आपका परिचय

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०४, दिसंबर २०११ 


।।हाइकु।।


सामग्री : देवेन्द्र नारायणदास एवं डॉ. गौरीशंकर श्रीवास्तव ‘पथिक’ के पाँच-पाँच हाइकु तथा  दिलबाग विर्क के  चार तांका।

देवेन्द्र नारायणदास




पाँच हाइकु


1.
तेरी यादें, तो
रेखांकन : नरेश उदास  
नित नया सवेरा
लेकर आता
2.
मृगनयनी
फुहार सावन की
हंसी तुम्हारी
3.
मंहगाई में
आंसू से लेख लिखे 
जीवन भर
4.
दुःख के आंसू
आज मुझे पीने दो
बह जाने दो
5.
प्रेम परिधि
असीमित-विस्तृत
बैरी न कोई

  • साधना कुटीर, मु.पो.- बसना, जिला: महासमुंद-493554 (छत्तीसगढ़)



डॉ. गौरीशंकर श्रीवास्तव ‘पथिक’






पाँच हाइकु


1.
सूखे पोखर
नदी गई सिमट
रोया केवट


2.
जल का स्तर
चला गया जो नीचे
आए न खीचे
3.
आ गई होली
मिलेंगे हमजोली
तिलक रोली
द्रश्य छाया चित्र : रोहित कम्बोज 
4.
दोगली हवा
रौदती चल रही
ठंडे संस्कार
5.
चम्पई धरा
इन्द्र धनुष ओढे़
वर्षा की शाम

  • पथिक कुटीर, जवाहर नगर, सतना (म.प्र.)

दिलबाग विर्क 

चार तांका 

०१.
कितना सच्चा
कितना झूठा है तू
न सोचा कभी
जब प्यार किया तो 
सब मंजूर किया ।

०२.
तू चला गया
बहार चली गई
मुरझा गए
ख्वाबों के सब फूल
बेजान हुआ दिल ।

०३.
रेखांकन : नरेश उदास  
कुछ न सूझे
जोगिन हुई रूह
कैसा ये प्यार
भुलाया सब कुछ
बस याद है तू ही ।

०४.
मेरे ये नैन
छमाछम बरसे
बादल जैसे
आया था याद प्रिय
संभलता मैं कैसे ।
  • संपर्क : 
    dilbagvirk23@gmail.com
        



अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०४, दिसंबर २०११ 


।।जनक छन्द।।


सामग्री :  पं. ज्वालाप्रसाद शांडिल्य ‘दिव्य’ व कुँ. शिवभूषण सिंह गौतम के जनक छंद। 


पं. ज्वालाप्रसाद शांडिल्य ‘दिव्य’






छ:जनक छन्द
1.
दे न और कुछ शारदे
नित्य धवल शुचि नेह का
दान-मान उपहार दे।
2.
मैली मन की गंग है
तब ही दुनियां आज की
रेखांकन : राजेंद्र परदेशी     
हद से ज्यादा तंग है।
3.
अपना अपना राग है
कुशल छेम कैसे रहे
वैमनस्य की आग है।
4.
करें चोट पर चोट हैं
लिए धर्म की ओट यह
नीयत रखते खोट हैं।
5.
आँख खोल देखें जरा
रात-दिवस सुख का घड़ा
दुर्जन ने दुःख से भरा।
6.
बोया पेड़ बबूल का
मिला नहीं जब आमरस
पता चला तब भूल का।

  • 251/1, दयानन्द नगरी, ज्वालापुर, हरिद्वार-249407 (उत्तराखण्ड)







कुँ. शिवभूषण सिंह गौतम


छ:जनक छन्द


1.
प्रभु माया विस्तार है।
कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड में,
कौन पा सका पार है।।
2.
सेवा भाव स्वभाव है!
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा  
साधु संत योगी यती,
जो राखे समभाव है।।
3.
क्यों इतना बौरा गये!
नर तन पाकर बावले,
नारायन बिसरा गये।।
4.
धन्य अगाथा संगमा!
हिन्दी में लेकर सपथ,
तृप्त कर दिया आतमा।।
5.
जो हिन्दी की खा रहे!
वे ही बे सुर-ताल के,
अंग्रेजी में गस रहे।
6.
अभी समय है चेतिये!
सड़े गले से अंग को,
काट बदन से फेंकिये।।

  • अन्तर्वेद, कमला कॉलोनी, नया पन्ना नाका, छतरपुर (म.प्र.)


अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०४, दिसंबर २०११ 


।।कथा कहानी।।
सामग्री :
 शशिभूषण बडोनी की कहानी- फीस 




।।कथा कहानी।।


शशिभूषण बड़ोनी


{अभी हाल में ही बडोनी जी का कहानी संग्रह "भैजी" प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह में उन्होंने पहाड़ एवं दूरदराज की जीवन संबंधी समस्याओं को उकेरने की कोशिश की है, साथ ही अपना एक सकारात्मक द्रष्टिकोण  भी सामने रखा है. इसी संग्रह से प्रस्तुत है उनकी एक कहानी- फीस}

