आपका परिचय

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

सामग्री एवं सम्पादकीय पृष्ठ : दिसम्बर 2012

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 4,  दिसम्बर 2012 


प्रधान संपादिका :  मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09412842467)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन  
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 

शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के "अविराम का प्रकाशन" लेवल/खंड में दी गयी है।

 ।।सामग्री।।

   
रेखांकन : पारस दासोत 



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अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत:    इस अंक में डा. ऊषा उप्पल, डा. किशन तिवारी, डॉ. ऊषा यादव ‘ऊषा’, नित्यानन्द गायेन, बरुण कुमार चन्द्रा, डॉ. दशरथ मसानिया, देवी नागरानी एवं ब्रह्मानन्द झा की काव्य रचनाएं।

लघुकथाएँ   {कथा प्रवाह} :   इस अंक में पुष्पा जमुआर, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’, सुरेश जांगिड ‘उदय’, कमल कपूर, सूर्यकान्त श्रीवास्तव की लघुकथाएं।

कहानी {कथा कहानी पिछले अंक तक अद्यतन।

क्षणिकाएँ  {क्षणिकाएँ  इस अंक में रामस्वरूप मूँदड़ा व ज्योति कालड़ा ‘उम्मीद’ की क्षणिकाएँ।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  :  इस अंक में डॉ. अनीता कपूर के दस हाइकु एवं पाँच तांका।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द:  विजय गिरि गोस्वामी ‘काव्यदीप’ के पाँच जनक छंद।

बाल अविराम {बाल अविरामइस अंक में डॉ. यशोदा प्रसाद सेमल्टी एवं प्रभुदयाल श्रीवास्तव की कवितायेँ और उमेश महादोषी द्वारा बच्चों की पत्रिका "बालप्रहरी" का परिचय। साथ में बाल चित्रकारों आरुषी ऐरन, अभय ऐरन एवं  मिली भाटिया के चित्र व  पेंटिंग्स।

हमारे सरोकार  (सरोकार) :   पिछले अंक तक अद्यतन।

व्यंग्य रचनाएँ  {व्यंग्य वाण:   गोविन्द चावला ‘सरल’ व रमेश मनोहरा की हास्य एवं व्यंग्य का पुट लिए कविताएँ।

संभावना  {सम्भावना:  पिछले अंक तक अद्यतन।

स्मरण-संस्मरण  {स्मरण-संस्मरण पिछले अंक तक अद्यतन।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

किताबें   {किताबें} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

लघु पत्रिकाएँ   {लघु पत्रिकाएँ} : लघु पत्रिका 'रंग अभियान' की परिचयात्मक समीक्षा।

हमारे युवा  {हमारे युवा} :   पिछले अंक तक अद्यतन।

गतिविधियाँ   {गतिविधियाँ} : पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम के अंक  {अविराम के अंक} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के 31 दिसम्बर 2012 तक बने आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूचना।

अविराम के रचनाकार  {अविराम के रचनाकार} : पच्चीस और रचनाकारों के परिचय की प्रस्तुति।

