लोगन में बुद्धिजीवी हैबे की धाक जमावे की सोच कै एक ‘इन्टेलकचुअल्स क्लब’ कौ गठन कर भड़ास निकालबे को प्लान रच डारौ। चार-छह अपने जैसेई बुद्धिजीवीयन कूँ टटौलो। लगौ सबके दिमाग में ऐसौ ही कीड़ा कुलबुला रहौ है। बस बन गई बात। शहर भर के तथाकथित बुद्धिजीवियों को न्यौता भिजवा दयौ। चतुराई जे करी कै अपने पत्तेऊ ओपन नाय करे और बिसात बिछा दई। बुद्धिजीवियों पै समय कौ अभाव हॉवी रहवत ही है पर खावे-पीवे के मामले में काहे कौ समय-बमय? सो भैया अच्छी खासी भीड़ आ जुटी। हमारे गुर्गों ने ‘बुद्धिजीवी सर्किल’ बनवे कौ शिगूफा छेड़ दियौ। मजे की बात जे रही कै सभी जा बीमारी के मरीज निकले!! फिर समय मिलै नाय मिलै, तुरंत दान महाकल्याण कौ फार्मूला आजमाय लियौ गयौ।
    खूब गाढ़ौ विचार मंथन करके हमारे नाम के साथ छै नाम सर्किल पदाधिकारियौं के और आ चिपके। सिकंदर भाई, भीकम राय, बहोरी लाल ‘हीरो’, बरकत साई ‘पापड़ वाले’, छैलो बाबू और शेर सिंह ढोलकिया। हमने गांधीगीरी अपनाई। ‘भाइयो अच्छा हो चुनाव-चकल्लस की चपेट तै बचके सर्वसम्मति ते ही कार्यकारिणी के पदाधिकारी चुन लेयो। आखिर बुद्धिजीवियों की छवि भी तो बचाए रखनी है।’ बात जड़ पकड़ गई। अब सब खुल के बड़ी ते बड़ी कुर्सी पै बैठिवे के लिए अपनी जन्मपत्री बांचवे लगे। ऐसी-ऐसी बुलंदियों की भनक भनभनाबे लगी कि दिमाग चकरघिन्नी खा गयौ। खानदानी पुश्तैनी समाज सेवा की ऐसी कारगुजारियां खुलके आवे लगी कै अस्सी-अस्सी फीट गहरौ गड्ढा खोदवे पैऊ जलस्रोत की नमी तक ढूंढ़े नाय मिलत। जाते फर्जी हलफनामे कौ जज्बा तैयार होतौ हो बस वैसी ही कारिस्तानियों ते मिलती-जुलती जुगाड़बंदी जोर ते चली।
   हमने अपनी टकली खोपड़ी खुजाई। उनके पक्ष में छै पड़ोसियों ते रजाबंदी की बात पूछवै की चाल चल दई। पड़ौसी धर्म तो जगजाहिर हतै ही, बस सभी बगलें झांकबे लगे। सिकंदर भाई कौ चिड़चिड़ौपन और गुस्सैल हेवौ। भीकम राय कौ शैखी मारबो और नकचढ़ौ हेवौै। बहोरी लाल ‘होरी’ बातूनी और नौटंकीबाज हेवौ। पापड़ वाले बरकत साई कौ लालची और मौकौपरस्त हेवौ। छैलो बाबू को जुगाडू व हरफनमौला हेवौ और ढोलकिया कौ कामचोर और दब्बू हेवै कौ महासंग्राम ऐसौ सरूर पै चढ़ौ- बातन ही बातन में गाली-गलौंच, हाथा-पाई और मारपीट भारतीय लोकसभा की बराबरी तौ न कर पाई तोऊ कछू हद तक बुद्धिजरवियों के घुटन्नै उतरवावे तक नौबत जा पहुंची। बुद्धिजीवियों की लफ्फाजी के आगे नक्कारखाने की बोलती शर्मसार है गई!!
    भोज के लिए किराए पर मंगाए गए बर्तन-भांड़े, कुर्सी, शामियाने कौ जो हाल भयौ, हमते मत पूछौ!! शामियाने वाले पहलवान की लाठी धमक ते गले के ऊपर-नीचे कछू चढ़-उतर हूं नही पा रहौ है।
   हाय राम! हे अल्लाह! मेरे वाहे गुरु और गॉड! ऐ तौ नज्जारौ देखवे कूँ आगे नाय मिलै। भले ही बुद्धिजीवी सर्किल नाय बनै। बुद्धिजीवीयन तै जनप्रतिनिधि भले। कम ते कम बे चुनके पहुंचबे पर जुगाड़ करके सरकार तौ बना लेत हैं।
   महाभोज पर जो कर्जा हमने लियौ हतौ वो कैसे चुकैगौ? अंतरआत्माऊ कराहती, पछताती, बलखाती हमें दुत्कारती भई घड़ियां आठोंयाम थू-थू करती रहत हतै। एक शेर मुलाहिजा हो- ‘दिल की बात लबों पर लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं!/हमने सुना था इस बस्ती में, दिलवाले भी रहते हैं!!’

  • मिलन मंजरी, आजाद नगर, खंदारी, आगरा-288002 (उ.प्र.)

अविराम के अंक

अविराम साहित्यिकी 
 (समग्र साहित्य की समकालीन  त्रैमासिक पत्रिका) 

अंक : 2 / अप्रैल-जून 2012  

प्रधान सम्पादिका : मध्यमा गुप्ता
 अंक सम्पादक : डा. उमेश महादोषी 
सम्पादन परामर्श : सुरेश सपन
 मुद्रण सहयोगी : पवन कुमार


अविराम का यह मुद्रित अंक रचनाकारों को  २५ फ़रवरी २०१२ भेज दिया है. अन्य को ०५ मार्च २०१२ तक  प्रेषित किया जायेगा। कृपया अंक प्राप्त होने की प्रतीक्षा १५ मार्च  २०१२ तक करने के बाद ही न मिलने पर पुन: प्रति भेजने का आग्रह करें। सभी रचनाकारों को दो-दो प्रतियाँ अलग-अलग डाक से भेजीं जा रही हैं। इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है-


प्रस्तुति  :  प्र. सम्पादिका मध्यमा गुप्ता का पन्ना (आवरण 2)

लघुकथा के स्तम्भ :  डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति(3) व सूर्यकान्त नागर (6)।

अनवरत-1 :  राम मेश्राम (8), प्रो. सुधेश व डॉ. प्रद्युम्न भल्ला (9), डॉ. सुरेश उजाला व शैलेन्द्र चाँदना (10), डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ व खेमकरण सोमन (11), राजेश आनन्द ‘असीर’ व डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी (12) एवं डॉ. चन्द्रजीराव इंगले व कैलाश गिरि गोस्वामी (13) की काव्य रचनाएं।

सन्दर्भ : युवा पीढ़ी की मानसिकता पर टिप्पणी करती अशोक आनन व किशन लाल शर्मा (14) एवं प्रभुदयाल श्रीवास्तव व कृष्णचन्द महादेविया (15) की लघुकथाएं।
आहट :  डॉ. मिथिलेश दीक्षित एवं ज्योत्सना शर्मा की क्षणिकाएं (16)।

कथा-कहानी :  मुकेश नौटियाल की कहानी ‘दुल्ली चूड़ियारिन’ (17) एवं देवेन्द्र कुमार मिश्रा की लघु कहानी ‘अन्ना के आन्दोलन के बीच....’ (21)। 
कविता के हस्ताक्षर:  रेखा चमोली (23) एवं खदीजा खान (25)।

विमर्श :  ‘केवल लघु आकार ही लघुकथा की पठनीयता का प्रमुख आधार नहीं है’: बलराम अग्रवाल/शोभा भारती द्वारा बलराम अग्रवाल का साक्षात्कार (26)।

व्यंग्य-वाण :  ओमप्रकाश पाण्डे ‘मंजुल’ का व्यंग्यालेख (32)।

कथा प्रवाह :  पूरन मुद्गल (33), राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’ (34), निर्मला सिंह (35), डॉ. कमलेश मलिक (36), किशोर श्रीवास्तव व गांगेय कमल (37), मोह.मुइनुद्दीन ‘अतहर’ व सुनील कुमार चौहान (38),देवी नागरानी व गोवर्धन यादव (39) एवं सुधीर मोर्या ‘सुधीर’ (40) की लघुकथाएँ।

अनवरत-2:  विजय कुमार सत्पथी (41), शिव डोयले व निर्मला अनिल सिंह (42), मो. क़ासिम खाँन ‘तालिब’ व सुनील कुमार परीट (43),एवं डॉ. नौशाद ‘सुहैल’ दतियावी (44) की काव्य रचनाएं।

किताबें :  पसीने में नहाई कविताएं: डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ द्वारा महावीर रंवाल्टा के काव्य संग्रह ‘आकाश तुम्हारा नहीं है’ (45) एवं हिन्दी हाइकु-संसार की प्रामाणिक झांकी: यतीश चतुर्वेदी ‘राज’ द्वारा डॉ. मिथिलेश दीक्षित सम्पादित ‘‘सदी के प्रथम दशक का हिन्दी हाइकु-काव्य’ (46) की परिचयात्मक समीक्षाएं।

सम्भावना :  दो सम्भावनाशील कवि- अमर कुमार चंद्रा एवं रजनीश त्रिपाठी (47)।

चिट्ठियाँ:  अविराम के गत अंक पर प्रतिक्रियाएं (48)।

गतिविधियाँ :  संक्षिप्त साहित्यिक समाचार (50)।

प्राप्ति स्वीकार :  त्रैमास में प्राप्त विविध प्रकाशनों की सूचना (52)।


इस अंक की साफ्ट (पीडीऍफ़) प्रति ई मेल (umeshmahadoshi@gmail.com) अथवा  (aviramsahityaki@gmail.com)  से मंगायी जा सकती है।

इस अंक के पाठक अंक की रचनाओं पर इस विवरण के नीचे टिप्पणी कालम में अपनी प्रतिक्रिया स्वयं पोस्ट कर सकते हैं। कृपया संतुलित प्रतिक्रियाओं के अलावा कोई अन्य सूचना पोस्ट न करें। 


स्मरण-संस्मरण

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1, अंक : 08-09,  अप्रैल-मई 2012 


गुरप्रीत सिंह










राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ : एक संस्मरण


   23 सितम्बर 1908 को बिहार के सिमरिया ग्राम (जिला बेगूसराय) में जन्में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का व्यक्तित्व एवं काव्य
ओज, पौरुष और युगधर्म का दस्तावेज है। घर की आर्थिक कठिनाइयों के कारण उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नौकरी की, पर अपने विद्रोही कवि को हमेशा मुखर रखा।
   जब 1935 में दिनकर जी की राष्ट्रीय भावों से परिपूर्ण कृति ‘रेणुका’ प्रकाशित हुई, तो इसकी सर्वत्र चर्चा हुई। इसकी प्रसिद्धि एवं राष्ट्रीयता से परिपूर्णता की खबर सरकार तक पहुँची तो दिनकर जी को बुलाया गया। मुजफ्फरपुर के तात्कालिक न्यायाधीश बौस्टेड के समक्ष दिनकर जी उपस्थित हुए।
   न्यायाधीश बौस्टेड ने पूछा, ‘‘क्या आप ‘रेणुका’ के लेखक हैं?’’
    दिनकर जी ने उत्तर दिया, ‘‘जी, हाँ।’’
    बौस्टेड ने पूछा, ‘‘आपने सरकार विरोधी कविताएं कयों लिखी हैं? पुस्तक प्रकाशन से पूर्व सरकार से अनुमति क्यों नहीं ली?’’
    दिनकर जी ने निर्भय स्वर में उत्तर दिया, ‘‘मेरा भविष्य साहित्य में है। अनुमति मांगकर प्रकाशन करवाने से मेरा भविष्य बिगड़ जाएगा। ‘रेणुका’ की कविताएं देशभक्ति पूर्ण हैं, सरकार विरोधी नहीं। क्या देशभक्ति अपराध है?’’
   बौस्टेड महोदय उनके उत्तर से प्रभावित हुए। उन्होंने कहा, ‘‘देशभक्ति अपराध नहीं है और वह कभी अपराध नहीं होगी।’’
    फिर दिनकर जी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं हुई।



  • ग्राम व डाक- बगीचा, तह.-रायसिंह नगर, जिला-श्री गंगा नगर-335051 (राज.)



