आपका परिचय

बुधवार, 26 अगस्त 2015

अविराम विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 4,  अंक : 07-12,  मार्च-अगस्त 2015 


।।अविराम विमर्श।।


सामग्री :   इस अंक में दो साक्षात्कार-  राज हीरामन के आने का अर्थ :  डॉ. सतीश दुबे (मॉरीशस के प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री राज हीरामन के साथ अनौपचारिक भेंटवार्ता पर आधारित) तथा अनुवाद राष्ट्र-सेवा का कर्म है :  डॉ.शिबनकृष्ण रैणा (सुप्रसिद्ध समालोचक प्रो. जीवन सिंह के साथ बातचीत पर आधारित)




मॉरीशस के बहुआयामी सृजनधर्मी राज हीरामन द्वारा आकस्मिक भेंट : कम समय लम्बी गुफ्तगू
राज हीरामन के आने का अर्थ :  डॉ. सतीश दुबे

{इस वर्ष के आरम्भ में मॉरीशस के वरिष्ठ साहित्यकार श्री राज हीरामन अपनी भारत यात्रा के दौरान इन्दौर भी गए और 02 जनवरी 2015 को  लघुकथा के पुरोधा आद. डॉ.सतीश दुबे साहब से उनके आवास पर मिले। इस मुलाकात के अनुभवों और बातचीत पर आधारित यह संस्मरणात्मक आलेख रिश्तों और अपनेपन की खुश्बू तो बिखेरता ही है, इसमें एक वरिष्ठतम साहित्यिक, जो जीवन के पिचहत्तरवें पायदान पर खड़ा होकर पच्चीस से पचास के मध्य वाली ऊर्जा उत्सर्जित कर रहा है, का आत्मिक अहसास भी शामिल है।} 

      मॉरीशस में फ्रेंच, अंग्रेजी और राजभाषा क्रोआल के बहुप्रचलित दबाव के बावजूद भारत से जाकर बसे जनसमुदाय ने अपनी भाषा और संस्कारों को पितामहों द्वारा प्रदत्त धरोहर के रूप में कायम रखा है। गिरमिटिया मजदूर के रूप में बिहार से ले जाये गये भारतीयों का उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण वर्ग है। भोजपुरी और हिन्दी के प्रति-आत्मीय ललक को ये अपने पुरखों की याद मानते हैं।  
         

    पारस्पारिक संवाद के अतिरिक्त हिन्दी भाषा के विकास और साहित्य-सृजन मॉरीशस के बौध्दिक-वर्ग के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। बरसों से हिन्दी भाषा की करीबन सभी विधाओं में लेखन की प्रक्रिया अद्यतन पूरी क्षमता के साथ जारी है। इस क्षेत्र में वैसे तो अनेक रचनाकारों की लम्बी सूची बनाई जा सकती है किन्तु प्रसंगवश इतना लिखना पर्याप्त होगा कि भारत के साहित्य-जगत में फिलवक्त जिस त्रयी को विषेष याद किया जाता है वह है अभिमन्यु अंनत, रामदेव धुरंधर तथा राज हीरामन।  
     इस त्रयी में सक्रिय युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे राज हीरामन ने विगत कुछ वर्षों के दौरान अपनी रचनात्मक एवं आत्मीय खुशबू के माध्यम से भारत के हिन्दी साहित्य जगत में विशेष पहचान बनाई है। अपने देश में हिन्दी भाषा के लिए दृढ़ संकल्पित राजजी महात्मा गांधी संस्थान के सृजन-लेखन विभाग में हिन्दी पत्रिका ‘वसंत’ तथा बच्चों की चहेती ‘रिमझिम’ के वरिष्ठ उप सम्पादक हैं। हालिया प्रकाशित कविता-संग्रह ‘नमि मेरी आँखें’ और कहानी संग्रह ‘बर्फ सी गर्मी’ सहित दस कविता-संग्रह, तीन कहानी संग्रह, दो लघुकथा संग्रह, एक एक साक्षात्कार-लेख संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा कुछ महत्वपूर्ण अंग्रेजी-हिन्दी पुस्तकों का इन्होंने सम्पादन भी किया है। 
     विगत कुछ वर्षों से निरन्तर या अंतराल के पश्चात् अपने भारत बुलावे प्रवास के दौरान वे मालवा के इस शहर इन्दौर को बिना किसी आयोजन समारोह के तयशुदा या संभावना के याद रखते हैं। वे यहाँ आना अपनी घरेलू यात्रा मानते हैं। कारण, हिन्दी भाषा की अस्मिता, उन्नयन तथा विशिष्ट स्थान के लिए अहर्निश संघर्षरत हिन्दी सेवी श्रीधर बर्वे द्वारा इसीके मुत्तालिक प्रथम पायदान पत्र-संवाद परिचय का पारिवारिक आकार में तब्दील होना। इन्हीं बर्वेजी के माध्यम से राज ने मुझसे पाँच सात वर्ष पूर्व मिलने की इच्छा जाहिर की और कालांतर में लघुकथा लेखन के लिए ‘टिप्स’ प्राप्त कर उन्हीं के शब्दों में ‘गुरू’ बनाने का आग्रह। बहरहाल उनकी इच्छा पूरी हुई। मेरे द्वारा सुझाये शीर्षक ‘कथा संवाद’ का प्रकाशन व इसी शहर में लोकार्पण की मंशा के साथ उनका देश के अन्य मित्रों की तरह मुझसे भी रिश्ता कायम हो गया। 
     एक जनवरी उन्नीस सौ तिरपन को जन्में राज संयोग से नये वर्ष के आगाज और अपने जन्म के इर्द-गिर्द हमारे परिवारों के बीच होते हैं। इसी महफिल में यह प्रश्न उठने पर उनका प्रत्युत्तर होता है- ‘‘मैं आता नहीं हूँ पुरखे आशीर्वाद देने अपनी भूमि पर आने के लिए प्रेरित करते हैं।’’  वैसे तो हर बार उनके पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा पूर्व निर्धारित होती है किन्तु इस बार ऐसा नहीं हुआ। 2 जनवरी 2015 को सूरज के क्षितिज लौटते समय बर्वेजी का फोन आया- ‘‘राज हीरामन आए हुए हैं और आपसे मिलने आधे घंटे बाद आ रहे हैं।’’ और सचमुच निर्धारित समय पर एअरपोर्ट टू एअरपोर्ट फ्लाइट या भारतवासियों की निगाह से दूर कारों में यात्रा करने वाले राज हीरामन, सर्दी के कपड़ों में लकदक मुस्कुराते हुए टू-सीटर ऑटो रिक्शा से उतरकर तेज कदमों की मद्धिम गति से सम्मानजनक अभिवादन के साथ मेरे सामने थे। 
     अपने किंचित भारी-भरकम शरीर को सोफे पर व्यवस्थित करने तक उनके चेहरे पर हम दोनों की ओर मौन देखते हुए जो आत्मीय-भाव फूलों की तरह झर रहे थे उसकी खुशबू को व्यक्त करना कठिन है। बार-बार यही विचार कौंध रहा था कि जेहन में बसे संस्कार और सहजता ही व्यक्ति को निरन्तर ऊँचाइयाँ छूने के लिए ऊर्जा प्रदान करते हैं। 
     आधुनिकतम प्रत्येक प्रकार के बेहतरीन चिकित्सा के बावजूद आँतों की असह्य व्याधि से जूझते हुए पत्नी के चले जाने के वियोग से जूझते तथा दोनों बेटियों निधि तथा नेहा द्वारा शादी कर पेरिस तथा लंदन में ‘नीड़’ बना लेने के बाद अपने अकेलेपन को साहित्य सृजन से राजजी ने सम्बद्ध कर नियमित लेखन के पुराने क्रम को जारी रखने का मन बनाया। लेखन की इसी संदर्भ में नए प्रकाशन की टोह लेने के लिए किए गए प्रश्न के प्रत्युत्तर में खुशी का इजहार करते हुए हीरामन बोले ‘‘मंदिर में चढ़ाने के लिए प्रसाद के बिना कैसे आ सकता हूँ।’’ और उनके संकेत पर बर्वेजी ने दो पुस्तकें निकालकर हाथों में थमा दी। सोफा से खड़े होकर प्रथम पृष्ठ पर आदर भाव शब्दों में पिरोई गई जो दो पुस्तकें भेंट की, वे अलग-अलग विधाओं याने कविता और कहानी की।  
     ‘‘प्रसाद के बदले मेरी ओर से अभिनंदन और शुभकामनाओं के साथ तिरयासी ताजातरीन फूलों का यह गुलदस्ता सर्वप्रथम आपके लिए’’ मैंने एक दो रोज पूर्व ही प्राप्त लघुकथा संग्रह ‘ट्वीट’ की प्रति भेंट करते हुए कहा। 
    ‘नमि मेरी आँखें’ करीब सत्तर कविताओं को समेटे हुए है तथा ‘बर्फ सी गर्मी’ दस कहानियों को। कविता संग्रह में ‘अपनी बात’ से जाहिर है कि निजी पारिवारिक टूटन के मानसिक बिखराव को समेटने की शुरूआत इन कृतियों से हुई है- ‘‘मैंने पिछले साल से लिखना प्रारम्भ किया था। इस पुस्तक के नामकरण से लेकर अंतिम कविता तक मैं लड़ता, पटका-पटकी तथा अपने से संघर्ष करता आ रहा हूँ। कभी मेरी आँखें नमि किन्तु अंत में जीत नमि मेरी आँखों की ही हुई। इसमें मेरी स्वर्गीय पत्नी का नाम सबसे पहले आता है। वही तो है मेरी कविता की मेरी प्रेरणा। वही तो हमेशा से मुझे शिखर पर बुलंद देखने की इच्छा करती रही थी।’’  
    ‘बर्फ सी गर्मी’ राज हीरामन के पिछले दो कहानी संग्रहों की तुलना में मुझे बेहतर लगा। देश-विदेश के अनुभवों की हकीकतों से बुनी गई ये कहानियाँ कथ्य ही नहीं भाषा-शिल्प और सम्प्रेष्य स्तर पर प्रभावित ही नहीं याद रखे जाने के लिए भी विवश करती है। 
     धन्यवाद आभार और शुभकामनाओं के शब्दों के साथ दोनों ही संग्रह प्राप्त कर प्रथम दृष्टया पृष्ठ पलटते हुए आवरण अंतिम पर दृष्टि स्थिर करते हुए भरपूर खुशी का इजहार करते हुए मैंने कहा-‘‘राजजी परिचय के साथ आपका यह नेकटाई-सुटेड चित्र तो पहली बार किसी पुस्तक पर देखने को मिल रहा है।’’ प्रत्युत्तर में उसी अंदाज में राज बोले- ‘‘यह लंदन एअरपोर्ट पर बेटी नेहा और दामाद अन्थोनी के साथ लिए गए ग्रुप से पब्लिशर द्वारा अपनी पसंद से स्केच किया गया है।
     इसी संस्मरण आलेख की पिछली कुछ पंक्तियों में ‘मंदिर’ और ‘प्रसाद लाने’ का उल्लेख किया गया है। इन शब्दों की अन्तर्कथा यह है कि- कुछ वर्षों पूर्व प्रकाशित ‘कथा संवाद’ और ‘सेवाश्रम’ के दौरान करीब एक सप्ताह तक राज हीरामन का सानिध्य इन्दौर नगर के साहित्यिक जगत को मिला। तभी साहित्य के विभिन्न पक्षों पर संवाद तथा रचनाकारों को मंच प्रदान करने के लिए स्थापित ‘सृजन-संवाद’ के मित्रों द्वारा प्रस्तावित सम्मान के अनुरोध को राजजी ने इस शर्त पर स्वीकार किया कि वह पारिवारिक और आत्मीय स्तर पर मेरे निवास को ‘लघुकथा मंदिर’ की मानद उपाधि प्रदान की। अपने पत्रों के पते में भी वे तभी से इसका उपयोग करते हैं। 2015 के आगाज आगमन पर संस्था की पंजिका के प्रारम्भिक पृष्ठ पर राजजी ने बतौर शुभकामना लिखा- ‘‘02.01.2015/ लघुकथा मंदिर,/सुदामानगर,/इन्दौर’’
     मेरे यहाँ मॉरीशस के लोग नववर्ष के अवसर पर खासकर पहली जनवरी को मंदिर जाते हैं। गंगा तालाब जाते हैं। स्वास्थ्य की कामना करते हैं। ईश्वर से आशीर्वाद लेते हैं। लोगों के स्वास्थ्य और खुशी की कामना करते हैं। मैं इस ‘लघुकथा-मंदिर’ में नववर्ष पर लेखन उर्जा लेने आया हूँ। दूर-दूर मॉरीशस से चलकर। ‘सृजन संवाद’ के लिए कामना करते हुए आश्वस्ति होना चाहता हूँ कि आपकी साहित्यिक गतिविधियाँ तेजी से होती रहे। आप स्वस्थ्य रहे और लेखन के लिए अधिक सक्षम होवें। बस इतना ही। मेरा, मंदिर आना, विराम नहीं लेगा। बस मुझे पुकारते रहिए। शुभकामनाओं सहित - राज हीरामन, 02.01.2015 सुदामा नगर, इन्दौर 
     
