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शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 03-04,   नवम्बर-दिसम्बर  2014


।।हाइकु।।

सामग्री :  इस अंक में सुश्री विभा रश्मि, श्री तेजराम शर्मा एवं डॉ. अशोक गुलशन के हाइकु।



विभा रश्मि




पांच हाइकु
01.
आशाएँ लाएँ
करें खग किलोल
दिल खोल के।
02.
नई सोच को
डैनों से हवा देते
नभ में खग।
03.
चंचला मन
खग वृन्द बन के
उड़ा सुदूर।
छाया चित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल 

04.
मंत्र मुग्ध हो
ता थैय्या, ताधिन ता
नाच मयूर।
05.
कैद में तोता
चुपचाप रोता है
काटता सजा।

  • 201, पराग अपार्टमेन्ट, प्रियदर्शिनी नगर, बैदला, उदयपुर-313011,राज. / मोबाइल : 09414296536




तेजराम शर्मा



पांच हाइकु

01.
धरा फटी तो
आकाश रहा सोया
बादल रोया
02.
पगध्वनि है
सूने घर की ओर
यात्रा अछोर
03.
भारत भाल
क्यों रहता है लाल
रेखा चित्र :डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 

ओ! पाँच साल
04.
प्रकाश स्तम्भ
अन्दर है चट्टान
ओ! प्रेम यान
05.
कोठार ताला
हाथ में हल-मूठ
क्यों रहे ठूँठ?

  • श्रीराम कृष्ण भवन, अनाडेल, शिमला-171003, हि. प्र.



डॉ. अशोक गुलशन




दो हाइकु

01.
वही जीवन
सुख-दुख का योग
कैसा संयोग
02.
मौत सस्ती है
यह कहकर वो
वहीं खो गया 

  • चिकित्साधिकारी, कानूनगोपुरा (उत्तरी), बहराइच (उ.प्र.) / मोबाइल : 09450427017

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 03-04 :  नवम्बर-दिसम्बर  2014

।। जनक छंद ।। 

सामग्री :  इस अंक में डा. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ व प्रदीप पराग के जनक छंद। 


डा. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ 





पांच जनक छन्द

01.
नये वर्ष की कामना।
सबके अन्तर में बसे।
सबके प्रति सद्भावना।।
02.
जीवन नदिया सा बहे।
सुने ओर तट वेदना।
और छोर तट से कहे।।
03.
कर्म सुधा पल पल पियो।

उन्नत करके शीश निज।
अर्जुन होकर तुम जियो।।
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

04.
कण कण भू का स्वर्ण है।
सत्य प्रेम मसि से लिखित।
हृदय हृदय का पर्ण है।।
05.
रात बिताती कूप है।
पूस जमी प्रातः निकल।
ठंड तापती धूप है।।

  • बी-2-बी-34, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058 / मोबाइल : 09971773707




प्रदीप पराग





दो जनक छन्द

01.
कहने का आशय यही
काम भले का फल भला
कुछ इसमें संशय नहीं।
02.
खुश हो सबका ही हिया
कितना सुन्दर लग रहा
जलता माटी का दिया।

  • 1785, सेक्टर-16, फरीदाबाद-121002 (हरियाणा) / मोबाइल : 09891059213

बाल अविराम

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 03-04 ,  नवम्बर-दिसम्बर 2014


।।बाल अविराम।।

सामग्री  :  इस अंक में सुप्रसिद्ध कवि-कथाकार श्री के. एल. दीवान की बाल मन पर केन्द्रित एक बाल कहानी और कुछ कविताएं बाल चित्रकार अभय ऐरन  आरुषि ऐरन  के चित्रों के साथ।  



के.एल. दीवान








बाल कहानी 
पछतावा
राजू उस समय बिल्कुल अकेला बैठा था। उसने अपनी आँखें मूंद रखी थीं। एक गाल हथेली पर टिका रखा था। एक गहरी ठण्डी सांस वातावरण में समा गई। वह निचले होंठ को दांत से काटने लगा। उसके मन-मस्तिष्क में बचपन की एक घटना घूम रही थी। तब वह बारह-तेरह साल का रहा होगा। मां-बाप के लाड़-प्यार ने उसे बिगाड़ दिया था। जो मन में आता, वही करता। रामलीला के दिन थे। चारों ओर बच्चे तीर-कमान से खेलते नजर आते। उसने भी एक मजबूत कमान बनाई थी। एक तार के टुकड़ें को नुकीला बना, तीर बनाया था। घर से बाहर तीर कमान से
चित्र : अभय ऐरन 
खेल रहा था। तभी सामने से घर पर काम करने वाली शिब्बो आती दिखाई दी। होगी बीस-बाईस साल की लड़की। राजू ने तीर कमान पर चढ़ाया और शिब्बों के चेहरे पर निसाना लगाने लगा। शिब्बों ने रोकने की कोशिश की, मिन्नतें कीं। जब उसे लगा राजू नहीं मानेगा, उसने अपने चेहरे को अपने दोनों हाथों से ढक लिया। राजू ने पूरी शक्ति से तीर छोड़ा जो शिब्बों के हाथ में घुस गया। शिब्बो की चीख़ निकल गई। आँखों से आँसू बह रहे थे। हाथ से खून बह रहा था। राजू सहम गया। भीगी आँखों से शिब्बो ने राजू की ओर देखा और घर के अन्दर चली गई। उसने किसी से भी राजू की शिकायत नहीं की। उस घटना को बीसों वर्ष बीत गए हैं, मगर मिन्नतें करती शिब्बो अक्सर उसके ख्यालों में आ खड़ी होती है। उसकी आँखें नम हो उठती हैं।

कुछ बाल कविताएं

फूल जैसा
फूलों जैसा कोई ना दूजा जग में,
सुन्दरता बांटे ये खुश्बू बांटे जग में,
छोटा है पर पावन है जीवन फूलों का,
तुम मांगो फूलों सा पावन जीवन जग में।

प्यारे फूल
रंग बिरंगे प्यारे फूल बगिया की शान,
पेंटिंग : आरुषि ऐरन 
क्या हुआ जो मिला इनको चन्द दिन का जहान,
इनकी सुन्दरता खुश्बू का जग दीवाना,
कैसा जीवन हो निज का तू पहचान।

लाल गुलाब
नन्हें मुन्हें बच्चे लिखे लाल गुलाब हैं,
चाचा नेहरू के भारत के ये ख्वाब हैं,
जब हर भारतवासी सचमुच खुशहाल होगा,
उस दिन को लाने के लिए ये बेताब हैं।

  • ज्ञानोदय अकादमी, 8, निर्मला छावनी, हरिद्वार-249401 (उत्तराखण्ड) / मोबाइल : 09756258731

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष :04, अंक : 03-04 नवम्बर-दिसम्बर 2014 

।।संभावना।।


सामग्री : इस अंक में श्रद्धा पाण्डेय अपनी दो कविताओं के साथ। 


श्रद्धा पाण्डेय




डिजीटल कम्युनीकेशन में एम.टेक. श्रद्धा पाण्डेय पिछले एक वर्ष से अधिक समय से कविताएं लिख रही है। उनके व्यक्तित्व में जीवनानुभवों से जुड़ी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की अच्छी संभावना निहित है। यहां प्रस्तुत हैं श्रद्धा की दो कविताएं।

दो कविताएं

उस मुकाम पर

जिंदगी उस मुकाम पर है
जहाँ ना अब मंजिलों की दरकार है
ना ही इच्छाओं का अम्बार है
ना चलने का मन रहा बाकी
रेखा चित्र : अनुप्रिया 

ना ही किसी का इंतजार है
ना रैन बसेरा नीदों का
ना आँखांे को सपनों की दरकार है
ना अरमानों की डोली सजती
ना ही कहारों का इंतजार है
मेरे सपनों की उड़ान थम गई 
पंख ना अब फैलने को तैयार हैं
छूट गई है कमान मेरी 
अब ना निशाने पर निगाहंे यार है
मेरी नाव पर अब ना कोई सवार है
बढ़ रही दिशाहीन वो
शायद कहीं कुछ भिंदा आर-पार है
कहीं श्रंगार, कहीं सूनापन
कहीं धरती, कहीं आकाश
कुछ ध्ंास गया, कुछ फंस गया मुझमें 
जिंदगी उस मुकाम पर है
जंहा अब वो तन्हा है, बेजार है

ये कैसा इंसान है!

