आपका परिचय

रविवार, 29 जनवरी 2012

अविराम विस्तारित




अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०५, जनवरी २०१२ 


।।जनक छन्द।।

सामग्री : डा. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’, पं. गिरिमोहन गिरि ‘गुरु’ व अनामिका शाक्य के जनक छंद। 

डा. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’


पांच जनक छंद
1. 
ढूंढ़ें कैसे ठौर अब?
अधकचरे अँग्रेज हम
दिखे और का और सब
2.
फबा आम सिर बौर है
फागुन की छवि देखिये
रूप और का और है
3.
सदा साथ में धर्म है
जीभा पर जब राम है
और हाथ में कर्म है
4.
दृश्य छाया चित्र : डॉ. उमेश महादोषी 
पत्थर पर्वत से कटे
आग बने आ नगर में
पर्वत के सोते घटे
5.
कण-कण में कल्याण है
किन्तु स्वयम् जो बँध रहा 
उसे कहाँ निर्वाण है!
  • बी-2-बी-34, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058
:

पं. गिरिमोहन गिरि ‘गुरु’


पांच जनक छन्द
1.
सिर्फ देखता ही रहा
शब्द सभी पथरा गये
मुस्कानों ने सब कहा
2.
क्या ही बढ़िया सीन है
नेता के घर मौज है
शेष प्रजा गमगीन है
3.
समय सरकता जा रहा
लेकिन यह मन आज भी
तुझसे बंधता जा रहा
4.
यात्रा लक्ष्य वहीन है
जीने को तो जी रह
मन चिन्ताकुज दीन है
5.
खाली पन भरते रहो
मन निराश होवे नहीं
ऐसा कुछ करते रहो

  • गोस्वामी सेवाश्रम, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, होशंगाबाद-461001 (म.प्र.)


अनामिका शाक्य


चार जनक छन्द
1.
सच्चा प्यार महान है
बंधन सारे तोड़ता
दुनियां क्यों अंजान है!
2.
मिलती जब-जब जीत है
मधुर तराने गँूजते
जीवन मीठा गीत है
3.
दृश्य छाया चित्र : पूनम गुप्ता 
पावन गंगा-धार है
पापों को धो डालती
आता सब संसार है 
4.
ऊँचा कितना नाम है
चमक रहा संसार में
सूरज तुझे सलाम है
  • ग्राम किरावली, पोस्ट तालिबपुर, जिला मैनपुरी (उ.प्र.)


अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०५, जनवरी २०१२ 


।।व्यंग्य वाण।।

सामग्री : मधुर गंजमुरादाबादी की व्यंग्य कविता 'दमकल की राह ताकिए'  एवं डॉ. सुरेन्द्र प्रकाश शुक्ल का व्यन्ग्यालेख 'बड़े मियां का शौक'।





मधुर गंजमुरादाबादी


दमकल की राह ताकिए

                    उम्दा सन्देश डाकिए
                    लाए हैं आपके लिए।
समय कीमती अपना व्यर्थ नहीं खोइये,
  बिस्तर में मस्ती से दुपहर तक सोइये
              जलसों में रोज़ जागिये।
अपने गुण गौरव का  विज्ञापन कीजिये
जनता कुछ मांगे तो आश्वासन दीजिये।
              सपनों का स्वर्ण बाँटिये।
ग़लती करिए लेकिन क्षमा नहीं माँगिये,
जो ज़बान  खोले  उसको  उल्टा  टाँगिये।
            रह न जायें होठ अनसिये।
   एकता न रहे  कहीं   भेद  को  बढ़ाइये,
   अपराधी  तत्वों को  शीश पर चढ़ाइये।
             जीवन निश्चिन्त काटिये।
आपस में सिर धुनकर बालों को नोंचिये,
ख़ुद घर में आग लगा पानी की सोचिये।
             दमकल की राह ताकिये।

  • अध्यक्ष: हितैषी स्मारक सेवा समिति, गंजमुरादाबाद-209869, जिला उन्नाव (उ.प्र.) 





