आपका परिचय

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 1, अंक : 12, अगस्त 2012


।।कविता अनवरत।।


सामग्री :  इस अंक में श्री जितेन्द्र जौहर, प्रो. विनोद अश्क, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’, श्री अरविन्द कुमार वर्मा, श्री अक्षय गोजा, श्री प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, सुश्री सुमन शेखर, श्री जयसिंह आर्य ‘जय’ व श्री दिनेश कुमार छाजेड़ की कविताएँ।




जितेन्द्र ‘जौहर’

{चर्चित स्तम्भ ‘तीसरी आँख’ के स्तम्भकार, कवि-समीक्षक श्री जितेन्द्र जौहर जी एक बहुत अच्छे गीतकार भी हैं। विगत दिनों उनके ब्लाग ‘जौहरवाणी’ पर ‘हिन्द युग्म’ द्वारा पुरस्कृत उनके एक गीत पर दृष्टि पड़ी। ठेठ देहाती परिवेश के प्रतीकों के माध्यम से काफी हद तक  देश की व्यवस्था का हाल बयां कर रहा उनका यह गीत हम अपने पाठकों के लिए भी प्रस्तुत कर रहे हैं।}

रज्जो की चिट्ठी 


दिल के सब अरमान, हाय! फाँसी पर झूल गये।
पिया! शहर क्या गये,  गाँव का रस्ता भूल गये!
अरसा बीत गया, घर का न,  हाल लिया कोई।
चिट्ठी लिखी न अब तक, टेलीफोन किया कोई।
भूले से भी कभी डाकिया आया न द्वारे।
फोन के लिए मिसराइन से पूछ-पूछ हारे!
होली पे गुझिया को अबकी तरस गये बच्चे।
बिना तेल चूल्हे पे पापड़ भून लिये कच्चे!
फटा जाँघिया टाँक-टाँक कलुआ को पहनाया।
कई दिनों से घर में सब्ज़ी-साग नहीं आया!
कुल्फी वाला जब अपने टोले में आता है।
सबको खाते देख छुटन्कू लार गिराता है!

रेखांकन : बी. मोहन नेगी 
दलिया के लालच में कल ‘इस्कूल’ गया छुटुआ।
उमर नहीं थी पूरी सो,  ‘इडबीसन’  नहीं हुआ !
सही कहत बूढ़े-बुजुर्ग कि जहाँ जाए भूखा।
किस्मत का सब खेल, राम जी! वहीं पड़त सूखा।
एक रोज बोलीं मुझसे, जोगिन्दर की माईं।
‘ए रज्जो ! तोहरे पउवाँ में, बिछिया तक नाहीं!’
का बतलाऊँ..? मरे लाज के, बोल नहीं निकरा।
हमरे घर का हाल, गाँव अब जानत है सिगरा!
सुबह-शाम बापू की रह-रह, साँस उखड़ जाती।
फूटी कौड़ी नहीं दवाई जो मैं ले आती!
का लिखवाऊँ हाल, हाय रे... बूढ़ी मइया का ?
‘कम्पोडर’ का पर्चा, दो सौ तीस रुपैय्या का!

रोज-रोज की गीता आखिर किस-किससे गाएँ?
कर्ज माँगने किस-किसके दरवाजे पे जाएँ?
ठकुराइन पहले ही रोज, तगादा करती है।
कल बोली, ‘रज्जो.. तू झूठा वादा करती है!’
तू-तड़ाक-तौहीन झेलकर, बहुत बुरा लागा।
कर्ज-कथा ठकुराइन घर-घर सुना रही जा-जा।
इससे  ‘जादा’ और ‘बेजती’  क्या करवाओगे ?
अम्मा पूछ रहीं हैं, ‘लल्ला...घर कब आओगे?’
बापू को सूती की एक लँगोटी ले आना।
और सभी के लिए पेटभर रोटी ले आना!
मुन्नू चच्चा से कहकर ये चिट्ठी लिखवाई।
जल्दी से पहुँचइयो दिल्ली, ....हे दुर्गा माई !

  • आई आर-13/3, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) 231218.




प्रो. विनोद अश्क




{वरिष्ठ कवि एवं शाइर प्रो. विनोद अश्क जी का गत वर्ष प्रकाशित काव्य संग्रह ‘तेरी आवाज़’ से प्रस्तुत है एक गीत एवं एक ग़ज़ल।}

गीत

और चाहे जो सज़ा दे लो मगर
तुम हमें सौगन्ध मत देना कभी।

अनछुए शब्दों से निकले रूप को
आवरण के वस्त्र में रखना प्रिये!
सर्वव्यापी सार की गहराइयां
दर्पणों के सामने चखना प्रिये!
मनखगों को बींध देगा बाण से
पर कोई प्रतिबन्ध मत देना कभी।
और चाहे जो....

धर्म में लिपटी  कथायें  क्या  कहें
बस वही अच्छे  बुरे का  खेल  सी।
पर  तुम्हारी  याद से  उगती  नदी
पूज्य  जलधारों  का जैसे  मेल सी।
जब मिलो मिलना हृदय की आंख से
कांपते  संबंध  मत  देना  कभी।
और चाहे जो....

तुम कोई संगीत की अणिमा लहर
छू  ले  जैसे  भू भरे  आकास को।
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
तुम कि जैसे चिर-कुंआरी चेतना
गंध-पूरित कर रही मधुमास को।
मांग लेना जो भी मेरे पास हो 
अधपके अनुबंध मत देना कभी।
और चाहे जो....


ग़ज़ल

मेरे आंगन में ठहरी हुई है
रात गूंगी थी बहरी हुई है

बादलों को भटकना पड़ा है
तब ज़मीं ये सुनहरी हुई है

झील की वादियां जानती हैं
प्यास क्यूं और गहरी हुई है

आपके साथ सूरज  चला  है
आप  आए  दुपहरी  हुई  है

तेरी यादों की ताज़ा वो टहनी
धीरे-धीरे  छरहरी  हुई  है

चीड़ के  वन  सुलगने  लगे हैं
आग  लेकिन  इकहरी  हुई  है

  • नटराज विला, 418, गगन विहार, शामली-247776 (उ.प्र.)