फीस

   मेरी नियुक्ति उस पर्वतीय क्षेत्र की ग्रामीण डिस्पेन्सरी में कुछ महीने पहले ही हुई थी। ग्रामीण क्षेत्र में नियुक्ति होने पर मेरे कई साथी डॉक्टरों ने ज्वाइन नहीं किया था। मेरे अन्तर्मन में काफी समय से ग्रामीण क्षेत्र में रोगियों की सेवा करने की एक इच्छा थी और पहाड़ी जनजीवन को देखने का एक आकर्षण भी, सो मैंने खुशी-खुशी ज्वॉइन कर दिया था।
रेखांकन : नरेश उदास  
    उन दिनों डिस्पेन्सरी के नज़दीकी गाँवों में उल्टी-दस्त का प्रकोप अधिक चल रहा था। इस रोग से प्रभावित रोगियों की संख्या नित्य बढ़ रही थी।
   एक दिन रात को दरवाजे पर दस्तक होने पर मैंने दरवाजा खोला तो देखा कि लालटेन लिये हुए दो-तीन गाँव के लोग बारिस में खड़े थे। पूछने पर उन्होंने बताया कि गाँव में उनमें से एक व्यक्ति का लड़का जोकि लगभग दस-ग्यारह साल का है उल्टी-दस्त  से पीड़ित हो गया है। वे लोग मुझसे लड़के के उपचार के लिए गाँव चलने की मिन्नतें करने लगे।
   ‘‘डाक्टर साहब, हम लोग बस आपके ही भरोसे आये हैं। हमें पता है कि आप गाँव चलने को भी मना नहीं करेंगे। मेरे बच्चे के प्राण बचा लीजिये। आपके अलावा इस वक्त हमारा कोई सहारा नहीं।‘‘ लड़के के पिता ने लगभग रुआंसी मुद्रा में कहा।
    मैंने कहा, ‘‘रोगी को यहाँ क्यों नहीं लाए?’’ तो बताने लगा, ‘‘साहब इस मूसलाधार बारिश में रास्ते में एक जगह गाड़ (छोटी नदी) भी पड़ती है। साहब घुटने के ऊपर तक पानी बहता है, पर आपको कोई परेशानी नहीं होने देंगे। साहब आप बिल्कुल फिक्र न करें।’’ उसने शायद नदी की बात से मेरा विचार न बदल जाए, सोचकर कहा।
   मैंने पहले तो उन्हें काफी समझाया कि रोगी को डिस्पेन्सरी में जो उपचार देना संभव है, वह गाँव में देना कतई मुमकिन नहीं। फिर अकस्मात मुझे कुछ दिन पहले की एक घटना का स्मरण हो आया। जब एक रोगी को इसी प्रकार गाँव से डिस्पेन्सरी लाते-लाते मौत हो गयी थी। एक क्षण तब मेरा डाक्टरी मन भी सिहर गया और शायद उसी घटना को यादकर मैं तुरंत गाँव चलने की तैयारी भी करने लगा।
   आज भी हमारे गाँव के लोग कितने दकियानूसी है। दस्त लगना शुरू होकर दो-दो दिन गुजर जाते हैं, तो भी कोई उपचार नहीं करवाते और घर में बुजुर्ग तो यहाँ तक कह देते हैं कि चलो अच्छा है पेट हल्का हो गया। पेट का मल ही तो बाहर जा रहा है। यह उन्हें पता नहीं रहता कि उसके साथ ही तन का पानी भी बाहर जा रहा होता है और आखिर में जब मरीज डिहाइड्रेशन की अन्तिम सीमाओं पर पहुँचता है, तब कहीं उन्हें डॉक्टर और अस्पताल की याद आती है। 
   मन झुंझला उठा। शायद अस्पताल तक जाने का खर्चा और डाक्टर की फीस बचाने के लिए मरीज को अस्पताल दिखाने नहीं ले जाते हैं। ये भोले-भाले निरीह दिखने वाले गाँव वाले भी कितने चालाक व खुदगर्ज होते हैं। मन में गुस्सा बढ़ता जा रहा था। पर अभ्यस्त हाथ डॉक्टरी बैग में सामान भरते जा रहे थे। मैं आखिर उनके साथ चल ही पड़ा।
   शायद किशन सिंह नाम बताया था उस बीमार बालक के पिता ने। रास्ते भर किशन सिंह मुझे धन्यवाद देता-देता दोहरा होता रहा और ऊबड़-खाबड़ रास्ते में चलने के लिए मदद करता रहा। चलते-चलते अचानक रुक जाना पड़ा। बरसाती छोटी नदी पर बना अस्थाई पुल बह गया था। नदी पार करने में बड़ी परेशानी हुई। चलो ये लोग झूठ नहीं बोल रहे थे। ऐसी हालत में सचमुच ही बीमार बच्चे को डिस्पेन्सरी लाना मुश्किल ही होता।
   किशन के घर पहुँचा तो बच्चे को सीरियस डिहाइड्रेशन (शरीर में पानी की कमी) हो गया था। टॉर्च की रोशनी में ही बच्चे को तुरन्त सेलाइन ड्रिप बगैरह देने का इन्तजाम करना पड़ा। गाँव में बीमारी कैसे फैली, यह भले ही पता न लग पाया हो पर किशन सिंह के घर में तो वह जैसे आनी ही थी। चारों ओर अन्धेरा, अन्धेरे के बीच में दिख जाती गरीबी व गन्दगी। मुझे याद आया, कुछ दिन पूर्व ही अखबार में पढ़ा यह समाचार कि हमारे देश में एक ऐसे अभिजात्य वर्ग की संख्या निरन्तर बढ़ रही थी जो कि साठ-सत्तर हजार रुपये प्रति मीटर कीमत का सूट पहनना व एक-एक लाख की रिस्ट वाच पहनना स्टेटस सिम्बल समझता है तो तब देश की खुशहाली का समाचार लगा था यह सब।
   लेकिन अब मुझे वह समाचार कितना भयावह लग रहा था। यह मैं सोचने लगा। कितनी बड़ी खा
ई! एक वर्ग किशन सिंह जैसा, जिसको मुश्किल से दो जून की रोटी नसीब हो पाती है और एक वर्ग वह जिसके बारे में अखबार में पढ़ा था और फिर हम डाक्टर लोग भी तो किशन सिंह जैसे लोगों के घर की हालत जाने बिना उन्हें पौष्टिक आहार खाने और बच्चों को खिलाने की सलाहें देते रहते हैं। कितना भौड़ा मजाक!
   किशन सिंह के घर से निकलते-निकलते भोर हो गयी। बच्चा खतरे की सीमा से लौट आया था। किशन सिंह चलते समय कुछ रुपये मोड़कर मुझे देने को हुआ। मैंने उन रुपयों से उसे कुछ और जरूरी दवाएं बाजार से खरीदने की सलाह दी और कहा जब बच्चा ठीक हो जाये तो तब यदि चाहो तो सामने वाले अपने खेत की ताजी सब्जी थोड़ी ले आना। किशन सिंह जो एक बार मेरे फीस ना लेने पर उदास हो गया था, सब्जी की बात पर तब कुछ आश्वस्त सा नज़र आया।
   सबेरे डिस्पेन्सरी पहुँचा। डाक्टर और अन्य कर्मचारी आ पहुँचे थे। मैंने उन्हें रात के सीरियस केस के बारे में बताया। किशन के घर के हालात के बारे में बताया। अपने देश की सामाजिक विसंगतियों के बारे में रात भर उठे गुबार को उगलना ही चाहता था कि एक जूनियर साथी ने पूछा, ‘‘सर, आपने गाँव जाने की फीस पहले ही तय कर ली थी? आपको मालूम नहीं, यह गाँव वाले फोकट में ही परेशान करते रहते हैं।’’
   ‘‘फीस! भाई बच्चे का मामला था। मैंने कोई फीस-वीस की बात नहीं तय की थी और फिर उस बेचारे की दयनीय स्थिति और फिर गाँव में फैल रही बीमारी एपिडेमिक है। हमारा भी फर्ज बनता है इसे रोकने का। इससे कई जानें जा सकती हैं।‘‘ 
रेखांकन : नरेश उदास  
   ‘‘वैसे डॉक्टर साहब हमारा फर्ज है, फिर भी आप गलत कर रहे हैं।’’
   मेरा खून खौलने लगा। दिमांग की नसें चट-चटाने लगीं। मैं वहाँ से दूर हट गया। इन्तजार में खड़े मरीजों की जाँच करने लगा। तभी मेरे कानों में एक जोर से कही गई टिप्पणी आ टकराई, ‘‘अरे भई, इस डॉक्टर ने तो इस अस्पताल का एट्मोस्फेर ही बिगाड़ दिया। इस तरह गाँव जा-जाकर मुफ्त इलाज करता फिरेगा तो फिर गाँव वाले तो सभी को मुफ्त का नौकर समझेंगे कि नहीं।‘‘
    सुनकर मुझे महसूस हो रहा था कि किशन सिंह के बच्चे की जान बचाने का एक जो परम सन्तोष मन में हो रहा था, वह उस टिप्पणी को सुनकर कहीं विलीन होता चला गया था।



  • आदर्श विहार, ग्राम व पोस्ट शमशेर गढ़, देहरादून (उत्तराखण्ड)

