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रविवार, 6 जुलाई 2014

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10, मई-जून  2014


।। कथा प्रवाह ।।


सामग्री :  इस अंक में डॉ. सतीश दुबे, श्री हरनाम शर्मा, सुश्री सुदर्शन रत्नाकर, सुश्री शोभा रस्तोगी, श्री मधुकांत, एवं श्री विजय गिरि गोस्वामी ‘काव्यदीप’ की लघुकथाएं।


डॉ. सतीश दुबे



{वरिष्ट लघुकथाकार डॉ. सतीश दुबे साहब की इक्कीसवीं सदी में सृजित एवं चर्चित कवि श्री जितेन्द्र चौहान द्वारा संकलित/संपादित 51 लघुकथाओं का संकलन ‘इक्कीसवीं सदी की मेरी इक्यावन लघुकथाएँ’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। डॉ. दुबे साहब ने लघुकथा में संवेदना के अनेकानेक आयामों स्थापित किया है, साथ ही उसे अपने समय से जोड़ने के प्रति वह हमेशा सजग रहे हैं। इसे इस संकलन में भी देखा जा सकता है। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से कुछ प्रतिनिधि लघुकथाएं।}

01. इजहार
    व्हील चेयर पर अपने को धकियाते हुए वे बाहर के ग्राउंड से अंदर के कमरे तक पहुँचे। हमेशा की तरह चेअर से उन्होंने अपने को दीवान पर शिफ्ट किया। अपनी बैठक को पूरी तरह व्यवस्थित कर लेने के बाद उनकी निगाह सेंट्रल टेबल पर जाकर टिक गई।
    उन्होंने देखा, उनके मोबाइल से एकदम सटकर पत्नी का मोबाइल रखा हुआ है। शहर या बाहर फैले हुए बेटे-बहू, बेटी-दामाद, पौत्र-पौत्री, नाती-नातिन, भाई-भौजाई यानी किसी की भी रिंग-दस्तक आने पर चर्चा चुहुल या कुशल-क्षेम का अवसर चूक नहीं जाए, इसलिए ‘जान से भी ज्यादह’ हमेशा साथ रहने वाला यह मोबाइल आज यहाँ कैसे? और वह भी उनके मोबाइल के पास ऐसे बैठा हुआ मानो कोई गुफ्तगू कर रहा हो।
     उन्होंने अपनी जिज्ञासा भरी ऊहापोह स्थिति से निजात पाने के लिए किचन में खट्ट-पट्ट कर रही पत्नी को हमेशा मुबज आवाज लगाई- ‘अरे सुनना जरा....।’
     ‘दो मिनट में आई....।’ आँखों के ‘क्या बात है’ शब्द-संवाद के साथ वह सचमुच दो मिनट में सामने आकर
रेखा चित्र : बी. मोहन नेगी 
खड़ी हो गई।

    ‘तुम्हारा यह अजीज मोबाइल आज यहाँ, इस प्रकार, इस हालात में...?’
     ‘‘आज ‘वेलेन्टाइन-डे’ है ना, इसलिए...!!’’ भरपूर मुस्कुराहट के कारण उभरे कपोलों वाले उनहत्तर वर्षीय भावुक चेहरे को उनकी ओर स्थिर करते हुए पत्नी ने प्रत्युत्तर किया।

02.  बुहारनी
     बेटे के कंपनी आफिस से लौटने में ज्यादह ही विलंब हो गया था। प्रतीक्षा में विचलित ‘कहाँ हो आप’ ‘बहुत देर हो गई क्या बात है’ जुमलों के साथ विचलित होकर बहू मोबाइल पर बार-बार कॉन्टेक्ट करने की कोशिश कर रही थी।
     मेवाड़ के रेतीले क्षेत्र में बिखरी-छितरी की अपेक्षा समुन्नत ढाणियों वाले ग्राम से भेंट के लिए आए महेशजी का ध्यान बातचीत करते हुए बार-बार उसकी गतिविधियों की ओर जा रहा था। इस बार बहू की कॉल जैसे ही समाप्त हुई वे उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करते हुए बोले- ‘‘बहूरानी, यहाँ बैठिए। रिलेक्स होने के लिए मैं आपको एक बात बताता हूँ। भैया के लौटने में हो रही देरी से जैसी बेचैनी आप महसूस कर रही हैं, वैसी ही हमारे इधर की औरतें और मेरी पत्नी भी। पर ज्वाइंट-फैमिली में चेहरे से नीचे तक का छेड़ा काढ़ने के कारण उसके लिए यह संभव नहीं होता कि वह मोबाइल कॉन्टेक्ट करे या सास-ससुर से अपनी बेचैनी शेयर करने के लिए यह पूछे कि ‘क्या बात है वे अभी तक क्यों नहीं आए।’ रेतीला-एरिया होने के कारण, हमारे यहाँ रेत के बगुलें बहुत उड़ा करते हैं। इसलिए वह करती यह है कि आंगन साफ करने के लिए बुहारी लेकर बाहर जाती है और घूंघट ऊँचाकर चकोर जैसी निगाहें घर आने वाली वाट यानी रास्ते पर स्थिर कर देती है। कभी-कभी तो आंगन-बुहारी के इस काम की पुनरावृत्ति संतोष नहीं होने तक चलती रहती है।’’
     ‘‘झाडू लेकर बेसमय बार-बार बाहर आने-जाने पर आपकी माँ यानी उसकी सासजी टोंका-टाकी नहीं करती....।’’
     ‘‘नहीं। इसलिए कि इसी दौर से गुजरने के कारण, इसकी बजह से वह भी मन ही मन बखूबी परिचित होती है।’’
     महेशजी द्वारा दिए गए इस अजीबो-गरीब नए ज्ञानदान से बहू की बेचैनी सायास मुस्कुराहट में बदल गई तथा उसी अंदाज में हम दोनों की ओर देखकर बोली- ’’टोटका करने के लिए झाडू लेकर फिर तो मुझे भी आंगन बुहारने के लिए बाहर जाना पड़ेगा।’’

