आपका परिचय

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

ब्लाग को पढ़ना और प्रतिक्रिया दर्ज करना


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5. पाठकों की डाक से प्राप्त प्रतिक्रियाएं हम सम्बंधित अंक के 'कमेन्ट' बोक्स में दर्ज कर देते हैं। जून २०११ अंक की प्रतिक्रियाएं दर्ज हैं। सम्बंधित (जून या जिस अंक पर प्रतिक्रिया भेजी हो) अंक के कमेन्ट बॉक्स को खोलकर पढ़ी जा सकती हैं। सितम्बर अंक पर प्रतिक्रियाएं जल्दी ही दर्ज कर दी जायेंगी।

सम्पादकीय पृष्ठ : अक्टूबर २०११

मेरा पन्ना/डा. उमेश महादोषी

  •  अविराम के सभी पाठकों एवं मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें।

  •  अविराम ब्लॉग का यह अंक कुछेक दिन बिलम्ब से आपके समक्ष प्रस्तुत हैयद्यपि अभी हमारे बहुत से पाठक इन्टरनेट के उपयोग एवं ब्लॉग के उपयोग के बारे में सामान्य जानकारी से भी भिग्य नहीं हैं जिसके कारण उनकी प्रतिक्रियाएं ब्लॉग पर प्रतिबिंबित नहीं हो पर रही हैं, फिर भी पत्र, फोन आदि के माध्यम से काफी मित्रों ने न सिर्फ अपना समर्थन जताया है, ब्लॉग पर सामग्री को पढ़ा भी है और खुशी भी जाहिर की हैउम्मीद है समय के साथ ब्लॉग रचनाकार एवं पाठक मित्रों के मध्य उपयोगी सिद्ध होगाहमने पाठकों की जानकारी के लिए ब्लॉग पर टिपण्णी दर्ज करने की संक्षिप्त जानकारी एक अलग लेवल के अंतर्गत दी है, आशा है पाठकों के लिए उपयोगी होगी ब्लॉग के सदस्य/समर्थक  बनने वाले सभी मित्रों का हार्दिक आभार

  • जैसा कि हमने पिछले अंक में लिखा था, क्षणिका पर हम एक प्रकाशन योजना बना रहे हैं, लेकिन हमें स्तरीय क्षणिकाएं पर्याप्त संख्या में प्राप्त नहीं हो पा रहीं हैं। 

  • हल्के-फुल्के  हास्य या घिसे-पिटे सपाट कथ्यों को क्षणिका कहना उचित नहीं है, ऎसी रचनाओं को क्षणिका के रूप में बहुत अधिक बढावा नहीं दिया जा सकता। यह बात हम सब समझते हैं कि अपने लेखन के महत्व को बनाये रखने एवं किसी भी प्रकाशन योजना को महत्वपूर्ण बनाने के लिए स्तरीय लिखना एवं स्तरीय रचनाओं को प्रकाशन हेतु उपलब्ध करवाना अत्यंत जरूरी है। 

  • क्षणिका लेखन को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है, यह निराशाजनक है। इसके पीछे कुछ कारण भी हैं। क्षणिका पर नियोजित कार्य भी बहुत कम हुआ है, पत्रिकाओं के विशेषांकों की बात हो या संग्रह-संकलनों की। हाइकु व जनक छंद के साथ  हमने अविराम का एक विशेषांक निकाला था जून २०११ में। अविराम में क्षणिका का एक स्तम्भ भी देने का प्रयास रहता है। 

  • वर्षों पूर्व हमने क्षणिका  का एक छोटा सा संकलन  और क्षणिका की एक लघु पत्रिका 'आहट' भी निकाली थी। व्यक्तिगत प्रयासों में उमेश महादोषी (स्वयम मैं) व श्री रमेश भद्रावले के क्षणिका संग्रह आये हैं। संभवत: मिथिलेश दीक्षित जी ने भी क्षणिका पर कार्य किया है। बलराम अग्रवाल जी ने भी क्षणिका को दिशा देने की कोशिश की है। छुटपुट रूप में कई कवियों की क्षणिकाएं देखने को मिलती हैं, पर नियोजित कार्य बेहद अपर्याप्त हैं। जल्दी ही 'सरस्वती सुमन' का भी क्षणिका विशेषांक हरकीरत 'हीर' के अतिथि संपादन में आने वाला है, जो स्वागतेय है। परन्तु प्रत्येक कार्य अंतत: रचनाकारों के क्षणिका लेखन व सहयोग पर ही निर्भर करेगा

  • यदि कवि मित्र क्षणिका को गंभीरता से लेकर अच्छी क्षणिकाएं भेजेंगे, तो हम क्षणिका पर नियोजित कार्यों में यथासंभव योगदान के लिए कृत-संकल्प हैं। आशा है मित्रों की अच्छी क्षणिकाएं  पर्याप्त संख्या में प्राप्त होंगी।



अविराम विस्तारित

इस अंक से रचनाओं के पठन की सुविधा एवं भविष्य में इन रचनाओं की उपयोगिता की दृष्टि अविराम विस्तारित को विधावार उपखण्डों- कविता अनवरत(विभिन्न काव्य रचनाओं का उपखण्ड), कथा प्रवाह (लघुकथा उपखण्ड), क्षणिकाएँ, जनक छन्द एवं अन्य त्रिपदिक छन्द, हाइकु एवं सम्बन्धित रचनाएँ, कथा कहानी (कहानी उपखण्ड), व्यंग्य वाण (व्यंग्य रचनाओं का उपखण्ड) में विभजित कर रहे हैं। अन्य वैचारिक  आलेख ‘अविराम विमर्श’ के अन्तर्गत ही जायेंगे। अगला अंक २० अक्टूबर २०११ तक प्रकाशित होगा आपकी प्रतिक्रियाएं दर्ज करके चर्चा में सहभागी बनें इससे हमारा उत्साहवर्धन होगा कृपया रचनाएँ सम्पादकीय पते-  डॉ.उमेश महादोषी, ऍफ़-४८८/२, गली-११, राजेंद्र नगर,रुड़की-२४७६६७, जिला- हरिद्वार (उत्तराखंड )  पर भेजें

।।सामग्री।।
अनवरत : हृदयेश्वर, हितेश व्यास, आचार्य भगवत दुबे, विद्याभूषण, दिनेश चन्द्र दुबे, प्रशान्त उपाध्याय, कृष्ण सुकुमार,  गांगेय कमल, डॉ.ए. कीर्तिबर्धन, पवन कुमार 'पवन' एवं टी. सी. सावन की कवितायेँ ।
संभावना : नवोदित कवयित्री विनीता चोपड़ा।

।।अनवरत।।

हृदयेश्वर






 सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ गीतकार हृदयेश्वर जी का नया गीत संग्रह ‘धाह देती धूप’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। यहाँ इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं हृदयेश्वर जी के दो गीत -

मुझे बहुत भाता है

मुझे बहुत भाता है
देना चीजों को नाम!

