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गुरुवार, 10 जुलाई 2014

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10,  मई-जून  2014

प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


रेखा चित्र : पारस दासोत 
।।सामग्री।।

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सम्पादकीय पृष्ठ { सम्पादकीय पृष्ठ }:  नई पोस्ट नहीं। 

अविराम विस्तारित: 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत}:  इस अंक में सर्वश्री नारायण सिंह निर्दोष, डॉ. पंकज परिमल, जयप्रकाश श्रीवास्तव, शेर सिंह, धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’, अजय चन्द्रवंशी, सतीश गुप्ता व डॉ. अ. कीर्तिवर्द्धन की काव्य रचनाएं।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह}:   इस अंक में इस अंक में डॉ. सतीश दुबे, हरनाम शर्मा, सुदर्शन रत्नाकर, शोभा रस्तोगी, मधुकांत व विजय गिरि गोस्वामी ‘काव्यदीप’ की लघुकथाएं।

कहानी {कथा कहानी}: इस अंक में आशा शैली की कहानी ‘बन्धुआ मजदूर’।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ}:  इस अंक में श्री नित्यानन्द गायेन व श्री चिन्तामणि जोशी की क्षणिकाएं।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}: इस अंक में डॉ. सुधा गुप्ता, सुश्री वंदना सहाय व डॉ.दिनेश त्रिपाठी ‘शम्श’ के हाइकु।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द}: इस अंक में मुखराम माकड़ ‘माहिर’ के जनक छंद।

माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां}:  नई पोस्ट नहीं।

बाल अविराम {बाल अविराम}:  इस अंक में सुश्री पुष्पा मेहरा की बाल कविताएं बाल चित्रकार आरुषि ऐरन व सक्षम गम्भीर की पेन्टिंग्स के साथ। 

हमारे सरोकार (सरोकार) :  नई पोस्ट नहीं।

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण}:  इस अंक में आशीष दासोत्तर की व्यंग्य रचना।

संभावना {संभावना}: नई पोस्ट नहीं।

स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण}: नई पोस्ट नहीं।

क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श}: नई पोस्ट नहीं।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श}:  वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. बलराम अग्रवाल के साथ लघुकथा से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर डॉ. उमेश महादोषी की बातचीत।

किताबें {किताबें}:   इस अंक में रतन चन्द्र रत्नेश के कहानी संग्रह 'झील में उतरती ठण्ड' की सुदर्शन वशिष्ठ द्वारा लिखित समीक्षा। 

लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ}: नई पोस्ट नहीं।

हमारे युवा {हमारे युवा}: नई पोस्ट नहीं।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ}: पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम की समीक्षा (अविराम की समीक्षा) :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम के अंक {अविराम के अंक}: अविराम साहित्यकी के अप्रैल-जून 2014 मुद्रित अंक में प्रकाशित सामग्री / रचनाकारों से सम्बंधित सूचना। 

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के 30 जून 2014 तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार}: नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10,  मई-जून 2014


।।कविता अनवरत।।


सामग्री :  इस अंक में सर्वश्री नारायण सिंह निर्दोष, डॉ. पंकज परिमल, जयप्रकाश श्रीवास्तव, शेर सिंह, धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’, अजय चन्द्रवंशी, सतीश गुप्ता व डॉ. अ. कीर्तिवर्धन  की काव्य रचनाएं।


नारायण सिंह निर्दोष 




दो ग़ज़लें

01.
यूं तो पत्थर चेहरों का पिघलना न हुआ
कभी पिघले भी तो साँचों में ढलना न हुआ

एक मुद्दत सी हो गयी, यारों तुमसे मिले
ये क्या बात हुई, घर से निकलना न हुआ

ले गईं आँधियाँ उड़ाकर वजूद अपना
ऐसे पेड़ों से हम लिपटे कि हिलना न हुआ

ज़िन्दगी! तेरी शह पर बेतरतीब रहे
तूने जो दरवाजा खोला, सँभलना न हुआ

हसरतें धूँ-धूँ कर जला करती हैं लेकिन
लोग कहते हैं कि ये जलना जलना न हुआ
रेखा चित्र : पारस दासोत 


02.
तुम न थे तो कारवाँ रूठे मुकद्दर-सा हुआ
तुम से मिलके यूं लगा, तुमसे मिले अरसा हुआ