हिन्दी भाषा की दशा दिशा के सन्दर्भ में देश के बौद्धिक वर्ग विशेष के लिए राज हीरामन जैसे विदेशों में बसे हिन्दी रचनाकार इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वे हिन्दी को तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जन-जन से जोड़ने के लिए विभिन्न मोर्चों पर कटिबद्ध हैं। चर्चा में ऐसे ही प्रसंग बिन्दु उभरने पर राज हीरामन की टिप्पणी थी कि ‘‘हिन्दी ही नहीं भारतीय जीवन शैली भी हमारे लिए पुरखों की देन है। इसको बनाए रखने के लिए हम ललक भरी निगाहों से भारत की ओर आदर्श के रूप में देखते हैं। किन्तु पिछले कुछ वर्षों से भारत में जो बदलाव आ रहा है, वह हमारे आदर्श के लिए निराशाजनक है। भाषा और सम्बन्धों के जो चित्र आप भारत में देख रहे हैं वे ही हम मॉरीशस में। आप हिन्दी को मान दीजिए हम दुगुना आपको लौटायेंगे।’’

     लेखकीय रचनाप्रक्रिया के बारे में राज हीरामन का यह मानना है कि लेखन की शक्ति उसके कथ्य की विश्वसनीयता भावों का मंथन और प्रभावी सम्प्रेषणीयता है। जो रचना पूरा आकार लेने के बाद पहले पाठ में हमारे अन्तर्मन से स्वीकृति प्राप्त कर ले, हमारा विश्वास है वह पाठकों द्वारा निश्चित सराही जायेगी ।
     ‘‘ऐसी ही अनेक बातें आपने राजेन्द्र परदेसी की द्वारा लिए गए साक्षात्कार में विस्तार से कही है। आपका यह पूरा साक्षात्कार मैंने उमेश महादोषी की पत्रिका ‘अविराम साहित्यिकी’ में पढ़ा था।’’
     ‘अविराम साहित्यिकी’ का जिक्र आने पर कुछ देर पूर्व मेरे पास आने वाली पत्रिकाओं को देखकर टेबल पर
रखे अम्बार में से ‘अविराम साहित्यिकी’ निकालकर बर्वेजी को बताते हुए वे बोले- ‘‘मेरे विचार से यह एक ऐसी पत्रिका है जो कम पृष्ठों में हिन्दी के सम्पूर्ण लेखन और नए पुराने रचनाकारों से परिचित कराती है। ऐसी पत्रिका में अपना साक्षात्कार देखकर मुझे खुशी हुई। यह एक बाजारवादी नहीं साहित्यिक पत्रिका है।’’