विस्मयकारी हैं मेरे हर शब्द
कि ज्यों बोंसाई
जिनकी खातिर मैंने जाने
कितनी आग गँवाई
कितने दिन, कितनी रातों को
फूँका है अविराम!

हासिल मुझको जो दो-पल
वे चुम्बन जैसे कोमल
मेरे छंदों में छलकाते रहते
वे जीवन-जल
वे अकाल में सारस जैसे
हैं मन के सुखधाम!

वे रोटी हैं, माँ हैं
दृश्य छाया चित्र : रोहित काम्बोज    
आकर दुखती रग सहलाते
कल की नई उम्मीदों से
खाली जेबें भर जाते
वे कपिला गइया जैसे हैं
सीधे वो निष्काम!

वे मेरे बचपन के गुइयाँ
रंगों की पिचकारी
मेरे मन की चादर पर वे
सुंदर-सी फुलकारी
वे जन-मन को हलकाते-से
हैं सुख-दुख के राम!


धाह देती धूप
धूप दरवाजे पकड़कर खड़ी गुमसुम
हादसों के बीच
जलते इस शहर में!

हाथ में दिल को लिए ज्यों चल रहे हम
क्या पता गति भीड़ की कब रचे ताण्डव?
किस गली से दनदनाती मौत निकले
किस गली में कहर बनकर बम फटे कब?

खिड़कियों से रोज देखें हम सड़क पर
जिन्दगी को तोड़ते दम
निमिष भर में!

सुरक्षित अब शाम में घर लौट आना
है किले के फतह जैसा इस शहर में
इक अँदेशा खड़ा मग में जलजला-सा
घिसटते-से बढ़ रहे हम किन्तु-पर में

दिवस खाई तो कुएँ-सी रात पसरी
फँसे हम हैं
वक्त के पगले भँवर में!

उँगलियों पर गिन रहे हैं साँस अपनी
अब न बजती बाँसुरी-सी जिंदगी है
भोर में ज्यों धाह देती धूप निकले
नहीं गलबाँही कहीं, या पा-लगी है

कर तमस के हवाले आकाश मन का
त्रिशंकु से लटकते हम हैं
अधर में!

  • ‘गीतायन’, प्रेमनगर, रामभद्र (रामचौरा), हालीपुर-844101, जिला- वैशाली (बिहार)

हितेश व्यास









चेहरा
एक चेहरे की तलाश है
हर एक को
हर एक के पास है
एक चेहरा
एक चेहरा भीड़ में कहीं खो गया है
हो गया है हर आदमी का
एक चेहरा
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति
एक चेहरा हर हाल में बचाना है
पाना है हर आदमी को
एक चेहरा

छोटी छोटी बात
छोटी छोटी बातों पर
मोटा मोटा ध्यान दिया
और तुमने क्या किया?
मोटी मोटी बातों को सहन कर गये
मोटे मोटे भार को वहन कर गये
छोटे छोटे बोझ को उठा न सके
छोटे छोटे बोझ से बार बार थके
जीवन को टुकड़ों में जिया
और तुमने क्या किया?

  • 1, मारुति कॉलोनी, पंकज होटल के पीछे, नयापुरा, कोटा-324001(राज.) 

आचार्य भगवत दुबे 









प्रश्न सारे ज्वलन्त धर आया

दर्द, अड़ियल सा मुसाफिर आया
पूछ बस्ती से मेरा घर आया

उसकी आँखों में हादसे पढ़कर
याद फिर खौफ़ का सफर आया
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति

इम्तिहां छोड़, पुस्तिका में वह
प्रश्न सारे ज्वलन्त धर आया

ले के शुभकामना गया था मैं
चोट खाकर मिरा जिग़र आया

दोस्त के जिस्म की महक लेकर
तीर तरकस में लौटकर अया

शांति का जो कपोत भेजा था
खून से हो के तर-बतर आया


  • पिसनहारी-मढ़िया के पास, जबलपुर-482003 (म.प्र.)

विद्याभूषण











व्यंग्य दोहे 

।।1।।
करे ठिठौली समय भी, गर्दिश का है फेर।
यश वर्षा  की कामना,  सूखे का है दौर।।
।।2।।
नाम-दाम सब कुछ मिले, जिनके नाथ महंत।
कर्म करो, फल ना चखो,  कहे महागुरु संत।।
।।3।।
हरदम चलती मसखरी, ऐसी हो दूकान।
मौन ठहाके से डरे,  सद्गुण से इन्सान।।
।।4।।
दृश्य छाया चित्र : रोहित काम्बोज  
दस द्वारे का पींजरा,  सौ द्वारे के कान।
सबसे परनिन्दा भली,  चापलूस मेहमान।।
।।5।।
ऐसी बानी  बोलिए,  जिसमें लाभ अनेक।
सच का बेड़ा गर्क हो, मस्ती में हो शोक।।
।।6।।
आडम्बर का दौर है, सच को मिले न ठौर।
राजनीति के  दांव में,   पाखण्डी सिरमौर।।
।।7।।
राज रोग का कहर है, आसन सुधा समान।
जिसको कोई ना तजे, उसे परम पद जान।।

  • प्रतिमान प्रकाशन, शिवशक्ति लेन, किशोर गंज, हरमू पथ, रांची-834001 (झारखण्ड)


दिनेश चन्द्र दुबे










पाँव
भावों के जंगल में उभरे,
सपनें वाले गाँव।
शायद सूनी रात में महके,
पायल वाले पाँव।।

बदन की खुश्बू उभरी स्वर में,
उमड़ी मन अमराई,
पागल मनुआ लगा पकड़ने,
कल्पित-संग परछांई,
    प्यार बिना यूं लगता जीवन,
    उजड़ा जैसे गाँव।।

गोरे मुख पर लहराते वे,
गीले सूखे बाल,
दृश्य छाया चित्र : रोहित काम्बोज  
जलते-बुझते दीप नयन फिर,
देते जीवन ताल,
    यादों के कानन में उभरी,
    वही बरगदी छांव।।

गीतों का उपहार तुझे दूं,
या लिख भेजूं कविता,
स्वर का यह जादू उतार दूं,
कुछ कह मन-सुख-सरिता,
    और तुझे क्या बोल चाहिए,
    साथ चले ये पांव।।

  • 68, विनय नगर-1, ग्वालियर-12 (म.प्र.)


