आपका परिचय

रविवार, 30 सितंबर 2012

कुछ और महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ/डॉ. उमेश महादोषी

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2,  अंक   : 1,   सितम्बर 2012  


{अविराम के ब्लाग के इस  स्तम्भ में अब तक हमने क्रमश:  'असिक्नी', 'प्रेरणा (समकालीन लेखन के लिए)', कथा संसार, संकेत, समकालीन अभिव्यक्ति,  हम सब साथ साथ, आरोह अवरोह , लघुकथा अभिव्यक्ति, हरिगंधा,  मोमदीप, सरस्वती सुमन, 'एक और अंतरीप' एवं 'दीवान मेरा'  साहित्यिक पत्रिकाओं का परिचय करवाया था।  इस  अंक में  हम तीन और  पत्रिकाओं  ‘अभिनव प्रयास, 'शब्द प्रवाह' एवं 'कथा सागर'  पर अपनी परिचयात्मक टिप्पणी दे रहे हैं।  जैसे-जैसे सम्भव होगा हम अन्य  लघु-पत्रिकाओं, जिनके  कम से कम दो अंक हमें पढ़ने को मिल चुके होंगे, का परिचय पाठकों से करवायेंगे। पाठकों से अनुरोध है इन पत्रिकाओं को मंगवाकर पढें और पारस्परिक सहयोग करें। पत्रिकाओं को स्तरीय रचनाएँ ही भेजें,  इससे पत्रिकाओं का स्तर तो बढ़ता ही है, रचनाकारों के रूप में आपका अपना सकारात्मक प्रभाव भी पाठकों पर पड़ता है। हम सबको समझना चाहिए की हमारी पहचान हमारी रचनाओं और कम के स्तर होती है।- उमेश महादोषी}


एक अभिनव पत्रिका : ‘अभिनव प्रयास’ 


   

