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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 3,  अंक : 01-02,  सितम्बर-अक्टूबर 2013



।।क्षणिकाएँ।।
सामग्री : श्री महेश पुनेठा व श्री कैलाश शर्मा की क्षणिकाएँ।



महेश पुनेठा




चार क्षणिकाएँ

1. दुःख की तासीर 
पिछले दो-तीन दिन से 
बेटा नहीं कर रहा सीधे मुँह बात

मुझे बहुत याद आ रहे हैं 
अपने माता-पिता 
और उनका दुःख 

देखो ना! कितने साल लग गए मुझे
उस दुःख की तासीर समझने में। 

2. आग 
आग ही है जो ताकत देती है 
प्यार में मिटने की 
और 
युद्ध में जीतने की।

छाया चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
3. अब-1
शहर का
बुरे सा बुरा आदमी भी
करने लगा है तारीफ तुम्हारी
अब मुझे
शक होने लगा है
तुम पर।

4. अब-2
वे कहते हैं
मैं बहुत अच्छा था पहले
पर अब
करने लगा हूँ 
बहुत प्रश्न।

  • शिव कालोनी, वार्ड पियाना, डाक डिग्री कॉलेज, पिथौरागढ़-260501(उत्तराखंड)


कैलाश शर्मा 



पाँच क्षणिकाएँ 

01.
अब मेरे अहसास
न मेरे बस में,
देख कर तुमको
न जाने क्यूँ
ढलना चाहते
शब्दों में

02.
तोड़ कर आईना
बिछा दीं किरचें
फ़र्श पर,
अब दिखाई देते
अपने चारों ओर
अनगिनत चेहरे
और नहीं होता महसूस
अकेलापन कमरे में

03.
दे दो पंख
पाने दो विस्तार
उड़ने दो मुक्त गगन में
आज सपनों को,
बहुत रखा है क़ैद
इन बंद पथरीली आँखों में

04.
जब भी होती हो सामने
न उठ पाती पलकें,
हो जाते निःशब्द बयन
धड़कनें बढ़ जातीं

तुम्हारे जाने के बाद
करता शिकायतें
तुम्हारी तस्वीर से,
नहीं समझ पाया आज तक
कैसा ये प्यार है
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 

05.
छुपा के रखा है
दिल के एक कोने में
तुम्हारा प्यार,
शायद ले जा पाऊँ
आखि़री सफ़र में
अपने साथ
बचाकर
सब की नज़रों से

  • एच.यू.-44, विशाखा एन्क्लेव, पीतमपुरा उत्तरी, दिल्ली-110088

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष :  3,  अंक :  01-02,  सितम्बर-अक्टूबर 2013


।।सेदोका।।

सामग्री :  इस अंक में डॉ. उर्मिला अग्रवाल के सेदोका।



डॉ. उर्मिला अग्रवाल

{कवयित्री डॉ. उर्मिला अग्रवाल का एकल सेदोका संग्रह ‘‘बुलाता है कदम्ब’’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। हिन्दी में सेदोका में रचनाकर्म कम ही हुआ है और संभवतः उर्मिला जी का यह संग्रह सेदोका का पहला प्रकाशित एकल संग्रह है। सेदोका कवियों के अनुसार सेदोका 5-7-7-5-7-7 वर्णों की षष्टपदीय काव्य रचना होती है, जो 5-7-7 के कतौता के एक युग्म से बनती है। उर्मिला जी के इस संग्रह में 160 सेदोका शामिल हैं। इन्हीं में से दस सेदोका हम अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।} 


दस सेदोका

01.
तुम आये तो
दर्द के समंदर
पछाड़ खाने लगे
रेखा चित्र : शशि भूषण बड़ोनी 

होने लगे थे
फिर ज़ख्म हरे
अतीत की याद से
02.
काँपता रहा
नयनों की झील में
तुम्हारा प्रतिबिम्ब
पलकें मूँदी
तो भी डोलता रहा
इधर-से-उधर
03.
प्यार के पुष्प
मैंने चढ़ाए पर
वह खुश न हुआ
कटे पेड़ सी
पैरों में गिर पड़ी
वो खिलखिला उठा
04.
उसने सोचा 
महकूँगी फूल सी
पर हुई वीरान
जीवन बना
बंजर धरती सा
कुछ न उगा
05.
सच के बीज
अंकुरित न हुए
सिंचन नहीं मिला
मिटे थे बीज
छुआ परिवेश की 
विषैली हवाओं ने
06.
डाला है डेरा
सुधियों ने मन में
कुछ रुला-रुला दें
कुछ हँसा दें
तो कुछ रेशम सा
सहला दें मन को
07.
शिशिर काँपा
धूप के आतंक से
और कहीं जा छिपा
खोजने चले
तो मिला सोया हुआ
पर्वतों की गोद में
08.
संध्या के माथे
गुलाबी चुनरिया
सजा दी सूरज ने
कहा- आऊँगा
छाया चित्र : रामेश्वर कम्बोज हिमांशु 
आँचल में छिपने
इंतज़ार करना
09.
काँप क्यों रहे
मैंने पत्तों से पूछा
वे खिलखिला उठे
अरी नादान
कोई छुएगा तो क्या
सिहरन न होगी
10.
डरते क्यों हो
साँझ को आने तो दो
अंधेरा छाने तो दो
चाँद-सितारे
फैला देंगे रोशनी
तेरी डगर पर

  • 15, शिवपुरी, मेरठ-250002, उ.प्र.

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष  :  3, अंक :  01-02,  सितम्बर-अक्टूबर 2013

।।जनक छन्द।।

सामग्री : श्री मुखराम माकड़ ‘माहिर’ के दस  जनक छंद।


मुखराम माकड़ ‘माहिर’



(माहिर जी के 108 भावपूर्ण जनक छंदों का संग्रह ‘प्रयास’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इस संग्रह से कुछ जनक छंद।)

दस जनक छन्द

01.
आज याद प्रिय आ गये
अंग-अंग में धड़कनें
नगमें मन सहला गये
02.
सुधा सरसती रात को
शरत चंद की चाँदनी
शीत सुहाता गात को
03.
कभी नहीं यूं भागिये
गीत खुशी के गाइये
निर्मल मन को राखिये
04.
ऋचा वेद की खो गयी
प्यारी माया वतन से
रीत प्रीत की सो गयी
05.
डूबे अपने आप में
नहीं भरोसा प्यार का
हाथ सने हैं पाप में
06.
कड़ी धूप में खींचता
रामू रेड़ी देखिये
गृह-फुलवारी सींचता
07.
उड़ना चाहें गगन में
छाया चित्र : अभिशक्ति 

पाखी पांखों के बिना
मैना मन के चमन में
08.
एक शब्द ने खो दिया
हार प्यार का देखिये
बीज जहर का बो दिया
09.
भीष्म रोक पाये नहीं
चीरहरण-सा अघ महा
हरि-से वे धाये नहीं
10.
प्रेमी जोड़े जल रहे
जात-पाँत की आग में
कामदेव भी छल रहे
  • विश्वकर्मा विद्यानिकेतन, रावतसर, जिला- हनुमानगढ़-335524 (राज.)

अविराम विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 3,  अंक : 1-2  ,  सितम्बर-अक्टूबर 2013

।।विमर्श।।
  
सामग्री : सुप्रसिद्ध कथाकार एवं चिन्तक डॉ.सतीश दुबे जी के साथ उनके नीमच प्रवास के दौरान श्री राधेश्याम शर्मा की उनसे विविधि पहलुओं पर की गई  बातचीत के प्रमुख अंश




{‘‘समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रेमचंद साहित्य’’ शोधप्रबन्ध सहित डॉ. सतीश दुबे के अद्यतन दो उपन्यास, छः कहानी संग्रह, सात लघुकथा संग्रह, हाइकु-कविता के दो संग्रह, एक पत्र संग्रह तथा दस नवसाक्षरों एवं बालोपयोगी कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा चयनित लघुकथाओं के मराठी, पंजाबी, तेलुगु, बांग्ला, गुजराती तथा ‘‘धुंध के विरूद्ध’’ संग्रह की कहानियों के मराठी में अनूदित-संग्रह प्रकाशित हुए। कुछ माह पूर्व डॉ. दुबे जी निजी प्रवास पर नीमच में थे। उसी दौरान भेंट के एक क्रम में राधेश्याम शर्मा की उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश यहाँ प्रस्तुत है। }



