आपका परिचय

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

ब्लॉग का मुख पृष्ठ

अविराम  (ब्लॉग संकलन) :  वर्ष  : 2,   अंक  : 11-12,  जुलाई-अगस्त 2013

प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09412842467)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन  
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 

शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के "अविराम का प्रकाशन" लेवल/खंड में दी गयी है।
________________________________________
क्षणिका विशेषांक के सम्बन्ध में आवश्यक सूचना सम्पादकीय पृष्ठ पर देखें। 
________________________________________



छाया चित्र : रितेश गुप्ता 


।।सामग्री।।
कृपया सम्बंधित सामग्री के पृष्ठ पर जाने के लिए स्तम्भ के साथ कोष्ठक में दिए लिंक पर क्लिक करें। 


सम्पादकीय पृष्ठ { सम्पादकीय पृष्ठ } :   नई पोस्ट नहीं

अविराम विस्तारित : 
काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत:    इस अंक में डॉ. कुँअर बेचैन, प्रो. विनोद अश्क, डॉ. राकेश वत्स, श्री कृष्ण सुकुमार व श्री पवन कुमार ‘पवन’, कुमार नयन, जयप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. शुभदर्शन, पीताम्बर दास सराफ ‘रंक’ व डॉ. शारदाप्रसाद ‘सुमन’ की काव्य रचनाएं।

लघुकथाएँ   {कथा प्रवाह} :    इस अंक में सुरेश शर्मा, डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’, उषा अग्रवाल ‘पारस’, जितेन्द्र ‘जौहर’,  ललितनारायण उपाध्याय, सत्य शुचि की लघुकथाएँ।

कहानी {कथा कहानी  नई पोस्ट नहीं

क्षणिकाएँ  {क्षणिकाएँ:   श्री महावीर रंवालता व सु-श्री मीना गुप्ता की क्षणिकाएं। 

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  :  इस अंक में डॉ. सुधा गुप्ता, रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु', डॉ. जेन्नी शबनम, रचना श्रीवास्तव, प्रियंका गुप्ता, डॉ. सतीश राज पुष्करणा, प्रगीत कुँअर के सेदोका।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द:   राम नरेश 'रमण' के पाँच जनक छंद।

बाल अविराम {बाल अविराम:   श्रीमती मनीषा सक्सेना की बालकथा 'सर्वश्रेष्ठ उपहार', आरुषि ऐरन, सक्षम गंभीर व  राधिका शर्मा के साथ। 

हमारे सरोकार  (सरोकार) :   नई पोस्ट नहीं

व्यंग्य रचनाएँ  {व्यंग्य वाण:   आशीष दसोत्तर का व्यंग्यालेख 'वीसा की महिमा'

संभावना  {सम्भावना:    नई पोस्ट नहीं

स्मरण-संस्मरण  {स्मरण-संस्मरण:  नई पोस्ट नहीं

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} : नई पोस्ट नहीं

किताबें   {किताबें} :    अविराम के ब्लाग के इस अंक में श्री सुरेश जांगिड़ 'उदय' द्वारा सम्पादित वरिष्ठ कथाकार डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाओं के संग्रह ‘‘डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएं’’ एवम वरिष्ठ कथाकार-समालोचक डॉ बलराम अग्रवाल द्वारा सम्पादित समालोचना पुस्तक 'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद' की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा तथा वरिष्ठ साहित्यकार श्री ललित नारायण उपाध्याय के व्यंग्य लघुकथा संग्रह "एक गधे का प्रमोशन" की डॉ. राम कुमार घोटड द्वारा लिखित समीक्षायें।

लघु पत्रिकाएँ   {लघु पत्रिकाएँ} :  नई पोस्ट नहीं

हमारे युवा  {हमारे युवा} :  नई पोस्ट नहीं

गतिविधियाँ   {गतिविधियाँ} : पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।
अविराम की समीक्षा (अविराम की समीक्षा) : नई पोस्ट नहीं