         ‘अभिनव प्रयास’ के पिछले दो अंक अप्रैल-जून 2012 एवं जुलाई-सितम्बर 2012 अंक पढ़ने का अवसर मिला है। निःसंदेह अशोक अंजुम जी का यह प्रयास ‘अभिनव’ है। सामग्री तो स्तरीय है ही, रूपाकार, मुद्रण, प्रस्तुतीकरण- सब कुछ आकर्षक है। कागज भी बेहद बढ़िया गुणवत्ता का उपयोग हो रहा है। काव्य रचनाओं को ग़ज़ल, गीत-नवगीत, दोहा, मुक्तक/रुबाई/कत्आत, छन्द मकरन्द एवं मुक्तछन्द/छन्दमुक्त समूहों में बद्ध करके छापना; रचनाओं के साथ रचनाकार का छायाचित्र और कई रचनाओं को काली पृष्ठभूमि पर ब्लॉक के रूप में छापना, रचनाओं को जरूरी स्पेस देना आदि कई छोटी-छोटी चीजे हैं, जो पत्रिका के गेटअप और रचनाओं के प्रस्तुतीकरण- दोनों को आकर्षक बनाती हैं। शायद यही सब वे चीजे हैं जो अंजुम जी की संपादन कला के रूप में इसे लघु पत्रिकाओं के मध्य एक बड़ी पत्रिका की प्रतिष्ठा प्रदान करती हैं। युवा कवि-समीक्षक श्री जितेन्द्र ‘जौहर’ जी के स्तम्भ ‘तीसरी आँख’ की इसमें नियमित उपस्थिति सोने में सुगन्ध जैसी है। इस स्तम्भ के बारे में काफी कुछ सुना था, इसकी दो पुरानी किस्तें अन्यत्र से प्राप्त कर पहले ही पढ़ चुका हूँ। अध्ययन, चिन्तन और आत्मविश्वास से पुष्ट जितेन्द्र जी का समालोचनात्मक दृष्टिकांेण समकालीन पीढ़ी को एक सकारात्मक मार्ग पर ले जाने में अपनी भूमिका निभायेगा और समकालीन साहित्य को बहुत सारी गर्म हवाओं के थपेड़ों से बचायेगा। मुझे लगता है भविष्य में वह एक ऐसी दीवार बनकर उभर सकते हैं, जो साहित्य में बहुत सारी ऊल-जुलूल चीजों के प्रवेश को रोकने में सक्षम होगी।  
    अप्रैल-जून 2012 अंक ‘व्यंग्य विशेषांक’ है। संपादक अंजुम जी स्वयं एक प्रतिष्ठित व गम्भीर व्यंग्यकार हैं, स्वाभाविक रूप से उनकी रचनात्मकता की छाप इस अंक के संपादन में देखी जा सकती है। काव्य की सभी विधाओं में उन्होंने व्यंग्य रचनाएं जुटाईं हैं और निर्धारित प्रारूप में उनकी प्रस्तुति की है। यद्यपि एकाध रचना व्यंग्य के चुटीलेपन से आगे जाकर आक्रमण की मुद्रा में भी देखने को मिल जाती है, पर अधिकांश रचनाएं व्यंग्य के अनुशासन में बँधी हैं। व्यंग्य-विमर्श का प्रतिनिधित्व करते दो आलेख भी इस अंक में शामिल हैं- डॉ. शिवओम अम्बर का ‘हिन्दी-ग़ज़ल की व्यंग्य-मुद्रा’ एवं बानो सरताज का ‘उर्दू शायरी में पैरोडी’।
    जुलाई-सितम्बर 2012 के सामान्य अंक में भी उत्कृष्ट रचनाएं हैं। स्व. डॉ. राकेश गुप्त व डॉ. ऋषि कुमार चतुर्वेदी द्वारा संपादित ‘हिन्दी कहानी’ से साभार ली गई मुकारबखान आज़ाद की कहानी ‘गिरगिट’ मुस्लिम समाज में महिलाओं की दुर्दशा की भयावह तश्वीर सामने रखती है। काश! वास्तविक स्थिति अब इतनी भयंकर न हो। यद्यपि यह सिर्फ मुस्लिम समाज की महिलाओं की ही व्यथा नहीं है, कमोवेश हिन्दू और दूसरे समाजों में ही कहीं न कहीं विद्यमान रही है। डॉ. शिवओम ‘अम्बर’ ने अपने आलेख ‘हिन्दी-ग़ज़ल के प्रस्थान बिन्दु’ में ऐतिहासिक महत्व की संक्षिप्त जानकारी दी है। लघुकथाएं अपेक्षाकृत हलकी हैं।
    दोनों अंको में विरासत के अन्तर्गत वरिष्ठ साहित्यकार स्व. डॉ. राकेश गुप्त की आत्मकथा ‘देखे सत्तर शरद्-बसंत’ के अंश उनके जीवन के बहुत से पहलुओं को पाठकों के समक्ष रखने की दृष्टि से स्वागतेय हैं। प्राप्त पुस्तकों के परिचय के साथ ही पारस्परिक सहयोग को बढ़ाती विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की चर्चा को भी कई पृष्ठ देना महत्वपूर्ण है।
    और अब पुनः कुछ बात ‘तीसरी आँख’ स्तम्भ पर। अप्रैल-जून 2012 अंक की किस्त में आद. सुरेन्द्र शर्मा जी के साथ जितेन्द्र ‘जौहर’ जी की मोबाइल वार्ता ने निश्चित रूप से शर्मा जी के बारे में बहुत से लोगों की धारणा का परिष्कार किया होगा। उनके व्यक्तित्व का जो चित्र इस वार्ता में उभरकर आया है, वह साधारण शब्दों में रचे-बसे उनके हास्य-व्यंग्य में व्याप्त गम्भीर रचनात्मकता की ओर भी संकेत कर जाता है। उनका कथन ‘बाज़ार बन जाना बुरा नहीं है, बाज़ारूपन बुरा है’ एक बड़ा संकेत देता है। 
    साक्षात्कार की शब्दाख्या एवं उसके तरीके के बारे में जितेन्द्र जी की बात एक सीमा तक ठीक लगती है। लघु एवं व्यक्तित्वपरक, नीतिगत मुद्दों पर स्पष्टीकरण, उत्तरदाता के पूर्व के कथनों, कार्यों या धारणाओं आदि से सम्बन्धित विषयों पर साक्षात्कारों के सन्दर्भ में उनकी बात से अक्षरशः सहमत हुआ जा सकता है, लेकिन ऐसी स्थितियां भी होती हैं, कुछ व्यापक विषय होते हैं, जिनके सन्दर्भ में एक ओर उत्तरदाता को समय लेना पड़ सकता है। दूसरे प्रश्नकर्ता के लिए भी आधुनिक व महंगी तकनीक के अभाव में प्रश्नों के लम्बे व सूक्ष्म समझ वाले (जहां कुछ का कुछ समझे/लिखे जाने की सम्भावना हो सकती है) उत्तरों को तुरन्त लिपिबद्ध कर पाना या स्मृति के आधार पर बाद में लिपिबद्ध करना मुश्किल हो सकता है। यदि कोई गम्भीर मसला है और प्रश्नकर्ता/साक्षात्कार लेने वाले का उद्देश्य समस्याओं का वास्तविक समाधान तलाशना है, तो प्रश्नों के जवाब के लिए उत्तरदाता को समय देने में कोई नुकसान नहीं है। मुझे लगता है साक्षात्कार के माध्यम से कुछ शोध जैसा कार्य होता है, तो व्यापक और गम्भीर विषयों पर साक्षात्कार के लिए एक त्रिस्तरीय तरीका अपनाया जा सकता है। इसके लिए पहले स्तर पर साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति अध्ययन और अनुभवों के आधार पर विषय/समस्या को स्वयं ठीक से समझे, मोटे तौर पर आरम्भिक प्रश्न तैयार करके उत्तरदाता को उपलब्ध करवा दे। उनके प्राप्त जवाबों के अध्ययन के बाद आवश्यक स्पष्टीकरणों एवं आरम्भिक प्रश्नों के उत्तरों से जनित सूक्ष्म प्रश्नों पर आमने-सामने बैठकर साक्षात्कार को पूरा किया जा सकता है। निःसंदेह ऐसे साक्षात्कारों से कई बार आलेख सदृश चीजें निकलकर आ जाती हैं, लेकिन वे महत्वपूर्ण भी होती हैं और साक्षात्कार को किसी लेखक के स्वलिखित/मौलिक आलेख से इस मायने में भिन्न भी बनाती हैं कि इनमें प्रश्नकर्ता के प्रश्न, जो अन्यथा लेखक के रूप में उत्तरदाता के जेहन में न भी आ पाते, के समाधान भी इसमें शामिल हो जाते हैं। जहां तक कई साक्षात्कारों के अकादमिक (डिप्लोमैटिक, आदर्शवादी आदि भी) दिखने का प्रश्न है, निःसंदेह ऐसा है; पर इसका कारण उत्तरदाता (कई बार प्रश्नकर्ता भी) की सोच एवं चिन्तन से कहीं अधिक जुड़ा हुआ है। कुछ प्रश्न होते ही अकादमिक हैं। कुछ प्रश्नकर्ता बिना अध्ययन-मनन के साक्षात्कार लेने लग जाते हैं। कुछ लोगों के समक्ष आप कितना भी खोजी और व्यवहारिक प्रश्न रखिए, वे आपको उत्तर अकादमिक तरीके से ही देंगे। प्रश्न आकस्मिक पूछा जाये या पूर्व निर्धारित हो, अकादमिक जवाब दोनों तरह के प्रश्नों के मिल सकते हैं। जिन लोगों का ज्ञान और निष्कर्ष सामान्यतः किताबों के अध्ययन-मनन पर आधारित होते हैं, उनके साथ ऐसा ही होता है। परन्तु जिन लोगों का ज्ञान एवं निष्कर्ष व्यवहारिक अनुभवों, आत्मचिन्तन एवं स्वविवेक पर आधारित तर्कों से जनित होता हैं, उनके साथ ऐसा नहीं होता। अपितु उनके निष्कर्ष अकादमिक चीजों का आधार बनते हैं। इसलिए मुझे लगता है कि किसी व्यापक विषय पर साक्षात्कार के लिए ‘उत्तरदाता’ का चयन कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। ऐसे बिषयों पर यदि चिन्तन-मनन की जरूरत होती है, तो उत्तरदाता को समय देने में कुछ नुकसान नहीं है, क्योंकि विषय पर अपनी धारणाओं, विचारों, निष्कर्षों को एक दस्तावेज बनने के लिए निर्गत करने से पूर्व उन पर एक बार पुनर्दृष्टि डालना या पुनर्प्रेक्षित करना अनजाने में किसी विवाद को जन्म देने या अपनी बात कहने के बाद उससे पलटने की अपेक्षा कहीं अधिक उचित है। साक्षात्कार का तरीका काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि साक्षात्कार किस तरह का है और उसका उद्देश्य क्या है। जहां जरूरी है वहां आमने-सामने बैठकर ही बात होनी चाहिए। जितेन्द्र जी ने एक अच्छा विषय उठाया है, मुझे लगता है आलेख या निबन्ध की एक पूरक विधा के रूप में ‘साक्षात्कार’ के परिष्कार हेतु चर्चा होनी चाहिए।
     जुलाई-सितम्बर 2012 अंक की क़िस्त में जितेन्द्र ‘जौहर’ जी ने श्री मंगलेश डबराल जी के एक आलेख में उनके निष्कर्ष एवं वैचारिक दृष्टिकोण पर अपनी बेबाक, निर्भीक और जरूरी टिप्पणी दी है। निःसंदेह मंगलेश जी वरिष्ठ और रचनात्मक स्तर पर प्रभावशाली कवि हैं, परन्तु उनके संदर्भित आलेख की जिन बातों को सामने रखा गया है तथा मंगलेश जी के जो विचार उनके साथ हुई मोबाइल वार्ता के माध्यम से सामने आये हैं, उनके आधार पर साहित्यिक/सामाजिक चिंतक के स्तर पर मंगलेश जी बेहद निराश करते हैं। मंगलेश जी जैसा कवि जब इस स्तर पर सोचता है और पूछे गये प्रश्नों के इस स्तर के जवाब देता है, तो मान लेना चाहिए कि वह कविता के स्तर पर चाहे जितने सफल हों, लेकिन व्यक्तित्व और साहित्यिक/सामाजिक चिन्तन के स्तर पर या तो वह अपना तेज खो रहे हैं या फिर किसी पार्टीलाइन/राजनैतिक स्तर पर विचारधारा के दबाव में हैं। साहित्यिक व्यक्ति को इस तरह के मुद्दों पर व्यापक साहित्यिक/सामाजिक दृष्टिकोण से सोचना चाहिए न कि साहित्य को दक्षिणपन्थी और वामपन्थी खांचों में बांटकर स्वयं उनमें से किसी एक खांचे में बैठकर। मानते हैं कि जिसकी पेटिंग दो मिलियन डॉलर तक पहुंच जाने की चर्चा रही हो, जिसे पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण जैसे राष्ट्रीय अलंकरणों से नवाजा गया हो, जिसके काम को अतिविशिष्ट मानकर कलाकारों को प्रतिनिधित्व देने के लिए राज्यसभा में मनोनीत किया गया हो, वह कोई छोटा कलाकार नहीं होगा। लेकिन इसी बात को इस तरह से भी समझना होगा कि हुसैन साहब को उनकी विशिष्टता के एवज में देश व समाज की ओर से कोई कम सम्मान नहीं दिया गया और इतना बड़ा सम्मान पाने के बाद उस देश, जिसकी मिट्टी से वह पैदा हुए और जिसने उन्हें इतना कुछ दिया, उसके प्रति उनका भी कोई दायित्व बनता था। ऐसा व्यक्ति अपने देशवासियों (सारे न सही, एक बड़ा वर्ग ही सही) की भावनाओं को न समझ सके, तो यह दुर्भाग्यपूण ही माना जायेगा। पहली बात तो कला का उद्देश्य ‘नंगेपन’ को ढकना होता है, उघाड़ना नहीं। सौन्दर्य में वृद्धि करना होता है, उसे विकृत करना नहीं। सामाजिक सरोकारों से जुड़े प्रश्नों को उठाना होता है, उनसे जुड़े लोंगों का विचलित करना नहीं। फिर भी मान-मर्यादाओं से परे जाकर यदि मान भी लिया जाये कि वह एक कलाकार थे और उन्हें अपनी कला को अपने तरीके से अभिव्यक्त करने की आजादी थी, तो भी क्या इतने मान-सम्मान से किसी बड़प्पन का जन्म नहीं होना चाहिए? (बहुत बार ऐसा होता कि मान-मर्यादा की रक्षा के लिए धीर-गम्भीर लोग, जो करना चाहते हैं, नहीं करते; जो कहना चाहते हैं, नहीं कहते)। कोई भी आजादी समाज-निरपेक्ष नहीं होती। कम से कम उस व्यक्ति की तो बिल्कुल ही नहीं, जो देश और समाज के मान-सम्मान का प्रतीक बन चुका हो। इस स्तर पर आकर उन्होंने कला को बाजारू बनाने का काम किया। और मंगलेश जी जैसा कवि ऐसे कृत्य को तर्कहीन तरीके से महिमामण्डित कर रहा है? कलाकार होने का मतलब मनमानापन नहीं होता। काश! हुसैन साहब अपने देश की जमीन पर आखिरी सांस लेते। मुझे नहीं लगता उन्होंने जिस हॉस्पीटल में आखिरी सांस ली, वहां उन क्षणों में अपने देश और उसकी मिट्टी को चूमने की इच्छा उनके अहं (और स्वास्थ्य-सम्बन्धी जरूरतों) से ऊपर उठ पाई होगी। यदि ऐसा होता तो कम से कम देश के द्वारा दिए गए मान-सम्मान और प्यार के एवज में ही सही, अपनी गलतियों को स्वीकार कर सकते थे। यह ऐसा देश नहीं है जो उन्हें क्षमा नहीं करता। बल्कि ऐसा करने पर उनका कद और भी बढ़ जाता। चलिए, इस बात को भी एक तरफ रखते हैं। अब दूसरी बात- यदि समाज और लोग खांचों में बंटने लगें, तो साहित्यकार का क्या धर्म है? क्या वह उनके बीच की खाई को और चौड़ा करे? गलत और सही पर विवेकपूर्ण और निष्पक्ष चिन्तन की बजाय एक को उत्तेजित करे और दूसरे के तमाम कुकृत्यों के साथ खड़ा नज़र आये? (दोनों का परिणाम?) क्या हो रही गलतियों के कारणों और प्रभावों पर व्यापक नजरिये से न सोचा जाये? आप किसी को ‘लंपट’ कहते हैं और उसे गाली नहीं मानते, कोई आपको-हमें; आपकी-हमारी पूरी जमात को ‘लंपट’ कह देगा। इसका दोषी कौन होगा? यदि कुछ लोग वास्तव में लंपट हों भी, तो भी क्या हमारा स्तर यही है कि हम उन्हें इस बात के लिए उत्तेजित करें कि वे हमें भी ‘लंपट’ कहें? और क्या उस तरह के ‘लंपट’, जैसे आपकी दृष्टि में रचे-बसे हैं, सिर्फ हिन्दुत्ववादियों में ही हैं? क्या हिन्दुत्ववादी होने का अर्थ उग्रवादी होना है? क्या कुछ लोगों के बहाने आप एक पूरी और समृद्ध (विश्व भर में सर्वश्रेष्ठ समझी जाने वाली) संस्कृति को आरोपित नहीं कर रहे हैं? मंगलेश जी, क्या इस तरह के शब्दों का आपके पास कोई विकल्प नहीं रह गया है? निःसन्देह आपका-हमारा शब्दों पर ही अधिकार रह गया है, पर क्या अधिकार के विवेकपूर्ण उपयोग की जिम्मेवारी से बचना ठीक है? बात बहुत लम्बी हो जायेगी और वर्तमान के सन्दर्भ में यहां पर हिदुत्व और इस्लाम में विभेद की जरूरत नहीं है, पर ‘आखिर मैं किसी अन्य पर क्यों लिखूं’, ‘हिन्दुत्ववादी शक्तियों के बारे में मेरी राय तो यही है...’, ‘जितेन्द्रजी..... आप अपनी राय क़ायम रखने के लिए........ स्वतन्त्र हैं’ जैसी बातों में मंगलेश जी का कवि कहीं नज़र नहीं आता। एक कलाकार की सोच ऐसी नहीं होती है, एक कवि और साहित्यकार की सोच भी ऐसी नहीं होती है।
    एक अच्छी और स्तरीय पत्रिका के लिए अंजुम जी से यही कहना है- ‘वीर तुम बढ़े चलो, ....’।