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उमेश महादोषी
मेरा पन्ना

  • दोस्तो, वर्ष 2012 कुछ ही क्षणों में विदा हो जायेगा। हम सब यही चाहेंगे, आने वाला समय वह दरिन्दगी और बहसीपन लेकर न आये, जो हमने बीते वर्ष में देखा। पर हमारी इस आशा की पंखुड़ियां कितनी खिल पाती हैं, यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि हम अपने समाज, शासन-प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था को कितना मजबूत कर पाते हैं, सकारात्मक निर्णयों और कार्य-व्यवहार के प्रति उसमें कितनी इच्छा शक्ति पैदा कर पाते हैं।
  • आज हम जिस मोड़ पर खड़े हैं, उसे सरकार, राजनैतिक एवं न्यायिक तन्त्र के साथ समाज को भी समझना पड़ेगा। दामिनी के सन्दर्भ में हमने देखा कि कई जगह कचहरियों और दूसरे सार्वजनिक कार्यों से संबन्धित कार्यालयों पर आये दूर-दराज के लोगों ने भी इस घटना का गम्भीर नोटिस लिया और उन्हीं स्थलों पर अपने सामूहिक आक्रोश एवं शोक को अभिव्यक्त किया। यह एक बड़ा संकेत है। किसी को इसे हल्के से नहीं लेना चाहिए। लोगों के दिलों में आग कौन सा रूप धारण कर रही है, इसके लिए एक संकेत काफी है। लेकिन यह भी सत्य है कि सरकारें और हमारा राजनैतिक तन्त्र अभी भी सोया पड़ा है। देखते हैं कि यह जागना पसन्द करता है या सोते-सोते अपने अन्जाम तक पहुंचने का विकल्प चुनता है।
  • एक बात और। हमने पिछले दिनों में अनेक तरह की चर्चाएं देखी-सुनी हैं। क्या इन चर्चाओं से कोई दीर्घकालीन समाधान निकल पायेगा? क्या यह सच नहीं है कि हमारे समाज की कई ज्वलन्त समस्याओं की जड़ें एक-दूसरे से जुड़ी हैं? तब क्या हमें तात्कालिक उपायों के साथ-साथ दीर्घकालिक पैकेज समाधान की खोज की ओर नहीं बढ़ना चाहिए?
  • ईश्वर करे नया वर्ष हमारे लिए कुछ ऐसी ही समझ और इच्छा शक्ति की भेंट लेकर आये।

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 4,  दिसम्बर 2012


।।कविता अनवरत।।

सामग्री : इस अंक में डा. ऊषा उप्पल, डा. किशन तिवारी, डॉ. ऊषा यादव ‘ऊषा’, नित्यानन्द गायेन, बरुण कुमार चन्द्रा,  डॉ. दशरथ मसानिया, देवी नागरानी एवं  ब्रह्मानन्द झा की काव्य रचनाएं।




डा. ऊषा उप्पल




आक्रान्ता

तुम सोचते हो- तुमने मुझे कुचल दिया
मेरे नारीत्व, मेरी अस्मिता को मिटा डाला
तुम कितने ग़लत हो!

तुम्हारे अपराध ने मुझे भगवान के समकक्ष बिठा दिया
मां बनाकर
तुम क्या बने? एक आततायी, पशु, कापुरुष
और संसार की नज़र में अपराधी
तुम कुछ नहीं कर सके
मां का दर्जा तुम्हारी नियति नहीं है
पर फिर भी तुम विजयघोष करते हो
और सोचते हो तुम अजेय हो
तुम कितने ग़लत हो!
रेखा चित्र : मनीषा सक्सेना 

मैं कभी सिर झुकाकर नहीं चलूंगी
क्योंकि अपराध मैंने नहीं तुमने किया है
तुम तो केवल जिस्म हो
आत्मबल तुममें नहीं, मुझमें है
अगर तुम सोचते हो तुम मेरे नियन्ता हो
जिस्म से रूह को कुचल सकते हो
तुम कितने ग़लत हो!

मैंने पशु से लड़ना सीख लिया है
अब न मुझे तोड़ सकोगे, न झुका सकोगे
क्योंकि मैं बहुत ऊंची उठ गई हूं
और तुम बहुत नीचे रह गये हो
फिर भी सोचते हो मुझे झुकाकर छू लोगे
तुम कितने ग़लत हो!

मैं सदा आगे बढ़ती रहूंगी
और तुम देखते रहोगे पराजित से
क्योंकि तुम आक्रान्ता हो
तुममें आत्मबल नहीं
फिर भी सोचते हो तुम शक्तिवान हो
तुममें पौरुष है, हिम्मत है
तुम कितने ग़लत हो!

ज़रा पलटकर देखो बीते हुए वक़्त को
तुम पौरुषविहीन हो, खाखले हो, अस्तित्वविहीन हो
तुम्हारा अभिमान मिट चुका है
तुम्हारा अहं लुट चुका है
पर मुझे तुम नहीं मिटा सके
मैं आज भी सर ऊंचा किये खड़ी हूं
मैं शक्ति हूं, मां हूं, सृजनकर्ता हूं
जो तुम जानते हो पर मानते नहीं
तुम कितने ग़लत हो!