अविराम के अंक  {अविराम के अंक} :   जुलाई-सितम्बर 2013 अंक में प्रकाशित सामग्री की सूची

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  विराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के 14 अगस्त 2013  तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार  {अविराम के रचनाकार} : नई पोस्ट नहीं

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 11-12,  जुलाई-अगस्त 2013

।।कविता अनवरत।।

सामग्री :  इस अंक में डॉ. कुँअर बेचैन, प्रो. विनोद अश्क, डॉ. राकेश वत्स, श्री कृष्ण सुकुमार व श्री पवन कुमार ‘पवन’, कुमार नयन, जयप्रकाश श्रीवास्तव,  डॉ. शुभदर्शन,  पीताम्बर दास सराफ ‘रंक’ व  डॉ. शारदाप्रसाद ‘सुमन’ की काव्य रचनाएं।



‘‘भावों के आकाश’’

{उ.प्र. के शामली नगर की साहित्यिक संस्था ‘चेतना’ पिछले कुछ वर्षों से अपनी स्मारिका एक अखिल भारतीय स्तर के काव्य संकलन के रूप में प्रकाशित कर रही है, जिसका संपादन संस्था के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि प्रो. विनोद अश्क जी करते हैं। वर्ष 2013 का संकलन ‘‘भावों के आकाश’’ नाम से प्रकाशित किया गया है, जिसमें कुछ नये रचनाकारों के साथ देश के कई मूर्धन्य कवि शामिल हैं। कुल 30 कवियों की रचनाओं को अपने कलेवर में समेटे ‘‘भावों के आकाश’’ से हम यहाँ पांच रचनाकारों-  डॉ. कुँअर बेचैन, प्रो. विनोद अश्क, डॉ. राकेश वत्स, श्री कृष्ण सुकुमार व श्री पवन कुमार ‘पवन’ की एक-एक रचना अपने पाठकों से संकलन का परिचय कराने के उद्देश्य से रख रहे हैं।}


डॉ. कुँअर बेचैन




सबने सोचा था यहीं पास में होगी नदियाँ

सबने सोचा था यहीं पास में होगी नदियाँ
किसको मालूम था बनवास में होंगी नदियाँ

जिसने अश्कों को मेरी आँख से गिरने न दिया
बस उसी आह के अहसास में होंगी नदियाँ
रेखांकन : बी मोहन नेगी 

एक बादल से सुलगता-सा मरुस्थल बोला
आप देखें, मेरे इतिहास में होंगी नदियाँ

मेरे चेहरे पे यही लिख के गिरे थे आँसू
जा, तेरे होठ की हर प्यास में होंगी नदियाँ

यों तो जीवन के हर एक श्लेष से गुज़री हैं ये
पर अभी नैन के अनुप्रास में होंगी नदियाँ

  • 2 एफ-51, नेहरू नगर, गाजियाबाद (उ प्र) 201001



प्रो. विनोद अश्क




ग़ज़ल

ये अलग कि मिलने का सिलसिला नहीं रहता
उसके मेरे रिश्ते में फासला नहीं रहता

जब भी मेरी तन्हाई आपको तरसती है
धड़कनों को अपना भी, कुछ पता नहीं रहता

आज तक भी ज़िन्दा हैं लोरियों की यादें माँ
चुप्पियों के सीने में, क्या ख़ुदा नहीं रहता

आइने से बस अपने गर्द सी हटा ले तू
रेखांकन :  डॉ सुरेन्द्र वर्मा 

तेरे साथ रहता हूँ मैं जुदा नहीं रहता

इस तरह ये मिलते हैं बेख़ुदी के आलम में
उनसे बात करने का हौसला नहीं रहता

जिस जगह भी जाता हूँ, लोग दिल से मिलते हैं
बस उसी का कुछ मुझसे वास्ता नहीं रहता

लोग उसके चेहरे से डर के लौट जाते हैं
अब सुना है घरती पर देवता नहीं रहता

  • नटराज विला, 418, गगन विहार, शामली-247776 (उ.प्र.)