अभिनव प्रयास :  साहित्यिक त्रैमासिकी। सम्पादक :  अशोक अंजुम (मो. 09258779744)। सम्पादकीय पता :  स्ट्रीट-2, चन्द्रविहार कॉलोनी (नगला डालचन्द), क्वारसी बाईपास, अलीगढ़ (उ.प्र.) पिन 202127। ई मेल : ashokanjumaligarh@gmail.com। अर्थ सहयोग- द्विवार्षिक : रु. 200/-, पंचवार्षिक :  रु. 500/-, आजीवन : रु. 2100/-।


ऊर्जा और उत्साह से भरपूर पत्रिका : शब्द प्रवाह



    

            छोटे स्तर के अन्य व्यवसायों की तरह लघु पत्रिकाओं के दीर्घकालिक प्रकाशन के लिए तीन चीजें बहुत जरूरी होती हैं- ऊर्जा, विश्वास और सूक्ष्म प्रबन्धन। ऊर्जा- जो हमें कुछ कर गुजरने के जुनून तक ले जाये। विश्वास- अपने आप पर कि हम जो करना चाहते हैं उसे कर पायेंगे। विश्वास- उस उद्देश्य के प्रति, जिसके लिए हम काम करना चाहते हैं कि वह हासिल करने योग्य है। विश्वास- उन लोगों के प्रति, जिनके साथ हमें काम करना पड़ता है कि वे अन्ततः हमें सहयोग करेंगे। विश्वास- उस वातावरण के प्रति, जिसमें हमें काम करना है कि तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद हम उस वातावरण में काम कर पायेंगे। विश्वास- जो हमें उन अपेक्षाओं को दिलाना होता है, जो हमारे काम पर केन्द्रित होती हैं कि हम उन्हें पूरा करेंगे। सूक्ष्म प्रबन्धन- जो काम करने के तौर-तरीकों की हमारी समझ को दर्शाता है कि किस तरह हम अति लघु संसाधनों का बड़े उद्देश्य के लिए उपयोग कर पायेंगे। इसमें उद्देश्य के समुचित रूप, यानी जो छोटा दिखकर भी अन्ततः बड़े प्रभावों वाला हो, का चयन भी शामिल होता है। सामान्यतः लघु पत्रिकाओं के पास संसाधनों की इतनी कमी होती है कि इन तीन चीजों के बिना उनका प्रकाशन तो दूर उनकी योजना बनाना भी सम्भव नहीं होता है। सौभाग्य से आज कई लघु पत्रिकायें हैं, जो इन्हीं तीनों चीजों को अपना संसाधन बनाकर साहित्य की गतिवान वाहिका बनी हुई हैं। ‘शब्द प्रयास’ भी ऐसी ही लघु पत्रिका है। नियमित प्रकाशन, अधिकाधिक लोगों से जुड़ने का प्रयास, पर्याप्त सामग्री की उपयुक्त सलीके से प्रस्तुति, बिना किसी तरह की ओवर प्रिंटिंग के उपलब्ध स्थान का यथाधिक प्रयोग, साफ-सुथरा मुद्रण, प्रतियों को लम्बे समय तक सहेजकर रखने की दृष्टि से कागज की सही गुणवत्ता, एक टीम बनाकर सहयोगियों को साथ लेकर चलना आदि को लेकर ‘शब्द प्रयास’ जिस तरह आगे बढ़ रही है, विश्वास किया जा सकता है कि लम्बे समय तक इसकी निरन्तरता बनी रहेगी और साहित्य की विकास यात्रा में अपना योगदान देगी।
    पत्रिका का जनवरी-मार्च 2012 अंक वार्षिक काव्य विशेषंाक था। दो सौ पृष्ठों से अधिक के इस विशेषांक में करीब 182 रचनाकारों को शामिल किया गया है। स्वाभाविक है इतनी बड़ी संख्या में शामिल रचनाकारों में कुछ अपना प्रभाव नहीं भी छोड़ पाये होंगे; लेकिन अच्छी रचनाएं पर्याप्त संख्या में हैं। रचनाओं में सामयिक चिन्तन और चिंताएं- दोनों का होना उनकी जीवन्तता को दर्शाता है। आज के साहित्य की यह विशेषता है कि बहुत सारे हाथ मिलकर एक छप्पर उठाते हैं, बहुत सारी आवाजें मिलकर एक आवाज बनती हैं। और यह इस विशेषांक की रचनाओं में भी है। हर रचनाकार को एक पृष्ठ दिया गया है। रचनाओं के साथ उनका फोटो, संक्षिप्त परिचय एवं सम्पर्क सूत्र देने के साथ हर पृष्ठ पर किसी चर्चित कवि की दो पंक्तियां उद्धृत की गई हैं, जो निसन्देह उन कवियों को सम्मान देने के साथ प्रस्तुति का आकर्षक भी बढ़ा देती हैं। काव्य विशेषांक में रचनाकारों के मार्गदर्शन हेतु कुछ संन्तुलित आलेख भी शामिल कर लिए जाते तथा प्रस्तुत रचनाओं को किसी उपयुक्त आधार पर कुछ खण्डों में विभक्त कर हर खण्ड के आरम्भ में अंक की श्रेष्ठ रचनाओं को रखा जाता तो अंक की सार्थकता और भी बढ़ जाती। पर संपादक का अपना भी कुछ दृष्टिकोंण होता है, सम्भव है संदीप जी की दृष्टि में सभी रचनाकारों को समान दृष्टि से देखने की भावना रही हो। सम्पादकीय में नये रचनाकारों के पक्ष में संदीप जी ने अपनी बात रखते हुए कुछ आलोचकों के अनुचित रवैये (जो स्थानीय स्तरों पर कुछ अधिक ही देखने को मिलता है) पर कड़ी टिप्पणी की है। दरअसल आलोचना का एक संतुलित और नियोजित उद्देश्य होना चाहिए, समय सापेक्ष सन्दर्भों में सृजनात्मक पक्षधरता और मार्गदर्शन का। आलोचक का अपना दृष्टिकोंण अध्ययन और चिन्तन से पुष्ट होना चाहिए, कम से कम जिस रचना, तकनीक या दृष्टिकोंण की आलोचना की जा रही हो, उसके सन्दर्भ में तो अवश्य ही। दूसरी बात रचना पर अन्य पाठकों की दृष्टि से विचार करने के साथ रचनाकार के दृष्टिकोंण तक भी पहुँचने की कोशिश होनी चाहिए। आप दूसरे के दृष्टिकोंण को भी तो समझिए। अपना बना-बनाया एक पक्षीय दृष्टिकोंण थोपने का प्रयास करेंगे, तब वह आपका अपना व्यक्तिगत मन्तव्य तो हो सकता है, उद्देश्यपरक आलोचना नहीं। ऐसे में बहुत सारी सम्भावनाएं भी अंकुरित होने से पहले ही कुचल जाती हैं। आलोचना भी एक तरह का साहित्य ही है, उसका भी अपना एक स्तर होता है और उसमें भी समय और जरूरतों के अनुरूप सुधारों व बदलावों की जरूरत होती है। लेकिन इसी के साथ यह भी जरूरी है कि रचनाकार और संपादक के रूप में हम आलोचकों के प्रतिपक्षी न बन जायें। सम्पादक के रूप में हमें कई भूमिकाएं एक साथ निभानी पड़ती हैं और कहीं न कहीं आलोचक की भूमिका में भी आना पड़ता है। दरअसल एक समुचित समालोचनात्मक दृष्टिकोंण के विकास का रास्ता ढूंढ़ने का दायित्व कहीं न कहीं लघु पत्रिकाओं की भूमिका में शामिल है। इस भूमिका में रचनाकारों एवं पाठकों का सहयोग भी मिलना चाहिए। रचनाकार आलोचना को समुचित एवं संयमित जवाब दें, पाठक जैसे रचनाओं पर प्रतिक्रिया देते हैं, वैसे ही आलोचना पर भी प्रतिक्रिया दें। एक बात और- संदीप जी ने एक पुस्तक के भूमिका लेखक द्वारा उसी पुस्तक के समीक्षक के रूप में रचनाकार की कमियाँ गिनाने पर आपत्ति की है। हो सकता है उस पुस्तक के सन्दर्भ में उनकी बात ठीक हो। मैं पूरे वाकये से परिचित नहीं हूँ, पुस्तक में क्या था और उन भूमिकाकार महोदय ने भूमिका में क्या लिखा और बतौर समीक्षक क्या कहा? हम मानकर चलते हैं कि संदीप जी का आंकलन ठीक होगा। लेकिन कुछ सामान्य प्रश्नों पर संदीप जी सहित हम सबको अवश्य विचार करना चाहिए कि भूमिका लेखक को समीक्षक/समालोचक का दायित्व सौंपना क्या औचित्यपूर्ण है? दूसरे क्या दोनों भूमिकाएँ एक ही हैं? जब कोई रचनाकार किसी से भूमिका लिखवाने का अनुरोध करता है, तो उसकी अपेक्षा क्या होती है और वह स्वयं किस मनःस्थिति में होता है? आजकल कितने लेखकगण अपनी पुस्तक के प्रकाशन से पूर्व किसी की आलोचनात्मक राय लेना और उस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना पसन्द करते हैं? क्या भूमिका समीक्षा का ही दूसरा नाम है? मेरी स्पष्ट सोच है कि आलोचक को दुत्कारने की नहीं, उसका सामना करते हुए जवाबदेह बनाने की जरूरत है। खैर! बेवाकी से अपनी बात रखने का साहस दिखाने के लिए संदीप को बधाई। लघु पत्रिकाओं को सहयोग पर कुछ लोगों की नकारात्मक प्रतिक्रियाओं और दृष्टिकोंण पर भी इस अंक में संदीप जी ने यथानुरूप अपनी बात रखी है। यह भी एक मुद्दा है, जिस पर विस्तार से विमर्श की जरूरत है। साहित्य भी समाज का हिस्सा है और समाज में सबकी अपनी-अपनी कुछ स्वतः स्फूर्त भूमिकाएं/जिम्मेवारियां भी होती हैं। यहां भी कुछ स्वतः स्फूर्त भूमिकाएं/जिम्मेवारियां लघु पत्रिकाओं के प्रकाशकों की हैं तो कुछ स्वतः स्फूर्त भूमिकाएं/जिम्मेवारियां पाठकों-रचनाकारों की भी हैं। इसी से साहित्य आगे बढ़ पायेगा, साहित्य- जो हम सबका साझा पथ है।
    पत्रिका का अप्रैल-जून 2012 अंक मुक्तक विशेषांक है। कविता में यह एक ऐसा दौर है जहां बहुत सारे नए कवि मात्राओं और वर्णों की गिनती की ओर लौट रहे हैं। कहीं न कहीं यह अपनी विरासत का स्मरण ही है। इसका स्वागत कई पत्रिकाओं ने अपनी ज़मीन मुहैया कराके किया है। यह मुक्तक विशेषांक और जानकारी के मुताबिक पूर्व में दोहा, गीत आदि विशेषांक गवाह हैं कि ‘शब्द प्रवाह’ का उत्साह भी किसी से कम नहीं रहा है। इस विशेषांक में शताधिक कवियों के मुक्तक शामिल किए गए हैं, जिनमें शिल्प एवं पारम्परिक भावों की दृष्टि से अनेक रचनाकारों के मुक्तक प्रभावित करते हैं। कई मुक्तकों के कथ्य में पर्याप्त गहराई भी है। निसंदेह अतिथि सम्पादक श्री यंशवंत दीक्षित जी ने मुक्तकों के चयन में यथासंभव सतर्कता बरती है। बिना संशोधन के रचनाओं के प्रकाशन का संकल्प लेकर चलने पर यह सतर्कता बेहद श्रमसाध्य है और चुनौतीपूर्ण भी। उम्मीद है इस तरह के विशेषांको के प्रकाशनों से आने वाले समय में कथ्य की गहराई, बिम्बों के प्रयोग और भावों की ताजगी भी नए दौर के मुक्तकों में देखने को मिलेगी। मुक्तक के युवा विशेषज्ञ श्री जितेन्द्र जौहर का आलेख इस अंक का एक अकेला आलेख है, जो मुक्तक में कुछ नए छान्दसिक प्रयोगों पर सारगर्भित टिप्पणी करता है और मुक्तक में इन प्रयोगों की सम्भावनाओं को टटोलता है। इस आलेख से अंक की सार्थकता बढ़ गई है। दरअसल जितेन्द्र जौहर हाल में मुक्तक के साथ अन्य छान्दसिक कविता की समालोचना एवं व्याख्या के क्षेत्र में उभरा एक ऐसा नाम है, जिसकी ऊर्जा का ईमानदार और समुचित उपयोग किया जा सके तो मुक्तक ही नहीं समग्रतः छान्दसिक कविता के प्रभाव को पुनः प्रक्षेपित किया जा सकता है। 
     ‘शब्द प्रवाह’ ऊर्जा और उत्साह से भरपूर है और अपने उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग करती हुई पूरे विश्वास के साथ बढ़ रही है। वाद रहित धरातल और अपनी विरासत से जुड़कर चल रही है। कई अचर्चित रचनाकारों को सामने ला रही है। यह सब स्वागतेय है। यदि विचार पक्ष को भी कुछ पृष्ठ देकर चले तो और भी अच्छा होगा। संदीप सृजन और उनकी सम्पूर्ण टीम को हार्दिक बधाई!
शब्द प्रवाह :  साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका। प्रधान सम्पादक  :  संदीप फाफरिया ‘सृजन’। सम्पर्क :  ए-99, व्ही.डी. मार्केट, उज्जैन-456006 (म.प्र.)। मोबाइल : 09926061800 / 09406880599। ई मेल : shabdpravah@gmail.com। वार्षिक सहयोग : सामान्य :  रु. 200/-, विशेष :  रु. 300/-, स्तम्भ सहयोग :  रु. 500/-।


