आपका परिचय

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 03-04,  नवम्बर-दिसम्बर  2014


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


रेखा चित्र : के. रविन्द्र 
।।सामग्री।।

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सम्पादकीय पृष्ठ { सम्पादकीय पृष्ठ }:  नई पोस्ट नहीं। 

अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} : इस अंक में स्व. सुरेश यादव, संदीप राशिनकर, अनुप्रिया, जगन्नाथ ‘विश्व’, आकांक्षा यादव , मोहन भारतीय, श्याम झँवर ‘श्याम’ व कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’ की काव्य रचानाएं।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} :   इस अंक में सर्वश्री (डॉ.) अशोेेेक भाटिया, पृथ्वीराज अरोड़ा, माधव नागदा, मोहन राजेश, श्यामसुन्दर अग्रवाल, शंकर पुणतांबेकर, अवधेश कुमार, चैतन्य त्रिवेदी, रामकुमार आत्रेय, (डॉ.) रामकुमार घोटड़, सुश्री रचना श्रीवास्तव  एवं श्री ‘कुँवर प्रेमिल की इकसठ लघुकथाएँ...’ से  कुँवर प्रेमिल की लघुकथाएँ।

कहानी {कथा कहानी} : नई पोस्ट नहीं।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} :  इस अंक में डॉ. सुरेन्द्र वर्मा एवं सुश्री मीना गुप्ता की क्षणिकाएं।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में सुश्री विभा रश्मि, श्री तेजराम शर्मा एवं डॉ. अशोक गुलशन के हाइकु।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} :  इस अंक में डा. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ व प्रदीप पराग के जनक छंद। 

माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  नई पोस्ट नहीं।

बाल अविराम {बाल अविराम} :  इस अंक में  कवि-कथाकार श्री के. एल. दीवान की बाल मन पर केन्द्रित एक बाल कहानी और कुछ कविताएं बाल चित्रकार अभय ऐरन  आरुषि ऐरन  के चित्रों के साथ।  

हमारे सरोकार (सरोकार) :  नई पोस्ट नहीं।

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  नई पोस्ट नहीं।

संभावना {संभावना} :  इस अंक में श्रद्धा पाण्डेय अपनी दो कविताओं के साथ। 

स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} :  नई पोस्ट नहीं।

क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : नई पोस्ट नहीं।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :    डॉ. उमेश महादोषी का आलेख ‘स्थापना चरण से आगे लघुकथा विमर्श’।

किताबें {किताबें} :   नई पोस्ट नहीं।


लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : नई पोस्ट नहीं।

हमारे युवा {हमारे युवा} :  नई पोस्ट नहीं।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम की समीक्षा (अविराम की समीक्षा) :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम के अंक {अविराम के अंक} :   इस अंक में अविराम साहित्यकी के अक्टूबर-दिसम्बर 2014 मुद्रित अंक में प्रकाशित सामग्री की सूची। 

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के  31 दिसम्बर  2014 तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 03-04,  नवम्बर-दिसम्बर 2014


।।कविता अनवरत।।


सामग्री : इस अंक में स्व. सुरेश यादव, संदीप राशिनकर, अनुप्रिया, जगन्नाथ ‘विश्व’, आकांक्षा यादव , मोहन भारतीय, श्याम झँवर ‘श्याम’ व कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’ की काव्य रचानाएं।


सुरेश यादव



{02 दिसम्बर 2014 की सुबह आगरा एक्सप्रैस वे पर मथुरा के निकट एक भयंकर दुर्घटना में प्रतिष्ठित कवि श्री सुरेश यादव असमय ही अनन्त यात्रा पर चले गए। उनके परिवार के साथ तमाम मित्रों और साहित्य जगत के लिए यह एक असहनीय दुःख की घड़ी थी। इस दुर्घटना में उनके परिवार के एक अबोध बच्चे का भी निधन हो गया। उनकी पत्नी और भतीजी घायल हो गए। संभवतः दिसंबर की आखिरी तारीख को उन्हें दक्षिणी दिल्ली नगर निगम के उपायुक्त पद से सेवानिवृत होना था। सुरेश जी बेहद संवेदनशील और सरल व्यक्ति थे। सभी मित्रों से बेहद स्नेह भाव रखते थे। जरूरतमंदों की मदद में वह हमेशा आगे रहते थे। एक बड़े कवि और बड़े पद का अहम् कभी उन्हें छू भी नहीं पाया। उनके संभवतः तीन कविता संग्रह ‘उगते अंकुर’, ‘दिन अभी डूबा नहीं’ एवं ‘चिमनी पर टंगा चांद’ प्रकाशित हुए हैं। अपनी कविताओं में उन्होंने समाज के यर्थाथ को संवेदना के आइने के सामने खड़ा करने का प्रयास किया। बिडम्बना और उनकी चिन्ताओं का यह कैसा विचित्र योग रहा कि जैसे हादसे का वह शिकार हुए, उनके ब्लॉग ‘सुरेश यादव सृजन’ पर 16 दिसंबर 2013 की उनकी जो आखिरी पोस्ट लगी दिखाई दे रही है, उसकी पहली कविता में ऐसे ही हादसों के प्रति उनकी चिंता और संवेदना भी मुखरित है। उनकी इसी और कुछ अन्य रचनाओं की प्रस्तुति के साथ हम सुरेश जी को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।} 

चार कविताएँ

अख़बार की सुबह

अखबारों में
हर सुबह, लिपट कर आते हैं
हादसे
खुल जाते हैं
रेखा चित्र : अनुप्रिया 

चाय की मेज़ पर
फ़ैल जाते डरावनी तस्वीरों में
घर के कोने-कोने
हर सुबह !

अक्षर-अक्षर
नाखून से उभरते हैं
सुबह की आँखों में
ख़ींच देते हैं
खून की लकीरें
आँखों में बहुत गहरी
हर सुबह!  

यह शहर किसका है 

नंगे पाँव
भटकने को मजबूर
ये बच्चे भी
इसी शहर के हैं
और
जलती सिगरेटें
रास्तों पर फेंकने के आदी
रेखा चित्र : संदीप राशिनकर 
ये लोग भी
इसी शहर के हैं
ये शहर किसका है?
जब-जब मेरा मन पूछता है
जलती सिगरेट पर पड़ता है
किसी का नन्हा पांव
और
एक बच्चा चीखता है!

माँ कभी नहीं मरती 

माँ उठती है- मुंह अंधेरे
इस घर की तब-
‘सुबह’ उठती है
माँ जब कभी थकती है
इस घर की
शाम ढलती है
पीस कर खुद को
हाथ की चक्की में
आटा बटोरती
हँस-हँस कर- माँ
हमने देखा है 
जोर जोर से चलाती है मथानी
खुद को मथती है- माँ
और
माथे की झुर्रियों में उलझे हुए
सवालों को सुलझा लेती है
माखन की तरह 
उतार लेती है- घर भर के लिए
माँ- मरने के बाद भी
कभी नहीं मरती है
घर को जिसने बनाया एक मन्दिर
पूजा की थाली का घी
कभी वह
आरती के दिए की बाती बनकर जलती है
घर के आँगन में
हर सुबह
हरसिंगार के फूलों-सी झरती है
माँ कभी नहीं मरती है।

महायुद्ध

खाकर कोई केला
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 

फेंकता है छिलका
और
कोई निरपराध
बीच सड़क पर गिरता है
दूर खड़ा कोई जब
जोर-जोर से हँसता है

महायुद्ध
धीरे-धीरे इसी तरह रचता है
फिर कोई
बरसों तक नहीं हँसता है।
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संदीप राशिनकर




