आपका परिचय

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

बाल अविराम

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष :  2,  अंक : 9-10 ,  मई-जून  2013

।।बाल अविराम।।

सामग्री :  बाल अविराम के इस अंक में प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि प्रभुदयाल श्रीवास्तव की दो कविताएँ,  सक्षम गंभीर, राधिका शर्मा व मिली भाटिया के चित्रों के साथ।




प्रभुदयाल श्रीवास्तव




कड़क ठंड है

कितनी ज्यादा कड़क ठंड है
करते सी-सी पापा,
दादा कहते शीत लहर है
कैसे कटे बुढ़ापा।

बरफ पड़ेगी मम्मी कहतीं
ओढ़ रजाई सोओ,
किसी बात की जिद मत करना
चित्र : सक्षम गंभीर 
अब बिलकुल न रोओ।

किंतु घंटे दो घंटे में
पापा चाय मंगाते
बार-बार मम्मीजी को ही,
बिस्तर से उठवाते।

दादा कहते गरम पकोड़े
खाने का मन होता,
नाम पकोड़ों का सुनकर
किस तरह भला मैं सोता।

दादी कहती पैर दुख रहे
बेटा पैर दबाओ,
हाथ दबाकर मुन्ने राजा
ढेर आशीषें पाओ।

शायद बने पकोड़े आगे
मन में गणित लगाता,
दादी के हाथों पैरों को
हँसकर खूब दबाता। 


पाकिट खर्च बढ़ा दो मम्मी

पाकिट खर्च बढ़ा दो मम्मी
पाकिट खर्च बढ़ा दो पापा
चित्र : राधिका शर्मा 
एक रुपये में तो पापाजी
अब बाज़ार में कुछ न आता।

एक रुपये में तो मम्मीजी
चाकलेट तक न मिल पाती
इतने से थोड़े पैसे में
भुने चने मैं कैसे लाती?

ब्रेड मिल रही है पंद्रह में
और कुरकुरे दस में आते
एक रुपये की क्या कीमत है
पापाजी क्यों समझ न पाते।

पिज्जा है इतना महंगा कि
तीस रुपये में आ पाता है
एक रुपया रखकर पाकिट में
मेरा तन मन शर्माता है।

आलू चिप्स पाँच में आते
और बिस्कुट पेकिट दस में
अब तो ज्यादा चुप रह जाना
रहा नहीं मेरे बस में।

न अमरूद मिले इतने में
न ही जामुन मिल पाये
एक रुपये में प्रिय मम्मीजी
आप बता दो क्या लायें?

मुझको खाना आज जलेबी
पेंटिंग : मिली भाटिया 
मुझको खाना रसगुल्ला
इतने से पैसों में बोलो
क्या मिल पाये आज भला।

तुम्हीं बता दो अब मम्मीजी
कैसे पाकिट खर्च चले
समझा दो थोड़ा पापाको
उधर न मेरी दाल गले।

कम से कम दस करवा दें
इतने से काम चला लेंगे
एक साल तक प्रिय मम्मीजी
कष्ट आपको न देंगे।
  • 12 शिवम सुंदरम नगर छिंदवाड़ा म. प्र.              

अविराम विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 2,  अंक : 9-10 ,  मई-जून 2013

।।विमर्श।।
  
सामग्री : सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं चिन्तक डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी के साथ वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र परदेसी की बातचीत।


सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं चिन्तक डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी के साथ वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र परदेसी की बातचीत



परदेसी जी 
{विगत दिनों वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र परदेसी ने सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं चिन्तक डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी के व्यक्तित्व एवं कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनके विचार नई पीढ़ी के साहित्कारों एवं साहित्य प्रेमियों के समक्ष रखने हेतु उनसे बातचीत की। रुड़की के बी.एस.एम. स्नातकोत्तर महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य डॉ. अरुण जी देश के सुस्थापित/सुविख्यात साहित्यकार हैं। वह केन्द्रीय साहित्य अकादमी में उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। कई विश्वविद्यालयों की विभिन्न समितियों में रहे हैं। उनके महाकाव्य ‘‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’’ से प्रभावित होकर देश की पूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभा पाटिल अपने कार्यकाल के दौरान उन्हें राष्ट्रति भवन में सपरिवार आमन्त्रित कर सम्मान एवं आशीर्वाद प्रदान कर चुकी हैं। देश के कई प्रतिष्ठित सम्मान/पुरस्कारों से अरुण जी को नवाजा जा चुका है। हाल ही में उन्हें रामायण  विषयक शोध एवं विमर्श संबन्धी कार्य के लिए ‘‘श्रीमठ’’ वाराणसी के प्रतिष्ठित ‘‘तुलसी सम्मान’’ से विभूषित किया गया है। यहां हम श्री राजेन्द्र परदेसी द्वारा उनका साक्षात्कार अपने पाठकों के लिए रख रहे हैं।}



डॉ. अरुण जी 


अभावों ने मुझे भाव दिए हैं  :   डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ 

राजेन्द्र परदेसी :  पहले हमारी युवा पीढ़ी आपके व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानना चाहेगी- आपका जन्म स्थान, वहाँ का वातावरण आदि?

डॉ. अरुण:  मेरा जन्म पौराणिक तीर्थ कनखल, जोकि हरिद्वार से मात्र 3 कि.मी. की दूरी पर स्थित एक उपनगरीय क्षेत्र है, में एक पुरोहित परिवार में हुआ। पिताश्री पं. महेन्द्रनाथ शर्मा रामचरित मानस के अध्येता रहे हैं तथा माता श्रीमती विद्यावती भी पूर्णतः धार्मिक एवं सात्विक स्वभाव की थी। मुझ सहित हमारे पूरे परिवार को प्राप्त सात्विक आचरण एवं सकारात्मक दृष्टिकोंण का श्रेय हमारी माताश्री को ही जाता है। हम चारों बहन-भाइयों- बड़ी बहन श्रीमती विद्यावती, बड़े भाई गोपेन्द्रनाथ शर्मा, छोटा भाई बिजेन्द्रनाथ शर्मा और मेरे बीच हमेशा बेहद प्यार और स्नेह का वातावरण रहा। जीवन कई तरह के अभावों के बीच बीता। दसवीं व बारहवीं की परीक्षाएं नगरपालिका की लाइट में घंटों पढ़-पढ़कर दीं। घर में बिजली की सुविधा हमें 1963 में बी.ए. अन्तिम वर्ष के दौरान मिल सकी। लेकिन ये अभाव न होते तो शायद मैं वह न होता, जो आज हूँ। अभावों ने मुझे भाव दिए और मैं सकारात्मक दृष्टि लिए कविता की डगर पर चलता रहा। दसवीं तक जिस डॉ. हरिराम आर्य इन्टर कॉलेज, मायापुर, हरिद्वार में मैं पढ़ा हूँ, वहाँ मेरे गुरु डॉ. केहर सिंह चौहान ने मुझे विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाषण देना सिखाया और मैं लगभग सभी प्रतियोगिताओं में प्रथम आता रहा। कनखल के रामकृष्ण मिशन अस्पताल में रामकृष्ण परमहंस की जयंती पर जो व्याख्यान प्रतियोगिताएं होती थीं, उनमें पुरस्कार स्वरूप हमेशा विवेकानन्द साहित्य मिला करता था, जिसने मेरे व्यक्तित्व को गढ़ा। बी.ए. तक हरिद्वार में शिक्षा पाई, उसके बाद 1963 में मथुरा में केन्द्र सरकार के रक्षा लेखा विभाग में अपर डिवीजन क्लर्क बना और वहीं से 1964 में एम.ए. (हिन्दी) में प्रवेश लेकर 1966 में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की और गाजियाबाद के शम्भूदयाल कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति पाई। अध्यापन के दौरान ही 1973 में ‘‘जैन रामायण ‘पमचरिउ’ तथा रामचरित मानस के नारी पात्रों का तुलनात्मक अनुशीलन’’ विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 1974 में रीडर/विभागाध्यक्ष पद पर बी.एस.एम. पी.जी. कॉलेज, रुड़की में आ गया। 1986 में प्राचार्य पद पर चयनित हुआ। 2001 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के बाद से निरंतर लिखना-पढ़ना बना हुआ है।

राजेन्द्र परदेसी :  आपने लेखन कब प्रारम्भ किया? आपके प्रेरणा स्रोत क्या थे? आपकी प्रथम रचना कब और कहाँ प्रकाशित हुई?