डॉ. सुरेन्द्र प्रकाश शुक्ल 


बड़े मियां का शौक
   शौकीन आदमी के कहने ही क्या? उसे तो बस एक ही धुन रहती है कि उसके शौक की बजह से अन्य लोग उसे अपने सिर पर चढ़ाये रहें। यानि कि शौकीन होने के कारण वह बड़ा खास समझा जाए। होता भी यही है। किसी भी लकलकाते कपड़े और चमचमाते जूते पहने हुए व्यक्ति का सिर भले बालों से सफाचट हो लेकिन देखते ही लोग वाह करते कह उठेंगे- भाई वाह, क्या शौकीन आदमी है! रईस है रईस! तभी तो ये खानदानी ठाठ हैं। 
   और रईस भाई फूलकर कुप्पा कि उनकी तारीफ की जा रही है। गर्व के मारे लकड़ी जैसे अकड़ते हुए आगे निकल जायेंगे जनाब।
   ये शौक भी जनाब सिर्फ कपड़ों-लत्तों तक ही सीमित नहीं है। अच्छे कपड़ों का शौक, जूतों का शौक, खाने-पीने या खिलाने-पिलाने का शौक, मकान बनवाने का शौक और साहब पालतू जानवरों को और पालतू बनाने का शौक आदि आदि। अनेक लोग नई-नई सायकिल, स्कूटर और मोटरकार ही खरीदते-बेचते रहते हैं। मुद्रा का आदान-प्रदान भी होता रहता है और नए वाहनों में फर्राटे भरने का शौक भी उनका परवान चढ़ता रहता है।
   इन अनगिनत शौकों में आजकल जो शौक समाज को सबसे अधिक दबोच रहा है वह है पालतू पशुओं को पालने का शौक। पशु तो होते ही हैं पालने के लिए वरना जंगली न हो जाएं। वैसे भी जंगल अब कटते ही जा रहे हैं और उनकी जगह ले रही हैं शहरी कालोनियां और फैक्ट्रियां, तो फिर युगों-युगों से जंगलों में आबाद ये पशु-पक्षी भला जाएंगे कहां? घरों को ही जंगल बना देंगे ससुर। फिर आजकल की तहजीब में पशुपालन और पशु-पक्षी प्रेम को लोगों के साथ-साथ दुनियां भर की सरकारों का संरक्षण प्राप्त होता जा रहा है। अब यह बात और है कि इन संरक्षण में पलते-बढ़ते अनेक पशु-पक्षियों का असमय ही दम घुट जाए।
   जो भी हो, पशु प्रेम व उन्हें पालने का शौक पहले के जमाने में भी था और अब तो कहना ही क्या! पहले लोग कबूतर, तोते, बिल्लियां पालते थे। कुत्तों को तो पालो न पालो, हमेशा से ही जहां आदमी है, वहां ये महाशय भी पलेंगे ही। लेकिन आजकल कुत्ता, बिल्ली, तोते, कबूतर सभी अपने नए कलेवर और नए नामों जैसे टामी, पूसी, स्वीटी, मिट्ठू आदि की हैसियत से किसी भी शौकीन अमीरजादे के घर में आम गरीब आदमी से कहीं अधिक हैसियत पाते ही हैं। इनके अलावा भी पशु प्रेम के दायरे में अनेक भाग्यशाली पशुओं को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त हो गया है। इन अजीजों में शामिल हैं हिरन, खरगोश, मुर्गा और शेर खां साहब।
   जी हां जनाब, कुछ अति शौकीन और हिम्मत वाले शौकीन शेर यानी कि टाइगर को भी उनकी बाल्यावस्था से ही पालते-पोसते हैं और लोगों पर अपने इस साहसिक शौक का रौब मारते हैं। अब इस शौक में कुछ सतर्क तो रहना ही पड़ेगा। लेकिन भाई शौकीनों की भी दाद देनी पड़ेगी। शेर को ही पाल लेते हैं।
   अपने राम तो सर्कस के पिंजड़ों में बन्द या अजायबघरों में दहाड़ते शेरों के सामने ही पानी मांगने लगते हैं तो उन्हें पालने-पोषने की कल्पना करना ही मुहाल है। लेकिन दुनियां में एक से बढ़कर एक सूरमा पड़े हैं। जितने खतरनाक जानवर, उतने ही खतरनाक उनके पालक।
   हमारे बड़े मियां भी कुछ इसी उच्च कोटि के शौकीन श्रेणी में हैं। वैसे लगभग सभी पशु मसलन गाय, भैंस, घोड़े और हां हाथी भी सैकड़ों की संख्या में मिल-जुलकर पलते थे उनके यहां। लेकिन तभी उस खानदान में बड़े मियां का पदार्पण, मेरा मतलब आगमन हो गया।
   बड़े मियां जब नौजवान हुए तो अपने परिवार के पशु प्रेम को चरम सीमा पर पहुंचा दिया। किसी जंगल से एक शिकारी के 
माध्यम से एक शेर का प्यारा सा बच्चा मंगवा कर पाल लिया। क्या खूब सेवा करते थे बड़े मियां! हम कौतूहलवश उसके करीब पहुंचते तो उसकी एक ही हुंकार या चिंघाड़ से हमारी फूक सरक जाती थी। लेकिन बड़े मियां को इसमें अपार खुशी मिलती रही।
   धीरे-धीरे वह शेर का बच्चा जवान होने लगा। बलशाली इतना कि दस-पन्द्रह फीट लम्बी कुलांचे भरता रहता। लेकिन किसी को गुर्राने के अलावा और कोई नुकसान नहीं पहुंचाता था। बड़े मियां का इतना पालतू कि उनके साथ-साथ ही लगा रहता और जिधर बड़े मियां के साथ जाता तो डर के मारे मैदान साफ ही रहता। एक दिन बड़े मियां बैठे चबूतरे पर अपनी हजामत बनवा रहे थे। नाई बेचारा सहमा हुआ अपना काम कर रहा था क्योंकि बड़े मियां का पैर चाटता शेरा वहीं बैठा था। चाटते-चाटते बड़े मियां के पैर में खून निकल आया। जिसका स्वाद शेरा पा गया। अब था तो शेर का बच्चा! जब बड़े मियां का ध्यान बहते खून की ओर गया तो शेरा उनका पैर छोड़ ही नहीं रहा था। उन्होंने डांट लगाई तो शेरा ने आक्रमण करके उन्हें धराशाई कर दिया। एक अन्य हिम्मती मर्द ने जब शेरा को गोली मारी तब कहीं घायल हो गये बड़े मियां की जान बची। तब से बड़े मियां एक ही पैर से चलते हैं।