03. आकाशी छत के लोग
     बालकनी में बैठे-बैठे आसपास की लंबी सैर करने के बाद दृष्टि सामने के जिस मैदान पर स्थिर हो जाया करती है, आज वह वहीं खड़ा था।
      निपट अँधेरे के बीच आग से निकलने वाले स्वर्णिम प्रकाश में दमकते हुए अनेक चेहरे। हथेलियों से रोटियाँ 
रेखा चित्र : शशिभूषण बडोनी 
थेप रही औरतें, उनके आसपास बैठे आदमी, बच्चे-खच्चे। ‘आए की खिलाव मोटी-छोटी रोटी, पिलाव प्यासे को पानी’ आदर्श के सामने मत्था टेक वह उनकी हँसी-खुशी के वातावरण में खे गया।

     ‘‘आप लोग कहाँ के रहने वाले हैं?’’
     ‘‘रेणे वाले तो राजस्थान मेवाड़ में हैं जी, पर ये पूरी धरती माता हमारा घर और आसमान हमारी छत है जी, और साबजी आप...? 
     ‘‘वो सामने वाली बिल्डिंग की तीसरी मंजिल के बीच वाले फ्लैट में....।’’
     इशारे की अंगुली वह नीची भी नहीं कर पाया था कि, बातचीत में हस्तक्षेप कर मुखर हो रही एक युवती हाथ हिलाते हुए बोली- ‘‘ऐसा कैसा घर जी आपका, जां से न धरती छी सको, न आसमान देख सको....।’’
     टिप्पणी सुन हतप्रभ सा निरुत्तर-मुद्रा में वह युवती की ओर देखने लगा। वह समझ नहीं पा रहा था, संवाद का अगला सिलसिला कहाँ से शुरू करे।

  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.) // मोबाइल : 09617597211



हरनाम शर्मा





{सुप्रसिद्ध कवि एवं लघुकथाकार हरनाम शर्मा का लघुकथा संग्रह ‘अपने देश में’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। उनके संग्रह से प्रस्तुत है उनकी तीन प्रतिनिधि लघुकथाएं।}

01. घूसखोर
     परसराम चपरासी ने फेंटे से दो रुपये का नोट निकाल कर जज साहब के साथ बैठे मुहर्रिर को दिया- ‘‘साहब, पन्द्रह दिन बाद तारीख लगा दो, घरवाली के बच्चा होया है।’’
     जज साहब ने बुरा सा मुँह बना कर नजरें फेर लीं। इतने में दो का नोट मुहर्रिर ने जेब में सरकाया, तारीख फाइल पर झरीटी, आँख मारी, परसराम चलता बना।
     परसराम चपरासी पर दस रुपये की घूसखोरी का केस पिछले आठ माह से चल रहा है। 

02. ट्यूशन-2
    हालांकि ‘मास्टर जी’ शब्द से चिढ़ने वाले अधेड़ उम्र के उस भद्र पुरुष मोहन लाल का मन साइकिल चलाने
छाया  चित्र : उमेश महादोषी  
का नहीं था, फिर भी उन्होंने इस नई ट्यूशन से इन्कार नहीं किया। पूरे दो मील चलकर उन्होंने एक कोठी के सामने अपनी साइकिल रोकी। घण्टी बजाई, एक श्याम वर्ण स्त्री, संभवतः उस बच्चे की मम्मीजी बाहर आई। श्री मोहन लाल जी ने अपना परिचय दिया। स्त्री ने मुड़कर आवाज लगाई- ‘‘राहुल! जरा नीचे आओ, आपका नया मास्टर आया है।’’ 

     श्री मोहन लाल जी को सभी कुछ तेजी से घूमता नज़र आया। बुरी मरह सिर चकराया। फिर भी उन्होंने हिम्मत बाँधी और उन्हें लगा कि वे कहने ही वाले हैं कि बोलने की तमीज़ नहीं है तो अपना भद्दा मुँह न खोलो, लेकिन ऐन मौके पर उन्हें रमेश की फीस, लड़की का विवाह, कच्चा मकान और न जाने क्या-क्या याद हो आया।
     वे धीमे कदमों से अपने को लोहे के मजबूत गेट के सहारे सम्भालते हुए, कोठी के अन्दर आ गये और स्त्री का इशारा पाकर ड्राइंग रूम में ‘शिष्य’ के आने का इन्तज़ार करने लगे।

इम्पोर्टिड
     वर्ग-भेद सिद्धान्त को पढ़-समझ कर आ रहे एक तरुण विद्यार्थी ने जब ठंडी रात को अपने से कुछ दूर आगे एक संपन्न दंपत्ति को सैर करते पाया तो उसका माथा ठनका। महिला का मेकअप स्कार्फ से सैडिंलों तक खूबसूरती से मैच कर रहा था, तो पुरुष के ओवरकोट पर फर की टोपी भी सड़क की ट्यूब लाइट की रोशनी में दमक रही थी। युवक को उनका रंग-ढंग पूरी तरह पूंजीवादी लगा।
     उसने अपने चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त कोट को काट-छांट कर बनाया गया अपना
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 
कोट देखा और मफलर कानों पर कसा। फिर अपनी खटारा साइकिल दौड़ा कर उनके निकट से निकलते हुए उसने ललकार कर कहा, ‘‘रास्ता छोड़, बूर्ज्वा....’’ और भद्र पुरुष की टोपी खींच ली। अब वह अंधाधुंध पैडल मारते हुए साइकिल को बेतहासा भगा रहा था। करीब आधा मील जाकर ‘सर्वहारा’ साइकिल उसके जवान पैरों का जोर न झेल पाई और तड़ाक् से पैडल टूटकर अलग हो गया। सवार, साइकिल समेत धड़ाम से जमीन पर आ गिरा। उसे लगा उसका वही हाथ चटक गया है जिसमें वह टोपी संभाले हुए था।

      अगले दिन दवा-दारू के लिए अस्पताल चलते समय उसने रात को उड़ाई गई टोपी भी सिर पर रख ली। डाक्टर साहब ने पलस्तर करते हुए मधुर स्वर में पूछा- ‘‘मिस्टर, यह टोपी बहुत सुन्दर है! कहां से मिली?’’
     ‘‘जी, इम्पोर्टिड है....’’ उसने सगर्व कहा।
     ‘‘और ... आपके विचार ....?’’ डाक्टर साहब की रहस्यात्मक, अर्थपूर्ण मुस्कान उसके भीतर तक उतर गई।