किताबें


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1, अंक : ०8-09, अप्रैल-मई 2012 

{अविराम के ब्लाग के इस अंक में  चार पुस्तकों की समीक्षा  रख  रहे हैं।  कृपया समीक्षा भेजने के साथ समीक्षित पुस्तक की एक प्रति हमारे अवलोकनार्थ (डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर) अवश्य भेजें।}  

।। सामग्री ।।

सहयोगी जी के दुमदार दोहे / किशन स्वरूप (शिवानन्द सिंह 'सहयोगी' जी के दोहा संग्रह  'दुमदार दोहे' पर)
बबूल के जंगल से गुजरती कुछ सकारात्मक कहानियाँ /  डॉ. उमेश महादोषी  (के. एल. दिवान के कहानी  संग्रह 'बबूल का जंगल और उम्मीद के फूल' पर ) 
डॉ. मिथिलेश दीक्षित की हाइकु-रचनाधर्मिता /  राजेन्द्र परदेशी  (डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित पुस्तक 'डॉ. मिथिलेश दीक्षित की  हाइकु-रचनाधर्मिता  : व्यक्तित्व व कृतित्व विवेचन' पर )
हाइकु जगत का वृहद् साक्षात्कार संकलन / यतीश चतुर्वेदी ‘राज’ ( डॉ. मिथिलेश दीक्षित द्वारा हाइकु विषयक साक्षात्कारों के संग्रह ‘परिसंवाद’ पर )



किशन स्वरूप


सहयोगी जी के दुमदार दोहे


   ‘दोहा’ हिन्दी साहित्य का महत्वपूर्ण एवं अत्यन्त सशक्त छंद है और सबसे अधिक विचित्र बात यह है कि दो पंक्तियों में पूरी बात कहने, प्रकट करने की क्षमता इस छंद में है। जिस प्रकार ग़ज़ल के एक शेर में पूरी बात कही जा सकती है, उसी प्रकार दोहे की दो पंक्तियों में गागर में सागर भरा जा सकता है और यह काम हिन्दी के साहित्यकारों यथा तुलसी, कबीर, रहीम, बिहारी आदि ने बखूबी किया है। कबीर और रहीम ने तो नीतिगत सिद्धान्तों का प्रतिपादन, वर्णन बखूबी दोहों के माध्यम से किया है। कबीर की उलटवाँसियाँ समझने में नानी याद आती है।
    दोहे के साथ दुम लगाने का चलन अधिक प्रचलित नहीं है किन्तु दोहे के कथ्य को अधिक सार्थक और प्रभावी बनाने के लिए दुम का प्रयोग जरूरी हो न हो, प्रभावी और सार्थक लगता है।
    श्री शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ जी एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति हैं। इनके गीत और ग़ज़ल की अनेक पुस्तकों से रूबरू होने का मुझे अवसर मिला है। इनकी ग़ज़लें जितनी सहज, सरल हैं, गीत उतने ही प्रभावी और संवेदनाओं से ओत-प्रोत हैं।  सहयोगी जी के दुमदार दोहे भाव, भाषा और अभिव्यक्ति में जितने सशक्त हैं, उतने ही प्रभावशाली और एक चिरस्थायी छाप छोड़ने की क्षमता रखते हैं।
   सहयोगी जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘दुमदार दोहे’ से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।

जहाँ बसी  संवेदना,   वहीं बसा है भाव
कागज पर तैरा गई, वह शब्दों की नाव
पीर का पाल सजाए।

दर्द पिघल आँसू बने, बहता है दरियाव 
कविता विरही तैरती, बन अक्षर की नाव 
भाव पतवार बने हैं।

बूँद-बूँद बन टपकता, अंतस का अहसास
मोती बन बन विहँसता, ठिगना सा विश्वास
 भाव पर पीड़ा भारी।
    कविता के बारे में जो एक प्रसिद्ध उक्ति है कि ‘वियोगी होगा पहला कवि, ......।’ सहयोगी जी के ये दोहे उसी चिरंतन सत्य को प्रतिष्ठापित करते हैं। सहयोगी जी के दोहों में मौसम अठखेलियाँ करता है और जीने का एक उत्साह, उमंग, जोश, प्रेरणा जो भी कहिए, देता हुआ दिखाई देता है। जैसे कि-

धरती जब करती रहे, सुबह शाम तक काम
सूरज को मिलता प्रिये, तब कैसे विश्राम
प्रेम का ऐसा बंधन।

गुपचुप गुपचुप गगन में, रही सँवरती रात
जुगनू की डोली सजी, तारे चले  बरात
चाँद का पता नहीं है।

सूरज चलता तानकर, सिर पर स्वर्णिम छाँह
छाया  चलती  टहलती, पकड़  धूप की बाँह 
  तिमिर है आने वाला।
    सहयोगी जी के दोहे बहुआयामी हैं। पत्नी-पुराण के कुछ दोहे बहुमुखी, सार्थक और हृदयग्राही बन पड़े हैं-

पत्नी घर की लोरियाँ, पत्नी घर की गीति
पत्नी घर की दैनिकी, पत्नी घर की प्रीति
दया की आँख बिलौरी।

बड़ी कुमुदनी हँसमुखी, कलरव का अनुनाद
फूल झरे मुख से तभी, करती जब संवाद
कोकिला पास कुहुकती।
    घर और मकान का अंतर सहयोगी जी के शब्दों में-

घर अब घर लगता नहीं, लगता एक मकान
जब से  गायब  है हुई,  बच्चों की मुसकान
कि नफरत आँख तरेरे।

छल-प्रपंच ने फूँक दी, उसका इतना कान
अहं चला घर छोड़कर, रोता रहा मकान
निजी मजबूरी होगी।

चिन्ता करके मर गया, आधा हुआ शरीर
फिर भी धोखा दे गई, करतल खिंची लकीर
बैठ मत राम भरासे।

गाँव-गाँव हर रूाहर में, घूमा बहुत फकीर
फिर भी मजहब की नहीं, छोटी हुई लकीर
धर्म का पेच निराला।
    दोहा जो  मुझे बहुत अच्छा लगा-

गंगा सागर  से मिली, जहाँ  रेत ही रेत
मिलन नहीं है  देखता, पर्वत  खाई खेत
मिलन है एक पहेली।
   कहाँ तक कहें, सहयोगी जी ने अपनी बहुमुखी, बहुआयामी प्रतिभा दिखाते हुए, ग्रामीण परिवेश, पर्व त्यौहार, जीवन दर्शन, शिक्षा एवं संस्कार आदि विषयों पर भी बड़े सार्थक दोहे कहे हैं। मेरी ओर से बधाई व साधुवाद।
     दुमदार दोहे : दुमदार दोहों का संग्रह। कवि : शिवानन्द सिंह सहयोगी। प्रकाशक :  कुसुम प्रकाशन, 186, इंजीनियर्स कॉलोनी, क्वार्सी बरईपास रोड, अलीगढ़ (उ.प्र.),। पृष्ठ : 112। मूल्य : 120 रुपये ; संस्करण  : 2012।


  • 108/3, मंगल पाण्डेय नगर, मेरठ (उ.प्र.)

राजेन्द्र परदेशी

डॉ. मिथिलेश दीक्षित की हाइकु-रचनाधर्मिता 

   हिन्दी साहित्य के लब्धप्रतिष्ठित पत्रकारिताभूषण डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव के द्वारा सम्पादित ग्रन्थ ‘डॉ. मिथिलेश दीक्षित की हाइकु-रचनाधर्मिता’ में हाइकु-काव्य की चर्चित और प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ. मिथिलेश दीक्षित की हाइकु-लेखन की विविध भंगिमाओं पर, उनके शिल्प के विविध प्रयोगों पर तथा उनके आस्थापरक-मूल्यपरक चिन्तन से सम्बन्धित विविध आयामों पर देश के जाने-माने हाइकुकारों, निबन्धकारों, सम्पादकों और समीक्षकों के समीक्षात्मक आलेखों द्वारा प्रकाश डाला गया है। ग्रन्थ को चार खंडों में विभक्त किया गया है। प्रथम खंड में उनके हाइकु-लेखन के कथ्य एवं शिल्प पर डॉ. बी.के.सिंह, नरेश चन्द्र सक्सेना ‘सैनिक’, डॉ. सुधेश, डॉ. सुन्दर लाल कथूरिया, नलिनीकान्त, नीलमेन्दु सागर, डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र, उर्मिला कौल, डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव, डॉ. वेद प्रकाश अमिताभ, डॉ. बिन्दुजी महाराज ‘बिन्दु’, डॉ. रामनिवास ‘मानव’, रामनिवास पन्थी, श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी आदि अनेक विद्वानों के समीक्षात्मक आलेख हैं। द्वितीय खण्ड में उनके हाइकु-संग्रहों- स्वर विविध क्षणबोध के, सदा रहे जो, तराशे पत्थरों की आँख, लहरों पर धूप, एक पल के लिए, अमरबेल आदि पर प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. भगवतशरण अग्रवाल, डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’, डॉ. सन्त लाल विश्वकर्मा, डॉ. त्रिभुवन राय, डॉ. मीता सिन्हा ‘आशा’, डॉ. बृजेश त्रिपाठी, यतीश चतुर्वेदी, निर्मल शुक्ल, हरिश्चन्द्र शाक्य, डॉ. शिवप्रसाद मिश्र, डॉ. राजेन्द्र मिलन आदि ने विवेचन-विश्लेषण और मूल्यांकन किया है। तृतीय खण्ड में डॉ. दीक्षित के सैकड़ों प्रतिनिधि हाइकु संग्रहीत किये गये हैं। साथ ही, उनके हाइकु लम्बी कविता, तांका, तांका-बन्ध, हाइकु-मुक्तक आदि नवीन-नवीन प्रयोग भी प्रस्तुत हुए हैं। ग्रन्थ के चतुर्थ खण्ड में डॉ. दीक्षित की हाइकु-रचनाधर्मिता पर उनके प्रकाशित हाइकु-ग्रन्थों पर देश के विभिन्न प्रदेशों के लगभग 100 विद्वानों के अभिमत तथा उन पर तथा प्रकाशित हाइकु-साहित्य पर विभिन्न प्रतिक्रियाएँ दी गयी हैं। हिन्दी हाइकु जगत में किसी हाइकुकार की समग्र हाइकु रचनाधर्मिता पर विस्तृत कलेवर (दो सौ चौबीस पृष्ठों) का यह प्रथम ग्रन्थ है। 
    डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव ने स्वयं ही प्रकाश डाला है कि डॉ. मिथिलेश दीक्षित की रचनाओं में अद्भुत प्रवाहमयता, तारतम्य, गुम्फन एवं शिल्प-संयोजन है। उनके अनेक कालजयी हाइकु मराठी, बंगला और अंग्रेजी में अनूदित हो चुके हैं। अनेक अनुवाद-रूप में संकलनों में भी समाविष्ट हुए हैं। अपने देश की एक कर्मठ, जागरूक एवं तेजस्विनी सृजनकत्री डॉ. दीक्षित की हाइकु-रचनाधर्मिता का एक साथ परिचय प्राप्त हो सके, अपनी रचनाओं के माध्यम से, आस्था और प्रेम का सन्देश देने वाली, मानवतावादी कवयित्री, निबन्धकार और समीक्षक इस विदुषी के चिन्तन और हाइकु काव्य-कला की जानकारी पूरी दुनियां को मिल सके, इस प्रयोजन से पुस्तक प्रकाश में लायी जा रही है। कृतित्व से पूर्व व्यक्तित्व की एक झलक मात्र देने के कारण, पुस्तक के प्रारम्भ में दो आलेख दिये गये हैं। देश के विभिन्न राज्यों के हिन्दी रचनाकारों, शिक्षकों एवं समीक्षकों ने डॉ. मिथिलेश दीक्षित के लेखन की मुक्तकंठ से सराहना की है।

डॉ. मिथिलेश दीक्षित कर हाइकु-रचनाधर्मिता : व्यक्तित्व व कृतित्व विवेचन। सम्पादक :  डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव। प्रकाशक : अमित प्रकाशक, गाजियाबाद (उ.प्र.)। मूल्य : रु.350/-। संस्करण :  2011।


  • भारतीय साहित्य अकादमी, चाँदन रोड, फरीदी नगर, लखनऊ-226015 (उ.प्र.)

