आपका परिचय

बुधवार, 26 अगस्त 2015

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  :  07-12,  मार्च-अगस्त  2015



प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।

छायाचित्र : अभिशक्ति


।।सामग्री।।

कृपया सम्बंधित सामग्री के पृष्ठ पर जाने के लिए स्तम्भ के साथ कोष्ठक में दिए लिंक पर क्लिक करें।



सम्पादकीय पृष्ठ {सम्पादकीय पृष्ठ}:  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} : इस अंक में डॉ. पंकज परिमल, श्री रमेश गौतम,  डॉ. दुर्गा चरण मिश्र, डॉ. अहिल्या मिश्र, विजय चतुर्वेदी, पं. गिरिमोहन गुरु, श्री रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’, श्री रमेशचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, एवं श्री श्याम ‘अंकुर’ की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में श्री  स्व. श्री सुरेश शर्मा, स्व. श्री एन उन्नी,  डॉ. बलराम अग्रवाल, श्री मधुदीप,  डॉ. कमल चौपड़ा, सुश्री सुदर्शन रत्नाकर, डॉ. चन्द्रा सायता, सुश्री सुधा भार्गव  की लघुकथाएँ।

कहानी {कथा कहानी} : नई पोस्ट नहीं।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} : इस अंक में श्री भवेश चन्द्र जायसवाल एवं श्री चक्रधर शुक्ल की क्षणिकाएँ।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में डॉ. सुरेन्द्र वर्मा व सुश्री कृष्णा वर्मा के हाइकु तथा डॉ. उर्मिला अग्रवाल के ताँका।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} : इस अंक में श्री मुखराम माकड़ ‘माहिर’ के जनक छन्द।

माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  नई पोस्ट नहीं।

बाल अविराम {बाल अविराम} : इस अंक में कवि सुशील पाण्डेय की तीन बाल कविताएँ बाल चित्रकार अभय ऐरन एवं आरुषि ऐरन  के चित्रों के साथ।

हमारे सरोकार {सरोकार} :  नई पोस्ट नहीं।

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  इस अंक में दिलबागसिंह विर्क का व्यंग्यालेख 'अनोखे हैं मि. अनोखे लाल' तथा ओम प्रकाश मंजुल का व्यंग्यालेख 'काग-रेस सुषमा के पीछे क्यों पड़ी है?' ।

संभावना {संभावना} :  नई पोस्ट नहीं।

स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} :  नई पोस्ट नहीं।

क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : नई पोस्ट नहीं।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} : इस अंक में दो साक्षात्कार-  राज हीरामन के आने का अर्थ :  डॉ. सतीश दुबे (मॉरीशस के प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री राज हीरामन के साथ अनौपचारिक भेंटवार्ता पर आधारित) तथा अनुवाद राष्ट्र-सेवा का कर्म है :  डॉ.शिबनकृष्ण रैणा (सुप्रसिद्ध समालोचक प्रो. जीवन सिंह के साथ बातचीत पर आधारित)।

किताबें {किताबें} :  इस अंक में समकालीन सामाजिक विसंगतियों पर तिरछी नजर के निशाने / श्री कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’ के व्यंग्य कविता संग्रह 'दुर्गति-चालीसा' की डॉ. सूर्यप्रसाद शुक्ल द्वारा तथा साहित्य धर्म का निर्वाह करती कविताएँ / प्रशान्त उपाध्याय के काव्य संग्रह 'शब्द की आँख में जंगल'  की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा समीक्षा। 

लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : नई पोस्ट नहीं।

हमारे युवा {हमारे युवा} :  नई पोस्ट नहीं।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम की समीक्षा {अविराम की समीक्षा} :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम के अंक {अविराम के अंक} : इस अंक में अविराम साहित्यकी के अप्रैल-जून  2015 मुद्रित अंक में प्रकाशित सामग्री की सूची।

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य {हमारे आजीवन पाठक सदस्य} :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के  20 अगस्त 2015  तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  :  4,   अंक  : 07-12,  मार्च-अगस्त 2015



।।कविता अनवरत।।

सामग्री :  इस अंक में डॉ. पंकज परिमल, श्री रमेश गौतम,  डॉ. दुर्गा चरण मिश्र, डॉ. अहिल्या मिश्र, विजय चतुर्वेदी, पं. गिरिमोहन गुरु, श्री रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’, श्री रमेशचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, एवं श्री श्याम ‘अंकुर’ की काव्य रचनाएँ।


डॉ. पंकज परिमल




अश्व पर गीत के
हम भटकते रहे उम्र-भर
राह में
जा न पाए कभी
द्वार तक मीत के

तेज़ बारिश बहुत
हाथ छाते नहीं
धूप की दृष्टि से
बच पाते कहीं
कंटकों की चुभन
धूप की भी तपन
देह को तीक्ष्ण बन
छू रही है पवन

दुख भरी राह में
जो कि पैदल चली
चढ़ न पायी व्यथा
अश्व पर गीत के

शोक में गीत के
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी

लड़खड़ाए चरण
घाव कब ढक सके
छंद के आवरण
अश्रु के वेग में-
बह गया आँख से
टिक न अंजन सका, 
ना सजे आभरण

उड़ गए वस्त्र सब गात के
रेशमी
रोक पाए नहीं
वेग को शीत के

विघ्न के सैन्य को
ओट कर दृष्टि की
भाग्य की वंचना भूलकर
सृष्टि की
कागज़ी स्वप्न के ही
महल रच लिए
भूल नभ में घुमड़ती घटा,
वृष्टि की

हारते ही रहे
हो न पाए सफल
उल्लसित कब हुए हम
यहाँ जीत के

  • ‘प्रवाल’, ए-129, शालीमार गार्डन एक्स.-।।, साहिबाबाद, जिला: गाजियाबाद (उ.प्र.) / मोबा.: 09810838832


रमेश गौतम 




नवगीत
मान जा मन
छोड़ दे
अपना हठीलापन

बादलों को कब

भला पी पायेगा
एक चातक
आग में जल जायेगा
दूर तक वन
और ढोता धूप
फिर भी तन

मानते

उस पार तेरी हीर है
यह नदी
जादू भरी ज़ंज़ीर है
तोड़ दे
प्रण
सामने पूरा पड़ा जीवन

मर्मभेदी यातना में

रोज मरना
स्वर्णमृग का
मत कभी आखेट करना
मौन क्रंदन
साथ होंगे
बस विरह के क्षण

पिता...
आकाश-कुसुम तोड़े लहरों को बाँध लिया
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी

अंतर में रहे हिमालय-सा विश्वास पिता

कैसे भूलूँ दिन-रात तपे अंगारों सा

तब गढ़ पाये व्यक्तित्व हमारा ज्योर्तिमय
हे, पिता! सारथी बने सदा जीवन-रथ के
जब कर्म क्षेत्र में घेरे खड़ा हमें संशय
मन के संग्रहालय में जिसको सौ बार पढ़ा
ऐसे प्रेरक पन्नों वाला इतिहास पिता

मै गिरा, उठाया, चलना सिखलाया तुमने

पंखो पर लिखीं उड़ाने नीले अम्बर की
अंजुरी भर-भर संकल्प दिए हारे मन को
जीता निधियां न्योछावर कर दीं अंतर की
पत्थर बीने पथ के, अवरोध न बन जाएँ
मेरे हित-चिंतन में निर्जल उपवास पिता

मेरे पथ की पाथेय पिता की ही छवियाँ

हर सुबह कुशलता लेने अब भी आती हैं
गंभीर-सिंधु की अनुकम्पा से भरे कलश,
शीतल लहरें आँगन तक बिखरा जाती हैं
नयनों में बिम्ब उभरता तो सारे तीरथ,
स्मृतियों में मथुरा, काशी, कैलास, पिता

मिट्टी से रचे खिलौने, चित्रों से खेला

मेरे शब्दों में प्राण पिता तुमने डाले
अपने अनुभव के गुरुकुल में दीक्षा देकर
जीवन-पृष्ठों पर लिखे सुनहले उजियाले
सब ओर पड़ा सूखा, लेकिन मैं हरा-भरा
मेरे मरुथल में रहे सदा चौमास पिता

  • रंगभूमि, 78-बी, संजयनगर, बरेली, उ.प्र. /  मो. 09411470604 



डॉ. दुर्गा चरण मिश्र




धरती वीर जवानों की

हम अड़े हुए हैं सीमा  पर,
दुश्मन से लोहा लेने को।
परवाह नहीं करते कुछ भी,
हैवानों या शैतानों की। 
यह धरती वीर जवानों की।

हम परम्परा से सैनिक हैं,

निज मातृ भूमि के रखवाले।
इतिहासकार बैठा लिखता,
गाथा असंख्य बलिदानों की। यह धरती...

हम शरणागत के सेवी हैं,
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया

उनकी विपदायें सह लेते।
चिन्ता न कभी करते मन में,
फिर आँधी या तूफानों की। यह धरती...

हम मोह त्यागकर प्राणों का,

लड़ते हैं नभ में जल-थल में।
माँ बहनें रखवाली करती हैं,
खेतों और खलिहानों की। यह धरती...

गिरि सागर हमको प्यारे हैं,

झीलें नदियाँ मैदान सभी।
चुटकी भर धूल नहीं देंगे,
अपने इन रेगिस्तानों की। यह धरती...

  • ‘रामायणम्’, 248 सी-1, इन्दिरा नगर, कानपुर-26 / मोबाइल: 09450731054



डॉ. अहिल्या मिश्र




श्वास से शब्द तक
{सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. अहिल्या मिश्र का द्विभाषी कविता संग्रह ‘श्वास से शब्द तक’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में उनकी 40 हिन्दी कविताएँ और उनका एलिजबेथ कुरियन मोना द्वारा अंग्रेजी अनुवाद संग्रहीत है। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी तीन कविताएँ।}
पत्थर

पत्थर तो हूँ 
मैं
किन्तु वो नहीं
जिसे
बारूद से उड़ा दिया जाए
तो वह दीर्घ...
आर्त्तनाद के साथ
बदले की भावना से भरा
तुम्हारा सर फोड़ने 
वापस
द्रृत वेग से पहुंच जाए।

मैं मील का पत्थर हूँ

असीमितता ही जिसकी
एकमात्र
पहचान होती है।
जिसका
न दोस्त/न दुश्मन
रेखाचित्र : स्व. पारस दासोत
न अपना/न पराया
न ही कोई मेहमान होता है।

अपने स्थान पर अडिग/अभेद/अचल
खड़ा रहता है
किन्तु गति का
विस्तृत/संकलित
दिनमान होता है।

प्रतिद्वंद्विता

मन मेरा आज बंधनों में
अंटा पड़ा है।
टूटने लगा है श्वास
घटने लगा है लहू का उच्छवास
छोड़ता नहीं डोर
इस अभिलाषा का।

टूटती नहीं छोर

घटती नहीं होड़
मृत्यु मनाना चाहती है
द्विगविजय।

हृदय पाना चाहता है

जीवन की लय
गीत और अवसाद में
छिड़ गयी है प्रतिद्वंद्विता।
रेखाचित्र : सिद्धेश्वर


ठूँठ पेड़

अपनी सूखी टहनी
हिला-हिला कर
करता हवा के झोकों का
आलिंगन।
अवश हाथ
विवश मन
करुण ओठ का
कंपन।

बाँध लेने को हवा की

अठखेलियाँ
समेटने को कलरव

उन्मुक्त गगन-विहार

का अभिनव 
चुंबन।
मन की ललक
न सकी झलक
क्यों रचा विधि ने
सूखा तन
और सरस मन?

  • द्वारा कादम्बिनी क्लब, 93 सी, ‘राजसदन’ वेंगलराव नगर, हैदराबाद-500038, आ.प्र. / मोबाइल : 09788189035426



विजय चतुर्वेदी




गीत
सूना पनघट व्यथा सुनाता रीती गागर की अनजानी
जैसे सजल नयन कह देते घायल मृग की करुण कहानी
भटक रही इस युग की राधा
मोहन वंशी रूठी है
नित्य आसुरी आचरणों से
धीरज की सीमा टूटी है
रोते हैं रसखान देखकर कुंजों में होती मनमानी।
आज अभय के लिए बिलखती
आंसू आंसू रजकण सींचे
दुःशासन हर चौराहे पर
पांचाली का आंचल खींचे
आर्तनाद सुनकर भी कान्हा जाते दूर दिशा बेगानी।
छायाचित्र : अभिशक्ति

पुरस्कार निष्कासन पाती
सीता अग्नि परीक्षा देकर
पत्थर बनी अहिल्या तरसे
मुक्ति मिले प्रभु पदरज लेकर
कलि के हाथों सौंप देखते राम यहां युग की नादानी।
धधक रही पीड़ा की ज्वाला
जला रही है मन नन्दन
उदासीन बोझिल पलकों में
सहज समाया उर का क्रन्दन
दुहराई अभिशप्त क्षणों ने बीते युग की कथा पुरानी। 