                       


{गत वर्ष प्रकाशित युवा कवि शैलेष गुप्त ‘वीर’ के सम्पादन में बारह कवियों की नई कविता विधा की रचनाओं के संकलन ‘आर-पार’ से पाँच कवियों सर्वश्री शैलेष गुप्त ‘वीर’, अरविन्द कुमार वर्मा, अक्षय गोजा, प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, एवं वसीम अकरम की एक-एक कविता हम अविराम पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।}

शैलेष गुप्त ‘वीर’



भेड़िये के पाँव

सीरियल बम ब्लास्ट
शहर दर शहर.....
हो रहे हादसे रोज़-ब-रोज़
आदमी के खूनी पंजे
खोद रहे हैं इंसानियत की क़ब्र
तो भी इंसान बच निकलता है
पुनः क़ब्र में जाने के लिए।
ठेकेदार राजनीति की उपज हैं
या किसी असलहाधारी कुंठित मस्तिष्क की
घिनोनी साज़िश का शिकार
उनकी तेज़ नज़रें फिसलती हैं
बड़ी तेजी से ओर-छोर तक
और भेड़िये के पाँव.....?
तय कर लेते हैं
चौदह-पन्द्रह घंटों में
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल 
बंगलुरू से अहमदाबाद
के बीच का रास्ता....
फिर तलाश करते हैं
कोई अगला निशाना
झुंड/बस्ती उजाड़कर
चल देता है फिर
किसी -बस्ती को वीरान करने
मानवता कराह रही है
लेकिन ख़ामोश है/राजा गुलाम है
जकड़ा है राजनीति की बेड़ियों में
और ओढ़े है
धर्म-निरपेक्षता की मोटी खाल।

  • 24/18,  राधानगर,  फतेहपुर-212601 (उ.प्र.)


अरविन्द कुमार वर्मा





डर

डरता हूँ आग से
डरता हूँ अथाह जल से
डरता हूँ घने अन्धकार से
डरता हूँ चोटिल आत्मा की कराह से
डर-डर कर सहमे-सहमे ही
गुज़र जाता है वक्त
कभी-कभी डर अन्दर का
बन जाता है पहाड़
उस वक्त ख़ुद का अस्तित्व
लगने लगता है बौना
डर से सहम कर
बुत बन जाता हूँ निरपराध
डर से उदासीनता का भाव
आते ही
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
विचलित हो जाता है मन
देर तक सिसकियों के बाद
सांत्वना से भरता है
अन्दर का शून्य
धीरे-धीरे मुट्ठियों में
आती है ताक़त
आत्मबल और साहस
भाग जाता है डर अघोषित
निर्बाध धड़कने लगता है दिल
फिर से पुतलियों में
रेंगने लगते हैं सपने
निश्चिन्तता के।

  • 73-एम.एन. लाको कॉलोनी, नवाब युसुफ रोड, इलाहाबाद (उ.प्र.)



अक्षय गोजा



बेहतर

मैं समझ सकता हूँ,
इसलिए क्रुद्ध, हताश, भयग्रस्त
नहीं होता।
सब भोगा है मैंने
अब भी भोग रहा हूँ।

जानता हूँ-
यह होने के बाद वह होगा,
फिर ऐसे/और यों,
हाँ, इस तरह/हाँ-हाँ,
जैसे भविष्य-दर्शन की
शक्ति मिली हुई हो।
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 

तब कोई विकार या क्षोभ
कैसे आ सकता है मन में?
सुविधा रहती है
कि सहयोग, सहायता,
समर्थन दे सकूँ।
इससे फैलते हैं
क्लेश, द्वेष, विग्रह,
विवाद की बजाय
सामंजस्य, समरसता, शान्ति।
क्या इस तरह दुनियाँ
बेहतर नहीं होती?

  • चाँदपोल गेट के पास, जोधपुर-342001 (राजस्थान)



प्रवीण कुमार श्रीवास्तव






आख़िर कब तक

पैडल मारकर
सबको मंजिल तक पहुँचाने के बाद
क़स्बे से गाँव पहुँचने के लिए
शाम को रह जाते हैं
किराये के सिर्फ तीन रुपये
आटा, दाल, चावल
तौलाने के बाद/दिन गुजरते हैं
तीन पहियों पर लटककर।
फिर भी/जिन्दगी गुज़र रही है
एक पैर पर।
तीन साल पहले का
किराने का उधार
नहीं पट पाया अब तक
चंद बिस्वा पुश्तैनी खेत
गिरवी रहेंगे/न जाने कब तक
छुटकी जा पायेगी स्कूल
अबकी जुलाई?
बड़की की हो सकेगी
इस साल सगाई?
क्या? कब? कैसे?
सारे सवाल गड्ड-मड्ड
इस दस पैसे की बीड़ी में
बहुत दम है, वर्ना
चिंता मिटाने में
दिन भर का पसीना
और..../हिस्से में मिला
दो मुट्ठी भाग्य/बहुत कम है।

  • ग्राम-सनगाँव, पोस्ट-बहरामपुर, जिला- फतेहपुर (उ.प्र.)


वसीम अकरम





दर्द से कह दो

दर्द से कह दो
दबे पाँव न आये
हंगामा करे
ज़ख़्मों को कुरेदे
बग़ावत को उबालने के लिए
लहू को ज़िम्मेदारी सौंपे
दर्द से कह दो....

ग़म को चाशनी बनाकर
उसमें दिल को डाल दे
ताकि दिल
बेताब हो जाये
इन्कलाब के मुँह में जाकर
बग़ावत करने के लिए
इन्क़लाब लाने के लिए
दर्द से कह दो....

दर्द से कह दो
ज़ख़्मों को भरने न दे
बल्कि
उसके आँच पर
इन्क़लाब के सारे हथियार
सुर्ख़ होने तक तपाये
दर्द से कह दो.....
दबे पाँव न आये....।

  • 88 जी, पॉकेट-ए-2,  मयूर बिहार,  फेज-3, नयी दिल्ली-96



सुमन शेखर




{हिमाचल निवासी कवयित्री सुश्री सुमन शेखर का कविता संग्रह ‘कल्पतरु बन जाना तुम’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दो कविताएं।}

सड़क

उस पराये शहर के घर में
जो गुम हुई औरत
तो अब
ढूंढ़ने से भी नहीं मिलती है

पता चला
वह सड़क बन गयी है
सभी उस पर से
गुजर रहे हैं
अपनी मंजिल पाने को
रेखांकन :   सिद्धेश्वर 

वह केवल सड़क ही
बनी रह गयी है
उसकी कोई मंजिल नहीं है

सिल्वर ऑक कर रहा दीपयज्ञ

अप्रैल माह में
सिल्वर ऑक की
लम्बी
टहनियाँ पीले पुष्पों से
भर गयी हैं
लग रहा है
असंख्य दीप लड़ियाँ
एकाएक पेड़ के
सारे शरीर पर
चमक उठी हैं
सिल्वर ऑक
दीपयज्ञ कर रहा है
सबके हृदय में
शान्ति भर रहा है।

  • नजदीक पेट्रोल पम्प, ठाकुरद्वारा, पालमपुर-176102, जिला कांगड़ा (हि.प्र.)