डॉ. अरुण:  लेखन की शुरूआत के बारे में जहाँ तक याद है, जब मैं कक्षा 8 में था, विद्यालय पत्रिका के लिए एक छोटी सी कविता लिखी थी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं-
   ‘‘ए युवक निर्भय होकर, प्रतिपल आगे बढ़ तू
    मन में लेकर लगन, ज्ञान रूपी वृक्षों पर चढ़ तू’’
और उसके बाद गुरुजनों, विशेषतः पं. हेमचन्द्र पंत, श्री विवेकानन्द और डॉ. केहर सिंह चौहान की प्रेरणा से मैं कविताएं लिखने लगा और स्थानीय साप्ताहिक पत्रों में छपने भी लगा। मेरी पहली कविता श्री रमेश कुमार द्वारा संपादित व हरिद्वार से प्रकाशित एक साप्ताहिक में छपी, उसके बाद मैं निरंतर छपने लगा। पहली बार 1959 में दिल्ली से प्रकाशित फिल्मी पत्रिका ‘शमां’ में मेरी एक कविता ‘कल, आज और कल’ छपी, तो मनीआर्डर से बतौर पारिश्रमिक रु. 15/- आये, जो डाकिए ने बड़ी मुश्किल से कई गवाहियाँ लेने के बाद मुझे दिये थे। लेखन से वह मेरी पहली कमाई थी। इसके बाद लगातार नवभारत टाइम्स के ‘आपकी अपनी बात’ कॉलम में मेरे पत्र प्रकाशित होते रहे, जिन पर लम्बी बहसें भी होती रहीं।
राजेन्द्र परदेसी: आपकी लिखी रचनाओं की मुख्य प्रवृत्तियाँ क्या हैं? कुछ विस्तार से इस संदर्भ में बतायेंगे?
डॉ. अरुण: मेरी कविताओं का मूल स्वर आशावाद, आचरण की पवित्रता और कभी न हारने वाली जीवटता रहे है। बी.ए. के पाठ्यक्रम में शामिल रावर्ट ब्राउनिंग की एक अंग्रेजी कविता ‘Last Ride’ की इन पंक्तियों ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया- 
   “I always remained a fighter
    So one fight more
    Best and the last”

     इन पंक्तियों ने मुझे जीवन भर संघर्ष की प्रेरणा दी है और मैं अपने संघर्ष को सकारात्मक रचनात्मकता में रूपान्तरित करता रहा हूँ।

राजेन्द्र परदेसी :  क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि साहित्य का संबंध साहित्यकार के जीवन से होता है, अतः क्या वही साहित्य महत्ता प्राप्त करता है जिसका संबंध सर्जक के जीवन से होता है?

डॉ. अरुण:  निश्चित रूप से। मैं यह मानता हूँ कि अपने जीवन में साहित्यकार कहीं न कहीं हर पल गुथा (समाहित) रहता है। साहित्यकार भी मूलतः समाज का ही अंग है, वह भी विसंगतियों को लगातार जीता है। उसके जीवन में विद्रोह, क्षोभ, असंतोष जब सकारात्मक रूप ले लेते हैं तो सृजन होता है। भारतेन्दु जी कहते थे, ‘जिस धन ने मेरे पुरखों को खा लिया, मैं उसे खा जाऊँगा।’ और उन्होंने दोनों हाथों से धन को लुटाया। यह उनका विद्रोह था। मुझे अपने बचपन में कुछ नहीं मिला, लेकिन मैं अपनी आने वाली पीढ़ियों को वह सब कुछ देने के लिए प्रतिबद्ध हूँ, जो सामान्य जीवन के लिए जरूरी है। यह मेरा अपने तरह का विद्रोह ही है। साहित्यकार के जीवन से जुड़ी ऐसी चीजें जब सकारात्मक रचनात्मकता के साथ साहित्य में आती हैं, तो वे निश्चित रूप से महत्ता प्राप्त करती हैं।

राजेन्द्र परदेसी :  आपकी दृष्टि में समकालीन हिन्दी साहित्य का सच क्या है? क्या यह सच वही सच है, जो आजादी के बाद प्रगतिवाद और व्यक्तिवाद के शोर के रूप में सामने आया था?

डॉ. अरुण:  आज की कविता आजादी से पहले के मूल्यों को लगभग पूरी तरह छोड़ चुकी है। अगर प्रतीक रूप में कहूँ तो आजादी से पूर्व साहित्य और पत्रकारिता ‘मिशन’ थे, जबकि आज ये दोनों ‘सब मिशन’ हो गये हैं। यही कारण है कि आज का रचनाधर्मी वादों-विवादों में फंस गया है। समाज से ज्यादा व्यक्तिगत अहं की तुष्टि उसका उद्देश्य हो गया है। शोर वादों का हो या विवादों का, साहित्य के लिए हमेशा घातक होता है। यह बेहद दुःखद है कि आज का साहित्य इसका शिकार हो गया है। फिर भी यदा-कदा कहीं कोई रचनाधर्मी वादों-विवादों से दूर सृजनरत दिखाई दे जाता है, तो अच्छा लगता है।

राजेन्द्र परदेसी :  आधुनिक हिन्दी साहित्य में जो सृजन हो रहा है, वह भारतीय जीवन के कितने निकट है? उससे आधुनिक जीवन कहां तक प्रभावित है?

डॉ. अरुण:  आधुनिक साहित्य में हम पश्चिम को आधार बनाकर लिख रहे हैं, इसलिए हमारे शाश्वत मूल्य- सात्विक जीवन, सहिष्णुता, आशावाद आदि के स्थान पर भोग प्राप्ति, अहं और सबसे बढ़कर असहिष्णुता हमारे लेखन में ध्वनित होने लगी है। अधिकांश आधुनिक साहित्य उधार का लग रहा है। तात्पर्य भारतीय जीवन मूल्यों से कटा हुआ साहित्य रचा जा रहा है। चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है और जीवन को दिशा देने में उसकी भूमिका होती है, तो पश्चिम से प्रभावित आधुनिक साहित्य हमारे जीवन को भारतीय मूल्यों से विमुख ही करेगा। और हो भी यही रहा है।

राजेन्द्र परदेसी : आज का सर्जनात्मक साहित्य क्या आधुनिक जीवन की विषमताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं से ही प्रभावित हो रहा है अथवा परम्परा से सम्बद्ध होकर प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त कर रहा है?

डॉ. अरुण:  आपके अभिप्राय से मैं सहमत हूँ, क्योंकि जो पुराने जीवन मूल्यों को लेकर लिखता है तो पुरातनपंथी कहकर उसका मजाक उड़ाया जाता है। विषमताएं, विसंगतियां और विद्रूपताएं जीवन में आ गई हैं, तो साहित्य में प्रतिबिम्बित होगी ही, पर इसकी आड़ में तथाकथित ‘बोल्डनेस’ के नाम पर अश्लीलता और नंगापन कथा-साहित्य में आम बात हो गई है। नारी केन्द्रित लेखन के नाम पर परम्पराओं को तोड़ना फैशन बन गया है। इससे समाज में भी कहीं न कहीं टूटन और भटकाव की स्थिति पैदा हो रही है। जीवन में आ गईं विषमताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं को भारतीय जीवन मूल्यों को पुनसर््थापित करने के परिप्रेक्ष्य में साहित्य में उभारा जाये, तो ऐसा साहित्य समाज को दिशा देने में सहायक हो सकता है।

राजेन्द्र परदेसी : क्या वर्तमान हिन्दी साहित्य सांस्कृतिक धरोहर के प्रति सजग है? यदि सजग है तो किस सीमा तक?

डॉ. अरुण:  वर्तमान हिन्दी साहित्य मेरी दृष्टि से संस्कृति को बोझ मानने लगा है और इसीलिए आप देखेंगे कि प्राचीन पौराणिक साहित्य को आधार बनाकर इधर बहुत कम रचनाएं हिन्दी साहित्य में आई हैं। जबकि तमिल, मलयालम और तेलगू भाषी रचनाकार पौराणिक साहित्य से आज भी जुड़े हुए हैं। हमारे पौराणिक साहित्य में अनेक महत्वपूर्ण चरित्र हैं, जिनकी सकारात्मक दृष्टि को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में साहित्य में प्रतिबिम्बित करके समाज के मार्गदर्शन की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य किया जा सकता है। कई आधुनिक विमर्श इन चरित्रों से ऊर्जा ग्रहण कर सकते हैं। दुर्भाग्य से इस तरह की सजगता आधुनिक हिन्दी साहित्य में बहुत कम देखने को मिल रही है।

राजेन्द्र परदेसी : आज हिन्दी कविता में रागात्मक अनुभूति क्षीणतर होती जा रही है, उसमें जीवन्तता का अभाव है। अतः कविता जन-जीवन से कट रही है। आप क्या कहेंगे?