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०४, दिसंबर २०११ 


।।व्यंग्य वाण।।


सामग्री : कृष्णलता यादव का व्यंग्यालेख

कृष्णलता यादव




भ्रष्टाचार
   अहा! भ्रष्टाचार मिटे तो तश्वीर बहुत सुहानी होगी, नूतन एक कहानी होगी। भ्रष्टाचार हटने की कल्पना कीजिए। कल्पना से कुछ बिगड़ने वाला नहीं। देखिए, इससे समय बचेगा, धन बचेगा। बचत का यह धन शिक्षा, स्वास्थय व जीवन स्तर बढ़ाने में खर्च होगा और पीत चेहरों पर निश्चित ही लाली आएगी। तनाव से पिंड छूटेगा। तनावजन्य रोगों से मुक्ति मिलेगी। महंगाई घटेगी। क्रयशक्ति बढ़ेगी। अधूरे सपने पूरे होंगे। भाईचारा बढ़ेगा। अमीर-गरीब की खाई पटेगी। गरीबों के दिलो-दिमाग से हीनता की ग्रन्थि मिटेगी। हर तबके के लोग मिल-बैठकर विचार-विमर्श करेंगे। कई समस्याएँ चुटकियों में सुलझेंगी। सांस्कृतिक विकास की धारा तेज होगी। नई प्रतिभाएं, नया कर दिखाएंगी जिसकी अपनी ‘धज’ होगी। काले धन की नानी मरेगी। पैसे की बर्बादी रुकेगी। दिखावे पर खर्च न के बराबर होगा। फाइलों की गति देखते ही बनेगी। समाचार परिष्कृत होंगे। रिश्वत लेने वाले, रंगे हाथों पकड़े जाने, रिश्वत देकर छूट जाने जैसी खबरें बीते जमाने की बात होकर रह जाएंगी। उसका स्थान इस तरह के समाचार लेंगे- ‘समय पर व बिना सुविधा-शुल्क दिए काम निपटने की खुशी में लोगों में उल्लास, उत्साह व जश्न का माहौल है। इतना ही नहीं, न मलाई होगी न मलाईदार पदों की मारामारी मचेगी। भ्रष्टाचार से प्राप्त कमाई की हिस्सेदारी में लगने वाली ताकत बचेगी। लोग शिकवा-राग भूल जाएंगे और तरन्नुम में गाएंगे- ‘अब न भ्रष्टाचार रहा है, सुधरा-सा व्यवहार हुआ है।’
   अब बस भी कीजिए जनाब! तस्वीर के दूसरे पहलू पर भी नजर डालिए। सोचिए, भ्रष्टाचार मिटा तो भ्रष्टाचारियों का क्या होगा? वे सदमे से अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए तो पाप का भागीदार कौन होगा? वहीं न जो हाथ धोकर भ्रष्टाचार के पीछे पड़े हैं। पानी पी-पीकर इसे कोसते हैं। अतीत के झरोखे से झांकिए, भ्रष्टाचार कब नहीं था? यह अलग बात है, उस काल में मीडिया का इतना दबदबा नहीं था। इसलिए बहुत से काले कारनामे उजागर होने से रह जाते थे। यदि भ्रष्टाचार नहीं होता तो अमीर-गरीब शब्द नहीं होते। लेकिन ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं। तब सीधा सा अर्थ हुआ कि भ्रष्टाचार का वृक्ष सदाबहार है, जिसे हम और आप सींचते रहे हैं। हम और आप? जी हां, बात कड़वी है मगर है सच्ची। अपना काम जल्द निपटवाने की चाह में सुविधा शुल्क रूपी जल से हम भ्रष्टाचार के पादप को पुष्ट करते आ रहे हैं।
   रही भ्रष्टाचारियों की बात- वे ठीक कहते हैं कि घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? खाएगा नहीं तो जिएगा क्या? वैसे भी, काम निकल जाने के बाद कार्यकर्ता को भूल जाना आदमी की फितरत रही है। फिर कोई फोकट में दिमांग का हुलिया क्यों बिगाड़ेगा?
   सिक्कों की खनक सुनने के आदी कान इस स्वर के लिए तरस जाएंगे और नोटों की कड़कड़ाहट महसूसने के अभ्यस्त हाथ छटपटाएंगे। अतिरिक्त आय के अभाव में बहुत से लोग डिप्रैशन में आएंगे। नींद की गोलियां गटककर रात बिताएंगे। बेचारे, अपाहिज-से जिन्दगी के झूले में झूलेंगे। न जीते बनेगा न मरते। पुरानी यादें आंखों को नम किए रखेंगी। क्या आप चाहेंगे भ्रष्टाचार के खातमें के बदले खुशहाल लोग यूँ बदहाल हों? शायद नहीं। देर-सवेर आपके अन्दर का आदमी पुकारेगा- ‘अजी, उसे जीने दीजिए, तकलीफ उठाने के लिए मैं काफी हूँ। सदियों से इन्हें सहता जो आ रहा हूँ।’
    एक बात और। भ्रष्टाचार खत्म होने से बहुत से युवा अविवाहित रह सकते हैं, क्योंकि अतिरिक्त आय के लालच में प्रायः वधू पक्ष, वर पक्ष की बहुत सी खामियों को नजरअन्दाज करता रहा है। यदि ऐसा हुआ तो समाज में असन्तुलन बढ़ेगा। असामाजिक तत्व सिर उठायेंगे। अराजकता बढ़ेगी। देश की साख गिरेगी। बात विदेशों तक पहुँचेगी। अपनी किरकिरी होगी, यानि- अपना मरण, जगत में हंसी होगी। इन सबसे बचने का एक ही तरीका है- भ्रष्टाचार को पूर्ववत् फलने-फूलने दिया जाये। काम का क्या! वह तो ले-देकर निपटता ही रहेगा।

  • 1746, सैक्टर 10-ए, गुड़गाँव-122001 (हरियाणा)

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०४, दिसंबर २०११ 


।। संभावना।।  


देशपाल सिंह सेंगर




दान

   रजनीकान्त और देवेश गहरे दोस्त हैं। रजनीकान्त गाँव में ही रह रहा है, जबकि देवेश गाँव से दूर महानगर में एक निजी कंपनी में कार्य कर रहा है। दोनों दोस्त जब मिलते हैं तो घण्टों आपस में बातें करते रहते हैं। ऐसे ही एक दिन जब देवेश गाँव आया तो फिर रजनी के साथ देश-दुनियाँ की बातें करने बैठ गया। उस दिन रजनी ने ‘नेत्रदान’ की चर्चा छेड़ दी और देवेश से भी इस पर गम्भीरता से विचार करने को कहा। काफी चर्चा के बाद रजनी ने कहा कि यह सोचना ही कितना रोमांचक है कि नेत्रदान करने वाला स्वयं के न रहने के बाद भी अपनी आँखों से दुनियाँ को देखता है। देवेश इस चर्चा से काफी प्रभावित हुआ और ऐसा महादान करने पर विचार करने लगा। छुट्टियाँ समाप्त होने पर वह वापस अपने काम पर लौट गया।
   दीपावली की छुट्टियों में देवेश पुनः गाँव आया और अपने प्रिय मित्र से मिलने पहुँच गया। देवेश ने फिर नेत्रदान की चर्चा छेड़ दी और जानना चाहा कि रजनी ने संकल्प-पत्र भर दिया या नहीं? रजनीकान्त ने जवाब दिया कि दोस्त नेत्रदान का हमारा इरादा था, पर अब नहीं है। देवेश रजनी के इस उत्तर से अचंभित रह गया और उसने कारण जानना चाहा। रजनी ने अपने साथ घटी उस दिन बस में घटी घटना और उससे अपने नजरिए में दुनियाँ के प्रति आये बदलाव के बारे में सब कुछ बताकर बात खत्म करनी चाही, पर देवेश ने कहा- ‘यार! तुम तो उस प्रेमी की तरह निकले, जो प्रेम के बदले हर हाल में प्रेम की लालसा मन में लिये बैठा हो। प्रेम में कुछ पाने की इच्छा का मतलब होता है कि वह प्यार दिखावे का है, सच्चा नहीं। यही दान के बारे में भी सच है। हमें अपनी गिनती विरले निःस्वार्थ दानदाताओं में करानी चाहिए, तभी हमारा दान सच्चा होगा।....बस में लोगों ने बीमार भाभी जी को बैठने के लिए सीट नहीं दी और तुम्हारी गरीबी का मजाक उड़ाते हुए कह दिया कि शहर तक जाने में इतनी ही परेशानी हो रही है तो डॉक्टर को गाँव में अपने घर पर ही बुला लेना चाहिए था। तुम इतनी सी बात से उद्वेलित हो गये और समाज के बारे में अपनी
धारणा ही बदलकर नेत्रदान का संकल्प भी छोड़ दिया। उन लागों को ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था, इन्सानों में एक बीमार व्यक्ति के प्रति हमदर्दी होनी चाहिए, पर सोचो दुनियाँ सिर्फ ऐसे ही लागों से तो नहीं बनी है? सोचो दानवीर कर्ण ने किन परिस्थितियों में दान किया था।....तुम्हें एक बार पुनः अपने निर्णय पर विचार करना चाहिए।’’
   ’बात तुम्हारी एक सीमा तक ठीक है, पर क्या तुम नेत्रदान कर सकते हो?’ रजनी ने देवेश पर प्रश्न दाग दिया।
   ‘क्यों नहीं! नेत्रदान तो क्या मैं तो देहदान भी कर सकता हूँ, बल्कि कर चुका हूँ।’ देवेश ने रजनी को विश्वास दिलाते हुए कहा, ‘दोस्त मैं देहदान का संकल्प ले चुका हूँ। अब तुम भी देर न करो।’
   रजनी ने कहा- ‘दोस्त तुम ठीक कहते हो! दान और प्रेम में बदले की कामना नहीं रखनी चाहिए। मैं जरूर नेत्रदान सहित देहदान करूँगा।’
   रजनी की पत्नी लक्ष्मी, जो दोनों की बाते सुन चुकी थी, ने भी इस पुण्य काम में अपने पति के साथ होने का संकल्प कर लिया। बाद में जब रजनी के माता-पिता को पता चला तो उन्होंने भी इस पर विचार किया, जब एक दिन इस शरीर को मिट्टी में मिल ही जाना है तो क्यों न इससे समाज का हित करने का प्रयास करना चाहिए। उन्होंने भी देहदान का संकल्प ले लिया।
  • ग्राम बर्रू कुलासर-बेला, जिला: औरैया-206251 (उ.प्र.)