जयसिंह आर्य ‘जय’




{कवि सम्मेलनों के मंच के चर्चित कवि जयसिंह आर्य ‘जय’ का ग़ज़ल संग्रह ‘आँधियों के दरमियां’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी दो ग़ज़लें}

दो ग़ज़लें


1.
आदमी ग़म का मारा कहाँ जाएगा
जो भी है बेसहारा कहाँ जाएगा

रात-भर लेटे-लेटे ये सोचा किया
नभ से टूटा सितारा कहाँ जाएगा

हम तो योगी नहीं दिल पे क़ाबू नहीं
क्या कहें दिल हमारा कहाँ जाएगा

छेड़कर दिल या आँखों के संसार को
हादसों का नज़ारा कहाँ जाएगा

साथ रहकर तुम्हारे ये मालूम है
‘जय’ तुम्हारा इशारा कहाँ जाएगा

2.
उनकी करतूत का है असर साथियो
भूख से मर रहे हैं बशर साथियो

मौत खींचेगी उतना ही अपनी तरफ़
काटे जाएँगे जितने शजर साथियो

वो परेशानियों से डरेगा भी क्यों
आया जीने का जिसको हुनर साथियो

मैं न काबा न काशी कभी जाऊँगा
माँ के चरणों में है मेरा सर साथियो

कुछ भी हालात उनका बिगाड़ेंगे क्या
जिनकी हालात पर है नज़र साथियो

  • एफ-12, कुँवर सिंह नगर, निलोठी मोड़, नागलोई, दिल्ली-110041



दिनेश कुमार छाजेड़


{गत वर्ष प्रकाशित कवि दिनेश कुमार छाजेड़ के कविता संग्रह ‘प्रतिबिम्ब’ से दो कविताएँ।}



भविष्य

जेठ की तपती दोपहरी में,
लू के गर्म थपेड़ों को सहती
प्लास्टिक की टूटी चप्पल पहने,
गर्म पिघले डामर को
सड़क-मिट्टी पर फैलाती,
पसीने से तरबतर अपने चेहरे को,
फटी साड़ी के पल्लू से पोछते हुए,
एक नजर ऊपर आकाश से,
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
आग बरसाते सूरज को देखती है वो,
और वहीं पास में बेर की झाड़ी के नीचे
गुदड़ी में लेटे हुए अपने
नन्हें मासूम को देखकर
वह सोचती है इसका भविष्य कैसा होगा?
क्या सड़क पर ही बड़ा होकर
अपने बाप के जैसे अनपढ़ मजदूर बनेगा।
और बच्चा अपनी बन्द मुट्ठियों को
जिसमें बन्द है उसका भविष्य
आकाश की ओर ताने मुस्कुराता है।
शायद सोचता होगा,
एक दिन दुनियां मेरी मुट्ठी में होगी।

मेरे शहर की नदी

मेरे शहर की नदी
सदानीरा
शांत गंभीर निर्मल,
वीरप्रसूता धरती के चरण पखारती
सदियों से नगरवासियों की प्यास बुझाने वाली
इसके तटों पर स्थित है
शिवाला, व्यायामशाला,
ईदगाह और बालाजी का धाम।
अक्सर नगरवासी करते थे जलक्रीड़ा
त्योहारों पर होता था दीपदान
मंगल गीतों के संग, होता कार्तिक स्नान।
साल दो साल में वर्षा काल में आता था
नदी में उफान।
वक्त के साथ-साथ आबादी का बोझ बढ़ने लगा
नदी पार शहर विस्तार लेने लगा।
कुछ मौसम की बेरुखी से
कुछ इन्सानों की करतूतों से
नदी में जलराशि कम होने लगी।
अब तो शहर की गन्दगी भी इसमें घुलने लगी
नदी अब दुर्गन्धयुक्त
पोखर में तब्दील हो गई।
अब चिन्ता है
नदी कहीं
गुमशुदा होकर
कागजों में ही न रह जाए।

  • ब्लॉक 63/395,  भारी पानी संयंत्र कॉलोनी,  रावतभाटा-323307 (राज.)

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 12,  अगस्त  2012  

।।कथा प्रवाह।।  


सामग्री :  इस अंक में सर्व श्री  (डॉ.)  बलराम अग्रवाल, श्री प्रताप सिंह सोढ़ी, श्री पारस दासोत, (डॉ.) पृथ्वीराज अरोड़ा,  (डॉ.)  अशोक भाटिया, श्री सुभाष नीरव,  (डॉ.)  रामनिवास ‘मानव’,  श्री श्यामसुन्दर अग्रवाल,  श्री सुरेश शर्मा,  श्री रामयतन यादव  की लघुकथाएं।


बुजुर्ग जीवन की लघुकथाएँ

{गत वर्ष वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुरेश शर्मा जी के सम्पादन में लघुकथा का महत्वपूर्ण संकलन ‘बुजुर्ग जीवन की लघुकथाएँ’ प्रकाशित हुआ था। देश भर के 77 प्रतिनिधि लघुकथाकारों की बुजुर्ग जीवन से सम्बन्धित लघुकथाएं एवं भूमिका के रूप में सुप्रसिद्ध लघुकथाकार एवं चिन्तक डॉ. बलराम अग्रवाल जी का लम्बा और महत्वपूर्ण आलेख ’समकालीन लघुकथा और बुजुर्गों की दुनियाँ’ इस संकलन में संकलित हैं, जिनमें अनेक लघुकथाएं बहुचर्चित एवं प्रभावशाली हैं। हम इस बार इसी संकलन से दस लघुकथाकारों की एक-एक लघुकथा पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। भविष्य में इस संकलन से कुछ और लघुकथाकारों की लघुकथाएँ भी किसी अंक में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। इन लघुकथाओं में सामयिक यथार्थ भी है और सकारात्मक दिशाबोद्ध भी।}