डॉ. उमेश महादोषी

बबूल के जंगल से गुजरती कुछ सकारात्मक कहानियाँ

    हमारे देश में पौराणिक/धार्मिक महत्व के शहरों की एक खास विशेषता है, इन शहरों के भौतिक एवं चारित्रिक दृष्टि से जितना साफ-सुथरे होने की अपेक्षा/संकल्पना की जाती है, वास्तव में ये उतने ही हर प्रकार की गंदगी से भरे हुए हैं। हरि यानी ईश्वर के  धामों का प्रवेश द्वार माना जाने वाला हरिद्वार शहर भी इससे अछूता नहीं है। इस धार्मिक महानगरी में यूँ तो धर्म साक्षात स्वरूप में विचरण करता-सा दिखता है, लेकिन कोई खोजी प्रवृत्ति का व्यक्ति थोड़ा सा भी इसके अन्दर झाँककर देखने का प्रयास करे तो भौतिक गंदगी के साथ-साथ चारित्रिक गंदगी का बहुत बड़ा साम्राज्य इस शहर के बदन पर भयंकर कोढ़-सदृश दिखाई दे जायेगा। सुप्रसिद्ध कथाकार श्री के.एल. दिवान के नये कहानी संग्रह ‘बबूल के जंगल और उम्मीद के फूल’ की कई कहानियों में इस शहर की महागन्दगी पहाड़ों पर पानी के सोतों की तरह फूट पड़ी है। दिवान साहब के जीवन का अधिकांश हिस्सा इसी शहर में बीता है। उन्होंने अपनी साहित्य साधना और शिक्षा के क्षेत्र में किया सारा का सारा अवदान इसी शहर की धरती पर बैठकर किया है। स्वाभाविक है उनके अनुभवों में इस शहर की मिट्टी के कण-कण का रूप-स्वरूप गहरे तक पैठा होगा। उन्होंने शहर की गन्दगी (जो सिर्फ इस शहर की ही नहीं है अब सर्वव्यापी हो गई है) और उसके दुष्परिणामों को देखा है। दूसरी ओर चूँकि वह उस पीढ़ी का    प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसके कुछ आदर्श थे, उसूल थे; जिनके लिए जीवन के बड़े-बड़े सुखों को कुर्बान किया जा सकता था। ऐसे में सड़ांध युक्त कीचड़ में लोटते सुअरों को और उनके साथ गाय-बैलों, हिरणों, घोड़ों आदि को भी, वह भी हरिद्वार जैसे शहर में देखते होंगे, तो दुःख तो होगा ही होगा। अपनी इस पीड़ा को उन्होंने एक साहित्यकार के रूप में सिर्फ व्यक्त ही नहीं किया है, अपितु उसके दुष्परिणामों के प्रति आगाह भी किया है और समाज का मार्गदर्शन भी किया है। मार्गदर्शन इस रूप में कि ऐसी स्थितियों से जनित तमाम निराशाओं के मध्य भी एक लेखक के रूप में वह उम्मीदों का दामन कभी नहीं छोड़ते और इसकी छाप पाठक के मनोमस्तिष्क में भी सफलतापूर्वक उतारते दिखाई देते हैं।
    इस कहानी संग्रह में छोटी-बड़ी बारह कहानियाँ संग्रहीत हैं। बबूल का जंगल, फिसलते-फिसलते, दरार, परिवर्तन की ओर बढ़ते कदम, मौत बांटती मांगती जिन्दगियाँ, जिन्दगी के दो सिपाही कहानियों में कथाकार ने उस गन्दगी को बखूबी बेपर्दा किया है, जिसकी चर्चा ऊपर की गई है। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संकेतों को समझकर यह कहना गलत नहीं होगा कि इसका प्रेरणा स्रोत हरिद्वार के वातावरण में ही निहित है। ‘बबूल का जंगल’ में उन्होंने साधु-संतों के पास जमा अकूत धन का कैसा उपयाग होता है और उससे कैसे-कैसे भक्त पैदा होते हैं, उस अकूत धन से रिश्तों और मर्यादाओं की कैसी-कैसी परिभाषाएँ लिखी जाती हैं, इसे विस्तार से दर्शाया है। यद्यपि यह कहानी भाषा के स्तर पर कुछ ढीली पड़ गयी है, तदापि नायिका को जिस प्रकार संघर्ष के प्रतीक के रूप में उभारा है, उससे कहानी अन्ततः अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही है। ‘फिसलते-फिसलते’ एवं ‘जिन्दगी के दो सिपाही’ कहानियों में अय्यासी की गन्दगी के दुष्परिणामों को तो दर्शाया ही है, समाज सेवा के बहाने ‘वैगर हाउस’ एवं नारी निकेतन बगैरह जैसे सामाजिक संस्थानों के दुरुपयोग की असलियत भी प्रभावी ढंग से सामने रखी गयी है। अय्यासी का अन्धापन किस तरह माँ समान सास और दामाद के पवित्र रिश्ते को भी तार-तार कर देता है, इसे ‘दरार’ कहानी में दर्शाया गया है। ‘फिसलते-फिसलते’ में यद्यपि दिवान साहब अपनी पीढ़ी के परम्परागत दृष्टिकोंण से आत्महत्या के विचार के ऊपर जीवन की प्रेरणा का सन्देश देने में सफल रहे हैं, परन्तु अय्यासी के लिए रिश्तों को तार-तार कर देने वालों को जाने-अनजाने खुला छोड़ गये हैं। ‘परिवर्तन की ओर बढ़ते कदम’ में तमाम गन्दगी को उघाड़ते हुए भी दिवान साहब एक बेहद सकारात्मक और चिन्तनशील दृष्टिकोंण लेकर सामने आते हैं। वह एक शिक्षाशास्त्री भी हैं और शिक्षा के प्रकाश को फैलाने के प्रबल पक्षधर भी। इस बात को उन्होंने इस कहानी, खासकर कहानी के अन्त में जो सपना-सा वह कहानी के नायक की आँखों में डालते हैं, के माध्यम से स्पष्टतः रखा है। पर एक खास बात इस कहानी में और है, तथाकथित पढ़े-लिखे, सभ्य और बड़े कहे जाने वाले लोगों में शिक्षा का प्रतिबद्धित प्रभाव देखने को नहीं मिलता, वह प्रभाव अक्सर अनपढ़, गंवार और पथभ्रष्ट कहे जाने वाले खानाबदोश बंजारों में भी दिख जाता है। कहानी के नायक और मनचली उर्फ ममता के मध्य चर्चा में ममता के मुख से निकले इन शब्दों पर गौर कीजिए- ‘......अजीब बात है हमें बुरी लड़कियाँ कहा जाता है....आपसे पढ़कर अंकल मैं आपको बदनाम नहीं करना चाहती। फिर......हम अपने गुरुओं को पथभ्रष्ट नहीं करते.......मैं अब आपके पास कभी नहीं आऊगी।’ निश्चित रूप से कहानी का यह प्रसंग कृत्रिम नहीं है, लेखक ने थोपा नहीं है, यह एक स्वाभाविक प्रसंग है। एक आस्था है, एक चिन्तन है, एक दर्शन है; अनौपचारिक शिक्षा का प्रतिबद्धित प्रभाव है, जो आंशिक रूप में ही सही तथाकथित छोटे लोगों में आज भी जीवित है। कीचड़ में खिले कमल की तरह! कहानी को यह प्रसंग एक ऊँची चोटी पर ले जाकर खड़ा कर देता है। 
    दिवान साहब का आशावाद और तमाम निराशाओं के मध्य भी जीवन को जीने के प्रति नजरिया कितना मजबूत और सकारात्मक है, इसे देखा जा सकता है ‘मौत बांटती मांगती जिन्दगियाँ’ कहानी में। अय्यास पिता के भ्रष्ट आचरण के प्रति विद्रोह करके कहानी की नायिका शान्ति की खोज में हरिद्वार आती है, लेकिन वहाँ भी तमाम तरह की गन्दगी के बीच उसे अशान्ति ही मिलती है। लेकिन लेखक इस अशान्ति के मध्य भी बेहद स्वाभाविक ढंग से जीवन को जीने का रास्ता दिखा देता है। यह निश्चित रूप से आज की युवा पीढ़ी से वरिष्ठ पीढ़ी के सृजक की एक अपेक्षा है, एक सम्भावना है जिसे लेखक युवा पीढ़ी में टटोलता है, यह एक लेखक की सृजनात्मकता है। यही कहानी की उद्देश्यपरकता हो सकती है।
    अन्य कहानियों में ‘कपड़ा’ एक संवेदना प्रधान सकारात्मक कहानी है। इस कहानी में आजादी के बाद देश के बँटबारे के समय की भयावहता के स्मरण में कुछ सकारात्मक दृश्यों को डालकर साम्प्रदायिक सद्भाव की पक्षधरता को भी दर्शाया गया है। ‘कपड़ा’ में संवेदना के साथ सकारात्मक कल्पनाशीलता देखने को मिलती है, जो कभी-कभी यथार्थ की धरती पर भी उतरती दिखाई दे जाती है।
‘मदर्स डे’ एवं ‘मुलाकात मास्टर गुलाब सिंह से’ कहानियों में वृद्धों के प्रति सन्तानों के उपेक्षा-भाव को उजागर किया गया गया है। लेकिन ‘मदर्स डे’ में इस उपेक्षा पर जहाँ सकारात्मक संवेदना को पूरी सिद्दत से तरजीह दी गयी है, वहीं ‘मुलाकात मास्टर गुलाब सिंह से’ में वृद्धावस्था के संघर्ष को। ‘मदर्स डे’ में एक बार फिर लेखक ने युवा पीढ़ी पर अपना भरोसा जताया है और उससे अपनी अपेक्षाओं को उजागर भी किया है। अनुभवों के धनी दिवान साहब जानते हैं, मूल तो गया, ब्याज समय पर और ईमानदारी से मिलता रहे तो समय की धड़कनें  अपनी गति खोने से बच जायेंगी। ‘अपनों से सच्ची मुलाकात’ में चारित्रिक गन्दगी में पैदा होते रिश्तों की सडांध के यथार्थ को दर्शाया गया है। लेकिन लेखक इस सड़ांध के यथार्थ के खिलाफ संघर्ष के बाज को अपने कंधे पर बैठाकर चलता है, जो एक झपट्टा मारता है और तथाकथित पारिवारिक मर्यादाओं के भ्रमजाल को पंजे में दबाकर उड़ जाता है। कहानी का अन्त प्रभावित करता है। बाकी बची एक कहानी ‘कड़वाहट’ में मुझे कहानी नज़र नहीं आई। इसे क्या कहूँ.....शायद यथार्थपरक कथ्य प्रधान गद्य-गीत कहने से काम चल जाये। 
    संग्रह का शीर्षक काफी बड़े आकार का हो गया है और ऐसा लगता है, जैसे किन्ही दो कहानियों के शीर्षकों को मिलाकर बनाया गया हो। परन्तु ऐसा है नहीं। ‘बबूल का जंगल’ शीर्षक से तो एक कहानी इस संग्रह में है, पर ‘उम्मीद के फूल’ किसी कहानी का शीर्षक नहीं है। निश्चित रूप से बबूल के जिस जंगल से होकर ये कहानियां गुजरती हैं, उसमें सकारात्मक दृष्टिकोंण का एक पेड़ भी दिखाई देता है और उस पर खिले हुए लेखक की उम्मीदों के फूल भी। हो न हो शीर्षक यहीं से आया है और अपनी सार्थकता भी सिद्ध करता है। प्रूफ की कई गलतियाँ अखरती हैं, कुछ शब्द तो जब एक जगह गलत हुए तो आगे गलत होते ही गये हैं। आवरण थोड़ा आकर्षक और वाइन्डिग मजबूत होती तो पुस्तक भौतिक रूप में भी ज्यादा अच्छी लगती।
     बबूल का जंगल और उम्मीद के फूल : कहानी संग्रह। कथाकार : के. एल. दिवान। प्रकाशक : हिन्दी साहित्य साधना प्रकाशन, ज्ञानोदय अकादमी, 8, निर्मला छावनी, हरिद्वार-249401 (उत्तराखंड)/मूल्य  : रु. 200/- मात्र/पृष्ठ 100, संस्करण : नवम्बर 2011।