ये  कैसा युग है, ये कैसी चाल है
इंसान की खाल में 
घूमता जानवर खुलेआम है
रोटी के लिए भटकता था
आज/भूख बढ़ाये
पिंजरे बनाता
ये कैसा बना इंसान है! 

  • द्वारा डॉ. सुरेश चन्द्र पाण्डेय, प्र.वैज्ञा., विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड।

अविराम विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 4,  अंक : 03-04,  नवम्बर-दिसम्बर  2014 

।।विमर्श।।

सामग्री :  डॉ. उमेश महादोषी का आलेख ‘स्थापना चरण से आगे लघुकथा विमर्श’।



डॉ. उमेश महादोषी

{यह आलेख सुप्रसिद्ध लघुकथाकार श्री भगीरथ जी द्वारा संपादित व श्री मधुदीप जी द्वारा संयोजित लघुकथा संकलन श्रंखला ‘पड़ाव और पड़ताल’ के खण्ड-4 में बतौर अग्रलेख  शामिल है।}
स्थापना चरण से आगे लघुकथा विमर्श
      लघुकथा के पक्ष-विपक्ष में दो घटनाओं, जिनसे मैं स्वयं रू-ब-रू हुआ, को साझा करना चाहूंगा। पहली घटना एक रेल-यात्रा के दौरान घटी। मैं अपनी पत्नी के साथ बरेली से रुड़की जा रहा था। हमारे सामने वाली वर्थ पर एक युवा महिला अपने पति व बच्चों के साथ जम्मू के लिए यात्रा कर रही थी। मैं उषा अग्रवाल संपादित लघुकथा संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ पढ़ रहा था। मेरे द्वारा पढ़ने के दौरान एकाध रचना पर उस महिला की दृष्टि पड़ गई। उसने कुछ संकोच के साथ मुझसे अनुरोध किया, ‘‘अंकल, आप पढ़ लें तो यह किताब थोड़ी देर मुझे भी पढ़ने के लिए दीजिएगा।’’ मैंने यह कहते हुए कि मैं तो कभी भी पढ़ लूँगा, समय सीमित है अतः पहले आप पढ़ लें, संकलन उस महिला को दे दिया। मेरे अनुमान के अनुसार वह महिला कोई साहित्यकार नहीं थी। संकलन को करीब डेढ़ घंटे तक पढ़ने के बाद उसने मुझे लौटाते हुए कहा, ‘‘किताब बहुत अच्छी है। इसमें छपी छोटी-छोटी कहानियाँ बहुत अच्छी हैं।’’ इस बीच मैं अविराम साहित्यिकी का लघुकथा विशेषांक पढ़ता रहा, जिसे भी उस महिला पाठक ने मुझसे लेकर पढ़ा और उसमें शामिल लघुकथाओं को सराहा। दूसरी घटना- हमारी एक भाभीजी (हमारे एक घनिष्ठ मित्र की पत्नी) साहित्यकार न होते हुए भी साहित्य की संजीदा पाठक हैं (उनके परिवार में भी कोई साहित्यकार नहीं है)। उनकी रुचि को देखते हुए हम आरम्भ से ही अविराम/अविराम साहित्यिकी के हर अंक की प्रति उन्हें पढ़ने के लिए भेंट करते रहे हैं। आरम्भ के पाँच-सात अंक पढ़ने के बाद उन्होंने एक दिन मुझे कुछ शिकायती लहजे में कहा, ‘‘भाई साहब, आप इसमें कहानियाँ बहुत कम छापते हैं।’’ मैंने उत्तर में उनका ध्यान हर अंक में पर्याप्त संख्या में प्रकाशित होने वाली लघुकथाओं की ओर आकर्षित किया। वह बोलीं, ‘‘ये भी ठीक हैं पर मुझे तो बड़ी कहानियाँ ही अच्छी लगती हैं।’’ 
    इन दोनों घटनाओं के केन्द्र में लघुकथा है। दोनों घटनाएँ साहित्य के आम पाठकों से संबंधित हैं। लेकिन अपनी अलग-अलग रुचि के कारण एक लघुकथा को बहुत चाव के साथ पढ़ती है और प्रभावित होती है; जबकि दूसरी पाठक लघुकथा के ऊपर कहानी को तरजीह देती है। मैं समझता हूँ लघुकथा (और अन्य लघ्वाकारीय विधाओं) को लेकर चल रही अनेक बहसों और विवादों के अधिकतर जवाब इन और इस तरह की घटनाओं के विश्लेषण में मिल जायेंगे। विवादों और अनेक सतही बातों में उलझने के बजाय हमें मान लेना चाहिए कि साहित्य में स्थापित होने वाले परिवर्तन मनुष्य की रुचि और उसके अन्तःकरण की भाव-भूमि की रासायनिकी से संचालित और नियंत्रित होते हैं। इसमें समय की उपलब्धता-अनुपलब्धता और भागमभाग जैसी चीजों की बहुत अधिक भूमिका नहीं होती, जबकि यह लम्बी खिंची बहस में अहम् मुद्दा रहा है। दूसरी ओर लघुकथा के शिल्पगत ताने-बाने के इर्दगिर्द की चर्चाएं भी अब बेवजह-सी लगने लगी हैं। ये चीजें लघुकथा-सृजन की समीक्षा व समालोचना में कितनी ही उठायी जायें परन्तु लघुकथा की विधागत चर्चाओं व बहसों के केन्द्र में जब तक रहेंगी, लघुकथा को एक नई विधा के दायरे से बाहर नहीं आने देंगी। चूंकि पिछले पांच दशक में इस विधा के रूप-स्वरूप पर पर्याप्त मंथन हुआ है। बहुतायत में सृजन हुआ है। अनगिनत संकलन-संग्रह आए हैं। तकरीबन हर स्तर पर इसकी स्वीकार्यता ज्ञापित हुई है। जनमानस में भी इस विधा ने अपना समुचित स्थान बनाया है। यदि इतने सबके बावजूद इस विधा के बारे में धारणा कुछ ऐसी है कि यह अभी भी एक नई साहित्य विधा है तो यह निराशाजनक है। दूसरी ओर इस पर विधागत विमर्श पांच दशक पूर्व जहां से शुरू हुआ था, सामान्यतः वहीं पर खड़ा दिखाई देता है, विमर्श के वही मुद्दे, वही पुरानी बातें हैं, जिन्हें लगातार दोहराया जा रहा है। चूंकि इन पर आवश्यकतानुरूप पर्याप्त बातें हो चुकी हैं तो अब इनकी पुनरावृत्ति मन को गहराई तक कचोटती हैं। साहित्य में विधागत संधारणा पर क्या इससे आगे कोई गन्तव्य नहीं होता? क्या किसी विधा के अस्तित्व में आने के बाद उसके रूपाकार, शिल्प-संयोजन, ऐतिहासिकता, कुछ घिसे-पिटे वादों के सांचे में जड़े प्रश्नों और इनसे जुड़े विषयों को समाहित करने वाले स्थापना चरण से आगे विमर्श का कुछ अर्थ नहीं होता? विमर्श विधा का वाहक होता है। इसलिए विमर्श जहां जायेगा, विधा को भी वहाँ ले जायेगा। समीक्षा-समालोचना विधा का परिमार्जन कर सकती है, उसके लिए नई जमीन तोड़ने और भूमिका को चरणबद्ध अद्यतन रखने का काम शिल्पकारों के मध्य का विमर्श ही करता है। फिर विमर्श के नए क्षितिज क्यों नहीं? एक विधा के तौर पर उसकी आगे की भूमिका की तलाश क्यों नहीं? मुझे लगता है कि लघुकथा की स्थापना का चरण पूरी तरह संपन्न हो चुका है और अब उसे ‘‘नई विधा’’ की प्रशिक्षण कक्षा से बाहर लाना चाहिए। विमर्श के अनेक पहलू होते हैं और हर पहलू पर चर्चा का एक समय और विधान होता है। लघुकथा के रूप-स्वरूप व नुक्ताचीनियों के सन्दर्भ में बात अब अकादमिक समीक्षकों और समालोचकों के लिए छोड़ देना उचित होगा। लघुकथा के शिल्पकारों के लिए चर्चा के विषय अब लघुकथा की विधागत जिम्मेवारियों से जुड़े मुद्दे होने चाहिए, एक स्थापित और परिपक्व विधा के तौर पर लघुकथा क्या-क्या कर सकती है, उसको क्या करना चाहिए और उसने क्या किया है। इनके मध्य अन्तराल की पहचान-परख जरूरी है। इसी के माध्यम से लघुकथा को मानवीय जीवन के पक्ष में आगे बढ़ाया जा सकता है। साहित्य के उत्तरदायित्वों में मानव जीवन के विविधि पक्षों का प्रेक्षण, मूल्यांकन और संवर्द्धन सर्वाेपरि होता है। यह कार्य मानव जीवन में होने वाले परिवर्तनों और उनके प्रभावों के प्रतिबिम्बन व मूल्यांकनपरक विश्लेषण से संभव है। आने वाले समय की आहट को कल्पनाशीलता के समावेश के कारण साहित्य में ही सबसे प्रभावशाली ढंग से सुना जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज लघुकथा ही नहीं, समग्र साहित्य के समक्ष ही नई-नई जिम्मेवारियां सम्हालने की चुनौती है। समय तेजी से बदल रहा है। कई बदलाव जब तक हमें दिखाई देना आरम्भ होते हैं, वे करवाचौथ के चाँद की तरह बूढ़े हो चुके होते हैं। हम इन बदलावों की प्रक्रिया समझ ही नहीं पाते। ऐसे में सामान्यतः आ चुके बदलावों को स्थापित माइन्डसैट के चश्मे से ही देखते रहते हैं। उनके अन्तस तक पहुँचना प्रायः संभव नहीं होता। चेतना और संवेदनशीलता की सूक्ष्मता हमें अपने अन्दर विकसित करनी होगी, तमाम क्षेत्रों में। मानवीय संवेदना के साहित्य से जुड़े होने के रिश्ते से हमारी जिम्मेवारी कुछ अधिक है। लघुकथा सूक्ष्मता को ग्रहण करने और उसका फोकस बनाने में सक्षम है, इसलिए उसकी भूमिका सर्वाेपरि है। हमें इसी भूमिका पर चर्चा करनी है, विमर्श को केन्द्रित करना है। 