डॉ बलराम अग्रवाल




अज्ञात गमन

    चौराहे के घंटाघर से दो बजने की आवाज़ घनघनाती है। बन्द कोठरी में लिहाफ़ के बीच लिपटे दिवाकर आँखें खोलकर जैसे अँधेरे में ही सब कुछ देख लेना चाहते हैं- दो जवान बेटों में से एक, बड़ा, अपनी शादी के तुरन्त बाद ही बहू को लेकर नौकरी पर चला गया था। राजी-खुशी के दो-चार पत्रों के बाद तीसरे ही महीने- ‘‘पूज्य पिताजी, बाहर रहकर इतने वेतन में निर्वाह करना कितना मुश्किल है। इस पर भी पिछले माह वेतन मिला नहीं। हो सके तो, कुछ रुपये खर्चे के लिए भेज दें। अगले कुछ महीनों में धीरे-धीरे लौटा दूँगा....’’ लिखा पत्र मिला।
   रुपये तो दिवाकर क्या भेज पाते। बड़े की चतुराई भाँप उससे मदद की उम्मीद छोड़ बैठे। छोटा, उस समय कितना बिगड़ा था बड़े पर- ‘‘हद कर दी भैया ने, बीवी मिलते ही बाप को छोड़ बैठे।’’
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
    इस घटना के बाद एकदम बदल गया था वह। एक-दो ट्यूशन के जरिए अपना जेब खर्च उसने खुद सँभाल लिया था और आवारगी छोड़ आश्चर्यजनक रूप से पढ़ाई में जुट गया था। प्रभावित होकर मकान गिरवी रखकर भी दिवाकर ने उसे उच्च शिक्षा दिलाई और सौभाग्यवश ब्रिटेन के एक कॉलेज में वह प्राध्यापक नियुक्त हो गया। वहाँ पहुँचकर वह अपनी राजी-खुशी और ऐशो-आराम की ख़बर से लेकर दिवाकर के ‘ससुर’ और फिर ‘दादाजी’ बन जाने तक की हर ख़बर भेजता रहा है। लेकिन वह, यहाँ भारत में, क्या खा-पीकर जिन्दा हैं- छोटे ने कभी नहीं पूछा।
    .....कल सुबह, जब गिरवी रखे इस मकान से वह बेदख़ल कर दिए जाएँगे- घने अंधकार में डबडबाई आँखें खोले दिवाकर कठोरतापूर्वक सोचते हैं....अपने बेटों के पास दो पत्र लिखेंगे....यह कि अपने मकान से बेदखल हो जाने और उसके बाद कोई निश्चित पता-ठिकाना न होने के कारण आगे से उनके पत्रों को वह प्राप्त नहीं कर पाएँगे।

  • एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली



प्रताप सिंह सोढ़ी






तस्वीर बदल गई

    ड्राइंग रूम में दीवार घड़ी के पास ही स्व. पिताजी की तस्वीर पिछले दस वर्षों से टंगी थी। आते-जाते घड़ी देखते समय सुदर्शन पिताजी के दर्शन भी कर लेता था।
    आज उसकी पुत्रवधू ने दीवारों के जाले साफ करते समय पिताजी की फोटो फर्श पर गिरा दी। तस्वीर में लगे काँच के टुकड़े इधर-उधर बिखर गए। काँच के टुकड़े समेट फेंकने से पूर्व उसकी पुत्रवधू बोली, ‘‘सॉरी पापा।’’
रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव 
     सुदर्शन को लगा काँच के टुकड़े उसके भीतर धँस गए हैं। सुदर्शन ने कुछ नहीं कहा। सोचा ऑफिस से लौटने के बाद पिताजी की तस्वीर में नया काँच लगा दूँगा।
    संध्या समय जब वह ऑफिस से लौटा तो ड्राइंग रूम में प्रवेश करते ही उसकी नज़र दीवार घड़ी के पास टंगी तस्वीर पर पड़ी। उसे प्रशन्नता हुई कि जो काम उसे करना था, उसे उसके पुत्र ने कर दिया। पास आकर जब गौर से उसने देखा तो स्तब्ध रह गया। पिताजी की तस्वीर की जगह उसके पुत्र एवं पुत्रवधू की तस्वीर फ्रेम में जड़ी थी। फ्रेम वही थी, लेकिन तस्वीर बदल गई थी।

  • 5, सुख-शान्ति नगर, बिचौली हप्सी रोड, इन्दौर-452016 (म.प्र.)



पारस दासोत








एक मूवी का ‘द एण्ड’
    
       अपने बंगले के हॉल में बैठे,....
      वे दोनों पति-पत्नी एक मूवी का आनन्द ले रहे थे। पास ही बरामदे में पड़ी बीमार वृद्ध माँ- ‘‘बेटा!...ओऽऽ....बेटा!’’ पुकारती....कराह रही थी। शायद उनको हार्ट-अटैक आया था।
     ‘‘बस..... थोड़ी ही देर में मूवी का एण्ड होने वाला है। हम इसका एण्ड तो देख लें!’’- बेटा अपनी माँ की पुकार सुन झल्लाया। वे अभी मूवी के एण्ड की ओर बढ़ रहे थे कि माँ घसिटती-घसिटाती टी.वी. के सामने पहुँच....देवलोक को प्राप्त हो गई।

  • प्लाट नं.129, गली नं.9 (बी), मोती नगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-21