  • एफ-488/2,गली सं.11,राजेन्द्रनगर, रुड़की-247667, जिला-हरिद्वार (उत्तराखंड)


यतीश चतुर्वेदी ‘राज’

हाइकु जगत का वृहद् साक्षात्कार संकलन

   हिन्दी साहित्य की सुप्रसिद्ध हाइकुकार एवं समीक्षक डॉ. मिथिलेश दीक्षित के द्वारा सम्पादित ‘परिसंवाद’ हिन्दी हाइकु जगत का प्रथम वृहद् साक्षात्कार संग्रह है, जिसमें प्रसिद्ध समीक्षकों एवं हाइकुकारों के हाइकु-काव्य के विषय में डॉ. दीक्षित के द्वारा लिये गये साक्षात्कार संकलित हैं। ग्रन्थ में विभिन्न विद्वानों के साक्षात्कारों द्वारा हाइकु-कविता के उद्भव, स्वरूप, विकास, कथ्य, शिल्प, लोकप्रियता एवं सम्भावनाओं पर पर्याप्त विवेचना है। हाइकु-काव्य के विविध आयामों पर साक्षात्कारकत्री द्वारा सुश्री उर्मिला कौल, डॉ. अंजलि देवधर, डॉ. कमल किशोर गोयनका, डॉ. भगवतशरण अग्रवाल, कमलेश भट्ट ‘कमल’, डॉ. जगदीश ‘व्योम’, नलिनीकान्त, नीलमेन्दु सागर, डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव, राधेश्याम, राजेन्द्र परदेशी, डॉ. विद्या विन्दु सिंह आदि 31 हाइकुकारों एवं समीक्षकों के साक्षात्कार लिये गये हैं। उर्मिला कौल ने हाइकु को परिभाषित करते हुए कहा कि यह जीवन के साक्षात्कार का अनुभूति-प्रधान बिम्बात्मक काव्य है। डॉ. कमल किशोर गोयनका ने बताया कि हाइकु मूलतः अनुभूति की कविता है। मानव मन जब घनीभूत अनुभूतियों से आवेगमय होता है तथा उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म आवेग अभिव्यक्ति के लिए व्याकुल होते हैं, तो हाइकु का जन्म होता है। हाइकु का प्रकृति से अटूट सम्बन्ध है, परन्तु यह ऋतुकाव्य न होकर ऋतुबोध का काव्य है। कमलेश भट्ट ‘कमल’ के अनुसार इण्टरनेट पर हाइकु ने अपनी अन्तर्राष्ट्रीय छवि के साथ पहले ही अच्छा-खासा स्थान प्राप्त कर लिया है। राधेश्याम के अनुसार हाइकु का प्रत्येक शब्द एक अनुभूति का दर्पण है। हाइकु कविता शुद्ध अनुभूति के सूक्ष्म आवेगों की सरलतम एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। लय, ध्वनि, शब्दार्थ ही हाइकु का सौन्दर्य है। नीलमेन्दु सागर ने हाइकु के निर्धारित शिल्प की अनिवार्यता पर बल दिया है। उनके विचार से हाइकु के लिए परम्परागत शिल्प की प्रतिबद्धता सर्वथा उपयुक्त है, अन्यथा वह हाइकु नहीं रहकर कुछ और हो जायेगा। डॉ. बिन्दुजी महाराज ‘बिन्दु’ ने ऋतुबोध को हाइकु की विशिष्ट पहचान माना है। डॉ. भगवताशरण अग्रवाल हाइकु का भविष्य सभी सन्दर्भों में उज्जवल मानते हैं। डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव ने हाइकु को अलंकारविहीन गहन अभिव्यक्ति की कविता माना है। राजेन्द्र परदेशी हाइकु के भविष्य के प्रति आश्वस्त हैं। वे मानते हैं कि हाइकु के साथ उसका युग जुड़ा है। डॉ. मिथिलेश दीक्षित ने अपने सम्पादकीय में स्पष्ट कर दिया कि लय तो हाइकु-कविता में सौन्दर्य के रंग भर देती है, तुकान्तता हो या नहीं हो। तुकबन्दी के प्रयास में कभी-कभी कविता में सम्प्रेषणीयता बाधित हो जाती है; सटीक शब्दावली का अभाव हो जाता है, प्रासंगिकता और प्रयोजन में व्यवधान आ जाता है, क्योंकि कविता में शिल्प से पहले कथ्य महत्वपूर्ण होता है। भावों के सहज प्रवाह में तुकान्तता अल्पायास ही आ जाये, तो बहुत ठीक है, अन्यथा बनावट से आकृति बनी रहती है, आत्मा विलुप्त हो जाती है। इस प्रकार सृजन, शोध एवं समीक्षा के क्षेत्र में भी यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी और महत्वपूर्ण है।

परिसंवाद : डॉ. मिथिलेश दीक्षित द्वारा हाइकु विषयक साक्षात्कारों का संग्रह। सम्पादक :  डॉ. मिथिलेश दीक्षित। प्रकाशक :  समन्वय प्रकाशक, गाजियाबाद (उ.प्र.)। मूल्य : रु.350/-। संस्करण : 2011।


  • ई-2149, राजाजीपुरम्, लखनऊ-226017 (उ.प्र.)

कुछ और महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ/डॉ. उमेश महादोषी


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, संयुक्तांक  : 8 व 9, अप्रैल-मई  २०१२  


{अविराम के ब्लाग के इस  स्तम्भ में अब तक हमने क्रमश:  'असिक्नी', 'प्रेरणा (समकालीन लेखन के लिए)', कथा संसार, संकेत, समकालीन अभिव्यक्ति,  हम सब साथ साथ, आरोह अवरोह , लघुकथा अभिव्यक्ति, हरिगंधा,  मोमदीप एवं सरस्वती सुमन   साहित्यिक पत्रिकाओं का परिचय करवाया था।  इस  अंक में  हम दो  और  पत्रिकाओं 'एक और अंतरीप' एवं 'दीवान मेरा' पर अपनी परिचयात्मक टिप्पणी दे रहे हैं।  जैसे-जैसे सम्भव होगा हम अन्य  लघु-पत्रिकाओं, जिनके  कम से कम दो अंक हमें पढ़ने को मिल चुके होंगे, का परिचय पाठकों से करवायेंगे। पाठकों से अनुरोध है इन पत्रिकाओं को मंगवाकर पढें और पारस्परिक सहयोग करें। पत्रिकाओं को स्तरीय रचनाएँ ही भेजें,  इससे पत्रिकाओं का स्तर तो बढ़ता ही है, रचनाकारों के रूप में आपका अपना सकारात्मक प्रभाव भी पाठकों पर पड़ता है।}