किताबें


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०४, दिसंबर २०११ 

{अविराम के ब्लाग के इस अंक में डॉ. ब्रह्मजीत गौतम की पुस्तक दोहा-मुक्तक-माल  की समीक्षा  रख  रहे हैं।  कृपया समीक्षा भेजने के साथ समीक्षित पुस्तक की एक प्रति हमारे अवलोकनार्थ (डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर) अवश्य भेजें।} 


डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’


‘दोहा-मुक्तक-माल’ पर मेरे विचार

    ‘दोहा-मुक्तक-माल’ (दोहा-मुक्तक संग्रह) में डॉ. गौतम लिखित 180 ‘दोहा मुक्तक’ हैं। ‘आत्मिका’ में लेखक-कवि ने स्पष्ट किया है कि चतुष्पदिक मुक्तक संस्कृत से चले आ रहे हैं। चतुष्पदिक में चार चरणों में से चरण 1, 2 और 4 के अन्त में ‘तुक’ (अन्त्यानुप्रास) रहता है। यह घोषणा भी की है कि मुक्तक को किसी छन्द में लिखा जा सकता है। इस पुस्तक के सभी 180 मुक्तक दोहा की एक पंक्ति 24 मात्राओं के 4 चरणों से बने हैं। यह पद्धति इससे पूर्व अन्य कई कवियों ने भी अपनाई है किन्तु एक पूरी पुस्तक दोहा-मुक्तक से बनी हो, ऐसा मेरी दृष्टि से प्रथम बार गुजरा है।
   उर्दू में ग़ज़ल से पूर्व एक-दो उसी छन्द में चतुष्पदियां पढ़ना लय के अभ्यास के लिए होता था। हिन्दी में दोहा-ग़ज़ल के पूर्व दोहा-मुक्तक वही काम कर सकते है। सम्भव है कि अन्य कवि किसी अन्य छन्द पर भी ऐसे प्रयोग के ग्रन्थ लेकर आएँ।
   डा. ब्रह्मजीत गौतम के इस ग्रन्थ में दोहा-मुक्तक ‘मुक्तक’ रूप में तो हैं ही, जनक छन्द की ‘बन्ध’ पद्धति के अनुसार कुछ-कुछ बन्धों में भी हैं। वे बन्ध सरस्वती-गुरु-प्रकृति, नीति, समय इत्यादि की लड़ियों में भी हैं, यद्यपि उन बन्धों के शीर्षक नहीं दिए हैं। वस्तुतः समस्त ज्ञान एक समग्र होने पर भी उसके अनन्त अंश एक-दूसरे के पूरक और समग्र के अंशों के विस्तारक ही होते हैं। इस विशेष ग्रन्थ ने हिन्दी साहित्य को कला और चिन्तन की एक नवल दृष्टि पथ का अवदान किया है। पुस्तक प्रकाशन स्वयम् लेखक ने किया है। उनसे चलभाष- 09425102154 द्वारा सम्पर्क किया जा सकता है।
   इस पुस्तक में इन छन्दोबद्ध रचनाओं में जो विचार, भाव और कला की राशि प्रस्तुत की है वह आकर्षक, उपकारक और मानवता एवं भारत की उन्नति में सहायक है। प्रत्येक पाठक इसे पढ़के विचार करके लाभान्वित होगा। कवि डा. ब्रह्मजीत गौतम हिन्दी के विद्वान, प्रतिष्ठित-सम्मानित कवि एवं साधुजनोपम सामाजिक तथा देशभक्त हैं। अतः उसकी पुस्तक भी वैसी ही है। यों तो सभी मुक्तक पाठक को मुग्ध करेंगी ही, किन्तु इस लाभ के लिए उन्हें स्वयम् पुस्तक को पढ़ना चाहिए। इस नये छान्दस प्रयोग का नमूना है-
करें अपेक्षाएँ नहीं कभी किसी से आप।
यदि वे हों पूरी न तो होता पश्चाताप।।
ऐसे पश्चाताप से बनती मन में ग्रन्थि।
जो अन्तस में क्रोध का भरती है आलाप।।173।।
   मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस सुघड़ पुस्तक का हिन्दी में भरपूर आदर होगा और अन्य अनेक कवि अन्य छन्दों में भी ऐसे ग्रन्थ प्रस्तुत कर भारत की राष्ट्रभाषा ‘भारति’ का भण्डार भरेंगे।


दोहा-मुक्तक-माल :  दोहा मुक्तक संग्रह। कवि :  डॉ. ब्रह्मजीत गौतम। प्रकाशक : डॉ. ब्रह्मजीत गौतम, बी-85, मिनाल रेजीडेंसी, जे.के. रोड, भोपाल-462023 (म.प्र.)। पृष्ठ : 72। सहयोग राशि : सदभाव  मात्र। संस्करण : जुलाई 2011



  • बी-2-बी-34, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058

कुछ और महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ/डॉ. उमेश महादोषी



अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०४, दिसंबर २०११ 




{अविराम के ब्लाग के इस  स्तम्भ में अब तक हमने क्रमश:  'असिक्नी', 'प्रेरणा (समकालीन लेखन के लिए)', कथा संसार, संकेत, समकालीन अभिव्यक्ति,  हम सब साथ साथ, आरोह अवरोह तथा लघुकथा अभिव्यक्ति साहित्यिक पत्रिकाओं का परिचय करवाया था।  इस  अंक में  हम दो और  पत्रिकाओं पर अपनी परिचयात्मक टिप्पणी दे रहे हैं।  जैसे-जैसे सम्भव होगा हम अन्य  लघु-पत्रिकाओं, जिनके  कम से कम दो अंक हमें पढ़ने को मिल चुके होंगे, का परिचय पाठकों से करवायेंगे। पाठकों से अनुरोध है इन पत्रिकाओं को मंगवाकर पढें और पारस्परिक सहयोग करें। पत्रिकाओं को स्तरीय रचनाएँ ही भेजें,  इससे पत्रिकाओं का स्तर तो बढ़ता ही है, रचनाकारों के रूप में आपका अपना सकारात्मक प्रभाव भी पाठकों पर पड़ता है।}