साहित्य से समाज में बदलाव आता है : डॉ.सतीश दुबे

राधेश्याम शर्मा :  डॉ.साहब आप अपने लेखन की शुरूआत के बारे में कुछ बताइए ।
डॉ. सतीश दुबे :  पिताजी ने मेरे तथा बड़े भाई के लिए इन्दौर में अध्ययन व्यवस्था कर दी थी। यहाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का मौका मिला। भाई को भी शौक होने के कारण वे उस समय की अनेक पत्रिकाएं लाते थे। कालांतर में मेरी रूचि पुस्तकें पढ़ने की ओर बढ़ी। बाल्यावस्था में हाट-बाजार से तथा तदनंतर लाइब्रेरी ज्वाइन कर शरदचन्द्र सहित अनेक बांग्ला लेखकों के अनुवाद, प्रेमचंद, यशपाल, जैनेन्द्र से कृष्णचंदर जैसे लेखक, गोपालप्रसाद व्यास सहित कवियों को पढ़ा। पर मैं नहीं सोचता महज पढ़ना मेरे लेखन की वजह बनी। संभवतः किसी आंतरिक ऊर्जा ने मुझे इस ओर प्रवृत्त किया। लेखन की शुरूआत व्यंग्य से हुई। 1960 याने उम्र के बीसवें वर्ष में ‘‘सरिता’’, ‘‘नौकझोंक’’ तथा ‘‘जागरण’’ में ‘‘शनि महाराज के नाम’’, ‘‘डी. ओ.’’, ‘‘असत्यमेव जयते’’ तथा ‘‘साहब का मूड’’ तथा कॉलेज पत्रिका में ‘‘ग्रह का चक्कर’’ रचनाएं प्रकाशित हुई। और इस प्रकार लेखन प्रकाशन का सिलसिला शुरू हुआ।

राधेश्याम शर्मा :  जीवन-यापन के लिए क्या लेखन ही आपका पेशा रहा ? याने आप पूर्णकालिक लेखक ही रहे?
डॉ. सतीश दुबे :  अपनी लेखकीय जिन्दगी में मैंने लेखन को पेशा नहीं अक्षर ब्रम्ह की आराधना माना। वैसे जीवन-यापन के लिए मुझे विभिन्न संघर्षों के दौर से गुजरना पड़ा। शुरूआत 1955 याने दसवीं मैट्रिक-बोर्ड की परीक्षा देने के बाद एक शासकीय कार्यालय में डेढ़ रूपया रोजनदारी पर मिली क्लर्की से हुई। वस्तुतः यह कमाई मेरे लिए इसलिए बरकती साबित हुई कि इससे मिली प्रारम्भिक शक्ति के बल पर अपनी जीवन-यात्रा की विभिन्न स्थितियों से मुकाबला करते हुए मुझे कभी पराजय के चेहरे से साक्षात्कार करने का अवसर नहीं मिला। यह कहते हुए मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि पारिवारिक, सामाजिक तथा जिजीविशा के दायित्वों का निर्वाह करते हुए लेखन, पुस्तकें या साहित्यकार मित्रों का प्रेम मेरे जीवन को संचालित करने वाली गतिविधियों का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। 

राधेश्याम शर्मा : डॉ. साहब इस अक्षर-आराधना की पृष्ठभूमि में आपका उद्देश्य क्या होता है ? मेरा आशय आप क्यों लिखते हैं?
डॉ. सतीश दुबे :  हर बार की तरह आपके लिए भी मेरा उत्तर यह है कि- ‘‘मेरे लेखन के केन्द्र में मनुष्य होता है। मेरा यह मानना है कि मनुष्य केवल इसलिए मनुष्य नहीं है कि उसकी मज्जा में ‘देवगुण’ मौजूद है बल्कि इसलिए भी कि उसमें वे तमाम कमजोरियाँ मौजूद हैं, जो उसे मनुष्य बनाती है। जाहिर है उसके जीवन की विद्रूपता, असमानता, शोषण या सहजात कोमल प्रवृत्तियाँ मेरे लेखन की विषय-वस्तु का आधार बनती है। वैचारिक सिद्धान्त या सोच विशेष की कूपमंडूकता से अलहदा स्वतन्त्र चिंतन की वजह से विषयवस्तु को विस्तृत फलक मिले यह मेरी कोशिश रहती है। समय के घटनाक्रम से गुजरते हुए सामान्य से इतर पात्र, परिवेश और प्रसंग बीज रूप में मेरे मन में पैठ जाते हैं। और ये ही बीज गहन चिंतन मंथन के बाद अभिव्यक्ति के अनूरूप विधा कैनवास पर लेखकीय प्रक्रिया का हिस्सा बनकर साहित्यिक रचना की शक्ल में तब्दील होते है....।’’

राधेश्याम शर्मा : सर, पूर्णतः शहरी-जीवन से सम्बन्धित होने पर भी आपकी कहानियों और लघुकथाओं में ग्रामीण जीवन के पात्रों परिवेश तथा प्रकृति का चित्रण इतना जीवंत और विश्वसनीय कैसे चित्रित हो जाता है?
डॉ. सतीश दुबे : शर्माजी, शहर में रहते हुए भी स्वभाव और मन से मैं एकदम गामदी हूँ। यह गामदीपन हो सकता है मेरे रक्त में मौजूद हो। मेरे माता-पिता गांवों से सम्बन्धित रहे। कुनबे के मूलनिवासी का सम्बन्ध भी गांवों से रहा। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि, बाल्यावस्था की छः-सात वर्ष की वह उम्र जो हृदय में पैठकर व्यक्ति के चरित्र और सोच का निर्माण करती है, गांवों में व्यतीत हुई जन्म देने के बाद माँ के संसार से बिदा हो जाने पर पिताजी पैतृक गांव और वहां का कामकाज छोड़कर हम दोनों छोटे बहन-भाई को लेकर एक जागीरदार के रेवेन्यु दीवान होकर उसके गांव में बस गए। मुख्यालय के अलावा अन्य ग्रामों में भी घूमने की वजह से ग्राम-संस्कृति से रू-ब-रू होने के अनेक अवसर मिलते। बचपन का गांवों के प्रति यह प्रेम आज तक बना हुआ है और इसीलिए जब कभी जितना भी मौका मिलता है गांवों तक पहुंचने में विशेष सुकून की अनुभूति होती है। ग्रामीण-जीवन पर लिखने के लिए विचार तथा मौजूदा स्थितियों की जानकारी कुछ अपने अनुभवों तो कुछ अन्यों के सम्पर्क और समाचारों से प्राप्त होती है । 

राधेश्याम शर्मा : आपके दोनों उपन्यासों के रचाव की भी क्या यही पृष्ठभूमि रही?
डॉ. सतीश दुबे : झाबुआ जिला के भील आदिवासी एवं रतलाम-नीमच भू-भाग की बस्तियों-डेरों में बसी बाँछड़ा जाति पर केन्द्रित ‘‘कुर्राटी’’ तथा ‘‘डेरा बस्ती का सफरनामा’’ समस्यामूलक उपन्यास है। इनकी कथावस्तु कल्पना प्रसूत नहीं हकीकत है। इनमें वस्तुस्थिति के इर्द-गिर्द कथाप्रवाह के लिए प्रसंगों तथा कल्पना के शिल्प से परिवेशजन्य पात्रों की सृष्टि हुई है। दोनों ही उपन्यासों के लिए सामग्री एकत्रित करने में वर्षों तक साधनारत प्रयासों में जुटे रहना पड़ा। अनेक संदर्भों-सम्पर्कों के अतिरिक्त विषय से सम्बन्धित स्थानों की विपरीत शारीरिक-स्थितियों के बावजूद यात्राएँ भी की, कईं लोगों जिन्हें पात्र कहना चाहिए से मुलाकात कर जो रोमांचित कर देने वाली सुखद अनुभूति हुई उसे बयान करना आज भी मुश्किल है। खुशी है कि, इन दोनों उपन्यासों को पाठकों तथा साहित्यिक जगत से विशेष पहचान मिली। विक्रम तथा देवी अहिल्या विश्वविद्यालयों के एम.फिल. अध्येताओं द्वारा इन पर शोधप्रबन्ध लिखे गए। उस्मानियाँ वि.वि., हैदराबाद से ‘‘नई सदी के उपन्यासों में नारी-विमर्श’’ शोध कार्य पर पी.एच-डी. उपाधिग्रहीता अर्पणा दीप्ति ने भीष्म साहनी, मैत्रयीपुष्पा, अनामिका, भगवानदास मोरवाल, महुआ माजी, मिथिलेश्वर के विषय से सम्बन्धित उपन्यासों के साथ ‘‘डेरा-बस्ती का सफ़रनामा’’ को सम्मिलित ही नहीं किया प्रत्युत ‘‘वार्ता’’ तथा ‘‘कथाक्रम’’ में उस पर लिखा भी। इसी प्रकार बैंगलूर के डॉ.इशफाक अली खान ने ‘‘आदिवासियों के जन-जीवन से सम्बन्धित डी.लिट उपाधि के लिए शोधप्रबन्ध सामग्री हेतु ‘‘कुर्राटी’’ चयन किया। 