डॉ. राकेश वत्स

ग़ज़ल

इक अधूरे ख़्वाब में टूटा हुआ पर देखना
या कि बस आकाश में लटके हुए सर देखना
रेखा चित्र : के रविन्द्र 


काँपना थरथर हवा बिन ज़र्द पत्तों की तरह
घोसलों में फिर नये नोचे हुए पर देखना

मैं तुम्हें आवाज़ दूँ जब भी निगाहों से कभी
तुम मेरी आवाज़ को बाँहों में भर कर देखना

कैसा लगता है समन्दर को बिना देखे हुए
छोटे छोटे से तालाबों में समन्दर देखना

ये सफ़र है नींद है या ज़िन्दगी की असलियत
देर तक हिलता हुआ एक हाथ अक्सर देखना

  • आदर्श कालौनी, नई बस्ती,माजरा, शामली, जिला- मु0नगर (उ.प्र.)



कृष्ण सुकुमार




ग़ज़ल

ग़ज़ल, ऐ ज़िन्दगी! तुझ पर कहूँ या फिर ज़माने पर
कहूँ अपने ही अश्कों पर कि तेरे मुस्कुराने पर

घुमाया मस्अलों ने उम्र भर कुछ इस तरह मुझको
न मैं अपनी जगह पर हूँ, न दिल अपने ठिकाने पर
रेखा चित्र  :  मनीषा सक्सेना 

झुका कर सर अगर रखता तो मैं भी ऐश कर लेता
चुकानी पड़ गयी कीमत हमेशा सर उठाने पर

अगर है हौसलों में दम, उम्मीदें जगमगाती हैं
उजाले कम नहीं होते चरागों को बुझाने पर

बहुत अच्छा है खुद्दारी अगर तेरा ख़जाना है
अना के अज़दहे लेकिन बिठाये क्यों ख़जाने पर

  • 153-ए/8, सोलानी कुंज,  भा. पौ. सं., रूड़की-247667(उत्तराखण्ड)



पवन कुमार ‘पवन’




ग़ज़ल

आस्था जिसका घर नही होता
उस दुआ में असर नहीं होता

बात इतनी सी भूल बैठे हैं
कोई भी तो अमर नहीं होता

वो ही चढ़ पाता है बुलंदी पर
जिसको गिरने का डर नहीं होता

हीरे पत्थर बने पड़े रहते
रेखा चित्र : पारस दासोत 

कोई जौहरी अगर नहीं होता

अपने पैरों पे जो नहीं चलता
पूरा उसका सफ़र नहीं होता

जीत सुख की या दुख की जीवन में
फ़ैसला उम्र भर नहीं होता

गर न रहता पवन तो उपवन में
कोई ख़ुश्बू से तर नहीं होता

  • बैंक ऑफ इण्डिया, निकट सहारनपुर बस स्टैण्ड, मु0नगर, उ.प्र.



कुछ और कविताएं



कुमार नयन




ग़ज़ल

चला गया बहुत तो ग़म क्या है
अभी भी पास मेरे कम क्या है

बला-ए-भूख तोड़ दे सब कुछ
उसूल क्या है ये क़सम क्या है

मिरे ख़ुदा अगर तू सबमें है
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
तो फिर ये दैर क्या हरम क्या है

हमारे तुम हो हम तुम्हारे हैं
अगर ये सच है तो भरम क्या है

तमाम उम्र रहगुज़र पे कटी
मैं मर गया तो चश्मेनम क्या है

हरेक चोट ने दुआ दी है
हमें पता नहीं सितम क्या है

  • ख़लासी मुहल्ला, पो. व जिला: बक्सर-802101 (बिहार)



जयप्रकाश श्रीवास्तव





....शतरंज के  प्यादे ही रहे

हम तो शतरंज के
प्यादे ही रहे
नहीं बन पाये
कभी भी बज़ीर

काले और गोरे
मुहरों का खेल
आड़ी तिरछी चालें
साथी बे-मेल
सत्ता की राहों में
पैदल ही चले
नहीं छू पाये
आखिरी लकीर

उधड़ी कई बार
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 

बदन की खालें
शह और मात में
शकुनी की चालें
बिना अस्त्र-शस्त्र के
लड़े गये युद्ध
सिर मुड़वाये
नहीं बदली तकदीर

आ रही सड़ाँध
व्यवस्थाओं से
टूटे मन
कोरी आस्थाओं से
षड़यंत्रों के आगे
हार गया सच
और बिक गये
लोगों के ज़मीर

  • आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी, शक्तिनगर, जबलपुर-482001, म.प्र.