  • 34, यमुना विहार फेस-2, कर्मयोगी, कमलानगर, आगरा, उ.प्र. / मोबाइल : 09412804581




पं. गिरिमोहन गुरु




दो ग़ज़लें
01.
छुई मुई देह को क्या छुआ।
गंध का स्फुरण हो गया।

शब्द संकेत ने बो दिए

प्रीत का अंकुरण हो गया।

एक तिनका मिला स्नेह का

सांस का संतरण हो गया।

मुस्कुराहट की आहट हुई 

उम्र का आभरण हो गया।

स्मरण मात्र से संस्मरण

गीत का अवतरण हो गया।
छायाचित्र: गोवर्धन यादव


02.
प्यासे को पानी पिलवाते हैं।
मरुथल में भी फूल खिलाते हैं।

काल-चक्र अँगुली पर घूम रहा,

रणभूमि में गीता गाते हैं।

पीछे मृगतृष्णा के क्यों भागें,

मृगछाला पर ध्यान लगाते हैं

मेघों से कब कब पानी मांगा,

भागीरथ हैं गंगा लाते हैं।

विषपायी शिव के वंशज ठहरे

गरल पान कर भी मुस्काते हैं।

  • शिव संकल्प साहित्य परिषद, गृह निर्माण कॉलोनी, होशंगाबाद-461001 (म.प्र.) / मोबाइल : 09425189042



रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’




सुमनांजलि
{कवि श्री रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’ का वर्ष 2009 में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘सुमनांजलि’ हाल ही में हमें पढ़ने का अवसर मिला। इसमें उनकी प्रकृति एवं आध्यात्म से प्रभावित 72 काव्य रचनाएँ शामिल हैं। यहाँ प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से दो काव्य रचनाएँ।}


वसन्त
मखमल सी हरियाली फैली,
दूर दूर तक गाँवों में।
धरा लग रही कितनी सुंदर
सजी विविध परिधानों में।।

पीली पीली सरसों फूली,
वासन्ती रंग है छाया।
मानों धरा खिलखिला हँसती,
रोम रोम है हर्षाया।।

तितली नाना रंग बिरंगी,
डाल डाल पर डोल रहीं।
मलयानिल की मस्त तरंगें,
कण कण में रस घोल रहीं।।

कू कू कू कू कोयल बोले,
अमराई में डालों पर।
मधुप वृन्द मधु गुंजन करते,
झूम झूम मधु पी पी कर।।

मधुमय प्रेमालिंगन होता,
बल्लरियों का विटपों से।
छायाचित्र : अभिशक्ति

ऋतु वसंत है सुरभि लुटाती,
भर भर अंजलि पुष्पों से।।

पंछी
पंछी बन मैं फिरूँ गगन में।

हरित डाल कल्लोलें करता,

सूखे तरु करता क्रन्दन मैं।
बैठ एकान्त प्रभु गुण गाता,
खो जाता समूह कलरव में।।

कभी चूमता हिम शिखरों को,

कभी कुहकता नन्दनवन में।
कभी सैर मरुथल की करता,
कभी फुदकता सागर तट में।।

खग की भाषा खग ही जाने,

भरे भाव ताल रस जिसमें।
मुक्त गगन का हूँ मैं पंछी,
नहीं किसी सीमा बन्धन में।

पंछी बन मैं फिरूँ गगन में।


  • प्रज्ञा कुंज, 200, इन्द्रापुरम्, करगैना, बरेली-243001, उ.प्र. / मोबा. 08899631776



रमेशचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’


गीतिका

मित्रता बस कहने भर को रह गयी।
जो न सहना था, विवश हो सह गयी

घाव खाये और उफ् तक की नहीं
किस दिशा में जिन्दगी यह बह गयी

हो रहे हैं आक्रमण विश्वास पर
आस्था की भीति सहसा ढह गयी

ज़ुल्म बढ़ते जा रहे अँधियार के
सूर्य की तस्वीर घर में रह गयी

खो नहीं सकता जिसे पाया नहीं
खो गये हम, खोज बाक़ी रह गयी
रेखाचित्र : आरुषि ऐरन


आपने अब तक मुझे समझा नहीं
और दुनिया जाने क्या-क्या कह गयी

याद आयी, आप भी फिर आ गये
ज़िन्दगी यादों का अँचल गह गयी

जानता हूँ आपकी मैं वेदना
छाँह देती भित्ति जो वह ढह गयी

अब न छोड़ेगा मुझे वह उम्र-भर
भूल से मैं हाथ किसका गह गयी

  • डी-4, उदय हाउसिंग सोसा. वैजलपुर, अहमदाबाद-380015, गुजरात



श्याम ‘अंकुर’




ग़ज़ल

दानिशवर की बात ह्नदय में
अनुभव की सौगात ह्नदय में

तारे वह आकाश हमारा
पंखों की औकात ह्नदय में

दहशत, दंगे, खून, हवश है
बस्ती के हालात ह्नदय में

भीनी-भीनी महक बदन की
छायाचित्र : रितेश गुप्ता

प्रथम मिलन की रात ह्नदय में

भूल न पाया आज तलक भी
इन काँटों की घात ह्नदय में

ऊपर से हैं भक्तों जैसे
इन बगुलों की जात ह्नदय में

सहन करेगा ‘अंकुर’ कैसे
होता उल्कापात ह्नदय में
  • हठीला भैरूजी की टेक, मण्डोला वार्ड, बारा-325205 / मो. 09461295238

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  :  4,   अंक  : 07-12,   मार्च-अगस्त 2015

।। कथा प्रवाह ।।

सामग्री :  इस अंक में श्री  स्व. श्री सुरेश शर्मा, स्व. श्री एन उन्नी,  डॉ. बलराम अग्रवाल, श्री मधुदीप,  डॉ. कमल चौपड़ा, सुश्री सुदर्शन रत्नाकर, डॉ. चन्द्रा सायता, सुश्री सुधा भार्गव  की लघुकथाएँ।


{श्रद्धेय पारस दासोत जी के बाद अब सुरेश शर्मा जी (12 अप्रैल 2015) और एन. उन्नी साहब (14 जुलाई 2015) भी हमें अलविदा कह गए। लघुकथा जगत के लिए यह बहुत बड़ा आघात है। ये वो नाम हैं, जिन्होंने लघुकथा के लिए स्वयं को समर्पित ही नहीं किया था, लघुकथा को जीवन की तरह जिया था। अविराम साहित्यिकी परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि के साथ हम स्व. सुरेश शर्मा जी और एन. उन्नी साहब को उनकी लघुकथाओं के साथ स्मरण कर रहे हैं।}