प्रशान्त उपाध्याय









ग़ज़ल

पतझड़ों के नाम फिर मधुमास लिख देना
हारता है मन मेरा विश्वास लिख देना

पीर कैकेयी ठान ले हठ जब कभी मेरी
तब खुशी के राम को वनवास लिख देना

देख लो यदि तुम बिलखता भूख से बचपन
जिन्दगी के नाम तब उपवास लिख देना

रेखांकन  : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा  
बात आये सुर्खियों में जब मेरे हक की
तृप्ति ले लेना सभी तुम प्यास लिख देना

कल कोई पहचान पूछे आज के युग की
सांस के हर पृष्ठ पर संत्रास लिख देना

हो गये वीरान से अब गांव सुधियों के
छन्द रचती गन्ध का अनुप्रास लिख देना

मन के दफ्तर में अनेकों फाइलें हैं दर्द की
जी सकूं अहसास कुछ अवकाश लिख देना

  • 364, शम्भू नगर, शिकोहाबाद-205135 (उ0प्र0)
कृष्ण सुकुमार










ग़ज़ल
किसी सूरत भी मुम्किन हो, हुनर से या दुआओं से
न बुझने दो  मुहब्बत के  चरागों  को हवाओं से

वफ़ा, इन्सानियत, ईमान, सच, मज़हब किसी की भी
हिफ़ाज़त  हो  नहीं पायी  सियासत के खुदाओं से

मुहब्बत, आर्जू,  सपने,  जुदाई,  जुस्तजू,  धोखे
बना है आदमी  मिलकर, इन्हीं  सारी खताओं से

बड़ा होकर बहुत अच्छा है  दानिशमन्द हो जाना
मगर मा‘सूमियत को  खो न देना  बद्दुआओं से

जिन्हें सुन कर बना लेता हूँ तश्वीरे मैं शब्दों की
मुझे आती हैं  आवाज़ें न  जाने किन ख़लाओं की
  • 193/7, सोलानी कुंज, भा.प्रौ.संस्थान, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार (उत्तराखण्ड) 

गांगेय कमल


वीरान खण्डहर
यहां कोठियां आलीशान
बेशुमार इन्सान
वहीं एक पुराना
खण्डहर वीरान
यूं ही चला गया
उधर
झाड़ झंकाड़
फैले जिधर
टूटी फूटी इमारत
जहां/रात सा पसरा
दिन में सन्नाटा है
देख रहा था उसको
और सोच रहा था
उसके वैभव को
अचानक लगा
जैसे कोई कह रहा
आज कैसे आये हो
लगता वक्त के सताये हो
कहो कैसे याद किया
यह वीराना/आबाद किया
हमारी तड़प
महसूस कर सकोगे
दृश्य छाया चित्र : रोहित काम्बोज  
दर्द हमारा
सुन सकोगे
ये मुर्झाये सूखे पत्ते
फड़फड़ाते पक्षी
सहमी सहमी गुमसुम हवा
कहती हमारी कहानी
सिसकियों की जवानी
कभी हम भी
गुलजार थे
हम भी शानदार थे।
हमारी भी आन थी
ऊँचे कंगूरे
बुलन्द दरवाजे
मेहराव प्यारे
दिलकश नजारे
चूड़ियों की खनखन
पायलों की रूनझुन
घोड़ों का हिनहिनाना
चिड़ियों का चहचहाना
जीवन का संगीत
मस्ती के गीत
जिनके लिए कभी
तरसते थे लोग
वो आज,
देखने वालों को
तरसते हैं!

  • ‘गांगेय’, शिवपुरी कालोनी, महिला विद्यालय, जगजीतपुर रोड, कनखल, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)


पवन कुमार ‘पवन’         





 पेड़ तले
हमने जितना समय बिताया पेड़ तले
मौसम ने सब याद दिलाया पेड़ तले
          
पत्ता पत्ता मस्ती में झूमा  उस पल
जब तेरा  ऑचल लहराया पेड़ तले

सारा जीवन जो साया बन साथ चला
उसने भी ना साथ निभाया  पेड़ तले

ऐसे रूठी  धूप  न मेरे  पास   आई
उसको मैंने  बहुत बुलाया  पेड़ तले

मन में मन-चाहा पाने की आस लिये
आस्थाओं ने दीप  जलाया पेड़ तले

दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति  
चेहरे खिले परिंदों के मजदूर तनिक
खाना खाने को  सुस्ताया  पेड़ तले

सच्चाई पे अड़ा जान ही दे  बैठा -
लोगों ने इतना समझाया  पेड़ तले

गॉव निकाला निश्चित कलुआ को होगा
पंचों ने हुक्का सुलगाया  पेड़   तले

चौपालों में आज उसी  के गीत  सुने
कल जिसको फांसी लटकाया पेड़ तले

‘पवन’ तेरी परवाह किसे है ए सी में
तूने  यूं ही मन  भरमाया  पेड़ तले  

  • द्वारा बैंक आफ इंडिया, वि0 प0: शारदेन स्कूल,मेरठ रोड, मुजफ्फरनगर (उ0 प्र0)



डॉ0 ए. कीर्तिबर्द्धन










स्वप्नद्रष्टा
मैं स्वप्नद्रष्टा हूँ।
हरपल जिया करता हूँ।
ख्वाबों की दुनियां
हकीकत में बदलता हूँ।

बाधाएं मेरी चुनौती हैं।
लक्ष्य मात्र विश्राम के कुछ क्षण।

लक्ष्य पाने का मतलब ठहरना नहीं,
अपितु आगे बढ़ना है
नए लक्ष्य पाने तक।
लक्ष्य नाम है नए विश्वास का
एवं उत्साह के साथ
दृश्य छाया चित्र : राधेश्याम सेमवाल 
अनवरत बढ़ते जाने का।
व्यवधान रास्ता रोकने को नहीं
बल्कि प्रेरित करते हैं
नया मार्ग खोजने को।
इसलिए
कर्मठ व्यक्ति
सदैव आगे बढ़ते है।
तथा स्वयं महान बनकर
लक्ष्य को गौरान्वित करते हैं।
  •  53, महालक्ष्मी एंक्लेव, जानसठ रोड, मुजफ्फरनगर-251001 (उ0प्र0)




टी. सी. ‘सावन’
आग

आग............,
एक दिये में ज्योति बन
तिमिर दूर करती है।
दूसरी सीने में जलकर
राख कर देती है।
वैसे आग तो आग ही है
फर्क सिर्फ इतना है कि
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति
एक दिखती है दीये में
लपटों के रूप में
दूसरी अमूर्त हैै।

और शायद जो लपटें
दिखाई नहीं देती
वो बेहद घातक होती हैं!

  • निदे.-माइन्ड पावर स्पोकेन इंगलिस इंस्टी., निकट सैन्ट पॉल स्कूल, जे.डी.ठाकुर हाउस, भन्जरारु, तह.-चुराह, जिला-चम्बा-176316 (हि.प्र.) 