एक और अन्तरीप : रचना और विमर्श के मध्य संतुलन साधती महत्वपूर्ण पत्रिका


    पुनर्प्रकाशन के बाद ‘एक और अन्तरीप’ के तीन अंक आ चुके हैं। मानव मुक्ति को समर्पित इस प्रभावशाली त्रैमासिक साहित्यिकी में सृजनात्मक रचनाओं और विमर्श के मध्य सन्तुलन बनाये रखने का अच्छा प्रयास किया जा रहा है। हर अंक में विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों पर पाँच-सात आलेखों, एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार, तीन-चार समीक्षाओं एवं सम्पादकीय के माध्यम से विमर्श के लिए पर्याप्त मंच उपलब्ध कराया जा रहा है। दूसरी ओर पत्रिका के सृजनात्मक दायित्व का बोध कराती तीन-चार कथाकारों की कहानियाँ व लघुकथाएँ, पाँच-सात समकालीन कवियों की सामयिक कविताएँ, व्यंग्य और संस्मरण आदि विधाओं की स्तरीय रचनाएँ। निश्चित रूप से पत्रिका के साहित्यिक अभिरुचि के पाठकों के लिए तथा साहित्य के सरोकारों को पूरा करने के लिए ‘एक और अन्तरीप’ अपने में काफी कुछ समेटे हुए है।
    तीनों अंकों में सम्पादकीय लघु-पत्रिकाओं और उनके सन्दर्भ में ‘एक और अन्तरीप’ के औचित्य, महत्व और लेखकों से उनकी रचनात्मक सहयोगाकांक्षाओं पर केन्द्रित रहे हैं। बेहद सटीक-सारगर्भित रूप में कई प्रश्नों (जो अधिकांशतः मौखिक माध्यमों से या व्यवहारिक रूप में उठाये जाते रहे हैं) के उत्तर दिये गये हैं और लघु-पत्रिकाओं के प्रकाशन को उत्साहित करने का काम किया है। प्रेम कृष्ण शर्मा जी का यह कथन प्रेरणाशील है- ‘हमें इस बात की चिन्ता नहीं करनी चाहिए कि उनकी प्रसार संख्या कम है, उनका प्रभाव क्षेत्र बहुत छोटा है या कि आम आदमी तक उनकी पहुँच नहीं है।......हमारी नज़र तो उन नेत्रों पर होनी चाहिए जिनमें अभाव के आंसू हैं तथा शोषण चक्र की बेबसी से जो पूरी तरह त्रस्त हैं।’ उनकी इस बात से असहमति नहीं हो सकती कि ‘लघु-पत्रिका निकालना कोई विलासिता नहीं है, बल्कि अपने रक्त से उस हथियार का निर्माण करना है जो मानव मुक्ति की लड़ाई में कारगर होकर मानव को शोषण चक्र से मुक्त करेगा।’ इसलिए जब भी कोई लघु-पत्रिका चाहे जितने छोटे रूप में, चाहे जितने कम संसाधनों के साथ चाहे, जितने कम समय के लिए सामने आये, उसके औचित्य पर प्रश्न करने की बजाय उसे एक सही दिशा में ले जाने के लिए जैसा और जितना भी सहयोग करने की स्थिति में हम हों, हमें करना ही चाहिए। लघु-पत्रिकाओं का औचित्य उनके प्रकाशकों/संचालकों/संपादकों के साहस में स्वयं सिद्ध होता है। और जैसा कि प्रेम कृष्ण जी ने ‘एक और अन्तरीप’ को एक बड़े महाभियान का छोटा सा अंश कहकर इंगित भी किया है, निश्चित रूप से लघु-पत्रिकायें एक दूसरे की पूरक होती हैं और उनकी ताकत समेकित एवं संयुक्त होकर समाज में बड़े सकारात्मक बदलावों की प्रेरक बनती है। जो लोग इस बात को नहीं समझ सकते, वे शायद साहित्य के महत्व को भी नहीं समझ सकते। ‘एक और अन्तरीप’ के बहाने लघु-पत्रिकाओं के लिए रचनात्मक सहयोग की उनकी अपेक्षा को सिर्फ एक अपेक्षा नहीं माना जाना चाहिए, यदि रचनाकार और लघु-पत्रिकाएं एक ही पथ के राही हैं, तो एक-दूसरे पर एक-दूसरे का अधिकार मानना चाहिए, उनके मध्य साधिकार सम्बन्ध विकसित होने चाहिए। संघर्षरत रचनाकार और लघु-पत्रिकाएं बहुधा यह अधिकार एक-दूसरे को देकर चलते भी हैं, परन्तु बहुत सारे स्थापित रचनाकारों के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। उनका नज़रिया लघु-पत्रिकाओं के प्रति बहुत सहयोगपूर्ण नहीं होता है, इस सन्दर्भ में प्रेम कृष्ण जी का दर्द उभरकर दूसरे व तीसरे अंक के सम्पादकीयों में आया भी है। उम्मीद है आने वाले समय में स्थापित रचनाकारों के दृष्टिकोंण में सकारात्मक परिवर्तन आयेगा। यदि कहीं कोई लघु-पत्रिका भी अपने होने की गम्भीरता को नहीं समझ पा रही है, तो उसे भी आत्म-मंथन करना चाहिए।
    एक बात लघु-पत्रिकाओं के सन्दर्भ में निकलकर आती है, बहुधा लघु-पत्रिकाएं व्यक्तिगत प्रयासों से ही चल पाती हैं। संगठनगत प्रयास वहीं सफल होते हैं, जहां वे किसी न किसी रूप में या तो सरकार या प्रायोजक संस्था विशेष के नियन्त्रण से जुड़े हैं या संबन्धित संगठन में कोई व्यक्ति विशेष अत्यन्त धैर्य और त्याग-समर्पण की भावना के साथ संगठन के अधीन लघु-पत्रिका को आगे बड़ा रहा है। लघु-पत्रिकाओं के प्रकाशन के सन्दर्भ में अधिकांशतः संगठनों के प्रयास व्यवहारिक स्तर पर सामूहिक ऊर्जा विकसित नहीं ही कर पाते हैं। इसलिए यदि ‘एक और अन्तरीप’ किसी संगठन विशेष के हाथों में जाकर आगे नहीं बढ़ पायी तो इस तथ्य को उस संगठन विशेष में सामूहिक ऊर्जा के अभाव के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए और भविष्य में ‘एक और अन्तरीप’ के प्रकाशन से जुड़े लोग इसे दोहराने से बचें, यही उचित है। वैसे भी यह युगीन सत्य है कि कोई भी संगठन, चाहे वह सामाजिक हो, सांस्कृतिक हो, राजनैतिक हो, बहुधा किसी व्यक्ति या व्यवस्था विशेष के आभा मंडल के इर्द-गिर्द ही सफल हो पाता है। सामूहिक सांगठनिक आभा सामान्यतः दीर्घकालिक प्रभाव सिद्ध नहीं ही कर पाती है।
   रचनाओं का स्तर पिछले तीनों अंको में अच्छा है। एक कवि विशेष की रचनाधर्मिता के मूल्यांकन पर एक आलेख और उसकी कुछ कविताओं को एक साथ पटल पर रखने से निश्चय ही पाठकों को उस रचनाकार को ठीक से समझने का अवसर मुहैया कराता है और उस रचनाकार को उसके सृजन के लिए सम्मानित करने जैसा भी लगता है।
    दूसरे अंक में साहित्यिक पत्रकारिता के सामाजिक सरोकारों पर डॉ. इन्द्र प्रकाश श्रीमाली जी की डॉ. हेतु भारद्वाज जी, प्रो. नन्द चतुर्वेदी जी, डॉ. नन्द किशोर शर्मा जी के साथ बातचीत काफी सार्थक है। तीसरे अंक में डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी के साथ डॉ. रजनीश भारद्वाज जी की बातचीत में जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल पर कई सवालों के जवाब देते हुए डॉ. अग्रवाल जी ने कई नकारात्मक धारणाओं पर अपना सकारात्मक दृष्टिकोंण रखा है। हालांकि इसी अंक में जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल पर श्री नवल किशोर शर्मा जी की रपट तथा सांस्कृतिक संदर्भों में इस तरह के फेस्टीवल के प्रभावों पर आलोचनात्मक दृष्टिकोंण के सन्दर्भ में देखा जाये, तो डॉ. अग्रवाल जी इस फेस्टीवल का पक्ष लेते दिखाई देते हैं। प्रश्न यह उठता है कि ऐसे फेस्टीवल की आलोचना का अन्तिम उद्देश्य क्या होना चाहिए, इन्हें रोकना या इनमें जरुरी सुधारों एवं साहित्य के देशीय एवं सामाजिक सरोकारों के सन्दर्भ में इनका रूपान्तरण? दूसरी बात साहित्य में ग्लैमर और साहित्यिक ग्लैमर जैसे मुद्दों पर क्या दृष्टिकोंण अपनाया जाये? क्या आधुनिक जमाने के युद्ध पुराने जमाने के हथियारों से लड़े जा सकते हैं? साहित्य के मूल उद्देश्यों और सरोकारों को हासिल करने के लिए समूचे साहित्यिक वातावरण को अद्यतन करना क्या जरूरी नहीं है, और यदि हां, तो कितना और कैसे? मुझे लगता है डॉ. अग्रवाल जी के दृष्टिकोंण को इस सन्दर्भ में आधार बनाया जा सकता है और इस दृष्टि से इस बातचीत को बेहद सार्थक माना जाना चाहिए।
    कई महत्वपूर्ण साहित्यकारों के साथ संघर्षरत रचनाकारों की अन्य रचनाएं भी अच्छी हैं। घोषित तौर पर पत्रिका द्विभाषी है, इसलिए एक-दो आलेख अंग्रेजी में भी दिये जा रहे हैं। ‘एक और अन्तरीप’ एक दिशाबद्ध और उद्देश्यपरक पत्रिका है। निश्चित रूप से साहित्य-पटल पर उसकी उपस्थिति जरूरी है। पुनर्प्रकाशन पर ‘एक और अन्तरीप’ का हार्दिक स्वागत एवं प्रेम कृष्ण शर्मा जी और उनकी पूरी टीम को बधाई।
      एक और अन्तरीप : साहित्यिक त्रैमासिकी। प्रधान सम्पादक : प्रेम कृष्ण शर्मा (मो. 09414055811)/सम्पादक द्वय :  डॉ. अजय अनुरागी (मो. 09468791896) एवं डॉ. रजनीश (मो. 09460762293)। सम्पादकीय पता : 1, न्यू कॉलोनी, झोटवाड़ा, पंखा, जयपुर-302012 (राज.)। ई मेल: anuragiajay11@gmail.com। मूल्य: रु. 25/-, वार्षिक सदस्यता: रु. 100/-।