डॉ. पृथ्वीराज अरोड़ा





बुनियाद

       उसे दुःख हुआ कि पढ़ी-लिखी समझदार पुत्रवधू ने झूठ बोला था। वह सोचता रहा- क्यों झूठ बोला था उसने? क्या विवशता थी, जो उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा?
      उसने पुत्रवधू को कुर्सी पर बैठने के लिए इंगित किया। वह बैठ गई। उसने कहा- ‘‘तुमसे एक बात पूछनी थी?’’
     ‘‘पूछिए पापा।’’
     ‘‘झिझकना नहीं।’’
     ‘‘पहले कभी झिझकी हूँ। आपने मुझे पूरे अधिकार दे रखे हैं, बेटी से भी बढ़कर।’’
     ‘‘थोड़ी देर पहले तुमने झूठ क्यों बोला? मुझे तो अभी नाश्ता करना है। तुमने मेरे नाश्ता कर लेने की बात कैसे कही?’’ उसने बिना कोई भूमिका बाँधे पूछा।
रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव
     उसका झूठ पकड़ा गया है, उसने अपना सिर झुका लिया। फिर गंभीर-सी बोली, ‘‘पापा, हम बेटियाँ झूठ बोलने के लिए अभिशप्त हैं। माएँ भी, गृहस्थी में दरार न पड़े, हमें ऐसी ही सीख देती हैं।’’ वह थोड़ी रुकी। भूत को दोहराया, ‘‘भाई के लिए नाश्ता बनाने में देर हो रही है, वह नाराज न हो, कोई बहाना बना डालो। पापा का कोई काम वक़्त पर न हो पाया हो तो झूठ का सहारा लो। आज भी ऐसा ही हुआ। नाश्ता बनाने में देर हो रही थी। इनके ऑफिस का वक़्त हो गया था। वह नाराज होने को थे कि मैंने आपको नाश्ता करवा देने की बात कह डाली। आपका जिक्र करते ही, वह चुप हो गये। और किसी कलह को नहीं होने दिया।’’ उसने निगाह उठाकर ससुर को देखा और कहा, ‘‘और क्या करती पापा?’’
    ससुर मुस्कराए। उसके सिर पर हाथ फेराकर बोले- ‘‘अच्छा किया। जा, मेरे लिए नाश्ता ला। बहुत भूख लगी है।’’
     वह किंचित मुस्काई, ‘‘अभी लाई।’’
     पुत्रवधू नाश्ता लेने चली गई। ससुर ने एक दीर्घ उच्छ्वास लिया।

  • 1587, सेक्टर-7, करनाल (हरियाणा)



डॉ. अशोक भाटिया







अन्तिम कथा
       
        रोज की तरह दोनों बच्चे कह रहे थे- दादाजी, इतनी देर हो गयी है। अब जल्दी कहानी सुनाओ।
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
       दादा कहानी कहने लगे- एक राजा था- शिवि। वह बड़ा भला करने वाला था। एक दिन की बात है, वह आँगन में बैठा आराम कर रहा था। अचानक एक कबूतर तड़पता हुआ उसकी गोद में आ गिरा। पीछे-पीछे एक बाज भी आ गया। उसने कहा कि यह कबूतर मेरा शिकार है- इस पर मेरा हक है। राजा ने कहा कि- यह मेरी शरण में आया है- इसे नहीं दे सकता। तब बाज ने कहा कि- इस जितना मांस मुझे दे दो। राजा अपना मांस काटकर तौलने लगे।  बहुत काटने पर भी जब मांस बराबर नहीं हुआ तो राजा खुद ही तराजू पर बैठने लगे। तभी भगवान परगट हुए और बोले....
       बच्चों का मजा किरकिरा होने लगा था। एक बोला- ‘‘लेकिन दादाजी, आपके पास तो इतना मांस लगा है। क्या आपने कभी किसी कबूतर की जान नहीं बचायी?’’
      दादा ने दूसरे पोते की तरफ देखा।
     दूसरे ने कहा- ‘‘दादाजी, हमें तो भर-पेट रोटी भी नहीं मिलती। हमारी बाँहों पर मांस नहीं है। हम बड़े होकर  किसी कबूतर की जान कैसे बचाएँगे?’’
      दादा आकाश को देखने लगे थे। दोनों बच्चे उठकर जो गए तो आज तक उनसे कहानी सुनने नहीं आए।

  • 1882, सेक्टर-13, अरबन स्टेट, करनाल-132001 (हरियाणा)


सुभाष नीरव




सहयात्री

    बस रुकी तो एक बूढ़ी बस में चढ़ी। सीट खाली न पाकर वह आगे ही खड़ी हो गयी। बस झटके के साथ चली तो वह लड़खड़ाकर गिर पड़ी। सीटों पर बैठे लोगों ने उसे गिरते हुए देखा। जब तक कोई उठकर उसे उठाता, वह उठी और पास की एक सीट को कसकर पकड़कर खड़ी हो गई।
    जिस सीट के पास वह खड़ी थी, उस पर बैठे पुरुष ने उसे बस में चढ़ते, अपने पास खड़ा होते और गिरते देखा था। लेकिन अन्य बैठी सवारियों की भांति वह भी चुप्पी साधे बैठा रहा।
    अब बूढ़ी मन ही मन बड़बड़ा रही थी, ‘‘कैसा जमाना आ गया है! बूढ़े लोगों पर भी लोग तरस नहीं खाते। इसे देखो, कैसे पसरकर बैठा है। शर्म नहीं आती, एक बूढ़ी-लाचार औरत पास में खड़ी है, लेकिन मजाल है कि कह दे, आओ माताजी, यहाँ बैठ जाओ....।’’
    तभी, उसके मन ने कहा, ‘‘क्यों कुढ़ रही है?....क्या मालूम यह बीमार हो? अपाहिज हो? इसका सीट पर बैठना ज़रूरी हो।’’ इतना सोचते ही वह अपनी तकलीफ़ भूल गई। लेकिन, मन था कि वह कुछ देर बाद फिर कुढ़ने लगी, ‘‘क्या बस में बैठी सभी सवारियाँ बीमार-अपाहिज हैं?....दया-तरस नाम की तो कोई चीज़ रही ही नहीं।’’
    इधर जब से वह बूढ़ी बस में चढ़ी थी, पास में बैठे पुरुष के अन्दर भी घमासान मचा हुआ था। बूढ़ी पर उसे दया आ रही थी। वह उसे सीट देने की सोच रहा था, पर मन था कि वहाँ से दूसरी ही आवाज निकलती, ‘‘क्यों उठ जाऊँ? सीट पाने के लिए तो वह एक स्टॉप पीछे से बस में चढ़ा है। सफ़र भी कोई छोटा नहीं है। पूरा सफ़र खड़े होकर यात्रा करना कितना कष्टप्रद है। और फिर, दूसरे भी तो देख रहे हैं, वे क्यों नहीं इस बूढ़ी को सीट दे देते?’’
    इधर, बूढ़ी की कुढ़न जारी थी और उधर पुरुष के भीतर का द्वन्द्व। उसके लिए सीट पर बैठना कठिन हो रहा था। ‘‘क्या पता बेचारी बीमार हो?...शरीर में तो जान ही दिखाई नहीं देती। हड्डियों का पिंजर। न जाने कहाँ तक जाना है बेचारी को! तो क्या हुआ?...न, न! तुझे सीट से उठने की कोई ज़रूरत नहीं।’’
    ‘‘माताजी, आप बैठो।’’ आखिर वह उठ ही खड़ा हुआ। बूढ़ी ने पहले कुछ सोचा, फिर सीट पर सिकुड़कर बैठते हुए बोली, ‘‘तू भी आ जा पुत्तर, बैठ जा मेरे संग। थक जाएगा खड़े-खड़े।’’