{सुप्रसिद्ध चित्रकार और कवि श्री संदीप राशिनकर जी का वर्ष 2013 में प्रकाशित रेखांकनबद्ध कविता संग्रह ‘केनवास पर शब्द’ हमें हाल ही में पढ़ने का अवसर मिला। राशिनकर जी ने इस संग्रह में रेखाओं और शब्दों दोनों के माध्यम से एक साथ भावचित्रों को उकेरा है केनवास पर। इस तरह उन्होंने चित्रांकन/रेखांकन कला और कविता के बीच अन्तर्सम्बंधों का एक खूबसूरत उदाहरण प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत हैं यहां उनके संग्रह से कुछ कविताएं सम्बन्धित रेखांकनों के साथ।}

कुछ कविताएँ

धरती और बादल
सच है 
धरती से बिछुड़कर
बादल
रोया था, बहुत रोया था!
और 
रेखांकन : संदीप राशिनकर 

अब भी
जब-जब
अतीत
आत्मीय संबंधों का 
ले आता है
बादल की आँखों में आँसू
और कर जाता है भारी
मन के बादल के!
बादल,
झुक जाता है
दूर तक, बड़ी दूर तक
नीचे
धरती की ओर!
धरती 
चाहे, अनचाहे
उठ नहीं पाती
बांधे पैरों में
नियति की बेड़ियाँ
और फिर
आज भी
रो पड़ता है
बादल, विवश बादल
भिगोते हुए
आँचल को
धरती के!! 

कैसे मान लूं
ना 
चिड़िया ने 
छोड़ा है चहकना
ना बंद किया है
अपने नन्हें परों से
रेखांकन : संदीप राशिनकर 

नापना आकाश
प्रकाश भी
तमाम घटाटोपों
घुप्प अंधेरों में भी
चमक ही पड़ता है
बनकर जुगुनू!
नदी भी
तमाम बंदिशों
तमाम बाँधों के बावजूद 
ढूंढ़ ही लेती है राह
और गति को अपने
देती है प्रवाह!
विध्वंस के 
इस विपरीत और भयावह
समय में भी
नहीं रुका है
सुष्टि का
प्रकृति का सृजन
तो बंधु
तुम ही कहो
मैं,
कैसे; कैसे कर दूं
आत्म समर्पण

कैसे; कैसे मान लूं मैं हार?

आबोहवा
पहले
मिलते थे/रुकते थे
अभिवादन करते थे
घंटों बतियाते थे
आबोहवा
रेखांकन : संदीप राशिनकर 

के बारे में
अब मिलते हैं
पर रुकते नहीं
सोचते हैं
रुकेंगे, मिलेंगे
क्या बात करेंगे?
पता नहीं 
इन दिनों क्या हुआ है
न बची है
आब
न बह रही हवा है।

ग़ज़ल
यारो अब कुछ ऐसा कर दो
चेहरों को खुश्बू से भर दो।

सिलसिला कब तक खामोशी का
अब अपने साजों को स्वर दो।

चाँद से कब तक बात करें हम
रेखांकन : संदीप राशिनकर 

अब तो सुनहरी एक सहर दो

कैसे हैं उस देश के वासी
ठंडी हवाओं को कुछ तो खबर दो।

हँसते गाते जिसपे चलें हम
उन्मुक्त ऐसी रहगुज़र दो।

  • 11-बी, राजेन्द्रनगर, इन्दौर-452012, म.प्र. / मोबाइल : 09425314422

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अनुप्रिया 




दो कविताएँ

हम-तुम 

तुम्हारे गुस्से और मेरी जिदों 
के बीच 
फंसे थे हम-तुम 
....
नाराजगी और शिकायतों में 
उलझ कर रह गए थे 
हम-तुम 
....
भूल गए थे 
बेमतलब बेवजह 
मुस्कुराना 
हम-तुम 
....
अपनी-अपनी डायरी में 
रेखांकन : अनुप्रिया 

लिखे हमने 
शिकवे और अफ़सोस भी 
....
समय के पन्नों पर 
हर रोज नए झगडे लिखे हमने 
अपने हस्ताक्षरों के संग 
....
शब्दों के बर्फ गिरते रहे 
हमारे रिश्ते पर 
लगातार 
....
अपनी-अपनी
किताबों के बीच 
छुपा कर रख लिए हमने 
पुरानी यादों के पीले पत्ते
....

बालों में खोंसा हुआ एक उदास सपना
समय से पहले ही 
झुकने लगी है तुम्हारी पीठ 
उग आई है उम्र 
तुम्हारे चेहरे पर 
मकड़ियों के जाले सी 
तुम्हारे बालों में 
खोंसा हुआ है
एक उदास सा सपना 
मुँह लटकाए 
तुम्हारे थके हुए कन्धों पर 
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 

लिख दिया है किसी बच्चे ने 
अपनी पेंसिल से कुछ
यूँ ही 
तुम्हारी आँखों में जो कुछ पढ़ा था मैंने 
बरसों पहले 
वो यह तो कतई नहीं था 
कतई नहीं था यह .....

  • श्री चैतन्य योग, गली नंबर-27, फ्लैट नंबर-817, चौथी मंजिल, डी डी ए फ्लैट्स, मदनगीर, नयी दिल्ली-110062 / मोबाइल : 09871973888
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जगन्नाथ ‘विश्व’




डोली खड़ी तोरे द्वार

प्रिय साजन संग लाया सुख का संसार।
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।

बचपन की सारी सहेलियां मुंहबोली,
जिनके संग खेली तू हिरनी सी भोली,
सुध बुध भूली सब कर सोलह सिंगार
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।

माँ की ममता ने सहलाई घुंघराली अलकें,
आशीष लिये भीग गई बाबुल की पलकें,
मत बिसराना नैहर का लाड़ दुलार,
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।

गोरी बहियाँ से बरजोरी कंगन करेगा,
नयन इन्द्रधनुष निहारते दर्पण हँसेगा,
पूर्ण होगी अभिलाषा मनचाही अपार,
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।

अल्पना सजी मेंहदी हाथों में राती,
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 

कल्पना ने गीत रचे गा उठे बराती,
सेहरा बाँध सैयां लगे शोभित सवार,
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।

विदा आँसू का रुकता न पगला आवेश,
जा लाड़ली सुखी रहना साजन के देश
मात-पिता, सास ससुर, पति ईश्वर स्वीकार
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।

दीपक मर्यादामय मन संजोना लजवंती,
घर की शोभा सूरज सी रखना कुलवंती,
रहे आजीवन गुंजित चिर मंगलाचार
गोरी सांवरी सलोनी डोली खड़ी तोरे द्वार।
  • मनोबल, 25, एम.आई.जी., हनुमान नगर, नागदा जं-456335 (म.प्र.) / मोबाइल : 09425986386

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आकांक्षा यादव 





हमारी बेटियॉँ

हमारी बेटियॉँ
घर को सहेजती-समेटती
एक-एक चीज का हिसाब रखतीं
मम्मी की दवा तो
पापा का ऑफिस
भैया का स्कूल
और न जाने क्या-क्या।

इन सबके बीच तलाशती
हैं अपना भी वजूद
बिखेरती हैं अपनी खुशबू
चाहरदीवारियों से पार भी
छाया चित्र : अभिशक्ति 

पराये घर जाकर
बना लेती हैं उसे भी अपना
बिखेरती है खुशियाँ
किलकारियों की गूँज की ।

हमारी  बेटियॉँ
सिर्फ बेटियॉँ नहीं होतीं
वो घर की लक्ष्मी
और आँगन की तुलसी हैं
मायके में आँचल का फूल
तो ससुराल में वटवृक्ष होती हैं 
हमारी बेटियॉँ।
  • टाइप 5,  निदेशक बंगला, जी.पी.ओ. कैम्पस, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद (उ.प्र.) - 211001