  • 159, सिविल लाइन्स, बरेली-134001 (उ.प्र.)



डा. किशन तिवारी





{डा. किशन तिवारी ग़ज़ल के जाने माने हस्ताक्षर हैं। उनका ग़ज़ल संग्रह ‘सोचिये तो सही’ हाल ही में हमें पढ़ने को मिला। उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं दो ग़ज़लें।}

दो ग़ज़लें

एक
हर तरफ घिर आयें जब काली घटाएँ, क्या करें
फँस गई  अपनी भँवर में आस्थाएँ,  क्या करें

था बहुत चालाक मन पर, जाल की मछली बना
फड़फड़ाता  ढूंढ़ता  संभावनाएँ,   क्या  करें
रेखांकन : के. रविन्द्र 

देखकर चट्टान, मुड़ जाता है, टकराता नहीं
वो बदलता रोज ही, अपनी दिशाएँ, क्या करें

सत्य के संदर्भ, उल्लेखित हुए जब भी यहाँ
प्रश्न प्रति पल प्रश्न-उत्तर यातनाएँ, क्या करें

शब्द में नायक बना, हर जुल्म से टकरा गया
किन्तु व्यवहारों में उल्टी धारणाएँ,  क्या करें

आस्था अस्तित्व का  हर पल  नया  संघर्ष है
व्यर्थ हो जाएँ  जहाँ पर  प्रार्थनाएँ,  क्या करें 

दो
आप हैं पर्वत,  हमें  तिनका  भले  ही  मानिये
किन्तु हर अणु में छिपे, विस्फोट को पहचानिये

तुम  महासागर कई नदियाँ,  तुम्हारी  गोद में
बूँद हमको मानकर, मत  बैर  हमसे  ठानिये

झूठ के  पोथे पे  चढ़, साहित्य के पण्डे बने
ढाई आखर पर न अब, तलवार अपनी तानिये

धुन्ध कोहरे को हटा, सरगम छिड़ेगी धूप की
हैं मुखौटे, आवरण, अन्तिम चरण में जानिये

काँपती हैं क्यूँ भला पुरवाई से पछुआ नकल
झूठ सच के फासले को अब सही पहचानिये

  • 34, सेक्टर-9ए, साकेत नगर, भोपाल-462024 (म.प्र.)



डॉ. ऊषा यादव ‘ऊषा’




ग़ज़ल

लाख वहमों-गुमाँ हम भी पाले रहे
इस बहाने से खुद को सम्हाले रहे

साथ जब तक ये काबे-सिवाले रहे
‘रूह’ में देखो उजले उजाले रहे

जब तलक जीस्त तेरे हवाले रहे
हम सभी ज़हर के पीते प्याले रहे

हाथों से खुद जो गेहूं उगाते रहे
दूर उनसे ही देखो निवाले रहे
रेखांकन : बी. मोहन नेगी 

आस्माँ तक न पहुँचा हमारा नसीब
एक पत्थर तबीयत से उछाले रहे

अच्छी-खासी गुज़र जब गई जिन्दगी
तब लगा बेसबब बैठे ठाले रहे

ग़म भरा इक फ़साना सुनाते रहे
इस तरह अपने क़ातिल को टाले रहे

मेरी ग़ज़लों में है देखो इतना जमाल
इसलिए रश्क़ भी करने वाले रहे

  • 23/47/57-बी, किदवई नगर, अल्लापुर, इलाहाबाद (उ.प्र.)