।।सम्भावना।।

नवोदित रचनाकारों को प्रोत्साहन हेतु इस स्तम्भ का आयोजन किया जा रहा है। वरिष्ठ रचनाकार बन्धु अपने परिचित नवोदित रचनाकारों का मार्गदर्शन करें। उन्हें प्रोत्साहन देने हेतु इस स्तम्भ में रचनाएं भिजवायें। इस अंक में विनीता चोपड़ा की रचना भिजवाने के लिए हम वरिष्ठ साहित्यकार आद. डा. अशोक भाटिया जी के आभारी हैं।

विनीता चोपड़ा












तन्हाई
डसने लगी क्यूँ तन्हाई मुझको।
क्यूँ किसी की याद आई मुझको।

दर्द क्यूँ दिल को होने लगा है।
शायद जुदा कोई होने लगा है।
डराती है अपनी ही परछाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............

याद आया मुझे मौसम सुहाना।
जब दिल में किसी के था आसियाना।
रुलाती है आज जुदाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............

तब कोई पास होकर भी दूर लगता था।
आज दूर होकर भी करीब लगता है।
क्यूँ आदत अपनी लगाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............

जब किसी ने दामन हमारा था थामा।
हमने भी अपना हमसफर था माना।
फिर क्यूँ छोड़ गया हरजाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............

बीच मझधार में छोड़ दिया उसने।
बनाकर अपना दिल तोड़ दिया उसने।
बिना कसूर दे गया जुदाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............

दृश्य छाया चित्र : पूनम गुप्ता 
भले पास अपने कुछ पल थे खुशी के।
वो भी दिन क्या खूब थे जिन्दगी के।
काली नजर किसने लगाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............

खुशियाँ हमें रास न आई।
धीरे-धीरे पड़ गई जुदाई।
हिजर में क्यूँ न मौत आई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............

विराना भी अपना लगने लगा है।
गुजरा वक्त सपना लगने लगा है।
गम ‘विनीता’ के दिखाई दें मुझको।

  •  द्वारा डा. प्रताप सिंह, गाँव- बीड़मारा, डाक- सग्गा, तह. नीलोखेड़ी, जिला- करनाल (हरि.)


अविराम विस्तारित

 ।।सामग्री।।
कथा प्रवाह : सूर्यकांत नागर , बलराम अग्रवाल, पारस दासोत, डॉ. राम निवास 'मानव',  डॉ. तारिक असलम 'तसनीम', डॉ. पूरण सिंह, अशोक जैन पोरवाल, जोगेश्वरी सधीर, उमेश मोहन धवन एवं संतोष सुपेकर की लघुकथाएं।

।।कथा प्रवाह।।
सूर्यकान्त नागर

माँ
   पड़ोसन पुष्पा ने श्यामा चाची को ढेर सारी रोटियाँ बनाते देखा तो दंग रह गई। सब्जी से भी बढ़िया महक आ रही थी। अकेली जान, अचानक क्या हो गया चाची को! बूढ़ी-बीमार अपना तो कुछ होता नहीं, देसरों की करन चली। बेटे ने अलग कर दिया। नीचे गैरेजनुमा कमरे में अकेली रहती है। शुरू में कुछ दिन खाना ऊपर से ही आता रहा, लेकिन जब देखा कि कई बार बचा-खुचा बासी होता तो खुद ने बनाना शुरू कर दिया। जैसे-तैसे अपने लिए दो रोटियाँ सेंक लेती हैं। पुष्पा चकित इसलिए भी है कि चाची के झुलसे चेहरे पर थकान का कोई चिन्ह नहीं है, उलटे सुकून की एक रेखा खिंची हुई है।
   ‘क्या कोई मेहमान आने वाला है?’ पुष्पा ने पूछा।
   ‘अरे, मेरे यहाँ कौन आता है?’
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
   ‘फिर यह सब क्यों?’
   ‘बच्चों के लिए।’
   ‘बच्चों के लिए? बच्चे, जिनके बड़े तुमसे सीधे मुँह बात नहीं करते!’
   ‘आज ऊपर गैस की टंकी खत्म हो गई थी। अभी तक उसका ठिकाना नहीं पड़ा है। सुबह कुछ भी नहीं पका। बच्चे ब्रेड आदि खाकर स्कूल गए हैं और शायद बेटा-बहू भी बिना कुछ खाए काम पर निकल गए। शाम को बेटा और बहू नौकरी से थके-हारे और बच्चे भूखे लौटेंगे तो कैसे-क्या होगा! एक बार बेटे-बहू को तो भूखा रख दूँ, पर तीनों बच्चों को भूखा कैसे रहने दूँ?’
   ‘तानों बच्चों को?’ चकित हो पुष्पा ने पूछा।
   ‘हाँ, तीनों को। दो जो स्कूल से लौअने वाले हैं और तीसरा वह जिसे बहू जल्दी ही जन्म देने वाली है!’

  • ज्ञानोदय, 81, बैराठी कॉलोनी क्र. 2, इन्दौर-452014(म.प्र.)