  • 554/93, पवनपुरी लेन 9, आलमबाग, लखनऊ-05 (उ.प्र.) 

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०५, जनवरी २०१२ 


।। संभावना।।  

सामग्री : रजनीश त्रिपाठी एवं उषा कालिया अपनी कविताओं के साथ 









रजनीश त्रिपाठी



यथार्थ

मेरे साथ बार-बार
ऐसा क्यों होता है?
जब भी रखती हूं कदम
ड्योढ़ी के बाहर
बाबूजी की हैरान आंखें
देखती हैं मेरी तरफ
जब कभी हंस देती हूं
खिल-खिलाकर,
भाई होते हैं
आपे से बाहर,
मां क्यों टोंकती है?
कदम-कदम पर
मेरे साथ ही बार-बार
ऐसा क्यों होता है?
कहीं मैं परहीन पक्षी तो नहीं,
जो जीवन पर्यन्त देखती है 
सपने 
आकाश में उड़ने के
पर उदास हो जाती है
  • द्वारा उमेश तिवारी,, शांडिल्य निवास, ग्राम-पत्रालय-नोनापार 
जिला-देवरिया, उ.प्र.



ऊषा कालिया


संस्कार

मानव के संस्कार
मां के दूध में
बच्चे को मिलते हैं!
फिर वह सीखता है
आस-पास से
समाज से 
जीवन के पल-पल
उसे तराशते हैं।
उस नए भाव-बोध से
भरने लगते हैं।

संस्कार हमें 
विरासत में मिलते हैं
कई इन्हें संभालकर रखते हैं
तो कुछ उन्हें भूल जाते हैं
वास्तव में वह 
अपनी जड़ों से 
कटकर रह जाते हैं!

