आपका परिचय

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

कुछ और महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ/डॉ. उमेश महादोषी

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2,  अंक   : 4,   दिसम्बर  2012  


{अविराम के ब्लाग के इस  स्तम्भ में अब तक हमने क्रमश:  'असिक्नी', 'प्रेरणा (समकालीन लेखन के लिए)', कथा संसार, संकेत, समकालीन अभिव्यक्ति,  हम सब साथ साथ, आरोह अवरोह , लघुकथा अभिव्यक्ति, हरिगंधा,  मोमदीप, सरस्वती सुमन, 'एक और अंतरीप', 'दीवान मेरा', ‘अभिनव प्रयास’'शब्द प्रवाह' एवं 'कथा सागर'  साहित्यिक पत्रिकाओं का परिचय करवाया था।  इस  अंक में  हम दो  और  पत्रिकाओं  'रंग अभियान' तथा 'बाल  प्रहरी' पर अपनी परिचयात्मक टिप्पणी दे रहे हैं। 'बाल  प्रहरी' पर हमारी टिपण्णी 'बाल अविराम' खंड में पोस्ट की गयी है, कृपया वहीँ देखें। जैसे-जैसे सम्भव होगा हम अन्य  लघु-पत्रिकाओं, जिनके  कम से कम दो अंक हमें पढ़ने को मिल चुके होंगे, का परिचय पाठकों से करवायेंगे। पाठकों से अनुरोध है इन पत्रिकाओं को मंगवाकर पढें और पारस्परिक सहयोग करें। पत्रिकाओं को स्तरीय रचनाएँ ही भेजें,  इससे पत्रिकाओं का स्तर तो बढ़ता ही है, रचनाकारों के रूप में आपका अपना सकारात्मक प्रभाव भी पाठकों पर पड़ता है। हम सबको समझना चाहिए कि हमारी पहचान हमारी रचनाओं और काम के स्तर होती है।- उमेश महादोषी}