साधारण कलेवर में भविष्य की पत्रिका : कथा सागर


    


               समकालीन रचनाकारों में कई ऐसे हैं, जो रचनात्मक स्तर पर जितने ऊर्जावान हैं, उतने ही स्पष्ट, तार्किक और निडर भी हैं। अपनी बात को बेहद प्रभावी ढंग से रखते हैं। डा. तारिक असलम तस्नीम इन्हीं में से एक हैं। जब उन जैसा कोई रचनाकार साहित्यिक पत्रकारिता में कदम रखता है तो उससे बहुत सारी और बड़ी अपेक्षाएं होती हैं, यद्यपि परिस्थितियों व संसाधनों से जुड़ी एवं कुछ अन्य सीमाओं के रहते वे सभी पूरी नहीं हो पाती। ‘कथा सागर’ के पिछले तीन अंक देखने-पढ़ने के बाद मुझे इस लघु पत्रिका के साधारण से कलेवर में स्तरीय सामग्री देने की कोशिश और छटपटाहट दोनों दिखाई देती हैं। पर जितना समय और श्रम इस पत्रिका को चाहिए, उतना संपादक डॉ. तारिक जी सम्भवतः अपनी नौकरी व लेखकीय व्यस्तताओं के चलते दे नहीं पा रहे हैं। 
    अप्रैल-दिसम्बर 2010 अंक, इसके बाद के दोनों अंकों से कहीं अधिक प्रभावशाली बन पड़ा है। इस अंक के संपादकीय में उन्होंने एक कोर्ट केस के सन्दर्भ में मुस्लिम समाज में प्रचलित ‘बहु-विवाह’ प्रथा के बारे में सूरा निसा की आयतों के हवाले से स्पष्ट किया है कि यह प्रथा असामान्य परिस्थितियों के लिए है। आम हालात में एक पुरुष के लिए एक ही औरत से निकाह करना जायज है। इस प्रथा को फैशन या सुविधाभोगी तौर पर अपनाना उचित नहीं है। उनका यह संपादकीय निसंदेह महत्वपूर्ण है। इस अंक की अधिकांश कविताएं अच्छी हैं। फैज अहमद फैज पर तारिक जी के अपने आलेख में फैज साहब के जीवन के कुछ क्षणों को कलम से छूने की कोशिश की है। ‘कोरे कागज की दास्तान’ में अमृता प्रीतम जी द्वारा साहिर की भावपूर्ण स्मृति है। राजकमल चौधरी की एक सशक्त लघु कहानी ‘ननद-भौजाई’ प्रस्तुत कर उन्हें याद किया गया है। लघुकथाओं में डा. सतीशराज पुष्करणा, पारस दासोत, संतोष सुपेकर प्रभावित करते हैं। विशेष साक्षात्कार में वरिष्ठ लघुकथाकार युगल जी ने तारिक जी के प्रश्नों के बेहद संतुलित जबाब दिए हैं। परन्तु उनके बारे में संपादकीय टिप्पणी में तारिक जी का अतिउत्साह हावी नज़र आता है। युगल जी और दूसरे भी कई साहित्यकार जिस मुकाम पर आज खड़े हैं, वहां किसी अन्य से तुलना या किसी अन्य को छोटा सिद्ध करके उन्हें बड़ा सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है। जिनका कद और योगदान स्वयंसिद्ध है, उनके समक्ष .... ‘जिनके समकक्ष हिंदी लघुकथा साहित्य में कोई दूसरा हम पल्ला नहीं दिखाई देता। यह अलग बात है कि ब्लॉग से लेकर लघुकथा के सौन्दर्य शास्त्र की रचना कर कुछ लोग स्वयं को झंडाबरदार और मसीहा कहलवाने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं, उनकी नियति और फितरत दोनों ही साफ नहीं हैं, जो युगल की कभी आदत नहीं बनी।’.... जैसी टिप्पणियों का क्या अर्थ हो सकता? मुझे लगता है इस सामान्य टिप्पणी में लघुकथा के व्यापक प्रभाव और विकास के लिए सकारात्मक और समर्पित रूप से काम कर रहे तमाम अग्रणी लोगों के बारे में भी नकारात्मक संदेश ध्वनित होता है। जबकि तारिक जी भी यह मानेंगे कि लघुकथा अपने वर्तमान मुकाम पर जिन लोगों के अनथक प्रयासों के बाद खड़ी है, उनमें युगल जी निःसन्देह महत्वपूर्ण हैं, पर अकेले नहीं हैं। अग्रणी और समर्पित नामों की एक लम्बी सूची है। हाँ, युगल जी के योगदान का मूल्यांकन जिस स्तर पर होना चाहिए था, उस स्तर पर नहीं हुआ है। यह काम अब भी हो सके, तो लघुकथा के भविष्य के लिए कुछ अच्छी चीजें निकलकर आयेंगी। टिप्पणी में अतिउत्साह की बात मैंने इसलिए कही है कि जो कुछ इस टिप्पणी से ध्वनित हो रहा है, वैसा संकेत जानबूझकर तारिक जी जैसा व्यक्ति सम्भवतः नहीं दे सकता। वरिष्ठ लघुकथाकार श्री प्रतापसिंह सोढ़ी जी द्वारा एक लम्बे समय के बाद लघुकथा की विकास यात्रा के महत्वपूर्ण नायक श्री विक्रम सोनी की खोज-खबर लेना सोढ़ी साहब की संवेदनशीलता को तो दर्शाता ही है, तारिक साहब इस स्मरण रिपोर्ट को प्रकाशित करने के लिए विशेष बधाई के पात्र हैं। हम सबको दुआ करनी है कि सोनी जी को ईश्वर शीघ्र स्वस्थ करे और एक बार हम फिर से लघुकथा मे उनकी कलम का जादू देख सकें। 
    अक्टूबर-दिसम्बर 2011 अंक कविता पर विशेषांक है। इसमें वर्तमान के कवियों के साथ केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, डा. हरवंश राय बच्चन, अमृता प्रीतम, फैज अहमद फैज, धूमिल आदि कई पुराने कवियों की चयनित कविताएं भी दी गई हैं। संपादकीय में ‘कविता का बिगड़ता तेवर और मिजाज’ पर यथार्थपरक टिप्पणी की गई है। निसन्देह आज की कविता बहुत सारी सकारात्मक चीजों के बावजूद काव्यात्मक प्रभाव की दृष्टि से सामान्य पाठकों से बहुत दूर है। सिद्धेश्वर जी ने अपने लघु आलेख ‘कविता से पाठकों की बढती दूरी’ में तीखी किन्तु सटीक टिप्पणी की है। लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि जो बड़ा रचनाकार वर्ग हाशिए पर है, उसे अपने अध्ययन व चिन्तन-मनन को पुष्ट करते हुए लघु-पत्रिकाओं के जरिए अपनी प्रतिभा को सामने लाने का प्रयास स्वयं भी करना चाहिए। उनके हाशिए पर होने के लिए सिर्फ और सिर्फ दूसरे ही दोषी नहीं हैं, थोड़ा बहुत कमी उनके प्रयासों में भी हो सकती है। आज बहुत सी लघु पत्रिकाओं के मंच पर उनकी प्रतिभा को आदर मिल सकता है और उस मंच से अपनी वास्तविक प्रतिभा को प्रकट करते हुए राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी उपस्थिति वे दर्ज करा सकते हैं। कई लघु पत्रिकाएं ऐसे रचनाकारों के स्वागत के लिए तत्पर दिखाई देती हैं। ‘कथा सागर’ भी एक उदाहरण है। एक ओर यदि एक बड़ा रचनाकार वर्ग हाशिए पर है और दूसरी ओर लघु पत्रिकाओं को अच्छी रचनाएं प्रकाशित करने के लिए नहीं मिल पा रही हैं, तो इसे बहुत बड़ा विरोधाभास और बिडंबना ही कहा जायेगा। दूसरी बात हमें साहित्य और साहित्यकारों के योगदान/कद को पुरस्कारों व अलंकरणों से आंकने और पुरस्कारों व अलंकरणों की ओर ताकना बन्द करना होगा। मैं यह नहीं कहता कि पुरस्कारों व अलंकरणों का कोई महत्व नहीं है, उनका महत्व है, पर यह भी सत्य है कि पुरस्कार व अलंकरण आज प्रतिभा के मूल्यांकन की वास्तविक कसौटी नहीं रह गए हैं। जिन्हें पुरस्कार व अलंकरण नहीं मिल पाते, उनमें भी कई बड़े रचनाकार होते हैं, बल्कि कहीं अधिक बड़े होते हैं। ऐसे बड़े रचनाकारों की प्रतिभा व योगदान की चर्चा होनी चाहिए, उनके काम को सामने लाना चाहिए। तथ्यों को सामने रखना चाहिए कि वे क्यों महत्वपूर्ण हैं, उनकी रचनाओं में क्या खास है! प्रतापसिंह सोढ़ी जी द्वारा वरिष्ठ शाइर आदिल नूर साहब से एक फुटपाथ पर हुई भावुक मुलाकात में अनुभूत यथार्थ की संस्मरणात्मक प्रस्तुति अंक का स्तर बढ़ाती है। डा. शिवनारायण व डा. सुवंश ठाकुर ‘अकेला’ लिखित क्रमशः डा. तारिक के कविता संग्रह ‘शब्द इतिहास नहीं रचते’ एवं जवाहर किशोर के उपन्यास ‘खुशियां’ की समीक्षाएं उत्कृष्ट हैं।
    जनवरी-मार्च 2012 अंक लघुकथा विशेषांक है। इसे होना था कविता विशेषांक, पर अच्छी कविताएं और कविता आधारित सामग्री समय पर न जुट पाने के चलते संपादक तारिक जी को इसे लघुकथांक के रूप में प्रकाशित करना पड़ा। साहित्यिक बिडंबना का यह एक जीता जागता उदाहरण है। खैर! इस अंक में डा. सतीश दुबे, युगल, विक्रम सोनी, प्रतापसिंह सोढ़ी, माधव नागदा, रामयतन यादव, सुरेन्द्र मंथन, डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’, सुरेश शर्मा आदि की बेहतरीन लघुकथाओं के साथ सिद्धेश्वर, उषा अग्रवाल ‘पारस’, रामदेव प्रसाद शर्मा, अरुण अभिषेक, विश्वप्रताप भारती, संतोष सुपेकर, प्रभात दुबे की लघुकथाएं भी प्रभावित करती हैं। कुछ अच्छी कविताएं भी हैं। मशहूर शायर शहरयार को उनकी स्मृतियों एवं कुछ ग़ज़लों की प्रस्तुति के साथ भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी गई है। लघुकथा के इतिहास के सन्दर्भ में लघुपत्रिकाओं की भूमिका को रेखांकित करते तारिक जी का अपने लम्बे आलेख में लघुकथा के सन्दर्भ से इतर भी कुछ सन्दर्भों पर बात की गई है। देश की चर्चित पत्रिकाओं में स्थान बनाने के लिए महिला लेखकों को किन-किन स्तरों पर समझौते करने पड़ते हैं, इसके खुलासे के सन्दर्भ में जो बात उठाई गई है, वह यह भी सोचने को विवश करती है कि क्या सरेआम इस तरह के आचरण में संलिप्तता को स्वीकारना इतना वास्तविक और विश्वसनीय है? इस तरह के खुलासों के पीछे क्या कोई मानवीय सरोकार दिखाई देता है? कहीं ऐसा तो नहीं यह सब सुर्खियां और बाजार लूटने का पारस्परिक सहमति से अपनाया गया हथकंडा होता हो? जब ये लोग इतने बाजारू तरीके से इन खुलासों को करते हैं और इतने सबके साथ भी सिर उठाकर जीते दिखाई देते हैं, तो इनका उद्देश्य संदिग्ध ही लगता है। समीक्षाएं इस अंक में भी अच्छी हैं। 
    कथा सागर के मुद्रण एवं प्रस्तुतीकरण पर तारिक जी अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। प्रूफ में भी असावधानी दिखाई देती है। व्यस्तताओं के साथ छोटी जगहों/कस्बों में समुचित तकनीक की अनुपलब्धता भी एक बड़ी समस्या होती है। उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में जब भी तारिक जी कुछ जिम्मेवारियों के बोझ से हल्के होंगे, कथा सागर का एक नया ही रूप देखने को मिलेगा, जिसकी भावना और बीज इसके वर्तमान रूपाकार में छुपे हुए हैं। तब तक ‘कथा सागर’ का आते रहना महत्वपूर्ण है।