डॉ. अरुण:  बिल्कुल ठीक बात है। आज कविता रागात्मक तत्व के न होने से नीरस हो गई है। रागात्मकता न होने के कारण स्वयं कवि भी अपनी कविता को याद नहीं रख पाता है। छन्द का गायब होना निराशाजनक है। आज भी संगीतकार सूर, मीरा, कबीर, रहीम की रचनाओं को आधार बनाते हैं तो इसके पीछे रागात्मक तत्व ही प्रमुख है। नवगीत के रूप में गीत की वापसी कविता में रागात्मक अनुभूति की महत्ता को दर्शाती है।

राजेन्द्र परदेसी :  क्या हिन्दी का आधुनिक कथा-साहित्य पाश्चात्य-जीवन शैली एवं दर्शन से अधिक प्रभावित है?

डॉ. अरुण:  बिल्कुल। जैसा कि मैने पहले भी कहा है, पश्चिम से आयातित तथाकथित ‘बोल्डनेस’ के नाम पर कथा साहित्य में आज अश्लीलता और नंगापन परोसा जा रहा है। दूसरी ओर नारी विमर्श, दलित विमर्श भी पश्चिम से ही प्रेरित हैं। आज कथा साहित्य को खांचों में बांटकर भारतीय जीवन मूल्यों से विमुख किया जा रहा है।

राजेन्द्र परदेसी :  भूमण्डलीकरण और बाजारवाद के कारण महानगरों में रहने वाले लोगों की सोच में काफी अन्तर आ गया है। फिर हमारे सर्जक महानगरों की चकाचौंध में फंसे हुए अपने को ग्रामीण अंचलों से जोड़ते नहीं। इस विषय पर आपके विचार  क्या हैं?

डॉ. अरुण:  महानगरों में जो लोग हैं, साहित्य और जीवन मूल्यों में उनकी रुचि नहीं है। उनकी रुचि तो शेयर बाजार, टी.वी. चैनलों पर परोसे जा रहे अश्लील कार्यक्रमों तथा येन-केन प्रकारेण पैसा कमाने में है। पैसे से बड़ा उनके लिए कोई दूसरा मूल्य नहीं है। इस तथाकथित महानगरीय संस्कृति की चपेट में हमारे सर्जक भी आ गये हैं। चूंकि ग्रामीण अंचलों में हमारी भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्य आज भी काफी सीमा तक संरक्षित हैं, अतः रचनाधर्मियों से अपने आपको इन अंचलों से जोड़कर अपने अनुभव संसार को समृद्ध करने की अपेक्षा की जाती है, ताकि उनके लेखन में अपनी मांटी की सुगन्ध आ सके।

राजेन्द्र परदेसी :  समकालीन रचना परिदृश्य से आप स्वयं किस तरह जुड़ते हैं? और उससे कहां अलग होते हैं?

डॉ. अरुण:  जहाँ आज भी स्वस्थ परंपराएं, शाश्वत जीवन मूल्य, त्याग, सहिष्णुता आदि विद्यमान हैं, वहाँ मैं जुड़ता हूँ। ये मूल्य आज भी मेरे लिए सर्वाधिक प्रासंगिक हैं। यही कारण है कि मैंने कविकुल गुरु कालिदास की पत्नी विदुषी विद्योत्तमा को केन्द्र में रखकर संभवतः पहली बार आठ सर्गों का महाकाव्य ‘‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’’ की रचना की है, जिसे कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। इसी प्रकार मेरी कहानियों में आशावादिता और त्याग के साथ-साथ समर्पण जैसे जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है। छिछली अश्लीलता और थोथी संकीर्णताओं को साहित्य में अभिव्यक्ति करना साहित्यकार का उद्देश्य नहीं होता। 

राजेन्द्र परदेसी : अपने अनुभवों के आधार पर नयी पीढ़ी के रचनाकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे?

डॉ. अरुण:  मैं अपनी नई पीढ़ी से कहना चाहूँगा कि हमारी भारतीय जीवन-दृष्टि और जीवन-दर्शन आज भी पूरे विश्व को जीवन अमृत देने में समर्थ हैं। धन, ऐश्वर्य और समृद्धि कभी स्थाई नहीं होते। अगर कुछ स्थाई होता है तो केवल आत्म-संतोष और स्वाभिमान। इसीलिए चार पंक्तियों में अपने युवा रचनाकारों से मेरा अनुरोध है कि वे अपनी संवेदनशीलता को सदैव सुरक्षित रखते हुए अभावों में भाव ढूढ़ने का प्रयास करते रहें-

‘‘ले तो सकते हैं सभी, तुम देना सीखो।
कराह सकते हैं सभी, तुम सहना सीखो।
बेवश नयनों से झलकते हों जब आंसू,
हँस तो सकते हैं सभी, तुम रोना सीखो।


  • डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’, 74/3, नया नेहरूनगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखंड)         मो. 09412070351
  •  राजेन्द्र परदेसी, 44, शिव विहार, फरीदीनगर, लखनऊ-226015 (उत्तर प्रदेश)                           मो. 09415045584

किताबें

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 9-10,  मई-जून  2013  


{अविराम के ब्लाग के इस अंक में  वरिष्ठ कथाकार डॉ. सतीश दुबे  के कहानी संग्रह ‘‘कोलाज’’ की तथा वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ के महाकाव्य "वैदुष्यमणि विद्योतमा" की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा द्वारा लिखित समीक्षायें  रख रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें।}