      एक ताजातरीन उदाहरण सामने है। नई पीढ़ी में हो रहे चारित्रिक बदलाव को सामान्यतः राजनैतिक लोग नजरअन्दाज करते रहते हैं, जबकि यही चारित्रिक बदलाव बड़ी उथल-पुथल का कारण बन जाता है। विशेषतः उत्तर भारत में इसे हमने अभी-अभी देखा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आन्दोलन एवं बलात्कार के खिलाफ निर्भया काण्ड के बाद का आन्दोलन, इन दोनों में सहभागिता के मामले में समाज की कई रूढ़ियाँ टूटीं। गरीब-अमीर, जाति-पाँति, एक सीमा तक (स्थानीय) क्षेत्रवाद आदि के दायरों को लाँघकर युवाओं का हुजूम सामने था। बरास्ता कार्पाेरेट कल्चर (इसका प्रभाव कॉन्वेंट, तकनीकी एवं व्यवसायिक शिक्षा से जुड़े संस्थानों में भी है और वहां से प्रसारित होती है) युवाओं में आया चारि़ित्रक बदलाव, जो तमाम संकुचित सामाजिक दायरों की उपेक्षा करके व सामाजिक भेदभाव की सीमाओं के ऊपर अपनी प्रगति को सर्वाेपरि मानने और इसी आधार पर बन रहे पारस्परिक आकर्षण से संचालित हो रहा है। हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनावों में इसका बड़ा सजीव दृश्य देखने को मिला। जहां छह-सात माह पूर्व कोई सोच भी नहीं सकता था कि उ.प्र. व बिहार जैसे धुर जातिवादी राजनीति के शिकंजे में फंसे इन क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी कभी पुनः खड़ी भी हो पायेगी, वहां नई पीढ़ी के चारित्रिक बदलाव का करिश्मा नरेन्द्र मोदी को महानायक बना गया। धुर जातिवादी राजनीति के पुरोधा इस बदलाव को समझने में नाकाम रहे, लेकिन नरेन्द्र मोदी ने न सिर्फ इसे जाना, बल्कि समझकर उसका विश्लेषण भी किया और उसका प्रवाह अपने पक्ष में मोड़ने में कामयाब रहे। इस उदाहरण को सामने रखने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना है कि यदि नई पीढ़ी में यह और इस तरह के चारित्रिक बदलाव आते हैं तो उन्हें साहित्य में प्रतिबिम्बित होना चाहिए, विशेषतः लघुकथा जैसी विधाओं में, ताकि कल्पनाशीलता की रोशनी में उनका परीक्षण करके भविष्य की पीढ़ियों के सन्दर्भ में मानवीय जीवन का समुचित प्रतिबिम्बन और विश्लेषण प्रस्तुत किया जा सके। इस तरह के चारित्रिक बदलाव कितने उचित हैं, कितने अनुचित, इनमें से किन्हें कैरी फॉरवर्ड होना चाहिए, किन्हें हतोत्साहित करने की जरूरत है, इसका विश्लेषण साहित्य में बेहतर ढंग से हो सकता है। साहित्य ही इसके लिए सही मंच है। लघुकथा और उससे जुड़े लोगों को इसे समझना होगा।
     दूसरी बात, आन्दोलनात्मक चरित्र के पीछे सदैव आदर्श ही नहीं होते हैं। जीवन शैली से जनित कई तरह की सुविधाभोगी चीजें भी होती हैं। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि अन्ना आन्दोलन व निर्भया काण्ड के बाद के शक्तिशाली दोनों आन्दोलनों में सहभागिता के स्तर पर कई तरह के विरोधाभास भी थे और कई सुविधाभोगी तत्व भी। ऐसी चीजों का सही विश्लेषण व मूल्यांकन न तो आन्दोलन के माहौल में संभव है न ही सामाजिक-राजनैतिक चर्चाओं में। इन दोनों ही मंचों पर कई तरह के दबाव होते हैं, जो सही तस्वीर को उभरने नहीं देते। इसके विपरीत साहित्य में ऐसी चर्चाओं के लिए जोखिम उठाने की क्षमता होती है।
     यहाँ यह भी समझना जरूरी है कि एक समय की युवा पीढ़ी ही आने वाले समय की वरिष्ठ पीढ़ी होती है। इसलिए प्रत्येक कालखंड में सिर्फ नई पीढ़ी का चरित्र ही नहीं बदलता है, वरिष्ठ पीढ़ी का चरित्र भी बदलता है। और यह बदलाव पाँच-दस वर्षों के अन्तराल के साथ भी हो सकता है। एक समय पर नई पीढ़ी के जो मूल्य होते हैं, कुछ वर्षों बाद जब वही पीढ़ी वरिष्ठ पीढ़ी बनती है, तो अपने समय के मूल्यों, अपने चरित्र को साथ लेकर आती है। बेशक कुछ अनुभवजन्य रूपांतरण हो सकते हैं, पर मूल चारित्रिक कवच से निकलना मुश्किल होता है। ऐसे में हर समय बिन्दु पर समाज का बदला हुआ चरित्र और पीढ़ी अंतराल के नए रूप सामने आते हैं और हमारी तमाम व्यवस्थाओं को प्रभावित करते हैं। 
    ये और ऐसे ही अनेक बिन्दु हैं जिन पर लघुकथा सृजन और विमर्श दोनों को फोकस किया जा सकता है। लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है? जीवन मूल्यों एवं नई पीढ़ी के चारित्रिक रूपांतरण को उसके यथार्थ के साथ गहन एवं समग्र रूप में लघुकथा में उतना नहीं प्रतिबिम्बित किया जा सका है, जितने की अपेक्षा है। जो प्रतिबिम्ब देखने को मिलते भी हैं, वे या तो बेहद सतही हैं या नकारात्मक हैं। इन रूपान्तरणों का तर्कसंगत विश्लेषण का पक्ष तो न के बराबर ही देखने को मिलता है। नई पीढ़ी के हर व्यवहार को हम पुराने मूल्यों के आधार पर नकारात्मक ही मानते रहें, यह किसी भी तरह से उचित नहीं है। उसके व्यवहार को हमें उसकी परिस्थितियों और परिस्थितिजन्य आवश्यकताओं के साथ रखकर देखना होगा। साहित्यकार और उसका कर्म बेहद संवेदनापूर्ण होता है, उससे सतर्कता और न्यायसंगत चिन्तन की अपेक्षा की जाती है। उसकी दृष्टि समग्र को देखने में सक्षम होनी चाहिए, उसमें सूक्ष्मता के साथ विस्तार होना चाहिए, सीमित व्यक्तिपरकता नहीं। सृजन में गहराई भी इसी से आयेगी और हम अपने समय के साथ सही मायनों में इसी तरह जुड़ पायेगे। आज यदि लघुकथा अपने समय के साथ उतना नहीं जुड़ पा रही है जितना कि कहानी, जैसा कि वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. सतीश दुबे जी मानते हैं, तो इसके पीछे के कारण इसी तरह के हैं। समय को पढ़ना, उसकी गति की सूक्ष्मता और परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने जैसा होता है। सामान्यतः समय कारण और परिणाम के वैज्ञानिक रिश्ते से संचालित होता है, इसी में उसकी गति की सूक्ष्मता और परिवर्तन की प्रक्रिया निहित होती है। एक पहिया, जो घूमता तो तेजी से है लेकिन उसके घूमने में कुछ भी अकारण नहीं होता, न ही कुछ छूटता है, जिसे घूमने की घटना में शामिल होना चाहिए। यही उसकी सूक्ष्मता है। लघुकथा को अपने रास्ते पर इसी तरह समय का अनुसरण करना होगा। यह अनुसरण उसके विकास का दूसरा चरण होगा, जो उसे मानवीय जीवन के अद्यतन परिवर्तनों और रूपान्तरणों को प्रतिबिंबित करने को प्रेरित करेगा, साथ ही उनके विश्लेषण और संवर्द्धन के लिए भी।
  • 121, इन्द्रापुरम्, निकट बीडीए कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली, उ.प्र. / मोबाइल : 09458929004