कथा सागर :  साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका। संपादक :  डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’। सम्पर्क : भारतीय साहित्य सृजन संस्थान, प्लाट-2/सेक्टर-2, हारून नगर, फुलवारी शरीफ, पटना-801505पत्राचार : थाना रोड, जामताड़ा-815351, झारखण्ड।  मोबाइल : 09570146864 / 09122914396 / 08969974239 / 09031938169। ई मेल :  kathasagareditor@gmail.com / tariq_lekhni@yahoo.com । अर्थ सहयोग- वार्षिक : रु. 100/-, आजीवन : रु. 1000/-।

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष :  02, अंक :  01,  सितम्बर   2012

अविनाश वाचस्पति को ‘प्रगतिशील ब्लॉडग लेखक संघ 

चिट्ठाकारिता शिखर सम्मान’ 


          नवाबों की नगरी और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बीते सप्ता्ह चर्चित व्यंसग्यिकार,स्तंभ लेखक, न्यू मीडिया विशेषज्ञ और मशहूर हिन्दी ब्लॉेगर अविनाश वाचस्पति की व्यंग्य कृति ‘व्यंग्य का शून्यकाल’ का सजिल्द संस्करण ब्लॉगार्पित किया गया। ब्लॉ गार्पित इस मायने में कहा जा रहा है क्योंकि पुस्तक अर्पण का यह समारोह अंतरराष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगर सम्मेलन सूचना का उल्लेखनीय हिस्सा रहा।  इस अवसर पर अविनाश वाचस्पकति को उनकी पिछले वर्ष प्रकाशित न्यू मीडिया पर हिन्दी् की पहली प्रामाणिक पुस्तक ‘हिन्दी ब्लॉगिंग : अभिव्यक्ति की नई क्रांति’ के लिए ‘प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ चिट्ठाकारिता शिखर सम्मान’ से भी नवाजा गया। हिन्दी ब्लॉगरों के भव्य अंतरराष्ट्रीय आयोजन में पुस्तक का लोकार्पण वरिष्ठ साहित्यकार उद्भ्रांत, कथाक्रम के संपादक शैलेन्द्र सागर, डॉ. सुभाष राय, डॉ् अरविन्द मिश्रा, व्यंयग्यकार गिरीश पंकज, रवीन्द्र प्रभात, सुश्री शिखा वार्ष्णेय, डॉ. हरीश अरोड़ा के सुखद सान्निध्य में संपन्न हुआ।
        इस संबंध में उल्लेखनीय है कि फरवरी 2012 में विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर प्रख्यात साहित्य्कार एवं व्यंग्येकार डॉ. शेरजंग गर्ग द्वारा लोकार्पित ‘व्यंग्य का शून्ययकाल’ का पैपरबैक संस्कंरण प्रकाशित होकर चर्चित हो चुका है और अब अनुपलब्ध है। इस अवसर पर उन्होंने सबका आभार व्यंक्त करते हुए कहा कि सरकार को न्यू मीडिया सेंसर करने की जरूरत नहीं है अपितु इंटरनेट पर कोई भी खाता खोलने के लिए कोई भी सरकारी पहचान पत्र की अनिवार्यता लागू कर देनी चाहिए।
        अंतर्जाल पर हिन्दीक के लिए किया गया उनका कार्य किसी परिचय का मोहताज नहीं है। अविनाश जी साहित्य शिल्पी से भी लम्बे समय से जुडे हुए हैं इसके अलावा सामूहिक वेबसाइट नुक्कड़ (http://nukkadh.blogspot.com) के मॉडरेटर हैं, जिससे विश्व-भर के एक सौ प्रतिष्ठित हिन्दी लेखक जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त उनके ब्लॉग पिताजी, बगीची, झकाझक टाइम्स, तेताला अंतर्जाल जगत में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। उन्हें देश भर में नेशनल और इंटरनेशनल ब्लॉगर सम्मेलन आयोजन कराने का श्रेय दिया जाता है। मुंबई, दिल्ली, जयपुर, आगरा इत्यादि शहरों में कराए गए उनके आयोजन अविस्मरणीय और हिन्दी के प्रचार/प्रसार में सहायक बने हैं। इंटरनेट पर हिन्दी् के उनके निस्वार्थ सेवाभाव के कारण विश्वभर में उनके करोड़ों प्रशंसक मौजूद हैं।
         भारतीय जन संचार संस्थान से ‘संचार परिचय’, तथा ‘हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम’ में प्रशिक्षण लिया है। व्यंग्य, कविता एवं फ़िल्म लेखन उनकी प्रमुख उपलब्धियाँ हैं। सैंकड़ों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। जिनमें नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, भास्कर, नई दुनिया, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, सन्मार्ग, हरिभूमि, अहा जिंदगी, स्क्रीनवर्ल्ड, मिलाप, वीर अर्जुन, डीएलए, दैनिक नवभारत,  साप्ताहिक हिन्दुस्तान, व्यंग्ययात्रा, आई नैक्स्ट, गगनांचल इत्यादि और जयपुर की अहा जिंदगी मासिक उल्ले़खनीय हैं। सोपानस्टेप मासिक और डीएलए दैनिक में नियमित रूप से व्यंिग्य स्तंभ लिख रहे हैं। वर्ष 2008, 2009 और वर्ष 2010 में यमुनानगर,  हरियाणा में आयोजित हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में फिल्मोत्सव समाचार का तकनीकी संपादन किया है।
        हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों ‘गुलाबो’, ‘छोटी साली’ और ‘ज़र, जोरू और ज़मीन’ में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म ‘ज्योति संकल्प’ में सहायक निर्देशन किया है। राष्ट्रभाषा नव-साहित्यकार परिषद और हरियाणवी फ़िल्म विकास परिषद के संस्थापकों में से एक। सामयिक साहित्यकार संगठन, दिल्ली तथा साहित्य कला भारती, दिल्ली में उपाध्यक्ष। केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद के आजीवन सदस्य। ‘साहित्यालंकार’, ‘साहित्य दीप’ उपाधियों और ‘राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान’ तथा ‘कविता शिल्पीं पुरस्कार’ से सम्मानित। ‘शहर में हैं सभी अंधे’ स्वतरचित काव्य रचनाओं का संकलन। काव्य संकलन ‘तेताला’ तथा ‘नवें दशक के प्रगतिशील कवि’ कविता संकलन का संपादन किया है। हिन्दीन चिट्ठाकारी पर डॉ. हरीश अरोड़ा के साथ ‘ब्लॉग विमर्श’ नामक पुस्तक संपादित। ‘सिनेमाई साक्षात्काार’ पुस्तक की तैयारी और ‘फेसबुक महिमा’ पुस्तक के लेखन में व्यस्त ।
         उन्हें वर्ष 2009 के लिए हास्य-व्यंग्य श्रेणी में ‘संवाद सम्मान’ भी दिया जा चुका है। ‘हिन्दी  साहित्यन निकेतन एवं  परिकल्पना के वर्ष के ‘सर्वात्त्म व्यंग्यकार ’। उत्तर भारतीय समाज एजूकेशनल एंड रिसर्च इंस्टीेच्यू्ट, मुंबई से ‘हिन्दी ब्लॉग भूषण’ सम्मा्न। भारत सरकार के ‘सूचना और प्रसारण मंत्रालय’ से ‘हिन्दी  साहित्य सम्मा्न’। (समाचार प्रस्तुति: संतोष त्रिवेदी, जे ३/७८ ए एफ.एफ. खिड़की एक्स.मालवीयनगर, नई दिल्ली-17/ मोबाइल: 9818010808)