स्व. सुरेश शर्मा


दो लघुकथाएँ
लकवाग्रस्त
     ‘‘पिताजी, कल भी आपने टेलिफोन का बिल नहीं भरा था।’’
     कल से कमर का दर्द चैन नहीं लेने दे रहा, वह दिन भर कराहते रहे थे। बहू को मालूम भी है। वह कहना चाह रहे थे। पर खामोश रहे।
     ‘‘दादाजी, मेरी स्कूल की फीस भी अभी तक आपने जमा नहीं की। आज जरूर कर देना। आखिरी ‘डेट’ है।’’
     ‘‘हूँ...।’’
     ‘‘आखिर दिन भर क्या करते रहते हो, पिताजी। ये छोटे-मोटे काम हम इसलिए बताते हैं कि आपका समय भी कटेगा और शरीर भी चलता रहेगा।’’
     ‘‘हूँ...।’’
     ‘‘पिताजी, अभी तक सब्जी लेने नहीं गए आप? सवेरे से अखबार लेकर बैठ जाते हो।’’
     ‘‘हूँ...।’’
     ‘‘और जरा भाव-ताव करके लाना। सीधा समझकर सभी ठग लेते हैं, आपको।’’ थैली पकड़ाते हुए बहू ने पैंसठ वर्षीय ससुर को समझाया।
     ‘‘हूँ...।’’
     थैली और पैसे उठाकर वह सड़क पर आ गए।
रेखाचित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
     ‘‘सेवानिवृत्ति के बाद आदमी को लकवा क्यों मार जाता है?’’ -इसी सवाल का जवाब खोजते हुए वह सब्जी मण्डी तक जा पहुँचे।

पाप
     सुधीर और देवीसिंह गाँव के बाहर बस-अड्डे पर स्थित ढाबे से खा-पीकर निकले। बस्ती कुछ दूरी पर थी। दोनों बातें करते हुए चले जा रहे थे। सुधीर को आज का मटन पसन्द आया था तो देवीसिंह को शराब असली लग रही थी।
     ‘‘ले भाई सुधीर, अपनी तो हरिजन बस्ती आ गई। अपन तो चलते हैं, यार।’’ कहकर देवीसिंह ने विदाई ली।
     आगे रास्ते में एक मन्दिर पर रोशनी देख सुधीर दर्शन हेतु बढ़ा ही था कि राह चलते एक परिचित ने टोकते हुए कहा- ‘‘उधर कहाँ जा रहे हो, भैया। मालूम नहीं कि वो मन्दिर तो हरिजन टोले वालों ने बनवाया है। तुम्हारे पिताजी पंडित रामनाथ जी को मालूम पड़ेगा तो नाहक ही परेशानी में पड़ जाओगे।’’
     ‘‘अरे चाचा, मुझे क्या मालूम था।’’ कानों को पकड़ते हुए सुधीर ने कहा- ‘‘आजकल शहर में नौकरी है न। बहुत दिनों बाद आना हुआ। अच्छा हुआ चाचा आपने बता दिया। वर्ना यों ही पाप का भागी बनता।’’

  • परिवार संपर्क: 41, काउन्टी पार्क, महालक्ष्मीनगर, किंग्स हॉस्पीटल रोड, इन्दौर-452010, म.प्र.




स्व. एन उन्नी


दो लघुकथाएँ

औकात
     कबाड़ की माँग बढ़ रही है। कबाड़ की कीमत बढ़ रही है। कबाड़ से नए-नए सामान बनाकर मंडी पहुँच रहे हैं। कुल मिलाकर कबाड़ की इज्जत बढ़ गयी है।
     इस ज्ञान के साथ घर का अतिसूक्ष्म निरीक्षण किया तो पाया कि कमरे कबाड़ों से भरे पड़े हैं। एक-साथ नहीं दे सकते क्योंकि कालोनी में एक ही कबाड़ी आता है। कबाड़ ले जाने के लिए उसके पास एक ही ठेला है। मैंने कबाड़ को इकट्ठा किया। भाव करके किश्तों में कई बार ठेला भर दिया। कबाड़ी की खुशी देखते ही बनती थी। आखिर में जब घर खाली हुआ और मुझे खाने को दौड़ा तो कबाड़ की अंतिम किश्त के रूप में मैं स्वयं ठेला-गाड़ी पर आसीन हो गया। मज़ाक समझकर कबाड़ी हँस दिया और कहने लगा, ‘कबाड़ की कीमत आप जानते ही हैं और अपनी भी। आप कृपया उतर जाइए।’
     मैं उतर गया और वह चला गया। उस निर्दयी कबाड़ी की चाल मैं चुपचाप देखता रहा। सोचता रहा कि-
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया 
आखिर मेरी औकात क्या है।

आदर्श
     महीने भर की दुविधा के बाद आखिर मैंने अपने दोस्त से पूछ ही लिया, ‘प्रेम-विवाह के बारे में तुम्हारी क्या राय है।’
एकदम गम्भीर होकर उसने मुझे पल दो पल निहारा और एक दार्शनिक की मुद्रा में कहने लगा- ‘मेरी राय में तो प्रेम-बंधन ही सबसे महत्वपूर्ण है। प्रेम के पश्चात ही विवाह रचाना चाहिए। जो लोग प्रेम से वंचित रह जाते हैं वे जिन्दगी की सबसे खूबसूरत एवं जादूभरी अनोखी अनुभूति से अनभिज्ञ रह जाते हैं।’
     इतना कहकर एक गूढ़ मुस्कान लिए उसने आगे पूछा, ‘लड़की कौन है।’
     मेरे दोस्त को यकीन था कि हीरो मेरे सिवा कोई-और नहीं है। लेकिन मुझे लगा, मानो मेरे मन से एक पहाड़ उतर गया हो। मैंने चैन की साँस ली और कहा, ‘सवाल पहले लड़के का होना चाहिए। हमारा दोस्त मुकेश मुक्ता से शादी करना है। वे एक-दूसरे को न जाने कब-से चाहने लगे हैं...’
     उसने मेरी बात को पूरा नहीं होने दिया। वह गुस्से से काँपने लगा और गालियों की बौछार के साथ-साथ चिल्लाया, ‘कहाँ है वह। मैं उसकी जान ले लूँगा।...’
     मुक्ता उसकी बहन थी।

  • परिवार का सम्पर्क सूत्र : 1, नीर नगर, ब्लू वाटर पार्क, बिचौली मर्दाना रोड़, इन्दौर-452016 / मो. 09893004848