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 03-04,  नवम्बर-दिसम्बर  2014 

{आवश्यक नोट-  कृपया संमाचार/गतिविधियों की रिपोर्ट कृति देव 010 या यूनीकोड फोन्ट में टाइप करके वर्ड या पेजमेकर फाइल में या फिर मेल बाक्स में पेस्ट करके ही भेजें; स्केन करके नहीं। केवल फोटो ही स्केन करके भेजें। स्केन रूप में टेक्स्ट सामग्री/समाचार/ रिपोर्ट को स्वीकार करना संभव नहीं है। ऐसी सामग्री को हमारे स्तर पर टाइप करने की व्यवस्था संभव नहीं है। फोटो भेजने से पूर्व उन्हें इस तरह संपादित कर लें कि उनका लोड 02 एम.बी. से अधिक न रहे।}  




शताब्दी पुरस्कार घोषित
 श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति द्वारा वर्ष 2013-14 का एक लाख रुपये का शताब्दी राष्ट्रीय पुरस्कार कवि, उपन्यासकार, नाटककार, रंगकर्मी डॉ.प्रभात कुमार भट्टाचार्य को तथा रुपये पचास हजार का प्रादेशिक पुरस्कार ख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी को उनके दीर्घ साहित्यिक अवदान के लिए दिया जाएगा। डॉ. गिरिराज किशोर, डॉ. धनंजय वर्मा और डॉ. कमलकिशोर गोयनका की चयन समिति ने सर्वसम्मति से इन पुरस्कारों की घोषणा की है। परस्कृत साहित्यकारों को एक समारोह में सम्मान प्रदान किए जायेंगे। (समाचार प्रस्तुति :  श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर) 



संस्कृति कर्म को प्रोत्साहित करना ना भूले मीडिया : जवाहर कर्नाटक 
राष्ट्रीय परिसंवाद एवं सम्मान समारोह में विद्वानो ने जताई चिंता

उज्जैन। बदलते दौर और व्यावसायिकता का गहरा प्रभाव पत्रकारिता पर दिखाई दे रहा हैं। ऐसे में भारतीय मीडिया जगत संस्कृति कर्म को प्रोत्साहित करना भूलने लगा है, जबकि विदेशो में हमारी संस्कृति के आर्वहृर्षण को जिंदा रखा जा रहा है। यहां के मीडिया को चाहिये कि भाषा और संस्कृति को लेकर सजगता लाये और लिपि को बचाने में भी अपना योगदान दें। 
यह सीख वरिष्ठ मीडिया विशेषज्ञ एवं बैंक ऑफ बडौदा मुंबई के उप महाप्रबंधक डॉ.जवाहर कर्नाटक ने दी। वे रविवार को कालिदास अकादमी के अभिरंग नाट्यगृह में आयोजित राष्ट्रीय परिसंवाद एंव सम्मान समारोह में बोल रहे थे। संस्था कृष्णा बसंती और झलक निगम सांस्कृतिक न्यास के इस आयोजन में दैनिक भास्कर के एमपी-2 हेड नरेन्द्र सिंह अकेला ने भी पत्रकारिता के क्षेत्र में आ रहे बदलाव पर अपने विचार रखा, कहा कि बीते दौर में सीमित संसाधनों में पत्रकारिता का बेहतर निर्वहन होता था। आज संसाधन और सुविधाएं बढी तो पत्रकारिता के ज्ञान का अभाव दिखाई देता है। इस क्षेत्र के लोगों में समर्पण और लगन के साथ ही अपने दायित्वों की जिम्मेदारी का अभाव झलकता है। समारोह की अध्यक्षता कर रहें विक्रम विवि के कुलानुशासक डॉ.शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने संस्कृति और समाज को गति देने में पत्रकारिता को आगे आने की बात की। डॉ.लक्ष्मीनारायण पयोधि ने आंचलिक पत्रकारिता के लिए क्षेत्रीय समाज और संस्कृति की पृष्ठभूमि का ज्ञान जरुरी होने पर जोर दिया। वरिष्ठ पत्रकार एवं कला समीक्षक विनय उपाध्याय ने संस्कृति कर्म को लेकर मीडिया में उपेक्षा का का जिक्र करते हुए इसे अनुचित करार दिया और कला और जीवन के अटूट रिश्ते को समझने की बात कही। डॉ. भगवती लाल राजपुरोहित ने स्वर्गीय झलक निगम के मालवी साहित्य एवं सस्कृति के क्षेत्र में उनके अवदान पर प्रकाश डाला। वरिष्ठ अधिवक्ता सुभाष गौड ने भी स्वर्गीय निगम के मालवी के संवर्धन के लिए व्यापक प्रयत्न का उल्लेख किया। कार्यक्रम के शुभारंभ में लेखिका सुशीला निर्माेही के पांचवें काव्य संग्रह ‘कलरव’ तथा अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका अक्षर वार्ता का लोकापर्ण अतिथियों द्वारा किया गया। इसके अलावा प्रसन्नता शिंदे के अग्रेजी उपन्यास डिस्क्रीमिनेशन अगेंस्ट मेन ‘ए ट्रू लव टेल’ के कवर पेज का विमोचन किया। ‘कलरव’ की समीक्षा व्यंगकार डॉ.पिलकेन्द्र अरोरा ने की। अतिथि परिचय डॉ.जगदीशचंद्र शर्मा ने दिया। संस्था कृष्णा बसंती की गतिविधियों एवं उद्देश्यों की जानकारी संस्था अध्यक्ष डॉ.मोहन बैरागी ने दी, वहीं झलक निगम सांस्कृतिक न्यास की जेड श्वेतिमा निगम ने भी संस्था की जानकारी दी। इसी बीच संस्था कृष्णा बसंती द्वारा साहित्य, पत्रकारिता, लेखन एवं कला आदि क्षेत्र में योगदान देने वालों को सम्मानित किया गया। अतिथि स्वागत श्वेतिमा निगम, रुचिर प्रकाश निगम, डॉ. मोहन बैरागी, निशा बैरागी, भावना निगम, डॉ.ओ.पी.वैष्णव, सुरेश बैरागी, कृष्णदास बैरागी आदि ने किया। सरस्वती वंदना मालवी कवि मोहन सोनी ने की। परिसंवाद का संचालन श्री जीवनप्रकाश आर्य ने किया। वृहद काव्य गोष्ठी का संचालन कृष्णदास बैरागी द्वारा किया गया, जबकि पुस्तक विमोचन का संचालन कार्यक्रम का संचालन राजेश चौहान राज ने किया। आभार कृष्णा बसंती के डॉ.ओ.पी.वैष्णव ने माना।
     इस अवसर पर साहित्य के क्षेत्र में वरिष्ठ कवि मोहन सोनी, व्यंग्यकार पिलकेन्द्र अरोरा, शायर रमेशचंद्र ‘सोज’, कवि अरविंद त्रिवेदी ‘सनन’, गीतकार वैहृलाश ‘तरल’, लघुकथाकार संतोष सुपेकर, रचनाकार संदीप सृजन, व्यंग्यकार राजेन्द्र देवधरे, गीतकार राजेश चौहान ‘राज’, पक्षी वैज्ञानिक डॉ.जे. पी. एन. पाठक, चित्रकार अक्षय आमेरिया, पत्रकार राजीव सिंह भदौरिया (दैनिक भास्कर), रवि चंद्रवंशी (पत्रिका), निरुक्त भार्गव (प्रहृीप्रेस) और सुधीर नागर (नई दुनिया) के अलावा इलेक्ट्रानिक मीडिया से फोटो जर्नलिस्ट प्रकाश प्रजापत (नईदुनिया) तथा सुनील मगरिया (हिंदुस्तान टाईम्स) को सम्मानित भी किया गया। (समाचार प्रस्तुति :  डॉ.मोहन बैरागी, अध्यक्ष, संस्था कृष्णा बसंती)