डॉ. शुभदर्शन

{युवाकवि डॉ. शुभदर्शन का कविता संग्रह ‘‘संघर्ष ममता का’’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ था। दो खंडों के इस संग्रह में ‘माँ’ को केन्द्र में रखकर रची गई कविताएँ शामिल हैं। प्रथम खंड में महाभारत की  ‘कुन्ती’ को केन्द्र में रखकर कुन्ती-कर्ण प्रकरण पर तीन लम्बी कविताएं तथा दूसरे खंड में कवि के पूर्व प्रकाशित तीन संग्रहों से चयनित ‘माँ’ विषयक कविताएँ शामिल हैं। इस संग्रह के दूसरे खंड से प्रस्तुत हैं दो कविताएँ।}

भोली थी मां

मर गई पड़ोसन चाची
मेरी माँ की राजदार
एक सखी, एक बेटी
हर मुश्किल घड़ी में
खड़ी थी साथ

मुसीबतों के कितने पहाड़
अपने सिर पर झेल गई मां
झेल गई ससुराल में आते ही
पति की झिड़कियां
ननदों के ताने, सास की फटकार
रेखा चित्र : नरेश उदास 
हर बात का इल्जाम
अपने सिर लेकर भी
कभी उफ् नहीं की

कितनी बिजलियां गिरी थीं
जब प्रेमी संग भागी बेटी का दोषी
मां को ठहराया गया
घर-समाज, समाज के ताने
चुपचाप सह गई वह
सह गई पति की मार
बेटे के उज्ज्वल
भविष्य की उम्मीद लिए
पड़ोसन चाची की नसीहत,
-लड़कियों की वफ़ा-वेवफ़ाई
दोनों ही कर देती हैं- तबाह,
को भूला तो
टूट गई थी मां
हो गई थी गुम
छोटी-सी बात से फफ़क उठती
अपने जन्म को कोसती-
पड़ोसन चाची के सामने
मुझसे ख़फा होर भी
रही मेरी ढाल
समस्या आते ही घर में
गुमसुम बैठ जाना
-हल नहीं होता -
कहा करती थी मां

कितनी भोली थी मां
जख्मों की चारदीवारी
और दुखों की छत को
समझती रही घर

गुमसुम है गौरैया

तेज आंधी है
और
पहरे पर बैठे हैं कौवे
गुमसुम है- गौरैया
बाहर निकलने का रास्ता भी तो नहीं

दाना जरूरी है
अंडे सहेजना भी
रेखांकन : मनीषा सक्सेना 
झांकती है बाहर
देखती है अंदर
चिंता में है
कैसे निभाएगी फ़र्ज
सोचती है गौरैया
तड़पती है गौरैया
बिलबिलाती है गौरैया

बस! इक आस पर टिकी है- गौरैया
मां ने भी
यह यातना झेली तो होगी
मां ने भी आंधी देखी तो होगी
पर कौवे!!

खामोश है गौरैया
कर्जदार है गौरैया
  • 7, फ्रेन्ड्स कॉलोनी, सेक्रेड हार्ट स्कूल के पीछे, मजीठा रोड, अमृतसर, पंजाब




पीताम्बर दास सराफ ‘रंक’

मिलन

मिलन के पहले की खामोशी
कितनी अजीब थी
तू थरथरा रही थी
और मैं
एक अनुमान में जी रहा था

तूने सोचा
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 

मैं कुछ कह रहा था
मैंने भी सोचा
तू कुछ कह रही थी

हम दोनों
हवा की सरसराहट
नदी की गुनगुनाहट
सुन रहे थे

तभी टहनियाँ चटकी
पत्ते झंकारे
फूलों ने हंसी बिखेरी
और एक चिड़िया
नाद करती हुई उड़ गई

  • एम-2, स्टरलिंग केसल्स, होशंगाबाद रोड, भोपाल-462026 (म.प्र.)