नित्यानन्द गायेन




गाँव से अभी-अभी लौटा हूँ शहर में

गाँव से
अभी-अभी
लौटा हूँ शहर में

याद आ रही हैं
गाँव की शामें
सियार की हुक्का हू
टर्र-टर्र करते मेंढक
सुलटी‘1 के नवजात पिल्ले
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

कुहासा में भीगी हुई सुबह
घाट की युवतियां
सब्जी का मोठ उठाया किसान
धान और पुआल
आँगन में मुर्गिओं की हलचल

डाब का पानी
खजूर का गुड़
अमरुद का पेड़
मासी की हाथ की गरम रोटियाँ
माछ-भात

पान चबाते दांत
और ...........
नन्ही पिटकुली’2 की
चुलबुली बातें

’1 हमारी कुतिया
’2 छोटे मामा की 5 वर्ष की बिटिया

  • 315, डोयेन्स कॉलोनी, शेरिलिंगम पल्ली, हैदराबाद-500019, आं.प्र.



बरुण कुमार चन्द्रा




....नये युग में जायें

लेकर मन में दृढ़ विश्वास
करें हम कुछ नये प्रयास
जीवन में नयी जोत जगायें।
आओ! हम नये युग में जायें।
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 

ऊँच-नीच का भेद मिटाकर
छोटे-बड़ों को गले लगाकर।
देश प्रेम की नई राह दिखायें
आओ! हम नये युग में जायें।।

राह कठिन है, कहना सरल है
पर दृढ़ निश्चय ही इसका हल है
शनैः-शनैः ऐसा विश्वास जगायें
आओ! हम नये युग में जायें।।

  • विद्या विहार कॉलोनी, भैरव मन्दिर रोड, कनखल, हरिद्वार (उ.खण्ड)



डॉ. दशरथ मसानिया

डॉ. मसानिया बेटियों के प्रति भेदभाव के विरुद्ध और उनके महत्व को बखान करने वाले साहित्य के सृजन में समर्पण भाव से जुटे हैं। हाल ही में बेटी पर केन्द्रित उनका दूसरा काव्य संग्रह (जिसमें इसी विषय पर उनकी कई लघुकथाएँ भी संग्रहीत हैं) प्रकाशित हुआ है। उनके इसी संग्रह से लोक शैली में रचित दो रचनाएँ प्रस्तुत हैं।

बेटी है सरग की तार

हेली म्हारी बेटी आई है द्वार, मनावा खुशी सब नगरी।
मनावा खुशी सब नगरी, मनावा खुशी सब नगरी।।टेक।।

हेली म्हारी बेटी है शरीर को अंग, मत मारो ऊके पेट में पली।
पेट में पली हेली फूल की कली। हेली.....

हेली म्हारी बेटी है सरग की तार,
रेखा चित्र : नरेश उदास 
चढ़ि जावे बेटी चाँद की घाटी। हेली.....

हेली म्हारी मत करजो, बेटी को अपमान
बेटी म्हारी प्रेम की डली।
प्रेम की डली, हेली फूल की कली। हेली....

बोली-बोली माता द्वार, बेटी से म्हारी काया सुधरी
काया सुधरी हेली, काया सुधरी। हेली.....

हेली म्हारी सुनीता, कल्पना सी नार,
थामस आरती को विचार
उड़ि जावे हेली आज की घड़ी। हेली......

मारे मति मैया

मारे मति मैया, वचन भरवायले।
तेरे घर की लछमी, मैं बनके दिखाउँगी।।टेक।।

झाडू भी लगाउँगी, बर्तन मंजवाउँगी।
रेखा चित्र : नरेश उदास 
बिस्तर भी उठवाउँगी, मैं घर भी सजाउँगी।।1।।

बासी रोटी खायके, स्कूल चली जाउँगी।
रोटी भी बनवाउँगी, मैं भाजी भी बनवाउँगी।।2।।

तू जो कहेगी तो चांद चढ़ी जाउँगी।
दुर्गा का अवतार हूँ, मैं दुश्मन को हराउँगी।।3।।

सरस्वती बनके, मैं ज्ञान भी सिखलाउँगी।
अहिल्यादेवी बन के, राज भी चलाउँगी।।4।।

धरम की धुरी बन, जग को बचाउँगी।
भ्रष्टों को मारके, नीति बतलाउँगी।।5।।

  • 123, गवलीपुरा, आगर, जिला शाजापुर-465441 (म.प्र.)



