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सोमवार, 31 दिसंबर 2012

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 4,  दिसम्बर 2012 

।।कथा प्रवाह।। 

सामग्री : इस अंक में पुष्पा जमुआर, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’, सुरेश जांगिड ‘उदय’, कमल कपूर, सूर्यकान्त श्रीवास्तव की लघुकथाएं।


पुष्पा जमुआर




अनुत्तरित प्रश्न

    अमृतसर प्रवास में हम सभी पारिवारिक सदस्य बाघा बार्डर देखने गये। दर्शकों की वहाँ पर काफी भीड़ थी। इस तरफ भारत और उस तरफ पाकिस्तान। वहाँ पहुँचकर मन में अजीब सी संवेदना उमड़ पड़ी कि कभी दोनों देश मिलकर पूरा एक देश था- भारत, और आज.....
    हम लोग आगे बढ़े, मेरी गोद में दो वर्षीय पुत्र था। दोनों देश में मात्र चार कदमों का अन्तर था। दोनों देशों के विभाजक-द्वार खुले थे और दोनों देशों के सैनिक सतर्कता की स्थिति में थे। दोनों ओर के दर्शकों के चेहरों पर अपने-अपने देश के प्रति भक्ति-भाव स्पष्ट था।
    दोनों ओर की भीड़ आमने-सामने एक-दूसरे को अजीब-सी दृष्टि से देख रही थी। मैं भी अपवाद न थी। इस चक्कर में यह पता ही न चला कि मेरा पुत्र कब मेरी गोद से निकलकर पाकिस्तान की धरती पर पहुँच गया और उधर खड़ी एक महिला ने बहुत ही प्यार से उसे उठा लिया। पुत्र भी सहज भाव से उसकी गोद में जाकर अपनी तोतली भाषा में कुछ-कुछ बातें करने लगा, वह महिला भी उसमें खो गयी थी।
    एकाएक मेरा ध्यान जब उस महिला की गोद पर गया तो मैं चौंक गयी और वह महिला मुझे देखकर मुस्कुराने लगी। अब तक शाम के छह बज चुके थे। दोनों ओर के सैनिक अपने-अपने देश के झण्डों को सलामी देकर उतारने लगे। भीड़ अपने-अपने देश की जयकार करने लगी और गेट बंद किये जाने लगे।
    मैंने पुत्र को आवाज दी- ‘‘बंटी!’’
    मेरा स्वर सुनकर वह महिला धीरे से मुस्कुराई और बंटी के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे गोद से उतारने लगी किन्तु बंटी उतरने के मूड में नहीं था, मैं परेशान हो गयी। मेरी परेशानी समझते हुए सैनिक अधिकारी ने बंटी को बहुत ही प्यार से उठाया और लाकर मुझे दे दिया। मैं कुछ बोल तो नहीं सकी किन्तु आदर में मेरे दोनों हाथ जुड़ गये और दोनों ओर की भीड़ अपनी-अपनी बस द्वारा लौटने लगी किन्तु वह महिला बंटी को और बंटी उसे तब तक देखते रहे जब तक दोनों आपस में ओझल नहीं हो गये।
    मैं मन-ही-मन फुसफुसा उठी, ‘‘जब दिलों में बैर नहीं तो फिर राजनीतिक दीवारें क्यों?

  • ‘काशी निकेतन’, रामसहाय लेन, महेन्द्रू, पटना-800006 (बिहार)



राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’





कवि-कथाकार राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ जी का लघुकथा संग्रह ‘पहचान’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो लघुकथाएँ।


सुदामा

    आजकल सुदामा झोपड़पट्टी में रहता है। अपने मित्र कृष्ण का दिया हुआ धन उसने दान-पुण्य में लगा दिया। पहले की तरह भिक्षा का चलन नहीं रहा। सरकार ने भी भिक्षावृत्ति पर रोक लगा दी है। गृहस्थी चलाने के लिए धन अर्जन भी अति-आवश्यक है। सुदामा मजदूर बन गया। सुबह से शाम तक वह कड़ी मेहनत करता। खूब पसीना बहाता। शाम को पसीने की कमाई लेकर घर आता।
रेखा चित्र : के. रविन्द्र 
    एक दिन रोटी का कौर चबाते हुए सुदामा की पत्नी बोली, ‘‘कृष्ण द्वारा प्रदत्त वैभव में इतनी मिठास नहीं थी, जितनी मेहनत से कमाई इस रोटी में है।’’
    सुदामा सीना फुलाकर बोला, ‘‘वर्षों तक हमने भिक्षा अर्जन कर सांसों को सम्हाला है। अब मेहनत करने वाले ये हाथ किसी के सामने फैलेंगे नहीं। मेहनत का फल मीठा और निरोग होता है।’’