सामान लेकर चल दिये हर दूसरे इतवार को
देखते ही देखते हर घर मिरे घर-सा हुआ

ऊँचा करें दरवाजों को याकि कद छोटा करें
आपका बर्ताव तो, बर्ताव अफ़्सर-सा हुआ

आसमानों में मैंने कितनी ही उड़ानें भरीं
बीच लोगों के ज़िकर मेरा कटे पर-सा हुआ

कहकर यह पपीहे ने दावा मेरा खारिज़ किया
बादल तो मैं हूं मगर, बादल हूं बरसा हुआ

वो गरम मिज़ाज़ हैं, मगर हैं तो पुरबाईयां
छूने का इक एहसास भी, एहसास इतर-सा हुआ

हम सफ़र के यारो शौकीन इतने हो गये
पेड़ों की छांव में बैठना भी सफ़र-सा हुआ

आदमी कोई न था, सिर्फ बियावान था
कानों का खड़ा होना भी, बैठे हुये डर-सा हुआ

  • सी-21, लैह (LEIAH) अपार्टमेन्ट्स, वसुन्धरा एन्क्लेव, दिल्ली-110096 // मोबा.: 09810131230



डॉ. पंकज परिमल



{कवि-निबन्धकार पंकज परिमल का गीत-नवगीत संग्रह ‘उत्तम पुरुष का गीत’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था, जिसमें उनके अनेक महत्वपूर्ण गीत-नवगीत संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं इस संग्रहद से उनके तीन प्रतिनिधि नवगीत।} 

तीन नवगीत

01. पूरा जीवन पर बीत गया...

बैमाता
मेरे माथे पर 
लिख गई न जाने क्या 
पूरा जीवन तो बीत गया
उसकी व्याख्या में ही
अवसाद घना लिख गई
लिखा मैंने भी तो पौरुष
वह तिमिर घना लिक्खे
तो मैं भी
साधूँ किरन-धनुष
सम्पदा-सौख्य
सब कुछ लिक्खा होगा
रेखा चित्र : मनीषा सक्सेना 

बैमाता ने
पूरा जीवन पर बीत गया
गहरी विपदा में ही
उसने उड़ान लिख दी
मैंने आगे आकाश लिखा
उसने थकान लिख दी
मैंने गति का अभ्यास लिखा
माथे पर रख दी तो होगी
आश्वस्ति-भरी अँगुली
पर अपना समय गया सारा
शंका-दुविधा में ही
जो कोमल थे अहसास
चुभे वे ही बनकर काँटे
मेरे एकान्तिक सुख पल
दुनिया ने मुझसे बाँटे
बैमाता
लिख तो गई
मरण से ही पहले ज्वाला
मैं जीवित हूँ लेकिन उसकी
इस दाहकता में ही
युग-भर की चिंताएँ सिर लूँ
यदि राज-पाट लिक्खे
उसमें युग की हिस्सेदारी
यदि ठाठ-बाट लिक्खे
बैमाता
लिख दे राजयोग भी
लेकिन क्या कहिए
राजाजी का जीवन बीते
यदि चारणता में ही

02. उतनी झरी व्यथा

जितना-जितना मुसकाए हम
उतनी झरी व्यथा
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 
    जितने सुख सँघवाए उतने
    और दरिद्र हुए
    तागे थे मजबूत सिवन के
    ज़्यादा छिद्र हुए
और हो गई सघन वेदना
जितनी कही कथा
    उपवासों से हुई अलंकृत
    भूख महान हुई
    उपहासों की खिलखिल गूँजी 
    नींद हराम हुई
उस पथ पर चलने की विद्या
हमको नहीं पता

03. चढ़ा मारीच आता है#

हमारी यज्ञ-वेदी तक
चढ़ा मारीच आता है
    कि विश्वामित्र की भी साधना में
    विघ्न पैदा कर
    बरस के दुष्ट ओले की तरह 
    फिर नष्ट खुद को कर
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी 
    हमारे यज्ञ के रक्षक
    सजगता से रहे तत्पर
    उन्हीं के हाथ कसते क्रोध से हैं
    रुद्र के धनु पर
कठिन है काल उनका
मृत्यु-मुख में खींच लाता है
     कभी तो कर दिया हमने क्षमा
    जो पार जा पटका
    रची माया, दिया हमको
    कठिन वन-प्रान्त में भटका
    भले सुख-शांति भी अपनी
    गँवानी पड़ गयी हमको
    करेंगे अंत अब वे तीर ही
    इस छद्म नाटक का
धरा को रक्त से जो पापियां के
सींच जाता है