दिवान मेरा : एक नियमित लघु-पत्रिका


 
    अहिन्दी भाषी क्षेत्रों से हिन्दी साहित्य की कोई भी पत्रिका जब नियमित रूप से प्रकाशित होती है, तो यह अपने-आप में एक उपलब्धि होती है। ‘दिवान मेरा’ एक ऐसी ही द्विमासिक लघु पत्रिका है, जो पिछले सात वर्षों से नियमित रूप से नागपुर शहर से प्रकाशित हो रही है। सभी विधाओं की रचनाओं को इसमें स्थान मिलता है। वैचारिक स्तर पर यह पत्रिका भी लघु-पत्रिकाओं के मध्य अपनी जिम्मेवारी समझती है और साहित्यिक यज्ञ में अपनी आहुति दे रही है। सामान्यतः रचनाओं का स्तर साधारण है, पर इन्हीं के मध्य कई अच्छी रचनाएं भी पढ़ने को मिलती हैं। आलेखों और कथा रचनाओं की तुलना में कविता पक्ष कमजोर है। लेखकगण यदि अपनी उत्कृष्ट रचनाएं उपलब्ध करवायें तो इस पत्रिका के रूप में उपलब्ध संसाधन का और भी  बेहतर उपयोग हो सकता है। महाराष्ट्र और आसपास के कई नए रचनाकारों को अपनी रचनाधर्मिता को रखने का एक प्रभावी मंच मिल रहा है, इसे मैं बेहद सकारात्मक मानता हूँ।
    भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना जी के आन्दोलन पर कुछ प्रश्न किए जाते रहे हैं। जैसा कि बहुधा होता है, निश्चित रूप से कुछ गलत लोगों और तौर-तरीकों की शिरकत भी इस आन्दोलन में हुई होगी, पर इससे आन्दोलन के उद्देश्य और प्रासंगिकता संदिग्ध नहीं हो जाती है। आज आम आदमी और शोषण के शिकार लोगों को यदि ताकत मिलती है, उनमें जागरूकता लाई जाती है, तो इसका समर्थन ही होना चाहिए। साहित्यिक जनों से ऐसे आन्दोलन पर प्रश्न करने की उम्मीद नहीं की जाती। हाँ, यदि ऐसे किसी आन्दोलन के कुछ खतरे दिखाई देते हैं, उसमें कुछ घुसपैठिये घुसपैठ करते दिखाई देते हैं, तो उनके प्रति आगाह करने में कोई हर्ज नहीं है। पर यह कार्य पूरी सावधानी के साथ किया जाये कि कहीं से ऐसे सद्प्रयास हतोत्साहित और आम आदमी की पक्षधरता के विरोधी और शोषक मजबूत न होने लगें। इस दृष्टि से दिसंबर 2011-जनवरी 2012 एवं फरवरी-मार्च 2012 अंकों में ‘एकान्त दर्पण’ स्तम्भ में नरेन्द्र परिहार जी को अपने लघु आलेख को संतुलित बनाना चाहिए था। नरेन्द्र जी एक अच्छे विचारक हैं, आम जन के पक्षधर हैं और निश्चय ही उनके उठाए कुछ प्रश्न महत्वपूर्ण हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि जिन चीजों को उन्होंने आपत्तिजनक माना है, उनमें कई बातें वास्तव में आपत्तिजनक मानी जा सकती हैं, पर उनकी वजह से समूचा आन्दोलन औचित्यहीन भी नहीं हो सकता। आन्दोलन को पूरी तरह प्रायोजित कहना उचित नहीं। स्वतः स्फूर्ति का तत्व इस आन्दोलन में कहीं बड़ा था।  दूसरी बात ये बातें उन बातों के समक्ष बहुत छोटी हैं, जिनके खिलाफ अन्ना जी प्रेरित आन्दोलन की पृष्ठभूमि बनी है। मुझे नहीं लगता कि दुनियां का कोई भी जनांदोलन छोटी-मोटी गलतियों का शिकार न होता हो। हां यह अवश्य देखा जाना चाहिए कि कोई गलत उद्देश्य से आन्दोलन को हाईजैक न कर ले। इस सन्दर्भ में यह समझना भी जरूरी है कि जनता आन्दोलन के आधारीय मुद्दों से जुड़ी है, पर आन्दोलनकर्ताओं के साथ जनता ने राजनैतिक पक्षधरता नहीं दिखाई है, और यह बात आन्दोलन के संचालन से जुड़े लोग भी कहीं न कहीं महसूस कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में जनता के मन को समझना जरूरी है। जनता भ्रष्टाचार और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत चाहती है, पर इसके लिए किसी संगठन या पार्टी विशेष के हाथों खेलना उसे मंजूर नहीं है। जनता में आ रही इस परिपक्वता को उत्साहित किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि जब भी अन्ना जी या कोई और ईमानदारी से जनहित के मुद्दे उठायेगा, जनता के बीच एक स्वतःस्फूर्त चेतना दिखाई देगी।
     जहां तक संसद की मर्यादा के हनन का प्रश्न है, यह बात अन्ना जी की ओर से बार-बार स्पष्ट की जा चुकी है कि वे संसद के खिलाफ नहीं हैं, सांसदों के आचरण के खिलाफ हैं। और सांसदो का आचरण कितना गिर गया है, मुझे नहीं लगता इस पर कुछ सिद्ध करने की जरूरत है। यदि ऐसे गलत आचरण वाले सांसदों के खिलाफ बोलना गलत है, तो ऐसी गलती तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध होने वाले हर आन्दोलन में स्वाभाविक रूप से होगी ही। जहां कहीं भी भाषागत अशिष्टता हुई है, उसे दोनों तरफ नियन्त्रित किया जाना चाहिए। जहां तक आन्दोलन के एक पार्टी विशेष के खिलाफ जाने की बात है, सो ऐसी खिलाफत तो राममनोहर लोहिया जी की मुहिम और जयप्रकाश नारायण जी के आन्दोलन में भी हुई थी। तो क्या वे भी गलत थे? राजनैतिक पार्टी के नाम पर कांग्रेस हो, बी.जे.पी. हो, या कोई अन्य पार्टी हो, गलत तो गलत ही है। हर पार्टी को अपनी गलतियों के लिए किसी न किसी रूप में जनाक्रोश सामना तो करना ही पड़ेगा। यदि कोई पार्टी अपने ही लोगों को भ्रष्टाचार में आरोपित होने पर जेल भेजती है, तो इतने मात्र से वह ईमानदार नहीं हो जाती है। सब जानते हैं कि ऐसा भी जनता, मीडिया और न्यायपालिका के दबाव में ही होता है। अन्यथा अपने लोगों को बचाने की कोशिशें और उनके काले कारनामों पर पर्दा डालने की कोशिशें कम नहीं होती हैं। अपितु इसके लिए तमाम पार्टियां और राजनैतिक नेतृत्व निचले दर्जे तक गिरने में भी शर्म महसूस नहीं करते। जिम्मेवारी की भावना को किस तरह से तार-तार किया जा रहा है, किसी से छुपा नहीं है। यदि ईमानदारी की भावना वास्तविक रही होती तो पिछले दिनों कई ऐसे काण्ड हुए हैं, जिनके बाद समूची केन्द्र सरकार को इस्तीफा दे देना चाहिए था। कई राज्यों में भी ऐसी स्थितियां आई हैं। जन-प्रतिनिधियों का सम्मान आज गिर रहा है, तो उसके लिए वे स्वयं जिम्मेवार हैं। और  यदि उन्हें अपना सम्मान पुनः पाना है तो अपने आचरण को स्वयं सुधारना होगा, अपनी प्रतिष्ठा के बारे में उन्हें स्वयं सोचना होगा। माननीय संसद को भी इस विषय में विचार करना चाहिए कि अपने प्रांगण की पवित्रता को कैसे स्थापित करे, कैसे अपने पवित्र प्रांगण में गलत आचरण वाले लोगों को आने से रोके। इस सन्दर्भ में लोकतन्त्र को पुनर्परिभाषित एवं पुनर्स्थापित करने की जरूरत है।
    ‘दिवान मेरा’ का अप्रैल-मई 2012 अंक महान विचारक राममनोहर लोहिया पर केन्द्रित है। इस विशेषांक के माध्यम से कई विषयों पर लोहिया जी के विचारों को सामने रखा गया है, वहीं उनके व्यक्तित्व और विचारों की प्रासंगिकता को भी उकेरा गया है। ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य में लोहिया चिन्तन’ आलेख में ओमप्रकाश शिव जी ने लोहिया जी के चिन्तन के हिन्दी साहित्य पर पड़े प्रभावों का विस्तार से विवेचन किया है। दरअसल लोहिया जी और उनके समय के अनेकों महान साहित्यकार युगीन आवश्यकताओं से जनित चिन्तन के हमराही थे। और एक दूसरे के विचारों का सम्मान-समर्थन करते थे। इस अंक की अपनी प्रासंगिकता है। निश्चित रूप से पाठकों ने इस अंक को मनोयोग से पढ़ा होगा।
     निश्चित रूप से ‘दिवान मेरा’ लघु-पत्रिकाओं के बीच लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। सम्पादकीय टीम को सामग्री के प्रस्तुतीकरण को आकर्षक बनाने पर भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए। महारष्ट्र के साथ-साथ पूरे देश में यह पत्रिका अपना स्थान बनाए, हार्दिक शुभकामनाएं। नरेन्द्र सिंह परिहार जी और उनकी पूरी टीम को बधाई।
    दिवान मेरा : साहित्यिक द्विमासिकी। मुख्य सम्पादक : नरेन्द्र सिंह परिहार/ प्रबन्ध सम्पादक : ओमप्रकाश शिव। सम्पादकीय पता : सी.-004, उत्कर्ष अनुराधा, सिविल लाइन, नागपुर-440001 (महा.)। मोबाइल: 09561775384/07875761187। ई मेल :  nksparihar@gmail.com। मूल्य: रु. 15/-, वार्षिक सदस्यता: रु. 90/-, द्विवार्षिक रु. 150/- तथा पंचवार्षिक रु. 400/- मात्र।

गतिविधियाँ

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : ०1, अंक : 08-09, अप्रैल-मई 2012 

    

 हस्तलेख में जनक छन्द ग्रन्थ योजना
जनक छन्द के आचार्य व प्रणेता डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ जी जनक छन्द के रचनाकारों के ही हस्तलेख में जनक छन्द का वृहद ग्रन्थ तैयार कर रहे हैं। जनक छन्द के कविगण ए-4 आकार के पन्ने पर चारों ओर हाशिया छोड़कर पन्ने के एक ओर काली स्याही से अपना नाम-पता, जनक संबंधी कृतित्व और अपने 10-15 तक उत्तम जनक छन्द डा. अराज जी को उनके पते- बी-2-बी-34, जनकपुरी, नई दिल्ली-58 (फोन 011-25525386/09971773707) के पते पर शीघ्र भेज सकते हैं।(समाचार सौजन्य: डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया अराज)