  • ए.जी. 1/54-सी, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018 // फोन : 011-2554353 मोबा. : 09910518657 



सुदर्शन रत्नाकर






अभिशाप

           ‘‘माँ बहुत भूख लगी है। कुछ खाने को दे दो न माँ। कल रात भी कुछ नहीं खाया था। माँगने पर बापू ने पीट दिया था। उठो न माँ, कुछ बना कर दे दो न। भूख के मारे मुझ से बोला भी नहीं जा रहा।’’
           सात वर्ष का किसना बार बार माँ को झकझोर कर उठा रहा था, पर वह उठ ही नहीं रही थी। उसका पेट भूख से कुलबुला रहा था। उठ कर उसने गिलास में रखा
थोड़ा पानी पीया। लेकिन उससे भूख मिटने की उसे मितली होने लगी। ख़ाली पेट में पानी अंदर काट रहा था। उसने इधर-उधर रखे बर्तनों, पोटलियों में देखा, कुछ भी खाने को नहीं था।
छाया चित्र : राजेन्द्र परदेसी 
    
       वह झोंपड़ी के बाहर आ कर बैठ गया। ठंडी हवा का झोंका उसके शरीर को छूता हुआ आगे निकल गया। पल भर को उसका मितलाता मन थोड़ा स्थिर हुआ लेकिन ख़ाली अंतड़ियाँ फिर कुलबुलाने लगीं थीं। वह भीतर आ कर माँ को फिर जगाने लगा। रात उसे ताप था शायद इसलिए नहीं उठ रही, उसने माँ का माथा छुआ, फिर हाथ, फिर पाँव। यह क्या! माँ तो एकदम ठंडी पड़ी थी। उसने उसके चेहरे को अपनी ओर घुमा कर देखा, पर वह लुढ़क गया। माँ मर गई थी और बापू शराब के नशे में धुत अभी भी सो रहा था।

  • ई 29, नेहरू ग्राउँड, फ़रीदाबाद-121001 // मोबा. :  09811251135



शोभा रस्तोगी                    




उत्तरित प्रश्न

     मनमोहक, अद्भुत सत्संग पंडाल। विशाल जनसमूह। श्री श्री 1008 महामंडलेश्वर योगी जी का प्रवचन। चेहरे पर अपूर्व चमक, ओजस्वी वाणीए भगवा वस्त्र। साथ विराजमान थी- योगिनी देवी। खुले लम्बे सर्पीले केश, नूरानी चेहरा, मधुर कोकिल वाणी। श्रोता हिप्नोटाईज्ड। शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी, नेता, संभ्रांत नागरिक, सभी ने देर तक चले सत्संग का भाव-विभोर आनंद लिया। दान, त्याग, सन्यास, निर्वाण का उपदेश श्रवण किया। सुमधुर भजनों का आनंद लिया। अंत में सब वही छोड़ महँगी स्वादिष्ट भोज्य सामग्री का प्रसाद ले

अपने संसार को लौट चले।
छाया चित्र : नरेश उदास 
    योगिनी देवी के साक्षात्कार हेतु वह उनके कमरे तक गयी। प्रश्नों के औपचारिक उत्तर प्राप्त हुए। उत्कंठा थी उनके लावण्य से लकदक चेहरे का राज जानने की। वाकई उन्हें ईश तत्व अवगत हुआ है या उन पर योगी जी की चमत्कृत छाया है। पर खुल न पाई। अनबुझे प्रश्नों को छुपा चल दी। चौखट तक पहुँची ही थी कि उमड़ते प्रश्नों ने पुन; पलटा दिया उसे। पलटते ही पाया। दीवार के मध्य मार्ग से आते योगी जी ने योगिनी जी को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया था। बुदबुदाए उनके अस्फुट स्वर- ‘‘किस साक्षात्कार में घिरी हो तुम? कुछ मेरी वेदना की भी तो सोचो....’’
मेरे प्रश्न अब उत्तरित थे।

  • आर.जेड. एण्ड डी-208-बी, डी.डी.ए. पार्क रोड, राज नगर-2, पालम कालोनी, नई दिल्ली-110077 // मोबा. : 0 9650267277           

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10,  मई-जून 2014

।। कथा कहानी ।। 

सामग्री :  इस अंक में सु-श्री आशा शैली की  कहानी 'बंधुआ मज़दूर'।  



आशा शैली




बन्धुआ मजदूर
     
         रामपुर बुशहर पहुँचते-पहुँचते गर्मी बढ़ने लगी थी, नम्बरदार शमशेर सिंह ने स्वेटर शरीर से अलग कर हाथ में ले लिया था। शिमला से ही जो बारिश की झड़ी लगी है तो किंगल आ कर ही समाप्त हुई। यदि यह हल्की सी स्वेटर भी साथ न रखी होती तो नारकंडा तक पहुँचते-पहुँचते तो दाँत बजने लगते, लेकिन रामपुर बस अड्डे पर उतरते ही नम्बरदार को गर्मी की भीषणता सताने लगी। जब से सोमेश की वकालत चमकी है उन्हें एक प्रकार का सुकून सा मिला था, चलो इकलौते पुत्र की रोजगार की चिंता तो दूर हुई। किन्तु उस दिन वह सोमेश का फोन आने के बाद परेशान हो गए थे, उसने उन्हें तुरन्त ही शिमला बुलाया था। उन्होंने सोचा, ऐसी क्या बात हो गई कि उन्हें उसने तुरन्त ही शिमला बुला लिया, वह भी बिना कोई कारण बताए? घबराना तो स्वाभविक ही था, आखिर सोमेश उनका इकलौता पुत्र जो था।
     शिमला पहुँच कर पता चला कि उसे एक बिकाऊ कोठी मिल रही थी जिसे देखने के लिए पिता का आना जरूरी था। आखिर तीस लाख रुपया तो उन्हीं से मिलता। शमशेर सिंह इसी उधेड़-बुन में चार दिनों से पड़े हुए थे कि बेटे को तीस लाख रुपया आखिर कहाँ से देंगे? क्योंकि इधर-उधर से झाड़-समेट कर भी वे तीन लाख से अधिक नहीं दे सकते थे। पिता का उत्तर सुन कर सोमेश ने झट से सुझाव दे दिया था कि ‘वह गाँव की जमीन और मकान बेच कर शिमला आ जाएँ, आखिर इतनी बड़ी कोठी होगी तो उन्हें क्या परेशानी रहेगी?’  
     शमशेर सिंह इसी गाँव में जन्मे-पले थे। अब बुढ़ापे की ओर कदम रखते हुए उन्हें गाँव छोड़ना कत्तई पसन्द न था। गाँव में मिलने वाले मान-सम्मान के मुकाबले उन्हें शहर का जीवन उबाऊ और नीरस लगता था, आखिर कौन जानता है उन्हें इतने बड़े शहर में? फिर भी उन्होंने बेटे के प्रस्ताव पर विचार करने का आश्वासन अवश्य ही दिया था। आखिर उनका भी तो बेटे के बिना कोई आसरा न था। इकलौते बेटे को नाराज़ भी कैसे करते?
     रामपुर बस के अड्डे पर रोज की तरह ही काफ़ी भीड़ थी और बस मिलने में अभी देर भी थी। बाजार में
छाया चित्र : रामेश्वर काम्बोज हिमांशु 
मटरगश्ती करना उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं था। शमशेर सिंह कोई खाली बैंच तलाषने लगे तभी उन्हें महसूस हुआ कि भीड़ एक ही स्थान पर अधिक थी। क्या हुआ होगा जानने के लिए भीड़ में स्थान बनाना पड़ता जो उन्हें रुचिकर नहीं लगा। फिर एक बेंच पर थोड़ी खाली जगह मिल गई और वह बैग नीचे रख कर बेंच पर बैठ गए। तभी उन्हें अपने गाँव के कुछ लोग दिखाई दिए जो भीड़ में से बाहर निकल रहे थे। शमशेर सिंह ने उन्हें इशारे से रोक लिया और पास बुलाया।