     इसी बातचीत के दौरान संयोग से नववर्ष की शुभकामना का संदेश देने के लिए मेरे मोबाइल पर उमेशजी की रिंग-टोन बज उठी। चंद क्षणों में पूरे ताजा दृश्य का बखान कर मैंने संदर्भ देते हुए मोबाइल राजजी की ओर बढ़ा दिया।’’ हम आपकी और पत्रिका की ही चर्चा कर रहे थे।’’ प्रारम्भिक शब्दों के साथ कुछ मिनिट मुस्कुराते हुए ऐसे बतियाते रहे मानो उमेश महादोषी सामने ही बैठे हो। समापन के साथ उनके द्वारा फोन मेरी ओर बढ़ाया था कि कुछ मिनिटों में फिर आवाज घर्रघर्रा उठी। नीमच से बड़ी बेटी सुषमा का फोन था इसलिए उपेक्षा की बजाय ‘‘अपने घर मॉरीशस से हीरामन अंकल आए हैं।’’ मेरा पूरा परिवार ही हीरामनजी से परिचित होने के कारण उसे बहुत प्रसन्नता हुई। आत्मीयता से लबरेज ‘‘कैसी हो बेटी?’’ सम्बोधन के साथ पारिवारिक स्तर की बातचीत खत्म कर पूरी हंसी बिखेरते हुए राज बोले- ‘‘बच्चों से बातें करने के लिए अधिक से अधिक समय भी कम महसूस होता है।’’
     मैंने बर्वेजी को बताया कि हीरामनजी के शिक्षा काल मित्र भी नीमच में है। 
    ‘‘हां गांधी। वह मेरा रूम-मेट था। पिछली बार आप लोगों ने बीमार हीरामन को यहां अस्पताल में एडमिट किया था। तब वह मुझसे मिलने आया था। हमेशा उससे मिलने का सोचता हूँ पर प्रोग्राम नहीं बन पाता। बात होती है पर मुलाकात नहीं होती।’’
    आतिथ्य सत्कार के लिए महफिल से न जाने कब उठ कर चली गई श्रीमती दुबे ने नाश्ते की ट्रे रखते हुए कहा- ‘‘भाई साहब, बातों के साथ थोड़ा ये नाश्ता भी लेते जाइए तब तक मैं कुछ गरम बनाकर लाती हूँ।’’
     ‘‘इस बार कुछ नहीं किसी को मिलने का समय दिया है उनके साथ घर जाना है। खाना भी वहीं है। बर्वेजी किशन को कितने बजे बुलाया है?’’
     यहां मनोरमागंज में प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. वर्मा हैं। उनकी लड़की मॉरीशस में है। घरेलू सम्बन्ध हीरामन का आगमन याने खैर-समाचार, तोहफा या अन्य वस्तुओं का आदान-प्रदान। इन्दौर इस मायने में भी राज हीरामन के लिए कार्यक्रम की वजह बन जाता है।
     कुछ देर और सानिध्य प्राप्त करने की दृष्टि से मैंने कहा- ‘‘हमारे इस सुदामानगर में अलग-अलग विधाओं के श्रेष्ठ लेखक हैं।  आप जैसी हस्ती से यदि किसी का मिलना हुआ तो दोनों के लिए नया वर्ष याद रहेगा।’’ घड़ी की ओर निगाह घुमाते हुए हीरामन बोले- ‘‘कविता से हमें विशेष लगाव है। वेद हिमांशुजी से आपके फोन आवाजाही में बात हो ही गई है। एक और किसी कवि को पाँच-दस मिनिट के लिए बुला लीजिए।’’ 
     ‘‘यहाँ निकट ही युवा कवि अरूण ठाकरे रहते हैं। पिछले महीनों पूर्व ही उनका कविता संग्रह आया है। और आते ही प्रतिष्ठित साहित्यकारों जिनमें नामित कवि सम्मिलित है, सराहा गया। विशेष बात यह कि पिछली बार आपके मित्र रामदेव धुरंधर यहां आए थे, तब उन्होंने भी इनकी कविताओं को सुना, सराहा तथा यह इच्छा प्रकट भी कि संग्रह प्रकाशित होने पर उन तक भिजवाने की व्यवस्था करें।’’
     अरूण ठाकरे से मुलाकात तथा प्रथम कविता संग्रह ‘कविताएँ’ प्राप्त कर अत्यधिक प्रसन्न हुए। यही नहीं मित्रों के आग्रह पर सम्मानित करने के रूप में उसका विमोचन भी किया। व्यवसाय से भवन निर्माता होने की बात सुनकर वे बोले- ‘‘कविताओं को देखकर लगता है जैसे आप शब्दों का भवन ही नहीं, उसमें रहने वालों के चित्र भी अच्छे बनाते हैं।’’ प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी के साथ पुस्तक पर कविता सुनाने का मंतव्य प्रकट कर, राज हीरामन उठने की मुद्रा में सोफा से हिलने-डुलने लगे। 
    ‘‘कार से आया हूँ। आप जहां कहेंगे छोड़ दूँगा। इस बहाने आपसे कुछ और सीखने और सुनने को मिल जाएगा। पर उसके पूर्व हम सब आपसे कोई कविता सुनना चाहेंगे।’’
    प्रत्युत्तर में राज हीरामन ने ‘नमि मेरी आँखें’ संग्रह की ‘अपनी बात’ से ‘कविता की दुनिया में मेरी पहचान मेरी क्षणिकाओं से ही हुई। इसलिए मैं क्षणिका बिसार नहीं सकता। यह मेरे अस्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा है।’’ वक्तव्य के साथ जो दो क्षणिकाऐं सुनाई वे इस प्रकार थी- पहली ‘ईदगाह’ शीर्षक क्षणिका- ‘‘मेरे परवर दिगार! ओ मेरे खुदा!/या मेरे अल्लाह!/मेरे बेछप्पर घर से भी/ईद का चांद/कल नज़र नहीं आया/किस मुँह से यह हामिद/आज ईदगाह जाएगा ?’’ और दूसरी ‘द्रोपदी का विद्रोह’ शीर्षक से यह थी- ‘‘आज की द्रोपदी को/दुःशासन की प्रतीक्षा है/और वह विरोध करती है/कि उसके निजी मामलों में/कृष्ण भगवान/अपनी नाक न डाले।’’
     क्षणिकाएँ सुनाने के पश्चात् राज हीरामन बिना एक क्षण रुके ‘‘बर्वेजी, चलिए किशन आ गए होंगे।’’ कहते हुए उठ खड़े हुए। 
     ‘‘मंदिर’’ के द्वार से बाहर की ओर प्रस्थित होने के पूर्व आत्मीयता और स्नेह के समस्त भावों को चेहरे पर आमन्त्रित कर उन्होंने हम दोनों की ओर देखा, हमेशा की तरह अभिवादन किया ओर सुकून देने वाले विशेष खुशबू के झोंके को सरोबार कर बाहर की ओर मुड़ गए।
     हीरामन जैसे मित्र जब भी आते हैं और अपने निस्वार्थ, निर्द्वंद्व और अन्तर्मन में संजो कर रखे भावना के पुष्प बिखेरते हैं तो महसूस होता है, ये पुष्प ही वस्तुतः रिश्ते शब्द को सही अर्थ में पारिभाषित करने की शक्ति रखते हैं। राज हीरामन का भी तो प्रकारांतर से यही मानना है कि ‘‘सगे कहां अपने होते हैं? वे पराए बन जाते हैं। कभी पराए अपने बन सगे का एहसास दिलाते हैं।’’ 
  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009, म.प्र. / मोबाइल : 09617597211





अनुवाद कला पर सुप्रसिद्ध अनुवादक डॉ.शिबनकृष्ण रैणा से सुप्रसिद्ध समालोचक प्रो.जीवनसिंह की बातचीत
अनुवाद राष्ट्र-सेवा का कर्म है :  डॉ.शिबनकृष्ण रैणा 

(अनुवाद कला के अध्येता एवं वरिष्ठ अनुवादक, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सीनियर फेलो डॉ. शिबनकृष्ण रैणा ने इस कला को समृद्ध करने के लिए उल्लेखनीय कार्य किया है। डॉ. रैणा ने भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला में अध्येता रहते हुए ‘भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ’ विषय पर शोधकार्य किया है तथा अंग्रेजी, कश्मीरी व उर्दू से पिछले 30 वर्षों से निरन्तर अनुवाद-कार्य करते आ रहे हैं। अब तक इनकी चौदह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके योगदान के लिए उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी, भारतीय अनुवाद परिषद दिल्ली, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, बिहार राजभाषा विभाग, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय आदि अनेक प्रमुख संस्थाओं ने पुरस्कृत/सम्मानित किया है। विगत दिनों प्रो. जीवन सिंह जी ने उनसे अनुवाद कला के विभिन्न पहलुओं पर बातचीत की। प्रस्तुत है इसी बातचीत के प्रमुख अंश।)