डॉ. शारदाप्रसाद ‘सुमन’


गीत

आतंक-नाग कुण्डली मार, अब बैठा है हर गली-गाँव।
दिखलाता अपना कुटिल रूप, जहरीला करता सभी ठाँव।।
जनता करती है त्राहि-त्राहि
फैला घर-आँगन में विषाद।
कर शक्तिहीन मुहताज बना,
फैलाता घर-घर में विवाद।
हम हार रहे हर शह पर हैं, जीता शकुनी हर बार दाँव।

तेरे-मेरे की लगी होड़,
अपनत्व भाव सब दूर हुआ।
भाई-चारे का भाव कहाँ,
सब कुछ तो चकनाचूर हुआ।
कल जो भूमण्डल शीतल था, वह तपता-कपता जगत पाँव।
रेखा चित्र : राजेंद्र सिंह 


मनमीत कहाँ जनरीति कहाँ,
सब मटमैले हो रहे साज।
माली फूलों को डसता है,
मन पक्षी जग यह बना बाज।
बारुदों के ऊपर बैठे, पर करते छलते वे दुःखद घाव।

अब राम जुहारी हुआ दूर,
पागलपन सिर पर है सवार।
बातों-बातों में चल जाती,
खूनी गोली तन आर-पार।
है रक्षक भक्षक बना यहाँ, जैसे खूनी का हो पड़ाव।

  • 186/273, कमलानगर (खेरा), टापा रोड, फिरोजाबाद-282203 (उ.प्र.)

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग : वर्ष  :  2,  अंक  : 11-12,  जुलाई-अगस्त 2013


।।कथा प्रवाह।।
सामग्री :  इस अंक में सुरेश शर्मा, डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’, उषा अग्रवाल ‘पारस’, जितेन्द्र ‘जौहर’,  ललितनारायण उपाध्याय, सत्य शुचि की लघुकथाएँ।

सुरेश शर्मा




{वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुरेश शर्मा जी की लघुकथाओं का संग्रह ‘‘अंधे बहरे लोग’’ जिसमें उनकी 82 लघुकथाएं शामिल हैं। पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से मनुष्य की संवेदनहीनता को दर्शाती दो लघुकथाएं।}


भला आदमी

    ट्रेन चलने में अभी समय था। तभी देखा अपेक्षाकृत कुछ अधिक उम्र के दो व्यक्तियों ने एक क्षीणकाय वृद्धा को सहारा देकर जैसे-तैसे डिब्बे में चढ़ाया। शयनयान के उस डिब्बे में सामने की सीट पर युवक को बैठा देख आस भरी नजरों से उन्होंने पूछा- ‘‘आप कहाँ तक जा रहे हैं?’’
    ‘‘दिल्ली तक।’’ युवक ने जवाब देकर, सवाल किया- ‘‘और आप?’’
    ‘‘हम भी दिल्ली ही जा रहे हैं, हमें सभी बर्थ ऊपर की मिली हैं। हम दोनों भाई तो चढ़ जाएँगे, समस्या हमारी माताजी की है। छियासी की उम्र है। किसी नीचे की बर्थ वाले यात्री से सीट बदलने को कहेंगे तो माँ की उम्र और हालत देखकर कोई भी भला आदमी मान जाएगा।’’ उन्होंने अपनी समस्या रखते हुए अपना कथन जारी रखा, ‘‘भले आदमियों की कमी तो नहीं है दुनिया में।’’
    ‘‘ठीक कहते हैं आप। ट्रेन चलने वाली है। कोशिश करेंगे तो जरूर कोई भला यात्री आपको मिल जाएगा।’’ युवक ने कहा और चादर तानकर सो गया।