नाटक और रंगमंच को समर्पित एक लघु पत्रिका : रंग अभियान



     आजकल नाटक और रंगमंच को पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा कम स्थान मिल पाता है, लेकिन कुछेक पत्रिकाएं ऐसी भी हैं, जो पूरी तरह नाटक, रंगमंच और समरूप कलाओं के लिए समर्पित हैं। बेगूसराय से प्रकाशित ‘रंग अभियान’ एक ऐसी ही पत्रिका है। डा. अनिल पतंग द्वारा संपादित इस पत्रिका के पिछले कई अंक देखने का अवसर मिला है। पारंपरिक कलाओं (जिनमें नाटक एवं रंगमच प्रमुख हैं) के प्रति अपने वादे को सही मायने में और पूरी ईमानदारी के साथ निभा रही है ‘रंग अभियान’। हर अंक में कुछेक नाटकों के प्रकाशन के साथ नाटक एवं रंगमच संबन्धी आलेख, नाटककारों, रंगमंच कर्मियों एवं इस कला की वाहिका संस्थाओं से संबन्धित आलेखों को भी इस लघु पत्रिका में पर्याप्त स्थान दिया जाता है। इसके साथ रंगमंच की गतिविधियों पर रपटों के साथ नाटक एवं रंगमंच संबन्धी पुस्तकों की समीक्षा के लिए भी पर्याप्त गुंजाइश रखी गई है। सिनेमा और टी.वी. धारावाहिकों के प्रचलन के कारण नाट्क एवं रंगमंच को दर्शकों की बेरुखी के इस युग में इस तरह के प्रयास निश्चित रूप से सम्बल प्रदान करते हैं। 
     ‘रंग अभियान’ का प्रयास इस मायनें में और भी महत्वपूर्ण है कि सामग्री की स्तरीयता के मामले में कोई समझौता नहीं कर रहे हैं डा. अनिल पतंग। प्रकाशित नाटक, चाहे ऐतिहासिक, पौराणिक पृष्ठभूमि पर आधारित हों या समकालीन समस्याओं पर, उनका कलात्मक स्तर और पाठकों की दृष्टि से सम्प्रेषणीयता और प्रभावशीलता का स्तर ऊँचा होता है। चूंकि नाटक का प्रभाव साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक होता है, अतः समकालीन समस्याओं पर रचित नाटकों का महत्व भी अधिक होता है। ‘रंग अभियान’ के हर अंक ऐसे नाटक शामिल रहें, संपादक इस बात का ध्यान रखते हैं। पिछले तीन अंकों (अंक 25-27, 28 व 29), जिनमें तीन अंकों को मिलाकर प्रकाशित किया गया एक वृहद संयुक्तांक भी है, में से हरेक में कोई न कोई नाटक ऐसा जरूर है, जो सामयिक समस्याओं/वृत्तियों से जुड़ा होने के कारण साहित्य के पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। अंक 29 में प्रो. चन्द्र किशोर जायसवाल का ‘नाम में क्या रखा है?’, अंक 28 में डा.अनिल पतंग का ‘डेविड की डायरी’ तथा संयुक्तांक 25-26 में सुरेश कांटक का ‘धरती का दर्द’ एवं डा. पूर्णिमा केडिया ‘अन्नपूर्णा’ का ‘कल, आज और कल’ ऐसे ही नाटक हैं। संयुक्तांक में डा. श्याम सुन्द घोष का नाटक ‘हनुमान का अन्याय’ रामायण के प्रसंग से जुड़ा होने के बावजूद सामयिक तो है, अन्तर्मन को झकझोरने वाले कई प्रश्नों को उठाता है। पौराणिक दृष्टि से भी और सामयिक दृष्टि से भी। यह ज्वलन्त प्रश्न है कि लक्ष्मण जी को बचाने गये हनुमान जी संजीवनी बूटी को न पहचानने के कारण समूचे पहाड़ को ही क्यों उठाकर ले गये, उन्होंने वहाँ के निवासियों को विश्वास में लेना क्यों नहीं उचित समझा? और किन्हीें परिस्थितियों में यह मान भी लिया जाये कि उनका कृत्य परिस्थितिबद्ध था, तो अपना काम बन जाने के बाद द्रोण पर्वत के उस भाग को वहीं पुर्नस्थापित भी तो किया जा सकता था। हनुमान जी जैसे महाबुद्धिमान महानायक के द्वारा लंका में वृक्षों को उजाड़ने आदि के कृत्य पर भी प्रश्न उठाया गया है। हनुमान तो हनुमान, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी से भी इतनी भयंकर भूल कैसे हुई? पहाड़ और प्रकृति का दर्द इतना उपेक्षित क्यों हुआ? यह उपेक्षा आज भी ज्यों की त्यों है। प्रश्न निसन्देह बड़ा है। दुभाग्य की बात तो यह है कि इतना बड़ा यह प्रश्न देश में चल रहे अनेक आन्दोलनों के बीच भी अपने लिए थोड़ा सा स्थान नहीं बना पा रहा है। क्या इस उपेक्षा से श्रीराम की मर्यादा लांक्षित नहीं होती है? इस तरह के नाटको की अधिकाधिक प्रस्तुतियाँ देने के बारे में रंगकर्मियों को भी सोचना चाहिए।
    अंक 28 बेगूसराय जनपद की रंगमंचीय गतिविधियों, संस्थाओं एवं रंगकर्मियों के योगदान पर केन्द्रित है। यह अंक इस मायने में महत्वपूर्ण है कि बेगूसराय जैसे एक क्षेत्र विशेष में तमाम मतभेदों, व्यक्तित्वों के टकरावों और दूसरी समस्याओं, जो वातावरण को प्रदूषित करती हैं, के बावजूद नाटक और रंगमंच के लिए कितना काम हुआ है, इस पर एक सार्थक विवेचन प्रस्तुत करता है। इसी विवेचन से बेगूसराय जनपद में निष्क्रिय हो चुकी संस्थाओं को सक्रिय करने और रंगमंचीय गतिविधियों को सघन एवं तीव्र करने का रास्ता ढूंढ़ा जा सकता है। यही विवेचन दूसरे जनपदों/क्षेत्रों में के लिए भी अपने रंगमंचीय एवं साहित्यिक वातावरण की पुनर्रचना के लिए प्रेरक हो सकता है। 
    नाटक एवं रंगमंच की प्रगति के लिए अपने वजूद को निरंतरता देने के उद्देश्य से आर्थिक संसाधन जुटाने की छटपटाहट भी इस लघु पत्रिका के काफी है, जिसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। लघु पत्रिकाओ के समक्ष आर्थिक संसाधनों की समस्या रहती है, और उन्हें इस समस्या से अपनी-अपनी तरह से निपटना पड़ता है। महत्वपूण यह है कि रंग अभियान जैसी पत्रिका अर्थ-समस्या से अपनी तरह निपटते हुए भी अपनी निरन्तरता के साथ स्तरीयता बनाये हुए है। 
रंग अभियान :  पारम्परिक कलाओं की अनियतकालीन पत्रिका। सम्पादक : डा. अनिल पतंग (मो. 09430416408)। सम्पादकीय पता :  पोस्ट बाक्स नं. 10, प्रधान डाकघर, बेगूसराय-851101(बिहार)/नाट्य विद्यालय, बाघा, पो.-सुहृदयनगर, बेगूसराय-851218(बिहार)। सहयोग राशि- 25 अंकों के लिए : रु. 500/-, आजीवन :  रु. 1000/-।

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