प्रो.जीवनसिंह :   आपको अनुवाद की प्रेरणा कब और कैसे मिली? 
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  1962 में कश्मीर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी) कर लेने के बाद मैं पीएच.डी. करने के लिए कुरुक्षेत्र विश्ववि़द्यालय आ गया (तब कश्मीर विश्वविद्यालय में रिसर्च की सुविधा नहीं थी)। यू.जी.सी. की जूनियर फेलोशिप पर ‘कश्मीरी तथा हिन्दी कहावतों का तुलनात्मक अध्ययन’ पर शोधकार्य किया। 1966 में राजस्थान लोक सेवा आयोग से व्याख्याता हिन्दी के पद पर चयन हुआ। प्रभु श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा मैं लगभग दस वर्षों तक रहा। यहाँ कालेज-लाइब्रेरी में उन दिनों देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ- धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत, कादम्बिनी आदि आती थीं। इनमें यदा-कदा अन्य भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनुवादित कविताएँ/कहानियाँ/व्यंग्य आदि पढ़ने को मिल जाते। मुझे इन पत्रिकाओं में कश्मीरी से हिन्दी में अनुवादित रचनाएँ बिल्कुल ही नहीं या फिर बहुत कम देखने को मिलती। मेरे मित्र मुझसे अक्सर कहते कि मैं यह काम बखूबी कर सकता हूँ क्योंकि एक तो मेरी मातृभाषा कश्मीरी है और दूसरा हिन्दी पर मेरा अधिकार भी है। मुझे लगा कि मित्र ठीक कह रहे हैं। मुझे यह काम कर लेना चाहिए। मैंने कश्मीरी की कुछ चुनी हुई सुन्दर कहानियों/कविताओं/लेखों/संस्मरणों आदि का मन लगाकर हिन्दी में अनुवाद किया। मेरे ये अनुवाद अच्छी पत्रिकाओं में छपे और खूब पसन्द किए गए। कुछ अनुवाद तो इतने लोकप्रिय एवं चर्चित हुए कि अन्य भाषाओं यथा कन्नड़, मलयालम, तमिल आदि में मेरे अनुवादों के आधार पर इन रचनाओं के अनुवाद हुए और उधर के पाठक कश्मीरी की इन सुन्दर रचनाओं से परिचित हुए। मैंने चूंकि एक अछूते क्षेत्र में प्रवेश करने की पहल की थी, इसलिए श्रेय भी जल्दी मिल गया।
प्रो.जीवनसिंह :  अब तक आप किन-किन विधाओं में अनुवाद कर चुके हैं?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  मैंने मुख्य रूप से कश्मीरी, अंग्रेजी और उर्दू से हिन्दी में अनुवाद किया है। साहित्यिक विधाओं में कहानी, कविता, उपन्यास, लेख, नाटक आदि का हिन्दी में अनुवाद किया है।
प्रो.जीवनसिंह :  आप द्वारा अनुवादित कुछ कृतियों के बारे में बताएंगे?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  मेरे द्वारा अनुवादित कृतियाँ, जिन्हें मैं अति महत्वपूर्ण मानता हूँ और जिनको आज भी देख पढ़कर मुझे असीम संतोष और आनंद मिलता है, ‘प्रतिनिधि संकलन: कश्मीरी’ (भारतीय ज्ञानपीठ) 1973, ‘कश्मीरी रामायण: रामावतार चरित्र’ (भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ) 1975, ‘कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ’ (राजपाल एण्ड संस दिल्ली) 1980 तथा ‘ललद्यद’ (अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद, साहित्य अकादमी, दिल्ली) 1981 हैं। ‘कश्मीर की श्रेष्ठ कहानियाँ’ में कुल 19 कहानियाँ हैं। कश्मीरी के प्रसिद्ध एवं प्रतिनिधि कहानीकारों को हिन्दी जगत के सामने लाने का यह मेरा पहला सार्थक प्रयास है। प्रसिद्ध कथाकार विष्णु प्रभाकर ने मेरे अनुवाद के बारे में मुझे लिखा- ‘ये कहानियाँ तो अनुवाद लगती ही नहीं हैं, बिल्कुल हिन्दी की कहानियाँ जैसी हैं. आपने, सचमुच, मेहनत से उम्दा अनुवाद किया है।’
प्रो.जीवनसिंह :   अपनी अनुवाद-प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश डालिए।
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  अनुवाद प्रक्रिया से तात्पर्य यदि इन सोपानों/चरणों से है, जिनसे गुजर कर अनुवाद/अनुवादक अपने उच्चतम रूप में प्रस्तुत होता है, तो मेरा यह मानना है कि अनुवाद रचना के कथ्य/आशय को पूर्ण रूप से समझ लेने के बाद उसके साथ तदाकार होने की बहुत जरूरत है। वैसे ही जैसे मूल रचनाकार भाव/विचार में निमग्न हो जाता है। यह अनुवाद-प्रक्रिया का पहला सोपान है। दूसरे सोपान के अन्तर्गत वह ‘समझे हुए कथ्य’ को लक्ष्य-भाषा में अंतरित करे, पूरी कलात्मकता के साथ। कलात्मक यानी भाषा की आकर्षकता, सहजता एवं पठनीयता के साथ। तीसरे सोपान में अनुवादक एक बार पुनः रचना को आवश्यकतानुसार परिवर्तित/परिवर्धित करे। मेरे विचार से मेरे अनुवाद की यही प्रक्रिया रही है।
प्रो.जीवनसिंह :  अनुवाद के लिए क्या आपके सामने कोई आदर्श अनुवादक रहे?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  आदर्श अनुवादक मेरे सामने कोई नहीं रहा। मैं अपने तरीके से अनुवाद करता रहा हूँ और अपना आदर्श स्वयं रहा हूँ। दरअसल आज से लगभग 30-35 वर्ष पूर्व जब मैंने इस क्षेत्र में प्रवेश किया, अनुवाद को लेकर लेखकों के मन में कोई उत्साह नहीं था, न ही अनुवाद कला पर पुस्तकें ही उपलब्ध थीं और न ही अनुवाद के बारे में चर्चाएँ होती थीं। इधर, इन चार दशकों में अनुवाद के बारे में काफी चिंतन-मनन हुआ है। यह अच्छी बात है।
प्रो.जीवनसिंह :   क्या आप मानते हैं कि साहित्यिक अनुवाद एक तरह से पुनर्सृजन है ? 
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  मैं अनुवाद को पुनर्सृजन ही मानता हूँ, चाहे वह साहित्य का हो या फिर किसी अन्य विधा का। असल में अनुवाद मूल रचना का अनुकरण नहीं वरन् पुनर्जन्म है। वह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही दमदार प्रयास है। मूल रचनाकार की तरह ही अनुवादक भी तथ्य को आत्मसात करता है, उसे अपनी चित्तवृत्तियों में उतारकर पुनः सृजित करने का प्रयास करता है तथा अपने अभिव्यक्ति-माध्यम के उत्कृष्ट उपादानों द्वारा उसको एक नया रूप देता है। इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक की सृजन-प्रतिभा मुखर रहती है।
प्रो.जीवनसिंह :  अनुवाद करते समय किन-किन बातों के प्रति सतर्क रहना चाहिए?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  यों तो अनुवाद करते समय कई बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए जिनका विस्तृत उल्लेख आदर्श अनुवाद/अनुवन्दक जैसे शीर्षकों के अन्तर्गत ‘अनुवादकला’ विषयक उपलब्ध विभिन्न पुस्तकों में मिल जाता है। संक्षेप में कहा जाए तो अनुवादक को इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। (1) उसमें स्रोत और लक्ष्य भाषा पर समान रूप से अच्छा अधिकार होना चाहिए। (2) विषय का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। (3) मूल लेखक के उद्देश्यों की जानकारी होनी चाहिए। (4) मूल रचना के अन्तर्निहित भावों की समझ होनी चाहिए। (5) सन्दर्भानुकूल अर्थ-निश्चयन की योग्यता हो। एक बात मैं यहाँ पर रेखांकित करना चाहूंगा और अनुवाद-कर्म के सम्बन्ध में यह मेरी व्यक्तिगत मान्यता है। कुशल अनुवादक का कार्य पर्याय ढूंढ़ना मात्र नहीं है, वह रचना को पाठक के लिए बोधगम्य बनाए, यह परमावश्यक है। सुन्दर-कुशल, प्रभावशाली तथा पठनीय अनुवाद के लिए यह ज़रूरी है कि अनुवादक भाषा-प्रवाह को कायम रखने के लिए, स्थानीय बिंबों व रूढ़ प्रयोगों को सुबोध बनाने के लिए तथा वर्ण्य-विषय को अधिक हृदयग्राही बनाने हेतु मूल रचना में आटे में नमक के समान फेर-बदल करे। यह कार्य वह लंबे-लंबे वाक्यों को तोड़कर, उनमें संगति बिठाने के लिए अपनी ओर से एक-दो शब्द जोड़कर तथा ‘अर्थ’ के बदले ‘आशय’ पर अधिक जोर देकर कर सकता है। ऐसा न करने पर ‘अनुवाद’ अनुवाद न होकर मात्र सरलार्थ बनकर रह जाता है। 
प्रो.जीवनसिंह :  मौलिक लेखन और अनुवाद की प्रक्रिया में आप क्या अंतर समझते हैं ? 
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  मेरी दृष्टि में दोनों की प्रक्रियाएं एक-समान हैं। मैं मौलिक रचनाएं भी लिखता हूँ। मेरे नाटक, कहानियाँ आदि रचनाओं को खूब पसन्द किया गया है। साहित्यिक अनुवाद तभी अच्छे लगते हैं जब अनुवादित रचना अपने आप में एक ‘रचना’ का दर्जा प्राप्त कर ले। दरअसल, एक अच्छे अनुवादक के लिए स्वयं एक अच्छा लेखक होना भी बहुत अनिवार्य है। अच्छा लेखक होना उसे एक अच्छा अनुवादक बनाता है और अच्छा अनुवादक होना उसे एक अच्छा लेखक बनाता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, पोषक हैं। 
प्रो.जीवनसिंह :  भारत में विदेशों की तुलना में अनुवाद की स्थिति के विषय में आप क्या सोचते हैं?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  पश्चिम में अनुवाद के बारे में चिन्तन-मनन बहुत पहले से होता रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस तरह ज्ञान-विज्ञान एवं अन्य व्यावहारिक क्षेत्रों में पश्चिम बहुत आगे है, उसी तरह ‘अनुवाद’ में भी वह बहुत आगे है। वहाँ सुविधाएं प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं, अनुवादकों का विशेष मान-सम्मान है। हमारे यहाँ इस क्षेत्र में अभी बहुत-कुछ करना शेष है। 
प्रो.जीवनसिंह :  भारत में जो अनुवाद कार्य हो रहा है, उसके स्तर से आप कहाँ तक सन्तुष्ट हैं ? इसमें सुधार के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे।