राधेश्याम शर्मा : डॉ. साहब ‘‘डेरा-बस्ती का सफ़रनामा पर फिल्म भी तो बन चुकी है, उसका आपने जिक्र क्यों नहीं किया इसकी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताइए।’’
डॉ. सतीश दुबे : बहुचर्चित-प्रसंग होने की वजह से अपनी अपनी चर्चा में इसे सम्मिलित नहीं किया। जहाँ तक इसकी पृष्ठभूमि का सवाल है, हुआ यूं कि पुस्तक के लोकार्पण-पश्चात् इसकी कथावस्तु सम्बन्धी जानकारी न जाने किस माध्यम से विदंश इंटरटेंनमेंट मुंबई की प्रोड्यूसर नीतू जोशी तक पहुंची तथा फोन पर उन्होंने चौंकाने वाली यह खबर दी कि वे इस उपन्यास पर फिल्म बनाना चाहती है। इस प्रारम्भिक चर्चा के बाद वह मुझसे आकर मिली पूरी कथावस्तु के बारे में जाना-समझा और एक ही बैठक में निर्णय लेकर तय किया कि वह चूंकि मालवा की बेटी है तथा स्टोरी भी यहीं से सम्बन्धित है। इसलिए फिल्म मालवी बोली में है। और अंततः ‘‘भुनसारा’’ टाइटल से फिल्म बनी। डायरेक्टर चंदर बहल तथा नीतूजी की इच्छा थी कि इसके संवाद भी मैं लिखूं पर इसके लिए शूटिंग के दौरान लोकेशन पर जाना ज़रूरी था इसलिए यह कार्य सत्यनारायण पटेल ने किया। और छः माह पूरे होते न होते फिल्म थियेटरों में प्रदर्शित हो गई। 

राधेश्याम शर्मा : फिल्म प्रदर्शित होने के बाद आपने कैसा महसूस किया?
डॉ. सतीश दुबे : इसे मैं अपने लेखकीय जीवन की विशेष घटना मानता हूं। इस फिलम का निर्माण चूंकि प्रोड्यूसर नीतू की महत्वाकांक्षी योजना थी इसलिए उसने इसके प्रमोशंस के प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न स्थानों पर प्रेस कान्फ्रेंसिंग तथा इंटरनेट पर ‘‘भुनसारा’’ साइट को आधार बनाया। जाहिर है फिल्म के साथ उपन्यास को भी चर्चा मिली। यूएनआई भोपाल के चीफ-ब्यूरो राजू घोलप द्वारा उपन्यास बुलवाकर मुख्य कंसेप्ट ‘‘कन्या-देह-व्यापार’’ के केन्द्र में रिजीज की गई खबर देश के तमाम पत्रों में प्रकाशित हुई। इंडिया-टूडे ने अपने एक अंक में ‘‘देह-व्यापार के कबीले’’ शीर्षक कवर-स्टोरी के लिए मंदसौर मुख्यालय तथा अन्य थानों से सामग्री बटोरकर इस विषय पर विस्तार से लिखा। स्टोरी कवरेज-रिपोर्टर सुधीर गोरे ने इसी के साथ ‘‘मेहमान का पन्ना’’ के लिए बतौर उपन्यासकार मुझसे लिखवाया। आपको ख्याल होगा मानवाधिकार आयोग तथा मीडिया की विशेष पहल से उस दौरान क्षेत्र के सभी डेरों पर पुलिस की छापामार कार्रवाही हुई थी। परिणामस्वरूप यह रहस्य उजागर हुआ कि डेरों पर कन्या-देह-व्यापार की सामाजिक कुप्रथा की आड़ में दूसरी लड़कियों के खरीद-फरोख्त का व्यापार होता है। इस तत्कालिक तथा क्षणिक-दिनों की बारिश जैसी प्रशासनिक कार्रवाही में अनेक मजबूर तथा बेची गई लड़कियों को डेरों से मुक्त कराकर ‘‘व्यापारियों’’ को बंदी बनाया गया था। इस पूरे घटनाक्रम से साहित्य की पुस्तकों में पढ़े हुए इन तथ्यों की पुष्टि का अनुभव हुआ कि साहित्य से समाज में बदलाव आता है। 

राधेश्याम शर्मा : डॉ. साहब, इस क्षेत्र में रहते हुए भी जिन बातों से हम परिचित नहीं थे आपने अवगत कराया धन्यावाद।
डॉ. सतीश दुबे : हाँ, कुछ महत्वपूर्ण बातों को भी इस क्रम में जानना ज़रूरी है। जैसाकि फिल्म प्रोड्यूसर नीतू जोशी ने ‘‘सरिता’’ पाक्षिक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में बताया- म.प्र. के उद्योग मंत्री फिल्म उद्योग को प्रदेश में प्रारम्भ करना चाहते थे और उनकी इच्छा थी कि इसकी शुरूआत आंचलिक-बोली में बनाई जाने वाली फिल्मों से की जाये। इसीके तहत नीतूजी ने इस फिल्म का निर्माण ‘‘मालवी बोली’’ में किया। वह एक अलग प्रसंग है कि सबसिडी तथा फिल्म को टैक्स-फ्री किए जाने सम्बन्धी प्रारम्भिक आश्वासन बाद में पूरे नहीं हो पाए। यही नहीं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान द्वारा फिल्म में दिए गए कुछ सीन शॉट्स जिन्हें बाद में निकाल दिया गया। इस सबका कारण नीतूजी ने वोट-बैंक बताया। शासन नहीं चाहता था कि फिल्म प्रदर्शित होने पर बांछड़ा-समाज में अपने देह-व्यापार पर संभावित प्रभाव सम्बन्धी जारी सुगबुगाहट को हवा दी जाये। 

राधेश्याम शर्मा : ‘‘डेरा-बस्ती का सफ़रनामा’’ पर ‘‘भुनसारा’’ फिल्म बनाने की अनुमति देते हुए आपने क्या सोचा? आमद, धन प्राप्ति या कोई और वजह?
डॉ. सतीश दुबे : जनसामान्य तक किसी संदेश की पहुंच का फलक साहित्य की अपेक्षा सिनेमा का अधिक होता है। उपन्यास में निहित नारी की अस्मिता और दैहिक-शोषण की गाथा अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे यह मेरे अन्तर्मन की आवाज थी। और सामान्य सोच यह कि अपनी किसी पुस्तक को इतना महत्व मिल रहा है, यह लेखन की सार्थकता है। प्रारम्भिक और बाद की चर्चाओं के दौर में मानदेय सम्बन्धी कोई मुद्दा उभर नहीं पाया। न ही ऐसी चर्चा करने का साहस मेरा भोला-भाला लेखक-मन जुटा पाया। शायद इसी का पूरा फायदा उठाते हुए फिल्म-निर्माण पर करोड़ का खर्च करने की कान्फ्रेसिंग में बात करने वाली नीतूजी ने ‘‘एज-ए-गुड-विल’’ मुझे जो चेक भिजवाया उसका मूल्य बस बतौर सम्मान के दिए जाने वाले रूपया-नारीयल के बराबर मानिए। 

राधेश्याम शर्मा : ‘‘डेरा-बस्ती का सफ़रनामा’’ तथा ‘‘कुर्राटी’’ पर चर्चा करते हुए एक प्रश्न उभर रहा है? क्या इन या ऐसे ही जाति या समाज-विशेष पर उसी से सम्बन्धित कोई लेखक लिखता है तो वह लेखन अधिक तथ्यात्मक, रोचक तथा प्रभावी हो सकता है।
डॉ. सतीश दुबे : नहीं, मैं ऐसा नहीं सोचता। मेरा तो यह मानना है कि जाति या समाज वर्ग से इतर लेखक अधिक तथ्यपरक, निरपेक्ष, सहानुभूति और संवेदना स्तर पर बेहतर लिख सकता है। वस्तुतः साहित्य जगत में राजनीति जैसी यह दलगत बयार दलित लेखकीय-वर्ग की सक्रियता के बाद आई है। जबकि दलित-लेखन की शुरूआत ही प्रेमचंद से होती है। कमलेश्वर के समांतर कहानी आंदोलन ने सर्वप्रथम ‘‘सारिका’’ जैसी बहुल प्रचार-प्रसार पत्रिका के पृष्ठों पर इस प्रकार के लेखन को मंच दिया। यह कहा जाये कि आज के बहुचर्चित दलित साहित्य के पैरोकार रचनाकार ‘‘सारिका’’ की ही देन है तो गैरमौजू नहीं होगा। 