     ‘‘क्या हो रहा है उधर ?’’ उन्होंने जमाव की ओर इशारा करके एक जानकार से पूछा।
     ‘‘काल़ू रो रहा है भाई जी।’’ गाँव में सब लोग उन्हें भाई जी ही कहते थे।
     ‘‘काल़ू रो रहा है? हमारा काल़ू?’’
     ‘‘हाँ भाई जी।’’
     ‘‘क्यों?’’
     ‘‘पता नहीं, कुछ बोलता नहीं बस रोए जा रहा है।’’
     अब शमशेर सिंह से बैठा नहीं रहा गया, अब इतना बड़ा मर्द भरे बाजार में रोने लगेगा तो भीड़ तो लगेगी ही। वह भीड़ को चीरते उस बेंच तक जा पहुँचे जहाँ बैठा काल़ू दोनों हाथों में मुँह छुपाए धीरे-धीरे सुबक रहा था।  
     ‘‘काल़ू राम! क्या हुआ भाई?’’ शमशेर सिंह ने उसकी पीठ पर हाथ रखा तो वह अपने ही घुटनों पर दुहरा हो गया और हिचकियाँ लेकर सुबकने लगा।
     ‘‘क्या तमाशा लगा रखा है आप लोगों ने? जाओ अपना-अपना काम करो भाई।’’ शमशेर सिंह भीड़ की तरफ़ मुड़े ‘‘यह हमारे गाँव का मामला है हम निबट लेंगे। आप लोग जाइए।’’ फिर उन्होंने काल़ूराम की बाजू पकड़ी और उसे पानी के नल तक ले गए। शमशेर सिंह को समाजसेवा के लिए दूर-दूर तक जाना जाता था, अतः भीड़ छंटने लगी। उन्होंने काल़ूराम को हाथ-मुँह ध्ुलवा कर पानी पिलाया और अपने साथ ले कर उस कोने की तरफ आए जहाँ कुछ एकांत था।
     ‘‘हाँ! अब बताओ। घर में सब कुशल तो है न?’’ काल़ूराम ने उत्तर में केवल सिर हिला कर हाँ की।
     ‘‘तब भाई मेरे! इस तरह रोने का कारण, वह भी इस बस के अड्डे पर? मर्द को क्या इस तरह रोना शोभा देता है? उत्तर में उसकी आँखों में फिर आँसू भर आए।
     ‘‘न...न...! इस तरह नहीं! जब तक कुछ बोलोगे नहीं तो मामला कैसे सुलझेगा?’’
     ‘‘किराए को पैसे नहीं हैं।’’ काल़ू ने सर झुकाए ही मरी हुई आवाज में कहा।
     ‘‘बस्स! इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा मर्द रो पड़ा, यह लो।’’ शमशेर सिंह ने जेब से दस-दस के पाँच नोट निकाल कर उसकी हथेली में जबरदस्ती ठँूस दिये, किन्तु काल़ू ने एक नोट ले कर बाकी लौटाते हुए इतनी धीरे से कहा कि कोई और न सुन सके,  
     ‘‘लौटाऊँगा कहाँ से’’ तो शमशेर को लगा कि मामला कुछ गम्भीर है। वैसे भी उसने काल़ू को सदा हँसते-मुस्कराते ही देखा था। अतः बोला ‘‘कोई जरूरत नहीं’’ फिर कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘क्या तुम कल मेरे घर आ सकते हो सुबह?’’ शमशेर सिंह को सार्वजनिक स्थान पर घर गाँव की बात करना उचित नहीं लगा था। 
     ‘‘आ जाऊँगा, भाई जी! चलो बस लग गई है।’’
      शमशेर सिंह चौहान इलाके के नम्बरदार भी थे और समाजसेवी भी। उम्र बीत चली थी इलाके के सुख-दुख समझते हुए। घर पहुँच कर भी वह यही सोचते रहे थे कि, कालूराम की जेब में दस रुपये भी न होना बड़ी अजीब सी बात थी जबकि वह अच्छी-खासी जमीन का मालिक था जो उसने जवानी के दिनों में अपनी कमाई से ही खरीदी थी और उसमें अपनी मेहनत से सेब और बादाम का बाग़ लगाया था, जो लाखों रुपयों की वार्षिक आय देता था। दोनांे हाथ से दान देना और सब की मदद करना उसके शग़ल थे। आज वही कालूराम चौहान दस रुपये के लिए बस अड्डे पर बैठा फूट-फूट कर रो रहा था। फिर प्रश्न जगा ‘आया ही क्यों बिना पैसे के, या शायद जेब कट गई हो। चलो कल आएगा ही, तब पता चल जाएगा कि बात क्या है। शमशेर सिंह की सारी रात इसी उध्ेड़-बुन में कट गई।
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     नम्बरदार शमशेर सिंह जब नाश्ता करके घर से बाहर निकले तो कालूराम को बैठे पाया। ‘‘नमस्ते भाई
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
जी!’’ उसके चेहरे पर शर्मिंदगी और उदासी साफ़ झलक रही थी। यूँ भी तो कालूराम रिश्ते में उनका छोटा भाई ही था।