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  साहित्यिक अनुवाद तो बहुत अच्छे हो रहे हैं। पर हाँ, विभिन्न ग्रन्थ-अकादमियों द्वारा साहित्येत्तर विषयों के जो अनुवाद सामने आए हैं या आ रहे हैं, उनका स्तर बहुत अच्छा नहीं है। दरअसल, उनके अनुवादक वे हैं, जो स्वयं अच्छे लेखक नहीं हैं या फिर जिन्हें सम्बन्धित विषय का अच्छा ज्ञान नहीं है। कहीं-कहीं यदि विषय का अच्छा ज्ञान भी है तो लक्ष्य भाषा पर अच्छी/सुन्दर पकड़ नहीं है। मेरा सुझाव है कि अनुवाद के क्षेत्र में जो सरकारी या गैर सरकारी संस्थाएं या कार्यालय कार्यरत हैं, वे विभिन्न विधाओं एवं विषयों के श्रेष्ठ अनुवादकों का एक राष्ट्रीय-पैनल तैयार करें। अनुवाद के लिए इसी पैनल में से अनुवादकों का चयन किया जाए। पारिश्रमिक में भी बढ़ोतरी होनी चाहिए। 
प्रो.जीवनसिंह :  आप अनुवाद के लिए रचना का चुनाव किस आधार पर करते हैं ?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  देखिए, पहले यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि हर रचना का अनुवाद हो, यह आवश्यक नहीं है। वह रचना जो अपनी भाषा में अत्यन्त लोकप्रिय रही हो, सर्वप्रसिद्ध हो या फिर चर्चित हो, उसी का अनुवाद वांछित है और किया जाना चाहिए। एक टी.वी. चैनल पर मुझसे पूछे गए इसी तरह के एक प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा था- ‘प्रत्येक रचना/पुस्तक का अनुवाद हो, यह ज़रूरी नहीं है। हर भाषा में, हर समय बहुत-कुछ लिखा जाता है। हर चीज़ का अनुवाद हो, न तो यह मुमकिन है और न ही आवश्यक! मेरा मानना है कि केवल अच्छी एवं श्रेष्ठ रचना का ही अनुवाद होना चाहिए। ऐसी रचना जिसके बारे में पाठक यह स्वीकार करे कि सचमुच अगर मैंने इसका अनुवाद न पढ़ा होता तो निश्चित रूप से एक बहुमूल्य रचना के आस्वादन से वंचित रह जाता। 
प्रो.जीवनसिंह :  अनुवाद से अनुवाद के बारे में आप की क्या राय है?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो  की वह पंक्ति याद आती है जिसमें वह कहता है कि कविता में कवि मौलिक कुछ भी नहीं कहता, अपितु नकल की नकल करता है। ‘फोटो-स्टेटिंग’ की भाषा में बात करें तो जिस प्रकार मूल प्रति के इम्प्रेशन में और उस इम्प्रेशन के इम्प्रेशन में अन्तर रहना स्वाभाविक है, ठीक उसी प्रकार सीधे मूल से किए गये अनुवाद और अनुवाद से किए गये अनुवाद में फर्क रहेगा। मगर सच्चाई यह है कि इस तरह के अनुवाद हो रहे हैं। तुर्की, अरबी, फ्रैंच, जर्मन आदि भाषाएं न जानने वाले भी इन भाषाओं से अनुवाद करते देखे गए हैं। इधर कन्नड़, मलयालम, गुजराती, तमिल, बंगला आदि भारतीय भाषाओं से इन भाषाओं को सीधे-सीधे न जानने वाले भी अनुवाद कर रहे हैं। ऐसे अनुवाद अंग्रेज़ी या हिन्दी को माध्यम बनाकर हो रहे हैं। यह काम खूब हो रहा है।
प्रो.जीवनसिंह :  अनुवाद-कार्य के लिए अनुवाद-प्रशिक्षण एवं उसकी सैद्धान्तिक जानकारी को आप कितना आवश्यक मानते हैं?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  सिद्धान्तों की जानकारी उसे एक अच्छा अनुवाद-विज्ञानी या जागरूक अनुवादक बना सकती है, मगर प्रतिभाशाली अनुवादक नहीं। मौलिक लेखन की तरह अनुवादक में कारयित्री प्रतिभा का होना परमावश्यक है। यह गुण उसमें सिद्धान्तों के पढ़ने से नहीं, अभ्यास अथवा अपनी सृजनशील प्रतिभा के बल पर आ सकेगा। यों अनुवाद-सिद्धान्तों का सामान्य ज्ञान उसे इस कला के विविध ज्ञातव्य पक्षों से परिचय अवश्य कराएगा।
प्रो.जीवनसिंह :  अनुवाद में स्रोत भाषा के प्रति मूल निष्ठता के बारे में आपकी क्या राय है?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  मूल के प्रति निष्ठा-भाव आवश्यक है। अनुवादक यदि मूल के प्रति निष्ठावान नहीं रहता, तो निश्चित रूप से ‘पापकर्म’ करता है। मगर, जैसे हमारे यहाँ (व्यवहार में) ‘प्रिय सत्य’ बोलने की सलाह दी गई है, उसी तरह अनुवाद में भी प्रिय लगने वाला फेर-बदल स्वीकार्य है। दरअसल, हर भाषा में उस देश के सांस्कृतिक, भौगोलिक तथा ऐतिहासिक सन्दर्भ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में रहते हैं और इन सन्दर्भों का भाषा की अर्थवत्ता से गहरा संबंध रहता है। इस अर्थवत्ता को ‘भाषा का मिज़ाज’ अथवा भाषा की प्रकृति कह सकते हैं। अनुवादक के समक्ष कई बार ऐसे भी अवसर आते हैं जब कोश से काम नहीं चलता और अनुवादक को अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के बल पर समानार्थी शब्दों की तलाश करनी पड़ती है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि भाषा और संस्कृति के स्तर पर मूल कृति अनुवाद कृति के जितनी निकट होगी, अनुवाद करने में उतनी ही सुविधा रहेगी। सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दूरी जितनी-जितनी बढ़ती जाती है, अनुवाद की कठिनाइयाँ भी उतनी ही गुरुतर होती जाती हैं। भाषा, संस्कृति एवं विषय के समुचित ज्ञान द्वारा एक सफल अनुवादक उक्त कठिनाई का निस्तारण कर सकता है। 
प्रो.जीवनसिंह :  आप किस तरह के अनुवाद को सबसे कठिन मानते हैं और क्यों ?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  अनुवाद किसी भी तरह का हो पर अपने आप में एक दुःसाध्य/श्रमसाध्य कार्य है। इस कार्य को करने में जो कोफ़्त होती है, उसका अन्दाज़ वही लगा सकते हैं जिन्होंने अनुवाद का काम किया हो। वैसे मैं समझता हूँ कि दर्शन-शास्त्र और तकनीकी विषयों से संबंधित अथवा आंचलिकता का विशेष पुट लिए पुस्तकों का अनुवाद करना अपेक्षाकृत कठिन है। गद्य की तुलना में पद्य का अनुवाद करना भी कम जटिल नहीं है। 
प्रो.जीवनसिंह :  लक्ष्य भाषा की सहजता को बनाए रखने के लिए क्या-क्या उपाय सुझाना चाहेंगे ? 
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  सुन्दर-सरस शैली, सरल-सुबोध वाक्य गठन, निकटतम पर्यायों का प्रयोग आदि लक्ष्य भाषा की सहजता को सुरक्षित रखने में सहायक हो सकते हैं। यों मूल भाषा के अच्छे परिचय से भी काम चल सकता है लेकिन अनुवाद में काम आने वाली भाषा तो जीवन की ही होनी चाहिए। 
प्रो.जीवनसिंह: किसी देश की सांस्कृतिक चेतना को विकसित करने में अनुवाद की क्या भूमिका है ? 
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा: अनुवाद-कर्म राष्ट्र सेवा का कर्म है। यह अनुवादक ही है जो भाषाओं एवं उनके साहित्यों को जोड़ने का अद्भुत एवं अभिनंदनीय प्रयास करता है। दो संस्कृतियों, समाजों, राज्यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच ‘सेतु’ का काम अनुवादक ही करता है। और तो और, यह अनुवादक ही है जो भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भाषाओं के बीच सौहार्द, सौमनस्य एवं सद्भाव को स्थापित करता है तथा हमें एकात्मकता एवं वैश्वीकरण की भावना से ओतप्रोत कर देता है। इस दृष्टि से यदि अनुवादक को समन्वयक, मध्यस्थ, सम्वाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे हैं, ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। वे कहते हैं- ‘अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए ...।’ 
प्रो.जीवनसिंह :  अनुवाद मनुष्य जाति को एक-दूसरे के पास लाकर हमारी छोटी दुनिया को बड़ा बनाता है। इसके बावजूद यह दुनिया अपने-अपने छोटे अहंकारों से मुक्त नहीं हो पाती- इसके कारण क्या हैं? आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  देखिए, इसमें अनुवाद/अनुवादक कुछ नहीं कर सकता। जब तक हमारे मन छोटे रहेंगे, दृष्टि संकुचित एवं नकारात्मक रहेगी, यह दुनिया हमें सिकुड़ी हुई ही दीखेगी। मन को उदार एवं बहिर्मुखी बनाने से ही हमारी छोटी दुनिया बड़ी हो जाएगी।
प्रो.जीवनसिंह :  अच्छा, यह बताइए कि कश्मीर की समस्या का समाधान करने में कश्मीरी-हिन्दी एवं कश्मीरी से हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में अनुवाद किस सीमा तक सहायक हो सकते हैं?
डॉ.शिबनकृष्ण रैणा :  कश्मीर में जो हाल इस समय है, उससे हम सभी वाकिफ़ हैं। सांप्रदायिक उन्माद ने समूची घाटी के सौहार्दपूर्ण वातावरण को विषाक्त बना दिया है। कश्मीर के अधिकांश कवि, कलाकार, संस्कृतिकर्मी आदि घाटी छोड़कर इधर-उधर डोल रहे हैं और जो कुछेक घाटी में रह रहे हैं उनकी अपनी पीड़ाएं और विवशताएं हैं। विपरीत एवं विषम परिस्थितियों के बावजूद कुछ रचनाकार अपनी कलम की ताकत से घाटी में जातीय सद्भाव एवं सांप्रदायिक सौमनस्य स्थापित करने का बड़ा ही स्तुत्य प्रयास कर रहे हैं। मेरा मानना है कि ऐसे निर्भीक लेखकों की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद निश्चित रूप से इस बात को रेखांकित करेंगे कि बाहरी दबावों के बावजूद कश्मीर का रचनाकार शान्ति चाहता है और भईचारे और मानवीय गरिमा में उसका अटूट विश्वास है और इस तरह एक सुखद वातावरण की सृष्टि संभव है। ऐसे अनुवादों को पढ़कर वहां के रचनाकार के बारे में प्रचलित कई तरह की बद्धमूल/निर्मूल स्थापनाओं का निराकरण भी  हो सकता है। इसी प्रकार कश्मीरी साहित्य के ऐसे श्रेष्ठ एवं सर्वप्रसिद्ध रचनाकारों जैसे, लल्लद्यद, नुंदऋषि, महजूर,दीनानाथ रोशन, निर्दाेष आदि, जो सांप्रदायिक सद्भाव के सजग प्रहरी रहे हैं, की रचनाओं के  हिन्दी अनुवाद कश्मीर में सदियों से चली आ रही भाईचारे की रिवायत को निकट से देखने में सहायक होंगे।          