मर गया साला
    
     एक ‘बियर बार’ के सामने अपनी कार पार्क करने के लिए वो उतरे ही थे, तभी एक क्षीणकाय लड़का ‘‘साब कुछ दे दो। दो-तीन रोज से कुछ नहीं खाया।’’
    उस फटेहाल लड़के को देखकर उनमें से एक ने नफरत से मुँह बनाते हुए कहा- ‘‘चल भाग, साले को दारू
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
पीने को पैसा चाहिए।’’

    ‘‘नहीं साब, सचमुच मैं बहुम भूखा हूँ। मुझे होटल से रोटी ही दिला दीजिए साब।’’ उसने उसके दूसरे साथी से याचना की।
    ‘‘चल फूट बे। बेकार में मूड खराब न कर!’’
    ‘‘उन्होंने एक अट्ठहास किया और ‘‘बार’’ में जा घुसे।
    लगभग दो घंटे बाद नशे में धुत होकर लड़खड़ाते कदमों से वे बाहर आए तो देखा सामने सड़क पर भीड़ जमा थी।
    भीड़ में से झाँककर उन्होंने देखा कि वही लड़का सड़क पर अचेत पड़ा था। पुलिस पंचनामा बना रही थी। ‘‘क्या हो गया है, इसे?’’ साले ने ज्यादा पी ली क्या?’’ उनमें से एक ने पूछा।
    ‘‘नहीं साहब, यह तो मर गया है...शायद भूख से।’’ पुलिस वाले ने जवाब दिया- ‘‘हम पंचनामा बना रहे हैं।’’
    कार में बैठते हुए वे बड़बड़ा रहे थे, ‘‘मर गया साला, कल से बोर नहीं करेगा।’’

  • 41, काउन्टी पार्क, महालक्ष्मीनगर कालोनी के पास, इन्दौर-452010 (म.प्र.)




डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’





छू लें आसमान
     
       अभी साढ़े दस बजे थे और वह चेम्बर में आकर बैठा ही था। वह एक नाटे कद के बेहद साधारण से युवक के साथ कमरे में दाखिल होते हुए बोली थी- ‘‘सर! मेरी हेल्प कीजिए....समय बहुत कम है और मुझे अपने क्लासेज के लिए पटना भी लौटना है।.... ‘‘मगर काम क्या है, यह तो बताएं.....?’’
    ‘‘सॉरी सर! मैं तो यह बताना ही भूल गई। सर, मुझे ओबीसी जाति का प्रमाण-पत्र की आवश्यकता है और मुझे यह आज ही चाहिए। यह मेरा आवेदन पत्र है सर!’’ यह कहते हुए उसने कागजों का पुलिंदा सर की ओर बढ़ाया।
     ‘‘क्या किसी ने आपको नहीं बताया, अंग्रेजी फारमेट में ओबीसी के लिए अंचल से जाति निर्गत होना जरूरी है। इसके बगैर एसडीएम आफिस से प्रमाण-पत्र निर्गत हो ही नहीं सकता। इसलिए पहले अंचल से सही फारमेट में जाति निर्गत करायें, फिर मिलें।’’
    ‘‘सर! क्या ऐसा हो सकता है? मुझे इंटरव्यू की तैयारी के लिए क्लासेज भी करने हैं और मैं घर आकर इसी चक्कर में उलझकर रह गई हूं।’’
    ‘‘अब उसने आवेदन को ध्यान से देखा। सबीहा नाज लिखा था। पते के स्थान पर समीप के ही एक छोटी सी बस्ती का नाम दर्ज था।
     सर ने उसको ध्यान से देखा। बेहद साधारण से कपड़ों में अति साधारण सी दिख रही, वह युवती उत्साह
छाया चित्र : हिना फिरदोस 
और उमंग से भरपूर दिख रही थी।