'हिन्‍दीचेतना' का अक्‍टूबर दिसम्‍बर अंक 'लघुकथा विशेषांक'

श्री श्‍याम त्रिपाठी और सुधा ओम ढींगरा के संपादन में कैनेडा से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'हिन्‍दीचेतना' का अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2012 अंक 'लघुकथा विशेषांक' अब उपलब्‍ध हैजिसमें हैं सौ से भी अधिक लघुकथाएं। अतिथि सम्‍पादक द्वय श्री रामेश्‍वर काम्‍बोज 'हिमांशुतथा श्री सुकेश साहनी द्वारा सम्‍पादित एक संग्रहणीय अंक आधारशिलाअविस्‍मरणीयनई ज़मीनसम्‍पदास्‍वागतम् और मेरी पसंद स्‍तंभों के अंतर्गत प्रेमचंदउपेंद्रनाथअश्‍कहरिशंकर परसाईशरद जोशीराजेंद्र यादवरघुबीर सहायचेखवकाफ्काचार्ली चैपलिनअसगर वजाहत,आनंद हर्षुलचित्रा मुद्गलउदय प्रकाश सहित सौ से भी अधिक कहानीकारों की लघुकथाएं  लघुकथा को लेकरडॉ श्‍यामसुंदर दीप्तिडॉ सतीशराज पुष्‍करणाश्‍याम सुंदर अग्रवालसुभाष नीरवडॉ सतीश दुबेभगीरथ की विशेषपरिचर्चा  लघुकथा की सृजनात्‍मक प्रक्रिया श्री काम्‍बोज का विशेष लेख  लघुकथा पर एक समग्र दस्‍तावेज साथ में पुस्तक समीक्षासाहित्यिक समाचारचित्र काव्यशालाविलोम चित्र काव्यशाला और आख़िरी पन्ना यह लघुकथा विशेषांक अब ऑनलाइन उपलब्‍ध हैपढ़ने के लिये नीचे दिये गये लिंक पर जाएं  ऑन लाइन पढ़ें- http://issuu.com/hindichetna/docs/hindi_chetna_oct_dec_2012 । डाउनलोड करें-
http://www.divshare.com/download/19646010-108 । वेबसाइट से डाउनलोड करें-
http://www.vibhom.com/hindi%20chetna.html । फेस बुक पर-
http://www.facebook.com/people/Hindi-Chetna/100002369866074 । ब्‍लाग पर उपलब्ध- (1.)
(समाचार प्रस्तुति : रामेश्‍वर काम्‍बोज 'हिमांशु', अतिथि सम्‍पादक )





हरिद्वार में राजेन्द्र परदेशी सम्मानित


     विगत दिनों हरिद्वार की प्रमुख साहित्यिक संस्था ‘दीपशिखा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच, ज्ञानोदय अकादमी हरिद्वार द्वारा संस्था के संस्थापक अध्यक्ष के. एल. दिवान के संयोजन में आयोजित एक साहित्यिक आयोजन में पंजाब कला अकादमी, जालन्धर के निदेशक व हाइकु क्लब, लखनउ के अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र परदेशी जी को ‘माँ लक्ष्मी देवी दीपशिखा सम्मान-2012’ से सम्मानित किया गया। लिटिल एंजिल्स प्रीपरेटरी स्कूल के सभागार में साहित्यकार श्रीमती नीरा भारद्वाज की अध्यक्षता में संपन्न इस आयोजन में श्री परदेशी जी का माल्यार्पण से स्वागत करने के बाद प्रतीक चिह्न, दुशाला, पुस्तकें एवं सम्मान-पत्र भेंट आदि भेंट कर सम्मानित किया गया। परदेशी जी को कहानी, कविता, हाइकु, साक्षात्कार, समीक्षा आदि विधाओं में लेखन के लिए देश-भर में जाना जाता है। इस अवसर पर परदेशी ने अपने संदेश में रचनाकारों से कहा कि उनको अपनी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ अवश्य भेजना चाहिए। रचना प्रकाशित होने पर हज़ारों साहित्य-प्रेमी पाठकों तक पहुंचती है।
    इस अवसर पर बलदेव राज बत्रा, प्रतिभा सिंह, रजनी रंजना, सत्यदेव बढेजा, प्राची त्यागी, सुशील कुमार ‘अमित’, राजूकारी, श्रीमती गीता, आचार्य राधेश्याम सेमवाल, माधवेन्द्र सिंह, कमलकान्त बुधकर, आकाश कोरी, शिवानी कोरी, दीपक कोरी, जय प्रकाश यात्री, दादा माणिक, सूर्यकान्त श्रीवास्तव, श्याम बनोधा तालिब, महेश भट्ट, ए. सी. काल, कमल दिवान एवं मनस्वी दिवान सहित अनेक स्थानीय साहित्यकार एवं गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे।   (समाचार प्रस्तुति : के. एल. दिवान)


जनक छन्द पर वृहत् संकलन

जनक छन्द पर श्री शिवशरण सिंह चौहान ‘अंशुमाली’ के संपादन में सहयोगी आधार पर एक वृहत् संकलन प्रकाशित किया जा रहा है। इस संकलन हेतु कविगण अपने 20 श्रेष्ठ जनक छन्द, अपने परिचय एवं एक फोटो तथा एक प्रति के मूल्य रु. 100/- के साथ श्री शिवशरण सिंह चौहान ‘अंशुमाली’, 253, ई.डब्ल्यू.एस., स्टेट बैंक के पीछे, आवास विकास, फतेहपुर-212601(उ.प्र.) के पते पर प्रेषित कर सकते हैं। अधिक जानकारी हेतु अंशुमाली जी से मोबाइल: 9236584625 पर सम्पर्क कर सकते हैं। सामग्री दिसम्बर 2012 के अन्त तक मांगी गई है। 
(समाचार सौजन्य: महावीर उत्तरांचली, बी-4/79, पर्यटन विहार, बसुन्धरा एंक्लेव, नई दिल्ली-110096)


बहुप्रतीक्षित हाइकु संकलन ‘यादों के पांखी’ प्रकाशित 


    बहुप्रतीक्षित हाइकु संकलन ‘यादों के पांखी’ प्रकाशित हो चुका है। श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ.भावना कुँअर एवं डॉ.हरदीप कौर सन्धु के सम्पादन में प्रकाशित इस संकलन का संयोजन सुश्री रचना श्रीवास्तव ने किया है। इसमें देश-विदेश के 48 कवियों के यादों पर आधारित चुने हुए 793 हाइकु संकलित हैं। सम्मिलित रचनाकार हैं- 1- डॉ.भगवतशरण अग्रवाल, 2-डॉ.सुधा गुप्ता, 3-डॉ.मिथिलेश दीक्षित, 4-डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव, 5- डॉ.गोपाल बाबू शर्मा, 6-डॉ. उर्मिला अग्रवाल, 7-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, 8-डॉ.भावना कुँअर, 9-डॉ.हरदीप कौर सन्धु, 10-सतीष राज पुष्करणा, 11-चन्द्र बली शर्मा, 12-प्रगीत कुँअर, 13-रचना श्रीवास्तव, 14-कमला निखुर्पा, 15-डॉ.जेन्नी शबनम, 16-सुशीला शिवराण, 17-प्रियंका गुप्ता, 18-डॉ.अनीता कपूर, 19-डॉ. श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’, 20-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा, 21-रेखा रोहतगी, 22-श्याम सुन्दर अग्रवाल, 23-सुदर्शन रत्नाकर, 24-सुभाष नीरव, 25-मंजु मिश्रा, 26-राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’, 27-स्वाति भालोटिया, 28-डॉ सरस्वती माथुर, 29-प्रो. दविंद्र कौर सिद्धू, 30-वरिन्दरजीत सिंह बराड़, 31-डॉ.मिथिलेश कुमारी मिश्र, 32-डॉ.रमा द्विवेदी, 33-संगीता स्वरूप, 34-मुमताज टी एच खान, 35.डॉ.उमेश महादोषी, 36-अमिता कौण्डल, 37- ऋता शेखर ‘मधु’, 38-सीमा स्मृति, 39-भावना सक्सेना, 40-कृष्णा वर्मा, 41-तुहिना रंजन, 42-सारिका मुकेश, 43-ज्योतिर्मयी पन्त, 44-दिलबाग विर्क, 45-पुष्पा जमुआर, 46-उमेश मोहन धवन, 47.अनुमपा त्रिपाठी एवं 48-कृष्ण कुमार कायत। (समाचार सौजन्य: रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, नई दिल्ली)