  • डॉ.शिबनकृष्ण रैणा : 2/537, अरावली-विहार, अलवर-301001, राजस्थान / मोबाइल : 09414216124  
  • प्रो.जीवनसिंह : 1/14. अरावली-विहार, अलवर, राजस्थान / मोबाइल : 09829248921

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  :  4,   अंक  : 07-12,  मार्च-अगस्त 2015 



        {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कालौनी, बदायूं रोड, बरेली, उ.प्र. के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें।स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा }


।।किताबें।।

सामग्री : इस अंक में समकालीन सामाजिक विसंगतियों पर तिरछी नजर के निशाने / श्री कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’ के व्यंग्य कविता संग्रह 'दुर्गति-चालीसा' की डॉ. सूर्यप्रसाद शुक्ल द्वारा तथा साहित्य धर्म का निर्वाह करती कविताएँ / प्रशान्त उपाध्याय के काव्य संग्रह 'शब्द की आँख में जंगल'  की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा समीक्षा। 

डॉ. सूर्यप्रसाद शुक्ल


समीक्षक 

समकालीन सामाजिक विसंगतियों पर तिरछी नजर के निशाने 
श्री कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’ ने जीवन के विविध क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्ट आचरण से त्रस्त आज के समय और समाज का, तत्कालीन और समकालीन परिदृश्य बहुत तल्खी के साथ कुरेदते, कचोटते, छेदते और चीरते शब्दों में अर्थवान करने का प्रयास किया है। उनकी व्यंग्योक्तियों में जनतंत्र और प्रजातंत्र का स्वप्न भंग तो राजनीतिज्ञ के भ्रष्ट आचरण का भंडाफोड़ है। समाजवाद के बदलते और दिखावटी चेहरों की नकाब के अन्दर की तस्वीर है, जो सरकारी कामकाज में कामचोरी, रिश्वतखोरी, भाई-भतीजों की टेण्डर डालने और खुलने-खुलवाने की खुली लूट की भर्त्सना करती है। चरित्रहीनता, आचरणहीनता, सांस्कृतिक मूल्यों में गिरावट, रहन-सहन, खानपान तथा भोजन-वस्त्रों में व्याप्त
बेशर्मी भी इन कटूक्तियों का विषय बनी है। सेक्स और हिंसा, कालाधन और इसका दुरुपयोग भी ‘सलिल जी’ के मन को कचोटता रहा है, जिसका उन्होंने खुलकर वर्णन किया है। श्री कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’ की पुस्तक ‘दुर्गति चालीसा’ की व्यंग्योक्तियां साहित्यकार के आक्रोश का परिणाम हैं जिसमें देशकाल और परिस्थितियों की दुर्गति का अहिंसक प्रतिकार शब्द की शक्ति के साथ समाज के समक्ष उपस्थित हुआ है।
     ‘दुर्गति-चालीसा’ में राजनैतिक अराजकता और भारतीय स्वातंत्रय के लिए बलिदान हो जाने वाले शहीदों के स्वप्नों को बिखरते देखकर कहा गया है कि ‘अंगरेजों से पाया राज, बापू संग मर गया सुराज’ और ‘काले धन में डूबा मुल्क’ में आज किस तरह ‘हुआ जरूरी सुविधा शुल्क’ का खुलेआम धन्धा पनप रहा है। यह तो इसी से समझा जा सकता है कि नोटों की गड्डी से दबकर, नैतिकता का डब्बा गोल हो रहा है। ये चुनाव हैं या बरबादी कहकर व्यंग्यकार ने प्रश्न किया है कि जब सदनों में कातिल अपराधी घुसे बैठे हैं तब रोटी, न्याय और सुरक्षा की बात कैसे की जा सकती है। यहाँ तो सिर्फ लूटने की आजादी है फिर यह मुखौटाधारी लुटेरे जनता के धन पर हल्ला क्यों नहीं बोलेंगे? इसी तरह यह भी कहा गया है कि ‘चाटुकारों को तरी मलाई, ‘हरिश्चन्द’ की जांच धुनाई’। इसी के साथ छोटी-छोटी से लेकर बड़ी-बड़ी जगहों पर लूट-खसोट और चालाकी भरे धन्धों का व्यापार गरम है, जिसके लिए एक अन्योक्ति में कहा गया है- ‘गिद्धों कौवों का आलिंगन/सत्ता हित पावन-गठबन्धन/ललुआ को पारस की कुर्सी/कलुआ के माथे पर चन्दन’।
    वर्गीय विशेषता से युक्त समाज में सामाजिक नियमों को निर्धारित करने वाली आंतरिक समता और ममता का सद्-भावना प्रधान ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो गया है। एक वर्ग के तमाम भीतरी और बाहरी सम्बन्ध तथा विभिन्न वर्गों के आपसी सम्बन्ध ही तो मानव सम्बन्ध होते हैं। यह मानवी सम्बन्ध ही मानव चेतना की मूल-भूत नींव हैं, जिस पर संस्कृति, धर्म, दर्शन, राजनीति, कला, साहित्य आदि के भवन निर्मित होते हैं, किन्तु इनको भी अराजक व्यवस्था ने अपने काले पैसे के बल पर खरीदकर अव्यवस्थित और अनैतिक बना दिया है। इस पर ही करारा व्यंग्य करते हुए सलिल जी कहते हैं- ‘‘पढ़े लिखों के खाली झोले/भूखे पेट आंख में शोले/जननायक जी आंखे मूंदे/‘ओम शान्ति’ हंसकर बोले‘‘।
    अपनी कवित्वमय फब्तियों में व्यंग्यकार ने स्वीकार किया है कि- ‘सीता समा चुकी पृथ्वी में, सूपर्णखा की जय जय बोल/अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बोल, अस्सी नब्बे पूरे सौ/नौ दिन चले अढ़ाई कोस, चालिस चोर हो गये सौ’।
    इस राजनीति बनाम अखाड़ेबाजी के खेल में आरक्षण की आग में जलते पीढ़ी के नौनिहाल, संख्या बल पर पनपी गुण्डागीरी और विकल्पहीन समाज व्यवस्था के लिए कवि के मन में जो दर्द उपजा है, वह ही घनीभूत होकर इस तरह हो गया है- ‘बदहाली/कुहासे की तरह/हो चुकी इतनी घनी/विवशता की है दहशत/आक्रोश की सनसनी/दूर तक भी नजर नहीं आती/टिमटिमाती हुई रोशनी’।
     अनेेक पारम्परिक शब्दों को नये अर्थों में प्रयोग करते हुए ‘दुर्गति-चालीसा’ के व्यंग्यकार ने छन्द प्रयोगों में अपनी प्रतिभा से चुटीले शब्द वाण चलाने का प्रयास किया है, जो उसके लक्ष्य बोध को सार्थक बना सकते हैं क्योंकि ये व्यंग्यकार की तिरछी नजर के निशाने हैं।
दुर्गति-चालीसा :  व्यंग्य संग्रह : कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’। प्रका. :  ‘वाणी’ साहित्यिक संस्था एवं प्रकाशन संस्थान, कानपुर। मूल्य :  रु. 60/- मात्र। संस्करण : 2014।     