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मोहन भारतीय

पहली किरण तुम्हें दे दूँगा

मैंने सारे अँधियारे को पीने का संकल्प लिया है
मुझको यदि मिल गई सुबह तो पहली किरण तुम्हें दे दूँगा
मैं उन सबके लिये लडूँगा
जिनको नहीं मिला उजियारा
तूफानों से जीत गये पर
तट ने जिन्हें नहीं स्वीकारा
मैंने जीवन भर पतझर से पग-पग पर विद्रोह किया है
मुझको यदि मिल गई बहारें, सारा चमन तुम्हें दे दूँगा
रेखा चित्र : बी. मोहन नेगी 

मेरे युग के लक्ष्मण को
अब बहकाना आसान नहीं है
मेरे अदर्शों के आगे
अब कोई बलवान नहीं है
मैंने जग के हर रावण से लड़ने का संकल्प लिया है
जीत गया तो, एक नई मैं तुझको रामायण दे दूँगा
मैंने कभी किसी से कुछ भी
अपने लिये नहीं मांगा है
मैंने अभिमन्यु बनकर के
दुखों का सागर लाँघा है
मैंने दुखों के कौरव से आजीवन संघर्ष किया है
मैं यदि सफल हुआ तो अपने बढ़ते चरण तुम्हें दे दूँगा
  • प्लाट-17, सड़क-5ए, मैत्री नगर, रिसाली क्षेत्र, भिलाई-490006, छ.गढ / मोबाइल : 09685316191

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श्याम झँवर ‘श्याम’





चप्पा-चप्पा, काग बहुत हैं....

निर्धन को संताप बहुत हैं
पर-निंदा को जाप बहुत हैं

सत्य यहाँ पर हारा क्यों है
झूठों की पदचाप बहुत है

झंझावात बहुत आये हैं
जीवन, जलती आग बहुत है
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी 


कहाँ गई हैं सारी खुशियाँ 
मन पर दुःख की छाप बहुत हैं

पुण्यों की पदचाप खो गई
पापों के ‘षटराग’ बहुत हैं

सद्भावों के हंस नहीं अब
चप्पा-चप्पा, काग बहुत हैं

सदा लड़ाई जारी रखना
जीवन में अभिशाप बहुत हैं
  • 581, सेक्टर 14/2 विकास नगर, नीमच-458441 (म.प्र.) / मोबाइल : 09407423981 

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कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’




ग़ज़ल
कभी बरबाद कर बैठे, कभी आबाद कर बैठे
ज़रा से होश में आए, तुम्हें फिर याद कर बैठे

हमें मारा कहाँ खंजर से, बस नज़रों से है मारा
सुनेगा कौन कहाँ अब मेरी, किसे फरियाद कर बैठे

जो दिन भर चाँद बनके, चाँदनी देते रहे मुझको
मुहब्बत तेरी खुशबू छोड़ खुद बरबाद कर बैठे

बना मेहमान रक्खा है, तुझे इस दिल के दर्पन में
रेखा चित्र : रजनी साहू 

मिली जब-जब भी फुर्सत, साथ तो संवाद कर बैठे

शुरू से अन्त तक कहते रहे, दुनियाँ में क्या रक्खा
इसी दुनियाँ में अपनी जिन्दगी आबाद कर बैठे

अभी तक जिसको मैंने अपनी आँखों से नहीं देखा
वो सूरत अजब और अचूक होगी याद कर बैठे
  • 38-ए, विजयनगर, करतारपुरा, जयपुर-302006, राज. / मोबाइल : 09983811506

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 03 -04,   नवम्बर-दिसम्बर 2014

।। कथा प्रवाह ।।

सामग्री :  इस अंक में सर्वश्री (डॉ.) अशोेेेक भाटिया, पृथ्वीराज अरोड़ा, माधव नागदा, मोहन राजेश, श्यामसुन्दर अग्रवाल, शंकर पुणतांबेकर, अवधेश कुमार, चैतन्य त्रिवेदी, रामकुमार आत्रेय, (डॉ.) रामकुमार घोटड़, सुश्री रचना श्रीवास्तव  एवं श्री ‘कुँवर प्रेमिल की इकसठ लघुकथाएँ...’ से  कुँवर प्रेमिल की लघुकथाएँ।



‘पड़ाव और पड़ताल’ खण्ड-4 से कुछ लघुकथाएँ
{सुप्रतिष्ठित लघुकथाकार एवं दिशा प्रकाशन के संचालक श्री मधुदीप जी आजकल ‘पड़ाव और पड़ताल’ नामक लघुकथा संकलन श्रंखला के संयोजन-प्रकाशन का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। श्रंखला के हर खण्ड में छः लघुकथाकारों की 11-11 लघुकथाएं, उन लघुकथाओं पर अलग-अलग समीक्षकों की समीक्षाएँ, सभी 66 लघुकथाओं पर एक समालोचक का समालोचनात्मक आलेख, लघुकथा पर किसी चिन्तक का अग्रलेख तलघुकथाएँ.था लघुकथा आन्दोलन के पुरोधाओं, जो अब हमारे बीच नहीं हैं, में से किसी एक के आलेख/साक्षात्कार रूप में विचारों को शामिल किया जा रहा है। अब तक इस श्रंखला के आठ खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं। वरिष्ठ लघुकथाकार श्री भगीरथ जी द्वारा संपादित खण्ड-4 में छः लघुकथाकारों- डॉ. अशोेेेक भाटिया, श्री पृथ्वीराज अरोड़ा, श्री माधव नागदा, श्री मोहन राजेश व श्री श्यामसुन्दर अग्रवाल की लघुकथाओं का चयन शामिल है। समीक्षाएँ क्रमशः सर्वश्री बी.एल. आच्छा, प्रो. रूप देवगुण, डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ल, डॉ. मलय पानेरी, डॉ. श्यामसुन्दर दीप्ति व डॉ. बलराम अग्रवाल जी तथा समालोचनात्मक आलेख श्री सूर्यकान्त नागर जी ने लिखा है। स्व. जगदीश कश्यप के आलेख ‘हिन्दी लघुकथा: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में’ को धरोहर के अन्तर्गत शामिल किया गया है। अग्रलेख ‘स्थापना चरण से आगे लघुकथा विमर्श’ डॉ. उमेश महादोषी ने लिखा है। इस खण्ड के सभी छः लघुकथाकारों की एक-एक प्रतिनिधि लघुकथा हम अपने पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।}


डॉ. अशोेेेक भाटिया



श्राद्ध
     वह लौटी तो निराश थी...कल उसे अपने पति का श्राद्ध करना है। पाँच पंडितों को न्योत आई है, पर अब तक एक पैसा भी पल्ले नहीं है। किसी ने उसे एडवान्स भी नहीं दिया है। वह चटाई पर लेटकर इस धर्म-संकट से निकलने की सोचने लगी...
     इतने में दयावती आ गई।
     उसने उठते हुए पूछा, ‘‘कुछ जुगाड़ बना या नहीं?’’
     ‘‘बड़ी मुश्किल से कपूरों ने तीस रुपए एडवान्स दिए...जैसे बहुत बड़ा अहसान कर रहे हों...।’’
     दयावती ने माँ को पैसे दिए, तो उसके मुँह से घड़े जैसी ठण्डी आवाज निकली, ‘‘ये मुझे क्यों दे रही, जाके रामजीवाले को कह, पाँच आदमियों को खीर-पूरी खिलानी है, सामान दे देवे। कम पड़ें तो कहियो, फिर दे देवेंगे, भागे नहीं जा रहे!’’
     दयावती जाने लगी, तो कोने में हिल रहे भाई की तरफ उसका ध्यान चला गया...चादर हटाकर, उसका गाल छूते ही उसने कहा, ‘‘हाय राम! इसे तो बहुत तेज बुखार है, तवे जैसा तप रहा है, कुछ दवाई नी ले के दी...?’’
     ‘‘खराती अस्पताल से पर्ची बनवाई थी। पैसे ही न थे, तो दवा कहाँ से लाती? तू जा, मैं पानी की पट्टी कर दूँगी...।’’
     ‘‘दो दिन पानी की पट्टी करने से ठीक ना हुआ, तो अब कैसे हो जायेगा?’’ सोचते हुए दयावती के मन में
रेखा चित्र : अनुप्रिया 
दोतरफा हवाएँ चलने लगीं...