राधेश्याम शर्मा : हिन्दी कथा साहित्य में उपेक्षित वर्ग पर सम्बन्धित समाज के अलग लेखकों द्वारा लिखे गए इस प्रकार के लेखन का क्या आप बतौर उदाहरण परिचय दे सकेंगे?
डॉ. सतीश दुबे : वैसे अनेक कथाकारों ने लिखा और लिख रहे हैं। प्रेमचंद से ही शुरू करें तो उनकी अनेक कहानियों में इस प्रकार के पात्र मौजूद है। ‘‘रंगभूमि’’ के सूरदास, ननकू ‘‘गोदान’’ की सिलिया, उसके पिता हरखू, ‘‘प्रेमाश्रय’’ का बलराज रंगी, ‘‘कर्मभूमि’’ के घास छीलने वाला विद्रोही वर्ग जैसे पात्रों की कथा-साहित्य में अब तक सृष्टि नहीं हो पाई है। ‘‘बसंत मालती’’ में जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी के आदिवासी ‘‘भूले बिसरे चित्र’’ (भगवतीचरण वर्मा) का नाटक गेंदालाल वर्मा ‘‘दुःखमोचन’’ (नागार्जुन) का दलित पक्षधर ग्रामसेवक ‘‘स-सुराज’’ (हिमांशु जोशी) उपन्यासिकाओं के पात्र, रामदरश मिश्र के उपन्यास ‘‘जल टूटता हुआ’’ ‘‘सूखता हुआ तालाब’’ ‘‘पानी के प्राचीर’’ उपन्यासों के लवंगी, चेनइया, ये चंद ऐसे उपन्यास है जिनमें उपेक्षित वर्ग और समस्याओं को स्वर मिला है। इसी क्रम में देवेन्द्र सत्यार्थी, अमृतलाल नागर, निराला, बाबा नागार्जुन, शिवप्रसाद मिश्र, उग्रजी, मधुकरसिंह, रेणु, रांगेय राघव, मैत्रेयीपुष्पा, भगवानदास मोरवाल, शरद सिंह, मिथिलेश्वर, जैसे लेखकों के साथ इन दिनांे नई पीढ़ी के ऐसे अनेक रचनाकार हैं जो आत्मविश्वासी होमवर्क के साथ निरन्तर लिख रहे हैं। 

राधेश्याम शर्मा : धन्यवाद, डॉ. साहब! आपने बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी? आपने जिन उपन्यासों की चर्चा की उनमें आंचलिकता और बोलियों का समावेश है। आपका भी मालवी बोली के प्रति लगाव है इसमें आपने लिखा भी है? आज के सन्दर्भ में बोली के भविष्य के बारे में बताइये?
डॉ. सतीश दुबे : मालवी बोली में बनी ‘‘भुनसारा’’ फिल्म का सफल तथा चर्चित प्रदर्शन-प्रसंग से इस बोली की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है। वैसे बोलियों का रिश्ता लोक जीवनमूल्यों तथा संस्कृति के साथ जुड़ा रहता है। आज फैशन-परस्त दुनिया लोक की ओर दौड़ रही है। बोलियों में सृजन का महत्व यथावत है। महत्वपूर्ण यह कि बोलियां, भाषा को विस्तार और गहराई दे रही है। मैं जहां तक सोचता हूं समय कोई सा भी रहा हो उसमें लोक की धड़कन मौजूद रही है और वह आज भी है और भविष्य में भी रहेगी।

राधेश्याम शर्मा : लेखन के अतिरिक्त आपके शौक? अगर आप लेखक न होते तो क्या होते ? या क्या होना चाहते?
डॉ. सतीश दुबे : नये रचनाकारों से रू-ब-रू होना, पत्रिकाएं-पुस्तकंे पढ़ना, साहित्य-सेवा, लेखक मित्रों को सहयोग, उनकी संगत की चाह, साहित्यिक-आयोजनों में भागीदारी, परिवार के प्रति उत्तरदायित्व के निर्वाह का प्रयास बस ये ही कुछ शौक है। हमारे देश के अधिकांश लेखक पूर्णकालिक तो हैं नहीं, मैं भी वैसा ही पार्ट टाइमर छोटा सा कलमजीवी नहीं कलम सेवी हूं। वह भी नहीं होता तो वही होता जो मंजूरे खुदा होता।
राधेश्याम शर्मा : शारीरिक अक्षमता की स्थिति में जिन्दगी गुजारते हुए आपको कभी निराशा, या नियति से शिकायत रही है?
डॉ. सतीश दुबे : शारीरिक परेशानियों के बावजूद पारिवारिक कर्तव्य के निर्वाह हेतु भागती-दौड़ती जिन्दगी पर एकदम ब्रेक लग जाने से मानसिक उत्पीड़न होना प्रारम्भिक-स्तर पर स्वाभाविक था। पर उसे तत्काल हावी नहीं होने दिया। पर पूर्व निर्धारित छोटे-बेटे के वैवाहिक कार्यक्रम की जिम्मेदारी से निबटने के बाद आने वाले तनाव, निराशा और अवसाद के हमले को संवेदनशील मन रोक नहीं पाया। लेकिन यह स्थिति बहुत दिनों तक नहीं रही। धीरे-धीरे नई स्थितियों से समझौता कर नई जिन्दगी के पड़ाव की शुरूआत हुई। और इस शुरूआत के केन्द्र में रहा नियति का दिया उपहार लेखन। लेखन, पुस्तकें, साहित्यिक मित्र और माहौल से अकल्पनीय शक्ति मिली। ....और इन दस-बारह वर्षों के दौरान जो भी लिखा गया उसे निरपेक्ष दृष्टि से सराहना मिली। सबसे अधिक कृतियों का प्रकाशन भी इसी दौर की देन है। पहले से अधिक समय लेखन के लिए मिलने की इस वजह को मैं नियति का अभिशाप नहीं, वरदान मानता हूं। 

राधेश्याम शर्मा : आपकी शादी अरेंज थी या कोर्टशिप लवमैरिज! आपके परिवार में कितने सदस्य है? अपनी जीवन संगिनी जिन्होंने आपको हर काम में साथ दिया है। उनके बारे में आप कुछ कहेंगे।
डॉ. सतीश दुबे : शर्मा जी व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित आपने विभिन्न शक्लों में दनादन प्रश्न ही प्रश्न मेरे सामने खड़े कर दिए। खैर तो सुनिए, एम.ई., एम.टेक उपाधिग्रहीता दो इंजीनियर बेटे हैं। उन्हीं के समकक्ष विज्ञान विषयों में आर्थिक-द्दष्टि से स्वनिर्भर स्नातकोत्तर बहुएं और बेटियां। एक पुत्र-तुल्य दामाद, बैंक-मैनेजर है दूसरे सिंचाई विभाग में इंजीनियर। एक नाती इंजीनियर पद पर है। पौत्री तथा एक और नाती इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं। दो पौत्र अंडर हायर सेकेण्डरी अध्ययनरत हैं।
अपनी शादी का जहां तक सवाल है विवाह के लिए परम्परागत देखा-देखी रस्मअदायगी की पहली नज़र में ही लड़की दिमाग में छा गई। इसलिए हमारी शादी को आप अरेंज मैरिज विद् लव एट फर्स्टसाइड कह सकते हैं। जीवन-संगिनी के बारे में क्या बताऊँ। शादी के वक्त सोलह की थी और मैं बीस का। आप अंदाज लगा सकते हैं हम लोगों ने अपनी जिन्दगी संवारने में कैसी साझेदारी की होगी। हां उसके बारे में मैं अपनी ओर से कुछ कहने की अपेक्षा अनुजातुल्य प्रतिष्ठित कथा लेखिका डॉ. स्वाति तिवारी की जब-तब कही जाने वाली इन पंक्तियों को दोहराना चाहूंगा -‘‘भाभी के बारे में कुछ कहने के लिए किसी मुकम्मल गज़ल के बजाय उसका एक शेर ही पर्याप्त है।’’

राधेश्याम शर्मा : क्या आप अपनी आत्मकथा लिखने का विचार कर रहे हैं?
डॉ. सतीश दुबे : कतई नहीं। उमड़-घुमाड़कर निकल कर अगले दिन एकदम मिट जाने वाले मेरे व्यक्तिगत जीवन में है ही क्या जो कथा बन सके। 

राधेश्याम शर्मा : वर्तमान साहित्यिक-माहौल और साहित्यकार होने का दावा करने वालों के बारे में आप कुछ कहेंगे?
डॉ. सतीश दुबे : आपके इस प्रश्न के उत्तर में मैं अपनी और से कुछ कहने की अपेक्षा ‘‘समावर्तन’’ पत्रिका के सम्पादक प्रमुख वरिष्ठ साहित्यकार तथा विचारक रमेशजी दवे की निम्न पक्तियों को उद्धृत करना चाहूंगा-‘‘... जहाँ तक साहित्य और साहित्यकारों का सम्बन्ध है, वे तो कविता-कहानी में हंसते-रोते लोग हैं, नाटक करते लोग हैं, लच्छेदार भाषा में लिखते या भाषण देते लोग हैं। उनका संवेदनतन्त्र मात्र एक प्रकार का शब्दतन्त्र ही है और शब्द का भी अवमूल्यन एवं अर्थ विघटन इस प्रकार हो गया है कि साहित्य में साहित्य के ही शब्द प्रदूषित होने लगे हैं।’’ (जून 2013)

राधेश्याम शर्मा : और बस अंत में यह कि क्या आप नए रचनाकारों को कोई संदेश देना चाहेंगे ?
डॉ. सतीश दुबे : मैं संदेश देने वाले साहित्य-संतों में अपने को शुमार नहीं करता। इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि आज की युवा-पीढ़ी में अद्भूत लेखकीय ऊर्जा है। इस पीढ़ी ने बिना किसी का अनुसरण किये अपनी राह स्वयं अख्तियार की है। समसामयिक स्थिति, निजी बोध क्षमता और भाषा शैली का अद्भूत समन्वय इस युवा सृजन की विशेषता है। मेरा अनुरोध यही है कि अपनी उर्वरा ज़मीन स्वयं तैयार करने वाला यह वर्ग अपने को साहित्यिक दलबन्दी से दूर रखे।
  • डॉ. सतीश दुबे, 766, सुदामा नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.) 
  • राधेश्याम शर्मा, एल-64, इंदिरानगर विस्तार, नीमच-458441 (म.प्र.)