डॉ. उमेश महादोषी


कोलाज : बदलते परिवेश की सटीक कहानियां 

     जो बहुत कम कथाकार एक साथ कथा-साहित्य की तीनों विधाओं- उपन्यास, कहानी और लघुकथा में समान रूप से सफल हुए हैं, शीर्षस्थ कथाकार डॉ. सतीश दुबे उनमें शामिल तो हैं ही, तीनों विधाओं को नए आयाम देने की दृष्टि से वह अपने समकक्ष कथाकारों से अलग भी हैं। यह भिन्नता सामान्यतः चिन्तन, विचार और उत्तरदायित्व के स्तर पर उनकी रचनाओं में उभरकर सामने आती है। उनका मौलिक और तार्किक चिन्तन कथ्य व पात्रों के चयन-आधार के साथ कथा के प्रस्तुतीकरण में देखा जा सकता है। पात्रों के मामले में डॉ. दुबे साहब बेहद संजीदा रहते हैं। वैचारिक स्तर पर उनके लेखन में परिवेश की नाप-जोख और परीक्षण के मध्य परिस्थितियों के सापेक्ष श्रेष्ठतर व्यवस्थाएं उभरकर सामने आती हैं, जो उनके पात्रों के समग्र चरित्र, समस्याओं के निदान-पथ और बदलते परिवेश के प्रति संवेदन की सटीक व्याख्या करती हैं। वह नव्यता के आलोचक बनकर सामने नहीं आते, अपितु बेहद सतर्कता और समझदारी के साथ नव्यता का समग्र परीक्षण करके उसके सकारात्मक पहलुओं को उजागर करते हुए उसके साथ आकर खड़े हो जाते हैं। अपनी रचनाओं में पीढ़ी अन्तराल को वह समस्या नहीं, चुनौती के रूप में लेते हैं। आर्थिक दृष्टि से निम्न वर्ग के साथ भी उनके साहित्यकार का यही रिश्ता दिखता है। उनके चिन्तन और विचार की व्यापकता में बाल मनोविज्ञान के अनेक सूत्र भी अपनी गहरी जड़ों के साथ मौजूद होते हैं। बदलते परिवेश में बाल-जीवन के संस्कार उनके बाल-पात्रों के माध्यम से भविष्य की दिशा का संकेत देते हैं। बदलावों के मध्य सकारात्मकता की खोज या यूं कहिए बदलावों को सकारात्मकता की पटरी पर चलते देखना डॉ. दुबे साहब का विशेष दृष्टिकोंण है। जहां तक उत्तरदायित्व का प्रश्न है, साहित्यिक दृष्टि से इसमें दो बातें शामिल होती हैं- पहली, आप परिदृश्य में व्याप्त तरह-तरह के दृश्य-चित्रों में से किसे अपनी रचनात्मकता का माध्यम बनाते हैं और दूसरी, आप अपनी रचनात्मकता को कितनी स्वाभाविकता के साथ किस दिशा में ले जाते हैं। इस मायने में उनकी रचनाएं लेखकीय दायित्व के साथ चलती हैं।
     डॉ. सतीश दुबे जी की सोलह कहानियों का नया संग्रह ‘कोलाज’ उनके इसी कथाकार की रचनात्मक अभिव्यक्ति है, जो गहन अनुभूतियों और व्यापक अनुभवों की दुनियां में अवतरित पात्रों की शक्ल में पाठकों को आज की बदलती दुनियां में व्याप्त तमाम विसंगतियों और बिखरावों के मध्य जिन्दा जीवन मूल्यों की गंगा में डुबकी लगाने का अवसर मुहैया कराती है। इन कहानियों के सन्दर्भ में ‘शायद...?’ शीर्षक भूमिका में लिखे उनके इन शब्दों पर गौर कीजिए- ‘‘.... इस पारिवारिक बिखराव के लिए सोच के अलावा देश में व्याप्त स्थितियां, उसके लिए उत्तरदायी तथाकथित रहनुमा, जोड़-तोड़ हाय-तौबा, आदि के दृश्यों की अलग-अलग इतनी स्टिंग, नानस्टिक ऑपरेशन की वीडियो हैं कि उन्हें न तो आप देखना पसन्द करेंगे न मैं दिखाना।’’ वह आगे लिखते हैं- ‘‘.... तंगदिल, आत्मकेन्द्रित स्वार्थी मानसिकता के प्रगतिशील फोबिया से ग्रस्त नई पीढ़ी का एक वर्ग मात्र इसका हिस्सा है। इसी पीढ़ी का दूसरा वह वर्ग समाज में मौजूद है जो संवेदना, संवाद, सहयोग और सहानुभूति जैसे मानवीय तत्वों की पैरोकारी में विश्वास रखता है तथा जिसकी धरोहर शिक्षा ही नही संस्कार और जीवन मूल्य भी है। 
      ये दोनों स्थितियां इस तथ्य का सबूत हैं कि जिस वृक्ष की जड़ें गहरी होती हैं उसकी कुछ टहनियां भले ही सूख जाये किन्तु उसका हरापन और उससे मिलने वाली प्राणवायु का सिलसिला समाप्त नहीं होता।
      ये कहानियां जिन्दगी के इसी हरेपन में श्वास लेने वाले कल्पना प्रसूत नहीं जीवंत पात्रों के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं।’’ ये दोनों बातें संग्रह की कहानियों से गुजरते हुए भी लेखक के साहित्यिक उत्तरदायित्व को रेखांकित करती हैं। निसंदेह एक लेखक न उपदेशक होता है न समाज सुधारक; लेकिन सामाजिक सरोकारों से जुड़े उत्तरदायित्व से बद्ध जरूर होता है। ‘कोलाज’ की कहानियों के दृश्य-चित्रों को प्रस्तुत करते हुए डॉ. दुबे साहब की यह बद्धता बार-बार देखने को मिलती है।
     संग्रह की पहली कहानी ‘अकेली औरत’ कार्पोरेट कल्चर के साये में पल रहे महिला विमर्श को आर्थिक रूप से सम्पन्न/मध्यम वर्ग से उठाकर इन घरों में काम कर रही निम्न वर्ग की महिलाओं के मध्य ले जाती है। अपना प्रभाव भी दिखाती है, लेकिन दुबे साहब के पात्र परिवेश के प्रवाह में बहकर अपना अस्तित्व मझधार के हवाले नहीं करते, उन्हें अपनी जमीन को पकड़कर खड़े होना आता है। छठे ब्लॉक के सातवें माले पर रहने वाली दीदी के शब्दों- ‘‘मर्द की हवस जब बेकाबू होकर माथे पर नाचने लगती है तो बिना टाइम देखे वह ऐसे ही खुशी जताकर औरत की खुशामद करता है।’’ से प्रभावित फागुनी अपने पति के मुख से शराबी फिल्म में बोले अमिताभ बच्चन के डायलॉग- ‘‘औरत मर्द की जिन्दगी में आती है तो उसका वजन बढ़ जाता है’’ के साथ जोड़े गए शब्दों- ‘‘अब बता मेरी जिन्दगी में आई तू ऐसी बातें करेगी तो मेरा वजन कम होगा या जादा।’’ सुनकर उसे एक तरफ धकेलती हुई बोलती है- ‘‘चल परे हट, जानती नी क्या, ये चिरौरी तू काहे के लिए कर रहा है?’’ दरअसल वह महिलावादी विचार ‘‘किसी के साथ रहे या न रहे औरत अकेली है’’ की गिरफ्त में भी आ चुकी होती है। लेकिन अन्ततः यही फागुनी पति को अपने से दूर काम पर भेजने के मुद्दे पर अपने ही विचार को पलटते हुए फैसला करती है- ‘‘बिल्डिंग वाले साबों के बाहर जाने में और हमारे मर्दों के जाने में फरक है। पैसा कम और मुसीबत जादा....।’’ उसे लगा ऐसा सोचकर उसने तन और मन से अपने को अकेली औरत होने से बचा लिया।’’ कहानी में आधुनिक महिला विमर्श से जुड़े ‘औरत अकेली है’ के तथ्य को अपने स्तर पर लेखक खारिज नहीं करता, अपितु उसका परीक्षण करता है, उसके प्रभाव को व्याप्ति के पूरे अवसर मुहैया कराता है और अन्ततः जीवन्त पात्र के पूरे आत्म-मन्थन से जनित आन्तरिक अहसास को सामने रखता है। यह तथ्य डॉ. दुबे साहब की रचनात्मकता को दूसरों से अलग रेखांकित करता है। विमर्श को जीवन-मूल्यों के आइने में देखा जाये तो औरत हो या पुरुष, कोई भी अकेला नहीं होता। ‘अकेले’ के आइने में विमर्श के हठीले चश्मे से देखने पर तो ‘ठौर’ की माइली, ‘अंतराल’ की अश्विनी, यहां तक कि ‘सप्तश्रृंगी’ की सुजाता दादी, ‘अन्तिम परत’ की श्वेता, ‘अंततः’ की सुरभि के सिर पर भी किसी न किसी रूप में इस अकेले होने का साया तलाशा जा सकता है, लेकिन इनमें से हर एक के साथ कोई न कोई है, कोई भी तो अकेली नहीं है। ‘ठौर’ की माइली अपने पति को छोड़कर मायके आ जाती है, तो उसे क्या-क्या नहीं झेलना पड़ता है! संघर्ष करते-करते हार की कगार पर खड़ी वह अंततः अपने उसी पति के पास लौटने का फैसला करती है, तो उसकी समझौतापरस्त समझी जाने वाली मां ही उसके साथ खड़ी हो जाती है- ‘‘...भगवानजी के सामने सात फेरों के साथ सात-बातें निबाहने की कसम खाकर अपने साथ ले जाने वाला आदमीज औरत को औरत नहीं समझे तो ऐसे घर अपनी बेटी को दुःख भोगने के लिए रखने का क्या फायदा। मैंने तो सोच लिया है, वो लाख खुशामद करेंगे तो अपनी लड़की भेजूंगी नहीं तो तलाक दिलाके और कहीं ब्याह दूंगी।...’’ बताइए, कहां है माइली अकेली?- ‘‘उसने महसूस किया मां के द्वारा दी गई आंखो और दिल की ऐसी ताकत उसे मिल गई है, जिसके सहारे अब वह किसी से भी मुकाबला कर सकती है।’’