डॉ. बलराम अग्रवाल



पीले पंखों वाली तितलियाँ 

{लम्बे अन्तराल और प्रतीक्षा के बाद सुप्रसिद्ध लघुकथाकार डॉ. बलराम अग्रवाल जी का दूसरा लघुकथा संग्रह ‘पीले पंखों वाली तितलियाँ’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। संग्रह में उनकी कई महत्वपूर्ण, चर्चित व लघुकथा को नई दिशा देती लघुकथाओं के साथ कुल 95 लघुकथाएँ शामिल हैं। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।}

दो लघुकथाएँ
गे भी थे वे
     ‘‘इस गेट से आगे उन लोगों को बढ़ने ही क्यों दिया आपने?’’ उच्चाधिकारी निम्न पदस्थों पर चिल्ला रहा था, ‘‘आन्दोलनकारियों को घरों और कोठियों के भीतर जाने देना इससे पहले सुना है कभी?’’
     मौके पर तैनात सभी सुरक्षाकर्मी चुप थे।
     ‘‘एक तो प्रतातन्त्र का तकाज़ा सर, दूसरे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का डर...!’’ एक अधिकारी ने साहस कर कहना शुरू किया।
     ‘‘हर अधिकार की एक हद होती है हरजिंदर...’’ उच्चाधिकारी बीच में ही दहाड़ा, ‘‘कपड़े उतारकर मंत्री महोदय के भवन में घुसना मानवाधिकार नहीं है, समझे!’’
     ‘‘सर, कपड़े तो एकाएक उस बरामदे में पहुँचकर उतारे थे उन्होंने।’’ इस बात पर एक अन्य अधिकारी बोला, ‘‘पर, मैं यकीन से कह सकता हूँ कि नंगे जरूर हुए थे, गे नहीं थे वे... अहिंसक थे पूरी तरह...।‘‘
     ‘‘आन्दोलन अब हिंसक और अहिंसक भर नहीं रहे गोखले! उनकी शक्ल बदल रही है...’’ उच्चाधिकारी आग उगलता-सा बोला, ‘‘लोगों का गुस्सा राजनीतिकों और नौकरशाहों पर किस रूप में उतरने लगे, सोचना भी आसान नहीं है, समझे।’’
     यह संवाद अभी चल ही रहा था कि सम्भ्रांत दिखने वाले कुछ सफेदपोश अपने-अपने अधोवस्त्र सँभालते-से अस्त-व्यस्त हालत में कोठी के भीतर से बाहर की ओर भागते चले आये। उच्चाधिकारी की बात जैसे दूर-से ही सुन ली हो उन्होंने। हाँफते हुए बोले, ‘‘नंगे भी थे और गे भी थे वे... हम तो उनके चंगुल से किसी तरह निकल भागे, मंत्रीजी अपने कमरे में कुछ बालाओं के साथ... जल्दी करो, उन्हें बचाओ...’’

चारदीवारी
     वह एक बड़े पत्र-समूह में संपादक था। किसी सेमीनार में हिस्सा लेने दिल्ली से आया था। पुरानी दोस्ती का मान रखते हुए तीन में से एक रात रुकना स्वीकार करके आखिरी शाम को मेरे यहाँ पहुँचा। रात का खाना खा चुकने के बाद मुझे टहलने की आदत है। उसे साथ लेकर मैं घर से बाहर निकल आया। मुख्य सड़क पर
रेखाचित्र : के रविन्द्र
पहुँचकर हम एक ऊँची चारदीवारी के बराबर से गुजरने लगे।
     ‘‘बड़ी लम्बी चारदीवारी है!’’ उसने आश्चर्यमिश्रित स्वर में सवाल-सा किया।
     ‘‘तीन किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली है।’’ मैंने उसे बताया।
     ‘‘क्या है?’’ उसने पूछा।
     ‘‘नब्बे के दशक में उजड़ी एक इण्डस्ट्री है।’’ मैं बोला, ‘‘उन दिनों करीब एक लाख लोग काम करते थे इसमें। मजदूरों और मालिकों के बीच किसी मसले पर बात ऐसी बिगड़ी कि लड़ाई छिड़ गई और...’’
     ‘‘साले चूतिए’’, यह सुनकर वह गुस्से में बोला, ‘‘आपने लड़ाई छेड़ दी, उसने इण्डस्ट्री समेट ली। आप बेरोजगार, बेघर-बार हो गये। आपके बच्चे दाने-दाने को, दवाई को, कपड़े को मोहताज़ हो गए। उसका क्या बिगड़ा?’’
     दोस्त मध्यमार्गी है, पूरी तरह सुविधाभोगी। -इस जानकारी के चलते जवाब में मैंने कुछ नहीं कहा।
     ‘‘तू बुरा मानेगा’’, मेरी चुप्पी के बरखिलाफ कुछ देर बाद वही बोला, ‘‘लेकिन मैं ऐसी किसी भी लड़ाई के खिलाफ हूँ जिसमें खुद अपनी और अपने बच्चों की ही जान पर बन आए।’’
     ‘‘जान की परवाह करने वाले कभी लड़ पाते हैं क्या?’’ उसकी इस बात पर मैंने किंचित कड़ा सवाल किया।
     ‘‘ठीक है, लेकिन एकदम अंधे होकर...!’’ वह बोला।
     ‘‘आज़ादी की हर लड़ाई की शुरूआत हमारे अंधे पूर्वजों ने ही की है दोस्त!’’ इस बार मैंने पूरे तीखेपन से उसे टोका, ‘‘जीत जाने के बाद, हम आँखों वाले, सुख भोगते हुए उन बहादुरों को गालियाँ दे रहे होते हैं, बस।’’
     वह मेरी मूर्खताओं से पूरी तरह परिचित था। शायद इसीलिए मेरी बात पर उसने तुरन्त कुछ नहीं कहा। दो पल बाद पूछा, ‘‘इस चारदीवारी का पूरा चक्कर लगाना है क्या?’’
     ‘‘मैं तो रोज़ाना लगाता हूँ।’’ मैंने कहा, ‘‘लेकिन तुम थक गए हो तो आज रात बस इतना ही रहने देते हैं।’’
     वह चुप रहा। उस चुप्पी के अर्थ को महसूस करते हुए मैं उसी जगह से वापस घर की ओर घूम लिया।
  • एम-70, उल्धनपुर, दिगम्बर जैन मन्दिर के पास, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32 / मोबाइल : 08826499115