     ‘‘हाँ तो भाई! अब बताओ क्या बात है?’’
     ‘‘.....’’  
     ‘‘काल़ूराम! मसला तो कुछ गम्भीर ही लगता है लेकिन तुम कुछ बताओ तो उसका हल ढूँढ़ा जाए।’’
      तब धीरे-धीरे कालूराम ने जो अपनी व्यथा-कथा सुनाई, ‘‘बहुत दिनों से पेट में दर्द चल रहा था भाई जी, दवा के लिए बेटे से रोज ही कह देता था। बेटा, बहू से कह कर दफ़्तर चला जाता। बहू बहाना बना कर इधर-उधर हो जाती। कल बेटे को घेर कर मैंने कहा, तुम मुझे पैसे दे जाओ तो मैं खुद ही रामपुर जा कर दवा ले आऊँगा। बेट ने बड़ी बेबसी से पचास का नोट निकाल कर दे दिया। दस रुपये सुबह किराए के लग गए और 40/-की दवा आ गई पूरा दिन भूखे रहने से दर्द और बढ़ गया।
     ‘‘दवा क्यों नहीं ली?’’
     ‘‘डाक्टर ने कहा था खाली पेट दवा मत लेना।’’
     ‘‘इतना बड़ा सेब और बादाम का बागीचा है तुम्हारा, तुम अपने पास कुछ भी नहीं रखते क्या सब बेटे बहू को दे देते हो?’’
      ‘‘बेटा-बहू रोज ही इस बात को लेकर झगड़ा करते थे, सोचा मुझे क्या करना है दो रोटी ही तो चाहिए मुझे, पर अब तो वह 
भी इज़्ज़त से नहीं मिलती।’’ कालूराम ने ठण्डा साँस लिया।  
      ‘‘हूँ....। डॉक्टर ने क्या कहा?’’
     ‘‘क्या कहेगा डाक्टर? आँतों में कुछ गड़बड़ बताई है। यह दवा तो बस दस दिन की है, छः महीने खानी पड़ेगी तब कहीं रोग ठीक हो सकता है, वह भी पक्का नहीं।  शायद कुछ दिन और भी खानी पड़े।’’
      ‘‘बेटे को बताया?’’
      ‘‘हाँ! सुन कर चुप ही रहा।’’
      ‘‘अभी कुछ खाया या नहीं?’’
      ‘‘हाँ! खाई है एक रोटी छल्ली (मकई) की।’’
      ‘‘छल्ली की रोटी? पेटदर्द की हालत में? क्या दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा?’’ शमशेर सिंह को थोड़ा ताव आ गया ।      
       ‘‘जो मिल जाए वही तो खाऊँगा भाई जी। बँधुआ मजदूर हूँ। चलूँ! खेत में न गया तो बहू नाराज़ हो जाएगी।’’ कालू उठ खड़ा हुआ, ‘‘नमस्ते भाई जी।’’
      ‘‘ठीक है दवा के लिए पैसे मुझ से ले जाना। आखिर मैं भी तो तुम्हारा बड़ा भाई ही हूँ। अरे हाँ! एक बात तो बताओ कालू भाई?’’ शमशेर को अचानक ही कुछ याद आ गया, क्या तुमने बाग उनके नाम कर दिया है सारे का सारा?’’  
      ‘‘हाँ भाई जी! यही तो सबसे बड़ी गलती हुई, वरना मेरी यह दशा क्यों होती।’’