बलराम अग्रवाल


 
वरिष्ठ लघुकथाकार आद. बलराम अग्रवाल जी का बहुचर्चित लघुकथा संग्रह ‘सरसों के फूल‘ 1994 में प्रकाशित हुआ था और उसमें संग्रहीत काफी सारी लघुकथाएं पत्र-पत्रिकाओं द्वारा लगातार पुर्नप्रकाशित भी की जाती रहीं हैं और समीक्षकों-समालोचको/विद्वानों के द्वारा संदर्भ के रूप में भी याद की जाती रही हैं। इसी संग्रह से हम एक ऐसी लघुकथा प्रस्तुत कर रहे हैं जो संवेदना के स्तर पर पाठक-मन को झकझोर रख देती है।
हिन्द फौज का सूरमा
   सिर पर एक टोपीनुमा गूदड़ टिकाए बाजार के बीचों-बीच बैठा नंग-धड़ंग बूढ़ा अचानक चीख-पुकार कर उठता और तेजी से सामने की ओर भागने लगता। औरतें और समझदार लड़कियां उस पर नजर पड़ते ही शर्म से सिर झुका लेतीं और सहमकर एक ओर को बच जातीं। छोटे बच्चों के लिए नंगा बदन कुतूहल की चीज होता तो उच्छृंखल किशोरों और नौजवानों के लिए उसका एकाएक चिल्लाकर दौड़ पड़ना।
   ‘‘ठंड के मारे पसली-पसली कीर्तन कर रही है बन्दे की।’’ एक बुजुर्ग दुकानदार सौदा खरीदते अपने ग्राहक से बोला- ‘‘लेकिन क्या मजाल कि एक बनियान भी बदन पर टिकने दे। दो पुराने कोट तो मैं दे चुका इसे.... पता नहीं कहां फेंक आया।’’
   ‘‘अस्पताल के सामणै.... और कहां।’’ ग्रामीण ग्राहक बोला, ‘‘रोग ही बस या है इसणै।’’
   दुकानदार ने गहरी-सी एक नजर ग्रामीण पर डाली और पूछा, ‘‘आप जानते हैं इसे?’’
   ‘‘बहौत अच्छी तरियां।’’ वह बोला- ‘‘लम्बी-चौड़ी जैदाद तो एक तरफ, देश की खातिर पेट वाली घराणी और बूढ़े मां-बाप तक की फिकर नहीं की इसणै.... नेताजी सुभाष की हिन्द-फौज में भरती हो गया सब आराम छोड़कै...।’’
   ‘‘खड़े क्यों हैं?’’ ग्राहक के मुंह से उसकी दरस्तान सुनने को उत्सुक दुकानदार बोला, ‘‘बैठ जाइये न।’’
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
    ‘‘दिन बीतते गये।’’ स्टूल पर बैठते हुए ग्राहक ने बोलना जारी रखा- ‘‘घराणी ने बेटे को जन्म दिया पर वा खुद तपेदिक की शिकार हो गई। उण दिणां, वा भी गांव में, तपैदिक का इलाज तो कुछ था नहीं..... सो वा चल बसी.... मां-बाप भी मर-मरा गये।
   ‘‘ओ....ऽ...।’’ बुजुर्ग ने सांस छोड़ी‘ ‘‘तभी तो।’’
   ‘‘नहीं जी, हिन्द फौज का सूरमा था...।’’ ग्रामीण ने प्रतिकार किया- ‘‘घराणी और मां-बाप की मौत से भला क्या हिलता।’’
   ‘‘तब?‘‘ दुकानदार ने सवाल किया। पूरी बात सुनने से पहले ही बेमौके अफसोस जाहिर कर देने की अपनी हरकत पर थोड़ा शर्मिन्दा भी हुआ।
   ‘‘दुःख की बात तो या है सेठ, अक पिछले दिणां अपणा इकलौता बेटा इसणै अस्पताल में दाखिल कराणा पड़ गया।’’ दुकानदार के नौकर द्वारा बांध दिये गए सौदे को अपनी ओर खिसकाकर ग्रामीण ने बिल पर नजर डाली और सौ रुपये का नोट दुकानदार की ओर बढ़ाकर बोला- ‘‘डाग्दरां और नरसां णै के मतलब कि मरीज कोण है.... औरां की तरियां या के बेटे का इलाज भी लापरवाही सै हुआ और छोटी-सी बीमारी लाइलाज हो गयी।’’
   ‘‘फिर?‘‘ सौ के नोट में से बाकी बचे पैसे उसे लौटाकर दुकानदार ने पूछा।
   ‘‘फिर एक दिण अस्पताल के डाग्दरां णै अपणै दफ्तर में बुलाकै या खूब फटकारा।’’ ग्रामीण ने बताया- ‘‘बोले कि तैणै म्हारी रिपोट मुखमन्त्री को क्यों की?....कि तू हिन्द फौज का सूरमा है तो जा मुखमन्त्री से ही करा लै इलाज.... अपनी कमी की तरफ तो देखा ही नहीं उण बदमाश डाग्दरां णै।’’
   ‘‘फिर?‘‘
   ‘‘फिर के सेठ?’’ बहुत दुखी मन से वह बोला- ‘‘एक रात या का बेटा लम्बी-लम्बी सांसे लैण लगा.... दो बजे थे.... याणै घबराकै.....यहां-वहां देखा- ना कोई नरस ना डाग्दर.... लड़का और लम्बी सांसें लैण लगा...... वहां सै उठकर या डाग्दरां णै, नरसां णै पुकारता हुआ अस्पताल भर की गैलरियां में दौड़ गया। कहीं कोई न मिला.....वापस आया तो बेटा.... बस, तभी सै या आपा खो बैठा....सिर पै हिन्द फौज की टोपी के अलावा शरीर के सारे कपड़े फाड़ डाले.....और चिल्लाता हुआ रात भर अस्पताल की गैलरी मा चकराता रहा।’’
   ‘‘कोई है!.....ऽ...अरे कोई है....ऽ....’’ अचानक बूढ़ा जोर से चिल्लाया और अपने स्थान से उठकर सामने की ओर भाग लिया। बुजुर्ग दुकानदार नम आँखों से ओझल होती उसकी पीठ को देखता रहा और ग्रामीण ग्राहक सामान का थैला कन्धे पर लादकर आगे बढ़ गया।
  • 70, उल्धनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली

पारस दासोत



अन्ना
   अपने शयनकक्ष से प्रस्थान करने के बाद,.....
   सरकार, जब अपने सभाकक्ष में शोभित सिंहासन पर विराजमान होने पहुँची, अपने सिंहासन के एक हत्थे पर टँगी टोपी को गुस्से से उछालती हुई चिल्लाई-
   ‘‘ये,....ये गाँधी टोपी यहाँ पर, फिर किस मूर्ख ने रखने का दुस्साहस किया है!‘‘
   तिहाड़ जेल के बाहर, ‘भारत माता’ की जय-जयकार हो रही थी।
रेखांकन : हिना 
   ‘भारत माता’ की जय-जयकार सुनकर, सरकार की निगाह फर्श पर पड़ी टोपी पर पहुँचने को मजबूर हो गई। टोपी पर कुछ लिखा देखकर, जब उसने, उस पर लिखी इबारत बोलते हुए पढ़ी- ‘मैं अन्ना हूँ!’ वह अपनी तलवार म्यान से निकालती हुई गरजी- ‘नहीं     ऽऽ...! नहीं....नहीं! मैं अन्ना नहीं, सरकार हूँ....सरकार!’’ रामलीला मैदान में ‘बन्दे मातरम’ की गूँज, युवा शक्ति को चेतना सौंप रही थी।
   ‘बन्दे मातरम्’ की गूँज सुनकर, सरकार ने, फर्श पर पड़ी टोपी को अनमने मन से अपनी तलवार की नोक पर उठाया और वह सिंहासन पर जा विराजी।
   चारों ओर ‘इन्कलाब’ का नारा, आकाश-पाताल एक कर रहा था। ‘इन्कलाब’ का नारा, चारों ओर सुनकर, सरकार ने, जब टोपी पर लिखी इबारत को दोबारा पढ़ने हेतु उसे, अपने हाथों में थामा, चारों ओर ‘अन्ना हजारे....जिन्दाबाद!’ का नारा, एक नया इतिहास रच रहा था।
  • प्लॉट नं.129, गली नं.9 (बी), मोतीनगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-301021 (राज.)