150 वीं जयंती पर 
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का भावपूर्ण स्मरण

हिंदी भाषा और साहित्य के विकास एवं परिष्कार में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान अविस्मरणीय है। उनके युग में हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि तो हुई ही, साहित्यालोचना के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य हुए। उक्त विचार महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने युग प्रवर्तक आलोचक एवं सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की 150वीं जयंती के अवसर पर पिछले दिनांें (28 व 29 अगस्त, 2014) कुमाऊँ विश्वविद्यालय की रामगढ़ (नैनीताल) स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ में आयोजित ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण के सवाल’ विषयक दो-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए बतौर मुख्य अतिथि व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि द्विवेदी जी हिंदी के प्रथम लोकवादी आचार्य हैं। वे परम्परा की शक्ति और सीमा समझकर उसके विकास में योगदान को महत्व देते हैं।  
     संगोष्ठी के मुख्य वक्ता सुप्रसिद्ध आलोचक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो.गोपेश्वर सिंह ने कहा कि हिंदी आलोचना का आरंभ नवजागरण की चेतना-दृष्टि से हुआ। शुद्धता द्विवेदी जी का आदर्श था और मर्यादाबद्ध नैतिकता, साहित्य का मानदंड। द्विवेदी युग एक कालखंड का व्यक्तिवादी नाम बनकर नहीं उभरता है। वह एक युग के जीवन मूल्यों और साहित्यिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता जान पड़ता है। वे आलंकारिकता के विरुद्ध सहजता का समर्थन करते हैं। उन्होंने समसामयिक मूल्यों के स्वीकरण के साथ साहित्य-बोध का नया समीक्षा शास्त्र रचने का प्रयास किया।
     हिंदी अकादमी, दिल्ली के सचिव डॉ. हरिसुमन बिष्ट ने कहा कि आलोचना की नवीन व्यावहारिक पद्धति का विकास द्विवेदी युग में ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से हुआ। उनके नेतृत्व में यह पत्रिका उस वक्त के साहित्य का मानक-निर्धारक संस्थान बन गई थी। द्विवेदी जी नवीनता के पोषक थे और नयी परिस्थितियों में साहित्य साधना को नए दायित्वों से जोड़ना चाहते थे। उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से इस कार्य को सम्पन्न किया तथा हिंदी भाषा, साहित्य और आलोचना को नयी दिशा प्रदान की। एक पत्रिका और एक व्यक्ति ने पूरे युग को किस प्रकार और कितना नियंत्रित किया, इसका उदाहरण द्विवेदी युग के अतिरिक्त दूसरा नहीं है।
     साहित्य अकादमी के उपसचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने कहा कि जीवन मूल्यों एवं प्रतिमानों को लेकर शुरु हुए नवजागरण की सशक्त अभिव्यक्ति आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा चलाए गए रीतिवाद विरोधी अभियान से हुई। इस अभियान ने हिंदी की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समीक्षा की दिशा और दृष्टि का एक स्वरुप बिंब निर्मित किया।
     संगोष्ठी को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की साहित्य विद्यापीठ के अधिष्ठाता प्रो. सूरज पालीवाल ने कहा कि द्विवेदी युग में हिंदी आलोचना विभिन्न पद्धतियों को विकसित करती हुई उत्तरोत्तर शक्ति सम्पन्न हुई। इसी युग में पाश्चात्य साहित्य से परिचित होकर उसका स्वस्थ प्रभाव ग्रहण कर हिंदी आलोचना ने स्वतंत्र व्यंिक्तत्व प्राप्त किया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. मुश्ताक अली ने कहा कि द्विवेदी जी अपने देशकाल के अनुसार साहित्य को देखते-परखते और कविता को साधारण लोगों के बीच प्रिय होते देखना चाहते थे। वे यथार्थ को काव्य के लिए आवश्यक मानते हैं। यथार्थ से
उनका तात्पर्य काव्य द्वारा अनुभूत सत्य से है। 
     समालोचक डॉ. साधना अग्रवाल ने कहा कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी साहित्यकार, भाषा विशेषज्ञ, आलोचक, मनोवैज्ञानिक के साथ एक समाज वैज्ञानिक थे। उन्होंने हिंदी साहित्य में आलोचना को नई दिशा प्रदान की। कुमाऊँ विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. शेर सिंह बिष्ट ने कहा कि आचार्य द्विवेदी हिंदी योद्धा थे। उन्होंने अपने समय के प्रश्नों को अपनी लेखनी के माध्यम से जनता के समक्ष न केवल प्रस्तुत किया अपितु उनका उत्तर भी सुझाया। वे अपनी लेखनी में हमेशा सटीक भाषा का प्रयोग करते थे। 
     संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि कुमाऊँ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति एवं सुपरटेक यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रो. वी.पी.एस. अरोरा ने महादेवी वर्मा सृजन पीठ और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की 150वीं जयंती के बहाने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में उनके योगदान के स्मरण की इस संयुक्त पहल की सराहना की तथा उम्मीद जताई कि भविष्य में भी दोनों विश्वविद्यालय एमओयू के तहत परस्पर शैक्षिक व साहित्यिक कार्यक्रमों का आदान-प्रदान करेंगे।
    संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एच.एस. धामी ने कहा कि महादेवी वर्मा सृजन पीठ ने साहित्य से जुडे़ ज्वलंत विषयों पर समय-समय पर महत्वपूर्ण वैचारिक कार्यक्रम आयोजित कर देशभर में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। पीठ के स्थायित्व एवं विकास के लिए विश्वविद्यालय निरंतर प्रयासरत है तथा पीठ से संबंधित अनेक प्रस्ताव और योजनाएं शासन में विचाराधीन हैं। 
     संगोष्ठी के पहले दिन ‘सरस्वती की भूमिका’ तथा ‘सम्पत्ति शास्त्र और भारतीय समाज’ सत्रों में डॉ. रामानुज अस्थाना, डॉ. अख्तर आलम, डॉ. अधीर कुमार, डॉ. बीरपाल सिंह यादव, डॉ. शंभू दत्त पाण्डे ‘शैलेय’, डॉ. प्रभा पंत, डॉ. तेजपाल सिंह, डॉ. माया गोला, डॉ. रीता तिवारी, नीलम पाण्डे, उर्वशी, खेमकरण सोमन, अमृत कुमार, ललित चंद्र जोशी, प्रदीप त्रिपाठी, दया कृष्ण भट्ट आदि ने अपने शोध-पत्र प्रस्तुत किए। इससे पूर्व गणमान्य अतिथियों द्वारा दीप प्रज्वलन तथा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के चित्र पर माल्यार्पण से संगोष्ठी का शुभारंभ हुआ। स्वागत संबोधन में महादेवी वर्मा सृजन पीठ के निदेशक प्रो. देव सिंह पोखरिया ने
पीठ के कार्यक्रमों व भावी योजनाओं की जानकारी दी। इस अवसर पर त्रिभुवन गिरि के कुमाउनी उपन्यास ‘कल्याण’ का विमोचन विशिष्ट अतिथियों ने किया।
     संगोष्ठी के दूसरे दिन ‘रीतिवाद का विरोध और हिंदी आलोचना का विकास’ तथा ‘खड़ी बोली हिंदी की एकरुपता का प्रश्न’ सत्रों में डॉ. राजेश लेहकपुरे, डॉ. शशांक शुक्ला, डॉ. अशोकनाथ त्रिपाठी, डॉ. ममता पंत, डॉ. गिरीश चंद्र पंत, डॉ. ललित मोहन जोशी, मदन मोहन पाण्डेय, संजय, यशपाल रावत, प्रकाश चंद्र, राजेश प्रसाद, चंद्रकांत तिवारी, पवनेश ठकुराठी, सुनीता भण्डारी, बंदना चन्द, सोनिका रानी तथा भावना मासीवाल ने अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए। इस अवसर पर प्रो. दिवा भट्ट, प्रो. चन्द्रकला रावत, प्रो. निर्मला ढैला बोरा, डॉ. गीता खोलिया, डॉ. शीला रजवार, डॉ. ए.के. नवीन, डॉ. ललित जलाल, डॉ. दीपा शर्मा, डॉ. हयात सिंह रावत, डॉ. महेन्द्र सिंह महरा, डी.एस. बोनाल, मनोहर सिंह वृजवाल, लक्ष्मी खन्ना ‘सुमन’, अनिल कार्की, नवीन बिष्ट, श्याम सिंह कुटौला, नीरज पंत, तफज्जुल खान, गितेश त्रिपाठी, विक्रम सिंह, कृष्णा सिंह, पुष्पा गैड़ा, गौरव त्रिपाठी, संजय पंत, सुरेश चंद्र आर्य, उमा जोशी आदि उपस्थित थे। संचालन पीठ के शोध अधिकारी मोहन सिंह रावत ने किया तथा धन्यवाद महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की अकादमिक संयोजक डॉ. शोभा पालीवाल ने व्यक्त किया। (समाचार प्रस्तुति : मोहन सिंह रावत, मल्ला कृष्णापुर, तल्लीताल, नैनीताल-263 002, उत्तराखण्ड)