  • 119/50-सी, दर्शनपुरवा, कानपुर-12, उ.प्र. / मोबाइल : 09839202423




डॉ. उमेश महादोषी


समीक्षक 


साहित्य धर्म का निर्वाह करती कविताएँ
       प्रशान्त उपाध्याय उन कवियों में शामिल हैं, जिन्होंने कवि सम्मेलनों के मंच पर लम्बे समय से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है किन्तु पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों तक अपनी रचनात्मकता को पहुँचाने के प्रति भी सतर्क रहे हैं। कवि सम्मेलन के श्रोता और प्रकाशन माध्यमों के पाठक- दो स्थितियों की तरह होते हैं, जिनके मध्य आधुनिक परिप्रेक्ष्य में एक बड़ा गैप होता है। भले इस गैप को पैदा करने में मंच के कवियों का भी बड़ा योगदान है, पर यह एक यथार्थ स्थिति है। प्रशान्त जी जैसे कवियों के लिए इन दोनों स्थितियों से गुजरते हुए मनोरंजन से सरोकारों तक की उद्देश्य-यात्रा के साथ-साथ श्रोताओं की मानसिकता के समक्ष समर्पण करने से बचते हुए भी उसके साथ तारतम्य बैठाने से लेकर अपनी साहित्यिक प्रतिबद्धता को बचाये रखने के कठिन रास्ते पर चलना होता है। मैंने उन्हें कवि सम्मेलन के मंच से कविता पाठ करते सुना नहीं है, पर वह एक लम्बे अर्से से इस कर्म से निरंतरता के साथ जुड़े हुए हैं। मुझे उनकी प्रकाशनार्थ और प्रकाशित रचनाओं का पाठ करने का अवसर काफी मिला है। उनमें कई रचनाएँ ऐसी भी रही हैं, जिन्हें निश्चित रूप से वह मंच से भी पढ़ते होंगे, सो दोनों स्तरों से उन्हें समझने की कोशिश संभव है।
     एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद उनका कविता संग्रह ‘शब्द की आँख में ज्रगल’ के रूप में सामने आया है। संग्रह के दोनों खण्डों- क्षणिका (सीपियों में अनुभूति) और नई कविता (अभिव्यक्ति के तट पर) की अनेक रचनाएँ पहले से पढ़ी हुई होने के बावजूद संग्रहीत रूप में प्रशान्त जी की रचनात्मकता के सन्दर्भ में एक सार्थक अहसास देती हैं। प्रथम खण्ड की सभी 30 क्षणिकाओं और दूसरे खण्ड की सभी नई कविता में रचित 31 रचनाओं में कवि या तो सामयिक स्थितियों-परिस्थितियों के घेरों को तोड़ने की बेचैनी से जूझ रहा है या फिर सामाजिक सरोकारों के प्रश्नों से। यद्यपि कुछेक क्षणिकाओं में व्यंग्य की धार मौजूद है किन्तु समग्रतः मंच पर व्यंग्य कवि की छवि को संग्रह में चेहरा बनाने सेे बचा गया है, भले इस कोशिश में उनकी कुछ अच्छी व्यंग्य रचनाएँ संग्रह का हिस्सा बनने से रह गई हैं। इस बदले हुए रूप में भी प्रशान्त पाठकों को प्रभावित करने में सफल हैं। सहजता के साथ अपनी बात कहने वाले इस कवि ने क्षणिका की पहचान को रेखांकित करने का काम भी किया है। अनुभवों से जनित अनुभूति में सहजता-सरलता के पुट का एक उदाहरण देखिए- ‘‘सृष्टि के कम्प्यूटर पर/ज़िन्दगी/एक फाइल की तरह है/जो सेव करते-करते/डिलीट हो जाती है’’ और यह भी- ‘‘मेरा मन/जब भी तुम्हें बुलाता है/थका-हारा सम्बोधन/हर बार/लौट आता है।’’
     समकालीन कविता के सामाजिक सरोकार मनुष्य और मनुष्यता से जुड़ी समस्याओं से लेकर उसकी सोच के समाधान की जरूरत पर भी बल देते हैं। इस अर्थ में वह कबीर की अनुगामिनी है। प्रशान्त की इस क्षणिका को उनकी व्यंग्य दृष्टि के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है- ‘‘अब मन्दिर में प्रार्थनाएँ/ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर/हो रही हैं/लोग ईश्वर को/बहरा सिद्ध करने पर तुले हैं।’’ और सामयिक यथार्थ के परिदृश्य पर क्षणिका में कवि की बेचैनी देखिए- ‘‘सभ्यता और नंगापन/क्या अजीब जोड़ी है/संस्कृति/लँगड़ा कर चलती है/विकास ने/उसकी टाँग तोड़ी है।’’ झूठ के शासन में सच के परिणाम की प्रतीक्षा मनुष्य का धैर्य चुका देती है। यह समाज और व्यवस्था- दोनों से जुड़ा प्रश्न है। कवि की व्यंग्य दृष्टि बेचैन हो जाती है- ‘‘सोचता हूँ/अपनी इच्छाओं के घर में/झूठ की खिड़कियाँ लगा दूँ/सच के दरवाज़े/बहुत देर से खुलते हैं।’’
    क्षणिका में प्रशान्त जी की यह सहजता-सरलता स्वभावगत है। ‘नई कविता’ में भी प्रतीकों के प्रयोग और बिम्बों के निर्माण के बावजूद वह अपने स्वभाव से अधिक विचलन नहीं करते। स्थितियों-परिस्थितियों के घेरों को तोड़ने की बेचैनी में भूख, कुण्ठा, घुटन, उत्पीड़न, क्रन्दन, तबाही, टूटन आदि की कविता लिखते हुए भी उनकी सहजता-सरलता अपना रास्ता नहीं छोड़ती। ‘आग’, ‘अभावों के बीच’, ‘सुलगते हुए प्रश्न’, ‘मेरे देश’, ‘अनपेक्षित आशंका’ जैसी कविताओं के ये अंश देखे जा सकते हैं- ‘‘आग/खेतों, मैदानों, रेगिस्तानों को रौंदती/रास्तों की ख़ामोशी को चीरती/अब आ गयी है/इस शहर तक’’ (आग)
     ‘‘उसके जीवन की अनगिनत विडम्बनाएँ/नागफनी बन कर/एक साथ/उसके हृदय को छलनी कर देती हैं/फिर वह/हथौड़े से ईंट को तोड़ते वक़्त/समझ नहीं पाता/कि वह/ईंट को तोड़ रहा है/या/ख़ुद को’’ (अभावों के बीच)
     ‘‘आज हर तरफ आग है/धुआँ है/सुलझे हुए उत्तरों के अभाव में/उलझे हुए/सुलगते प्रश्न हैं’’ (सुलगते हुए प्रश्न)
     ‘‘कितनी सहजता से बदल रहा है/इस देश का भूगोल/बौनी होती सीमाएँ/ख़ून से लथपथ धरा/काँपती नदी/लहलहाती बारूदी फसलें/ऑक्सीजन की जगह साँसों में/जबरन घुसता हुआ डर/और बुत होते हुए लोग’’ (मेरे देश)
      ‘‘सच तो यह है/कि आज-कल/हर बुद्धिजीवी/आदमी से शहर होने का/अभ्यस्त होता जा रहा है/और मेरा सोच/मेरे अन्दर/किसी अनपेक्षित/ख़ौफ़नाक विस्फोट होने की आशंका से/त्रस्त होता जा रहा है’’ (अनपेक्षित आशंका)
    निसन्देह ये सहज सामयिक कविताएँ अपने समय की आवाज को ऊर्जा दे रही हैं। लेकिन ये यथार्थ का एक चेहरा हैं और साहित्य धर्म का एक पायदान। प्रशान्त जी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं इसलिए वह एक साहित्यिक की प्रतिबद्धता को अपने चिंतन, अपने सोच में लेकर चलते हैं। ‘‘इसलिए मैं करता हूँ/बोझिल वातावरण में/जीवंतता की तलाश/झाँक कर देखना चाहता हूँ/अन्दर ही अन्दर सुलगते हुए/शहर की आँखों में निर्माण के सपने/और कुहासों के घरों में/किरणों के बच्चे/पढ़ना चाहता हूँ/भूखे चेहरों की किताब में/तृप्ति का अध्याय’’ (चूँकि मुझे लिखनी है कविता)। कवि धर्म की यह सकारात्मक ऊर्जा ‘तलाश नये सूरज की’, ‘वसीयत: त्रासदी के नाम’ जैसी कविताओं में भी रची हुई है। निसन्देह भयानक चेहरे वाले यथार्थ का सामना करते हुए सकारात्मक चिंतन और सोच को संरक्षित करना एक बड़ा प्रश्न है। कवि की कल्पना तक यथार्थ की गिरफ्त (कल्पना) में आ चुकी हो तो सकारात्मकता के लिए जगह कहाँ ढूँढ़ी जाये! प्रसंगवश हम प्रशान्त जी की इस क्षणिका की ओर लौट सकते हैं- ‘‘दर्द का/स्वयंवर हो रहा है/फिर कोई/गीत जन्म लेगा‘‘। सकारात्मकता के बीज सृजन में अपनी जगह बना ही लेते हैं और सृजन कभी रुकता नहीं। कुछ उपमाओं में ताजगी का अहसास है- ’भाषणों का सुलगता धुआँ’, ‘किरणों की मछलियाँ’, ‘कुहासों के घरों में किरणों के बच्चे’ ‘संकीर्णता के जूते’ आदि। विश्वास है संग्रह प्रशान्त जी की पहचान को और व्यापक करेगा।
शब्द की आँख में जंगल: कविता संग्रह: प्रशान्त उपाध्याय। प्रका.ः विभोर ज्ञानमाला, एल-जी, 1-2, निर्मल हाइट्स मार्केट, मथुरा रोड, आगरा। मूल्य: रु 90/-मात्र। सं.: 2014।