हरिगन्धा का ऐतिहासिक लघुकथा विशेषांक

    हरिगन्धा एक महत्वपूर्ण व चर्चित साहित्यिक पत्रिका है। महत्वपूर्ण साहित्य को सामने लाने के साथ ही हरियाणा के बहुत से रचनाकारों को एक मंच प्रदान करने एवं उन्हें पहचान दिलाने में भी हरियाणा साहित्य अकादमी की इस पत्रिका की भूमिका रही है। हरियाणा के सामाजिक एवं लोक जीवन के यथार्थ के साथ उसके सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करने का काम भी हरिगन्धा बखूबी कर रही है। हरियाणा सिर्फ जाटों-किसानों की ही नहीं साहित्यकारों की भी ज़मीन है, इसे इस प्रदेश की साहित्यिक-सांस्कृतिक सुगन्ध की वाहिका बनकर राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक क्षेत्र में हरिगन्धा की उड़ान में भी महसूस किया जा सकता है। इस बात का पुख्ता प्रमाण बनकर आया है गत दिसम्बर 2010-जनवरी 2011 में प्रकाशित इस पत्रिका का लघुकथा विशेषांक। लघुकथा पर इस वृहत विशेषांक के लिए अकादमी और हरिगन्धा की टीम प्रशंसा की पात्र है।
    सबसे पहले तो इस विशेषांक के लिए अकादमी ने दो सामान्य अंको का स्थान उपलब्ध करवाकर लघुकथा के विस्तार को समझने की कोशिश की है। दूसरी बात इसके सम्पादन का दायित्व अतिथि सम्पादक के रूप में अग्रणी लघुकथाकार एवं लघुकथा समालोचक-दिशावाहक डॉ. अशोक भाटिया को सौंपकर लघुकथा की गम्भीरता एवं बारीकियों के प्रति जिम्मेदारी का अहसास भी अकादमी ने प्रदर्शित किया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि डॉ. भाटिया के समान ही अग्रणी एवं महत्वपूर्ण कुछ और भी लघुकथाकार हरियाणा की जमीन ने दिये हैं, पर शायद कुछेक चीजें इस विशेषांक में ऐसी हैं, जिनका श्रेय डॉ. भाटिया जी को दिया जा सकता हैे। उन्होंने अपने पूर्व के लघुकथा सम्बन्धी विशिष्ट कार्यों और अनुभवों का उपयोग करते हुए ‘लघुकथा के आलोक स्तम्भ’ के अन्तर्गत विश्व की विभिन्न भाषाओं के सुप्रसिद्ध साहित्यकारों की कथा रचनाओं में लघुकथा की जड़ें खोजने एवं ‘लघुकथा: हिन्दी की विरासत’ के माध्यम से हिन्दी के महान कथाकारों के साहित्य में लघुकथा की उपस्थिति को सामने लाकर लघुकथा को कथा साहित्य की महान विरासत से सम्बद्ध करने की कोशिश की है। यद्यपि समय-समय पर इस तरह के कार्य होते रहे हैं, पर भाटिया जी ने इस कार्य को सुनियोजित व समेकित रूप से एवं यथोचित तरजीह दी है। इसके पीछे लघुकथा के बारे में भ्रान्तियों के निराकरण का उददे्श्य हो सकता है। शार्टकट, भाग-दौड़ की जिन्दगी का परिणाम, फिलर वगैरह जैसी धारणायें कहीं न कहीं लघुकथा की स्वाभाविक विधा के रूप में उत्पत्ति एवं विकास को प्रश्नांकित करती रही हैं। मुझे लगता है कि कृत्रिम चीजें साहित्य और संस्कृति में बहुत बड़ा मुकाम हासिल नहीं कर सकती और जो चीजें बड़ा मुकाम हासिल कर लें, उनकी उत्पत्ति और विकास के पीछे कहीं कोई स्वाभाविकता नहीं होगी, ऐसा मानना सर्वथा अनुचित होगा। काल और काल-जनित परिस्थितियों का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है, पर उसका सम्बन्ध लोगों की रुचियों (यहाँ रूचि से तात्पर्य पाठकीय रूचि से नहीं, जीवन की जरूरतों और जीने के तौर-तरीकों से है) और जीवन में आये यथार्थपरक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों से होता है। समय नहीं है इसलिए लोग कहानी या उपन्यास न पढ़कर लघुकथा पढ़ेंगे, इसलिए लघुकथा लिखी जा रही है, ऐसी धारणाएँ भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं हैं। जिनके पास समय नहीं है, वे लघुकथा भी क्यों पढ़ेंगे? अविराम में लघुकथाएँ पढ़कर एक परिचित (सामान्य पाठक) की प्रतिक्रिया थी- ‘भाई साहब आप बड़ी कहानी क्यों नहीं छापते? ये छोटी-छोटी कहानियाँ (लघुकथाओं के लिए उनका सम्बोधन) भी अच्छी हैं, पर हमें तो बड़ी कहानी पढ़ना ज्यादा अच्छा लगता है।’ आज लघुकथा जिस रूप में सामने खड़ी है, वह जीवन में आये यथार्थपरक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों के कारण खड़ी है। लघुकथा ने कहीं से भी कहानी और उपन्यास को प्रतिस्थापित नहीं किया है, बल्कि उनकी पूरक बनकर सामने आई है। लघुकथा वह काम कर रही है, जो कहानी और उपन्यास से छूट गया है। संयोगवश ऐसे कार्य का आज जीवन में आये यथार्थपरक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों के कारण विस्तार होता जा रहा है और लघुकथा आगे बढ़ रही है। इसलिए लघुकथा की जड़ें और उसकी उपस्थिति हमें अपने बड़ों के कथा-कर्म में भी दिखाई दे रही है (और उसे हमारे लघुकथा के ध्वजवाहक पहचान रहे हैं) तो यह लघुकथा के स्वाभाविक विकास को दर्शाती है। मेरा मानना है कि साहित्य इसलिए पढ़ा जाता है कि वह जीवन के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए लिखा जा रहा है, वह जीवन का मर्म लेकर सामने आ रहा है; इसलिए नहीं लिखा जाता कि किसी को उसे पढ़ना है।
   इस विशेषांक के आलेख खण्ड में कई वरिष्ठ कई महत्वपूर्ण आलेखों के मध्य बलराम अग्रवाल का समकालीन लघुकथा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं डॉ. पुरुषोत्तम दुबे का महत्वपूर्ण बारीकियों से भरा लघुकथा में शिल्प प्रयोंगों का विश्लेषण लघुकथा लेखन में, विशेषतः नए लेखकों को गुणवत्ता का दृष्टि से मार्गदर्शन करेगा।
   विशेषांक के लिए अधिकांश लेखकों ने अच्छी लघुकथाएँ उपलब्ध करवाई हैं और अतिथि सम्पादक ने यथाशक्ति सावधान होकर चयन किया है। अधिकांशतः बेहद प्रभावशाली लघुकथाएँ हैं। फिर भी कहीं कोई छोटी-मोटी चूक दिखाई देती है, तो बड़े आयोजन में इसे स्वाभाविक रूप से लेना ही ठीक रहेगा।  कोई कार्य हमेशा सम्पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता। महत्वपूर्ण यह होता है कि सम्पूर्णता तक जाने की कोशिश दिखाई दे, जो हरिगंधा में दिखती है। हरियाणा साहित्य अकादमी, पत्रिका की प्रधान सम्पादक डॉ. मुक्ता, सम्पादक नीलम सिंगला और उनकी टीम के साथ डॉ. अशोक भाटिया इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए बधाई के पात्र हैं ही, हरिगन्धा हरियाणा की साहित्यिक-सांस्कृतिक सुगन्ध की वाहिका बनी रहे, शुभकामनाएँ।

हरिगंधा : साहित्यिक मासिकी। प्र. सम्पादक :  डॉ. मुक्ता/सम्पादक : नीलम सिंगला/लघुकथा विशेषांक के अतिथि संपादक : डॉ. अशोक भाटिया। प्रकाशक एवं सम्पर्क : हरियाणा साहित्य अकादमी, अकादमी भवन, पी-16, सेक्टर-14, पंचकुला-134113(हरियाणा) दूरभाष : ०१७२-२५६५५२१ / २५८१८०७। वार्षिक चन्दा : रु. 150/-, संयुक्तांक/विशेषांक का मूल : रु. 30/- 


मोमदीप : एक सम्भावनापूर्ण लघु पत्रिका

    मोमदीप में कुछ वरिष्ठों के साथ अधिकांशतः  नए रचनाकारों को स्थान मिल रहा है। पिछले जिन तीन अंकों को हमने देखा है, उनमें कई प्रभावशाली रचनाएँ भी हैं पर अधिकांश रचनाओं को देखकर ऐसा लगता है साहित्य के प्रवेश द्वार पर आये लोगों का स्वागत कर रही है यह लघु पत्रिका। यह बात अच्छी भी है, नए लोग जुड़ेंगे, तभी साहित्य आगे बढ़ेगा। अधिकाधिक लोगों को साहित्य से जोड़ने की मुहिम में मोमदीप का शामिल होना शुभ है। इसी के साथ नए लोगों का साहित्यिक स्तर की दृष्टि से मार्गदर्शन भी जरूरी है। मोमदीप के सम्पादन से वरिष्ठ लोग जुड़े हैं, जो नए रचनाकारों का सम्पादकीय हस्तक्षेप से मार्गदर्शन कर सकते हैं। यह कार्य किया जाना चाहिए। नए लागों में कई मित्र लेखनेतर गतिविधियों में पर्याप्त सक्रियता के चलते प्रसिद्धि पा जाते हैं, पर लेखन के स्तर की दृष्टि से इन मित्रों को जिस परिश्रम की जरूरत होती है, उसे भी समझना चाहिए (आज के रचनाकार के लिए लेखनेतर साहित्यिक गतिविधियों में सक्रियता और लेखन व उसके स्तर के मध्य संतुलन बेहद जरूरी है)। रचनाओं की प्रस्तुति और चयन में थोड़ा सा ध्यान देने पर पत्रिका का आकर्षण काफी अधिक बढ़ जायेगा। रचनाकारों को भी अपनी रचनाएँ मोमदीप सहित तमाम लघु पत्रिकाओं को भेजने से पूर्व उनकी स्वयं समीक्षा भी करनी चाहिए। दूसरी ओर चर्चित एवं वरिष्ठ रचनाकारों को कुछ अच्छी रचनाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करवाकर पत्रिका की उपस्थिति को साहित्य के लिए उपयोगी बनाने में योगदान करना चाहिए। कुछ वरिष्ठ रचनाकारों ने अच्छी रचनाएँ दी भी हैं। संतुलन बनाकर ही सही दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। 60 जमा 4 यानी 64 पृष्ठ के साथ एक साहित्यिक लघु पत्रिका का नियमित प्रकाशन साहित्यिक संसाधन की उपलब्धता की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण घटना होती है, इस बात को सभी लोगों को समझने की जरूरत है।
    विधागत दृष्टि से मोमदीप में दोहा एवं ग़ज़ल रचनाएँ ही प्रभाव छोड़ पा रही हैं। फिलहाल मोमदीप के गीत एवं लघुकथाएँ अपेक्षानुरूप नहीं लगतीं। नई कविता एवं क्षणिका जैसी समकालीन विधाओं को स्थान ही नहीं दिया गया है, कम से कम इन तीन अंकों में। शिक्षा, भ्रष्टाचार एवं जन सेवकों पर प्रहार करते सम्पादकीय आलेखों में डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ जी की चिन्ताएँ हम सबकी हैं। आचार्य भगवत दुबे जी ने समीक्षाएँ अच्छी लिखी हैं। प्रूफ की गलतियाँ, खासकर आठवें अंक में काफी ज्यादा हैं। मोमदीप एक सम्भावनापूर्ण लघु पत्रिका है, उम्मीद है आने वाले समय में साहित्य के प्रचार-प्रसार में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी।