देवपुत्र कार्यालय में लघुकथा विमर्श


बच्चों की कल्पना शीलता को सृजन के नये आयाम देने हेतु प्रतिबद्ध सुप्रसिद्ध बाल मासिक देवपुत्र द्वारा पत्रिका के संवाद नगर स्थित कार्यालय में लघुकथा विमर्श की अभिनव संगोष्ठी आयोजित की गयी। देवपुत्र के प्रधान संपादक की विशेष उपस्थिति में प्रदेश के चर्चित लघुकथा लेखकों सर्व श्री सुरेश शर्मा, जवाहर चौधरी, वेद हिमांशु, ज्योति जैन, गोपाल महेश्वरी, नन्दलाल भारती, अल्का करवड़े, प्रतिभा सक्सेना, मनोज सेवलकर आदि ने अपनी ताजातरीन लघुकथाओं का पाठ किया। पठित लघुकथाओं पर कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे जाने माने साहित्यकार श्री सूर्यकान्त नागर ने व्यापक प्रतिक्रिया वक्तव्य प्रस्तुत किया। विमर्श संगोष्ठी का संचालन देवपुत्र के कार्यकारी संपादक श्री विकास दवे ने एवं आभार प्रदर्शन श्री गोपाल महेश्वरी ने किया।   (समाचार प्रस्तुति : वेद हिमांशु )




 श्री जयकृष्ण राय ‘तुषार’ को ‘देवराज वर्मा उत्कृष्ट साहित्य सृजन सम्मान-2014’ 