  • 372, टाइप-4, लक्ष्मीबाई नगर, नई दिल्ली-110023




डॉ. रामनिवास ‘मानव’




दर्द-बोध
    मन में उनकी बुजुर्गी के प्रति पूरा सम्मान और सहानुभूति होने के बावजूद, अन्य परिजनों की भाँति, मैं भी उनसे तंग आ गया हूँ। वह सुबह-शाम ही हमारे घर आएँ तो कोई बात नहीं, लेकिन वह तो टी.वी. पर फ़िल्म या चित्रहार शुरू होता है, तो भी आ बैठते हैं। उनकी इन कार्यक्रमों में कोई रुचि नहीं है, अतः इधर-उधर की चर्चा शुरू कर देते हैं। व्यवधान के कारण हमारा खीझ और झुंझलाहट से भर उठना स्वाभाविक है। अतः मैंने मन-ही-मन निर्णय कर लिया कि आज वह आएँगे, तो तरीके से उन्हें ऐसे मौकों पर आने से मना कर दूँगा।
    आज सुबह भी वह नियमित रूप से, निश्चित समय पर आए, लेकिन हमेशा के विपरीत उदास थे। अतः मेरे मन का भाव होठों तक आते-आते शिष्टाचार में बदल गया- ‘‘आज तो आप कुछ परेशान-से दिख रहे हैं। घर-परिवार में सब ठीक तो है?‘‘
    ‘‘रिटायरमेन्ट के बाद आदमी का जीवन भी कुछ नहीं है डॉ. शर्मा!’’ उनके दिल का दर्द छलक उठा था- ‘‘घर में रहो, ते बहू-बच्चों को परेशानी होती है और किसी के यहाँ जाओ, तो उन्हें। व्यर्थ में सारा दिन सड़कों पर भी घूमा नहीं जाता।’’
    ‘‘बात तो ठीक है आपकी, लेकिन दूसरों की भी अपनी रुचियाँ और मज़बूरियाँ होती हैं।’’ मैंने कहा।
    ‘‘इसीलिए सबके पास नहीं जाया जाता। दूसरे के दर्द को सब कहाँ समझ पाते हैं। एक आप से दिल से बातें कर लेता हूँ, सो चला आता हूँ। वरना आप भी बहुत व्यस्त आदमी हैं, आपको भी क्यों डिस्टर्ब किया जाए।’’
    ‘‘नहीं-नहीं, ऐसा क्यों सोचते हैं आप!’’ मैं पूर्व निर्णय का स्मरण आते ही, अपराध-बोध से भर गया था।- ‘‘यह आपका ही घर है, जब दिल करे, आ जाया करें, हमें कोई तकलीफ़ नहीं है।’’

  • 706, सेक्टर-13, हिसार-125005 (हरियाणा)



श्यामसुन्दर अग्रवाल






बेटी का हिस्सा
    
      उनके दोनों बेटों को ज़मीन-ज़ायदाद का बँटवारा करने में अधिक समय नहीं लगा। लेकिन वृद्ध माता-पिता का बँटवारा नहीं हो पा रहा था। कोई भी बेटा दोनों को अपने पास रखने को तैयार न था। दोनों बेटे चाहते थे कि एक भाई माँ को रखे, दूसरा पिता को। पिता का स्वास्थ्य अभी कुछ ठीक था, इसलिए उसे पास रखने को दोनों तैयार थे। बीमार माँ को कोई भी नहीं रखना चाहता था। पाँच-छः सौ रुपये महीने का तो उसकी दवा का खर्च ही था। बड़ा उसे इस शर्त पर रखने को तैयार था कि बदले में छोटा उसे पचास हजार रुपये दे।
    दो दिन तक कोई फैसला नहीं हो पाया। माता-पिता भी बुढ़ापे में एक-दूसरे से अलग नहीं होना चाहते थे। तीसरे दिन उनकी विधवा बेटी आई। बहन को आई देख दोनों भाई स्तब्ध रह गए।
    ‘‘आज अचानक कैसे आना हुआ बहन?’’ बड़े ने पूछा।
    ‘‘अपना हिस्सा लेने आई हूँ।’’
    ‘‘तेरे लिए तो जीजा जी इतना छोड़ गए हैं कि सात जन्म....’’ छोटा बोला।
    ‘‘वही कुछ लेने आई हूँ जो तुम्हारे जीजा जी नहीं छोड़ गए।’’
    और विधवा बेटी अपने हिस्से के रूप में वृद्ध माता-पिता को अपने साथ ले गई।

  • 575, गली नं.5, प्रतापनगर, पो.बा. नं. 44, कोटकपूरा-151204, पंजाब



सुरेश शर्मा








पित्र-प्रेम

    बेटे ने उनको साबुन से नहलाया। कपड़े बदले। पुत्र-बधू ने नाश्ते में हलुआ-दूध दिया, तो उनकी समझ में आ गया कि आज पेंशन मिलने का दिन है। हृष्ट-पुष्ट युवा पुत्र उनको गोद में उठाकर पेंशन खिड़की तक ले गया। पत्रक पर उनके नाम के सामने काँपता हाथ पकड़कर अँगूठा-निशान लगवाया। फिर नोट गिनकर प्रसन्न मुद्रा में जेब में रखते हुए पुत्र ने रिक्शे वाले से कहा, ‘‘पिताजी को आराम से घर छोड़ देना।’’
    ‘‘सुखी रहो बेटा! आज के जमाने में कौन बेटा, बूढ़े बाप का इतना ख्याल रखता है।’’ बढ़े ने आशीर्वाद दिया और बेटे ने काँपता शरीर रिक्शे में पटक दिया।

  • 235,  क्लर्क कॉलोनी,  इन्दौर-452011, म.प्र.