     अचानक वह बोली- ‘‘सर! मेरी बस्ती में दौलतमंद मुसलमान भी हैं, मगर बच्चियां पढ़ाई नहीं करतीं। अगर मैं इस एक्जाम में सफल हो जाती हूं तो अपने पड़ोसियों के लिए एक मिसाल बनूंगी। तब जाकर हो सकता है कि दो-चार लड़कियां स्कूल-कॉलेज जाने के बारे में सोचें और घरवाले भी उनके लिए फिक्र करें।’’ यह कहते हुए उसके चेहरे पर गजब की रौनक थी।
     ‘‘चलिए! आपको यह एहसास है कि तालीम हासिल करना जरूरी है, मगर जिस परिवार के बच्चे पैदा होते ही गैराज, साइकिल, होटल, बस खलासी और सड़क किनारे अंडा बेचने का काम संभालने लगें, उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है! हां, जब सरकार को गरियाना होता है तब सब यही कहते हैं कि सरकार अल्पसंख्यकों की उपेक्षा बरत रही है। जबकि सच तो यह है कि देश के आम मुसलमानों को उर्दू जबान भी नहीं आती। एक मदरसे का मौलवी दो लाइन उर्दू नहीं लिख सकता। ऐसों को भला सरकार कौन सी नौकरी देगी? यह जाने कब समझेंगे ये।’’
     यह सुनकर सबीहा गहरी सोच में डूब सी गई।

  • राजभाषा विभाग (अनुवादक), अनुमंडल कार्यालय, जामताड़ा-815351, झारखंड



उषा अग्रवाल ‘पारस’




लक्ष्मी
     
       दिन डूब रहा था, पक्षी भी थक-हार कर अपने बसेरों की ओर लौट रहे थे। एक दिनचर्या खत्म कर, भोर होते ही दूसरी दिनचर्या शुरू करने हेतु रात की विश्रांति पाने।
     रामदास की ड्यूटी का समय भी समाप्त हो चला था। चौकीदारी के काम से महीने की तनखाह के अलावा फ्लैट में रहने वालों के छोटे-मोटे काम भी वो कर दिया करता था, जिससे अलग से कुछ पैसे मिल जाया करते थे।
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
     आज दूसरे माले की छठे नं. की फ्लैट मालकिन का रास्ता देख रहा था रामदास जिनका कि दो-तीन दिन से बहुत सारा छुट-पुट काम उसने कर दिया था। फ्लैट में दोपहर से ताला लगा था। सोच रहा था मालकिन आ जाती तो मिले पैसों से थोड़ी साक-सब्जी और अपनी खत्म हुई दवाई भी ले लेता।
     तभी उनकी कार आती दिखाई दी और वह खुश हो गया। थोड़ी देर बाद ऊपर जाकर उसने फ्लैट की कॉलबेल बजाई और कहा कि, ‘‘पचास रुपये दे दो’’ तो मालकिन ने पूरा दरवाजा खोले बिना ही वहीं खड़े-खड़े जवाब दिया कि ‘‘दिया-बत्ती के समय तो लक्ष्मी आने का समय होता है, देने का नहीं, कल ले लेना।’’
     रामदास सोच रहा था, मेरी ड्यूटी खत्म होने का समय ही शाम को होता है। अगर पहले माँगता तो कहते- ‘जाते समय ले लेना’। मैंने तो अपनी मेहनत के पैसे माँगे थे। क्या गरीब आदमी और अमीर आदमी की लक्ष्मी अलग होती है? गरीब आदमी को उसके श्रम की कीमत सही समय पर मिल जाए, वही उसकी लक्ष्मी होती है। पर क्या अमीर आदमी ‘दिया-बत्ती’ के समय बिना श्रम किये भी लक्ष्मी का इंतजार करता है....।

  • मृणमयी अपार्टमेन्ट, 108 बी/1, खरे टाउन, धरमपेठ, नागपुर-440010



जितेन्द्र ‘जौहर’                                                                    