     डॉ. दुबे साहब नई पीढ़ी और बदलते जीवन मूल्यों में गहरी रुचि रखते हैं। इसका मुख्य कारण संभवतः यह है कि हर नई पीढ़ी का अपना समय और सोच होती है, जिसे समझे बगैर न तो उस पीढ़ी को समझा जा सकता है और न ही वरिष्ठ पीढ़ी के साथ सामन्जस्य बिठाया जा सकता है। हर पीढ़ी को अपने तरह से जीवन जीने का हक है। वरिष्ठ पीढ़ी कुछ कर सकती है तो उसको आकार देने में यथा आवश्यक अपने अनुभवों पर आधारित मार्गदर्शन दे सकती है। नई पीढ़ी के साथ कुछ गलत है, तो भी उसकी आलोचना या नकारात्मक धारणाओं को रेखांकित करके निराशा में डूबने की अपेक्षा उचित यही है कि नई पीढ़ी की सकारात्मक चीजों को रेखांकित करते हुए बदलते जीवन मूल्यों को समझने का प्रयास किया जाये। इसीलिए डॉ. दुबे साहब अपने युवा पात्रों के साथ बेहद करीबी और दोस्ताना रिश्ता कायम करते हैं। उनकी तमाम गतिविधियों और सोच के साथ यात्रा करते हुए सकारात्मक चीजों को रेखांकित करते हैं। इस सन्दर्भ में ‘एक अंतहीन परिचय’ बेहद सार्थक और प्रभावशाली कहानी है। इसमें तकनीकी शिक्षा से जुड़े छात्र-छात्राओं के सह-आवासीय जीवन और उससे जुड़ी गतिविधियों को केन्द्र में रखा गया है। प्राइवेट फ्लैट्स में रहते हुए पड़ौसी पारिवारिक लोगों के द्वारा किस तरह उनकी गतिविधियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है, यहां तक कि झगड़े-फसाद तक की नौबत आ जाती है; ऐसी स्थितियों व अपनी बदली हुई जीवन-शैली के मध्य घर से दूर रहते हुए वे किस तरह एक दूसरे के साथ अपने भावनात्मक रिश्ते बनाते-निभाते हैं, असफलता से जनित निराशाओं एवं अन्य विपरीत स्थितियों से कैसे निपटते/संघर्ष करते हैं, सुख-दुःख के साथी बने एक-दूसरे से विलग होने पर होने वाली उनकी पीड़ादायी भावुक अनुभूति, सब कुछ इस कहानी में संगत पात्रों के जरिए दर्शाया गया है। इन तमाम गतिविधियों के मध्य नई पीढ़ी के ये युवा अपनी जिम्मेवारियों को कितना गहराई से समझते-निभाते हैं, इस कहानी में समझा जा सकता है। इस माहौल में कई गलत चीजों के होने-घटने की संभावना हो सकती है, दुर्घटनाएं घटती भी हैं; फिर भी यह सकारात्मकता निसंदेह स्वाभाविक है और उसे उभारना जरूरी भी। क्योंकि आज के ट्रेंड में अल्पसंख्यक नकारात्मकता को इतना अधिक उछाला जाता है गोया सकारात्मक और अच्छी चीजें पूरी तरह विलुप्त हो चुकी हों। परिणाम बेहद घातक होते हैं। प्रचार की खाद-पानी पाकर नकारात्मक चीजें तो विस्तार पाती चली जाती हैं और सकारात्मक चीजें सामने होते हुए भी उपेक्षा के अंधेरे में खो जाती हैं। हमारे अपने आस-पास के घरों-रिश्तों के बच्चे इसी माहौल से निकलकर आगे बढ़ते हैं, वे सभी दुर्घटनाग्रस्त तो नहीं होते? कुछ होते हैं तो अनेक ऐसे भी हैं जो अन्त तक अपने पारिवारिक अनुशासन को नई ऊंचाइयां देते दिखाई देते हैं। यहां फिर एक बार ऊपर भूमिका से उद्धृत लेखकीय कथन को याद किया जा सकता है। एक खास बात यह है कि इन मूल्यों के प्रवाह में पुरुष के अहं और अपने वजूद के प्रति नारी की छटपटाहट के मध्य का अंतराल घट रहा है। ऐसे ही विश्वासपूर्ण माहौल में सांस लेती नारी की प्रेम कहानी है ‘विश्लेषी’, जिसकी नायिका शैशवी नारी के लिए जरूरी मनचाहे मर्द से मनचाही जिन्दगी हासिल करने में सफल हो जाती है। ‘फ्रेम का चित्र’ को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है, जिसमें प्रेमिका सबिहा के न रहने से निराश मेघ उर्फ नीरव को कथा नायिका श्वेता अपने सकारात्मक तर्को से अतीत से वर्तमान में लाने में सफल हो जाती है। स्वछन्द प्रवृत्ति की इस युवा नारी पात्र की सोच में सकारात्मकता देखते ही बनती है- ‘‘सबिहा के प्रगाढ़ प्रेम को फ्रेम में देखने की बजाय जिन्दगी में देखिए। किसी मोड़ पर रुका प्रेम वहीं ठहरने से नहीं आगे बढ़ने से हासिल होता है....।’’ इस पात्र के प्रति युवा पुरुष पात्र का सम्मान भी देखिए- ‘‘मैं जानता हूं। और यह भी बखूबी समझता हूं कि किसी पुरुष के प्रति सहानुभूति से लबरेज प्यार में औरत का अपना स्वार्थ नहीं पुरुष का भविष्य निहित होता है।...’’
      राजनैतिक विद्रूपता से भरे विषय पर चर्चा से शुरू होकर आर्थिक-सामाजिक विसंगतियों की पगडंडियों पर बढ़ती ‘अन्तराल’ की कथा में नायक प्रभांशु के प्रस्ताव पर नायिका अश्विनी के इन शब्दों- ‘‘पुरुष फूल नहीं कांटे होते हैं फिर भले ही वह बबूल का हो या कैक्टस का। मैं बबूल के अंदर तक धंसे कांटे के फॉस की चुभन से आहत हूं। यह फॉस जब निकलेगी, तब तक बहुत देर हो जायेगी।..... प्रभांशुजी मुझे माफ नहीं करेंगे तो मैं कमजोर हो जाऊंगी, मुझे आपके सहारे की शक्ति चाहिए।’’ के प्रत्युत्तर में प्रभांशु के ये शब्द- ‘‘अश्विनी तुम्हें वह सहारा और शक्ति मिलेगी। हम अच्छे मित्र के रूप में मिले थे, उसी रूप में हम बने रहेंगे।’’ युवा पीढ़ी के पुरुष के नारी के प्रति सम्मान को ही दोहराते हैं। जीवन मूल्यों में यह बदलाव चाहे जिस पैमाने पर आया हो पर आया है, इसमें संदेह नहीं। इसे बार-बार रेखांकित करते दुबे साहब एक अलग दृष्टिकोंण सामने रखते दिखाई देते हैं।
      युवा पीढ़ी की सोच और चिन्तन पर आधारित कहानी ‘सुकूनी लम्हों के बीच’ एक सार्थक और दिलचस्प कहानी है। सुकून के कुछ लम्हों में युवा मित्रों की चर्चा के केन्द्र में आ जाता है ‘क्वार्टर-लाइफ-क्राइसेस का मुद्दा। यानी समकालीन युवा पीढ़ी से जुड़ी ऐसी स्थिति, जिसमें उनके पास धन और जीवन जीने की तमाम सुविधाएं तो हैं, लेकिन जवानी में मिलने वाली चहक, प्रफुल्लता नहीं है। जिन्दगी युवावस्था में ही थकी-थकी दिखती है। आन्तरिक सुकून की कमी में तमाम कामयाबियों के बावजूद अनेक युवा अपराधों की ओर उन्मुख हो रहे हैं। यह कहानी हमें भविष्य की उस स्थिति की ओर भी आगाह करती है, जहां शायद हमारे युवाओं के बड़े पैकेज के सपनों को विदेशी कंपनियों की बदलती नीति और देशी कंपनियों की सीमाएं पूरा न कर पायें। इन विपरीत परिस्थितियों के लिए नई पीढ़ी को तैयार रहना होगा, और यह तैयारी शायद स्वनियोजन के कुछ मजबूत विकल्पों के रूप में ही हो सकती है। पर इन मजबूत विकल्पों की परिभाषा और तन्त्र भी नई पीढ़ी को स्वयं ही गढ़ना होगा।
    संघर्ष और अपनी आस्था के प्रति विश्वास की दृढ़ता की आवश्यकता सामान्यतः आर्थिक रूप से निम्न एवं मध्यम वर्ग को ही अधिक होती है, उच्च वर्ग की व्यापारिक मानसिकता को सामान्यतः उसकी या तो जरूरत नहीं होती या फिर वहां इसका विकृत रूप ही देखने को मिलता है। जिन्हें इसकी आवश्यकता होती है, उनमें निम्न माने जाने वाले वर्ग में यह जितने सघन रूप में पाई जाती है, उतनी मध्यम वर्ग में देखने को नहीं मिलती। जीवन को प्रवाहमान बनाये रखने की दृष्टि से इसे ‘हलकट’ कहानी के पात्र शिव के जीवट और सरल व्यक्तित्व में देखा जा सकता है।
    संग्रह की अन्य सभी कहानियां भी रचनात्मकता के स्तर पर प्रभावशाली हैं और अपनी सार्थकता सिद्ध करने में सक्षम हैं। ‘कोलाज’ में निसन्देह बदलते समय के बदलते परिवेश में विचरण करते पात्रों की सक्रियता के व्यापक प्रतिबिम्ब हैं। इनके पीछे की पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में डॉ. दुबे साहब ने एक लेखक की शालीनतावश अपनी जिस बात को ‘शायद’ शीर्षक से संबोधित किया है, एक पाठक के लिए वह ‘निसंदेह’ है। इसी के गर्भ से निकली ये रत्न सरीखी ये कहानियां हर तरह से सटीक हैं। इन्हें पाठकों, विशेषतः युवा पीढ़ी की पसन्द बनना ही चाहिए।
     