हिंदी समाज में वैज्ञानिक चेतना का अभाव


      तेजी से बदलती दुनिया में जहाँ विज्ञान ने नए आयाम स्थापित किए हैं, वहीं हमारे रूढ़िवादी समाज में अंधविश्वास की जड़ें भी गहरी हुई हैं। किसी भी समाज के निर्माण में भाषा का योगदान महत्वपूर्ण होता है। भाषा ही विचारों की अभिव्यक्ति है और वही तय करती है कि हमारे समाज की दिशा और दशा क्या होगी? हिन्दी भाषा और साहित्य में उस वैज्ञानिक चेतना की कमी अखरती है जो समाज को तार्किक और विश्वसनीय बनाती है। उक्त विचार ‘विज्ञान-प्रसार’ के निदेशक डॉ. सुबोध महंती ने कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल की रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ में ‘विज्ञान-प्रसार’ और राष्ट्रीय विज्ञान संचार एवं सूचना स्रोत संस्थान (निस्केयर) के सहयोग से पिछले दिनों (26-27 मार्च, 2012) आयोजित ‘वैज्ञानिक मानसिकता और हिंदी लेखन’ विषयक द्वि-दिवसीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए व्यक्त किये।
     ‘निस्केयर’ के वैज्ञानिक डॉ. गौहर रजा ने कहा कि आज विज्ञान की तार्किकता के स्थान पर अंधविश्वास ने जगह ले ली है। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि हम अपनी नई पीढ़ी के सामने ज्ञान-विज्ञान को किस प्रकार वैज्ञानिक ढंग से उसके आधारभूत तत्व - तार्किकता और विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत करें। तभी हम अपने समाज, राज्य और आने वाली पीढ़ियों को वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि से युक्त विश्व-समाज से जोड़ सकते हैं।
    उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ लेखक प्रेमपाल शर्मा ने ‘वैज्ञानिक मानसिकता और समाज’ विषयक अपने व्याख्यान में कहा कि अंधविश्वासी समाज विज्ञान को संकुचित नजरिए से देखता आया है। तर्कों पर आस्था हमेशा भारी पड़ी है। कर्मकांडों को आस्था का प्रश्न मानकर वैज्ञानिक पक्ष का कभी विश्लेषण नहीं किया गया। समाज में प्रचलित धार्मिक विश्वासों का एक सबल वैज्ञानिक पहलू रहा है, उसकेे प्रचार-प्रसार द्वारा हम रूढ़िवादी समाज को अंधविश्वासों से मुक्त कर सकते हैं। 
     अपने स्वागत-संबोधन में महादेवी वर्मा सृजन पीठ के निदेशक प्रो.एल.एस.बिष्ट ‘बटरोही’ ने कहा कि पाठ्यक्रम की माध्यम-भाषा के रूप में जो हिंदी विकसित हुई है, वह या तो अनुवाद की कृत्रिम भाषा है या सुदूर अतीत के व्याकरण से निर्मित अस्पष्ट भाषा। ज्ञान-विज्ञान को अपने परिवेश का हिस्सा बनाने के लिए केवल शब्दों के आयात से काम नहीं चलता, उसके लिए नई मानसिकता और नए रचनात्मक तेवरों के द्वारा भाषा का नए सिरे से निर्माण आवश्यक है। इस अवसर पर देवेंद्र मेवाड़ी की पुस्तक ‘मेरी विज्ञान कथाएँ’ तथा सिद्धेश्वर सिंह के कविता-संग्रह ‘कर्मनाशा’ का विमोचन गणमान्य अतिथियों ने किया।
     संगोष्ठी के द्वितीय सत्र को संबोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार प्रो. गोविन्द सिंह ने कहा कि भाषा और साहित्य की सामान्य अभिव्यक्ति पत्रकारिता में दिखाई पड़ती है। किसी भी घटना पर तात्कालिक प्रतिक्रिया करते समय पत्रकार के विवेक और मानसिकता का विशेष महत्व है। यदि वैज्ञानिक सोच के साथ किसी घटनाक्रम का विश्लेषण किया जाए तो घटना सनसनी के बजाय अधिक विश्वसनीय लगेगी।
    विज्ञान अध्येता एवं कथाकार प्रो. कविता पांडेय ने ‘वैज्ञानिक मानसिकता: हिन्दी क्षेत्र की महिलाओं की भूमिका’ विषयक अपने व्याख्यान में कहा कि हिन्दी समाज में महिलाओं की स्थिति दोयम रही है। ऐसे में उनमें वैज्ञानिक मानसिकता का अभाव स्वाभाविक है। फिर भी शिक्षा के प्रसार के साथ विज्ञान और दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति बेहतर हुई है तो इसका प्रमुख कारण उनकी वैज्ञानिक सोच है।
    विज्ञान प्राध्यापक और साहित्यकार डॉ. नवीन नैथानी ने कहा कि विज्ञान को तार्किक ढंग से नई पीढ़ी तक पहुँचाने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज विज्ञान के साथ ही मानविकी से जुड़े सभी विषयों के पाठ्यक्रम को वैज्ञानिक ढंग से पुनर्प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। पाठ्यक्रम के साथ ही हमारे शिक्षण में भी वैज्ञानिक मानसिकता झलकनी चाहिए। वैज्ञानिक सोच से परिपूर्ण शिक्षक ही रूढ़िवादी समाज में वैज्ञानिक चेतना की अलख जगा सकता है।
     सत्र की अध्यक्षता करते हुए कथाकार, उपन्यासकार एवं ‘समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट ने कहा कि विज्ञान ने हमें अपने समय के साथ संवाद के अनेक अवसर प्रदान किए हैं और विश्व नागरिक के रूप में हमारी जानकारी का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है लेकिन अकादमिक जगत में इसकी हलचल नहीं सुनाई देती। वर्तमान में हिन्दी में लेखन के नाम पर ललित साहित्य की चर्चा होती है, जबकि हमारा समाज ज्ञान के जबरदस्त विस्फोट के दौर से गुजर रहा है।
    समापन सत्र को संबोधित करते हुए चर्चित कवि विजय गौड़ ने कहा कि सामान्यतः विज्ञान को अंग्रेजी से जोड़कर देखा जाता है जो हमारे संस्कारों की भाषा न होकर एक आयातित भाषा है। हिंदी भाषा से जुड़ी अभिव्यक्ति में वह वैज्ञानिक मानसिकता नहीं दिखाई देती जिसे विज्ञान ने बड़े प्रयत्नों से हमारे समय को दिया है। युवा साहित्यकार प्रभात रंजन ने कहा कि हमारी नई पीढ़ी एक ओर अपनी जड़ों से कटती जा रही है, दूसरी ओर नए विश्व में उजागर हो रहे ज्ञान से उसका रिश्ता कमजोर पड़ता जा रहा है। पत्रकार अनिल यादव ने विज्ञान की तार्किकता को संकुचित नजरिए से देखने की बजाय उसे जीवन के जरूरी अंग के रूप में देखने की जरूरत पर बल दिया। सामाजिक विश्लेषक कृष्ण सिंह के अनुसार जीवन का हर पहलू विज्ञान से जुड़ा है लेकिन विज्ञान को हाशिए पर रखकर हम चहुँमुखी विकास की कल्पना नहीं कर सकते।
    सत्र की अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध विज्ञान कथाकार देवेंद्र मेवाड़ी ने कहा कि वैज्ञानिक सोच को अपने जीवन में आत्मसात कर ही हम सर्वांगीण विकास कर सकते हैं। विज्ञान पाठ्यक्रम और शोध के विषय के रूप में ही नहीं बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ा है। हम किसी भी क्षेत्र अथवा विषय से क्यों न जुड़े हों, यदि हमारी सोच वैज्ञानिक होगी तभी हमारा समाज और राष्ट्र सही मायनों में तरक्की कर सकता है। सत्र का संचालन कवि-आलोचक डॉ. सिद्धेश्वर सिंह ने किया। 
    इस अवसर पर प्रतिभागियों के सुझावों पर व्यापक विचार-विमर्श हुआ तथा विभिन्न संस्तुतियों के आधार पर ‘रामगढ़ पत्र’ के प्रारूप का आलेखन किया गया। संगोष्ठी में सत्रानुसार आयोजित विमर्श में साहित्यकार शैलेय, दिनेश कर्नाटक, त्रेपन सिंह चौहान, सृजन पीठ के शोध अधिकारी मोहन सिंह रावत, पत्रकार रोहित जोशी, भास्कर उप्रेती, राहुल सिंह शेखावत, प्राध्यापक प्रो. गंगा बिष्ट, डॉ. सुधीर चंद्र, डॉ. ललित तिवारी, डॉ. गीता तिवारी, डॉ. प्रकाश चौधरी सहित कपिल त्रिपाठी, भरत हर्नवाल, द्रोपदी सिंह, उमा जोशी, रजनी चौधरी, निर्भय हर्नवाल, हिमांशु पांडे आदि ने भाग लिया। अंत में ‘निस्केयर’ के वैज्ञानिक डॉ. सुरजीत सिंह ने सभी प्रतिभागियों और गणमान्य अतिथियों का धन्यवाद व्यक्त किया। 
(समाचार प्रस्तुति: मोहन सिंह रावत वर्ड्स  आई व्यू इम्पायर होटल परिसर, तल्लीताल, नैनीताल-263 002 )



सहयोगी जी की दो पुस्तकों का लोकार्पण
    चर्चित साहित्यकार श्री शिवानन्द सिंह सहयोगी जी की दो काव्य पुस्तकों ‘घर-मुँडेर की सोनचिरैया’ एवं ‘दुमदार दोहे’ का लोकार्पण विगत दिनों मेरठ में डॉ. श्रीकान्त शुक्ल के संचालन में सम्पन्न हुआ। मुख्य अतिथि थे सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ तथा अध्यक्ष थे- उत्तर प्रदेश मासिक के संपादक डॉ. सुरेश उजाला। इस अवसर पर भाषाविद डॉ. कमल सिंह, ग़ज़लकार किशन स्वरूप एवं दूरसंचार मेरठ के वरिष्ठ महाप्रबन्धक श्री शमीम अख्तर एवं अनेक साहित्यकार भी मौजूद रहे। डॉ. अमिताभ ने सहयोगी जी की संवेदनशीलता एवं उनकी गीत रचना पर तथा डॉ. सुरेश उजाला ने सहयोगी जी के काव्य में आंचलिकता के माधुर्य एवं जीवन की विसंगतियों  से प्राप्त प्रेरणाओं पर रोशनी डाली। डॉ. कमल सिंह ने उनके दोहों की विशेषताओं को रेखांकित किया।(समाचार सौजन्य: नवेन्दु सिंह, अलीगढ़)

कथा सागर की साहित्य सम्मान देने की योजना
    सुप्रसिद्ध लघु पत्रिका ‘कथा सागर’ ‘भारतीय साहित्य सृजन संस्थान के साथ मिलकर साहित्य की विभिन्न विधाओं में सृजनरत रचनाकारों को उनके योगदान के लिए सम्मानित करेगी। ये सम्मान क्रमशः उपन्यास (रांगेय राघव साहित्य पुरस्कार), कहानी (राजकमल चौधरी साहित्य पुरस्कार), आंचलिक कहानी (फणीन्द्रनाथ रेणु साहित्य पुरस्कार), कविता (अमृता प्रीतम साहित्य पुरस्कार), लघुकथा (रमेश बत्तरा साहित्य पुरस्कार), नाटक (मोहन राकेश साहित्य पुरस्कार) व हास्य व्यंग्य (हरिशंकर परसाईं साहित्य पुरस्कार) के क्षेत्र में प्रमुखतः दिए जायेंगे। इसके अतिरिक्त अन्य विधाओं में भी ‘कथा सागर साहित्य सम्मान’ प्रदान किए जायेंगे। वर्ष 2009 से अगस्त 2012 के मध्य प्रकाशित कृतियों की दो प्रतियों, लेखक के परिचय, फोटो व रु.100/- प्रवेश शुल्क के साथ प्रविष्टियां 30 सितम्बर 2012 तक मांगी गई हैं। अन्य जानकारी व प्रविष्टियां भेजने के लिए निदेशक, भारतीय साहित्य सृजन संस्थान, प्लाट-6,से.-2, हारुन नगर कालोनी, फुलवारी शरीफ, पटना-5 (मोबा. 09570146864/09122914396 ई मेल: ांजींेंहंतमकपजवत/हउंपसण्बवउ) पर संपर्क किया जा सकता है। (समाचार सौजन्य: डॉ. तारिक असलम ‘तस्नीम’)

सरस्वती सुमन का हाइकु विशेषांक
     सुप्रसिद्ध लघु पत्रिका सरस्वती सुमन का हाइकु विशेषांक वरिष्ठ हाइकु विदुषी डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी के सम्पादन में प्रकाशित हो रहा है। हाइकुकार अपने न्यूनतम 30 हाइकु परिचय व फोटो सहित डॉ. दीक्षित को जी-91, सी, संजयगांधीपुरम्(इन्दिरानगर), लखनऊ-16 (मोबाइल 09412549904) के पते पर भेज सकते हैं। (सूचना सौजन्य: डॉ. मिथिलेश दीक्षित)




 कृष्ण  कुमार यादव को ‘’मानव भूषण श्री सम्मान-2012‘‘ 


      गगन स्वर पब्लिकेशन, गाजियाबाद के तत्वाधान में हिन्दी भवन, नई दिल्ली में आयोजित एक भव्य समारोह में युवा साहित्यकार एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी श्री कृष्ण कुमार यादव को ’मानव भूषण श्री सम्मान-2012’ से सम्मानित किया गया। श्री यादव को यह सम्मान प्रशासन में रहते हुए मानव सेवा एवं मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित दया, क्षमा, करूणा और सदाचार गुणों से मंडित होने के कारण एवं साहित्य सेवा व सामाजिक कार्यों में प्रशंसनीय उपलब्धियों के लिए प्रदान किया गया है। श्री कृष्ण कुमार यादव वर्तमान में इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएँ पद पर कार्यरत हैं। उक्त जानकारी गगन स्वर पब्लिकेशन, गाजियाबाद के  संयोजक श्री अवधेश कुमार मिश्र (एडवोकेट) ने दी।
सरकारी सेवा में उच्च पदस्थ अधिकारी होने के साथ-साथ साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय 35 वर्षीय श्री कृष्ण कुमार यादव की रचनाधर्मिता को देश की प्रायः अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में देखा-पढा जा सकता हैं। विभिन्न विधाओं में अनवरत प्रकाशित होने वाले श्री यादव की अब तक कुल 6 पुस्तकें- अभिलाषा (काव्य संग्रह), अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह), अनुभूतियां और विमर्श (निबन्ध संग्रह) और इण्डिया पोस्ट: 150 ग्लोरियस ईयर्स, क्रान्ति यज्ञ: 1857 से 1947 की गाथा, जंगल में क्रिकेट (बाल-गीत संग्रह) प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डॉ0 राष्ट्रबन्धु द्वारा श्री यादव के व्यक्तित्व व कृतित्व पर ‘‘बाल साहित्य समीक्षा‘‘ पत्रिका का विशेषांक जारी किया गया है तो इलाहाबाद से प्रकाशित ‘‘गुफ्तगू‘‘ पत्रिका ने भी श्री यादव के ऊपर परिशिष्ट अंक जारी किया है। आपके जीवन पर एक पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर: कृष्ण कुमार यादव‘‘ (सं0 डॉ0 दुर्गाचरण मिश्र)  भी प्रकाशित हो चुकी है। शताधिक प्रतिष्ठत संकलनों/पुस्तकों में विभिन्न विधाओं में आपकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं और आकाशवाणी लखनऊ, कानपुर, पोर्टब्लेयर और दूरदर्शन से भी रचनाएँ और वार्ता प्रसारित हो चुके हैं। श्री कृष्ण कुमार यादव ब्लॉगिंग में भी सक्रिय हैं और ‘शब्द सृजन की ओर‘ और ‘डाकिया डाक लाया‘ नामक उनके ब्लॉग चर्चित हैं। श्री कृष्ण कुमार यादव को इससे पूर्व विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और प्रशासन के साथ-साथ सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु इत्यादि अनेकों सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। श्री कृष्ण कुमार यादव को इस सम्मान हेतु बधाईयाँ।  (समाचार प्रस्तुति: गोवर्धन यादव  संयोजक-राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, छिन्दवाड़ा, 103 कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा-480001, म.प्र.)