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 01-02,  सितम्बर-अक्टूबर  2013 

{ आवश्यक नोट-  कृपया संमाचार/गतिविधियों की रिपोर्ट कृति देव 010 या यूनीकोड फोन्ट में टाइप करके वर्ड या पेजमेकर फाइल में या फिर मेल बाक्स में पेस्ट करके ही भेजें; स्केन करके नहीं। केवल फोटो ही स्केन करके भेजें। स्केन रूप में टेक्स्ट सामग्री/समाचार/ रिपोर्ट को स्वीकार करना संभव नहीं है। ऐसी सामग्री को हमारे स्तर पर टाइप करने की व्यवस्था संभव नहीं है। फोटो भेजने से पूर्व उन्हें इस तरह संपादित कर लें कि उनका लोड 2 एम.बी. से अधिक न रहे।}


पुण्यतिथि पर महादेवी का भावपूर्ण स्मरण


कार्यक्रम का शुभारंभ करते
महादेवी वर्मा सृजन पीठ के
निदेशक प्रो. देव सिंह पोखरिया 


हिंदी साहित्य में छायावाद की प्रमुख स्तम्भ महादेवी वर्मा की पुण्यतिथि (11 सितंबर 2013) पर उमागढ़ (रामगढ़) स्थित कुमाऊँ विश्वविद्यालय की महादेवी वर्मा सृजन पीठ में महादेवी जी का भावपूर्ण स्मरण किया गया। इस अवसर पर पीठ के निदेशक प्रो. देव सिंह पोखरिया ने कहा कि महादेवी वर्मा का हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान है। वह बीसवीं सदी की भारतीय नारी चेतना की आज एक प्रकार से प्रतीक हैं। महादेवी की रचनाओं में स्थानीय पात्र जिस व्यापकता के साथ मुखर हुए हैं, वह उनका स्थानीय परिवेश के साथ जुड़ाव ही है। उन्होंने कहा कि सृजन पीठ को उत्तराखण्ड की साहित्यिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र के रूप में विकसित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। महादेवी की स्मृति में सामूहिक प्रयासों से पीठ राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक संस्थान के तौर पर स्थापित हो सके तो यही महादेवी जी के प्रति सच्ची श्र्रद्धांजलि होगी।
        सेवानिवृत्त प्रधानाचार्या डॉ. दीपा काण्डपाल ने कहा कि महादेवी हिंदी ही नहीं वरन आधुनिक भारत की पहली स्त्री रचनाकार थीं जिनके पास परंपरा और प्रगति का द्वंद्व है। उनकी रचनाओं के पात्र कहीं न कहीं उनके व्यंिक्तगत जीवन से जुड़े रहे हैं, इस कारण वह अधिक सजीव हैं।
        उमागढ़ की ग्राम प्रधान उमा जोशी ने कहा कि महादेवी जी ने रामगढ़ में अपने ग्रीष्मकालीन प्रवास के

लिए बनाए गए भवन ‘मीरा कुटीर’ में जो साहित्य सृजन किया, वह साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर है। उनके द्वारा उमागढ़ को साहित्य सृजन के लिए चुना जाना हम सबके लिए गौरव की बात है। इससे इस क्षेत्र को राष्ट्रीय पहचान मिली है।
          इससे पूर्व दीप प्रज्वलन और महादेवी जी के चित्र पर माल्यार्पण से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। इस अवसर पर महादेवी वर्मा की कविताओं के सस्वर पाठ की अंतरविद्यालयी प्रतियोगिता आयोजित की गई। प्रतियोगिता में प्रथम, द्वितीय व तृतीय पुरस्कार राजकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, तल्ला रामगढ़ की छात्रा क्रमशः कोमल वर्मा, मनीषा मेर व पूजा कोरंगा तथा सांत्वना पुरस्कार राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, मल्ला रामगढ़ की

पूनम आर्या तथा श्रीनारायण स्वामी राजकीय इण्टर कालेज, तल्ला रामगढ़ के नवीन चन्द्र आर्य ने प्राप्त किया। विजयी प्रतियोगियों को महादेवी वर्मा सृजन पीठ के निदेशक प्रो. देव सिंह पोखरिया ने पुरस्कृत किया। प्रतियोगिता के निर्णायक डॉ. दीपा काण्डपाल, डॉ. मन्नू ढौंडियाल और हिमांशु पाण्डे थे। कार्यक्रम का संचालन महादेवी वर्मा सृजन पीठ के शोध अधिकारी मोहन सिंह रावत ने किया। इस अवसर पर भुवन चन्द्र जोशी, शशिबाला, रोहित जोशी, हंसा शर्मा, ईश्वरी दत्त जोशी, रजनी चौधरी, दीवान सिंह दरम्वाल, हेमा बिष्ट, आनंद बल्लभ जोशी, शिवचरण थापा, कमलेश साह, राजकुमार कपूर, उमेश जोशी, प्रमोद रैखोला, बहादुर सिंह आदि उपस्थित थे। (समाचार सौजन्य : मोहन सिंह रावत, बर्ड्स आई व्यू, इम्पायर होटल परिसर, तल्लीताल, नैनीताल-263 002)





हिन्दी कथा साहित्य एवं स्वयं प्रकाश विषयक राष्ट्रीय सेमीनार




  चित्तौड़गढ़। यथार्थ को संजोते हुए जीवन की वास्तविकता का चित्रण कर समाज की गतिशीलता को बनाये रखने का मर्म ही कहानी हैं। सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता शक्ति एक कथाकार की विशेषता है और स्वयं प्रकाश इसके पर्याय बनकर उभरे हैं। उनकी कहानियों में खास तौर पर कथा और कहन की शैली खासतौर पर दिखती हैं। यही कारण है कि पाठक को कहानियों अपने आस-पास के परिवेश से मेल खाती हुई अनुभव होती हैं। विलग अन्दाज की भाषा शैली के कारण स्वयं प्रकाश पाठकों के होकर रह जाते हैं। चित्तौड़गढ़ में आयोजित समकालीन हिन्दी कथा साहित्य एवं स्वयं प्रकाश विषयक राष्ट्रीय सेमीनार में मुख्यतः यह बात उभरकर आयी।
            सेमीनार का बीज वक्तव्य देते हुए सुखाडिया विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो माधव हाडा ने कहा कि यथार्थ के प्रचलित ढाँचे ने पारम्परिक कहन को बहुत नुकसान पहुंचाया है लेकिन अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद स्वयं प्रकाश ऐसे कथाकार हैं जो यथार्थ के नए नए पक्षों का उद्घाटन करते हुए कहन को क्षतिग्रस्त नहीं होने देते। उन्होंने कहा कि कहानी और कथा का भेद जिस तरह से उनकी कहानियों को पढते हुए समझा जा सकता हैवैसा किसी भी समकालीन कथाकार के यहाँ दुर्लभ है। प्रो हाड़ा ने कहा कि आज के दौर में लेखक को स्वयं लेखक होने की चिन्ता खाये जा रही है वहीं मनुष्य एवं मनुष्य की चिन्ता स्वयं प्रकाश की कहानियों में परिलक्षित होती है। हिन्दू कालेज दिल्ली से आए युवा आलोचक पल्लव ने आयोजन के महत्त्व को प्रकाशित करते हुए कहा कि प्रशंसाओं के घटाटोप में उस आलोचना की बडी जरूरत है जो हमारे समय की सही रचनाशीलता को स्थापित करे। इस सत्र में कथाकार स्वयं प्रकाश ने अपनी चर्चित कहानी श्कानदांवश् का पाठ किया जो रोचक कहन में भी अपने समय की जटिल और उलझी हुई सच्चाइयों को समझने का अवसर देती है। पाठक जिसे किस्सा समझकर रचना का आनंद लेता है वह कोरा किस्सा न होकर उससे कहीं आगे का दस्तावेज हो जाती है। सत्र के समापन पर सम्भावना के अध्यक्ष डाॅ. के.सी. शर्मा ने आगे भी इस तरह के आयोजन जारी रखने का विश्वास जताया। शुरूआत में श्रमिक नेता घनश्याम सिंह राणावत, जी.एन.एस. चैहान, जेपी दशोरा, अजयसिंह, योगेश शर्मा ने अतिथियों का अभिनन्दन किया।