कोलाज :  कहानी संग्रह। लेखक :  डॉ. सतीश दुबे। प्रकाशक :  ज्योति प्रकाशन, ई-10/660, उत्तरांचल कॉलोनी (निकट संगम सिनेमा), लोनी बार्डर, गाजियाबाद-201102 (उ.प्र.)। मूल्य :  रु. 390/-। संस्करण : 2013।




वैदुष्यमणि विद्योत्तमा  :  विद्योत्तमा के 

वास्तविक सत्य तक पहुंचने का प्रयास

समकालीन लेखन में पौराणिक पात्रों को लेकर मौलिक लेखन तभी संभव है, जब हम इन पात्रों के चरित्र को कुछ नवीन दृष्टि के साथ रेखांकित कर सकें। दूसरी बात, समकालीन सामाजिक परिदृश्य और सरोकारों के दृष्टिगत इस तरह के लेखन की आवश्यकता को भी हमें समझना होगा। बाजारवादी उपभोक्ता संस्कृति मानवीय मूल्यों का क्षय बड़ी तेजी से कर रही है और मानवीय मूल्यों का यह क्षरण मानव जीवन को न सिर्फ दुष्कर बना रहा है, अपितु उसे हा-हा कार के शोर में बदलकर नष्ट प्रायः कर रहा है। यदि हम इस परिदृश्य के प्रति थोड़े भी संवेदनशील हैं, तो हमें कुछ तो करना होगा। यह लेखन पौराणिक पात्रों को पुनर्जीवित करना भी होगा, जो मौजूदा और भावी पीढ़ियों को मानवीय जीवन के वास्तविक सत्य से जोड़ने की पृष्ठभूमि तैयार करेगा। तीसरी बात, मनुष्य-जाति के दोनों अंशों- पुरुष और महिला के मध्य विभेदकारी रेखा को आज की उपभोक्ता संस्कृति और गहरा कर रही है, भले देखने में ऐसा न लगता हो। दरअसल किन्हीं दो बिन्दुओं के मध्य नजदीकी बढ़ने और विभेद खत्म होने में फर्क होता है। उपभोक्ता संस्कृति पुरुष और नारी के मध्य नजदीकी बढ़ाने के बावजूद उनके मध्य के विभेद को गहरा रही है। दरकार हमें अपनी संस्कृति में ऐसे बदलावों की है, जो मनुष्य के इन दोनों अंशों के मध्य नजदीकी बढ़ाने के साथ विभेदकारी रेखा को जितना संभव हो, क्षीण करने का काम करें। तो यहीं पर अपनी जड़ों की तलाश में इतिहास और मिथिहास दोनों को खंगालने की जरूरत महसूस होती है। जिन पात्रों और मिथकों में जीवन-धारा का स्रोत समाया हुआ है, उन्हें नई दृष्टि के साथ पुनर्जीवित करना और उनके जीवन-सत्य को समकालीन सन्दर्भों में समझना महत्वपूर्ण हो जाता है। समय की धूल और संस्कृति की स्वार्थ-प्रेरित विसंगतियों ने यदि कुछ सत्य को ढक या विकृत कर दिया है, तो हमें साक्ष्यों को खोजते हुए उन तक पहुंचना चाहिए। एक ऐसी ही कोशिश कविकुल गुरु कालिदास की विदुषी पत्नी विद्योत्तमा के पौराणिक चरित्र के वास्तविक सत्य तक पहुंचने की दिखाई देती है ‘‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’’ महाकाव्य में, जिसे सृिजत किया है अपने लेखन से मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना में जुटे वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी ने।
     सामान्यतः महाविदुषी विद्योत्तमा के बारे में काफी कम लिखा गया है। और जो लिखा गया है, उसमें यह तथ्य प्रमुखतः शामिल है कि जब उन्हें अपने पति के मूर्ख होने का पता चला तो उन्होंने अपने पति को न सिर्फ धिक्कारा, अपितु यह कहकर घर से निकाल दिया था कि बिना ज्ञान प्राप्त किए वापस मत आना। कहा यह भी जाता है कि खिन्न होकर उनके पति ने आत्महत्या का भी प्रयास किया था। यह तथ्य भले कालिदास के यश का कारण बनता है, पर विदुषी होने के बावजूद संयम न बरतने के लिए विद्योत्तमा निसंदेह लांछित होती है। उसका वैदुष्य फीका पड़ता है। दूसरी ओर, कालिदास के साहित्य की प्रकृति और विद्योत्त्मा को ‘गुरु’ स्वीकारने का तथ्य विद्योत्तमा के बारे में उक्त नकारात्मक तथ्य के प्रति संदेह का कारण बनता है। मान भी लिया जाये कि उक्त नकारात्मक तथ्य ही सत्य है, तो भी सक्षम होते हुए भी विद्योत्तमा द्वारा अपने विरोधियों से किसी प्रत्यक्ष प्रतिकार का वर्णन सामान्यतः देखने-पढ़ने को नहीं मिलता। साक्ष्यों से एक बात तो आसानी के साथ स्वीकारी जा सकती है कि किसी और को अहसास हो न हो, कालिदास को विद्योत्तमा के प्रति हुए अन्याय और उसकी पीड़ा का अहसास अवश्य था। क्या अहंकारी पुरुषों द्वारा वैदुष्य के लिए अपराधी मान ली गई विद्योत्तमा की पीड़ा, उसके द्वारा विरोधियों का प्रतिकार न करना और ज्ञानार्जन के बाद कालिदास को स्वीकार कर लेना उसके उदात्त चरित्र को समझने के पर्याप्त कारण नहीं बनते? इतना ही नहीं, कालिदास द्वारा विद्योत्तमा को पत्नी की बजाय ‘गुरु’ स्वीकार लेने पर विद्योत्तमा द्वारा उन्हें श्राप देने की बात भी कहीं-कहीं आती है। क्या यह सब एक उदात्त चरित्र को विसारने, अपितु लांछित करने जैसा नहीं लगता? जो कुछ लिखा गया है, यदि वही पूर्ण और वास्तविक सत्य होता तो क्या कालिदास विद्योत्तमा के प्रति उतने उदार बन पाते, जितने के साक्ष्य उपलब्ध हैं? अरुण जी ने अपने सृजन में न सिर्फ इन प्रश्नों का नोट लिया है, अपितु उन्होंने ‘‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’’ महाकाव्य में उस महाविदुषी महानारी के चरित्र को तार्किक ढंग से समझते हुए उसके वास्तविक चरित्र, सृजन, मानवीय मूल्यों और जीवन के प्रति उसके सकारात्मक दृष्टिकोंण को सामने रखा है।
     इस महाकाव्य में विद्योत्तमा को पीड़ित-अपमानित होने के बावजूद अपनी पीड़ा को पीकर और प्रतिकार से दूर रहकर सृजन के प्रति समर्पित महाव्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया गया है। वह अपने पति की मूर्खता पता चलने पर पति को धिक्कारती नहीं है, अपितु उसके भोलेपन के प्रति करुणा से भरकर उसे विद्वान और यशश्वी बनाने का संकल्प लेती है। काली माता की शरण में उनके पति को कोई तीसरा व्यक्ति नहीं, वह स्वयं लेकर जाती है। स्वयं उसको शिक्षित करती है, कविता का ज्ञान देती है। उनके पति के द्वारा आत्महत्या के प्रयास का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पति को अनुभव-आधारित ज्ञानार्जन के लिए वह स्वयं पूरे सद्भाव के साथ प्रेरित करके भेजती है। और पति के कालिदास के रूप में यशश्वी होकर लौटने तक प्रतीक्षा करती है। वह कालिदास की ‘गुरु’ अवश्य बनती है, परंतु पत्नी के धर्म को भी बखूबी निभाती है। ‘अरुण’ जी के शब्दों में कालिदास संसार के समक्ष स्वयं को ‘विद्योत्तमा का निर्माण’ घोषित करते हैं, निसन्देह इस महान पात्र का जीवन-सत्य यही है। वैदुष्य यदि मनुष्य को किसी जीवन-सत्य के निकट ले जाता है, तो वह जीवन-सत्य भी यही है।
     पौराणिक पात्र विद्योत्तमा की यह नवीन दृष्टि के साथ पुनर्स्थापना कालिदास के काव्य की प्रकृति के अनुरूप भी है और इस प्रसंग में उठने वाले प्रश्नों का समाधान भी करती है, अतः तार्किक भी है; भक्ति-भावना के पुट के बावजूद वैज्ञानिक आधार से संपुष्ट भी। यदि आधुनिक मानव जीवन को समकालीन बिडम्बनाओं से निकालकर उत्थान के पथ पर ले जाना है, तो हमें ऐसे पात्रों को उनसे जीवन की प्रेरणा लेने हेतु समझना व पुनर्स्थापित करना होगा।

वैदुष्यमणि विद्योत्तमा (महाकाव्य) : डॉ.योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’। प्रका.: हिन्दी साहित्य निकेतन, 16, साहित्य विहार, बिजनौर(उ.प्र.)। संस्करण: 2010। मूल्य: रु.200/- मात्र।

  • एफ-488/2, गली सं.11, राजेन्द्रनगर, रुड़की-247667, जिला: हरिद्वार (उत्तराखंड)