रामनिवास ‘मानव’




चोट
   हिन्दी-दिवस समारोह के सन्दर्भ में, छोटूराम कॉलेज के हिन्दी विभाग की बैठक चल रही थी। प्रश्न था, समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में किसे बुलाया जाये। सभी प्राध्यापक नाम सुझा रहे थे।
   डॉ. परशुराम शुक्ल ने दिल्ली के डॉ. परमानन्द पांचाल को बुलाने का सुझाव दिया, तो श्रीमती अनीता मलिक और डॉ. नरेन्द्र वालिया ने निर्णय विभागाध्यक्ष डॉ. आदर्श मदान पर छोडने की बात कही। लेकिन डॉ. रामबीर ढांडा का सुझाव चौंकाने वाला था।
   ‘बी. एम. कालेज से डॉ. नादिरा शर्मा को बुला लिया जाये; वह प्रिंसिपल भी है और हिन्दी की प्राध्यापिका भी रही है।’ उन्होंने कहा।
   ‘उन्हें तो बिल्कुल नहीं।’ श्रीमती मलिक ने तुरन्त प्रतिवाद किया- ‘गत वर्ष मैंने उन्हें एक कार्यक्रम में, निर्णायक के रूप में, बुलाने का सुझाव दिया था, तो आपने ही उन पर घटिया आरोप लगाते हुए, उन्हें बुलाने का विरोध किया था।’
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
   ‘तब बात और थी, अब बात और है।’ डॉ. ढांडा का तर्क था- ‘तब वह केवल प्राध्यापिका थी, अब कॉलेज की प्राचार्या है।’
   ‘बहुत खूब!’ श्रीमती मलिक ने नहले पर दहला मारा- ‘वह प्राचार्या हैं, लेकिन यह क्यों नहीं कहते कि उसी कॉलेज में तुम्हारी श्रीमती संगीत की प्राध्यापिका है और तुम उसके ‘नबर’ बनवाना चाहते हो।’
   चोट मर्म-स्थल पर लगी थी, अतः डॉ. रामबीर ढांडा का चेहरा देखने लायक था।
  • 706, सैक्टर-13, हिसार-125005(हरि.)

डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’


समरसता
   कब्रिस्तान के पेड़ की डाल पर बैठे कबूतर ने घोर आश्चर्यमिश्रित दृष्टि से कबूतरी की ओर देखा तो पाया कि वह भी उस नजारे पर निगाहें जमाये बैठी है। जहां सड़क के बीचोबीच सामान से लदे एक ट्रक को भीड़ जलाने के प्रयासों में जुटी थी। कुछ मिनटों में ही ट्रक आग की भयंकर लपटों में धिर गया था।
   पुलिस ने भीड़ को इस हरकत से रोकने की कोशिश की तो भीड़ ने सड़क के किनारे बनी दुकानों में आग लगानी शुरू कर दी।
    भीड़ को ऐसा करते हुए देखकर एक -दूसरे समुदाय ने भी चुन-चुनकर दुकानों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। यह सब देखकर कबूतरी से रहा नहीं गया। वह बोली, ‘यह क्या बात हुई? अभी तो सभी लोग मिल-जुलकर एक ट्रक को जलाने में जुटे थे और अब वे एक दूसरे की दुकानों में आग लगाने लगे हैं। यह क्या माजरा है। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया?’
रेखांकन : सिद्धेश्वर
   ‘यह तुम्हारी समझ में कभी आएगा भी नहीं। ये मनुष्य हैं न! इनकी यह फितरत बन चुकी है। जो ट्रक को मिल-जुलकर जलाने पर उतारू थे, इसकी वजह यह थी कि तब सभी को ट्रक से बच्चे के कुचले जाने का गम था। फिर जब उनके दिलो-दिमाग में यह ख्याल आया कि ट्रक तो किसी दूसरे समुदाय का था और बच्चा किसी और समुदाय का, तब ये एक-दूसरे के धंधे को निशाना बनाने लगे। शायद इसी को समरसता कहकर परिभाषित करता नहीं अघाता है मनुष्य।’
   चलो जी, अच्छा ही हुआ जो भगवान ने हमें मनुष्य नहीं बनाया।’ कबूतरी ने अजीब-सा मुँह बनाकर कहा। 

  • 6/2, हारुन नगर, फुलवारी शरीफ, पटना-801505 (बिहार)

डॉ. पूरन सिंह

चेहरा
   दीपांकर को मैं बचपन से जानती थी। साथ-साथ खेले थे तो साथ-साथ पढ़े भी थे और जवान भी तो साथ-साथ ही हुए थे। जब सब कुछ साथ-साथ था तो प्यार भी साथ ही हुआ और जीने मरने की कसमें भी साथ ही खाई थीं।
  घर में जब मेरे प्यार की खबर लगी तो हाहाकार मच गया। अम्मा को डांट पड़ी और मुझे नज़रबंद कर दिया गया था। लेकिन, जैसा होता है कि प्यार कभी बन्धन में नहीं रहता, मैं भी आजाद होने को बिलबिलाने लगी थी और एक दिन मौका पाकर दीपांकर से लिपट गई थी, ‘... दीप लो मैं आ गई सारी दुनियां छोड़कर तुम्हारी बांहों म’ें। दीपांकर ने अपनी बांहों में भरते हुए कहा था, ‘तुम मेरी हो, तुम्हें मुझसे कोई कैसे दूर कर सकता है!’
   वह मुझे अपनी बांहों के घेरे में समाए थे कि मुझे बड़े भइया और बाबूजी याद आ गए थे- कैसे बड़ी दीदी को उन्होंने एक जल्लाद के हाथों बांध दिया था। जीजा जी बहुत गंदे और हिटलर हैं।
   दीप एक बात कहूं। मैं बोली थी।
   ........ सिर्फ आंखें ऊपर उठाई थीं दीपांकर ने, मानो कह रहे हों- एक ही बात क्यों, इतिहास बांच दो......।
   ‘दीप हम सारी दुनियां से बगावत करके एक हो रहे हैं। तुमसे सिर्फ एक बात कहना चाहती हूं....... तुम मुझ पर कभी बेवजह
अधिकार मत जताना....... सब कुछ बनना लेकिन पुरुष मत बनना......... मेरे पहनने-ओढ़ने से लेकर खाने-पीने और मिलने-जुलने पर प्रतिबन्ध मत लगाना....... वादा करो दीप......’। न जानो क्यों मैं बड़ी दीदी के साथ हो रहे अत्याचार के भय से अपने प्यार से शर्त रख बैठी थी।
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र  वर्मा
   दीपांकर ने सिर्फ आंखों ही आंखों में हां कर दी थी। उस दिन से आज तक दीपांकर ने मेरी हर बात को ईमान समझकर निभाया। मेरा दीपांकर दुनियां का सबसे अच्छा इंसान बना। शायद इसीलिए मैं अपने दीपांकर पर गर्व करती हूं। वही मेरा गुरूर है और मेरी शान भी वही है।
   लेकिन
   लेकिन कल शाम मैं अपने ग्यारह साल के बेटे के साथ बाजार गई थी। उसके कपड़े खरीदने थे। शापिंग सेंटर में उसके लिए कपड़े खरीद रही थी कि एक व्यक्ति मुझे देखे चला जा रहा था। मैंने भी उसे देखा था। और यह सब मेरे बेटे ने देख लिया था।
   ‘मम्मा, वह आदमी आपको क्यों देख रहा था?’ बेटा बोला।
   ‘यह बात तो आप उसी से पूछिए’।
   ‘चलिए, वह आपको देख रहा था उसकी तो कोई बात नहीं लेकिन आप...... मम्मा आप...... आप भी तो उसे देख रही थी.... इस बात का क्या मतलब....?’
   बेटा एक ही सांस में बोलता चला गया था और मैं.... मैं तो अवाक सी उसे देखे चली जा रही थी। मुझे उसके चेहरे पर एक साथ बाबूजी, बड़े भइया और जीजा जी के चेहरे चिपके हुए नज़र आ रहे थे और वे सभी अट्टहास कर रहे थे, मानो अपनी खुशी का जश्न मना रहे हों!
  • 240, बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेलनगर, नई दिल्ली-110008