      ‘‘ठीक है जाओ थोड़ा आराम करना और यह लो कुछ रुपये रख लो दूध पी लेना।’’ उन्होंने जेब से सौ का नोट निकाला तो काल़ूराम ऐसे बिदक कर पीछे हटा जैसे साँप दिखाई दे गया हो।
     ‘‘ना भाई जी! मैं नहीं लूँगा, कहीं बहू चोरी लगा देगी तो? ’’ कालूराम घबरा कर तेज़ी से घर की ओर चल दिया, जैसे सौ का नोट उसके पीछे भाग रहा हो।
छाया चित्र : रामेश्वर काम्बोज हिमांशु 
     दूसरे दिन नम्बरदार शमशेर सिंह ने कालू राम के कुछ बुजुर्ग पड़ोसियों को पूछा तो स्थिति इससे भी गम्भीर पाई जितनी कालूराम ने बताई थी। एक समय के अच्छे सरमायादार और मान-सम्मान वाले दयालु व्यक्ति को आराम के स्थान पर अपमान और बुढ़ापे में श्रम करना ही नसीब बन गया है। यही नहीं बल्कि बीमारी की हालत में भी गाय के लिए घास लाना और गोशाला की सफ़ाई भी उसे ही करनी पड़ती है। कर्ल्क बेटा वैसे तो दफ़्तर में रहता है लेकिन रविवार को भी आँखें और कान बंद रखता है। बुड्ढे को अपने कपड़े-बरतन खुद साफ़ करने पड़ते हैं। वगैरह-वगैरह.....।
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     दिन भर कुछ अपने निजी और कुछ ग्रामवासियों के कामों में व्यस्त रहे शमशेर सिंह, लेकिन दिमाग से कालूराम की समस्या यूँ चिपक गई थी जैसे फैवीकोल लगा हुआ हो।
     रात के खाने के बाद वह अपने कमरे में आए तो उन्हें फिर इसी समस्या ने आ घेरा। शमशेर सिंह ने खिड़की खोल दी कि शायद हवा के झोंके ही कुछ सुझाव दे सकें। बाहर पूरे चाँद की रात अपनी आभा बिखेर रही थी। कोई और दिन होता तो शमशेर सिंह इस चाँदनी रात का भरपूर लुत्पफ़ उठाते लेकिन इस समय तो उन्हें हर तरफ घुटनों में मुँह छुपाए रोता-सिसकता अपना भाई कालू ही नज़र आ रहा था।
     वह सोच रहे थे और बड़बड़ा भी रहे थे, ‘‘बड़ी बुरी बात है। बहुत ही बुरी बात....’’ शमशेर सिंह के दिमाग में बवंडर चल रहे थे, क्या किया जाए? पता नहीं बेचारे कालू भाई पर क्या बीत रही होगी। बुरी तरह डरा हुआ लग रहा था। यदि उन्हें पंचायत द्वारा खर्चा दिलाया जाए तो उसके लिए उसे दरख़ास्त तो देनी ही पड़ेगी और ऐसा करने से उसकी मुश्किलें और बढ़ जाएँगी। ज़माना कितना बदल गया है, बेचारे कालू ने किस मुसीबत से इस बाग को कामयाब किया था सारा गाँव जानता है पत्नी की मृत्यु के बाद अपने इकलौते बेटे को देखते हुए उसने अपनी खुशियाँ ताक पर रख दीं और दूसरी औरत नहीं लाया। अब वही इकलौती औलाद बूढ़े बाप की दुर्दशा का कारण बनी हुई है और बेटा चुपचाप तमाशा देखता रहता है। अचानक ही वे बड़बड़ाने लगे, ‘‘बेचारा कितना दीन लग रहा था रोते हुए।’’
     ‘‘कौन रो रहा था?’’ नम्बरदारनी ने शायद उन्हें बड़बड़ाते हुए सुन लिया था, ‘‘बहुत परेशान लग रहे हैं आप आज?’’     
      उत्तर में उन्होंने उसे पूरी घटना सुना दी, तब नम्बरदारनी ने भी जो कुछ सुनी-सुनाई बातें थी उन्हें बताते हुए कहा,   ‘‘अरे अपने घर की सोचो। आप भी क्या ले बैठे।’’
     ‘‘क्या हुआ है अपने घर को?’’ उन्होंने गहरी नजर से पत्नी को देखा।
     ‘‘वही, शिमला की कोठी वाला मसला।’’
     ‘‘कल सोचेंगे, काफ़ी रात हो गई है। अभी तो सो जाओ।’’ कह कर उन्होंने बिस्तर सँभाल लिया ।
      सोमेश की पत्नी अर्चना लोअर कोर्ट की वकील थी। विवाह को चार साल गुज़र गए पर वह एक बार भी गाँव नहीं आई थी। कभी-कभार नम्बरदार जी ही सपत्नीक शिमला जा कर सब से मिल आते लेकिन वे वहाँ दो-चार दिन में ही ऊब जाते और फिर अर्चना के व्यवहार में भी कोई ऐसी बात नहीं दिखाई देती थी कि उन लोगों का वहाँ रुकने को मन करे। हाँ कोठी की बात चलने के बाद अर्चना को गाँव देखने की सूझी, लेकिन उसी शाम को उसे याद आ गया कि उसकी तो कोर्ट की तारीखें हैं और तैयारी के नाम पर उसने झट ड्राइवर को गाड़ी निकालने को कह दिया, बस वह यह बात भूल गई कि उस के ससुर प्रसिद्ध समाजसेवी हैं और इन दिनों कोर्ट बंद हैं यह उन्हें भी पता है। 
     गाँव की ज़मीन के बारे में कहने को तो बेटे को उन्होंने सोच समझ कर जवाब देने को कह दिया था लेकिन आज-कल वह रोज ही फोन कर के माँ को पटाने में लगा हुआ था।  
     ‘‘क्या हुआ? आपको नींद नहीं आ रही क्या?’’ उन्हें करवट बदलते देख पत्नी ने पूछा।
     ‘‘हूँ! तुम सो जाओ।’’
     रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी। रह-रह कर उन्हें कालू की समस्या बेचैन कर रही थी। फिर जाने कब उन्हें नींद ने आ घेरा। सुबह जब वह उठे तो सिर भारी-भारी सा था। वैसे तो प्रातः भ्रमण की उनकी आदत ही थी परन्तु आज अनजाने ही उनके पग कालूराम के घर की तरफ़ उठ गए। कालूराम घर के बाहर बँधी गाय के खूँटे के पास फरुआ (फावड़ा) ले कर सफ़ाई कर रहा था बीच-बीच में रुक कर पेट पकड़ लेता और कराहने लगता फिर काम में लग जाता।
     ‘‘कालू भाई, क्या हाल है? कुछ हुआ आराम या नहीं?’’
     ‘‘ऐं! भाई जी!’’ कालू एकदम चौंका, ‘‘आप कब आए?’’
      ‘‘अब तक गोबर भी नहीं उठा क्या? इतना मक्कार आदमी मैंने तो नहीं देखा।’’ अन्दर से तीखी आवाज के साथ बहू भी बरामद हुई किन्तु बाहर नम्बरदार को देख कर झेंप मिटाने की गरज से उनके पाँव छूने को झुकी, ‘‘आप कब आए ताऊ जी?’’    
        ‘‘मैं तो बड़ी देर से इसे पेट पकड़ कर कराहते हुए देख रहा हूँ, क्या बीमारी में भी गोबर उठाना इसी का काम है? ऐसा कठोर व्यवहार तो नौकरों के साथ भी नहीं किया जाता बहू।’’ शमशेर सिंह का चेहरा मारे घृणा के बिगड़ रहा था ।
     ‘‘मैंने तो मना किया था, ये मानते ही नहीं तो मैं क्या करूँ।’’ उसने खा जाने वाली नजरों से ससुर को देखा जो घुटनों में मुँह दिए पीड़ा को दबाने की कोशिश कर रहा था।
      ‘‘हाँ....हाँ....। वह तो मैं देख ही रहा हूँ।’’ फिर उन्होंने झुककर कालूराम का हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए कहा, ‘‘उठो कालू भाई! अन्दर जा कर वह दवा ले आओ जो कल बाजार से लाए थे।’’
      ‘‘मैं लाती हूँ’’ कह कर बहू लपकती हुई भीतर चली गई तो कालू ने बताया कि वह दवा तो बहू ने कल ही पिछवाड़े फेंक दी थी। वह तो दवा खा ही नहीं पाया। अभी वह कुछ और कहता कि इतनी देर में बहू दवा ले आई। शमशेर सिंह ने उसे तिरस्कार से देखते हुए कालूराम का बाजू पकडा़ और उसे खींचते हुए ही अपने घर का रास्ता नाप लिया।
     कालू को घर ला कर नम्बरदार ने उसके हाथ-पैर धुलवाकर उसे अपने कपड़े पहनने को दिए। फिर पत्नी से कहकर उसे दूध का गिलास पीने को दिया और दवा दे कर सुला दिया। पत्नी को हिदायत दी कि उसे घर न जाने दिया जाए। दोपहर को नरम खिचड़ी खिलाने के बाद उसे फिर से सुला दिया गया। शाम होते-होते कालू राम को काफी हद तक आराम हुआ। शाम को कालूराम का बेटा उसे लेने पहुँचा तो उन्होंने कह दिया कि ‘‘जब तक वह ठीक नहीं होता हम उसे नहीं भेजेंगे, तुम्हारा बाप है तो मेरा भी भाई है।’’
     दो ही दिन बाद नम्बरदार शमशेर सिंह को किसी काम से कुल्लू जाना पड़ गया। जाते-जाते अपनी पत्नी और कालूराम दोनों को ताकीद कर दी कि उनके लौटने तक वह यहीं रहेगा, घर हरगिज़ नहीं जाएगा। कालू के बेटे को ताऊ के आदेश का पालन करना ही था, वहाँ उसकी चलने वाली नहीं थी सो चुप रहना ही बेहतर समझा। 
      धीरे-धीरे कालूराम की दशा सुधरती गई। भाई जी के आदेश की अवहेलना करना उसके बस का नहीं था और इच्छा भी नहीं थी। फिर ठीक होते ही वह घर के छोटे-छोटे काम निपटाने लगा तो नम्बरदारनी को भी उसका रहना सुखद लगने लगा। इस बीच भूल कर भी कालूराम ने अपने घर की ओर कदम नहीं रखा । 
      शमशेर सिंह एक सप्ताह बाद लौट कर आए तो उसे बैलों को नहलाते देख कर बोले, ‘‘क्यों! रहा नहीं गया काम किए बिना?’’
     ‘‘अब तो बिल्कुल ठीक हूँ भाई जी!’’ उसने झुक कर शमशेर सिंह के पाँव छुए तो शमशेर सिंह हँसते हुए बोले, ‘‘क्या सलाह है, घर जाना चाहते हो क्या?’’
       कालूराम का चेहरा उतर गया तो वह फिर हँस पड़े, ‘‘अच्छा, ठीक है....ठीक है। जाकर अपना काम करो, इस बारे में फिर किसी समय सोचेंगे।’’ कहकर वह भीतर चले गए। पत्नी से सलाह की तो वह कालू को वहीं रखने पर सहमत दिखाई दी, क्योंकि इससे उसे भी एक सहायक मिल जाता।
      ‘‘आज फिर वकील साहब का फ़ोन आया था।’’ रात को पत्नी ने कहा, ‘‘आपने कुछ सोचा है?’’ बेटा जब से वकालत करने लगा था, वह बेटे को वकील साहब कहने लगी थी।
      ‘‘सोचा है, खूब सोचा है। पिछले आठ-दस दिन से सोच ही तो रहा हूँ। दिन-रात सोच रहा हूँ।
      ‘‘फिर क्या फ़ैसला किया है?’’
      ‘‘फैसला? तो सुनो, मैंने यह फैसला किया है कि..... हम अपनी जमीन नहीं बेचेंगे।’’ नम्बरदार ने एक झटके में अपनी बात पूरी करके करवट बदल ली।
      ‘‘ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?’’
      ‘‘हम कहीं नहीं जाएँगे तो नहीं जाएँगे, बस।’’
      ‘‘पर यहाँ भी तो बच्चों के बिना बड़ा सूना लगता है।’’
 