सुझाव

     बंद कमरे में बैठक हो रही थी। सभी के चेहरे पर हैवानियत पुती थी और मस्तिष्क में शैतान बैठे थे।
     एक ने सुझाव दिया- ‘‘हम ईश्वर को भी अपना साथी बना लें।’’
     इस बेतुक सुझाव पर सभी ने ठहाका लगाया।
     बॉस बोला- ‘‘ईश्वर हमारी बात क्यों मानेगा? जरा समझाकर कहो।’’
     वह बोला- ‘‘मासूम बच्चों को भगवान कहा जाता है।’’
     बॉस उठकर खड़ा हो गया। हाथ नचाकर बोला- ‘‘सर्वश्रेष्ठ सुझाव है, हम आज ही से इस पर अमल करेंगे।’’
     सुझाव देने वाले आतंकवादी ने अपनी पीठ थपथपाई और गर्व से सिर उठा लिया।

  • एलआईजी-2-14, सांदीपनी नगर, उज्जैन-456006 (म.प्र.)



सुरेश जांगिड ‘उदय’





पिछले वर्ष सुरेश जांगिड ‘उदय’ के लघुकथा संग्रह ‘यहीं-कहीं’ का तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।


दोस्ती

    हर रोज गाड़ी से आते-जाते उससे दोस्ती हो गई थी। स्टेशन पर आते ही मैं विकास को और वह मुझे बड़ी बेचैनी से ढूंढ़ता रहता था। दोस्ती इतनी बढ़ चुकी थी कि हम एक-दूसरे के घर आने-जाने लगे थे।
    उस दिन रविवार था, हम दोनों पार्क के एक कोने में बैठे पिकनिक का मजा ले रहे थे। टेप रिकार्डर की धुनों और ठण्डी हवाओं ने एक बहुत अच्छा समां बांध दिया था। पार्क में बने फुटपाथ पर सफाई करते-करते मेरे चाचा की नज़र मुझ पर पड़ी तो वे झाड़ू वहीं रखकर मेरे पास आकर बोले, ‘‘रवि बेटे क्या हाल-चाल हैं? आजकल घर ही नहीं आता, चक्कर लगाता रहा कर, तेरी चाची याद करती रहती है।’’
    ‘‘जी, आजकल थोड़ा टाइम नहीं मिलता।’’ मैंने सफाई देते हुए कहा।
    ‘‘आते रहा करो बेटा।’’ इतना कहते ही वह फिर अपने काम में लग गए। विकास ऐसे देख रहा था जैसे कोई बड़ा भयानक दृश्य हो, वह थूक निगलते हुए बोला, ‘‘ये तुम्हारा सगा चाचा है?’’ ‘हाँ’, मैं स्वाभाविक स्वर में बोला।
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
    ‘‘तो तुम चूड़े हो।’’ जिस असभ्य ढंग से वह बोला था, मुझे लगा मेरे कपड़ों में आग लग गई हो, उस आग की गर्मी मेरे दिमाग में चढ़ रही थी। वह एक झटके से उठा और चल दिया। मैंने उसे रोका नहीं। मैं आज तक उस आग में जल रहा हूँ किसी गीली लकड़ी की तरह।

बग़ावत

    -‘ऐ बाबू जी, दो रुपये दो।’ रिक्शा चालक की कड़कदार आवाज़ से रिक्शा से बिना कुछ दिये उतर कर चलते बने सिपाही के कदम ठिठक गये। सिपाही ने जबाड़ा कसते और घूरते हुए उसकी ओर देखा।
    -‘यूँ क्या देख रहे हो बाबू जी, दो रुपये लाइये।’ रिक्शा चालक उसके घूरने के प्रत्युत्तर में बोला।
    -‘तेरी बहन.....।’ एक गन्दी गाली के साथ ही उसने अपना डण्डा रिक्शा चालक की ओर उठाया तो डण्डा हवा में ही रुक गया। सिपाही ने पीछे मुड़कर देखा। दूसरे रिक्शा वाले ने डण्डे को पकड़ रखा था। धड़ाधड़ कुछ और रिक्शाएं आ-आ कर रुकने लगी थी।
    और उसने चुपचाप दो का नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिया।