            दूसरे सत्र के मुख्य वक्ता युवा कवि अशोक कुमार पांडेय ने अपने समकालीन कथा साहित्य की विभिन्न प्रवृतियों के कईं उदाहरण श्रोताओं के सामने रखे। उन्होंने समय के साथ बदलती परिस्थितियों और संक्रमण के दौर में भी स्वयं प्रकाश के अपने लेखन को लेकर प्रतिबद्ध बने रहने पर खुशी जाहिर की। उन्होंने समकाल की व्याख्या करते हुए कहा कि यह सही है कि किसी भी काल के विभिन्न संस्तर होते हैं. एक ही समय में हम आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक सभी स्तरों पर इन संस्तरों को महसूस कर सकते हैं। लेकिन जहाँ उत्तर-आधुनिक विमर्श इन्हें अलग-अलग करके देखते हैं वहीँ एक वामपंथी लेखक इन सबके बीच उपस्थित अंतर्संबंध की पडताल करता है और इसीलिए उसे अपनी रचनाओं की ब्रांडिंग नहीं करनी पडती। उसके लेखन में स्त्री, दलित, साम्प्रदायिकता, आर्थिक शोषण सभी सहज स्वाभाविक रूप से आते हैं. स्वयं प्रकाश की कहानियाँ इसकी गवाह हैं। उनकी दूसरी खूबी यह है कि वह पूरी तरह एशियाई ढब के किस्सागो हैं, जिनके यहाँ स्थानीयता को भूमंडलीय में तब्दील होते देखा जा सकता है. इस रूप में वह विमर्शों के हवाई दौर में विचार की सख्त जमीन पर खडे महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। सत्र की अध्यक्षता करते हुए कवि और चिंतक डाॅ. सदाशिव श्रोत्रिय ने कहा कि कोइ भी व्यक्ति दूसरों की पीड़ा और व्यथा को समझकर ही साहित्यकार बन सकता है और सही अर्थों में समाज को कुछ दे सकता हैं। उन्होंने स्वयं प्रकाश के साथ भीनमाल और चित्तौड में व्यतीत दिनों पर एक संस्मरण का वाचन किया जिसे श्रोताओं ने पर्याप्त पसंद किया। जबलपुर विश्वविद्यालय की मोनालिसा और राजकीय महाविद्यालय मण्डफिया के प्राध्यापक डाॅ. अखिलेश चाष्टा ने पत्रवाचन कर स्वयं प्रकाश की कहानियों का समकालीन परिदृश्य में विश्लेषण किया। विमर्श के दौरान पार्टीशन, चैथा हादसा, नीलकान्त का सफर जैसी कहानियों की खूब चर्चा रही। इस सत्र का संचालन माणिक ने किया।
           तीसरे सत्र के मुख्य वक्ता डॉ कामेश्वर प्रसाद सिंह ने समाकालीन परिदृश्य में स्वयं प्रकाश की उपस्थिति का महत्त्व दर्शाते हुए कहा कि पार्टीशन जैसी कहानी केवल साम्प्रदायिकता जैसी समस्या पर ही बात नहीं करती अपितु संश्लिष्ट यथार्थ को सही सही खोलकर कर पाठक तक पहुंचा देती है। उन्होंने क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा है? का उल्लेख करते हुए कहा कि मध्यवर्ग का काइंयापन इस कहानी में जिस तरह निकलकर आता है वह इस एक खास ढंग से देखने से रोकता है। इस सत्र में इग्नू दिल्ली की शोध छात्रा रेखासिंह ने पत्र वाचन किया। अध्यक्षता कर रहे राजस्थान विद्यापीठ के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मलय पानेरी ने कहा कि स्वयं प्रकाश की कहानियां नींद से जगाने के साथ आँखें खोल देने का काम भी करती हैं। उन्होंने स्वयं प्रकाश की एक अल्पचर्चित कहानी ढलान पर का उल्लेख करते हुए बताया कि अधेड होते मनुष्य का जैसा प्रभावी चित्र इस कहानी में आया है वह दुर्लभ है। सत्र का संचालन करते हुए डॉ रेणु व्यास ने कहा कि स्वयं प्रकाश की कहानी के पात्रों में हमेशा पाठक भी शामिल होता है यही उनकी कहानी की ताकत होती है।
समापन सत्र में डाॅ. सत्यनारायण व्यास ने कहा कि जब तक मनुष्य और मनुष्यता है जब तक साहित्य की आवश्यकताओं की प्रासंगिकता रहेगी। उन्होंने कहा कि मानवता सबसे बड़ी विचारधारा है और हमें यह समझना होगा कि वामपंथी हुए बिना भी प्रगतिशील हुआ जा सकता है। सामाजिक यथार्थ के साथ मानवीय पक्ष स्वयं प्रकाश की कहानियों की विशेषता है एवं उनका सम्पूर्ण साहित्य, सृजन इंसानियत के मूल्यों को बार-बार केन्द्र में लाता है। सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात समालोचक प्रो. नवलकिशोर ने स्वयं प्रकाश की कहानियों के रचना कौशल के बारीक सूत्रों को पकडते हुए उनकी के छोटी कहानी हत्या का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि मामूली दिखाई दे रहे दृश्य में कुछ विशिष्ट खोज लाना और उसे विशिष्ट अंदाज में प्रस्तुत करना स्वयं प्रकाश जैसे लेखक के लिए ही संभव है। चित्रकार और कवि रवि कुमार ने इस सत्र में कहा कि किसी भी कहानी में विचार की अनुपस्थिति असंभव है और साहित्य व्यक्ति के अनुभव के दायरे को बढ़ाता हैं। इस सत्र का संचालन कर रहे राजकीय महाविद्यालय डूंगरपुर के प्राध्यापक हिमांशु पण्डया ने कहा कि गलत का प्रतिरोध प्रबलता से करना ही स्वयं प्रकाश की कहानियों को अन्य लेखकों से अलग खड़ा करती है।       रावतभाटा के रंगकर्मी रविकुमार द्वारा निर्मित स्वयंप्रकाश की कहानियों के खास हिस्सों पर केन्द्रित करके पोस्टर प्रदर्शनी इस सेमीनार का एक और मुख्य आकर्षण रही। यहीं बनास जन, समयांतर, लोक संघर्ष सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की एक प्रदर्शनी भी लगाई गई। सेमीनार में प्रतिभागियों द्वारा अपने अनुभव सुनाने के क्रम में विकास अग्रवाल ने स्वयंप्रकाश के साथ बिताये अपने समय को संक्षेप में याद किया। आयोजन में गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सहायक आचार्य डॉ गजेन्द्र मीणा प्रतिभागियों के प्रतिनिधि के रूप में सेमीनार पर अपना वक्तव्य दिया। इस सत्र में विकास अग्रवाल ने भी अपनी संक्षित टिप्पणी की। आखिर में आभार आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी लक्ष्मण व्यास ने दिया।
             आयोजन में उदयपुर विश्वविद्यालय से जुडे अध्यापकों एवं शोध छात्रों के साथ नगर और आस-पास के अनेक साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। आयोजन स्थल पर चित्रकार रविकुमार द्वारा कथा-कविता पोस्टर प्रदर्शनी, ज्योतिपर्व प्रकाशन द्वारा स्वयं प्रकाश की पुस्तकों की प्रदर्शनी एवं लघु पत्रिकाओं की प्रदर्शनी को प्रतिभागियों ने सराहा।
(समाचार प्रस्तुति :  डा. कनक जैन, संयोजक, राष्ट्रीय सेमीनार, म-16, हाउसिंग बोर्ड, कुम्भा नगर, चित्तौडगढ -312001)


उषा अग्रवाल संपादित संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ का विमोचन


सुप्रसिद्ध लघुकथा लेखिका श्रीमती उषा अग्रवाल ‘पारस’ द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ का लोकार्पण विदर्भ साहित्य सम्मेलन, नागपुर के मधुरम सभागृह में विगत 27 अक्टूबर को सम्पन्न हुआ। प्रख्यात व्यंग्यकार श्री घनश्याम अग्रवाल की अध्यक्षता में सम्पन्न इस समारोह में मुख्य अतिथि डॉ. वेद प्रकाश मिश्रा ने ग्रन्थ का विमोचन किया। मुम्बई के वरिष्ठ साहित्यकार रमेश यादव व आधुनिक साहित्य के संपादक आशीष खांडवे अन्य सम्माननीय अतिथि थे। 300 से अधिक श्रोताओं से भरे सभागार में समारोह का संचालन सुनीता उपाध्याय तथा आभार प्रदर्शन श्री कमलेश चौरसिया ने किया। (समाचार सौजन्य: डॉ. योगेन्द्र अग्रवाल, नागपुर)