देवी नागरानी




ग़ज़ल

अनबुझी प्यास रूह की है ग़ज़ल
खुश्क होठों की तिश्नगी है ग़ज़ल

उन दहकते से मंज़रो की क़सम
इक दहकती सी जो कही है ग़ज़ल

नर्म अहसास मुझको देती है
धूप में चांदनी लगी है ग़ज़ल
रेखांकन : सिद्धेश्वर 

इक इबादत से कम नहीं हर्गिज़
बंदगी सी मुझे लगी है ग़ज़ल

बोलता है हर एक लफ़्ज़ उसका
गुफ़्तगू यूँ भी कर रही है ग़ज़ल

मेहराबाँ इस क़दर हुई मुझपर
मेरी पहचान बन गई है ग़ज़ल

उसमें हिंदोस्ताँ की खु़शबू है
अपनी धरती से जब जुड़ी है ग़ज़ल

उसका श्रंगार क्या करूँ ‘देवी’
सादगी में भी सज रही है ग़ज़ल

  • 9-डी कार्नर, व्यू सोसायटी, 15/33 रोड बान्द्रा, मुम्बई-400050




ब्रह्मानन्द झा





शहीद



कौन कहता है कि मैं शहीद हुआ हूँ
इस वतन के वास्ते हमीद हुआ हूँ
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 

गाँधी, सुभाष, शेखर, ऊधम के देश में
चोला बसन्ती ओढ़कर मैं नींद हुआ हूँ

ममता स्नेह बिछुए राखी से पूछ लो
माँ के गले मिलकर मैं ईद हुआ हूँ

भर के लाल सिंदूर सीमा की माँग में
कारगिल द्रास के लिए मुफीद हुआ हूँ

  • 1209-बी, शम्भूनग, शिकोहाबाद, जिला: फिरोजाबाद-205135 (उ.प्र.)

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 4,  दिसम्बर 2012 

।।कथा प्रवाह।। 

सामग्री : इस अंक में पुष्पा जमुआर, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’, सुरेश जांगिड ‘उदय’, कमल कपूर, सूर्यकान्त श्रीवास्तव की लघुकथाएं।


पुष्पा जमुआर




अनुत्तरित प्रश्न

    अमृतसर प्रवास में हम सभी पारिवारिक सदस्य बाघा बार्डर देखने गये। दर्शकों की वहाँ पर काफी भीड़ थी। इस तरफ भारत और उस तरफ पाकिस्तान। वहाँ पहुँचकर मन में अजीब सी संवेदना उमड़ पड़ी कि कभी दोनों देश मिलकर पूरा एक देश था- भारत, और आज.....
    हम लोग आगे बढ़े, मेरी गोद में दो वर्षीय पुत्र था। दोनों देश में मात्र चार कदमों का अन्तर था। दोनों देशों के विभाजक-द्वार खुले थे और दोनों देशों के सैनिक सतर्कता की स्थिति में थे। दोनों ओर के दर्शकों के चेहरों पर अपने-अपने देश के प्रति भक्ति-भाव स्पष्ट था।
    दोनों ओर की भीड़ आमने-सामने एक-दूसरे को अजीब-सी दृष्टि से देख रही थी। मैं भी अपवाद न थी। इस चक्कर में यह पता ही न चला कि मेरा पुत्र कब मेरी गोद से निकलकर पाकिस्तान की धरती पर पहुँच गया और उधर खड़ी एक महिला ने बहुत ही प्यार से उसे उठा लिया। पुत्र भी सहज भाव से उसकी गोद में जाकर अपनी तोतली भाषा में कुछ-कुछ बातें करने लगा, वह महिला भी उसमें खो गयी थी।
    एकाएक मेरा ध्यान जब उस महिला की गोद पर गया तो मैं चौंक गयी और वह महिला मुझे देखकर मुस्कुराने लगी। अब तक शाम के छह बज चुके थे। दोनों ओर के सैनिक अपने-अपने देश के झण्डों को सलामी देकर उतारने लगे। भीड़ अपने-अपने देश की जयकार करने लगी और गेट बंद किये जाने लगे।
    मैंने पुत्र को आवाज दी- ‘‘बंटी!’’
    मेरा स्वर सुनकर वह महिला धीरे से मुस्कुराई और बंटी के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे गोद से उतारने लगी किन्तु बंटी उतरने के मूड में नहीं था, मैं परेशान हो गयी। मेरी परेशानी समझते हुए सैनिक अधिकारी ने बंटी को बहुत ही प्यार से उठाया और लाकर मुझे दे दिया। मैं कुछ बोल तो नहीं सकी किन्तु आदर में मेरे दोनों हाथ जुड़ गये और दोनों ओर की भीड़ अपनी-अपनी बस द्वारा लौटने लगी किन्तु वह महिला बंटी को और बंटी उसे तब तक देखते रहे जब तक दोनों आपस में ओझल नहीं हो गये।
    मैं मन-ही-मन फुसफुसा उठी, ‘‘जब दिलों में बैर नहीं तो फिर राजनीतिक दीवारें क्यों?