मधुदीप




समय का पहिया...
{लेखन में लम्बे अन्तराल-अवकाश के बाद पिछले कुछेक वर्षों से मधुदीप जी लघुकथा में पुनः सक्रियता दिखाई तो ‘पड़ाव और पड़ताल’ के एक के बाद एक कई महत्वपूण खण्डों का प्रकाशन तो हुआ ही, कई महत्वपूर्ण लघुकथाएँ भी उनके हस्ताक्षर लेकर सामने आई। ऐसी ही लघुकथाओं के साथ उनका संग्रह ‘समय का पहिया...’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से नई पीढ़ी के समय को प्रतिबिम्बित करती उनकी दो लघुकथाएँ।}

दो लघुकथाएँ
चैटकथा
      रीमा ने दो घण्टे पहले ही फेसबुक पर अपनी नई फोटो पोस्ट की थी। अब तक दो सौ लाइक्स, तीस कमेण्ट्स और तीन शेयर आ चुके हैं। वह बहुत ही रोमांचित महसूस कर रही है।
      ‘‘हाय सेक्सी!’’ फेसबुक पर चैट बॉक्स खुलता है।
      ‘‘हाय रैम! कैसे हो?’’
      ‘‘बड़ी हॉट फोटो पोस्ट की है!’’
      ‘‘यू लाइक दैट?’’
      ‘‘ओह यस, सुपर्ब!’’
      ‘‘थैंक्स ए लॉट।’’
      ‘‘तुम बहुत क्यूट हो।’’
      ‘‘सच, मैं कैसे मान लूँ?’’
      ‘‘मैं तीन महीने से तुमसे चैट कर रहा हूँ।’’
      ‘‘चैट कर रहे हो या चीट कर रहे हो?’’
      ‘‘व्हाट?’’
      ‘‘तुम, तुम ही हो, मैं कैसे मान लूँ?’’
      ‘‘जैसे मैं मानता हूँ कि तुम, तुम ही हो।’’
      ‘‘बहुत स्मार्ट हो!’’
      ‘‘थैंक्स फॉर कॉम्पलीमेण्ट! कब मिल रही हो?’’
      ‘‘फॉर व्हाट, किसलिए?’’
      ‘‘तुम्हें प्रपोज करना है।’’
      ‘‘शिट, कर दिया न चैट का रोमांस खत्म!’’
      रीमा ने फेसबुक बन्द कर दी है। अब वह अपना मेल बाक्स खोल रही है।

महानगर का प्रेम संवाद
      ‘‘हलो अर्ची...!’’
      ‘‘हाय विभु! कैसे हो...!’’
      ‘‘ठीक हूँ, कल तुम आई नहीं... आई वेट यू लॉट...’’
रेखाचित्र : रमेश गौतम
      ‘‘हाँ यार! मैं विक्की के साथ मूवी देखने चली गई थी...‘‘
      ‘‘हूँ...’’
      ‘‘क्या सोच रहे हो, बोर हुए तुम...?’’
      ‘‘ऑफकोर्स नो! सिम्मी मिल गई थी, मैं उसके साथ आउटिंग पर निकल गया...’’
      ‘‘व्हाट... तुम ऐसा कैसे कर सकते हो...!’’
      ‘‘क्यों...’’
      ‘‘कुछ नहीं... चलो छोड़ो...’’
      ‘‘चलो छोड़ दिया...’’
      ‘‘कभी तो सीरियस हुआ करो...!’’
      ‘‘हो गया, अब बोलो...’’
      ‘‘मुझसे शादी करोगे...?’’
      ‘‘शिट! क्या हम बूढ़े हो रहे हैं...?’’
  • 138/16, त्रिनगर, दिल्ली-110035 / मोबाइल : 09312400709



डॉ. कमल चौपड़ा




अनर्थ
{सुप्रसिद्ध लघुकथाकार डॉ. कमल चौपड़ा का हिन्दी लघुकथा का चौथा संग्रह ‘अनर्थ’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में साम्प्रदायिक पृष्ठभूमि पर उनकी 80 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से उनकी दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।}

दो लघुकथाएँ
दुराचार
      उसकी लाल अंगार आँखों से झाँकता हुआ कोई भेड़िया ताजा बोटियों की तलाश कर रहा था। दहशत और नफरत के मारे उसकर वजूद फनफना रहा था। अचानक एक कोठरी में दुबकी हुई डरी-सहमी सी एक औरत पर उसकी नज़र पड़ी। बेखौफ-सा वह कोठरी में घुस गया। जयकारे लगाते हुए उसके साथी दंगाई बाहर मारकाट और लूटपाट मचाये हुए थे।
      भेड़ियें की तरह वह औरत पर टूट पड़ा और बोटियाँ नोचने लगा। जल्दी ही वह अपने इरादे में कामयाब भी हो गया। वह जल्दी में था। दंगाई जत्थे के आगे बढ़ जाने से पहले वह फिर से उसमें शामिल हो जाना चाहता था। वहाँ से निकलने को ही था वह कि उसने देखा पास ही पड़ी एक पेटी के नीचे से खींचकर एक चाकू औरत ने अपने हाथ में ले लिया था।
      काँप गया वह- ‘‘चाकू तुम्हारे पास ही पड़ा था। अपना बचाव कर सकती थी तुम! कोई प्रत्याक्रमण, कोई प्रतिकार तक क्यों नहीं किया तुमने?’’
      औरत की आँखों से हिकारत और झुँझलाहट की लाल-लाल लपटें निकल रही थीं- ‘‘हो गया न तेरा धर्म युद्ध? यही था तेरा युद्ध... तेरी मर्दानगी? अभी-अभी जो बह गया, यही था तेरा धर्म? खुद ही हार गये तुम तो? अपना बीज... अपना धर्म यहीं छोड़ हारे जा रहे हो तुम। हा हा हा.... बच्चा जन्म लेगा और बड़ा होकर तुम जैसों से बदला लेगा और लड़की हुई तो हमारे मजहब वालों के काम आयेगी! तुम्हारी बेटी!’’