     माँ ने कहा, ‘‘अब जा भी जल्दी, देखती क्या है? फिर तैयारी में भी टैम लगेगा!’’
     दयावती ने माँ से पूछा, ‘‘श्राद्ध करना क्या बहुत जरूरी होता है?’’
      ‘‘तेरा दिमांग घूम गया है क्या? सारे मुहल्ले वाले लीतर नी मारेंगे? और तेरा बापू भी कह गया था कि श्राद्ध जरूर करना। उसकी आखिरी इच्छा भी पूरी ना करें...?’’
     ‘‘वो सब बाद में देख लेंगे। अभी तो इसको दवा की जरूरत है। कम-से-कम जिन्दा को तो पहले बचा लेवें!’’
     ‘‘तू देख ले फिर, उसकी आत्मा मुझे कोसेगी...किसी को चैन न लेने देवेगी!’’
      ‘‘ये बता, इसमें आत्मा नहीं है...? इसे कुछ हो गया, तो...?’’ कहती हुई दयावती आले में रखी दवा की पर्ची उठाकर मजबूत कदमों से बाहर निकल आई...
  • 1882, सेक्टर-13, अरबन स्टेट, करनाल-132001 (हरियाणा) / मोबा. : 09416152100


पृथ्वीराज अरोड़ा






अहसास
     स्टेनो ने डिक्टेशन लेकर उठने से पहले कहा, ‘‘एक अर्ज है जनाब!’’
     ‘‘कहो?’’
     ‘‘दिवाकर को क्षमा कर दीजिए। वह बहुत गरीब है, नौकरी न रहने पर भिखारी हो जाएगा।’’
     ‘‘नहीं, वह कामचोर है। रोज झगड़ता है। बकवास करता है। उसकी सिफारिश मत करो।’’
रेखा चित्र : कमलेश चौरसिया 
     तभी टेलीफोन की घंटी बजने लगी। उधर से उनकी पत्नी बोल रही थी- महेश आया है। कहता है, नौकरी छूट गई है। बच्चे भूखे मर रहे हैं। कुछ रुपए चाहिए... यहाँ मेरे पास भेज दो... कहता है भैया से नहीं माँग सकूँगा... तो ठीक है, कुछ दे दो... मेरे पास तो कुछ भी नहीं। तनखा तीन दिन हुए खत्म हो चुकी है... अच्छा मैं आता हूँ।
     वह परेशान-से अपने सामने पड़े कागज समेटने लगे और उठने से पहले उन्होंने दिवाकर की शिकायत स्टेनो को दे दी, ‘‘इसे फाड़कर फेंक दो। उसे समझा देना कि ऑफिस में इस तरह झगड़ना बीवी-बच्चेवालों को शोभा नहीं देता!’’
  • द्वारा डॉ. सीमा दुआ, कोठी नं. 854, शहीद विक्रम मार्ग, सुभाष कॉलोनी, करनाल-132001 (हरियाणा)



माधव नागदा




नैतिक शिक्षा
     सबसे बड़ी समस्या छात्रों में नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की थी। देश के भावी कर्णधार दिशाभ्रष्ट थे। उन्हें सही दिशा बताना जरूरी था। पाठ्यक्रम रटाने से भी ज्यादा जरूरी। प्रयोग के तौर पर कस्बे के एक हायर सैकेण्डरी स्कूल को चुना गया। पाठ्य पुस्तकें गौण थीं। मुख्य था आचरण। अध्यापक स्वयं अपने आचरण में बहुत सावधानी बरतते। वे इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को जानते थे कि छात्रों पर उपदेशों के बनिस्बत व्यवहार का अधिक प्रभाव पड़ता है। कुल मिलाकर सारा जोर छात्रों के चारित्रिक विकास पर लग गया। कुछ दिन सब ठीक-ठाक चला। परन्तु अचानक उपस्थिति अत्यन्त न्यून हो गई। समझ में नहीं आ रहा था कि एकाएक ऐसा क्यों हो गया? कोई स्थानीय उत्सव-त्योहार भी तो नहीं थे।
     वस्तुस्थिति की जानकारी के लिए शीघ्र ही अभिभावकों की एक बैठक बुलाई गई। अभिभावकगण रोष में भरे हुए थे, ‘‘आप लोगों ने हमारे छोरों को उलटी पाटी भणा दी। ऐसे स्कूल में भेजकर क्या हम घमेड़े लेवें?’’ सेठ फूलचन्द फट पड़े। ‘‘क्या कह रहे हैं आप सेठजी? हम तो आपके लड़कों को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं।’’ प्रधानाचार्य ने ऐनक उतारकर आश्चर्य व्यक्त किया। ‘‘ राखोड़ो सुधारो हो। छोरे यहाँ आकर बिगड़ते हैं।
मेरा पन्नालाल सुबह-सुबह दूध बेचने जाता है। उसे कहता हूँ कि किलो के लार दो सौ ग्राम पानी तो खटता है। मगर पानी मिलाना तो दूर-पन्ने, मेरा बेटा, मुझे ही उपदेश पिलाता है।’’ दूसरे अभिभावक महोदय बोले जिनका दूध का धन्धा था।
रेखा चित्र : कमलेश चौरसिया 
     ‘‘यही हाल मेरे छोरे का भी है। दुकान पर बैठता है, पर उसे चिन्ता ग्राहक की लगी हुई है। कहीं उसे माल कम न चला जाए या ग्राहक का एक भी फालतू पैसा गल्ले में नहीं आ जाए। जाणै ईके भाईजी को क्रियावर बिगड़तो हुवै।’’ लालाजी ने तोंद पर हाथ फेरते हुए अपनी व्यथा प्रकट की।
     प्रधानाध्यापकजी देखते रह गए। उन्होंने सोचा कि प्रोजेक्ट उलटा ले लिया है। शुरूआत अभिभावकों से होनी चाहिए थी, न कि छात्रों से।
  • लाल मादड़ी (नाथद्वारा)-313301, राज. / मोबाइल : 09829588494





मोहन राजेश

राहें बन्द हैं
     चौराहे पर आते-आते उसके पैर ठिठक गए थे।
     ‘‘तुम यहीं से खरीद लो’’, उसने बीच सड़क से पटरी की ओर आते हुए कहा।
     ‘‘क्यों? थोड़ा ही आगे है- कॉपरेटिव स्टोर। वहाँ सस्ते भी मिलेंगे, अच्छे भी।’’
     ‘‘नहीं, कोई खास फर्क नहीं पड़ता। दो-चार पैसे कम या ज्यादा होते हैं। तुम यहीं से...’’
     ‘‘तुम्हें क्या हो गया है! चार पैसे तो बचेंगे ही। चलो न, इस बहाने थोड़ा घूमना-फिरना भी हो जाएगा।’’
     ‘‘इसे घूमने-फिरने की पड़ी है और आगे जूतेवाला कॉलर पकड़कर जूते नहीं मारे तो कम है। सालभर से ज्यादा हो गया, उसका पेमेण्ट नहीं हो सका। पता नहीं साठ देने हैं या सत्तर! साला, जो भी माँगेगा, देने पड़ेंगे। पर अभी देगा कहाँ से?’’ उसने मन-ही-मन सोचा। चेहरे पर पड़ी पत्नी की प्रश्नसूचक निगाहें महसूसते हुए प्रकट में बोला, ‘‘नहीं, आगे चलना ठीक नहीं है इस वक्त। नरूला सिल्क पर मौसाजी की बैठक लगी रहती है। तुम्हारे साथ देखा तो पता नहीं क्या सोचेंगे! सभी जगह कहते फिरेंगे रिश्तेदारी में, कि दस दिन शादी को हुए और बेटा बीवी को लेकर...’’। ग्राउन्ड सॉलिड था। संस्कारग्रस्त पत्नी को भी जेनुइन लगा, लेकिन सोचने में अधिक
रेखा चित्र : रजनी साहू 
समय गँवाए बिना ही उसने राह निकाली, ‘‘ठीक है, इधर साथवाली गली से चलते हैं।’’