अशोक जैन पोरवाल


दो आँसू हिन्दी के
दृष्टि एक छोटे से पूर्व माध्यमिक स्तर के अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में पाँचवीं कक्षा में पढ़ती है। वह अपनी कक्षा की कुछ सहेलियों के साथ ‘ग्रीटिंग्स’ खरीदने के लिए गई। उसकी सभी सहेलियों ने हिन्दी विषय को छोड़कर शेष सभी विषयों की टीचर्स को देने के लिए अंग्रेजी भाषा में छपे हुए ‘टीचर्स डे’ के ग्रीटिंग्स खरीद लिए। दृष्टि ने एक अतिरिक्त कार्ड भी खरीदा, हिन्दी भाषा पढ़ाने वाली ‘मिस’ को देने के लिए, जो कि हिन्दी में छपा हुआ था। अंग्रेजी भाषा में तो ढेरों कार्ड थे, किन्तु हिन्दी में सिर्फ एक ही तरह का कार्ड था, और सस्ता भी अंग्रेजी कार्ड की तुलना में।
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र  वर्मा
   एक कोने में अलग-थलग बैठी हुई हिन्दी वाली ‘मिस’ को जब दृष्टि ने बधाई कार्ड दिया तो उन्होंने खुशी-खुशी उसे ले लिया। फिर उसे खोलकर पढ़ने लगी। पढ़ने के बाद उन्होंने देखा कि दूसरी ओर बैठी हुई अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाने वाली सभी टीचर्स के पास कार्डस् का ढेर लगा हुआ था, जबकि उसके पास यह एक मात्र कार्ड था। उनकी आँख में आँसू की एक बूँद आ गई। दृष्टि ने जब इसका कारण पूछा तो ‘मिस’ कहने लगी, ‘अरे ये तो हम जैसे हिन्दी भाषी लोगों के लिए खुशी के आँसू हैं। फिर एक व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ उस आँसू को छुपाते हुए बोलीं, इस आँसू को मुझे 14 सितम्बर यानी ‘हिन्दी दिवस’ तक संभालकर रखना है, ताकि उस दिन इसे समर्पित कर सकूँ। फिर आक्रोश में बोली, कितने आश्चर्य की बात है कि हम सभी लोग साल में केवल एक दिन ‘हिन्दी दिवस’ मनाकर उसे याद करते हैं। सिर्फ औपचारिकता निभाने के लिए।’
   फिर कुछ क्षणों के लिए अपने अतीत में खोते हुए बोलीं, ‘मेरी आँखों में हिन्दी भाषा की उपेक्षा के लिए पहला आँसू उस समय आया था, जब मैं इस स्कूल में नौकरी करने के लिए आई थी। स्कूल संचालक ने मुझे एक हजार रुपया प्रति महीना वेतन देने को कहा था, जबकि अन्य शिक्षिकाओं को डेढ़ हजार रुपये प्रति महीना। वे सिर्फ स्नातक थीं, जबकि मैं स्नातकोत्तर यानी एम.ए.(हिन्दी साहित्य)। उनमें और मुझमें अन्तर था तो सिर्फ इतना कि वे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ी हुई थी और मैं हिन्दी माध्यम से। उनकी अंग्रेजी भाषा अच्छी थी, जबकि मेरी हिन्दी।’
   फिर एक गहरी साँस छोड़ते हुए बोलीं, ‘मेरा पहला आँसू हिन्दी की उपेक्षा का था, तो क्या हुआ? दूसरा आँसू हिन्दी के प्रति तुम्हारा प्रेम और आदर देखकर खुशी का है’। और फिर दृष्टि को अपने गले लगा लिया।
  •  ई-8/298, आश्रय अपार्टमेन्ट, त्रिलोचन सिंह नगर, त्रिलंगा, शाहपुरा, भोपाल-462039 (म.प्र.)

जोगेश्वरी सधीर
एक टुकड़ा हंसी
जीवन खूँटी पर टंगा फटा कपड़ा हो गया है। अपनी छत से दूर की छत का नाटक देखती हूँ। रोज ही तो मंचन होता है। एक बेहद काली, मगर तेज-तर्रार युवती वहाँ रहती है। उम्र तीस-बत्तीस और साथ में उससे छोटा दिखने वाला उसका भरतार रहता है। वह गाँव की स्त्री मज़दूरी करती है। संग वाला लड़का चौकीदार है, बहुत चिल्लाता है। शाम को दारू पीकर गालियां देता है। औरत बर्दाश्त करती है। कारण बर्दाश्त ही औरत की नियति है। सहजीवन है, विवाह नहीं। मनीषा नामक एक बालिका है, जिसका चेहरा सयाना है, लगता है बचपन में समझदारी व सहनशक्ति का पाठ पढ़ चुकी है। निरक्षर बच्ची इन नादानों की तमाशाई पर होंठ दबाकर हंसती है, पर है तो बच्ची ना !
    वे लोग लड़ते-झगड़ते, गिरते-पड़ते हैं। पर एक जीवन्त जीवन जीते हैं। जैसे हैं, हैं। रोज मेहनत करते हैं, कमाते हैं। लड़का इतने बड़े बंगले में चौकीदार जो है, वो उसे अपना मानकर ही रहता है। औरत को साथ रहना है, तो खुशामद करे!
    वह औरत रोज़ काम पर जाती है। धूप में बालिका वो भी मात्र छैः-सात बरस की, माँ के आने तक अकेली है। वह एकाकी नाट्य-मंचन करती है। नाटक खेलती है, जिसमें दोनों ओर के संवाद खुद ही बोलती है। ऐसा नाटक वो भी नन्हीं बालिका द्वारा अकेले खेलते देख मैं आश्चर्य से मुस्कराती हूँ। मेरी मुस्कराहट में उसकी प्रशंसा छिपी है।
रेखांकन : बी.मोहन नेगी
     वह बालिका एक बार इधर खड़ी होकर संवाद बोलती है, फिर दूसरी ओर जाकर अभिनय करती है। इतनी सी बच्ची, और इतना हुनर। मैं चकित हूँ।
     माहौल देखो तो मच्छी बाजार सा शोर रोज शाम को वहाँ छत पर होता है। सहजीवन वाले लड़का-युवती लडऋते हैं। लड़का दारू पीकर चीखता है- ‘‘तुमने मुझे खाने को नहीं पूछा, आं!’’ और बच्ची मात्र तब रोती है, जब अँधेरा घिरने पर भी माँ नहीं आ पाती। पर जब लौट आती है, तो खूब जोरों से गोल घूमकर नृत्य करती है।
    मैं उस परमात्मा की अनुपम कृति को देखती हूँ, उसकी रचनाशीलता न्यारी है। कैसे-कैसे नायाब हीरे वह गुदड़ी में छिपाये है। मनीषा को उसकी माँ कभी यूँ ही डाँट देती है। कहती है- चल बर्तन मल, चल झाडू लगा। वह रोती है, काम करती है, नृत्य करती है। एक छोटी-सी बच्ची ने इस महानगर में आकर दादा-दादी का दुलार नहीं जाना, पर अभिनय उसने कैसे सीख लिया, यह तो वो नियन्ता ही जाने। अद्भुत है उसका रचना-संसार!