मोमदीप :  साहित्य-शिक्षा-संस्कृति को समर्पित हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका। सम्पादक :  डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’/प्रबन्ध सम्पादक :  आचार्य भगवत दुबे। सम्पर्क : 1436-बी, सरस्वती कॉलोनी, चेरीताल, जबलपुर-482002 (म.प्र.) दूरभाष: 2340036/मोबाइल: 09425899232। मूल्य: एक प्रति: रु. 10/-, वार्षिक: रु. 40/- एवं आजीवन: रु. 500/- मात्र।

गतिविधियाँ


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०४, दिसंबर २०११ 



आगरा में 19 वाँ अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन सम्पन्न


      ‘राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास (भारत) एवं गाजियाबाद से प्रकाशित ‘यू.एस.एम. पत्रिका’ द्वारा भारतीय सांस्कृतिक संबन्ध परिषद, सुलभ इन्टरनेशनल, नेशनल बुक ट्रस्ट, डॉ. रामनर्मदा परशुराम धर्मार्थ सेवा सदन तथा श्री हरप्रसाद भार्गव व्यवहार संस्थान के सहयोग से आगरा में 8-9 अक्टूबर 2011 को ‘19वाँ अ.भा. हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ एवं ‘13वाँ अ.भा. राजभाषा सम्मान समारोह’ आयोजित किया गया। ‘हिन्दी साहित्य और आज का समाज’ विषय पर तीन सत्रों में विद्वानों ने अपने विचार/आलेख प्रस्तुत किए। प्रतिवर्ष की भांति सम्मेलन में पत्रिका व पुस्तक प्रदर्शनी, सांस्कृतिक कार्यक्रम, कवि सम्मेलन के आयोजन के साथ तथा नामित सम्मान प्रदान किये गयै। इस वर्ष देश भर से चयनित 80 विद्वानों को विभिन्न सम्मानों से अलंकृत किया गया। सम्मेलन के मुख्य संयोजक व सम्पादक उमाशंकर मिश्र ने दो दिवसीय आयोजन की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए देशभर से आये हुए विद्वानों का अभिनन्दन किया।
   सम्मेलन के प्रथम दिन ‘यूथ हास्टल’ के खचाखच भरे सभागार में नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया द्वारा ‘हिन्दी साहित्य और आज का समाज’ विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन हुआ। जिसमें मुख्य अतिथि पद्मश्री डॉ. श्याम सिंह शशि, अध्यक्ष डॉ. चन्द्र प्रकाश त्रिपाठी, विशिष्ट अतिथि डॉ. लाल बहादुर सिंह चौहान व डॉ. महेश भार्गव और स्वागताध्यक्ष डॉ. राम अवतार शर्मा मंचासीन रहे। इस सत्र के प्रमुख वक्ताओं में डॉ. मुरलीधर पांडेय (मुम्बई), डॉ. एस.टी. मेरवाड़े (वीजापुर), श्री नेहपाल सिंह वर्मा (हैदराबाद), श्री शिव प्रसाद भारती (मिर्जापुर), डॉ. राजेन्द्र मिलन (आगरा) तथा श्रीमती कुसुमलता सिंह (नई दिल्ली) के नाम उल्लेखनीय हैं। इस अवसर पर नेशनल बुक ट्रस्ट की दो पुस्तकों- ‘औषधीय पौधे (डॉ. सुधांशु कुमार जैन) तथा ‘भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों का योगदान’ (हीरेन गोहाई/अनुवाद: प्रवीण शर्मा) का लोकार्पण मंच से हुआ।
   13वें अ.भा. राजभाषा सम्मान समारोह में आये हुए विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों के पदाधिकारियों ने अपने संस्थानों में हिन्दी में कामकाज की वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला। इनमें सेन्ट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड (धनवाद) के श्री मथुरा प्रसाद पाण्डेय, भारत कोकिंग कोल के श्री श्याम नारायण सिंह, नराकास, नागपुर के सचिव श्री संजीव कुमार गोयल के नाम प्रमुख हैं। वरिष्ठ साहित्यकार एवं सुलभ अकादमी के सचिव श्री गंगेश गुंजन ने भी विषय पर अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किये। संचालन पंकज चतुर्वेदी ने किया। चयनित लागों को राजभाषा सम्मानों से विभूषित किया गया। विभिन्न अतिथियों ने सम्मेलन को सम्बोधित किया।
   सम्मेलन के दूसरे दिन के प्रारम्भिक सत्र में ‘सांस्कृतिक कार्यक्रम’ प्रस्तुत किए गये। इसके उपरान्त ‘हिन्दी साहित्य और आज का समाज’ विषय पर विचार गोष्ठी के दूसरे सत्र में विद्वानों एवं शोधार्थियों ने अपने आलेख व विचार प्रस्तुत किए। इसकी अध्यक्षता डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख ने तथा संचालन डॉ. हरिसिंह पाल ने किया। सम्मेलन के अन्तिम सत्र में श्रीमती निशिगंधा के कहानी संग्रह ‘सोंधी मिट्टी’, प्रकाश लखानी के निबन्ध संग्रह ‘ओम दर्शन’ तथा श्याम सुन्दर शर्मा के कविता संग्रह ‘बीच बाजार में आत्मबोध’ तथा डॉ. राजेन्द्र मिलन के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित ‘यू.एस.एम. पत्रिका’ के ‘आगरा महानगर विशेषांक’ का लोकार्पण किया गया। इसके वाद वर्ष 2011 के नामित सम्मानों से अनेक चयनित साहित्यकारों व पत्रकारों को सम्मानित किया गया।
   इस अवसर पर अपने सम्बोधन में डॉ. रत्नाकर पाण्डेय ने हिन्दी साहित्य के व्यापक उत्थान में शासन की उदासीनता  व उपेक्षा को बड़ी बाधा बताते हुए कहा कि ‘राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास’ हिन्दी भाषा सहित समस्त भारतीय भाषाओं के विकास को कृत संकल्प है। ‘यू.एस.एम. पत्रिका’ के ‘आगरा महानगर विशेषांक’ का उल्लेख करते हुए उन्होने कहा कि मिश्रजी ने इस पत्रिका के विशेषांकों का ऐसा कीर्तिमान बनाया है जो अपने आप में अद्वितीय है। इस अवसर पर विशेषांक के अतिथि सम्पादक डॉ. राजेन्द्र मिलन व उनके सहयोगी अशोक बंसल ‘अश्रु’ को विशेष रूप से सम्मानित किया गया। दो दिवसीय आयोजन में सहयोग के लिए डॉ. रामअवतार शर्मा तथा डॉ. महेश भार्गव को भी सम्मानित किया गया। स्वागताध्यक्ष डॉ. रामअवतार शर्मा ने देश भर से आये विद्वानों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उनका प्रतिष्ठान आप सभी के आगमन से पवित्र हो गया। (समाचार सौजन्य: विकास मिश्र)