  • डी.सी. निवास के सामने, करनाल रोड, कैथल-136027 (हरियाणा)।



कमल कपूर





लक्ष्मी से चण्डी

   ‘नेहा तुमसे ज्यादा पढ़ी-लिखी और सुन्दर है नवीन! और कमाती भी तुमसे ज़्यादा है। तुम कार से दफ्तर जाते हो और वह बस या मेट्रो से। कितनी मिठबोली भी है। गुणों की पोटली है बेटा, वह! फिर भी तुम्हारा बर्ताव उससे ठीक नहीं। ऐसा क्यों?’’
रेखांकन : बी. मोहन नेगी 
   ‘क्योंकि मुझे संतोष मिलता है माँ ये सब करके कि जो लड़की दफ्तर में शासन करती है, मैं उस पर शासन करता हूँ। अगर मैं ऐसा नहीं करूँगा न माँ तो वह हम सबके सिर पर चढ़कर नाचेगी और ना आपको कुछ समझेगी और न मुझे।’
   ‘कितनी गंदी, गलत और छोटी सोच है तुम्हारी। मैं औरत हूँ इसलिए औरत के मन को खूब समझती हूँ। तुम्हारा यह घमंडी और अक्खड़ बर्ताव एक दिन बगावत जगा देगा उसके भीतर और जब वह दिन आयेगा तो मैं तुम्हारा नहीं उसका साथ दूँगी, बल्कि वह चुप रही तो उसकी ओर से लड़ाई मैं लड़ूँगी। यदि मैंने ऐसा नहीं किया तो मेरे अन्दर की औरत मुझे कभी माफ नहीं करेगी। तुम खुद को सुधार लो नवीन, नहीं तो मैं सिखाऊँगी उसे कि कैसे लक्ष्मी से चंडी बना जाता है‘, उफनकर बोलीं माँ और विस्फारित नेत्रों से नवीन उनका यह नया रूप देख रहा था और उसी में कल्पना कर रहा था अपनी सुन्दर-सौम्य लक्ष्मी-सी पत्नी के चंडी रूप की।

  • 2144/9, फरीदाबाद-121006 (हरियाणा)




सूर्यकान्त श्रीवास्तव





‘‘जी हाँ, मैं गीत बेचता हूँ’’
     
       साहित्यकार श्री ने द्वार पर पुराने मित्र, जो नगर छोड़कर किसी अन्य शहर में रहने लगे हैं, को देखकर अत्यधिक प्रशन्नता का अनुभव किया। दोनों गले मिले। गर्मजोशी के माहौल में चाय-नमकीन के साथ दोनों मित्रों में बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। मित्र ने आने का प्रयोजन बतलाया, ‘‘हमारी साहित्य सेवी संस्था द्वारा नगर के दो साहित्यकारों को सम्मानित करने के संबन्ध में मुझे यहाँ भेजा गया है। दो साहित्यकार कौन से होंगे, यह चयन आपको करना है।’’
     साहित्यकार श्री के प्रश्न- सम्मान कब होगा और कहाँ होगा -के उत्तर में मित्र ने कहा, ‘‘यह भी आपको ही सुनिश्चित करना है। सम्भव हो तो यह आज भी हो सकता है। आयोजन आपको करना होगा। हमें तो केवल सम्मान करना है। सम्मान में होगा- सम्मान-पत्र, शाल, फूलमाला एवं नगद राशि का लिफाफा।’’
     ‘‘नगद राशि क्या होगी?’’ साहित्यकार श्री ने जानना चाहा। मित्र ने कहा, ’’मात्र लिफाफा।’’ राशि के बदले में ही तो सम्मान किया जायेगा। यह कहकर दोनों मित्र खिलखिलाकर हँस पड़े।
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
    साहित्यकार श्री ने फोन पर अपने विश्वस्त साहित्यकार मित्रों से बात की, वस्तुस्थिति समझायी। उनकी मेहनत काम आयी। दो साहित्यकारों ने सम्मानित होने के लिये अपनी सहमति दे दी। तदोपरान्त फोन किये गये, समय और स्थान निश्चित कर अपने-अपने इष्ट मित्रों को आमऩ्ित्रत किया गया। विधिवत सम्मानित किया गया, फोटो लिये गये, वीडियोग्राफी हुई। तत्पश्चात जलपान के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ।
    अगले दिन सथानीय समाचार पत्रों में समाचार पढ़ने को मिला-‘‘आन गांव की साहित्य सेवी संस्था ने स्थानीय साहित्यिक मंचों के सहयोग से पखेरू मंच के गोष्ठी भवन में अग्निशिखा काव्य मंच द्वारा आयोजित गोष्ठी में नगर के प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री रतिरंजन एवं महिला साहित्यकार माध्वी ‘माधुर्य’ को सम्मानित किया गया।’’
     समाचार पढ़ते हुए मेरे होठों से अनायास ही कविवर स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की कविता के बोल फूटने लगे- ‘‘जी हाँ, मैं गीत बेचता हूँ’’।

  • ‘सूर्यछाया’ 5 बी-1(ए), विष्णुगार्डन, पो. गुरुकुल कांगड़ी-249404, हरिद्वार (उ.खंड)

2 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तम।
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  2. "जी हाँ , मैं गीत बेचता हूँ " पढ़कर अटपटा लगा । साहित्य समाज का दर्पण होता है ।पर अब दर्पण को भी दर्पण दिखाने की जरूरत पड़ रही है ।

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