     ‘‘अगले चौराहे पर गली के नुक्कड़ पर बैठा चन्द्रा पानवाला छोड़ देगा बिना आवाज दिए!’’ वह मन ही मन कुढ़ा। ‘‘कम्बख्त ने इतने-से दिनों में बाहर का जोग्राफिया समझ लिया है!’’ उसकी पेशानी पर पसीना छलछला आया, यूँ तो चलता है, पर बीवी के सामने उधारियों से जलील होना दूसरी बात है।
     ‘‘ऐसा करो, अभी तुम ही जाकर खरीद लाओ, जो कुछ चाहिए तुम्हें। मैं घर चल रहा हूँ...’’ उसने झिझकते-झिझकते कहा, ‘‘दरअसल अभी मैं लेट्रिन हो आना चाहता हूँ, बहुत जोर की...।’’ उसने दो अँगुलियाँ उठा दीं।
     और पत्नी की ओर देखे बिना ही थैला उसके हाथ में थमा, वह तेजी से पीछे मुड़ गया था।     

  • ज्ञानवृद्धि, 19, चौधरी कॉलोनी, ब्यावर, अजमेर (राजस्थान) / मोबाइल :  09461594940


श्यामसुन्दर अग्रवाल




अनमोल खजाना
     अपनी आलमारी के लॉकर में रखी कोई वस्तु जब पत्नी को न मिलती, तो वह लॉकर का सारा सामान बाहर निकाल लेती। इस सामान में एक छोटी-सी चाँदी की डिबिया भी होती। सुन्दर तथा कलात्मक डिबिया। इस डिबिया को वह बहुत सावधानी से रखती। उसने डिबिया को छोटा-सा ताला भी लगा रखा था। मुझे या बच्चों को तो उसे हाथ भी न लगाने देती। वह कहती, ‘‘इसमें मेरा अनमोल खजाना है, जीतेजी किसी को छूने भी नहीं दूँगी।’’
     एक दिन पत्नी जल्दी में अपना लॉकर बन्द करना भूल गई। मेरे मन में उस चाँदी की डिबिया में रखा पत्नी का अनमोल खजाना देखने की इच्छा बलवती हो उठी। मैंने डिबिया बाहर निकाली। मैंने उसे हिलाकर देखा। डिबिया में से सिक्कों के खनकने की हल्की-सी आवाज सुनाई दी। मुझे लगा, पत्नी ने डिबिया में ऐतिहासिक महत्व के सोने या चाँदी के कुछ सिक्के सँभालकर रखे हुए हैं।
     मेरी उत्सुकता और बढ़ी। कौन-से सिक्के हैं? कितने सिक्के हैं? उनकी कितनी कीमत होगी? अनेक प्रश्न मस्तिष्क में उठ खड़े हुए। थोड़ा ढूँढ़ने पर डिबिया के ताले की चाबी भी मिल गई। डिबिया खोली तो उसमें से एक थैली निकली। कपड़े की एक पुरानी थैली। थैली मैंने पहचान ली। यह मेरी सास ने दी थी, मेरी पत्नी को।
रेखा चित्र : स्व. पारस दासोत  
जब सास मृत्युशैया पर थी और हम उनसे मिलने गाँव गए थे। आँसू भरी आँखों और काँपते हाथों से उसने थैली पत्नी को पकड़ाई थी। उसके कहे शब्द आज भी मुझे याद हैं- ‘‘ले बेटी! तेरी माँ के पास बस यही है देने को!’’

     मैंने थैली को खोलकर पलटी तो पत्नी का अनमोल खजाना मेज पर बिखर गया। मेज पर जो कुछ पड़ा था, उसमें वर्तमान के ही कुल आठ सिक्के थे- तीन सिक्के दो रुपये वाले, तीन सिक्के एक रुपये वाले और दो सिक्के पचास पैसे वाले। कुल मिलाकर दस रुपए।
     मैं देर तक उन सिक्कों को देखता रहा। फिर मैंने एक-एक कर सभी सिक्कों को बड़े ध्यान से थैली में वापस रखा ताकि किसी को भी हल्की-सी रगड़ न लग जाए।
  • 575, गली नं.5, प्रतापनगर, पो.बा. नं. 44, कोटकपूरा-151204, पंजाब / मोबाइल :  09888536437



सुभाष नीरव




बारिश
     आकाश पर पहले एकाएक काले बादल छाए, फिर बूँदें पड़ने लगीं। लड़के ने इधर-उधर नजरें दौड़ाईं। दूर तक कोई घना-छतनार पेड़ नहीं था। नए बने हाई-वे के दोनों ओर दूर तक उजड़े-से खेत ही बचे थे, बस। बाइक के पीछे बैठी लड़की ने चेहरे पर पड़ती रिमझिम बौछारों की मार से बचने के लिए सिर और चेहरा अपनी चुन्नी से ढँककर लड़के की पीठ से चिपका दिया। एकाएक लड़के ने बाइक धीमी की। बाईं ओर उसे सड़क से सटी एक छोटी-सी झोंपड़ी नजर आ गई थी। उसने बाइक झोंपडी के सामने जा रोकी और गर्दन घुमाकर लड़की की ओर देखा। जैसे पूछ रहा हो- चलें? लड़की भयभीत-सी नजर आई। बिना बोले ही जैसे उसने कहा- नहीं, पता नहीं अन्दर कौन हो?
     एकाएक बारिश तेज हो गई। बाइक से उतरकर लड़का लड़की का हाथ पकड़ तेजी से झोंपड़ी की ओर दौड़ा। अन्दर नीम अन्धेरा था। उन्होंने देखा, एक बूढ़ा झिलंगी-सी चारपाई पर लेटा था। उन्हें देखकर वह हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ।
     ‘‘हम कुछ देर...बाहर बारिश है...’’ लड़का बोला।
     ‘‘आओ, यहाँ बैठ जाओ। बारिश बन्द हो जाए तो चले जाना।’’ इतना कहकर वह बाहर निकलने लगा।
     ‘‘पर तेज बारिश में तुम....?’’ लड़के ने पूछा।
     ‘‘बाबू, गरमी कई दिनों से हलकान किए थी। आज मौसम की पहली बारिश का मजा लेता हूँ। कई दिनों से नहाया नहीं। तुम बेफिक्र होकर बैठो।’’ कहता हुआ वह बाहर खड़ी बाइक के पास पैरों के बल बैठ गया और तेज बारिश में भीगने लगा।
     दोनों के लिए झोंपड़ी में झुककर खड़े रहना कठिन हो रहा था। वे चारपाई पर बैठ गए। दोनों काफी भीग चुके थे। लड़की के बालों से पानी टपक रहा था। रोमांचित हो लड़के ने शरारत की और लड़की को बाँहों में जकड़ने की कोशिश की।
     ‘‘नहीं, कोई बदमाशी नहीं।’’ लड़की छिटककर दूर हटते हुए बोली, बूढ़ा बाहर बैठा है।’’
छाया चित्र : अभिशक्ति 