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 9-10 ,  मई-जून 2013 



जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति है कविता : अरुण कमल

‘‘कविता जीवन के यथार्थ की सशक्त अभिव्यक्ति है। शिल्प के बंधनों से मुक्त आज की कविता वैचारिक रूप से अधिक परिपक्व है। पुस्तकों के बजाय इंटरनेट और ब्लॉग जैसे माध्यमों के जरिए लोकप्रिय हो रही कविता भाषा और विन्यास की सीमा से परे एक बिल्कुल नए प्रयोग की तरह है, जो बहुत कम शब्दों में अपनी गहरी छाप छोड़ जाती है।....’’ उक्त विचार विगत दिनों महादेवी वर्मा सृजन पीठ द्वारा आयोजित ‘21वीं सदी की हिन्दी कविता’ विषयक महादेवी वर्मा स्मृति व्याख्यान देते हुए कवि-आलोचक अरुण कमल ने कही। इस अवसर पर कविता पाठ की अध्यक्षता करते कवि मंगलेश डबराल ने कहा, ‘‘आधुनिक कविता में भविष्य की स्पष्ट तश्वीर देखी जा सकती है। अब कविता सिर्फ कविता के लिए नहीं बल्कि गहरे दायित्वबोध की अभिव्यक्ति है।’’ केन्द्रीय साहित्य अकादमी के सहयोग से आयोजित इस समारोह में अकादमी के उपसचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने कहा कि अकादमी भविष्य में उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर ऐसे आयोजन करेगी। पीठ के निदेशक प्रो. देव सिंह पोखरिया ने बताया कि पीठ अपने वार्षिक कलेण्डर के अनुसार कई प्रमुख साहित्यकारों के जन्म दिन पर ऐसे साहित्यक आयोजन करेगी। इस अवसर पर प्रो. पोखरिया जी के कविता संग्रह ‘नीलकण्ठ’ का विमोचन भी किया गया। काव्य पाठ करने वालों में किरण अग्रवाल, स्वाति मेकलानी, रमेश ऋषिकल्प, रेखा चमोली, हेमंत कुकरेती, रमेश चंद्र पंत, नवीन विष्ट, रा. अच्युतन, त्रिभुवनगिरि, जगतसिंह विष्ट आदि प्रमुख थे। (समाचार सौजन्य: मोहन सिंह रावत, नैनीताल)



सुरेश शर्मा की लघुकथाएं सोद्देश्य हैं :  डॉ. जवाहर चौधरी

गत दिनों लघुकथा मेंच, इन्दौर द्वारा आयाजित समारोह में सुप्रसिद्ध लघुकथाकार सुरेश शर्मा के लघुकथा संग्रह ‘अंधे बहरे लोग’ का लोकार्पण हुआ। इस अवसर पर मुख्यअतिथि सुप्रसिद्ध व्यंग्कार डॉ. जवाहर चौधरी ने कहा कि संग्रह की लघुकथाएं सोद्देश्य हैं और पाठक की चेतना को झकझोरने में समर्थ हैं। 
       सुप्रसिद्ध कवि-कथाकार वेद हिमांशु जी ने विस्तार से चर्चा करते हुए लघुकथाओं में लेखकीय सरोकारों को रेखांकित किया। राकेश शर्मा ने कहा कि लघुकथा में कम शब्दों में अधिक कहने की सामर्थ्य होनी चाहिए। सुरेश शर्मा की लघुकथाएं इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। 
        समारोह के अध्यक्ष लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार सूर्यकांत नागर ने कहा कि शर्माजी की लघुकथाओं में व्यंग्य के साथ मानवीय करुणा की अंतर्धारा प्रवाहित हाती है। संचालन प्रभु त्रिवेदी, संयोजन संजीव शर्मा व राजीव शर्मा ने किया। सभी अतिथियों का आभार हरेराम बाजपेयी ने व्यक्त किया। (समाचार सौजन्य: संजीव शर्मा, राजीव शर्मा)



नेपाल में सम्मानित हुए डॉ. यायावर




नेपाल की राजधानी काठमांडू में सम्पन्न अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य कला मंच भारत के वार्षिक आयोजन में अनेक कार्यक्रमों के मध्य डॉ.रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ को सुलभ इंटरनेशनल, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित ‘शब्द-साधना सम्मान’ प्रदान किया गया। 
    इस समारोह में डॉ.यायावर ने ‘मुगलकाल में हिन्दी’ विषय पर अपना शोधालेख भी प्रस्तुत किया। आयोजन में भारत के अनेक प्रान्तों के प्रतिनिधियों के साथ कई देशों के वरिष्ठ साहित्यकार शामिल हुए। (समाचार सौजन्य : डॉ.रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’)



वर्तमान में लेखकों की भूमिका महत्वपूर्ण है :  नरेश कुमार ‘उदास’

           विगत दिनों हिन्दी साहित्य निर्झर मंच, पालमपुर के समारोह में वरिष्ठ साहित्यकार नरेश कुमार ‘उदास’ की पुस्तकों ‘यहां तुम्हारा कोई नहीं’, ‘लौटकर नहीं जाऊँगी’ व ‘उदास दिनों की कविताएं’ तथा सुमन शेखर के काव्य संग्रहों ‘बहुत जरूरी है’ व ‘गुम होती लड़कियां’ के विमोचन सम्पन्न हुए। उदास जी की कृतियों पर मीना गुप्ता तथा सुमन शेखर की कृतियों पर नेहा राणा ने अपने विचार रखे। दूसरे सत्र में नरेश कुमार ‘उदास’ की अध्यक्षता में काव्य गोष्ठी भी सम्पन्न हुई। समारोह में कृष्णा अवस्थी, सुमन शेखर, उषा कालिया, मीना गुप्ता, छाया रानी, संगीता नाग, अर्जुन कन्नौजिया, परसराम शर्मा, नेहा राणा, डॉ. शेखर, सत्येन्द्र शर्मा आदि उपस्थित रहे। अध्यक्षीय भाषण में उदास जी ने वर्तमान में लेखकों की भूमिका को महत्वपूर्ण बताते हुए संवेदनहीन हो रहे मानुष पर गहरी चिन्ता व्यक्त की। (समाचार सौजन्य : उषा कालिया)


राजेन्द्र परदेसी के साहित्य पर शोध



वरिष्ठ साहित्यकार-चित्रकार राजेन्द्र परदेसी के साहित्य पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के डॉ.बाबूराम के निर्देशन में कैथल की सुश्री गीता द्वारा एम.फिल.की उपाधि हेतु शोध  किया गया है। शोध में परदेसी जी के व्यक्तित्व के साथ उनके कहानीकार, लघुकथाकार एवं कवि रूप की विवेचना की गई है। (समाचार सौजन्य: राजेन्द्र परदेसी)



हरिद्वार में ‘वीथिका’ की लघुकथा गोष्ठी 
   
अलकनंदा शिक्षा न्यास,हरिद्वार की वीथिका ‘लेखनी’ द्वारा पं.ज्वालाप्रसाद शाण्डिल्य ‘दिव्य’ की अध्यक्षता में 30 जून को एक लघुकथा गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी के सूत्रधार थे सूर्यकान्त श्रीवास्तव ‘सूर्य’। गोष्ठी में सुखपाल सिंह, गांगेय कमल, माधवेन्द्र सिंह, माणिक घोषाल, बुद्धि प्रकाश शुक्ल, सूर्यकान्त श्रीवास्तव ‘सूर्य’ तथा पं.ज्वालाप्रसाद शाण्डिल्य ‘दिव्य’ ने अपनी लघुकथाओं का पाठ किया। लघुकथाओं पर चर्चा हुई। अंत में केदारघाटी की आपदा में मृतकों की आत्म-शांति के लिए शांतिपाठ के साथ गोष्ठी संपन्न हुई।(समाचार सौजन्य: सूर्यकान्त श्रीवास्तव ‘सूर्य’)


दिव्य पुरस्कार घोषित

बहुचर्चित अम्बिका पसाद ‘दिव्य’ स्मृति पुरस्कारों की घोषणा कर दी गई है। उपन्यास के लिए मनोज ठक्कर व रश्मि छाजेड़ को, कविता के लिए माताचरण मिश्र को, कहानी के लिए रामेश्वर द्विवेदी को दिव्य पुरस्कार प्रदान किए गए। दिव्य रजत अलंकरण पाने वालों में संतोष परिहार, कुमार सुरेश, ओम प्रकाश शिव, कुशलेन्द्र श्रीवास्तव, बृजवासी लाल दुबे एवं सत्यनारायण ‘सत्य’ शामिल हैं। पुरस्कारों के संयोजक जगदीश किंजल्क के अनुसार आगामी 17वें दिव्य पुरस्कारों के लिए कृतियां 30 जून 2014 तक श्रीमती राजो किंजल्क, 145-ए, साईंनाथ नगर, सी-सेक्टर, कोलार रोड, भोपाल के पते पर आमंत्रित हैं। मोबाइल 09977782777 पर संपर्क किया जा सकता है। (समाचार सौजन्य : जगदीश किंजल्क)