  • घुग्गर नाले, चाणक्यपुरी, पालमपुर-176061, जिल-कांगड़ा (हि.प्र.) 

अविराम विस्तारित



अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०५, जनवरी २०१२ 


।।क्षणिकाएँ।।

सामग्री :  रचना श्रीवास्तवनित्यानन्द गायेन,  प्रदीप गर्ग ‘पराग’ एवं टी. सी. सावन की क्षणिकाएं।


रचना श्रीवास्तव




चार क्षणिकाएं
1.
तुम्हारे 
नम अक्षर 
मेरे अंदर उतरते गए 
और मरुस्थल में 
एक सोता बह निकला 
2.
अपनी अपनी मोहब्बत 
बाहों में भींचे 
पास आये 
पर 
न तुम बोले न मै बोली 
और इसी खामाशी से 
हम अलग हो गए 
3.
ठंड से जले हाथों में 
चिटके गलों को ढाँपे 
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति  
बर्फ के थपेड़ों से लड़ रही थी 
कि हवा का गर्म झोंका 
उसे पिता की गोद सी 
गुनगुनाहट दे गया 
वो जानती थी 
ये हवा आई है 
उसी गाँव से 
जहाँ गांठ लगे ऊन से 
बुन रही थी 
स्वेटर उस की माँ 
4.
मेरे अंदर 
जल रहा था 
जज्बात का दिया  ,
रिश्तों की ठंडक ने 
उसे जमा दिया 
सर्द सा  धुआं उठा 
मै स्वयं बर्फ बन गई 

  • 2715 Chattanooga, Loop, apt 104, Ardmore OK 73401
  • ई मेल : rach_anvi@yahoo.com




नित्यानन्द गायेन


चार क्षणिकाएं
('संकेत' से साभार )
1. प्रेम कविता
बहुत दिनों से
चाहत है मेरी
कि
लिखूं कुछ प्रेम कविताएं
तुम पर
किन्तु मजबूर हूं
मेरे देश में
ऐसा सोचने के लिए
रेखांकन : पारस दासोत 
समय नहीं सरकार!
2.
पसीने से तर है किसान
तप्त सूरज निर्दयी 
देख रहा 
कितना पानी बचा है जिस्म में इसके....
3.
गिर चुका पर्दा
रंग-मंच का
जा चुके दर्शक
किंतु
शेष है नाटक अभी!
4.
नाव खो चली पथ
तेज़ है नदी की धारा
थक चुका मांझी 
बेचारा
कैसे मिले किनारा?

  • 315, डोयेन्स कॉलोनी, शेरलिंगम पल्ली, हैदराबाद-500019, आन्ध्र प्रदेश





प्रदीप गर्ग ‘पराग’



दो क्षणिकाएँ
1.
कटते वृक्ष
घटते वन
संतुलित रहे कैसे
पर्यावरण
चिन्तातुर मन!


2.
शहीदों ने तो
परतन्त्रता की 
काट दी जंजीरें
खुले न बन्धन
जकड़े आज फिर हम
भ्रष्टाचार की
अनैतिकता की
स्वार्थ-ईर्ष्या की 
कड़ी जंजीरों में
  • 1785, सेक्टर-16, फरीदाबाद-121002 (हरियाणा)




टी. सी. सावन

दो क्षणिकाएँ

1. याद
याद आती,
दुःखाती
हृदय को
और फिर
बस याद 
रेखांकन : नरेश उदास 
बनकर ही 
रह जाती

2. अन्ना जी
कतरा-कतरा
इस शरीर का
हो गया आज
भ्रष्टाचारी
अकेले- तन्हा
राह में अन्ना जी
कैसे मिटाएँ
यह बीमारी!!
  • माइण्ड पॉवर स्पोकन इंग्लिश इन्स्टीट्यूट, भंजराडू,-176316, तह. चुराह, जिला- चम्बा (हि.प्र.)