     ‘‘वह इधर नहीं, सड़क के पार देख रहा है।’’ लड़के ने कहा और लड़की को चूम लिया। लड़की का चेहरा सुर्ख हो उठा।
      एकाएक, वह तेजी से झोंपड़ी से बाहर निकली और बाँहें फैलाकर पूरे चेहरे पर बारिश की बूँदें लपकने लगी। फिर झोंपड़ी में से लड़के को भी खींचकर बाहर ले आई।
     ‘‘वो बूढ़ा देखो कैसे मजे से बारिश का आनन्द ले रहा है और हम जवान होकर भी बारिश से डर रहे हैं।’’ वह धीमे-से फुसफुसाई और बारिश की बूँदों का आनन्द लेने लगी।
     लड़की की मस्ती ने लड़के को भी उकसाया। दोनों बारिश में नाचने-झूमने लगे। बूढ़ा उन्हें यूँ भीगते और मस्ती करते देख चमत्कृत था। एकाएक वह अपने बचपन के बारिश के दिनों में पहुँच गया। और उसे पता ही न चला, कब वह उठा और मस्ती करते लड़का-लड़की के संग बरसती बूँदों को चेहरे पर लपकते हुए थिरकने लग पड़ा। 

  • 372, टाइप-4, लक्ष्मीबाई नगर, नई दिल्ली-110023 / मोबाइल : 09810534373






‘लघुकथा देश-देशान्तर’ से कुछ लघुकथाएं
{कुछ समय पूर्व प्रतिष्ठित लघुकथाकारद्वय श्री सुकेश साहनी एवं श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमान्शु’ जी द्वारा कनाडा की सुप्रसिद्ध हिन्दी पत्रिका ‘हिन्दी चेतना’ का महत्वपूर्ण लघुकथा विशेषांक संपादित किया गया था। इसी विशेषांक की लघुकथाओं का पुस्तकाकार रूप ‘लघुकथा देश-देशान्तर’ संकलन नाम से वर्ष 2013 में प्रकाशित किया गया है। प्रस्तुत हैं इस संकलन से सर्वश्री शंकर पुणतांबेकर, अवधेश कुमार, चैतन्य त्रिवेदी, रामकुमार आत्रेय, डॉ. रामकुमार घोटड़ व सुश्री रचना श्रीवास्तव की लघुकथाएं।} 

शंकर पुणतांबेकर




आम आदमी
     नाव चली जा रही थी। 
     मँझधार में नाविक ने कहा, ‘‘नाव में बोझ ज़्यादा है, कोई एक आदमी कम हो जाए तो अच्छा, नहीं तो नाव डूब जाएगी।’’
     अब कम हो जाए तो कौन कम हा जाए? कई लोग तो तैरना नहीं जानते थे, जो जानते थे, उनके लिए भी परले पार जाना खेल नहीं था।
     नाव में सभी प्रकार के लोग थे- डाक्टर, अफसर, वकील, व्यापारी, उद्योगपति, पुजारी, नेता के अलावा आम आदमी भी। डाक्टर, वकील, व्यापारी ये सभी चाहते थे कि आम आदमी पानी में कूद जाए। वह तैरकर पार जा सकता है, हम नहीं।
     उन्होंने आम आदमी से कूद जाने को कहा, तो उसने मना कर दिया। बोला, ‘‘मैं जब डूबने को हो जाता हूँ तो आप में से कौन मेरी मदद को दौड़ता है, जो मैं आपकी बात मानूँ?’’
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

     जब आम आदमी काफी मनाने के बाद भी नहीं माना, तो ये लोग नेता के पास गए, जो इन सबसे अलग एक तरफ बैठा हुआ था। इन्होंने सब-कुछ नेता को सुनाने के बाद कहा, ‘‘आम आदमी हमारी बात नहीं मानेगा तो हम उसे पकड़कर नदी में फेंक देंगे।’’
     नेता ने कहा, ‘‘नहीं-नहीं, ऐसा करना भूल होगी। आम आदमी के साथ अन्याय होगा। मैं देखता हूँ उसे। मैं भाषण देता हूँ। तुम लोग भी उसके साथ सुनो।’’
     नेता ने जोशीला भाषण आरम्भ किया, जिसमें राष्ट्र, देश, इतिहास, परम्परा की गाथा गाते हुए, देश के लिए बलि चढ़ जाने के आह्वान में हाथ ऊँचा कर कहा, ‘‘हम मर मिटेंगे, लेकिन अपनी नैया नहीं डूबने देंगे, नहीं डूबने देंगे!’’
     सुनकर आम आदमी इतना जोश में आया कि वह नदी में कूद पड़ा।

  • 2, मायादेवी नगर, जलगांव-425002, महा.




अवधेश कुमार   

नोट
     उन्होंने मेरी आँखों के सामने सौ का नोट लहराकर कहा, ‘‘यह कवि-कल्पना नहीं इस दुनियां का सच है। मैं इसे जमीन में बोऊँगा और देखना, रुपयों की एक पूरी फसल लहलहा उठेगी।’’
     मैंने उस नोट को कौतुक और उत्सुकता के साथ ऐसे देखा जैसे मेरा बेटा पतंग देखता है।
     मैंने उस नोट की रीढ़ को छुआ, उसकी नसें टटोलीं। उनमें दौड़ता हुआ लाल और नीला खून देखा।
     उसमें मेरा खाना और खेल दोनों शामिल थे।
रेखा  चित्र : डॉ.सुरेन्द्र वर्मा 

     उसमें सारे कर्म, पूरी गृहस्थी, सारी जय और पराजय शामिल थी। भय और अभय, संचय और संशय, घात और आघात, दिन और रात शामिल थे।
     मुझे हर कीमत पर अपने आपको उससे बचाना था।
     मैंने उसे कपड़े की तरह फैलाया और देखना चाहा कि क्या वह मेरी आत्मा की पोशाक बन सकता है?
     उन्होंने कहा, ‘‘सोचना क्या और इसे पहन डालो। यह तुम्हारे पूरे अस्तित्व को ढक सकता है।’’



चैतन्य त्रिवेदी

खुलता बंद घर
     कोई खास बात नहीं थी। चाबी गिर पड़ी थी। चारों ओर अँधेरा था और अँधेरे में चाबी ढूँढ़ना कितना मुश्किल काम है! जहाँ चाबी के गिरने की आवाज हुई, वहाँ घण्टों खड़ा रहता आया हूँ। आज भी घर के दरवाजे पर मैं अकेला खड़ा सोच रहा था कि चाबी नहीं मिली तो ताला कैसे खुलेगा और मैं घर में दाखिल कैसे हो पाऊँगा? मुझे रात कहीं बाहर गुजारनी होगी या फिर इसी सहन में।
     मैं अंदाजे से ज़मीन पर हाथ फिरा रहा था, चाबी मिल जाए शायद। चाबी तो नहीं मिली, टूटी चूड़ी का टुकड़ा मिल गया, जिससे मुझे पत्नी के हाथों की तब की खनखनाहट याद आ गई, जब वह नई-नई आई थी। अब वह
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी 
यदाकदा ही चूड़ियाँ पहनती है। स्मृतिपटल के एक गवाक्ष का ताला खुला।