(#13 दिसंबर 2001, संसद पर आतंकी हमले की स्मृति)

  • ‘प्रवाल’, ए-129, शालीमार गार्डन एक्स.-।।, साहिबाबाद, जिला : गाजियाबाद (उ.प्र.) // मोबा.: 09810838832



जयप्रकाश श्रीवास्तव






{कवि श्री जयप्रकाश श्रीवास्तव का वर्ष 2012 में प्रकाशित गीत/गीतिका संग्रह ‘मन का साकेत’ हमें हाल ही में पढ़ने का अवसर मिला। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी कुछ रचनाएं।}

कुछ रचनाएँ

01. रेगिस्तान मन

तन पिघलती धूप में
मन रेगिस्तान है

पाँव नीचे दबी सूखी पत्तियाँ
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

चीखती हैं दर्द के अहसास से
समूचा जंगल उघारे देह को
जी रहा बस धरा के उच्छवास से
हाथ फैला सृश्टि से
बस माँगता पहचान है

लगाती है नदी डुबकी रेत में
तटों पर हैं प्यास की गहराइयाँ
घूमती हैं लू-लपटों की शक्ल में
हवा, आँचल में छुपाए आँधियाँ

धार, टूटी नाव में 
लेटी, लिए तूफान है

02. धूप की नदी

राहों में लू-लपट की बाढ़
ले आई धूप की नदी

मौसम ने गरमाया
सारा उपवन
पतझड़ की समिधा से
सूर्य के हवन
छाया चित्र : अभिशक्ति 

अलसाई देह को उघाड़
लेटी है रूप की नदी

खेतों पर चैत ने
चलाया खंजर
धरती पर फैल गया
भूखा बंजर

होगा कब जेठ ये असाढ़
पूछ रही सूखती नदी

03. रंगों की बौछार

पत्ते-पत्ते पर पुरवा ने
गीत लिखे हैं प्यार के
हँसे धूप बासंती चूनर
इस धरती पर डार के

पीले चावल डाल दे गया
मौसम न्यौता
फागुन का संदेश सुनाए
हरियल तोता
यौवन की अमराई सर पर
बाँधे मौर बहार के

उमर अल्गनी पर लटके
छाया चित्र : अभिशक्ति 
खुशियों के कपड़े 
दर्द हिंडोला टूट गया
हुए दुख लूले लंगड़े
सन्यासी का मन भींज गया है
रंगों की बौछार से

चुटकी भर अबीर प्रेम की
लिखता परिभाषा
जगा रहा जन-जन के मन
कोई अभिलाषा
हुए मोथरे प्रण सारे सब
बदले की तलवार के

04.  गीतिका

उम्र भर जो सलीब ढोते हैं
उनके भी क्या नसीब होते हैं

भूख अहसान फरामोश नहीं
पेट अपने रकीब होते हैं

भीड़ गाती है शहीदाना ग़ज़ल
लाश काँधे गरीब ढोते हैं

वतन पर जाँ निसार करते हैं
चंद ऐसे मुज़ीब होते हैं

सतह पर फिर उभर न पाये कभी
वक्त के भी अजीब गोते हैं

  • आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी, शक्तिनगर, जबलपुर-482001, म.प्र. // मोबा. : 07869193927


शेर सिंह





{कवि श्री शेर सिंह जी का कविता संग्रह ‘मन देश है- तन परदेश’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी कुछ प्रतिनिधि कविताएं।}

कुछ कविताएं

01. ऐसा क्यों होता है

ऐसा क्यों होता है
जिसे हम नायक, महानायक 
मानने लगते हैं
अपने आदर्श के रूप में
मन में स्थापित कर लेते हैं
रेखा चित्र : उमेश महादोषी 

धीरे-धीरे हमारे दिलों से 
उतरने लगता है
और, हमारे दिलों में बसी
उसकी आदर्श छवि 
खंडित होने लगती है

फिर एक दिन 
ऐसा भी आता है
जब हम पाते हैं कि
हमारा नायक, महानायक
हमारा आदर्श
हमारे दिलों में मरने लगा है

हम पाते हैं कि वह
हम और आप जैसा
एक साधारण आदमी है
बल्कि हम से भी
निकृष्ट उसकी सोच
और उसके कर्म हैं

केवल हमने ही उसे
नायक, महानायक स्थापित किया
हमने ही अब
झाड़, पोंछ दिया है
अपने दिलों से उसे
लेकिन ऐसा क्यों होता है? 