मुरादाबाद - साहित्यिक संस्था ‘अक्षरा’ के तत्वावधान में कंपनी बाग़, मुरादाबाद स्थित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भवन के सभागार में कीर्तिशेष श्री देवराज वर्मा की नौवीं पुण्यतिथि पर दिनांकः 07 दिसम्बर, 2014 को सम्मान-समारोह का आयोजन किया गया जिसमें इलाहाबाद के वरिष्ठ नवगीतकार श्री जयकृष्ण राय ‘तुषार’ को उनकी सद्यः प्रकाशित नवगीत-कृति ‘सदी को सुन रहा हूँ मैं’ के लिए अंगवस्त्र, मानपत्र, प्रतीक चिन्ह, श्रीफल नारियल सहित सम्मान राशि भेंटकर ‘देवराज वर्मा उत्कृष्ट साहित्य सृजन सम्मान-2014’ से सम्मानित किया गया।
      कार्यक्रम का शुभारम्भ माँ शारदा के चित्र पर माल्यार्पण तथा दीप प्रज्वलन एवं स्व. श्री देवराज वर्मा के चित्र पर पुष्पांजली से हुआ । सर्वप्रथम वरिष्ठ कवियित्री डा. प्रेमवती उपाध्याय द्वारा सरस्वती वंदना प्रस्तुत की गई। तत्पश्चात संस्था के संयोजक योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ ने बताया कि-‘साहित्यिक चेतना के धनी स्व. श्री देवराज वर्मा की पुण्यस्मृति में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाने वाला यह आयोजन राष्ट्रभर साहित्य-सृजकों की मेधा को समर्पित है, संस्था अब तक प्रख्यात शायरा डा. मीना नक़वी (मुरादाबाद), वरिष्ठ गीतकार श्री राम अधीर (भोपाल), डा. ओमप्रकाश सिंह (रायबरेली), डा. बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून), श्री श्यामनारायण श्रीवास्तव ‘श्याम’ (लखनऊ), श्री देवेन्द्र ‘सफ़ल’ (कानपुर), युवाकवि श्री राकेश ‘मधुर’ (झज्जर-हरियाणा), वरिष्ठ शायर श्री ज़मीर ‘दरवेश’ (मुरादाबाद) को सम्मानित कर गौरवान्वित है। इस वर्ष नवगीत-कृति ‘सदी को सुन रहा हूँ मैं’ के कवि श्री जयकृष्ण राय ‘तुषार’ (इलाहाबाद) को उनकी उत्कृष्ट रचनाधर्मिता को सम्मानित करते हुए संस्था गर्व की अनुभूति कर रही है।’ 
इस अवसर पर कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विख्यात नवगीतकार डॉ. माहेश्वर तिवारी ने कहा कि ‘श्री तुषार के नवगीतों में जहाँ तेज़ी से बदलते परिवेश और वर्तमान समय में सामाजिक विद्रूपताओं, छीजते सामाजिक मूल्यों एवं शह्री जीवन की खटास के प्रति चिन्ता झलकती है वहीं बिम्ब विधान व शिल्प प्रभावशाली ढंग से समाविष्ट है।’ मुख्य अतिथि प्रसिद्ध साहित्यकार श्री राजीव सक्सेना ने कहा कि ‘गीत काव्य का वह स्वरूप है जिसमें जीवन-जगत की रागात्मकता की सुगंध भी है और संस्कारों का उजलापन भी। तुषारजी के गीतों-नवगीतों में कथ्य की ताज़गी और शिल्प का पैनापन उनकी रचनात्मक क्षमता व कौशल को प्रतिबिम्बित करता है।’ विशिष्ट अतिथि मशहूर शायर श्री मंसूर उस्मानी ने कहा कि ‘सम्मान प्रदान किए जाने की रवायत सदियों से चल रही है, आज जबकि अनेक सरकारी व ग़ैरसरकारी सम्मानों के चयन पर उंगलियाँ उठने लगी हैं, ऐसे में अपनी पारदर्शी चयन-प्रक्रिया के कारण एक छोटे-से शह्र का यह छोटा-सा सम्मान बहुत बड़ा बन जाता है, तुषारजी को इस बड़े सम्मान के लिए मुबारक़बाद।’ सुप्रसिद्ध साहित्यकार डा. अजय ‘अनुपम’ का आलेख वाचन करते हुए कवि श्री अम्बरीश गर्ग ने कहा कि ‘तुषारजी के जनपक्षधर नवगीत आज की लहूलुहान मानवीय संवेदनाओं के विरुद्ध युद्धघोष हैं, रूपवादी प्रयोगधर्मिता की गिरफ़्त में फँसे हुए नहीं हैं।’ गीतकार श्री आनंद कुमार ‘गौरव’ ने कहा कि ‘तुषारजी के नवगीतों में अपने समय का युगबोध, संस्कार, संस्कृति, शृंगार, राष्ट्रभक्ति प्रत्येक आयाम के अलग-अलग फ़लक हैं।’ कार्यक्रम में सम्मान के पश्चात श्री जयकृष्ण राय ‘तुषार’ के एकल काव्य-पाठ का भी आयोजन किया गया। 
       इसके साथ-साथ कार्यक्रम में स्थानीय साहित्यकारों सर्वश्री ब्रजभूषण सिंह गौतम ‘अनुराग’, अशोक विश्नोई, जिया ज़मीर, अतुल कुमार जौहरी, शिशुपाल ‘मधुकर’, श्रीमति बालसुन्दरी तिवारी, शिवअवतार ‘सरस’, राजीव ‘प्रखर’, रामसिंह ‘निशंक’, विवेक कुमार ‘निर्मल’, अम्बरीश गर्ग, डा.मीना नक़वी, डा. प्रेमवती उपाध्याय, डा. पूनम बंसल, राजेश भारद्वाज, डॉ. महेश ‘दिवाकर’, यू.पी.सक्सेना ‘अस्त’, रामदत्त द्विवेदी, रघुराज सिंह ‘निश्चल’, ओमकार सिंह ‘ओंकार’, विकास मुरादाबादी, फक्कड़ मुरादाबादी, अंजना वर्मा, डा. राकेश ‘चक्र’, अनवर क़ैफ़ी, श्रेष्ठ वर्मा, डा. मनोज रस्तौगी, प्रतिष्ठा वर्मा, दीक्षा वर्मा, सुप्रीत गोपाल, के.पी.सिंह ‘सरल’, शैलेष त्यागी, पवन कुमार, शिवांश वर्मा, प्रशांत सिंह, पंकज वर्मा आदि उपस्थित रहे । कार्यक्रम का सफल संचालन वरिष्ठ शायर डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’ ने किया तथा आभार अभिव्यक्ति संस्था के संयोजक योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ ने प्रस्तुत की ।  (समाचार प्रस्तुति : योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’, संयोजक : साहित्यिक संस्था - ‘अक्षरा’,  मुरादाबाद, उ.प्र.)





पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने कृष्ण कुमार यादव को किया सम्मानित

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल श्री केशरी नाथ त्रिपाठी ने साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएं श्री कृष्ण कुमार यादव को सम्मानित किया। उक्त सम्मान श्री यादव को मिर्जापुर में आयोजित एक कार्यक्रम में 5 अक्टूबर, 2014 को प्रदान किया गया। राज्यपाल ने शाल ओढाकर और सम्मान पत्र देकर श्री यादव को सम्मानित किया। गौरतलब है कि सरकारी सेवा में उच्च पदस्थ अधिकारी होने के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में भी चर्चित श्री यादव की अब तक कुल 7 पुस्तकें ष्अभिलाषाष् (काव्य-संग्रह, 2005) ष्अभिव्यक्तियों के बहानेष् व ष्अनुभूतियाँ और विमर्शष् (निबंध-संग्रह, 2006 व 2007), ष्प्दकपं च्वेज रू 150 ळसवतपवने ल्मंतेष् (2006), ष्क्रांति-यज्ञ रू 1857-1947 की गाथाष् (संपादित, 2007),’जंगल में क्रिकेट’ (बाल-गीत संग्रह-2012) एवं ’16 आने 16 लोग’ (निबंध-संग्रह, 2014) प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर: कृष्ण कुमार यादव‘‘ (सं. डॉ. दुर्गाचरण मिश्र) भी प्रकाशित हो चुकी है। श्री यादव देश-विदेश से प्रकाशित
तमाम रिसर्च जनरल, पत्र पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर भी प्रमुखता से प्रकाशित होते रहते हैं। श्री कृष्ण कुमार यादव को इससे पूर्व भी शताधिकसम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त हो चुकी हैं।   
    इस अवसर पर न्यायमूर्ति गिरिधर मालवीय, पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर  के कुलपति प्रो. पीयूष रंजन अग्रवाल, इग्नू के प्रो चांसलर प्रो. नागेश्वर राव, बनारस हिन्दू विश्विद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. पंजाब सिंह, भोजपुरी फिल्म अभिनेता कुणाल सिंह, पूर्व शिक्षा मंत्री सुरजीत सिंह डंग सहित तमाम साहित्यकार, शिक्षाविद, संस्कृतिकर्मी व अधिकारीगण मौजूद रहे। (समाचार प्रस्तुति : कृष्ण कुमार यादव) 




डॉ. अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’ व डॉ. हरीलाल ‘मिलन’ सम्मानित

महात्मा फूले टैलेन्ट अकादमी, नागपुर के उपाधि सम्मान समारोह में कानपुर के साहित्यकारद्वय डॉ. अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’ व डॉ0 हरीलाल ‘मिलन’ को उनकी सामाजिक, साहित्यिक, भाषा सेवा आदि हेतु ‘साहिर लुधियानवी नेशनल अवार्ड’ प्रदान किया गया है। श्रीमती राधिका ताई कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के भव्य समारोह में विगत 07 सितंबर को देश भर से आये विद्वतजनों के मध्य यह समारोह सम्पन्न हुआ। समारोह में नागपुर उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश श्री किशोर राही, संस्था के प्रमुख चन्द्रभान भोयर, सांसद सुखलाल कुशवाहा, डॉ. देवी नागरानी, सुनील सरदार, पी.एस. चरपे, डॉ. भगीरथ कौशिक, ए.एस.वधान, सुधाकर गायधनी आदि मंचासीन अतिथि थे। (समाचार प्रस्तुति :  सतीश गुप्ता, संपा. अनन्तिम, कानपुर)