     हथेली में चुभे काँच के कारण खून की बूँद निकल आई। सड़क की मद्धिम रोशनी में मैंने देखा तो पत्नी के चेहरे की छोटी-सी बिन्दी की तरह लगी खून की वह बूँद, जिसे देखकर पता नहीं मैं कहाँ खो गया, जबकि मुझे ढूँढ़नी चाबी है।
     अगली बार मुझे कागज का टुकड़ा मिला। मैंने उजाले की तरफ जाकर देखा तो उस कागज पर बच्चे की मँगाई नई किताब का नाम लिखा था।
     वहीं दरवाजे के बाजू वाले पैसेज में रिबन की एक चिंदी मिली, मानो उस रिबन में झाँकते हुए बेटी पूछ रही हो, ‘‘पापा, नया रिबन लाए क्या?’’
      घर, जो घर के भीतर नहीं पाया मैंने, वही घर दरवाजे के आसपास बिखरा पड़ा था। चाबी मिल नहीं रही थी, लेकिन घर खुलता जा रहा था।     





रामकुमार आत्रेय




बिन शीशों का चश्मा
      उस दिन गाँधी जयन्ती थी। स्कूल में धूमधाम से मनाई जानी थी। गाँधी जी की मूर्ति की जरूरत पड़ी तो उसे स्कूल के कबाड़खाने में ढूँढा गया। ढूँढ़नेवाला एक अबोध बच्चा था। उसके अध्यापक ने उसे ऐसा करने को कहा था। मूर्ति वहीं एक कोने में पड़ी मिल गई। प्लास्टिक की थी। पर उसका चश्मा गायब था। बच्चे ने बहुत ढूँढ़ा पर नहीं मिला। कबाड़ के ढेर में मिलता भी तो कैसे मिलता।
     बच्चा मूर्ति को झाड़-पोछकर बाहर ले जाने लगा तो अचानक वह बोल पड़ी- ‘‘बेटा, जरा रुको।’’ 
     बच्चा रुक गया। बोला- ‘‘कहिए बापू, क्या कहना है?’’
     बच्चे के लिए वह मूर्ति, मूर्ति नहीं, बापू गाँधी ही थे।
     ‘‘बेटा मेरा चश्मा नहीं है। ऐसे में मैं कैसे देख पाऊँगा? वैसे भी चश्मे के बिना मैं लोगों को किसी जोकर जैसा नजर आऊँगा। मेरा अपमान न कराओ बेटा। पहले कोई चश्मा ले आओ कहीं से।’’ मूर्ति का स्वर अनुरोध भरा था।
     ‘‘ठीक है, बापू जी। मैं अपने दादा जी का चश्मा ले आता हूँ। लेकिन बापू, उस चश्मे में शीशे नहीं हैं। दादा जी के हाथों से छूटकर एक दिन पत्थर पर गिर गया था। शीशे टूट गए थे। तब से वे उसी बिन शीशे वाले चश्मे को लगाए रहते हैं।’’ बच्चे ने बापू की मूर्ति को बताया।
     मूर्ति हँसने लगी। उसकी हँसी किसी बच्चे जैसी निर्मल थी। कहने लगी- ‘‘फिर तुम्हारे दादा जी उस चश्मे से देखते कैसे होंगे?’’
     ‘‘देखेंगे कैसे, वे तो अन्धे हैं!’’
     ‘‘अन्धे हैं? तो फिर उन्हें चश्मा लगाने की क्या जरूरत है?’’ आश्चर्यचकित मूर्ति के मुँह से निकला।
     ‘‘अन्धे होने से पहले ही दादा जी चश्मा लगाया करते थे। बाद में अन्धा होने पर भी उन्होंने चश्मा नहीं
छाया चित्र : डॉ.बलराम अग्रवाल 
उतारा। जब हमने इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि चोर-लुटेरों को यह बात थोड़े ही मालूम है कि वे अन्धे हैं। घरवाले दिन में खेत में काम करने चले जाते हैं तो वे दरवाजे के पास चारपाई पर बैठे रहते हैं। लोग समझते हैं कि वे देख रहे हैं। इसलिए घर में कोई नहीं घुसता है। हम लोगों ने यह बात किसी को बताई भी नहीं है। चश्में को हाथ लगाकर यह तो कोई देखने से रहा कि वहाँ शीशे हैं कि नहीं।’’ बच्चे ने सबकुछ सच-सच बता दिया।

     इस पर मूर्ति ने तुरन्त कहा- ‘‘बेटा, बस, मुझे तो उसी चश्मे की जरूरत है। आज के लिए माँग लाओ उसे अपने दादा जी से। अच्छा है, मैं भी अपने नाम पर होने वाले पाखण्डपूर्ण नाटक को नहीं देख पाऊँगा!’’
     कहने की जरूरत नहीं कि बच्चे ने अपने घर से उस चश्मे को लाकर मूर्ति को पहना दिया।
     आश्चर्य तो इस बात का था कि समारोह की समाप्ति के पश्चात जब उस बच्चे ने उस चश्मे को घर ले जाने के लिए उतारना चाहा तो वह उतरा ही नहीं। अब वह मूर्ति का स्थाई हिस्सा बन चुका था।

  • 864, ए/12, आजाद नगर, कुरुक्षेत्र-136119 (हरियाणा) / मोबाइल : 09416272588 



डॉ. रामकुमार घोटड़




छत्रछाया
      घर के पिछवाड़े में खाली जगह पर पेड़ लगे हुए थे। पिताजी की मृत्यु के बाद लड़के ने कटवाने शुरू कर दिए। जब एक पेड़ शेष रहा तब माँ ने कहा, ‘‘बेटा, इस पेड़ को रहने दो, काटो मत।’’
     ‘‘क्यों माँ?’’
     ‘‘यह पेड़ तुम्हारे पिताजी का लगाया हुआ है।’’
     ‘‘किसी पेड़ को कोई न कोई लगाता ही है माँ।’’
     ‘‘मैं इसी पेड़ में तुम्हारे पिताजी की आत्मा का अहसास करती हूँ। जब भी मैं इसकी छाँव में बैठती हूँ तो मन को सुकून मिलता है, और यूँ लगता है कि मैं उनके स्नेह, सानिध्य व छत्रछाया में बैठी हूँ।’’
     और लड़के ने उसकी बगल में एक और पेड़ लगा दिया।

  • सादुलपुर (राजगढ़), जिला चूरू-331023 (राजस्थान) / मोबाइल :  09414086800





रचना श्रीवास्तव




अपने-अपने देश में
     अभी कुछ महीने हुए थे डेंटन (अमेरिका) आए हुए। आते समय तो बहुत अच्छा लग रहा था नई दुनिया नए सपने। पर अब इस मशीनरी देश में मैं सवयं को बहुत अकेला महसूस करने लगी। मधुर के जाने के बाद तो घर जैसे काटने को दौड़ता। शाम को घर से नीचे उतर बस थोड़ा टहल लेती तो अच्छा लगता। अब तो टहलना मेरा रोज का नियम बन गया था। एक दिन देखा कि मेरे नीचे वाले अपार्टमेन्ट में कोई रहने आया। एक औरत और उसके साथ एक प्यारी-सी तीन या चार साल की बच्ची थी। अक्सर जब मैं टहलने जाती, वो बच्ची अपनी खिड़की में खड़ी मुझको देखती रहती और एक प्यारी-सी मुस्कान के साथ ‘हाय!’ कहती। मैं भी उसी प्यार से उसका उत्तर देती। कभी-कभी वह मुझे बाहर खेलती मिल जाती। मुझे देख के मेरे पास आती, पर जैसे ही अपनी माँ को आते देखती तो मुझसे दूर भाग जाती। उसने बताया कि उसका नाम क्रिस्टी है। पापा पास में नहीं रहते हैं। उससे कभी-कभी मिलने आते हैं। जब तक उसकी माँ नहीं आ जाती, बस वह यही छोटी-छोटी बातें करती रहती।
      एक दिन जब मैं टहलकर वापस आई तो वह जैसे मेरा ही इंतजार कर रही थी। मुझे देखते ही बोली- ‘‘आई वान्ट टू सी योर होम। कैन आई कम विथ यू।’’ मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ; पर उसकी भोली सूरत और मासूम आँखें जिस तरह मुझे देख रहीं थीं; मैं उसे मना नहीं कर पाई। पर मन में कहीं संकोच भी था। अतः जल्दी से घर दिखाकर हम सीढ़ियों पर आकर बैठ गए।
     ‘‘आपके घर से कितनी अच्छी खुश्बू आ रही थी। मुझे बहुत अच्छा लगा। मेरे घर में मम्मी पता नहीं क्या-क्या बनाती है, अजीब-सी महक आती है।’’
     ‘‘नहीं क्रिस्टी ऐसे नहीं कहते, मम्मी तुम्हारे लिए ही तो बनाती है।’’
छाया चित्र : रोहित काम्बोज 