छाया चित्र : अभिशक्ति 
    ‘‘तो चली जाओ न उनके पास और जाकर उन्हें मेरा फैसला भी सुना देना। फिर देखना कितना प्यार उड़ेलते हैं तुम पर। न एक ही दिन में लौट आईं तो मेरा नाम बदल देना।’’ तनिक रुकते हुए उन्होंने फिर कहा, ‘‘अरे  पगली! क्या तुम भी बँधुआ मजदूर बनना चाहती हो और मुझे भी बनाना चाहती हो?’’

     ‘‘क्या मतलब?’’
     ‘‘देख नहीं रही हो काल़ू का हाल?’’ उन्होंने प्रति प्रश्न किया। 
      ‘‘हमारे बच्चे ऐसे नहीं हैं।’’
      ‘‘लेकिन मैं यह आजमाने के लिए ज़मीन नहीं बेचूँगा। चाहे जो हो जाए। मैं वसीयत लिख कर ही आया हूँ। और सुनो! ज़मीन तुम भी नहीं बेच सकोगी। हमारे बाद वह चाहे जो करें। नहीं बनना हमें बँधुआ मजदूर। यह मेरा फैसला है, आखिरी फैसला।’’ कहने के साथ ही वह उठ कर बाहर निकल गए।

  • कार रोड, पो. लालकुआँ, जिला नैनीताल-262402 // मोबा. : 09456717150 एवं 08958110859

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10,  मई-जून 2014

।। क्षणिका ।

सामग्री : 
इस अंक में श्री नित्यानंद गायेन व श्री चिंतामणि जोशी की क्षणिकाएँ। 



नित्यानंद गायेन 





चार  क्षणिकाएं

01.
हमारे पूर्वज वानर थे 
यानी 
उनकी पूंछ हुआ करती थी 
आज विकसित हो चुके हैं हम 
किन्तु, नाख़ून अब भी बचे हैं 
फिर भी अक्सर 
मैं खोजता हूँ 
अपनी पूंछ....

02. 
जो, चले गए सागर पार 
वानर सेना कहलाये 
हम रुके रहें इस पार 
तो, असुर कहलाये...?
छाया चित्र : उमेश महादोषी 


03. 
कागज़ पर लिखा 
मैंने,
सम्राट, सेना 
जय -जयकार 
राजा खुश हुए 

फिर लिखा मैंने 
तानाशाह, अहंकारी 
‘विद्रोह’ कारागार...