इतना भी सहा
रेखाचित्र : राजेन्द्र परदेसी
      दबी हुई जुबान कहीं से भी विरोध न पाकर खुल गई थी। गाड़ी की रफ्तार के साथ-साथ वे कुछ और तेज
      आपे से बाहर होकर वे उस पर टूट पड़े। एक ने उसके बाल पकड़कर उसका सिर तीन-चार बार खिड़की पर दे मारा। गाड़ी तेज रफ्तार से दौड़ रही थी और वह सीटों के बीच खून से लथपथ लुढ़का पड़ा था।
      पीछे की सीटों पर बैठा एक आदमी दौड़कर आया और बोला- ‘‘हिंदू ही तो था यह भी! इसने कहा... और तुमने यह जो किया?’’
  • 1600/114, त्रिनगर, दिल्ली-110035 /  मोबाइल : 09999945679



सुदर्शन रत्नाकर




साँझा दर्द
{चर्चित कवयित्री-कथाकार सुदर्शन रत्नाकर जी लघुकथा में भी सक्रिय रही हैं। उनका लघुकथा संग्रह ‘साँझा दर्द’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ। उनके इस संग्रह में उनकी 101 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं ‘साँझा दर्द’ से रत्नाकर जी की दो लघुकथाएँ।}

दो लघुकथाएँ
उस रात
      बाहर शरीर को जमा देने वाली सर्दी थी। माँ की तबीयत एकाएक बिगड़ गई। वह उसे अस्पताल ले जाने के लिए झुग्गी से बाहर ले आया। पर माँ से चला नहीं गया। उठाकर चलने लगा पर अधिक दूर चल नहीं पाया। माँ को दीवार की ओट में बैठाकर वह रिक्शा लाने के लिए चला गया। अमावस्या की रात। बाहर गहरा अंधेरा था। तेज़ कदमों से अभी वह थोड़ी ही दूर गया था कि पुलिस वाले ने उसे पकड़ लिया।
      ‘‘स्साला कहाँ भागा जा रहा है, रुको।’’
      वह ठिठका, बोला- ‘‘साब! माँ की तबीयत बिगड़ गई है उसी के वास्ते...।’’
      ‘‘चुप्प, झूठ बोलता है, चोरी करने निकला है, चल थाने।’’
      उसने बहुत हाथ-पाँव जोड़े, मार भी सहता रहा। कहता भी रहा वह चोर नहीं है साब! पर सिपाही ने उसकी बात सुनी ही नहीं।
      सुबह तक जब पुलिस के हाथ कुछ नहीं लगा तो उसे छोड़ दिया।
      वह भागता हुआ आया। दीवार की ओट में माँ उसी तरह सिर टिकाए बैठी थी। उसका सारा बदन अकड़ गया था। हाथ लगते ही शरीर एक ओर लुढ़क गया।

विशेषता
      सुपसिद्ध चित्रकार के चित्रों की प्रदर्शनी की पूरी तैयारी हो चुकी थी। प्रदर्शनी के साथ-साथ इन चित्रों में से
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर
कुछ चित्रों की नीलामी भी होनी थी। नगर के नामी-गरामी लोग पहुँच चुके थे। सभी इन दुर्लभ चित्रों की प्रशंसा कर रहे थे।
      जलपान के पश्चात नीलामी का कार्यक्रम आरम्भ हुआ। एक चित्र पर बढ़ चढ़ कर बोली लगाई जा रही थी। अंत में उसकी कीमत एक करोड़ पर आकर रुक गई। यह वह चित्र था जिसमें एक क्षीणकाय माँ कुपोषण के शिकार बच्चे को अपने सूखे स्तनों से दूध पिला रही थी। दोनों की आँखों की निराशा, विवशता इस चित्र की विशेषता थी।
  • ई-29, नेहरु ग्राऊंड, फरीदाबाद-121001, हरियाणा / मोबाइल : 09811251135



डॉ. चन्द्रा सायता




गिरहें
{सिंधी और हिन्दी की कवयित्री डॉ. चन्द्रा सायता ने कहानी एवं लघुकथा लेखन में भी योगदान किया है। उनकी 67 लघुकथाओं का संग्रह ‘गिरहें’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो लघुकथाएँ।}


दो लघुकथाएँ
समान हक
     नब्बे वर्षीय माँ लकवे से ग्रस्त होने पर बिस्तर पर जीवन गुजार रहीं थी। उन्हें उठाने-बैठाने, स्पंज कर कपड़े बदलने से लेकर शौचादि कार्य किसी अन्य को करने होते थे। उनकी देख-रेख एक बाई करती थी, जिसे एक कमरा-किचिन कम किराए पर दे दिया गया था। बीच-बीच में वह नीचे जाकर अपना काम निपटा लेती थी। इसी प्रकार के अंतरालों में अन्य की भूमिका पचहत्तर वर्षीय विधुर पुत्र निभाता। ये अंतराल कभी एक-दो दिन का भी हो जाता था।
     कभी-कभार एक-दो दिन के लिए बेटियाँ आ जातीं, तब अन्य की भूमिका उनके हिस्से आ जाती। उनके आने से थोड़ी बाई को तो कुछ अधिक भाई को राहत मिल जाती।
     उनकी बड़ी बेटी आई हुई थी, जो आते ही अपनी अस्वस्थ माँ की सेवा-सुश्रूवा में लग गई। माँ को बेटी का सेवा-भाव कब स्नेहसिक्त कर गया, पता ही नहीं चला। वे अचानक बोल उठीं, ‘‘मुझे अपनी दोनों बेटियों में माँ नजर आती है।’’ उन्हें अपनी माँ का प्यार-दुलार याद हो आया था।
     बेटी सुनकर सोच में पड़ गई। हर समय तो सेवा में बेटा ही तैनात रहता है। हमारा क्या? हम तो यदा-कदा ही आ पाती हैं। उसने पास ही खड़े भाई की ओर देखते हुए कहा-
     ‘‘अपकी माँ अब सदेह तो नहीं, या तो उन्होंने दूसरी देह धारण कर ली होगी और नहीं भी तो आत्मा के रूप में आपके आसपास होंगी। आत्मा तो लिंग-भेद नहीं मानती। आपने भैया की सेवा का ठीक से आभास नहीं किया होगा, वरना उनमें भी आपको अपनी माँ नजर आती।’’
     बिस्तर पर आँखें मूँदे लेटी माँ के होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। मानो उन्होंने अपनी गलती मान ली हो।