  • डी-54, फेस-1, आशाराम नगर, बाग मुगलिया, भोपाल (म0 प्र0)

उमेश मोहन धवन
अन्ततः
    ‘‘यार इस लड़के का तुम्हीं कुछ करो, अवारा लड़कों की सोहबत में कुछ ऐसा पड़ा कि हाईस्कूल भी नहीं कर पाया। आज भी वही सब हरकतें हैं। सारा दिन अवारागर्दी-दादागीरी बस। आखिर यह सब कब तक चलेगा। तुम इसे कहीं चपरासी की ही नौकरी लगवा दो तो बड़ा अहसान होगा।’’ मेरे पुराने मित्र नन्दलाल जी अपने पुत्र नरेश के लिये काफी चिन्तित थे।
   ‘‘क्यों नरेश कहीं प्रयास तो किया होगा?’’ मैंने पूंछा  तो नरेश ने उत्तर दिया- ‘‘जी हाँ अंकल जी, कई जगह गया। वे कहते हैं कि मैं योग्य नहीं हूँँ। मुझे काम का कोई अनुभव भी नही है और मेरे चरित्र की गारण्टी कौन देगा!’’
    ‘‘नन्दलाल जी मेरे यहाँ तो कोई जगह नहीं है पर अन्य जगह प्रयास करूंगा।’’ एक झूठा आश्वासन देकर मैंने उन्हें दरवाजे तक छोड़ा।
     शहर में चुनाव घोषित हो चुके थे। अचानक मेरी नज़र दीवार पर चिपके एक पोस्टर पर पड़ी, जिसमे नरेश की तश्वीर थी। ‘‘आवारा लड़का बाप का पैसा ऐसे बर्बाद कर रहा है। इसी पैसे से कोई चाय या पान की दुकान खोल लेता, तो अपने साथ अपने बाप का भी भला करता....’’ मैं बुदबुदाते हुए दफ्तर चला गया।
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र  वर्मा
    एक दिन सुबह कई लड़कों के साथ नरेश हाथ में मिठाई का डिब्बा लिये मेरे दरवाजे पर खड़ा था। मेरे पैर छूकर वह बोला- ‘‘अंकल जी मैं चुनाव जीत गया। अब आपको अगले पाँच साल तक मेरे लिये नौकरी ढूंढ़ने की कोई जरूरत नहीं है।’’
    मैं हैरानी से उसे देख रहा था। मैं सोच रहा था, जो व्यक्ति एक छोटी-सी नौकरी के भी योग्य नहीं समझा गया, जिसे कोई अनुभव भी नहीं था, जिसका चरित्र प्रमाणपत्र कोई देना नहीं चाहता था; वह आज प्रशासन का एक अंग बन गया है। आज वह दूसरों को नौकरी रखवा भी सकता है तथा प्रमाणपत्र भी दे सकता है। शायद वह सही जगह पहुँच गया है। पास ही ट्रांजिस्टर पर गाना बज रहा था- ‘‘अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों.....’’  
  • 13/३४, परमट, कानपुर-२०४००१ (उत्तर प्रदेश)


सन्तोष सुपेकर

 
 




दूसरा आश्चर्य
   कारखाने के पिछवाड़े बने गुप्त से गोदाम में जब वह पहुँचा तो देखकर दंग रह गया-
   भाई साहब कुछ मजदूरों को लेकर नकली माल बनाने में व्यस्त थे, एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था वहां।
   पर तभी उसे और अधिक आश्चर्य हुआ-
   उसने देखा कि नकली माल से भरे डिब्बों पर प्लास्टिक  के लेवल चिपकाये जा रहे थे- नकली माल से सावधान!
  • 31, सुदामानगर, उज्जैन-456001 (म.प्र.) 

अविराम विस्तारित

क्षणिकाएं : बलराम अग्रवाल व विवेक सत्यांशु की क्षणिकाएं। 

।।क्षणिकाएं।।

बलराम अग्रवाल





1. तानाशाह, तलवार और कुत्ते
तानाशाह
सिर्फ तलवार नहीं रखता
पालता है
कुत्ते भी

रेखा  चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
विरोधियों का दमन
कभी भी
तलवार से नहीं करता वह
कुत्तों से करता है
तलवार तो होती है
कुत्तों को
डराए-धमकाए रखने के लिए।


2. प्रेम
प्रेम को
रखिए दूर शरीर से
भाव-मात्र है वह
नहीं है वस्तु
भौतिक स्पर्श की ।

  • 70, उल्धनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली

रेखा  चित्र : बी.मोहन नेगी 
विवेक सत्यांशु

1. औरत- एक
औरत के पल्लू में बंधी
चाभी सिर्फ चाभी भर नहीं है
यह उसके बनाये घर का
अभेद्य किला है
जिसको बनाने-सँवारने में
बीत जाता है
एक औरत का
पूरा जीवन।
रेखा  चित्र : बी.मोहन नेगी


2. औरत- दो
बाल खोले औरत की देह
चमक रही है धूप में
वातावरण में बेहद सनसनी है
फिर भी मुस्करा रही है औरत
जैसे इस भयानक समय को
सुन्दरता में तब्दील कर रही हो!



3. मैं लिखूँगा
मैं लिखूँगा
दृश्य छाया चित्र : डॉ. उमेश महादोषी
मैं जरूर लिखूँगा
संघर्ष के सबसे प्यारे
अंतिम दिनों तक लिखूँगा
असफल बेनाम मानवीय
आत्माओं के बारे में लिखूँगा
मैं एक दिन दुनियां के
सबसे गरीब आदमी के बारे में लिखूँगा!

  • 14/12, शिवनगर कालौनी, अल्लापुर, इलाहाबाद-211006