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा अंतर्राष्ट्रीय सम्मान 


सुप्रसिद्ध समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को बैंकाक (थाईलैण्ड) में विश्व हिन्दी मंच एवं सिल्पकॉर्न विश्वविद्यालय, बैंकाक के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेस में ‘विश्व हिन्दी सेवा सम्मान’ से अंलकृत किया गया। उन्हें यह सम्मान सिल्पकॉर्न विश्वविद्यालय के सभागार में आयोजित समारोह में थाईलैण्ड के प्रख्यात विद्वान प्रो. चिरापद प्रपंडविद्या,  डॉ. सम्यंग ल्युमसाइ एवं प्रो. बमरूंग काम-एक के कर-कमलों से अर्पित किया गया। प्रो. शर्मा इस सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के विशिष्ट अतिथि थे। उन्होंने ‘वैश्विक साहित्य और विश्व शांति’ पर केंद्रित शोध पत्र भी प्रस्तुत किया। प्राध्यपिका व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती राजश्री शर्मा ने भी ‘लिटरेचर, कल्चर एण्ड ग्लोबल हॉर्मोनी’ पर विषय पर अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया। इस सम्मेलन में भारत, मारीशस एवं थाईलैण्ड के सौ से अधिक विद्वान, संस्कृतिकर्मी एवं साहित्यकार उपस्थित थे।


सुपेकर की लघुकथाएँ, लघु व्यंग्य कथाएँ हैं : बटुक चतुर्वेदी




चर्चित लघुकथाकार संतोष सुपेकर के लघुकथा संग्रह ‘भ्रम के बाजार में’ का विमोचन विगत दिनों उज्जैन में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर म.प्र.लेखक संघ के अध्यक्ष श्री बटुक  चतुर्वेदी ने कहा- ‘‘साहित्यकार पर सम्पूर्ण देश विश्वास करता है, अतः उन्हें चाहिए कि लेखन में हमेशा पूर्ण ईमानदारी बरतें। संतोष सुपेकर की लघुकथाओं में समाज में व्याप्त विसंगतियों पर करारी चोट है। ये लघुकथाओं से ज्यादा व्यंग्य लघुकथाएँ हैं।’’ समारोह के अध्यक्ष अनिल सिंह चंदेल तथा हरीश प्रधान, प्रो.शैलेन्द्र कुमार शर्मा, शैलेन्द्र कुलमी, डॉ.पिलकेन्द्र अरोड़ा आदि ने भी विचार व्यक्त किए। डॉ. मोहन बैरागी, जगदीश तोमर, बी.एल.आच्छा, सुरेश शर्मा, डॉ. हरीश कुमार सिंह आदि अनेक साहित्यकार व गणमान्य व्यक्ति भी मौजूद रहे। (समाचार सौजन्य: डॉ. अनिल जूनवाल)




शुभ तारिका के हरियाणा विशेषांक का विमोचन



विगत 30 अक्तूबर हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने सचिवालय स्थित अपने कार्यालय में अम्बाला छावनी से श्रीमती उर्मि कृष्ण के संपादन में प्रकाशित मासिक पत्रिका शुभतारिका के हरियाणा विशेषांक का विमोचन किया। श्री हुड्डा ने शुभतारिका के इस प्रयास की सराहना की और कहा कि इस परम्परा को जारी रखा जाए और पूरा सहयोग देने का आश्वासन दिया। इस अवसर पर डॉ. कृष्ण कुमार खंडेलवाल, सुदीप सिंह ढिल्लों, उर्मि कृष्ण, कमलेश भारतीय, डॉ. मुक्ता, डॉ. आर. एस. परोदा, शादीलाल कपूर आदि मौजूद थे। (समाचार सौजन्य: कमलेश भारतीय)    





भारतीय साहित्य सृजन संस्थान एवं कथा सागर सम्मान, 2012  

    भारतीय साहित्य सृजन संस्थान,पटना,बिहार एवं चर्चित त्रैमासिकी कथा सागर द्वारा पुरस्कार-सम्मान हेतु देश  भर से आमंत्रित पुस्तकों में से नताश  अरोड़ा के उपन्यास युगान्तर को रांगेय राघव साहित्य पुरस्कार, सेैली बलजीत (पठानकोट) के कहानी संग्रह टप्परवास को राजकमल चौधरी साहित्य पुरस्कार ,भास्कर चौधुरी (कोरवा,छ0ग0) के कविता संग्रह कुछ हिस्सा तो उनका भी है को अमृता प्रीतम साहित्य पुरस्कार,वीरेन्द्र सरल(धमतरी) के व्यंग्य संग्रह कार्यालय तेरी अकथ कहानी को हरिषंकर परसाई साहित्य सम्मान से सम्मानित किया जाएगा।  

      अलावा इसके जवाहर किशोर प्रसाद(पूर्णिया) को उपन्यास खुषियां के लिए कथा सागर विषिश्ठ सम्मान,डा0 अपर्णा  चतुर्वेदी प्रीता(जयपुर) /रेखाओं के पार ,भोला पंडित प्रणयी (अररिया)/गिरते हुए पत्तों का बयान, शीला पांडेय(लखनऊ)/मुक्त पलों में, संतोश सुपेकर(इंदौर)/चेहरों के आरपार,सरिता गुप्ता(दिल्ली)/नई डगर,रजनी नैयर मल्होत्रा/स्वप्न मरते नहीं(बोकारो स्टील सिटी, झारखंड),पुश्पा जमुआर/टेढ़े-मेढ़े रास्ते(पटना) , घमंडीलाल अग्रवाल/आत्मबोध (गुड़गांव ),प्रभात दुबे/नंदिता तुम कहंा हो(जबलपुर) , भवानी सिंह/मांणसतथा अन्य कहानियां  (जयपुर), डा0 इंदिरा मिश्रा/नई दिषा (लखनऊ), डा0 अषोक गुलषन/और कुछ भी नही (बहराईच), माला वर्मा/आईए मलेषिया सिंगापुर चलें (24 परगना,प0बं0),सदाषिव कौतुक/अंधी चाल(इंदौर) और गार्गीषरण मिश्र(जबलपुर)/मानस मकरंद के लिए कथा सागर सम्मान से सम्मानित किया जाएगा। सभी पुरस्कृत एवं सम्मानित साहित्यकारों को भारतीय साहित्य सृजन संस्थान एवं कथा सागर पत्रिका द्वारा पटना में अक्टूबर ,2013 में आयोजित वार्शिक साहित्यिक समारोह में देष के चर्चित साहित्यकारों की उपस्थिति में सम्मानित साहित्यकारों को नकद र्रािष ,स्मृति चिन्ह, षॉल और प्रषस्ति पत्र प्रदान किया जाएगा। इस वर्श पुस्तक चयन के निर्णायकों में श्री प्रताप सिंह सोढ़ी, श्री सतीष दुबे और सतीषराज पुश्करणा एवं डा0 तारिक असलम ’तस्नीम’ शामिल थे।  
कथा सागर साहित्य सम्मान-पुरस्कार-2013
      भारतीय साहित्य सृजन संस्थान और कथा सागर पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित साहित्य सम्मान-पुरस्कार ,2013 हेतु हिंदी भाशी लेखकों,साहित्यकारों तथा पत्रकारों से प्रत्येक विधा की साहित्यिक कृतियां  31 दिसम्बर, 2013 तक आमंत्रित हैं। विस्तृत जानकारी हेतु टिकटयुक्त तथा स्वपता लिखित लिफाफा भेजें अथवा ईमेल पते kathasagareditor@gmail.com पर संपर्क करें। (प्रस्तुति :  नेहा परवीन, प्रबंधक :   भारतीय साहित्य सृजन संस्थान, प्लाट-6, सेक्टर-2, हारून नगर कालोनी, फुलवारीफ पटना-801505)