ग्रन्थ अकादमी की ‘ब्रह्मानंद ग्रन्थावली’ का लोकार्पण किया हुड्डा ने

पंचकूला। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने हरियाणा ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाषित ‘संत ब्रह्मानंद सरस्वती ग्रन्थावली’ का लोकार्पण करनाल के निकट अंजनथली स्थित ब्रह्मानंद कन्या महाविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर आयोजित समारोह में किया। श्री हुड्डा ने अकादमी के इस प्रकाषन की सराहना की। उल्लेखनीय है कि संत ब्रह्मानंद के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में यह समारोह आयोजित किया गया था। इस अवसर पर हरियाणा ग्रन्थ अकादमी के उपाध्यक्ष कमलेष भारतीय, निदेषक डा. मुक्ता व ग्रन्थावली के संपादक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डा. बाबूराम भी मौजूद थे। 
 इनके अतिरिक्त मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार प्रो. वीरेंद्र, करनाल के सांसद अरविंद षर्मा, विधायक सुमिता सिंह, साध्वी मैत्रेयी आनंद व ब्रह्मानंद षिक्षा समिति के अध्यक्ष रतिराम आदि मौजूद थे। लगभग दो सौ पृश्ठों में प्रकाषित इस ग्रन्थ में संत ब्रह्मानंद की नीति विचार व ब्रह्मानंद पचासा सहित सभी पंाच पुस्तकों को एक स्थान पर संकलित किया गया है। इसमें संत ब्रह्मानंद से संबंधित चित्र व उनकी हस्तलिपि में काव्य भी सम्मिलित है। पुस्तक के आवरण पर संत ब्रह्मानंद का चित्र अंकित है। 
(समाचार प्रस्तुति: धर्मेंद्र सिंह, हरियाणा ग्रनथ अकादमी।)     


शब्द प्रवाह साहित्य मंच की दो योजनाओं हेतु आमन्त्रण

‘शब्द सागर’ काव्य संकलन

   सहयोगी आधार पर 200 पृष्ठों से अधिक के इस संकलन का सम्पादन श्री कमलेश व्यास ‘कमल’ द्वारा किय जायेगा। भागीदारी हेतु रचनाकार अपनी कम्प्यूटर टंकित श्रेष्ठतम 20 रचनाएँ सम्पादक को 20/7, कांकरिया परिसर, अंकपात मार्ग, उज्जैन (म.प्र.) के पते पर अपने पूर्ण परिचय व फोटो एवं 10-10 रुपये के दो लिफाफों सहित 30 अक्टूबर 2012 तक भेज सकते हैं। प्रत्येक चयनित रचनाकार को ग्यारह पृष्ठ आबंटित किए जायेंगे। रचनाओं के चयन की सूचना मिलने पर रचनाकार को निर्धारित सहयोग राशि भेजनी होगी। प्रकाशित होने के बाद प्रत्येक रचनाकार को 20-20 प्रतियाँ प्रदान की जायेंगी। अधिक जानकारी के लिए श्री कमल जी से रात्रि 8.30 से 10.30 के मध्य मो. 09893009932 पर सम्पर्क कर सकते हैं।

शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान-2013

    अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित इस सम्मान हेतु कविता संग्रह, व्यंग्य संग्रह एवं लघुकथा संग्रह के रूप में प्रविष्टियाँ आमन्त्रित हैं। वर्ष 2009 से 2012 के मध्य प्रकाशित पुस्तकें ही 31.12.2012 तक तीन प्रतियों, रचनाकार के पूर्ण परिचय, दो रंगीन फोटो तथा धनादेश द्वारा रु. तीन सौ रुपये प्रविष्टि शुल्क सहित भेजी जा सकती हैं। प्रत्येक विधा में प्रथम पुरस्कार के अन्तर्गत रु 1100/- नकद राशि, आकर्षक सम्मानोपाधि प्रशस्ति-पत्र, स्मृति चिह्न के साथ सारस्वत सम्मान, द्वितीय व तृतीय पुरस्कार स्वरूप आकर्षक सम्मानोपाधि प्रशस्ति-पत्र, स्मृति चिह्न के साथ सारस्वत सम्मान पदान किया जायेगा। अन्य कृतियों के रचनाकारों को भी सम्मानोपाधि प्रशस्ति पत्र भेजे जायेंगे। सभी प्रविष्टि प्रेषकों को त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द प्रवाह’ एक वर्ष तक निःशुल्क प्रेषित की जायेगी। प्रविष्टियाँ शब्द प्रवाह साहित्य मंच, ए-99, व्ही.डी. मार्केट, उज्जैन-456006 (म.प्र.) के पते पर आमन्त्रित की गई हैं। विस्त्रत जानकारी मोबाइल संख्या 09926061800 एवं 09406880599 पर सम्पर्क कर ली जा सकती है। (समाचार प्रस्तुति: संदीप सृजन, संपादक: शब्द प्रवाह)


शिव संकल्प साहित्य परिषद का साहित्यिक आयोजन

    होशंगाबाद की साहित्यिक संस्था शिव संकल्प साहित्य परिषद द्वारा विगत दिनों एक काव्याभिनंदनम् एवं लोकार्पणम् कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस आयोजन में साहित्यकार प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे मण्डला, नपाध्यक्ष श्रीमती माया नारोलिया एवं प्रखर समीक्षक डॉ. रघुनंदन प्रसाद सीठा ने शिक्षक-कवि श्री विनोद परसाई की कृति ‘प्रबोध गीता’ का लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर श्री खरे सहित अनेक साहित्यकार शिक्षकों को परिषद की मानद उपाधियों से सम्मानित भी किया गया। आयोजन के दूसरे सत्र में एक काव्य गोष्ठी संपन्न हुई, जिसमें सर्व श्री गिरिजा शंकर शर्मा, आचार्य विकल, जगदीश बाजपेयी, पं. गिरिमोहन गुरु, बृजमोहन पाण्डे, करम होशंगाबादी, अशोक गंगराड़े, बाबूलाल खण्डेलवाल, देवदत्त हंगामी आदि अनेक कवियों ने भाग लिया। कार्यक्रम का संचालन पं. गिरिमोहन गुरु ने किया। बृजमोहन पाण्डे ने सभी का आभार प्रकट किया। (समाचार प्रस्तुति: पं. गिरिमोहन गुरु) 


तस्लीम एवं परिकल्पना डॉट कॉम का संयुक्त आयोजन : ब्लॉगरों का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन


   आज से 75 साल पहले सन 1936 में लखनऊ शहर प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन का गवाह बना था, जिसकी गूंज आज तक सुनाई पड़ रही है। उसी प्रकार आज जो लखनऊ में ब्लॉग लेखकों का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हो रहा है, इसकी गूंज भी आने वाले 75 सालों तक सुनाई पड़ेगी।
    उपरोक्त विचार बली प्रेक्षागृह, कैसरबाग, लखनऊ में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगर सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रतिश्ठित कवि उद्भ्रांत ने व्यक्त किये। सकारात्मक लेखन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से यह सम्मेलन तस्लीम एवं परिकल्पना समूह द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में पूर्णिमा वर्मन (शारजाह), रवि रतलामी (भोपाल), शिखा वार्श्णेय (लंदन), डॉ0 अरविंद मिश्र (वाराणसी), अविनाश वाचस्पति (दिल्ली), मनीष मिश्र (पुणे), इस्मत जैदी (गोवा), आदि ब्लॉगरों ने अपने उद्गार व्यक्त किये। कार्यक्रम को मुद्राराक्षस, शैलेन्द्र सागर, वीरेन्द्र यादव, राकेश, शकील सिद्दीकी, शहंशाह आलम, डॉ. सुभाष राय, डॉ. सुधाकर अदीब, विनय दास आदि वरिष्ठ साहित्यकारों ने भी सम्बोधित किया। वक्ताओं ने अपनी बात रखते हुए कहा कि इंटरनेट एक ऐसी तकनीक है, जो व्यक्ति को अभिव्यक्ति का जबरदस्त साधन उपलब्ध कराती है, लोगों में सकारात्मक भावना का विकास करती है, दुनिया के कोने-कोने में बैठे लोगों को एक दूसरे से जोड़ने का अवसर उपलब्ध कराती है और सामाजिक समस्याओं और कुरीतियों के विरूद्ध जागरूक करने का जरिया भी बनती है। इसकी पहुँच और प्रभाव इतना जबरदस्त है कि यह दूरियों को पाट देता है, संवाद को सरल बना देता है और संचार के उत्कृष्ट साधन के रूप में उभर कर सामने आता है। लेकिन इसके साथ ही साथ जब यह अभिव्यक्ति के विस्फोट के रूप में सामने आती है, तो उसके कुछ नकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलते हैं। ये परिणाम हमें दंगों और पलायन के रूप में झेलने पड़ते हैं। यही कारण है कि जब तक यह सकारात्मक रूप में उपयोग में लाया जाता है, तो समाज के लिए अलादीन के चिराग की तरह काम करता है, लेकिन जब यही अवसर नकारात्मक स्वरूप अख्तियार कर लेता है, तो समाज में विद्वेष और घृणा की भावना पनपने लगती है और नतजीतन सरकारें बंदिशों का हंटर सामने लेकर सामने आ जाती हैं। लेकिन यदि रचनाकार अथवा लेखक सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखते हुए इंटरनेट के इस साधन का उपयोग करे, तो कोई कारण नहीं कि उसके सामने किसी तरह का खतरा मंडराए। इससे समाज में प्रेम और सौहार्द्र का विकास भी होगा और देश तरक्की की सढ़ियाँ भी चढ़ सकेगा।  
इस अवसर पर देश के कोने-कोने से आए 200 से अधिक ब्लॉगर, लेखक, संस्कृतिकर्मी और विज्ञान संचारक भी उपस्थित रहे। कार्यक्रम में तीन चर्चा सत्रों (न्यू मीडिया की भाशाई चुनौतियाँ, न्यू मीडिया के सामाजिक सरोकार, हिन्दी ब्लॉगिंगः दशा, दिशा एवं दृष्टि) में रचनाकारों ने अपने विचार रखे। इस अवसर पर कार्यक्रम के संयोजक रवीन्द्र प्रभात ने ब्लॉगरों की सर्वसम्मति से सरकार से ब्लॉग अकादमी के गठन की मांग की, जिससे ब्लॉगरों को संरक्षण प्राप्त हो सके और वे समाज के विकास में सकारात्मक योगदान दे सकें।
    इस अवसर पर ‘वटवृक्ष‘ पत्रिका के ब्लॉगर दशक विशेषांक का लोकार्पण किया गया, जिसमें हिन्दी के सभी महत्वपूर्ण ब्लॉगरों के योगदान को रेखांकित किया गया है। इसके साथ ही साथ कार्यक्रम के सह संयोजक डॉ0 जाकिर अली रजनीश की पुस्तक ‘भारत के महान वैज्ञानिक‘ एवं अल्का सैनी के कहानी संग्रह ‘लाक्षागृह‘ तथा मनीष मिश्र द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘हिन्दी ब्लॉगिंग: स्वरूप व्याप्ति और संभावनाएं‘ का भी लोकार्पण इस अवसर पर किया गया।
     कार्यक्रम के दौरान ब्लॉग जगत में उल्लेखनीय योगदान के लिए पूर्णिमा वर्मन, रवि रतलामी, बी एस पावला, रचना, डॉ अरविंद मिश्र, समीर लाल समीर, कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव को ‘परिकल्पना ब्लॉग दशक सम्मान‘ से विभूषित किया गया। इसके साथ ही साथ अविनाश वाचस्पति को प्रब्लेस चिट्ठाकारिता शिखर सम्मान, रश्मि प्रभा को शमशेर जन्मशती काव्य सम्मान, डॉ सुभाष राय को अज्ञेय जन्मशती पत्रकारिता सम्मान, अरविंद श्रीवास्तव को केदारनाथ अग्रवाल जन्मशती साहित्य सम्मान, शहंशाह आलम को गोपाल सिंह नेपाली जन्मशती काव्य सम्मान, शिखा वार्ष्णेय को जानकी बल्लभ शास्त्री स्मृति साहित्य सम्मान, गिरीश पंकज को श्रीलाल शुक्ल व्यंग्य सम्मान, डॉ. जाकिर अली रजनीश को फैज अहमद फैज जन्मशती सम्मान तथा 51 अन्य ब्लॉगरों को ‘तस्लीम-परिकल्पना सम्मान‘ प्रदान किये गये।
{ समाचार सौजन्य :  डॉ0 ज़ाकिर अली रजनीष (मो0: 9935923334द्ध, ईमेल : zakirlko@gmail.com /वेबपेज : http://ts.samwaad.com/?m=1
श्री रवीन्द्र प्रभात  (मो 9415272608 /  ईमेल : parikalpanaa@gmail.com / वेबपेज :www.parikalpnaa.com }