रामयतन यादव




चिट्ठी

   बेटे-बहू के आगमन से माँ-बाप की आँखों में एक अजीब किस्म की खुशी चमकने लगी थी। आँखों में चमक पैदा होने की ठोस वजह थी, काफ़ी इन्तज़ार कराने के बाद बेटा अपनी पत्नी को साथ लेकर आज अचानक घर आया था। लेकिन यह क्या कि सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने जैसी स्थ्तिि पैदा हो गई। बेटा अभी तनिक सुस्ताया भी नहीं और खुशी से फूले न समा रही माँ के ऊपर ओले की तरह बरस पड़ा।
    बोला, ‘‘माँ बुढ़ापे में पिताजी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है क्या?’’ बूढ़ी माँ को काटो तो खून नहीं। उसने घोर अचरज से बेटे-बहू को देखा, फिर बोली, ‘‘क्या बात हुई बेटा....अभी तो तू आया है, थोड़ा आराम कर ले....।’’
    ‘‘वो....वो तो ठीक है माँ....लेकिन पिताजी को पत्र लिखने की क्या जरूरत थी....मैं मरा तो नहीं जा रहा था।’’
    ‘‘माँ की आँखों में बादलों की तरह तैरता आश्चर्य और गहरा उठा। बोली, ‘‘क्या एक बाप अपने बेटे को चिट्ठी नहीं लिख सकता...!’’
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
    ‘‘लिख सकता है माँ, लेकिन....!’’
    ‘‘इसमें लेकिन-वेकिन क्या बेटा....?’’
    ‘‘माँ तुम नहीं समझोगी....वो चिट्ठी मेरे साहब के हाथ पड़ गई।’’
    ‘‘तो क्या हुआ?’’ माँ बोली- ‘‘क्या तेरे साहब को उनके पिता याद नहीं करते होंगे?’’
    ‘‘दरअसल बात यह है माँ....’’ बेटा झुंझलाया, ‘‘तुम नहीं समझोगी कि उस चिट्ठी की वजह से ऑफिस में मेरी कितनी फ़जीहत हुई।’’
    माँ की आँखों में आश्चर्य के भाव कुछ और गहरा गए। उसने उत्सुकता से बेटे और बहू को देखा। तब बहू ने स्थिति स्पष्ट की- ‘‘माँ जी, बात यह है कि पिछले वर्ष गरमी में पिताजी की मृत्यु के बहाने हम लोगों ने एक महीने की छुट्टी ली थी और नैनीताल घूमने चले गए थे।’’
    ‘‘लेकिन पिताजी की चिट्ठी पढ़कर साहब ने मुझे बुरी तरह लताड़ा और एक महीने की पगार भी काट लिया।’’ बेटे ने अपनी बात पूरी की और सहानुभूति पाने के लिए माँ की आँखों में झाँका।
    लेकिन माँ की वीरान और पथराई आँखें शून्य में टंगी थीं।

  • ग्राम-मकसूदपुर, पोस्ट-फतुहा, जिला-पटना- 803201 (बिहार)

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 11,  जुलाई  2012  

।।क्षणिकाएँ।।


सामग्री :  इस अंक में डॉ. अनीता कपूर की क्षणिकाएं।


डॉ. अनीता कपूर


{प्रवासी कवयित्री डॉ. अनीता कपूर जी का काव्य संग्रह ‘साँसों के हस्ताक्षर’ भारत में हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उनके इस संग्रह में छन्दमुक्त कविताओं के मध्य कई लघुकाय कविताएँ ऐसी हैं, जिन्हें क्षणिका की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। इन्हीं क्षणिकाओं में से कुछ रचनाएँ हम इस बार प्रस्तुत कर रहे हैं।}



अलाव

तुमसे अलग होकर
घर लौटने तक
मन के अलाव पर
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
आज फिर एक नयी कविता पकी है
अकेलेपन की आँच से

समझ नहीं पाती
तुमसे तुम्हारे लिए मिलूँ
या एक और
नयी कविता के लिए?

अलसायी सुबह

खुद सुबह सर्दी से ठिठुरती
अलसायी-अलसायी
पिछवाड़े की झाड़ियों में अटकी हुई
कोहरे की चादर में मुँह छिपा
इतनी सिकुड़ गयी है
घबराकर, बाहर आकर
चाय की चुस्की लेने से भी
डर गयी है।

बोंज़ाई

रोज़ चाँद
रात की चौकीदारी में
सितारों की फसल बोता है
पर चाँद को सिर्फ बोंज़ाई पसंद है
तभी तो वो सितारों को
बड़ा ही नहीं होने देता है।

रिश्ता

तुम्हारे साथ
मुझे
एक महज रिश्ता
एक सहज सम्बन्ध
और अपेक्षा भी थी
पर,
एक उफनते पुरुष की नहीं
एक सही साथी की
जो मेरे साथ सुस्ता सके
और सहला सके
मेरे कमजोर
क्षण।

पिघला चाँद


छाया चित्र : उमेश महादोषी 
चाँद रात भर पिघलता रहा
पिघला चाँद टपकता रहा
मैं हथेलियाँ फैलाये बैठी रही
कोई बूँद बन तुम शायद गिरो।

गिलौरी

रात के मखमली गद्दों पर
चाँदनी के घुँघुँरू बाँधे
इठलाती  रक्कासा सी हवाएँ
बनाकर चाँद को तश्तरी
सजाये
आसमानी वर्क लिपटी गिलौरी।

दरवाजा

चाँद का गोटा लगा
किरणों वाली साड़ी पहने
सजी सँवरी रात ने
बंद कर दिया
दरवाज़ा आसमान का।

ताजमहल

ताजमहल
है,
रिश्ता यूँ जोड़ता
चूमता माथा
भटकती कहानी का
इश्क भरे होठों से।


टँगी आँखें

मैं, तू
वीरान खामोशी
सूखे पत्ते
फिर एक
इतिहास
लेकिन
मेरी आँखें
ईसा सी रक्त-रंजित
तुम्हारे लिए
टँगी हैं आज भी
आसमान की सलीब पर।


वक्त का अकबर

नहीं सुन पाती अब
तेरी खामोशियों की दीवारों पर
लिखे शब्द
चुनवा दिया है
मेरे अहसासों को
वक्त के अकबर ने
नज़रों की ईंटों से
और मैं
एक और अनारकली
बन गयी हूँ।


  • फ्रीमोन्ट, सी ए 94539, यू एस ए (Fremont, CA 94539  USA)
ई मेल : anitakapoor.us@gmail.com
            kapooranita13@hotmail.com