जनसंदेश टाइम्स के लखनऊ  कार्यालय में  उद्भ्रांत का एकल काव्य पाठ













‘रवांल्टी’ बोली को पहचान दिलवाने में जुटे महावीर रवांल्टा








विगत दिनों उत्तराखंड के चर्चित साहित्यकार व रंगकर्मी महावीर रवांल्टा स्थानीय बोली ‘रवांल्टी’ को सम्मान एवं पहचान दिलवाने के प्रयासों के लिए मीडिया में काफी चर्चित रहे। उन्होंने रवांल्टी में काफी कविताएँ लिखी हैं। अपनी रवांल्टी कविताओं की उपस्थिति उन्होंने  उत्तराखण्डी कविता संग्रह ‘डांडा कांडा स्वर, उड़ घुघुती उड़’, प्रमुख कवि सम्मेलनों एवं आकाशवाणी से प्रसारण में भी दर्ज कराई है। सुप्रसिद्ध चित्रकार बी.मोहन नेगी उनकी रवांल्टी कविताओं को अपने चित्रों में उतारकर प्रदर्शनियों में ले जा रहे हैं। महावीर जी साहित्यिक-सांस्कृतिक व सामाजिक परिदृश्य पर इस क्षेत्र को उभारने के लिए अपने रंवाई क्षेत्र की संस्कृति, लोक जीवन एवं वहां के लोगों की पीढ़ा को अपनी रचनाओं में प्रमुखता दे रहे हैं। कई प्रमुख अखबारों ने उनके कार्य को रेखांकित किया है। (समाचार सौजन्य: महावीर रवांल्टा)


डॉ. ब्रह्मजीत गौतम को 'डॉ. रमेश चन्द्र चौबे सम्मान'




सन्तोष सुपेकर को मिला रेलवे का ‘प्रेमचंद कथा सम्मान’ 


   




      लघुकथाकार सन्तोष सुपेकर को उनके लघुकथा संग्रह ‘बन्द आँखों का समाज’ के लिए रेलवे बोर्ड द्वारा ‘प्रेमचंद कथा सम्मान’ से विभूषित किया गया। यह पुरस्कार उन्हें विगत दिनों नई दिल्ली के रेल भवन में आयोजित समारोह में सदस्य (कार्मिक) रेलवे बोर्ड एवं रेल राजभाषा त्रैमासिकी के संरक्षक श्री अरविन्द कुमार वोहरा द्वारा प्रदान किया गया। सम्मानस्वरूप सुपेकर जी को प्रमाण पत्र एवं नगद राशि प्रदान की गई। सन्तोष सुपेकर लघुकथा के चर्चित एवं वरिष्ठ लघुकथाकार हैं। उनके लघुकथा संग्रह ‘हाशिये का आदमी’ एवं ‘बन्द आँखों का समाज’ काफी चर्चित रहे हैं। (समाचार सौजन्य: संतोष सुपेकर)






कवि त्रिलोक सिंह ठकुरेला को  ‘बाल साहित्य भूषण’ सम्मान 


     




  कवि त्रिलोक सिंह ठकुरेला को राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास (भारत) द्वारा आगरा में आयोजित ‘19वें अ.भा. हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ में ‘बाल साहित्य भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। आगरा के राम नर्मदा धर्मार्थ सेवा सदन में आयोजित सम्मेलन में श्री ठकुरेला जी को यह सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रत्नाकर पाण्डेय एवं राजकुमार सचान ‘होरी’ द्वारा अंगवस्त्र, स्मृति चिह्न एवं प्रशस्ति देकर प्रदान किया गया। श्री ठकुरेला जी के बाल गीत संग्रह ‘नया सवेरा’ क प्रकाशन में राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा आर्थिक सहायता भी प्रदान की जा चुकी है। (समाचार सौजन्य: श्रीमती साधना ठकुरेला, आबू रोड, राजस्थान)



नोएडा में सबरस काव्य-संध्या एवं सम्मान समारोह

   ‘कायाकल्प साहित्य-कला फाउण्डेशन, नोएडा’ के तत्वावधान में कार्ल हूबर स्कूल, सेक्टर -62, नोएडा में ‘सबरस काव्य-संध्या एवं सम्मान समारोह’ का आयोजन किया गया। कार्यक्र्रम के मुख्य-अतिथि श्री सुरेश कुमार, क्षेत्रीय प्रबन्धक, यूपीएसआईडीसी, ग्रेटर नोएडा ने दीप प्रज्ज्वलित कर कार्यक्र्रम का षुभारम्भ किया। देश के वरिष्ठ गीतकार श्री ओमप्रकाश चतुर्वेदी ‘पराग’ ने क्रार्यक्र्रम की अध्यक्षता की तथा संचालन लब्ध-प्रतिश्ठि गीतकार डा0 अशोक मधुप ने किया। इस अवसर पर वरिश्ठ शायर श्री ज़मील हापुड़ी एवं डॉ0 मधु भारतीय को ‘साहित्य शिरोमणि सम्मान’, श्री पारसनाथ बुलचंदानी, श्री आसिफ कमाल एवं श्री बाबा कानपुरी को ‘साहित्य-भूषण सम्मान’ तथा श्री मोहन द्विवेदी को ‘साहित्यश्री सम्मान’ से नवाजा गया।  मुख्य-अतिथि श्री सुरेश कुमार ने अपने उद्बोधन में संस्था की ओर से प्रतिमाह शायरों, कवियों, साहित्यकारों एवं समाज-सेवियों का सम्मान करने की परम्परा की भूरि-भूरि सराहना  की। कायाकल्प के मुख्य संरक्षक श्री एस0 पी0 गौड़ ने अपने उद्बोधन में संस्था द्वारा स्थापित इस सम्मान की परम्परा को और आगे बढ़ाने के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की। 
काव्य-संध्या का शुभारम्भ अर्चना द्विवेदी ने माँ-वाणी की स्तुति से किया। प्रतिष्ठित शायर श्री ज़मील हापुड़ी के क़त्अे और ग़ज़लें -‘कैसी-2 निकाले है तान बॉसुरी, कहीं लेले न राधा की जान बॉसुरी’ सुनाकर पूरा वातावरण भाव-विभोर कर दिया। गीतकार डा0 अशोक मधुप ने अपने गीत - ‘बनजारन हो गयी ज़िन्दगी, ये है अपनी राम कहानी, ना है कोई ठौर ठिकाना, रमता जोगी, बहता पानी’ सुनाकर श्रोताओं की ख़ूब वाहवाही लूटी। 

      हास्य कवि बाबा कानपुरी ने अपनी ग़ज़ल - ‘सरहदें क्यों ग़ज़ल में बनायी गयीं, क्यों तदीफें़ बटीं, क्यों बंटे का़फ़िये’ सुनाकर श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर दिया। मोहन द्विवेदी ने भ्रश्टाचार पर प्रहार करते हुए व्यंग्य-गीत सुनाया - ‘चोर, उचक्के, डाकू को तुम कहते हो सरकार लिखूँ। अरुण सागर की ग़ज़ल-‘कोई अपना ही जब इज़्ज़त सरे-महफ़िल उछालेगा, तो इन आँखों के आँसू कौन आकर के संभालेगां’ का भी श्रोताओं ने ख़ूब लुत्फ़ उठाया। रोहित चौधरी ने राश्ट्रीय चेतना की कविता -‘बन्दे मातरम होठों पर और दिल में भारत रखता हूँ’ सुनाकर श्रोताओं का मन मोह लिया। । 
         इसके अतिरिक्त गीतकार आर0 एस0 रमन, राजेन्द्र निगम ‘राज’, डॉ0 वीना मित्तल, तूलिका सेठ, गौरव गोयल, देवेन्द्र नागर, पी0 के0 सिंह ‘पथिक’, उदितेन्दु निश्चल प्रदीप पहाड़ी, सुरेन्द्र साधक, सुध्ीर वत्स आदि ने  भी अपनी  कविताओं से  काव्य-संध्या में  चार चाँद  लगाये। 
        इस अवसर पर कायाकल्प संस्था की ओर से ग़ज़ल-सम्राट जगजीत सिंह एवं वरिष्ठ साहित्यकार कुबेर दत्त के आकस्मिक निधन पर शोक-सभा का भी आयोजन किया गया, जिसमें उपस्थित गणमान्य साहित्यकारों, कवियों, अतिथियों एवं श्रोताओं ने बैकुंठवासी जगजीत सिंह की पुण्यात्मा की शान्ति एवं शोकाकुल परिवार को इन कठिन क्षणों में धैर्य, साहस तथा इस असामयिक व अपूर्णनीय क्षति को सहन करने की शक्ति प्रदान करने के लिए दो मिनट का मौन रखकर ईश्वर से प्रार्थना की। (समाचार सौजन्य: रोहित चौधरी)


अमित कुमार लाडी 'सरस्वती रत्न सम्मान'


                        