02. समय

लम्बे पंजों/तीखी चोंच से
ले जाता है सब/सुख
समय/नोंचकर
अंगार से भर दिये हों/आंखों में
और कंठ में/ढोल/दांतों में जकड़े/झंकार फूटे न
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा  
मुंह के/कपाट खोलकर?
समय का ही दिया है
ये सब/राहें/चीन्हे-अनचीन्हे/और कहीं-कहीं
कर्म का ही/दूध पिलाया है।

मुखौटे के अन्दर/मुखौटा
सादे आवरण में/धारियां
सत्य को/छिपा लो/मिथ्या को बढ़ा दो
समय/सब कुछ/उजागर-
कर ही डालता है।

03. लड़ाई

लड़ाई तो लड़ाई है
कोई पत्थर से
वार करे
कोई शब्द और बुद्धि से
होते हैं घायल 
दोनों से

मिट जाता है
पत्थर से दिया हुआ घाव
बुद्धि, शब्दों का
दिया घाव लेकिन
सालता है
कचोटता है
सालों-साल।

  • के. के.-100, कविनगर गाजियाबाद-201001 // मोबा. :  08447037777


धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’



ग़ज़ल

धूप से फिर छाँव में हम आ गये।
ज़िन्दगी के अर्थ फिर धुँधला गये।

आपको बचना था सच्चाई से जब
आइने के सामने क्यूँ आ गये।

कुछ तो हम दुनिया से शर्मिन्दा रहे
रेखा चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा  

कुछ हम अपने-आप से शरमा गये।

मुद्दतों के बाद वो मुझसे मिला
लफ़्ज़ मेरे जाने क्यूँ पथरा गये।

अब तो ‘साहिल’ मिल के ही जायेंगे
उनके दरवाजे तलक जब आ गये।

  • के 3/10 ए, माँ शीतला भवन, गायघाट, वाराणसी-221001(उ.प्र.) // मोबाइल : 08935065229 07275318940



अजय चन्द्रवंशी




ग़ज़ल

ये भरम भी टूटेगा किसी दिन।
कि तेरा साथ न छूटेगा किसी दिन।

इस तरह जो खिड़की बंद रखेगा,
कमरे में ही दम घुटेगा किसी दिन।

इस जुल्म की भी इन्तिहा होगी,
ये घड़ा भी फूटेगा किसी दिन।

अब तक तो सबको मनाता रहा,
ऐ दिल तू भी रूठेगा किसी दिन।

  • राजमहल चौक, फूलवारी के सामने, कवर्धा, जिला- कबीरधाम-491995 (छ.गढ़) // मोबा. : 09893728320



सतीश गुप्ता




{कवि एवं काव्य केन्द्रित लघु पत्रिका ‘अनन्तिम’ के संपादक श्री सतीश गुप्ता का दोहा संग्रह ‘शब्द हुए निःशब्द’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनके कुछ प्रतिनिधि दोहे।}


कुछ दोहे

01.
भावुकता पानी हुई, सजल हुए हैं नैन।
झर-झर झरती प्रार्थना, शब्द हुए बेचैन।।
02.
समय सत्य का सारथी, समय सत्य का दूत।
सहचारी बनकर रहे, मेरे शब्द सपूत।।
03.
अंगारों पर हैं कमल, दरवाजे पर हाथ।
शालों की तासीर है, अब शबनम के साथ।।
04.
दिग-दिगन्त में डोलता, सहज आत्म विश्वास।
छाया चित्र : अभिशक्ति 

सुन्दरता के परस से, शान्त हुए उच्छ्वास।।
05.
हर मानव के पास है, आग और तूफान।
बम गोला बारूद सब, रक्त बीज सन्तान।।
06.
चटके हर संवाद की, चुप्पी भरे दरार।
आवाजों की मौन से, ठनी रही तकरार।।
07.
तितली चिड़िया चाँदनी, फूलों का श्रृंगार।
नरम हथेली चूमकर, व्यक्त करें आभार।।
08.
समय कभी बर्बर हुआ, और कभी भयभीत।
कभी युद्ध की घोषणा, कभी हृदय की प्रीत।।
09.
जहाँ शुरू होता सफर, वहीं हुआ है अंत।
अनचीन्हा लगता रहा, झुर्रीदार बसंत।।
10.
अपने से लड़ता रहा, वह खुद अपने आप।
अन्त समय तक युद्ध-रत, हार गया चुपचाप।।