     ‘‘हाँ, आप सही कहती हैं, पर वो महक मुझे अच्छी नहीं लगती। आपके कपड़े मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। इसको क्या कहते हैं? हाथों में क्या पहना है? माथे पर क्या लगाया है?’’
    इसी तरह वह बहुत-सी बातें पूछती रही और मैं उसके छोटे-छोटे भोले सवालों के जवाब देती रही। मैंने उसके माथे पर एक छोटी-सी बिंदी भी लगा दी। वह चिड़िया-सी चहक उठी, ‘‘क्या मैं ये रख सकती हूँ?’’ बिंदी का पत्ता हाथों में लेकर उसने पूछा।
     तभी उसकी माँ की आवाज आई- ‘‘क्रिस्टी वेयर आर यू?’’
     क्रिस्टी एकदम सहम गई। उसकी सारी चहक काफूर हो गई।
     वह जाने लगी; पर उसकी माँ सीढ़ियों पर आ गई। मैंने ‘हाय!’ कहा, पर उसने कोई उत्तर न देकर सिर्फ सिर झटक दिया। उसने क्रिस्टी का हाथ पकड़ा, उसके माथे से बिंदी उतारकर फेंकते हुए बोली- ‘‘तुमको कितनी बार मना किया है! इनसे बात मत किया करो। ये जादू टोना जानते हैं। ये हाथियों और साँपों के देश से आए हैं।’’ 
  • 2715 Chattanooga Loop, apt 104, Ardmore OK 73401 / ई मेल :  rach_anvi@yahoo.com 




 कुँवर प्रेमिल





{चर्चित लघुकथाकार श्री कुँवर प्रेमिल जी का लघुकथा संग्रह ‘कुँवर प्रेमिल की इकसठ लघुकथाएँ...’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इस संग्रह से उनकी तीन प्रतिनिधि लघुकथाएँ।}

विद्रोह
     ‘‘आ गया रे मेरा पोता’’ -एक दादाजी अपनी पोती को पोता संबोधिक कर उसे लाड़-प्यार से दुलार रहे थे।
     पोती भिनक गई- ‘‘मुझे पोता कहकर मेरा अपमान मत करिये दादाजी।’’
     ‘‘क्यों-क्यों-क्यों?’’ आश्चर्य से पोती को देखते रह गये दादाजी।
     ‘‘आपका पोता कभी समय से होम वर्क करता है। कभी किसी की बात मानता है। कभी आपको एक गिलास पानी लाकर देता है। परीक्षा में कभी ‘ए’ प्लस लाता है। मुझे आपका पोता फूटी आँख नहीं सुहाता है।’’
     ‘‘यह कहीं लड़कियों के प्रति सदियों से बरती गई उपेक्षा का परिणाम तो नहीं है।’’ दादाजी गहरी सोच में डूब गये थे।

नये गीतों की तलाश में
     आमने-सामने के घरों से दो समवयस्का बच्चियाँ निकलकर सड़क पर आईं और खेल शुरू हो गया। रेत के घरौंदे बनाए। किचन बनने पर जरूरी था कि रसोई बनाई जाए। उन्होंने भोजन बनाना प्रारंभ भी कर दिया। उनके मुंह से एक बाल गीत निकला, जिसे वे नाच-नाच कर गाने लगीं-
तेरी मम्मी, मेरी मम्मी,
किचन-किचन-किचन।
तेरे पापा, मेरे पापा,
ऑफिस-ऑफिस-ऑफिस।
तेरी दीदी, मेरी दीदी,
कॉलेज-कॉलेज-कॉलेज।
तेरे भैया, मेरे भैया,
ढिसुंग-ढिसुंग-ढिसुंग।
छाया चित्र : उमेश महादोषी  
     बेटियाँ रचनात्मक होती हैं। इसकी मुहर वे यथासंभव लगा चुकी थीं। गीतों ने पीढ़ियों को जिं़दा रखा है। ये गीत ही तो इन्हें अपनी जीवनधारा से जोड़ेंगे-जिंदगी में इन्हें सलाह-मशविरा देंगे। ज़मीन से आसमान तक की छलांग लगाने में ये गीत ही तो इनकी मदद करेंगे।
     परिवार के सभी सदस्यों की बेबाक समीक्षा ये प्रस्तुत कर चुकी थीं। मैं इन बच्चियों के प्रति ज़ज़्बाती हो गया था। किस तरह खेल-खेल में ही इन्होंने एक गीत की संरचना कर डाली थी।
     अपनी ज़िंदगी में जब-जब ये चलते-चलते थक जाएँगी, तब-तब ये गीत इनका संबल बनेंगे। इन्हीं के सहारे ही तो ये ज़िंदगी के झंझावातों से लड़ेंगी। जब तक ये गीत इनके अधरों पर रहेंगे, कोई भी मुसीबत इन्हें हलकान नहीं कर सकेगी।
     अपने घरोंदे संभालने की जिम्मेवारी आख़िर वे किसे देंगी भला। यूं ही कोई अपना घरोंदा किसी को सौंपता है भला। अपनी प्यार भरी नज़र उन घरौंदों पर डालकर वे स्कूल चली गईं?
     नये गीतों की तलाश में।

मूल-समूल
    दो महिलायें बिंदास बतिया रही थीं।
पहली - ‘‘हम पूरे छः भाई-बहिन थे। मैं सबसे छोटी और एक मेरी सबसे बड़ी बहिन को छोड़कर बाकी सभी डायबिटिक थे।‘‘
दूसरी - ‘‘ताज्जुब है।’’
पहली - ‘‘और यह भी कि हम दोनों ही मूल में पैदा हुए थे। घर के सभी सदस्य हमें अच्छी नज़र से नहीं देखते थे।’’
दूसरी - ‘‘आगे कहो।’’
पहली - ‘‘हम दोनों ही सब भाई-बहिनों में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे, सबसे अच्छी नौकरी और सबसे अच्छे वेतन वाले थे।’’
दूसरी - ‘‘इसका मतलब तो यही हुआ कि मूल में पैदा हुए लोग बेहद निरोगी और बेहद-बेहद टैलेंटेड होते हैं।’’
पहली - ‘‘बेचारे तुलसीदास जी को तो मूल में पैदा होने के कारण घर के बाहर का ही रास्ता दिखा दिया गया था।’’
दूसरी - ‘‘यह तो सर्वविदित है। शायद यही कारण है जो मूल में पैदा बच्चों से संवेदनात्मक स्तर पर जुड़ने में रुकावट पैदा करता है।’’
पहली - ‘‘इसका मतलब चाहे जो हो पर यह मूल की समूल व्याख्या ही संदेहजनक है। अगर पता लगाने की ठान ही ली जाये तो न जाने कितनी ऐसी हस्तियां मिलेंगी जो मूल में पैदा होकर भी स्वनामधन्य हुई होंगी।’’

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