बेज़ुबाँ का दर्द
      प्लॉट पर आकर बैलगाड़ी रुक गई। सहूलियत के हिसाब से सरिए प्लॉट की प्रवेश रेखा पर उठी हुई मिट्टी पार करके प्लॉट के अन्दर रखे जाने थे।
      गाड़ीवान गाड़ी को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। साथ ही गाड़ीवान की हे ऽ ऽ । हे ऽ ऽ । हा, हा, हा, की
छायाचित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल
आवाजें और चाबुक की मार के साथ बैलों को दी जा रही नंगी गालियाँ भी सुनाई दे रही थी।
      बास्तव में एक बैल की जिद के कारण गाड़ी आगे नहीं बढ़ पा रही थी। उस बैल के मुँह से झाग निकल रहा था। वह अशक्त होने के कारण बार-बार ज़मीन पर बैठ जाता। चाबुक खाते-खाते उसकी हालत अधिक खराब हो गई थी। ईश्वर की मेहरबानी थी कि बंधुआ इंसान नहीं था, वरना गालियाँ खाकर तो मर ही जाता।
      इधर प्लॉट मालिक सरिए बाहर उतार दिए जाने पर अन्दर उठाकर ले जाने की अतिरिक्त मजदूरी देना नहीं चाह रहा था। उसकी जिद से गाड़ीवान ने बैलों की अदला-बदली करके गाड़ी आगे बढ़ाने का प्रयास किया, फिर भी मसला ज्यों का त्यों था। काफी गहमा-गहमी के बाद प्लॉट पर काम कर रहे मजदूरों ने मिलकर गाड़ी को धक्का देकर प्लॉट के अन्दर किया। सरिए यथास्थान उतर गए।
      जाते समय भी उस बैल के मुँह से झाग निकल रहा था और आँखों में आँसू भरे थे। अब सपाट ज़मीन होने पर वह विवश होकर अपनी ताकत लगा रहा था। चाबुक की मार रह-रहकर उस बेज़ुबाँ के दर्द को बड़ा देती थी।
  • सायता सदन, 19, श्रीनगर कॉलोनी (मेन), इन्दौर-452016, म.प्र. / मोबाइल : 09329631619



सुधा भार्गव


कोमल पंखुरियाँ

      तीन दिन के बुखार ने शालू को तोड़कर रख दिया था। जरा ठीक होते ही रसोई के काम में जुट गई। बाजार से सौदा सट्टा लाने का काम पति के सुपुर्द कर दिया। दो दिन बाद उसकी नन्द और नंदोई भारत से पहली बार लंदन घूमने आ रहे थे। उसने नन्द की तारीफ में बहुत कुछ सुन रखा था कि खाना बनाने में उनका कोई जबाब नहीं। जो खाए उंगली चाटता रह जाए। खाती भी मन से हैं और खिलाती भी मन से हैं। वह उनको ज्यादा नुक्ताचीनी का मौका नहीं देना चाहती थी पर हाँ, नन्द का विचार आते ही वह बौखला सी जाती।
      आज सुबह से ही बहन के मिलने की आश में उसके पति के चेहरे से खुशी टपकी पड़ती थी। ऑफिस से आते ही वह चहका-शालू दीदी को लेने जल्दी चलो एयरपोर्ट!
      -पहले कुछ खा लो।
      -अरे अभी कुछ नहीं- दीदी के साथ खाऊँगा, खाना तो बन ही गया होगा। आते ही उस पर टूट पड़ेंगे।
      -हाँ खाना तो बन गया है मगर-।
      -मगर बगर कुछ नहीं। बस चलो।
      वह कार में बैठ तो गई पर रास्ते भर चिंता के गुब्बारे फट फट कर उसके कान फोड़ते रहे- नन्द बाई को करेला पसंद न आया तो राजमा में कहीं मिर्च तीखी न हो.... कुछ चूक रह गई तब तो दो बात जरूर सुनने को मिलेंगी।
      एयरपोर्ट पर मधुर मुस्कान का मुखौटा लगाए शालू ने नन्द-नंदोई का स्वागत किया।
      घर पहुँचते ही नन्द बाई गुदगुदे सोफे पर पसर गई और बोली- भैया मुझे तो यहीं गरम गरम चाय थमा दो। नहाने के बाद बस खाना खा लेंगे।
      जब तक मेहमान नहाकर आए खाने की मेज बड़ी सावधानी से सजा दी गई।
      -आह मसालेदार सब्जियों की महक से मेरी तो भूख दुगुनी हो गई। नंदोई बोले।
      -आपकी तो नाक बड़ी तेज है! पहले मुझे देखने तो दो क्या बना है? राजमा, चावल, सब्जी, रायता...। अरे, रोटी-पूरी तो हैं ही नहीं...।
      - दीदी, आप खाने तो बैठो। मैं रोटी एक मिनट में बनाता हूँ।
      -तू बनाएगा...? बहन की भृकुटी चढ़ गई। ....ये काम कब से सीख गया!
      -अरे मैं रोटी थोड़े ही बना रहा हूँ। बस बाजार की बनी बनाई रोटी एक मिनट मेँ माइक्रोवेव में गरम करके दे दूंगा ।
      -बाजार की रोटी! बहन ने बिदकते हुए कहा।
      -महारानी जी। यहाँ कोई नौकर नहीं है जो गरम गरम फूली रोटी रसोई से लाकर आपकी थाली में रखे। यहाँ तो खुद ही नौकर हैं और खुद ही मालिक! पहले स्वादिष्ट व्यंजन बना लो, फिर चटकारे लेकर उसे खा लो। जो नहीं बन पाए उसे बाजार से खरीद लो। इसमें बुराई क्या है? नंदोई जी ने अपनी पत्नी को समझाने की
छायाचित्र : उमेश महादोषी
कोशिश की।
      पति की बात सुन एकबारगी दीदी को झटका लगा- यह बात पहले उसके दिमाग में क्यों नहीं आई। बात को तुरंत पलटते हुए बोली- आप कुछ भी कहो, आज तो मैं आराम ही करूंगी- बहुत थकी हूँ। कल से देखना रसोई ऐसी संभालूँगी कि शालू को देखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
      -अरे दीदी आप यहाँ क्यों काम करने लगीं। बस घूमिए और आराम करिए। यहाँ करो ही करो- यह कोई बात हुई।
      -वहाँ क्या सारे दिन बैठी रहती हूँ शालू। कुछ न कुछ तो करती ही रहती हूँ। यहाँ भी दो काम कर लिए तो क्या फर्क पड़ता है! फिर तुम्हें तो हजार काम हैं। तुम उन्हें करो और मैं कल से बनाती हूँ खाना। चटपट घर का काम निबटा कर साथ साथ घूमने चलेंगे। एक साथ घूमने में जो मजा है वह अकेले में कहाँ?
      इस स्नेहिल व्यवहार की कोमल पंखुरियों ने शालू के तन बदन को इस कदर ढाप लिया कि चिंता के बादल ज्यादा देर ठहर न सके और वह आत्मीयता की गंध में गुनगुनाने लगी।
  • J & block, 703 Spring field, 17/12, Ambalipura village, Ballandur gate, Sarjapura road, Bangalore-560102, Karnataka / Mob. 09731552847