  • के-221, यशोदानगर, कानपुर-208011, उ.प्र. // मोबा. :  09793547629


डॉ. अ. कीर्तिवर्धन 





कुछ छुटपुट रचनाएं

01.
अपनी शख्सियत को इतना ऊंचा बनाओ,
खुद का पता तुम खुद ही बन जाओ। 
गैरों के लबों पर तेरा नाम, आये शान से,
मानवता की राह चल, गर इंसान बन जाओ। 
02.
किसी कविता में गर नदी सी रवानी हो,
सन्देश देने में न उसका कोई सानी हो। 
छंद-अलंकार-नियमो का महत्त्व नहीं होता,
जब कविता ने दुनिया बदलने की ठानी हो। 
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

03.
गिरगिट की तरह रंग बदलते हर पल,
तेरे लफ्जों में तेरा किरदार ढूँढूँ कैसे ?
कबि तौला कभी माशा, तेरे दाँव -पेंच,
तेरे जमीर को आयने में देखूं कैसे?
04.
मंजिल की तलाश में, जो लोग बढ़ गए,
मंजिलों के सरताज, वो लोग बन गए। 
बैठे रहे घर में, फकत बात करते रहे,
मंजिलों तक पहुँचना, उनके ख्वाब बन गए। 

  • 53, महालक्ष्मी एंक्लेव, जानसठ रोड, मुजफ्फरनगर-251001 (उ0प्र0) // मोबाइल :  09058507676

रविवार, 6 जुलाई 2014

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10, मई-जून  2014


।। कथा प्रवाह ।।


सामग्री :  इस अंक में डॉ. सतीश दुबे, श्री हरनाम शर्मा, सुश्री सुदर्शन रत्नाकर, सुश्री शोभा रस्तोगी, श्री मधुकांत, एवं श्री विजय गिरि गोस्वामी ‘काव्यदीप’ की लघुकथाएं।


डॉ. सतीश दुबे



{वरिष्ट लघुकथाकार डॉ. सतीश दुबे साहब की इक्कीसवीं सदी में सृजित एवं चर्चित कवि श्री जितेन्द्र चौहान द्वारा संकलित/संपादित 51 लघुकथाओं का संकलन ‘इक्कीसवीं सदी की मेरी इक्यावन लघुकथाएँ’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। डॉ. दुबे साहब ने लघुकथा में संवेदना के अनेकानेक आयामों स्थापित किया है, साथ ही उसे अपने समय से जोड़ने के प्रति वह हमेशा सजग रहे हैं। इसे इस संकलन में भी देखा जा सकता है। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से कुछ प्रतिनिधि लघुकथाएं।}

01. इजहार
    व्हील चेयर पर अपने को धकियाते हुए वे बाहर के ग्राउंड से अंदर के कमरे तक पहुँचे। हमेशा की तरह चेअर से उन्होंने अपने को दीवान पर शिफ्ट किया। अपनी बैठक को पूरी तरह व्यवस्थित कर लेने के बाद उनकी निगाह सेंट्रल टेबल पर जाकर टिक गई।
    उन्होंने देखा, उनके मोबाइल से एकदम सटकर पत्नी का मोबाइल रखा हुआ है। शहर या बाहर फैले हुए बेटे-बहू, बेटी-दामाद, पौत्र-पौत्री, नाती-नातिन, भाई-भौजाई यानी किसी की भी रिंग-दस्तक आने पर चर्चा चुहुल या कुशल-क्षेम का अवसर चूक नहीं जाए, इसलिए ‘जान से भी ज्यादह’ हमेशा साथ रहने वाला यह मोबाइल आज यहाँ कैसे? और वह भी उनके मोबाइल के पास ऐसे बैठा हुआ मानो कोई गुफ्तगू कर रहा हो।
     उन्होंने अपनी जिज्ञासा भरी ऊहापोह स्थिति से निजात पाने के लिए किचन में खट्ट-पट्ट कर रही पत्नी को हमेशा मुबज आवाज लगाई- ‘अरे सुनना जरा....।’
     ‘दो मिनट में आई....।’ आँखों के ‘क्या बात है’ शब्द-संवाद के साथ वह सचमुच दो मिनट में सामने आकर
रेखा चित्र : बी. मोहन नेगी 
खड़ी हो गई।