  • ‘काशी निकेतन’, रामसहाय लेन, महेन्द्रू, पटना-800006 (बिहार)



राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’





कवि-कथाकार राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ जी का लघुकथा संग्रह ‘पहचान’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो लघुकथाएँ।


सुदामा

    आजकल सुदामा झोपड़पट्टी में रहता है। अपने मित्र कृष्ण का दिया हुआ धन उसने दान-पुण्य में लगा दिया। पहले की तरह भिक्षा का चलन नहीं रहा। सरकार ने भी भिक्षावृत्ति पर रोक लगा दी है। गृहस्थी चलाने के लिए धन अर्जन भी अति-आवश्यक है। सुदामा मजदूर बन गया। सुबह से शाम तक वह कड़ी मेहनत करता। खूब पसीना बहाता। शाम को पसीने की कमाई लेकर घर आता।
रेखा चित्र : के. रविन्द्र 
    एक दिन रोटी का कौर चबाते हुए सुदामा की पत्नी बोली, ‘‘कृष्ण द्वारा प्रदत्त वैभव में इतनी मिठास नहीं थी, जितनी मेहनत से कमाई इस रोटी में है।’’
    सुदामा सीना फुलाकर बोला, ‘‘वर्षों तक हमने भिक्षा अर्जन कर सांसों को सम्हाला है। अब मेहनत करने वाले ये हाथ किसी के सामने फैलेंगे नहीं। मेहनत का फल मीठा और निरोग होता है।’’

सुझाव

     बंद कमरे में बैठक हो रही थी। सभी के चेहरे पर हैवानियत पुती थी और मस्तिष्क में शैतान बैठे थे।
     एक ने सुझाव दिया- ‘‘हम ईश्वर को भी अपना साथी बना लें।’’
     इस बेतुक सुझाव पर सभी ने ठहाका लगाया।
     बॉस बोला- ‘‘ईश्वर हमारी बात क्यों मानेगा? जरा समझाकर कहो।’’
     वह बोला- ‘‘मासूम बच्चों को भगवान कहा जाता है।’’
     बॉस उठकर खड़ा हो गया। हाथ नचाकर बोला- ‘‘सर्वश्रेष्ठ सुझाव है, हम आज ही से इस पर अमल करेंगे।’’
     सुझाव देने वाले आतंकवादी ने अपनी पीठ थपथपाई और गर्व से सिर उठा लिया।

  • एलआईजी-2-14, सांदीपनी नगर, उज्जैन-456006 (म.प्र.)