मुझे राजद्रोही कहा गया।

04.
हम सब लगे हुए हैं 
अपने -अपने रंगों की खोज में 
उधर देखिये मुड़कर 
उड़ गया है 
कई चेहरों का रंग 

  • 1093, टाइप-2, आर.के.पुरम, सेक्टर-5, नई दिल्ली-110022 // मोबाइल :  09030895116




चिन्तामणि जोशी 





चार क्षणिकाएँ 

01. नियत
मुँडेर पर दाने
व्यर्थ ही क्यों बिखेरता है
रोज
लेकर ओट
कि चिड़ियाँ तो 
कबके भाँप चुकी
तेरी नियत का खोट।

2. ताला
दिन रात चौकसी की
खूँटे पर टँगा रहा
कसम है फर्ज की
जो झपकी भी ली हो
मैंने सोचा भी न था
कि चाभी 
स्वयं खो कर आओगे
गुस्सा मुझ पर उतारोगे।

3. नियत
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल 
उस आदमी की
नियत के क्या कहने
प्रकृति का आक्रोश सह
लाश में तब्दील
आदमी के अंग काट
निकाल रहा है गहने।

4.सुख का स्वप्न
बहुत पहले से
कतरा-कतरा 
आँसू डाला
एक सुख का 
स्वप्न पाला
अब मेरे टुकड़ों पर पला
कुत्ता ही मुझको काटता है,
पैरों पर तब लोटता था
अब वो मुँह को चाटता है।

  • देवगंगा, जगदम्बा कॉलोनी, पिथौरागढ-262501, उ.खंड // मोबा. :  09410739499

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10, मई-जून  2014

।।हाइकु।।

सामग्री :  इस अंक में डॉ. सुधा गुप्ता, वंदना सहाय व डॉ.दिनेश त्रिपाठी ‘शम्श’ के हाइकु। 

डॉ. सुधा गुप्ता




(वरिष्ठ कवयित्री डॉ. सुधा गुप्ता जी का पर्यावरण के विभिन्न सन्दर्भों पर केन्द्रित हाइकुओं का संग्रह ‘खोई हरी टीकरी’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनके कुछ प्रतिनिधि हाइकु।)

पंद्रह हाइकु


01.
लिखते पेड़
हरियाले पन्ने पे
प्रेम की पाती
02.
छाया चित्र : अभिशक्ति 
चितेरे! तूने
हरा रंग बिखेरा
मुट्ठी भर के!
03.
प्रकृति परी
कहाँ पाई तूने ये 
जादू की छड़ी
04.
कटे जो पेड़
विवस्त्रा है धरा
लाज से गड़ी
05.
तुलसी चौरा
सँझवाती का दीया
कहाँ खो गए
06.
पेड़ों के साये
सपनों में आते हैं
सड़कें सूनी
07.
हवा में भरी
बारूद की दुर्गंध
खोया वसंत
08.
मानव चेत
छाया चित्र : रामेश्वर काम्बोज हिमांशु 

ओजोन परत में
बढ़ता छेद
09.
‘हरे फेफड़े’
काट डाले धरा के
साँस ले कैसे
10.
नीम की छैंया
ए.सी. को छोड़कर
आना ही होगा
11.
डूब गई लो
खौलते सागर में
जीवन-तरी
12.
पेड़ जो कटे
उजड़े आशियाने
रूठी गौरैया
13.
बच्चों की मौत
खोया आँगन-गीत
भोर की रीत
14.
सूखे होंठों से
उधर तरसते 
लोग खड़े हैं
15.
मन मौजी है
जंगल को गाने दो
अपना गीत

  • 120 बी/2, साकेत, मेरठ (उ.प्र.) // दूरभाष :  0121-2654749



वंदना सहाय





छै हाइकु


01.
झूठ का डिब्बा 
बेईमानी की रेल 
कैसा ये खेल? 
02.
दूर का चाँद 
पास से जब देखा 
भूखा था वह 
03.
स्तन जो सूखा
दुधमुँहा है भूखा 
महँगा दूध 
छाया चित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल 
04.  
देने दहेज
रोज कुछ बचाती 
कम है खाती
05.  
विष पीकर 
माँ के कोख से जन्मीं
सुधा पिलाने 
06.
बता दो उन्हें 
कितना खाए ग़म 
कितना कम?

  • टावर 12-302, ब्लू रिज, हिंजेवाड़ी, फेज-1, पुणे-411057, महा. // मोबा. : 09325887111 व  09372224189 



डॉ.दिनेश त्रिपाठी ‘शम्श’


पांच हाइकु

01.
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
विद्या तो नहीं
किन्तु बढ़ गया
बस्ते का बोझ
02.
आदमी ही क्या 
पेड़ तक बौराया
फागुन आया
03.
एक छुवन
बन गई जिन्दगी
भर की निधि
04.
गाँव-गाँव में
शहर घुस गया
बदले गाँव
05.
बिना स्वप्न के
थम गया जीवन
नहीं प्रगति

  • जवाहर नवोदय विद्यालय, ग्राम घुघुलपुर, पो. देवरिया, जिला: बलरामपुर-271201(उ.प्र.)

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10  : मई-जून   2014

।। जनक छंद ।। 

सामग्री : इस अंक में मुखराम माकड़ 'माहिर' के जनक छंद। 



मुखराम माकड़ ‘माहिर’




जनक छन्द
01.
खारी सच्ची आक-सी
दीपक बुझते प्रीत के
कहना कभी न आग-सी
02.
चमक-दमक आकाश में
पेड़ उड़े तूफान में
धान बहे अब बाढ़ में
03.
राम देवता चरित के
कृष्ण देवता ज्ञान के
भगवन भूखे भाव के
छाया चित्र : अभिशक्ति 
04.
माया आई हाथ में
भूला कच्ची कोठरी
तिनका तिनका साथ में
05.
सच भूखे की रोटियां
शिवम् नंगे का कपड़ा
सुन्दर जग की कोठियां
06.
पछतावा मिटता नहीं
जपिये चाहे नाम हरि
मुरझाया खिलता नहीं

  • विश्वकर्मा विद्या निकेतन, रावतसर, जिला- हनुमानगढ़ (राज.)// मोबाइल: 09785206528