    ‘तुम्हारा यह अजीज मोबाइल आज यहाँ, इस प्रकार, इस हालात में...?’
     ‘‘आज ‘वेलेन्टाइन-डे’ है ना, इसलिए...!!’’ भरपूर मुस्कुराहट के कारण उभरे कपोलों वाले उनहत्तर वर्षीय भावुक चेहरे को उनकी ओर स्थिर करते हुए पत्नी ने प्रत्युत्तर किया।

02.  बुहारनी
     बेटे के कंपनी आफिस से लौटने में ज्यादह ही विलंब हो गया था। प्रतीक्षा में विचलित ‘कहाँ हो आप’ ‘बहुत देर हो गई क्या बात है’ जुमलों के साथ विचलित होकर बहू मोबाइल पर बार-बार कॉन्टेक्ट करने की कोशिश कर रही थी।
     मेवाड़ के रेतीले क्षेत्र में बिखरी-छितरी की अपेक्षा समुन्नत ढाणियों वाले ग्राम से भेंट के लिए आए महेशजी का ध्यान बातचीत करते हुए बार-बार उसकी गतिविधियों की ओर जा रहा था। इस बार बहू की कॉल जैसे ही समाप्त हुई वे उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करते हुए बोले- ‘‘बहूरानी, यहाँ बैठिए। रिलेक्स होने के लिए मैं आपको एक बात बताता हूँ। भैया के लौटने में हो रही देरी से जैसी बेचैनी आप महसूस कर रही हैं, वैसी ही हमारे इधर की औरतें और मेरी पत्नी भी। पर ज्वाइंट-फैमिली में चेहरे से नीचे तक का छेड़ा काढ़ने के कारण उसके लिए यह संभव नहीं होता कि वह मोबाइल कॉन्टेक्ट करे या सास-ससुर से अपनी बेचैनी शेयर करने के लिए यह पूछे कि ‘क्या बात है वे अभी तक क्यों नहीं आए।’ रेतीला-एरिया होने के कारण, हमारे यहाँ रेत के बगुलें बहुत उड़ा करते हैं। इसलिए वह करती यह है कि आंगन साफ करने के लिए बुहारी लेकर बाहर जाती है और घूंघट ऊँचाकर चकोर जैसी निगाहें घर आने वाली वाट यानी रास्ते पर स्थिर कर देती है। कभी-कभी तो आंगन-बुहारी के इस काम की पुनरावृत्ति संतोष नहीं होने तक चलती रहती है।’’
     ‘‘झाडू लेकर बेसमय बार-बार बाहर आने-जाने पर आपकी माँ यानी उसकी सासजी टोंका-टाकी नहीं करती....।’’
     ‘‘नहीं। इसलिए कि इसी दौर से गुजरने के कारण, इसकी बजह से वह भी मन ही मन बखूबी परिचित होती है।’’
     महेशजी द्वारा दिए गए इस अजीबो-गरीब नए ज्ञानदान से बहू की बेचैनी सायास मुस्कुराहट में बदल गई तथा उसी अंदाज में हम दोनों की ओर देखकर बोली- ’’टोटका करने के लिए झाडू लेकर फिर तो मुझे भी आंगन बुहारने के लिए बाहर जाना पड़ेगा।’’

03. आकाशी छत के लोग
     बालकनी में बैठे-बैठे आसपास की लंबी सैर करने के बाद दृष्टि सामने के जिस मैदान पर स्थिर हो जाया करती है, आज वह वहीं खड़ा था।
      निपट अँधेरे के बीच आग से निकलने वाले स्वर्णिम प्रकाश में दमकते हुए अनेक चेहरे। हथेलियों से रोटियाँ 
रेखा चित्र : शशिभूषण बडोनी 
थेप रही औरतें, उनके आसपास बैठे आदमी, बच्चे-खच्चे। ‘आए की खिलाव मोटी-छोटी रोटी, पिलाव प्यासे को पानी’ आदर्श के सामने मत्था टेक वह उनकी हँसी-खुशी के वातावरण में खे गया।

     ‘‘आप लोग कहाँ के रहने वाले हैं?’’
     ‘‘रेणे वाले तो राजस्थान मेवाड़ में हैं जी, पर ये पूरी धरती माता हमारा घर और आसमान हमारी छत है जी, और साबजी आप...? 
     ‘‘वो सामने वाली बिल्डिंग की तीसरी मंजिल के बीच वाले फ्लैट में....।’’
     इशारे की अंगुली वह नीची भी नहीं कर पाया था कि, बातचीत में हस्तक्षेप कर मुखर हो रही एक युवती हाथ हिलाते हुए बोली- ‘‘ऐसा कैसा घर जी आपका, जां से न धरती छी सको, न आसमान देख सको....।’’
     टिप्पणी सुन हतप्रभ सा निरुत्तर-मुद्रा में वह युवती की ओर देखने लगा। वह समझ नहीं पा रहा था, संवाद का अगला सिलसिला कहाँ से शुरू करे।