सुरेश जांगिड ‘उदय’





पिछले वर्ष सुरेश जांगिड ‘उदय’ के लघुकथा संग्रह ‘यहीं-कहीं’ का तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।


दोस्ती

    हर रोज गाड़ी से आते-जाते उससे दोस्ती हो गई थी। स्टेशन पर आते ही मैं विकास को और वह मुझे बड़ी बेचैनी से ढूंढ़ता रहता था। दोस्ती इतनी बढ़ चुकी थी कि हम एक-दूसरे के घर आने-जाने लगे थे।
    उस दिन रविवार था, हम दोनों पार्क के एक कोने में बैठे पिकनिक का मजा ले रहे थे। टेप रिकार्डर की धुनों और ठण्डी हवाओं ने एक बहुत अच्छा समां बांध दिया था। पार्क में बने फुटपाथ पर सफाई करते-करते मेरे चाचा की नज़र मुझ पर पड़ी तो वे झाड़ू वहीं रखकर मेरे पास आकर बोले, ‘‘रवि बेटे क्या हाल-चाल हैं? आजकल घर ही नहीं आता, चक्कर लगाता रहा कर, तेरी चाची याद करती रहती है।’’
    ‘‘जी, आजकल थोड़ा टाइम नहीं मिलता।’’ मैंने सफाई देते हुए कहा।
    ‘‘आते रहा करो बेटा।’’ इतना कहते ही वह फिर अपने काम में लग गए। विकास ऐसे देख रहा था जैसे कोई बड़ा भयानक दृश्य हो, वह थूक निगलते हुए बोला, ‘‘ये तुम्हारा सगा चाचा है?’’ ‘हाँ’, मैं स्वाभाविक स्वर में बोला।
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
    ‘‘तो तुम चूड़े हो।’’ जिस असभ्य ढंग से वह बोला था, मुझे लगा मेरे कपड़ों में आग लग गई हो, उस आग की गर्मी मेरे दिमाग में चढ़ रही थी। वह एक झटके से उठा और चल दिया। मैंने उसे रोका नहीं। मैं आज तक उस आग में जल रहा हूँ किसी गीली लकड़ी की तरह।

बग़ावत

    -‘ऐ बाबू जी, दो रुपये दो।’ रिक्शा चालक की कड़कदार आवाज़ से रिक्शा से बिना कुछ दिये उतर कर चलते बने सिपाही के कदम ठिठक गये। सिपाही ने जबाड़ा कसते और घूरते हुए उसकी ओर देखा।
    -‘यूँ क्या देख रहे हो बाबू जी, दो रुपये लाइये।’ रिक्शा चालक उसके घूरने के प्रत्युत्तर में बोला।
    -‘तेरी बहन.....।’ एक गन्दी गाली के साथ ही उसने अपना डण्डा रिक्शा चालक की ओर उठाया तो डण्डा हवा में ही रुक गया। सिपाही ने पीछे मुड़कर देखा। दूसरे रिक्शा वाले ने डण्डे को पकड़ रखा था। धड़ाधड़ कुछ और रिक्शाएं आ-आ कर रुकने लगी थी।
    और उसने चुपचाप दो का नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिया।

  • डी.सी. निवास के सामने, करनाल रोड, कैथल-136027 (हरियाणा)।



कमल कपूर





लक्ष्मी से चण्डी

   ‘नेहा तुमसे ज्यादा पढ़ी-लिखी और सुन्दर है नवीन! और कमाती भी तुमसे ज़्यादा है। तुम कार से दफ्तर जाते हो और वह बस या मेट्रो से। कितनी मिठबोली भी है। गुणों की पोटली है बेटा, वह! फिर भी तुम्हारा बर्ताव उससे ठीक नहीं। ऐसा क्यों?’’
रेखांकन : बी. मोहन नेगी 
   ‘क्योंकि मुझे संतोष मिलता है माँ ये सब करके कि जो लड़की दफ्तर में शासन करती है, मैं उस पर शासन करता हूँ। अगर मैं ऐसा नहीं करूँगा न माँ तो वह हम सबके सिर पर चढ़कर नाचेगी और ना आपको कुछ समझेगी और न मुझे।’
   ‘कितनी गंदी, गलत और छोटी सोच है तुम्हारी। मैं औरत हूँ इसलिए औरत के मन को खूब समझती हूँ। तुम्हारा यह घमंडी और अक्खड़ बर्ताव एक दिन बगावत जगा देगा उसके भीतर और जब वह दिन आयेगा तो मैं तुम्हारा नहीं उसका साथ दूँगी, बल्कि वह चुप रही तो उसकी ओर से लड़ाई मैं लड़ूँगी। यदि मैंने ऐसा नहीं किया तो मेरे अन्दर की औरत मुझे कभी माफ नहीं करेगी। तुम खुद को सुधार लो नवीन, नहीं तो मैं सिखाऊँगी उसे कि कैसे लक्ष्मी से चंडी बना जाता है‘, उफनकर बोलीं माँ और विस्फारित नेत्रों से नवीन उनका यह नया रूप देख रहा था और उसी में कल्पना कर रहा था अपनी सुन्दर-सौम्य लक्ष्मी-सी पत्नी के चंडी रूप की।