‘मोर पंख’ पर समीक्षा संगोष्ठी आयोजित




वक़्त की आँखों मे आँखें डाल आज का लघुकथा लेखक रचनात्मक स्टार पर बेहद सक्रिय है और चौकन्ना भी। जहरीली हवा के विरुद्ध उसकी लेखनी चोर दरवाजे से कोई समझौता नहीं करती और सफेद कोश मुखौटों को नोचकर समाज के सामने बेनकाब कर देती है। ये विचार हैं वरिष्ठ लघुकथा लेखक श्री वेद हिमांशु के जो उन्होने रंजन कलश संस्था द्वारा प्रकाशित लघुकथा संग्रह मोर पंख की समीक्षा संगोष्ठी में मुख्य अतिथि पद से व्यक्त किये। शासकीय देवी अहिल्या पुस्तकालय में आयोजित इस संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए श्रीमती रंजना फतेपुरकर ने कहा की आज की व्यस्ततम ज़िंदगी से जुड़ी लघुकथा विधा अपनी लघुता के कारण अपेक्षाक्रत ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध हुई है जिसे संकलन की रचना में देखा जा सकता है। श्री संतोष मिश्रा राज ने इस अवसर पर कहा की लघुकथा में विषय चयन से प्रस्तुति तक की यात्रा चुनौतीपूर्ण है जिसे ‘मोर पंख’ के सभी लेखकों ने स्वीकार किया है। इस अवसर पर शारदा मिश्रा, महेन्द्र सांघी, सुधा दाते, रोशनी वर्मा, मनीषा शर्मा, अमोघ अग्रवाल, आदि रचनाकारों ने रचनापाठ किया। (समाचार प्रस्तुति :  संतोष शर्मा) 




डॉ. अशोक गुप्त की कृति ‘आस्था के बोल’ का लोकार्पण



विगत 03 अगस्त को कानपुर में डॉ.अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’ के स्तुति गीत संग्रह ‘आस्था के बोल’ का लोकार्पण शबेत्सव सभागार में सम्पन्न हुआ।  समारोह में श्री अवध बिहारी श्रीवास्तव (मुक्ष्य अतिथि), डॉ. सूर्य प्रसाद शुक्ल (मुख्य वक्ता), डॉ. रामकृष्ण शर्मा (विशिष्ट वक्ता) व डॉ. हरीलाल ‘मिलन’ मंचासीन थे। इस अवसर पर डॉ. हरीलाल ‘मिलन’ को सम्मानित भी किया गया। उन्हें श्री सतीश गुप्ता, नीलरम्बर कौशिक एवं पंकज दीक्षित ने सम्मानित किया। इस अवसर पर सर्वश्री चक्रधर शुक्ल, उॉ. विनोद त्रिपाठी, गुरुवेन्द्र तिवार आदि अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। (समाचार प्रस्तुति : डॉ. अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’, संयोजक : बटोही, कानपुर)




डॉ. सुनील कुमार परीट जी को “काव्य कुमुद सम्मान” 


ग्वालियर साहित्य कला परिषद, ग्वालियर, म.प्र. के संस्थापक एवं अध्यक्ष श्री रमेश कटारिया ’पारस’ जी और समारोह के मुख्य अतिथि प्रख्यात साहित्यकार श्री राम अवतार जी ने अहिन्दी प्रदेश कर्नाटक के प्रसिध्द हिन्दी साहित्यकार डॉ. सुनील कुमार परीट जी को उनके संपूर्ण व्यक्तित्व, कृतित्व एवं साहित्यिक योगदान के लिए 30 सितंबर 2014 के शुभ दिन के अवसर पर “काव्य कुमुद सम्मान” से सम्मानित किया। अंगवस्त्र ओढकर स्वर्ण पदक, 4 किताबें, सम्मान-पत्र और नगद राशि प्रदान करके डॉ. परीट जी को भव्य समारोह में सम्मानित किया गया। संस्था ने उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए कामना की। डॉ. परीट जी दस साल से कर्नटक में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। (समाचार प्रस्तुति : सुनील कुमार परीट)

अविराम के अंक

अविराम साहित्यिकी 
(समग्र साहित्य की समकालीन त्रैमासिक पत्रिका)

खंड (वर्ष) : 3  / अंक : 3 / अक्टूबर-दिसम्बर  2014  (मुद्रित)

प्रधान सम्पादिका :  मध्यमा गुप्ता
अंक सम्पादक :  डॉ. उमेश महादोषी 
सम्पादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन
मुद्रण सहयोगी :  पवन कुमार


अविराम का यह मुद्रित अंक रचनाकारों व सदस्योंको 14 नवम्बर 2014  को तथा अन्य सभी सम्बंधित मित्रों-पाठकों को 18 नवम्बर  2014 तक भेजा जा चुका है। 10 दिसम्बर  2014  तक अंक प्राप्त न होने पर सदस्य एवं अंक के रचनाकार अविलम्ब पुनः प्रति भेजने का आग्रह करें। अन्य मित्रों को आग्रह करने पर उनके ई मेल पर पीडीफ़ प्रति भेजी जा सकती है। पत्रिका पूरी तरह अव्यवसायिक है, किसी भी प्रकाशित रचना एवं अन्य सामग्री पर पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है। इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है- 


।।सामग्री।।

उदघाटन
डॉ. सुधा गुप्ता (5)
विजय (6)
डॉ. सतीश दुबे (7)
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ (8)
डॉ. बलराम अग्रवाल (9)
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ (10)
नारायण सिंह निर्दोष (11)
उषा अग्रवाल ‘पारस’ (12)
संतोष सुपेकर (13)
नरेश कुमार उदास (14)
डॉ. सुरेश सपन (15)


सहयोग पर सवाल
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ (16)
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ (18)
डॉ. कपिलेश भोज (18)
डॉ. पंकज परिमल (19)
डॉ. रत्ना वर्मा (22)
डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ (24) 

आभार 

शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ (25) 
डॉ. नलिन (26)
उषा कालिया (27)
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ (28)
स्वराज सिंह (29)
डॉ. जेन्नी शबनम (30) 
तोबदन (31)
राम नरेश ‘रमन’ (32)
महावीर रंवाल्टा (33)
राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ (34)
सत्य सुचि (35) 
डॉ. मिथिलेश दीक्षित (36)
डॉ. अ. कीर्तिवर्धन (37)
राजेश उत्साही (38)
प्रकाश श्रीवास्तव (39)
संजीव कुमार अग्रवाल (40) 
विज्ञान व्रत (41)
रामस्वरूप मूंदड़ा (42)
प्रताप सिंह सोढ़ी (43)
के. एल. दिवान (44)
सुदर्शन रत्नाकर (45) 
डॉ. सतीश चन्द्र शर्मा ‘सुधान्शु’ (46)
नित्यानन्द गायेन (47)
डॉ. मालिनी गौतम (48)
कमलेश चौरसिया (49)
वंदना सहाय (50) 
डॉ. रघुनन्दन चिले (51)
कन्हैयालाल अग्रवाल ‘आदाब’ (52)
सुभाष मित्तल ‘सत्यम’ (53)
रजनी साहू (54)
माधुरी राऊलकर (55) 
डॉ. मालती बसंत (56)
डॉ. अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’ (57)
कमलेश सूद (58)
डॉ. लक्ष्मण लाल योगी (59)
डॉ. रामकुमार घोटड़ (60) 
सुमन शेखर (61)
भारती राऊत (62)
अमरनाथ (63)
डॉ. कपिलेश भोज (64)
डॉ. विनोद निगम (65) 
पुष्पा मेहरा (66)
श्रद्धा पाण्डेय (67)
केशव चन्द्र सकलानी ‘सुमन’ (68)

निःशब्द  :  सदस्य, जो रचनाकार नहीं हैं  

कार्तिक अग्रवाल / धर्मपाल सिंह प्रवाल / नन्द कुमार सिंघल (69)
राममोहन जायसवाल / इदरीस मलिक (70)

छोटी-छोटी बातें
कन्हैयालाल अग्रवाल ‘आदाब’ (71)
संतोष सुपेकर (72)
कमलेश चौरसिया (73) 

श्रद्धांजलि

पारस दोसोत (74)
डॉ.मनोहर शर्मा ‘माया’(76)

किताबें (संक्षिप्त समक्षाएँ)

‘समुन्दर सी गहराई वाले हाइकु’ / उषा अग्रवाल ‘पारस’ के हाइकु संग्रह ‘हाइकुयाना’ की डॉ. उमेश महादोषी द्वार समीक्षा (77)

स्तम्भ 
माइक पर : उमेश महादोषी का संपादकीय (3) 
चिट्ठियाँ (79) 
गतिविधियाँ (81) 
प्राप्ति स्वीकार(84)