हिन्दी भवन में सम्मान-संध्या एवं पुस्तक लोकार्पण

    नई दिल्ली, 25.11.11: दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास, भारत द्वारा प्रायोजित अमृत-जयंती सम्मान संध्या एवं पुस्तक लोकार्पण समारोह का आयोजन 25 नवम्बर, 2011 को हिन्दी भवन के सभागार में सुरुचिपूर्ण ढंग से किया गया। अध्यक्ष थे पूर्व महापौर एवं दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष साहित्यवारिधी श्री महेश चन्द्र शर्मा जी तथा मुख्य अतिथि थे स्वनामधन्य पद्मश्री डाॅ. श्याम सिंह ‘शशि’। विशिष्ट अतिथियों में लखनऊ से पधारे डाॅ. कौशलेन्द्र पाण्डेय, आकाशवाणी दिल्ली के डाॅ. हरि सिंह पाल, राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास, भारत के राष्ट्रीय संयोजक गाजियाबाद के श्री उमाशंकर मिश्र, गाजियाबाद के ही प्रसिद्ध गीतकार डाॅ. धनंजय सिंह तथा कवि-लेखक-फिल्मकार डाॅ. कृष्ण कल्कि जी जिन्होंने लोकार्पित गं्रथ का संपादन किया है।
    प्रारंभ में डाॅ. रमेश नीलकमल (जमालपुर-बिहार) के पचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश करने पर अंगवस्त्राम् तथा पुष्पम् से उनका भव्य सम्मान किया गया। तत्पश्चात् मुख्य अतिथि डाॅ. ‘शशि’ ने बताया कि रमेश नीलकमल ने साहित्य को संघर्ष के माध्यम से जिया है। एक छोटे से कस्बे से संघर्षरत नीलकमल ने दिल्ली तक की अपनी दौड़ में कई आयाम जोड़े हैं। विशिष्ट अतिथियों में डाॅ. कौशलेन्द्र पाण्डेय ने रमेश नीलकमल की संपादन-कला की सराहना करते हुए उन्हें यशस्वी बताया तथा आकाशवाणी के अधिशासी डाॅ. हरि सिंह पाल ने नीलकमल जी की रचना-प्रक्रिया को विस्तार देते हुए इन्हें दर्जनाधिक पुस्तकों का लेखक-कवि बताया। राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास के राष्ट्रीय संयोजक श्री उमाशंकर मिश्र ने नीलकमल जी के साहित्यिक अवदान की सराहना की तथा डाॅ. कृष्ण कल्कि ने ‘अदब के दौर में हारा नहीं है नीलकमल’ कहकर ‘रमेश नीलकमल बनने का अर्थ’ ग्रंथ में शामिल अपने मूल्यांकन आलेख की सम्पुष्टि की। डाॅ. धनंजय सिंह ने भी रमेश नीलकमल की गीत-लेखन-क्षमता की सराहना की। प्रत्युत्तर में डाॅ. रमेश नीलकमल ने अपने अभिभाषण में सबों का आभार मानते हुए अपने जीवन की कतिपय सच्चाइयों से परिचित कराया।
    इसके पूर्व ही डाॅ. कृष्ण कल्कि द्वारा संपादित ग्रंथ ‘रमेश नीलकमल बनने का अर्थ’ तथा डाॅ. रमेश नीलकमल द्वारा विरचित उपन्यास ‘न सूत न कपास’ का लोकार्पण सम्मिलित रूप से डाॅ. श्याम सिंह ‘शशि’, श्री महेश चन्द्र शर्मा, डाॅ. कौशलेन्द्र पाण्डेय, डाॅ. हरि सिंह पाल, श्री उमाशंकर मिश्र, डाॅ. धनंजय सिंह एवं डाॅ. कृष्ण कल्कि ने किया। मंच संचालन डाॅ. ए. कीर्तिवर्द्धन तथा धन्यवाद ज्ञापन श्री समरेन्द्र कुमार दास ने किया। सभागार में श्री लाल बिहार लाल (दिल्ली), श्री कौशिक जी (मेरठ), डाॅ. चित्रा सिंह (दिल्ली विश्वविद्यालय), श्री सत्यप्रकाश गुप्ता (सी.ए., दिल्ली), श्री वीरेन्द्र शर्मा (एडवोकेट, दिल्ली) आदि ने भी पुष्प-गुच्छ तथा शुभकामना के संदेश देकर डाॅ. नीलकमल को सम्मानित किया।  {विकास चन्द्र  मै. मीनाक्षी प्रकाशन}

अविराम के अंक


अविराम (समग्र साहित्य का त्रैमासिक संकलन) 

अंक : १० / दिसंबर  २०११

प्रधान सम्पादिका : मध्यमा गुप्ता
 सम्पादक : डा. उमेश महादोषी 
सम्पादन परामर्श : सुरेश सपन
 मुद्रण सहयोगी : पवन कुमार




अविराम का यह मुद्रित अंक २५ से ३१ दिसंबर २०११ के मध्य प्रेषित किया जायेगा। रचनाकार बन्धु अंक प्राप्त होने की प्रतीक्षा १० जनवरी २०१२ तक करने के बाद ही न मिलने पर पुन: प्रति भेजने का आग्रह करें सभी रचनाकारों को दो-दो प्रतियाँ अलग-अलग डाक से भेजीं जा रही हैं इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है-

प्रस्तुति :  मध्यमा गुप्ता का पन्ना (आवरण 2)
लघुकथा के स्तम्भ :  सुकेश साहनी (3), रामेश्वर काम्बोज हिमांशु (6) व कमलेश भारतीय (8)।
अनवरत-१ :  नारायण सिंह निर्दोष व केशव शरण (10), डॉ. विद्याभूषण व शशिभूषण बड़ोनी(11), डा. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ व अजय चन्द्रवंशी (12), श्री रंग व डॉ. गोपाल बाबू शर्मा (13),डॉ. ब्रह्मजीत गौतम व महेश अग्रवाल (14), नित्यानंद ‘तुषार’ व मोहन लोधिया (15) व प्रशान्त उपाध्याय (16) की काव्य रचनाएं।
सन्दर्भ :  मुस्लिम समुदाय में व्याप्त कुरीतियों व पिछड़ेपन के कारणों के सन्दर्भ में डॉ. तारिक असलम तस्नीम की लघुकथाएं (17)। 
आहट :   जितेन्द्र जौहर व डॉ. अनीता कपूर की क्षणिकाएँ (19)। 
कथा-कहानी : अनवर सुहैल की कहानी ‘उठो सहेली उठो’ (20)। 
विमर्श :  श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी का आलेख ‘इतिहास दुबारा लिखो’ (26)।
व्यंग्य-वाण :  डॉ. सुरेन्द्र वर्मा का व्यंग्य लेख (28)।
 कविता के हस्ताक्षर : किशन कबीरा (24)।
 कथा प्रवाह :  
स्व. कालीचरण प्रेमी (30), प्रताप सिंह सोढ़ी (31), डॉ. अशोक भाटिया व सिद्धेश्वर (32), सुरेश शर्मा (33), पारस दासोत व दिनेश चन्द्र दुबे (34), डॉ. सुरेन्द गुप्त व उमेश मोहन धवन (35), किशोर श्रीवास्तव (36),ऊषा अग्रवाल ‘पारस’ व शिव अवतार पाल (37) की लघुकथाएँ।

अनवरत-२ :
 
आचार्य भगवत दुबे व कृष्ण कुमार यादव (38), श्याम सुन्दर अग्रवाल (39), निर्देश व ओइम् शरण शर्मा आर्य ‘चंचल’ (40), चेतन दुबे ‘अनिल’ व रुद्रपाल गुप्त ‘सरस’ (41) की काव्य रचनाएं।
किताबें  :  गर्म रेत: जीवनोन्मुखी सौन्दर्यबोध की लघुकथाएँ/रामयतन यादव (42), जनक छन्द की साधना: जनक दर्पण/डा. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ (43), धाह देती धूप : गीत का अच्छा उदाहरण (44) एवं राम भरोसे : कलात्मक व्यंग्य (45)/डा. उमेश महादोषी द्वारा परिचयात्मक समीक्षाएं। 
सम्भावना : दो नए रचनाकारों विनीता चोपड़ा एवं गुरुप्रीत सिंह की कविताएं (46)।
चिट्ठियाँ :  अविराम के गत अंक पर प्रतिक्रियाएं (47)।
गतिविधियाँ :  संक्षिप्त साहित्यिक समाचार (49)।
प्राप्ति स्वीकार : त्रैमास में प्राप्त विविधि प्रकाशनों की सूचना (52)।

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