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 1,  अंक : 12,  अगस्त 2012  

।।हाइकु।।

सामग्री :  डॉ मिथिलेश दीक्षित, डॉ रमाकान्त श्रीवास्तव, डॉ. गोपाल बाबू शर्मा, डॉ. जेन्नी शबनम, रेखा रोहतगी, डॉ. रमा द्विवेदी, डॉ. पूर्णिमा वर्मन, डॉ. उर्मिला अग्रवाल, सुदर्शन रत्नाकर, प्रियंका गुप्ता, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’ के हाइकु।


{अविराम के हाइकु विशेषांक (जून 2011 अंक) के लिए अतिथि संपादक श्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी द्वारा चयनित हाइकुओं में से स्थानाभाव में छूट गये हाइकुओं के प्रकाशन की तीसरी किश्त में प्रस्तुत हैं ग्यारह और कवियों के हाइकु।}


डॉ मिथिलेश दीक्षित








1.
बेले का फूल
पत्ते की चुटकी से
क्यों गया फूल
2.
माँ का आँचल
रेखांकन : नरेश उदास 
शीतल-सुरभित
मलयानिल!
3.
नहीं समता
सभी गुणों से ऊँची
माँ की ममता
4.
मेरा सपना-
बच्चे न माने उसे
बोझ अपना।


  • 699, सरस्वती नगर, फ़ीरोज़ाबाद-205135, उ.प्र.


डॉ रमाकान्त श्रीवास्तव








1.
आये कोकिल
धुन वंशी की गूँजे
बौर महकें।
2.
सूनी वीथी में
शेफाली बन झरी
हँसी वन की।
3.
रखांकन : महावीर रंवाल्टा 
गीत न होते
मीत न होते, हम
साँसे ही ढोते।
4.
कोई रोया है
चाँदनी रात भर
ओस के आँसू।


  • एल 6/96, सेक्टर एल, अलीगंज, लखनऊ-226004


डॉ. गोपाल बाबू शर्मा








1.
कंगूरे हँसे
पत्थर कब दिखे
नींव में धँसे
2.
रेतीले टीले
दिखते बड़े ऊँचे
कितने दिन?
3.
न हों सवार
काग़ज़ की कश्तियाँ
डूबना तय
4.
जीना ज़रूरी
हो जाओ नीलकण्ठ
ज़हर पियो


  • 46, गोपाल विहार कॉलोनी, देवरी रोड, आगरा-282001(उ.प्र.)



डॉ. जेन्नी शबनम








1.
ज्यों तुम आए
जी उठी मैं फिर से
अब न जाओ.
2.
रूठ हीं गई
फुदकती गौरैया
बगिया सूनी.
3.
छाया चित्र : रोहित कम्बोज 
जायेगी कहाँ
चहकती चिड़िया
उजड़ा बाग़.
4.
पेड़ की छाँव
पथिक का विश्राम
अब हुई कथा.


  • द्वारा राजेश कुमार श्रीवास्तव, द्वितीय तल, 5/7 सर्वप्रिय विहार नई दिल्ली -110016


रेखा रोहतगी









1.
बेटी बाहर
गुज़ारे आधी रात
सोया न जाए
2.
सपना देखूँ
अपनों के प्यार का
फिर कलपूँ
3.
है बरसात
बाहर-भीतर है
पानी ही पानी
4.
शब्द है सीपी
जिसमें मिलता है
भाव का मोती


  • बी-801, आशियाना अपार्टमेण्ट,  मयूर विहार फेज़-1, दिल्ली-110091


डॉ. रमा द्विवेदी








1.
धूप उतरी
आँख मिचौली खेल
मुँडेर चढ़ी।
2.रात बिताई
घड़ियाँ गिन-गिन
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
बीते न दिन।
3.
सिमटा जल
क्षीण हुईं नदियाँ
करें रुदन।
4.
सुलगे दिन
रूठ गई क्यों नींद
पूछे दो नैना।


  • फ़्लैट नं.102, इम्पीरिअल मनोर अपार्टमेंट, बेगमपेट, हैदराबाद -500016(आं. प्र.)


डॉ. पूर्णिमा वर्मन








1.
बिन बारिश
दिन भर झरते
सारे झरने
2.
रेत के खेल
टीलों पर दौड़ती
तेज़ गाड़ियाँ
3.
आँगन तक
छम-छम दोपहरी
नीम पायलें
4.
चिड़िया प्यासी
घर की छत पर
जमी उदासी


  • पो बॉक्स 25450, शारजाह ,यू ए ई,  ईमेल- abhi_vyakti@hotmail-com



डॉ. उर्मिला अग्रवाल








1.
दीपक-बाती
संग जली दीप के
नेह बिना भी।
2.
धूप सेंकती
गठियाए घुटने
वृद्धा सर्दी के।
3.
नम आँखों से
जब निहारे कोई
सिहरे मन।
4.
पहला प्यार
तपती धरा पर
पहली बूँद।


  • 16, शिवपुरी, मेरठ-250001, उ.प्र.



सुदर्शन रत्नाकर








1.
सरसों खिली
खिलखिलाई धरा
आया वसन्त।
2.
वसन्त आया
छाया चित्र : अभिशक्ति 
मन है भरमाया
बदली काया।
3.
वर्षा की बूंदें
भिगो देती हैं तन
लुभाती मन।
4.
फुनगी पर
चिड़िया है चहकी
ज्यों मेरा मन।


  • ई-29, नेहरू ग्राउण्ड, फ़रीदाबाद-121001, हरि.



प्रियंका गुप्ता







1.
डरता मन
आने वाले कल से
जो आज आया।
2.
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
मुट्ठी में रेत
ठहरती नहीं है
वक़्त के जैसे।
3.
चंचल मन
उड़ता फिरता है
मानो पतंग।
4.
बेटे की आस
प्रेम को तरसती
बेटी उदास।


  • एम आई जी-292, आ. वि. यो. संख्या-एक,  कल्याणपुर,  कानपुर-208017 (उ.प्र) 


राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’







1.
लू की  मार  से
तन हो गया लाल
मन बेहाल


2.
गर्मी  बढ़ी जो
रेखांकन : उमेश महादोषी 
फैल गया सन्नाटा
कर्फ्यू के जैसा

3. 
लू के थपेड़े -
श्रमिकों की पीठ पे
पड़ते कोड़े
4.
लोग बेहाल
हँसे गुलमोहर
फूले हैं लाल


  • 33, निराला नगर,  निकट हनुमान मन्दिर,  रायबरेली-229001 (उ.प्र.)