गंतव्य

  
  सरकारी बस के उस कंडक्टर का यह खेल मैं काफी देर से देख रहा था; जो भी लोकल सवारियाँ चढ़तीं, बिना टिकट लिये आधा-अधूरा किराया देकर अपनी मंज़िल आने पर बस से उतर जाती थीं।
छाया चित्र : किशोर श्रीवास्तव 
    वस्तुतः कंडक्टर और ड्राइवर के बीच एक मौन समझौते के तहत निर्बाध रूप से फलने-फूलने वाला यह एक उभयपक्षीय लाभ का सौदा था।
    इस बाबत मेरे मस्तिश्क में तरह-तरह के विचार कौंध रहे थे कि तभी सहसा वह बस अपने एक पड़ाव पर रुकी। नीचे से एक सज्जन ने अचानक मेरी खिड़की थपथपाते हुए पूछा- ‘भाई साब ….  ये बस कहाँ जा रही है.…. ?’
    मैंने कहा- ‘घाटे में.…!’

  • आई आर-13/6, रेणुसागर, सोनभद्र-231218 (उप्र)



ललितनारायण उपाध्याय



{व्यंग्यकार-लघुकथाकार ललितनारायण उपाध्याय की व्यंग्यात्मक लघुकथाओं एवं व्यंग्यालेखों का संग्रह ‘‘एक गधे का प्रमोशन’’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है, जिसमें उनकी अनेक व्यंग्यात्मक लघुकथाएं एवं कुछ व्यंग्यालेख शामिल हैं। पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से प्रशासनिक व्यवस्था की चुटकी लेती दो लघुकथाएं।}


एक तरफा कानूनी कार्यवाही


रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी 
      एक जागरूक और सफाई प्रिय नागरिक होने के कारण मैंने नगर निगम में आवेदन पत्र दिया-
    ‘‘हमारे मोहल्ले में कुछ लोग गंदगी फैला रहे हैं, उनके खिलाफ कार्यवाही करने की कृपा करेंगे ताकि मोहल्ले को साफ-सुथरा रखा जा सके।’’
    आठवें दिन मुझे नोटिस मिला- ‘‘नगर निगम के ध्यान में लाया गया है कि आपके मोहल्ले में कुछ लोग गंदगी फैला रहे हैं। इससे जन-स्वास्थ्य को खतरा बढ़ता है। आप उनके नाम एक सप्ताह में हमें सूचित करें अन्यथा निगम को मजबूर होकर एक तरफा कार्यवाही करनी पड़ेगी। इसे सूचना जाने।’’

आदमी का कद और थाना

    एक थानेदार ने थाने के एकदम सामने एक ऐसा आईना लगाया, जिसमें थाने में घुसते ही आदमी का कद छोटा दीखता था, अच्छा-खासा लंबा-चौड़ा आदमी ‘‘बौना-सा’’ दीखता था, आधा दिखता था। पूछा- ‘‘आपने ऐसा आईना क्योंकर लगाया?’’ बोले-
     ‘‘थाने में घुसते ही आदमी का कद आधा हो जाता है, जो यह बात एक बार में समझ जाता है, वह फिर कभी थाने नहीं आता है। जो इसे नहीं समझ पाता, वही बार-बार आता है, जाता है।’’

  • ईश कृपा सदन, 96, आनंदनगर, खण्डवा म.प्र.



सत्य शुचि
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी 

कुछ नया
     
      घर में शादी थी। घर की हर चीज़ साफ-सुथरी दिखती रहनी चाहिए। यही मंशा थी मम्मी-पापा की। और शीलू के लिए भी!
     ‘‘....हाँ, अभी लौटी ही है, शीलू!’’ पत्नी ने जानकारी परोसी।
     ‘‘हाँ-हाँ...., जरूरी है शरीर के अंगों की साफ-सफाई भी!’’ पति ने दोहराया।
    ‘‘ब्यूटी पार्लर से वह आ चुकी है और इस समय बाथ-रूम में.....’’
    ‘‘ठीक है....अब!’’ उसने संतुष्टि भरी नजर से पत्नी को निहारा था।

  • साकेत नगर, ब्यावर-305901 (राजस्थान)