शब्द साधको को शब्द प्रवाह सम्मान से नवाजा गया




उज्जैन। शब्द प्रवाह साहित्य मंच द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान का आयोजन 24 मार्च 2013 को किया गया। आयोजन में वरिष्ठ साहित्यकार डा. रामसिंह यादव और मोहन सोनी को शब्द साधक की मानद उपाधि प्रदान की गई| सम्मान समारोह में संदीप राशिनकर इंदौर को शब्द कला साधक की उपाधि दी गई। सम्मानार्थ आमंत्रित कृतियों के तहत मुकेश जोशी उज्जैन, स्व. साजिद अजमेरी अजमेर, ए.एफ. नजर सवाई माधोपुर, गोविंद सेन मनावर, शिशिर उपाध्याय बढ़वाह, गाफिल स्वामी अलीगढ़, सूर्यनारायणसिंह सूर्य देवरिया, श्रीमती रीता राम मुंबई, श्रीमती सुधा गुप्ता अमृता कटनी, शिवचरण सेन शिवा झालावाड़, सुरेश कुशवाह भोपाल, श्रीमती रोशनी वर्मा इंदौर, बीएल परमार नागदा, श्रीमती दुर्गा पाठक मनावर को सम्मानित किया गया। दिनेशसिंह शिमला, श्रीमती पुष्पा चैहान नागदा, महेंद्र श्रीवास्तव, अभिमन्यु त्रिवेदी उज्जैन, अब्बास खान संगदिल छिंदवाड़ा, राधेश्याम पाठक उत्तम उज्जैन, उदयसिंह अनुज घरगांव, स्वप्निल शर्मा मनावर, राजेंद्र निगम राज गाजियाबाद, संजय वर्मा दृष्टि मनावर, सुनीलकुमार वर्मा मुसाफिर इंदौर, डा. माया दुबे भोपाल, श्रीप्रकाशसिंह शिलांग, रविश रवि फरीदाबाद, राजेश राज उज्जेन को साहित्य सेवा के लिए सम्मानित किया गया।
समारोह मे 20 रचनाकारों के अ.भा. काव्य संकलन शब्द सागर (सम्पादक कमलेश व्यास कमल) ,महेन्द्र श्रीवास्तव की कृति दोहों की बारहखडी, कोमल वाधवानी प्रेरणा की कृति नयन नीर, यशवंत दीक्षित की कृति रेत समंदर बहा गया, अरविंद सनम् की कृति हर घर मे उजाला जाये, संदीप सृजन की कृति गाँव की बेटी का विमोचन भी किया गया | दुसरे शत्रु मे अ.भा.कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ |
      प्रथम सत्र डा. रामराजेश मिश्र की अध्यक्षता और अनिलसिंह चंदेल, रामसिंह जादौन व डा. पुष्पा चैरसिया के आतिथ्य में संपन्न हुआ। दूसरे सत्र में डा. शैलेंद्रकुमार शर्मा की अध्यक्षता में प्रो. बी.एल. आच्छा, डा. दीपेंद्र शर्मा, श्रीमती पूर्णिमा चतुर्वेदी व डा. श्याम अटल अतिथि के रूप में उपस्थित थे। स्वागत शब्द प्रवाह के संपादक संदीप ‘सृजन‘ ने किया। संचालन डा. सुरेंद्र मीणा और डा. रावल ने किया। आभार कमलेश व्यास ने माना। (समाचार सौजन्य : संदीप ‘सृजन‘)



राजेन्द्र परदेसी केरल हिन्दी  साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित



केरल हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा श्री राजेन्द्र परदेसी को ‘साहित्यश्री सम्मान’ से सम्मानित किया है। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के सहयोग से इस सम्मान के साथ श्री परदेसी जी को रु. दस हजार की राशि पुरस्कार स्वरूप भी भेंट की गई। 
श्री राजेन्द्र परदेसी को यह सम्मान हिन्दी भाषा एवं साहित्य के उन्नयन एवं संवर्धन में उत्कृष्ट उपलब्धियों व महत्वपूर्ण योगदान के लिए प्रदान किया गया। (समाचार प्रस्तुति  :  राजेन्द्र परदेसी)






कथा समय के महिला कथाकार परिशिष्ट का विमोचन 


फोटो कैप्शन : हरियाणा के मुख्यमंत्री के अतिरिक्त 
प्रधान सचिव डॉ. कृष्ण कुमार खंडेलवाल 
हरियाणा ग्रन्थ अकादमी की पत्रिका 
कथा समय के महिला कथाकारपरिशिष्ट का 
विमोचन करते हुए।साथ में उपाध्यक्ष कमलेश 
भारतीय, निदेशक डॉ. मुक्ता, आर. आर. जोवल 
व विराट वाशिष्ठ भी मौजूद थे।
चंडीगढ़। हरियाणा के मुख्यमंत्री के अतिरिक्त प्रधान सचिव व ग्रन्थ अकादमी के कार्यकारी उपाध्यक्ष डॉ. कृष्ण कुमार खंडेलवाल ने आज ग्रन्थ अकादमी की मासिक पत्रिका कथा समय के महिला कथाकार परिशिष्ट का विमोचन किया। उन्होंने कहा कि विश्व महिला दिवस के उपलक्ष्य में कथा समय के मार्च अंक को महिला कथाकार परिशिष्टï के रूप में प्रकाशित किया गया। इस अवसर पर हरियाणा ग्रन्थ अकादमी के उपाध्यक्ष व कथाकार कमलेश भारतीय, निदेशक डा. मुक्ता, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी आर. आर. जोवल व संयुक्त निदेशक विराट वाशिष्ठ आदि मौजूद थे।
         कथा समय के महिला कथाकार परिशिष्ठï में चंद्रकांता, डॉ. मुक्ता, रूबी मोहंती, मीनाक्षी जिजीविषा, योगिता सिंह व प्रतिभा की कहानियां शामिल हैं, जो महिलाओं की भावभूमि का परिचय देती हैं। इनके अतिरिक्त रमेश उपाध्याय का कहानी क्यों लिखता हूं भी नये रचनाकारों के लिए प्रेरणादायी है। पुस्तकें मिलीं, कृति परिचय व गतिविधियां स्तम्भ भी काफी जानकारी देते हैं। (समाचार प्रस्तुति  :  कमलेश भारतीय)



ललित गर्ग को अणुव्रत लेखक पुरस्कार की घोषणा




नई दिल्ली, 29 नवम्बर 2012।  अणुव्रत महासमिति द्वारा प्रतिवर्ष उत्कृष्ट नैतिक एवं आदर्श लेखन के लिए प्रदत्त किया जाने वाला ‘अणुव्रत लेखक पुरस्कार’ वर्ष-2012 के लिए लेखक, पत्रकार एवं समाजसेवी श्री ललित गर्ग को प्रदत्त किया जायेगा। इस आशय की घोषणा आज अणुव्रत महासमिति के अध्यक्ष श्री बाबूलाल गोलछा ने अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण के सान्निध्य में जसोल (राजस्थान) में आयोजित भव्य समारोह में की। पुरस्कार का चयन तीन सदस्यीय चयन समिति द्वारा दिये गये सुझावों पर किया गया है। पुरस्कार के रूप में 51,000/- (इक्यावन हजार रुपए) की नकद राशि, प्रशस्ति पत्र एवं शॉल प्रदत्त की जाती है। 
श्री गर्ग के चयन की जानकारी देते हुए श्री गोलछा ने बताया कि अणुव्रत पाक्षिक के लगभग डेढ़ दशक तक संपादक रह चुके श्री गर्ग अणुव्रत लेखक मंच की स्थापना के समय से सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। अणुव्रत आंदोलन की गतिविधियों में उनका विगत तीन दशकों से निरन्तर सहयोग प्राप्त हो रहा है। नई सोच एवं नए चिंतन के साथ उन्होंने अणुव्रत के विचार-दर्शन को एक नया परिवेश दिया है। समस्याओं को देखने और उनके समाधान प्रस्तुत करने में उन्होंने अणुव्रत के दर्शन को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री महाप्रज्ञ एवं वर्तमान में आचार्य श्री महाश्रमण के कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुंचाने में उनका विशिष्ट योगदान है। 
        विदित हो इससे पूर्व श्री गर्ग को पहला आचार्य श्री महाप्रज्ञ प्रतिभा पुरस्कार प्रदत्त किया गया जिसके अंतर्गत एक लाख रुपये की नगद राशि व प्रशस्ति पत्र दिया गया। इसके अलावा भी श्री गर्ग को अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए हैं। राजस्थान के प्रख्यात पत्रकार एवं स्वतंत्रता सेनानी स्व॰ श्री रामस्वरूप गर्ग के कनिष्ठ पुत्र श्री गर्ग वर्तमान में ‘समृद्ध सुखी परिवार’ मासिक पत्रिका के संपादक हैं एवं अनेक रचनात्मक एवं सृजनात्मक गतिविधियों के साथ जुड़कर समाजसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान प्रदत्त कर रहे हैं। 
 स्वर्गीय ‘शासनभक्त’ हुकुमचंद सेठिया, जलगाँव (महाराष्ट्र) की पुण्य स्मृति में प्रतिवर्ष दिये जाने वाले अणुव्रत लेखक पुरस्कार से अब तक स्व॰ श्री धरमचंद चोपड़ा, डॉ. निजामुद्दीन, श्री राजेन्द्र अवस्थी, श्री राजेन्द्र शंकर भट्ट, डॉ. मूलचंद सेठिया, डॉ. के. के. रत्तू, डॉ. छगनलाल शास्त्री, श्री विश्वनाथ सचदेव, डॉ. नरेन्द्र शर्मा कुसुम, डॉ. आनंद प्रकाश त्रिपाठी, श्रीमती सुषमा जैन एवं प्रो. उदयभानू हंस सम्मानित हो चुके हैं। श्री गर्ग को यह पुरस्कार शीघ्र ही समारोहपूर्वक प्रदत्त किया जायेगा। (समाचार सौजन्य : बरुण कुमार सिंह, ए-56/ए, प्रथम तल, लाजपत नगर-2, नई दिल्ली-11002 मो. 9968126797)