सतीश चन्द्र शर्मा ‘सुधांशु’ एवं डॉ. वीरेन्द्र कुमार दुबे को ‘‘आलराऊँड कवि’’ की उपाधि

      अंग्रेजी, हिन्दी एवं पंजाबी साहित्य के विकास व प्रचार में रत फरीदकोट की संस्था ‘आलराऊँड अकादमी’ द्वारा मैनपुरी, उ.प्र.निवासी कवि सतीश चन्द्र शर्मा एवं जबलपुर निवासी कवि डॉ. वीरेन्द्र कुमार दुबे को ‘‘आलराऊँड कवि’’ की उपाधि से सम्मानित किया गया है। यह उपाधि इन कवियों को उनके बहुमुखी व्यक्तित्व एवं काव्य साहित्य में उनके योगदान के लिए प्रदान की गई है। (समाचार प्रस्तुति: अमित कुमार लाड़ी, अध्यक्ष: ‘आलराऊँड अकादमी’, फरीदकोट, पंजाब)


अमित कुमार लाड़ी सम्मानित
   





अंग्रेजी, हिन्दी एवं पंजाबी साहित्य के विकास व प्रचार में रत फरीदकोट की संस्था ‘आलराऊँड अकादमी’ के अध्यक्ष एवं मासिक पत्रिका ‘आलराऊँड’ के संपादक श्री अमित कुमार लाड़ी को ग्वालियर की साहित्यिक संस्था ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद द्वारा ‘उत्कृष्ट हिन्दी सेवी सम्मान’ से सम्मानित किया गया। विभिन्न प्रान्तों से आये अनेकों साहित्यकारों की उपस्थिति में ग्वालियर के माधव महाविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में श्री लाड़ी को शाल, पुस्तकें, स्मृति चिह्न व प्रमाण-पत्र प्रदान कर सम्मानित किया गया। श्री लाड़ी ‘आलराऊँड’ पत्रिका को हिन्दी, अंग्रेजी एवं पंजाबी तीन भाषाओं में संपादित/प्रकाशित करते हैं। (समाचार प्रस्तुति: अमित कुमार लाड़ी, अध्यक्ष: ‘आलराऊँड अकादमी’, फरीदकोट, पंजाब)

280. डॉ. चन्द्राजीराव इंगले

डॉ. चन्द्राजीराव इंगले






लेखन/प्रकाशन/योगदान  :   इंगले जी कविता, व्यंग्य, समीक्षा तथा स्वास्थय व आयुर्वेद सम्बन्धी लेखन में योगदान कर रहे हैं। रचनाओं का विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन। शुचि ‘अनुभूत प्रयोगांक व ग्रहवस्तु चिकित्सांक, शुचि कथांक तथा आयुर्वेदिक पेटेन्ट औषधि विशेषांक का सम्पादन भी किया है।

सम्प्रति  :  चिकित्सक।

सम्पर्क  :  घोष एस.टी.डी. के पीछे, इंदिरा नगर, बी.एच.ई.एल., झांसी-284129 (उ.प्र.)
                       मोबाइल :  09889176926



अविराम में प्रकाशन

मुद्रित प्रारूप  :  अप्रैल-जून 2012 अंक में कविता- ‘श्रमिक की बिडम्बना’।




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279. निर्मला अनिल सिंह

निर्मला अनिल सिंह




जन्म  :  21 दिसम्बर, आजमगढ़ में।

शिक्षा  :  एम. ए. (अंग्रेजी व हिन्दी), बी.एड.।

लेखन/प्रकाशन/योगदान  :  कविता व कथा साहित्य में समान रूप से लेखन। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।

सम्प्रति  :  अध्यापनरत।

सम्पर्क  :  रीना एकेडमी जूनियर हाईस्कूल, हाइडिल कॉलोनी,, रानीखेत (उत्तराखण्ड) 
                         मोबाइल : 09457295599


अविराम में प्रकाशन

मुद्रित प्रारूप  :  अप्रैल-जून 2012 अंक में कविता- ‘एक प्रश्न’।

ब्लॉग प्रारूप :  सितम्बर 2012 अंक में एक कविता- 'मौत '




नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है।
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगा। यदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे।

278. रजनीश त्रिपाठी

रजनीश त्रिपाठी





जन्म  :  18 जुलाई 1986 को ग्राम नोनापार, देवरिया (उ.प्र.) में।

शिक्षा  :   एम.ए. (हिन्दी व मनोविज्ञान), बी.एड.।

लेखन/प्रकाशन/योगदान  :   कविता कहानी एवं मनोवैज्ञानिक लेख। कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। आकाशवाणी व दूरदर्शन से प्रसारण।

सम्प्रति  :  शिक्षक।

सम्पर्क  :  द्वारा उमेश तिवारी, शांडिल्य निवास, ग्राम-पत्रालय-नोनापार, जिला-देवरिया (उ.प्र.)
                         मोबाइल : 09125747488



अविराम में प्रकाशन

मुद्रित प्रारूप  :  अप्रैल-जून 2012 अंक में कविता ‘आप बीती’ एवं तीन दोहे।

ब्लॉग प्रारूप  :  जनवरी 2012 अंक में कविता ‘यथार्थ’।




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277. मो. क़ासिम खॉन ‘तालिब’

मो. क़ासिम खॉन ‘तालिब’







जन्म  तिथि  :  08.10.1964।

शिक्षा  :   एम.ए. (राज.शास्त्र), बी.टी.अरई., सी.पी.एड., डी.सी.ए., आयु. रत्न, योग रत्न, अदीब-ए-माहिर, अदीब-ए-कामिल।

लेखन/प्रकाशन/योगदान  :  मूलतः गीतकार/ग़ज़लकार। प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। कई प्रमुख मंचों पर काव्य-पाठ। ‘ज़ज्बाते-तालिब’ (मज्मुआ-गीत, ग़जल) प्रकाशित कृति। ‘योग और इस्लाम’ सहित तीन पुस्तके प्रकाशनाधीन। ‘तालिब अकादमी’ नामक संस्था के अध्यक्ष।

सम्पर्क  :  14, अमीर कम्पाउण्ड, बी.एन.पी. रोड, देवास (म.प्र.)
                       मोबाइल  :  09754038864



अविराम का प्रकाशन

मुद्रित प्रारूप  :  अप्रैल-जून 2012 अंक में एक ग़ज़ल। 



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276. अर्जुन सिंह ‘तन्हा’

अर्जुन सिंह ‘तन्हा’






हाल ही में लिखना शुरू किया है।


सम्पर्क  :  ग्राम परसिया, बिसौली, जिला बदायूँ (उ.प्र.)




अविराम में प्रकाशन

ब्लॉग प्रारूप  :  फरवरी 2012 अंक में एक काव्य रचना- ‘ये दिल उसका दीवाना है’।






नोट : १. परिचय के शीर्षक के साथ दी गयी क्रम  संख्या हमारे कंप्यूटर में संयोगवश  आबंटित  आपकी फाइल संख्या है. इसका और कोई अर्थ नहीं है।
२. उपरोक्त परिचय हमें भेजे गए अथवा हमारे द्वारा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है. किसी भी त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं. त्रुटि के बारे में रचनाकार द्वारा हमें सूचित करने पर संशोधन कर दिया जायेगा। यदि रचनाकार अपने परिचय में कुछ अन्य सूचना शामिल करना चाहते हैं, तो इसी पोस्ट के साथ के टिपण्णी कॉलम में दर्ज कर सकते हैं। यदि किसी रचनाकार को अपने परिचय के इस प्रकाशन पर आपत्ति हो, तो हमें सूचित कर दें, हम आपका परिचय हटा देंगे।