  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.) // मोबाइल : 09617597211



हरनाम शर्मा





{सुप्रसिद्ध कवि एवं लघुकथाकार हरनाम शर्मा का लघुकथा संग्रह ‘अपने देश में’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। उनके संग्रह से प्रस्तुत है उनकी तीन प्रतिनिधि लघुकथाएं।}

01. घूसखोर
     परसराम चपरासी ने फेंटे से दो रुपये का नोट निकाल कर जज साहब के साथ बैठे मुहर्रिर को दिया- ‘‘साहब, पन्द्रह दिन बाद तारीख लगा दो, घरवाली के बच्चा होया है।’’
     जज साहब ने बुरा सा मुँह बना कर नजरें फेर लीं। इतने में दो का नोट मुहर्रिर ने जेब में सरकाया, तारीख फाइल पर झरीटी, आँख मारी, परसराम चलता बना।
     परसराम चपरासी पर दस रुपये की घूसखोरी का केस पिछले आठ माह से चल रहा है। 

02. ट्यूशन-2
    हालांकि ‘मास्टर जी’ शब्द से चिढ़ने वाले अधेड़ उम्र के उस भद्र पुरुष मोहन लाल का मन साइकिल चलाने
छाया  चित्र : उमेश महादोषी  
का नहीं था, फिर भी उन्होंने इस नई ट्यूशन से इन्कार नहीं किया। पूरे दो मील चलकर उन्होंने एक कोठी के सामने अपनी साइकिल रोकी। घण्टी बजाई, एक श्याम वर्ण स्त्री, संभवतः उस बच्चे की मम्मीजी बाहर आई। श्री मोहन लाल जी ने अपना परिचय दिया। स्त्री ने मुड़कर आवाज लगाई- ‘‘राहुल! जरा नीचे आओ, आपका नया मास्टर आया है।’’ 

     श्री मोहन लाल जी को सभी कुछ तेजी से घूमता नज़र आया। बुरी मरह सिर चकराया। फिर भी उन्होंने हिम्मत बाँधी और उन्हें लगा कि वे कहने ही वाले हैं कि बोलने की तमीज़ नहीं है तो अपना भद्दा मुँह न खोलो, लेकिन ऐन मौके पर उन्हें रमेश की फीस, लड़की का विवाह, कच्चा मकान और न जाने क्या-क्या याद हो आया।
     वे धीमे कदमों से अपने को लोहे के मजबूत गेट के सहारे सम्भालते हुए, कोठी के अन्दर आ गये और स्त्री का इशारा पाकर ड्राइंग रूम में ‘शिष्य’ के आने का इन्तज़ार करने लगे।

इम्पोर्टिड
     वर्ग-भेद सिद्धान्त को पढ़-समझ कर आ रहे एक तरुण विद्यार्थी ने जब ठंडी रात को अपने से कुछ दूर आगे एक संपन्न दंपत्ति को सैर करते पाया तो उसका माथा ठनका। महिला का मेकअप स्कार्फ से सैडिंलों तक खूबसूरती से मैच कर रहा था, तो पुरुष के ओवरकोट पर फर की टोपी भी सड़क की ट्यूब लाइट की रोशनी में दमक रही थी। युवक को उनका रंग-ढंग पूरी तरह पूंजीवादी लगा।
     उसने अपने चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त कोट को काट-छांट कर बनाया गया अपना
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 
कोट देखा और मफलर कानों पर कसा। फिर अपनी खटारा साइकिल दौड़ा कर उनके निकट से निकलते हुए उसने ललकार कर कहा, ‘‘रास्ता छोड़, बूर्ज्वा....’’ और भद्र पुरुष की टोपी खींच ली। अब वह अंधाधुंध पैडल मारते हुए साइकिल को बेतहासा भगा रहा था। करीब आधा मील जाकर ‘सर्वहारा’ साइकिल उसके जवान पैरों का जोर न झेल पाई और तड़ाक् से पैडल टूटकर अलग हो गया। सवार, साइकिल समेत धड़ाम से जमीन पर आ गिरा। उसे लगा उसका वही हाथ चटक गया है जिसमें वह टोपी संभाले हुए था।