’’रोशनी का कारवॉ’’ पुस्तक का विमोचन सम्पन्न
      कवि डॉ0 डी0एम0मिश्र की आठवीं पुस्तक ’रोशनी का कारवाँ’ का विमोचन करते हुए वरिष्ठ पत्रकार एवं कवि सुभाष राय ने कहा कि वही कविता बड़ी होती है जो जीवन का परिष्कार करती है। उन्हांेने कहा कि इस संग्रह की ज्यादातर ग़ज़लंे सामाजिक और राजनैतिक चेतना की हैं जो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है। कवि अपने समय के आवेग को भलीभाँति पहचानता है।  मुख्य अतिथि कथाकार शिवमूर्ति जी ने कहा कि डी0एम0मिश्र की पुस्तक में गाँव है। लोक है। कहने का तरीका है। उन्होंने कहा कि उनसे मुझे बड़ी उम्मीदंे हैं। इस अवसर पर कमलनयन पाण्डेय, डा0 राधेश्याम सिंह, डा0 चन्देश्वर, डा0 इन्द्रमणि कुमार व शायर तेवर सुलतानपुरी ने भी पुस्तक एवं डॉ.मिश्र की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डाला। (समाचार सौजन्य :  डॉ. डी.एम.मिश्र)




आकांक्षा यादव को ‘राष्ट्रीय  शिखर श्री सम्मान’ 
    इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान ने युवा कवयित्री, साहित्यकार एवं चर्चित ब्लॉगर आकांक्षा यादव को ‘राष्ट्रªीय शिखर श्री सम्मान’ से सम्मानित किया है। आकांक्षा यादव को यह सम्मान अपने जीवन के अमूल्य क्षणों में साहित्य सेवा एवं सामाजिक कार्यों में रचनात्मक योगदान के लिए प्रदान किया गया है। आकांक्षा यादव इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएं एवं युवा साहित्यकार श्री कृष्ण कुमार यादव की पत्नी हैं। उक्त जानकारी इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान भारत (कैम्प-बालाघाट, मध्य प्रदेश) के राष्ट्रªीय अध्यक्ष श्री वीरेन्द्र सिंह गहरवार ने दी। 
      गौरतलब है कि आकांक्षा यादव की रचनाएँ देश-विदेश की शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं। नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक सरोकारों सम्बन्धी विमर्श में विशेष रूचि रखने वाली आकांक्षा यादव के लेख, कवितायें और लघुकथाएं जहाँ तमाम संकलनो/पुस्तकों में प्रकाशित हुई हैं, वहीं आपकी तमाम रचनाएँ आकाशवाणी से भी तरंगित हुई हैं। पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ इंटरनेट पर भी सक्रिय आकांक्षा यादव की रचनाएँ तमाम वेब/ई-पत्रिकाओं और ब्लॉगों पर भी पढ़ी-देखी जा सकती हैं। व्यक्तिगत रूप से ‘शब्द-शिखर’  और युगल रूप में ‘बाल-दुनिया’, ‘सप्तरंगी प्रेम’ व ‘उत्सव के रंग’ ब्लॉग का संचालन करने वाली आकांक्षा यादव न सिर्फ एक साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं, बल्कि सक्रिय ब्लॉगर के रूप में भी उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। ’क्रांति-यज्ञ: 1857-1947 की गाथा‘ पुस्तक का कृष्ण कुमार यादव के साथ संपादन करने वाली आकांक्षा यादव के व्यक्तित्व-कृतित्व पर वरिष्ठ बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु ने ‘बाल साहित्य समीक्षा‘ पत्रिका का एक अंक भी विशेषांक रुप में प्रकाशित किया है। 
   इससे पूर्व भी आकांक्षा यादव को विभिन्न साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। आकांक्षा यादव जी को उनके सृजनात्मक एवं मंगलमयी जीवन के लिए अनंत शुभकामनाएं। 
(समाचार प्रस्तुति: गोवर्धन यादव, संयोजक-राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, छिन्दवाड़ा, 103 कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा-480001, म0प्र0)   



हाइकु संग्रह ‘कांधे पै घर’ का लोकार्पण 


    डा. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ के उद्योग नगर प्रकाशन गा.बाद द्वारा प्रकाशित हाइकु संग्रह ‘कांधे पै घर’ का लोकार्पण डा. लक्ष्मीनारायण लाल स्मृति फाउन्डेशन एवं यू.एस.एम.पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित संगोष्ठी में हुआ। इस अवसर पर डा. सीतेश आलोक, डा. महीप सिंह, डा. नरेन्द्र मोहन, डा. हरीश नवल, डा. ब्रज किशोर शर्मा, एवं डा. दया प्रकाश सिन्हा उपस्थित थे। (समाचार सौजन्य: डा. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’)



देवराज वर्मा उत्कृष्ट साहित्य सृजन सम्मान-2012


    मुरादाबाद की संस्था ‘अक्षरा’ द्वारा  ‘देवराज वर्मा उत्कृष्ट साहित्य सृजन सम्मान-2012’ वर्ष 2010-2011 में प्रकाशित मौलिक काव्य कृतियों पर दिया जायेगा। प्रविष्टियां कृति की चार प्रतियों, एक पता लिखे पोस्टकार्ड तथा एक टिकिट लगे व पता लिखे लिफाफे के साथ 31.08.2012 तक पंजीकृत डाक/कोरियर द्वारा योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, अक्षरा, ए.एल.49, सचिन स्वीट्स के पीछे,दीनदयाल नगर फेज-1, काँठ रोड, मुरादाबाद-244001, उ.प्र., (मोबा. 09412805981) के पते पर भेजी जा सकती हैं। (समाचार सौजन्य: योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’)


शिवानन्द सिंह सहयोगी को दोहरा सम्मान


    साहित्यकार शिवानन्द सिंह सहयोगी को उज्जैन की सामाजिक संस्था नवसंवत्-नवविचार द्वारा ‘विक्रमोत्सव विक्रमाब्द 2069’ के शुभावसर पर ‘उज्जयनी सृजन-अभिनन्दन’ की मानद उपाधि से सम्मानित किया। एक अन्य संस्था शब्द प्रवाह साहित्य मंच उज्जैन द्वारा सहयोगी जी की कृति ‘घर-मुँडेर की सोन चिरैया’ के लिए अखिल भारतीय साहित्य सम्मान-2012 का प्रथम पुरस्कार तथा उन्हें ‘शब्द रत्न’ की उपाधि दी गयी।(समाचार सौजन्य: शिवानन्द सिंह सहयोगी)





 कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव के बाल-गीत संग्रहों का विमोचन


     युगल दंपत्ति एवं चर्चित साहित्यकार व ब्लॉगर कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव के बाल-गीत संग्रह ’जंगल में क्रिकेट’ एवं ’चाँद पर पानी’ का विमोचन पूर्व राज्यपाल डॉ. भीष्म नारायण सिंह और डॉ. रत्नाकर पाण्डेय (पूर्व सांसद) ने राष्ट्रभाशा स्वाभिमान न्यास एवं भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्, नई दिल्ली द्वारा गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में 27 अप्रैल, 2012 को किया। उद्योग नगर प्रकाशन, गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित इन दोनों बाल-गीत संग्रहों में कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव के 30-30 बाल-गीत संगृहीत हैं। देश-विदेश की तमाम  प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और इंटरनेट पर निरंतर प्रकाशितहोने वाले श्री यादव की जहाँ यह छठीं पुस्तक प्रकाशित है, वहीं आकांक्षा यादव की यह प्रथम मौलिक कृति है। 
     इस अवसर पर दोनों संग्रहों का विमोचन करते हुए अपने उद्बोधन में पूर्व राज्यपाल डॉ. भीश्म नारायण सिंह ने युगल दम्पति की हिंदी साहित्य के प्रति समर्पण की सराहना की। उन्होंने कहा कि बाल-साहित्य बच्चों में स्वस्थ संस्कार रोपता है, अतः इसे बढ़़़ावा दिए जाने की जरुरत है। पूर्व सांसद डॉ. रत्नाकर पाण्डेय ने युवा पीढ़ी में साहित्य के प्रति बढती अरुचि पर चिंता जताते हुए कहा कि, यह प्रसन्नता का विषय है कि भारतीय डाक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी होते हुए भी श्री यादव अपनी जड़ों को नहीं भूले हैं और यह बात उनकी कविताओं में भी झलकती है। युगल दम्पति के बाल-गीत संग्रह की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें आज का बचपन है और बीते कल का भी और यही बात इन संग्रह को महत्वपूर्ण बनाती है। 
     कार्यक्रम में राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास के संयोजक डॉ. उमाशंकर मिश्र ने कहा कि यदि युगल दंपत्ति आज यहाँ उपस्थित रहते तो कार्यक्रम की रौनक और भी बढ़ जाती। गौरतलब है कि अपनी पूर्व व्यस्तताओं के चलते यादव दंपत्ति इस कार्यक्रम में शरीक न हो सके। आभार ज्ञापन उद्योग नगर प्रकाशन के विकास मिश्र द्वारा किया गया। इस कार्यक्रम में तमाम साहित्यकार, बुद्धिजीवी, पत्रकार इत्यादि उपस्थित थे। (समाचार प्रस्तुति : रत्नेश कुमार मौर्या, संयोजक - ’शब्द साहित्य’ द्वारा- विनीत टन्डन, 908 ए, दरियाबाद, इलाहाबाद - 211003)





 डॉ. सुमन शर्मा को डी.लिट. की उपाधि
डॉ. सुमन शर्मा को उनके शोध प्रबन्ध ‘हिन्दी का दोहा साहित्य: कथ्य और शिल्प के बदलते रूप (भक्तिकाल से आज तक)’ पर डॉ. भीमराव अम्बेडकर वि.वि. आगरा ने डी.लिट. की उपाधि प्रदान की है। डा. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ की पुत्री डॉ. सुमन दिल्ली प्रशासन के एक हायर सेकेन्डरी विद्यालय में अध्यापनरत हैं।(समा. सौजन्य: डा. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’) 


शशांक मिश्र भारती सम्मानित


    शशांक मिश्र भारती को हिन्दी भाषा  सम्मेलन पटियाला के राष्ट्रीय कवि संगम-14 और 15 अप्रैल 2012 के अवसर पर भाषा विभाग पंजाब पटियाला में हिन्दी भाषा सृजन सम्मान से पूर्व कैबिनेट मंत्री पंजाब सरकार श्री ब्रह्म महिन्द्रा व संस्थाध्यक्ष श्री सुभाष शर्मा द्वारा शाल और प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया गया। (समाचार सौजन्य: शशांक मिश्र भारती)


एर्नाकुलम, कोची में त्रिदिवसीय साहित्यिक सेमिनार 
    इण्डियन सोसायटी आफ आथर्स(इंसा) व नेशनल बुक ट्रस्ट,नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में 16-18 मार्च 2012 को त्रिदिवसीय साहित्यिक सेमिनार एर्नाकुलम, कोची में आयोजित किया गया। इसमें साहित्य और भारतीय समाज में पुस्तकालय का योगदान, विज्ञान और साहित्य, साहित्य में महिलाओं की भूमिका, दलित साहित्य, भारतीय साहित्य की विश्वव्यापकता, ब्लाग लेखन और साहित्य, संस्कृत और साहित्य विषयों पर विमर्श के साथ अनेक रचनाकारों ने विविध रचनाओं का पाठ भी किया। (समाचार सौजन्य: नन्दलाल भारती)