सूर्यनारायण गुप्त ‘सूर्य’ को शब्द भूषण सम्मान




शब्द प्रवाह पत्रिका द्वारा सूर्यनारायण गुप्त ‘सूर्य’ को उनकी कृति ‘अर्थात की बरसात तले सूर्य का दर्द’ के लिए ‘शब्द भूषण’ मानद उपाधि से सम्मानित किया गया है। उनकी उक्त कृति को निर्णायक मण्डल ने तृतीय पुरस्कार के लिए चयनित किया है। (समाचार सौजन्य: सूर्यनारायण गुप्त ‘सूर्य’)





कुंवर प्रेमिल सम्मानित



संपादक-साहित्यकार कुंवर प्रेमिल को निराला साहित्य एवं संस्कृति संस्थान बस्ती(उ.प्र.) द्वारा राष्ट्रीय साहित्य गौरव से सम्मानित किया गया है। जबलपुर की संस्था ‘पाथेय’ द्वारा कहानी संग्रह ‘चिनम्मा’ के लिए ‘स्व.गिरिजा देवी तिवारी स्मृति’ सम्मान से एवं ‘आलराउन्ड’ पत्रिका द्वारा उन्हें ‘श्रेष्ठ संपादक’ की उपाधि से सम्मानित किया गया है।
(समाचार सौजन्य: कुंवर प्रेमिल)





गीत संकलन का प्रकाशन

गीतकार शिवशंकर यजुर्वेदी के संपादन में गीत संकलन ‘प्रेम के झरोखे से’ का प्रकाशन हृदयेश प्रकाशन, बरेली द्वारा किया जायेगा। शामिल होने के इच्छुक गीतकार यजुर्वेदी जी से 517, कटरा चांद खां, बरेली-243005, उ.प्र. (मो. 09319467998) पर संपर्क कर सकते हैं। सामग्री स्वीकार की तिथि 30.09.2013 है। (समाचार सौजन्य :  शिवशंकर यजुर्वेदी)




स्व. पन्नालाल नामदेव स्मृति सम्मान हेतु प्रविष्टियां आमंत्रित

म.प्र.लेखक संघ, टीकमगढ़ द्वारा संचालित स्व.पन्नालाल नामदेव स्मृति सम्मान हेतु प्रविष्टियां भेजने हेतु राजीव नामदेव ‘रानालिधौरी’ से नई चर्च की पीछे, शिवनगर, टीकमगढ़, म.प्र. मो. 09893520965 पर संपर्क कर सकते हैं। प्रविष्टियां स्वीकार की अंतिम तिथि 31 दिसंबर 2013 है। (समाचार सौजन्य: राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’‘)

अविराम के अंक

अविराम साहित्यिकी 
(समग्र साहित्य की समकालीन त्रैमासिक पत्रिका)


खंड (वर्ष) : 2 / अंक : 1   / अप्रैल-जून  2013   

प्रधान सम्पादिका : मध्यमा गुप्ता
अंक सम्पादक : डा. उमेश महादोषी 
सम्पादन परामर्श : डॉ. सुरेश सपन
मुद्रण सहयोगी : पवन कुमार


इस अंक में
‘सियाह हाशिये’ 

विभाजन की त्रासद तस्वीरें पेश करती सआदत हसन मंटो की लघुकथाओं की अमर क़िताब अहमद हसन असकरी की यादग़ार भूमिका व संवेदन-तंतुओं को कँपा देने वाले समर्पण पृष्ठ के साथ पूरी की पूरी


                      
सआदत हसन मंटो
(11 मई 1912 - 18 जनवरी 1955 )


अविराम का यह मुद्रित अंक रचनाकारों व सदस्यों को 19 मई 2013 को तथा अन्य सभी सम्बंधित मित्रों-पाठकों को 28 मई 2013 तक भेजा जा चुका है। अंक प्राप्त न होने पर सदस्य एवं अंक के रचनाकार अविलम्ब पुनरू प्रति भेजने का आग्रह करें। अन्य मित्रों को आग्रह करने पर उनके ई मेल पर पीडीऍफ़ प्रति भेजी जा सकती है। पत्रिका पूरी तरह अव्यवसायिक है, किसी भी प्रकाशित रचना एवं अन्य सामग्री पर पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है। इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है- 


।।सामग्री।।

लघुकथा के स्तम्भ : पारस दासोत (3); मधुदीप (5); एवं सुभाष नीरव (7)

कविता अनवरत-1(काव्य रचनाएँ) : राजकुमार कुम्भज (10); रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ व शिव शरण सिंह चौहान ‘अंशुमाली’ (11); डॉ. कपिलेश भोज (12); डॉ. रसूल अहमद ‘सागर’ व डॉ. बी.पी. दुबे (13)
मेरी लघुकथा यात्रा : रूपसिंह चन्देल (14)

विमर्श : विष्णु प्रभाकर व चित्रा दी ने लघुकथा को विशेष पहचान दी है / डॉ. सतीश दुबे (16)

आहट : नित्यानन्द गायेन, डॉ. सम्राट सुधा व ज्योति कालड़ा ‘उम्मीद’ की क्षणिकाएँ (18)

बहस : ‘लघुपत्रिकाओं को आर्थिक सहयोग सार्थक या निरर्थक’ विषय पर डॉ. सतीश दुबे (19), शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ (22), मुकेश कुमार ‘निर्विकार’(22), डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’ (24), कुंवर प्रेमिल (25), डॉ. मनोहर शर्मा ‘माया’ (25), गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’ (26), शरद नारायण खरे (27), डॉ. दिनेश नंदन तिवारी (28), डॉ. चन्द्रजी राव इंगले (28), अरविन्द अवस्थी (29), कृष्ण मोहन ‘अम्भोज’ (30), के विचार।

कविता के हस्ताक्षर : जितेन्द्र जौहर (31); रचना श्रीवास्तव (34)।

सन्दर्भ :  सआदत हसन मंटो : ‘सियाह हाशिये’ की पूर्ण प्रस्तुति: डॉ.बलराम अग्रवाल (36)

कथा कहानी :  और रमा लौट आई/डॉ.योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’(50); कभी न लौट कर आने के लिए/डॉ. प्रद्युम्न भल्ला (54)
कविता अनवरत-2(काव्य रचनाएँ) : शिवानन्द सिंह सहयोगी व सालिग्राम सिंह ‘अशान्त’(58); डॉ.नसीम अख़्तर व डॉ.माया सिंह ‘माया’ (59); दिलीप सिंह ‘दीपक’ व कन्हैयालाल अग्रवाल ‘आदाब’ (60); उदय करण ‘सुमन’ एवं राजमणि राय ‘मणि’ ((61); डॉ. अ.कीर्तिवर्धन ((62)

कथा प्रवाह (लघुकथाएँ) : भगीरथ परिहार व कमलेश भारतीय (63), विधू यादव(64); महावीर रवांल्टा व तपेश भौमिक (65) निधि चतुर्वेदी (66) ; अनामिका शाक्य व दिनेश कुमार छाजेड़(67); गुरप्रीत सिंह व अब्बास खान संगदिल(68); आशीष कुमार (69)
कविता अनवरत-3 (काव्य रचनाएँ) : जगन्नाथ ‘विश्व’ व डॉ. अशोक ‘गुलशन’(70); ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’, सुमन शेखर व चन्द्रकान्त दीक्षित (71); हितेश कुमार शर्मा व विनोद कुमार गुप्ता (72); विशेश्वर शरण चतुर्वेदी व रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’ (73)
किताबें (संक्षिप्त समक्षाएँ) : ‘संन्यास से संसार और संसार से संन्यास’ का समन्वय कराता उपन्यास ‘शून्य से शिखर’/श्री वीरेन्द्र कुमार गुप्त के उपन्यास की डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ द्वारा (74); ’खोई हरी टेकरी’ के जंगल को गाने दो/डॉ सुधा गुप्ता के हाइकु संग्रह की डॉ. ज्योत्सना शर्मा द्वारा (75); ‘यादों के पाखी’ः एक उपलब्धि /रामेश्वर काम्बोज हिमांशु आदि द्वारा संपादित हाइकु संकलन की डॉ. अर्पिता अग्रवाल द्वारा (76); आजाद भारत की पैंसठ लघुकथाएं/डॉ. रामकुमार घोटड़ संपादित लघुकथा संकलन की महेन्द्र सिंह महलान द्वारा (77)

माइक पर : उमेश महादोषी का सम्पादकीय (आवरण 2)

हमारे आजीवन सदस्य : अविराम साहित्यकी के आजीवन  सदस्यों की सूची (15)

चिट्ठियाँ : विगत अंक पर प्रतिक्रियाएं (79)। 

गतिविधियाँ :  संक्षिप्त साहित्यिक समाचार (81)।

प्राप्ति स्वीकार :  त्रैमास में प्राप्त विविध प्रकाशनों की सूचना (83)