      अगले दिन दवा-दारू के लिए अस्पताल चलते समय उसने रात को उड़ाई गई टोपी भी सिर पर रख ली। डाक्टर साहब ने पलस्तर करते हुए मधुर स्वर में पूछा- ‘‘मिस्टर, यह टोपी बहुत सुन्दर है! कहां से मिली?’’
     ‘‘जी, इम्पोर्टिड है....’’ उसने सगर्व कहा।
     ‘‘और ... आपके विचार ....?’’ डाक्टर साहब की रहस्यात्मक, अर्थपूर्ण मुस्कान उसके भीतर तक उतर गई।

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सुदर्शन रत्नाकर






अभिशाप

           ‘‘माँ बहुत भूख लगी है। कुछ खाने को दे दो न माँ। कल रात भी कुछ नहीं खाया था। माँगने पर बापू ने पीट दिया था। उठो न माँ, कुछ बना कर दे दो न। भूख के मारे मुझ से बोला भी नहीं जा रहा।’’
           सात वर्ष का किसना बार बार माँ को झकझोर कर उठा रहा था, पर वह उठ ही नहीं रही थी। उसका पेट भूख से कुलबुला रहा था। उठ कर उसने गिलास में रखा
थोड़ा पानी पीया। लेकिन उससे भूख मिटने की उसे मितली होने लगी। ख़ाली पेट में पानी अंदर काट रहा था। उसने इधर-उधर रखे बर्तनों, पोटलियों में देखा, कुछ भी खाने को नहीं था।
छाया चित्र : राजेन्द्र परदेसी 
    
       वह झोंपड़ी के बाहर आ कर बैठ गया। ठंडी हवा का झोंका उसके शरीर को छूता हुआ आगे निकल गया। पल भर को उसका मितलाता मन थोड़ा स्थिर हुआ लेकिन ख़ाली अंतड़ियाँ फिर कुलबुलाने लगीं थीं। वह भीतर आ कर माँ को फिर जगाने लगा। रात उसे ताप था शायद इसलिए नहीं उठ रही, उसने माँ का माथा छुआ, फिर हाथ, फिर पाँव। यह क्या! माँ तो एकदम ठंडी पड़ी थी। उसने उसके चेहरे को अपनी ओर घुमा कर देखा, पर वह लुढ़क गया। माँ मर गई थी और बापू शराब के नशे में धुत अभी भी सो रहा था।

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शोभा रस्तोगी                    




उत्तरित प्रश्न

     मनमोहक, अद्भुत सत्संग पंडाल। विशाल जनसमूह। श्री श्री 1008 महामंडलेश्वर योगी जी का प्रवचन। चेहरे पर अपूर्व चमक, ओजस्वी वाणीए भगवा वस्त्र। साथ विराजमान थी- योगिनी देवी। खुले लम्बे सर्पीले केश, नूरानी चेहरा, मधुर कोकिल वाणी। श्रोता हिप्नोटाईज्ड। शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी, नेता, संभ्रांत नागरिक, सभी ने देर तक चले सत्संग का भाव-विभोर आनंद लिया। दान, त्याग, सन्यास, निर्वाण का उपदेश श्रवण किया। सुमधुर भजनों का आनंद लिया। अंत में सब वही छोड़ महँगी स्वादिष्ट भोज्य सामग्री का प्रसाद ले

अपने संसार को लौट चले।
छाया चित्र : नरेश उदास 
    योगिनी देवी के साक्षात्कार हेतु वह उनके कमरे तक गयी। प्रश्नों के औपचारिक उत्तर प्राप्त हुए। उत्कंठा थी उनके लावण्य से लकदक चेहरे का राज जानने की। वाकई उन्हें ईश तत्व अवगत हुआ है या उन पर योगी जी की चमत्कृत छाया है। पर खुल न पाई। अनबुझे प्रश्नों को छुपा चल दी। चौखट तक पहुँची ही थी कि उमड़ते प्रश्नों ने पुन; पलटा दिया उसे। पलटते ही पाया। दीवार के मध्य मार्ग से आते योगी जी ने योगिनी जी को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया था। बुदबुदाए उनके अस्फुट स्वर- ‘‘किस साक्षात्कार में घिरी हो तुम? कुछ मेरी वेदना की भी तो सोचो....’’
मेरे प्रश्न अब उत्तरित थे।

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