  • 2144/9, फरीदाबाद-121006 (हरियाणा)




सूर्यकान्त श्रीवास्तव





‘‘जी हाँ, मैं गीत बेचता हूँ’’
     
       साहित्यकार श्री ने द्वार पर पुराने मित्र, जो नगर छोड़कर किसी अन्य शहर में रहने लगे हैं, को देखकर अत्यधिक प्रशन्नता का अनुभव किया। दोनों गले मिले। गर्मजोशी के माहौल में चाय-नमकीन के साथ दोनों मित्रों में बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। मित्र ने आने का प्रयोजन बतलाया, ‘‘हमारी साहित्य सेवी संस्था द्वारा नगर के दो साहित्यकारों को सम्मानित करने के संबन्ध में मुझे यहाँ भेजा गया है। दो साहित्यकार कौन से होंगे, यह चयन आपको करना है।’’
     साहित्यकार श्री के प्रश्न- सम्मान कब होगा और कहाँ होगा -के उत्तर में मित्र ने कहा, ‘‘यह भी आपको ही सुनिश्चित करना है। सम्भव हो तो यह आज भी हो सकता है। आयोजन आपको करना होगा। हमें तो केवल सम्मान करना है। सम्मान में होगा- सम्मान-पत्र, शाल, फूलमाला एवं नगद राशि का लिफाफा।’’
     ‘‘नगद राशि क्या होगी?’’ साहित्यकार श्री ने जानना चाहा। मित्र ने कहा, ’’मात्र लिफाफा।’’ राशि के बदले में ही तो सम्मान किया जायेगा। यह कहकर दोनों मित्र खिलखिलाकर हँस पड़े।
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
    साहित्यकार श्री ने फोन पर अपने विश्वस्त साहित्यकार मित्रों से बात की, वस्तुस्थिति समझायी। उनकी मेहनत काम आयी। दो साहित्यकारों ने सम्मानित होने के लिये अपनी सहमति दे दी। तदोपरान्त फोन किये गये, समय और स्थान निश्चित कर अपने-अपने इष्ट मित्रों को आमऩ्ित्रत किया गया। विधिवत सम्मानित किया गया, फोटो लिये गये, वीडियोग्राफी हुई। तत्पश्चात जलपान के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ।
    अगले दिन सथानीय समाचार पत्रों में समाचार पढ़ने को मिला-‘‘आन गांव की साहित्य सेवी संस्था ने स्थानीय साहित्यिक मंचों के सहयोग से पखेरू मंच के गोष्ठी भवन में अग्निशिखा काव्य मंच द्वारा आयोजित गोष्ठी में नगर के प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री रतिरंजन एवं महिला साहित्यकार माध्वी ‘माधुर्य’ को सम्मानित किया गया।’’
     समाचार पढ़ते हुए मेरे होठों से अनायास ही कविवर स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की कविता के बोल फूटने लगे- ‘‘जी हाँ, मैं गीत बेचता हूँ’’।

  • ‘सूर्यछाया’ 5 बी-1(ए), विष्णुगार्डन, पो. गुरुकुल कांगड़ी-249404, हरिद्वार (उ.खंड)