  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र. / मोबाइल : 09458929004

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 07-12,  मार्च-अगस्त  2015  

{आवश्यक नोट-  कृपया संमाचार/गतिविधियों की रिपोर्ट कृति देव 010 या यूनीकोड फोन्ट में टाइप करके वर्ड या पेजमेकर फाइल में या फिर मेल बाक्स में पेस्ट करके ही भेजें; स्केन करके नहीं। केवल फोटो ही स्केन करके भेजें। स्केन रूप में टेक्स्ट सामग्री/समाचार/ रिपोर्ट को स्वीकार करना संभव नहीं है। ऐसी सामग्री को हमारे स्तर पर टाइप करने की व्यवस्था संभव नहीं है। फोटो भेजने से पूर्व उन्हें इस तरह संपादित कर लें कि उनका लोड लगभग 02 एम.बी. का रहे।}  


जगद्गुरु रामानन्दाचार्य जी पर रचा डॉ. अरुण जी ने महाकाव्य


हाल ही में सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं केन्द्रीय साहित्य अकादमी के पूर्व सदस्य डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ जी ने जगद्गुरु रामानन्दाचार्य जी पर केन्द्रित महाकाव्य ‘युग सृष्टा रामानन्द’ का सृजन पूर्ण किया है। महाकाव्य को मंगलाचरण के बाद दस सर्गों में विभक्त किया गया है। जगद्गुरु रामानन्दाचार्य के व्यक्तित्व के साथ समाज को उनके प्रदेय का व्याख्यान इस महाकाव्य में विस्तार से है। समाज सुधार और हर तरह के भेदभाव के खिलाफ उनके आचरण और कर्म-साधना को समझने में यह महाकाव्य
निसन्देह महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। कबीरदास और रैदास जैसे महान शिष्यों के महान गुरु रामानन्दाचार्य जी पर केन्द्रित संभवतः यह पहला महाकाव्य होगा। आशा है यह महाकाव्य शीघ्र ही प्रकाशित होकर सामाजिक भेदभाव और बिडंबनाओं के खिलाफ चलने वाले प्रयासों को सम्बल प्रदान करेगा। (समाचार प्रस्तुति : अविराम समाचार डेस्क)







‘भीतर घाम बाहर छांव’ का लोकार्पण


वरिष्ठ कवि-व्यंग्यकार डॉ.सुरेश अवस्थी की रचनात्मकता पर केन्द्रित पुस्तक ‘भीतर घाम बाहर छांव’ का लोकार्पण विगत 7 जून को कानपुर में साहित्यिक संस्था निमित्त व वी.पी.पब्लिशर्स के तत्वावधान में प.बंगाल के राज्यपाल महामहिम केसरीनाथ त्रिपाठी एवं छत्रपति शाहूजी महाराज वि.वि. के कुलपति प्रो.जे.बी. वैशंपायन ने किया। इस अवसर पर राज्यपाल श्री त्रिपाठी जी ने कहा कि डॉ. अवस्थी का साहित्य कई अर्थों में अनोखा है। उनके शब्दों में व्यंग्य की धार और संवेदना की मार्मिकता दोनों ही प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। समाज का दर्पण से उनके साहित्य संसार को ‘भीतर घाम बाहर छांव’ में समेटने का प्रयास है। डॉ.सुरेश अवस्थी ने बताया कि यह पुस्तक उनकी पिछली पुस्तकों- सब कुछ दिखता है, नो टेंशन, व्यंग्योपैथी, चप्पा-चप्पा चरखा चले, शीत युद्ध, आंधी बरगद और लोग की समीक्षा पर केन्द्रित है। सभी पुस्तकों की भाव समीक्षा सुप्रसिद्ध समालोचक श्याम सुन्दर निगम ने की है। साक्षात्कार चक्रधर शुक्ल एवं रचनाओं का चयन डॉ.संदीप त्रिपाठी ने किया है। कार्यक्रम में साहित्य रचना को प्रख्यात रंगकर्मी साहित्यकार अंबिका वर्मा को समर्पित किया गया। कार्यक्रम में विधायक सलिल विश्नाई, विशिष्ट वक्ता डॉ.वी.एन. सिंह, डॉ.शिवकुमार दीक्षित, डॉ.अंगद सिंह, पंकज दीक्षित, डॉ.मुकेश सिंह, राजेश निगम, सतीश निगम आदि उपस्थिति रहे। (समाचार सौजन्य : चक्रधर शुक्ल)




अंतर्जीवन के व्याख्याता का भावपूर्ण स्मरण


आधुनिक हिंदी साहित्य में मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार के रूप में इलाचंद्र जोशी का नाम प्रमुख है। विभिन्न विधाओं पर गंभीर रचनाएं उनकी हिंदी साहित्य को अमूल्य देन हैं। पात्रों की मानसिक स्थिति का जो सजीव चित्रण उनकी कहानियों और उपन्यासों में मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उक्त विचार प्रो.यासमीन सुल्ताना नकवी ने भाव जगत के कथाकार इलाचंद्र जोशी के जन्मदिन पर केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा व महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संयुक्त तत्वावधान में अल्मोड़ा में आयोजित ‘इलाचंद्र जोशी: स्मृतियाँ एवं प्रासंगिकता’ विषयक दो-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी तथा रचना-पाठ में बतौर मुख्य वक्ता व्यक्त किए। 


        विशिष्ट अतिथि प्रो.नवीन चन्द्र लोहनी ने कहा कि प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में सामाजिक कुरीतियों के बाह्य जगत को उद्घाटित किया परंतु इलाचंद्र जोशी ने व्यक्ति के बाह्य जगत से कहीं अधिक महत्व आंतरिक जगत को दिया है। समीक्षक डॉ.सिद्धेश्वर सिंह ने कहा कि चरित्रों के भाव जगत के सूक्ष्म विश्लेषण में उनके उपन्यास बेजोड़ हैं। उनकी विशेषता थी कि अध्ययनशील होते हुए भी दार्शनिकता का प्रभाव उनकी रचनाओं में
नहीं दिखाई पड़ता जिस कारण वे आम आदमी के अधिक निकट हैं। महादेवी वर्मा सृजन पीठ के निदेशक प्रो.देव सिंह पोखरिया के अनुसार इलाचंद्र जी ने पहाड़ी जीवन पर केन्द्रित अपना एक मात्र उपन्यास ‘ऋतुचक्र’ महादेवी वर्मा के रामगढ़ स्थित घर ‘मीरा कुटीर’ में 1960 में प्रवास के दौरान ही लिखा था। 
         संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए प्रो. शेर सिंह बिष्ट ने कहा कि इलाचंद्र जोशी अपने समय के उन प्रबुद्ध साहित्यकारों में थे जिन्होंने भारतीय एवं विदेशी साहित्य का व्यापक अध्ययन किया था। कार्यक्रम के दूसरे सत्र में कई कथाकारों ने अपनी कहानियों एवं कवियों ने कविताओं का पाठ किया। (समाचार सौजन्य : मोहन सिंह रावत)




डॉ. अरुण जी को स्वयंभू सम्मान


विगत 5 अप्रैल को अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर द्वारा प्रसिद्ध जैन तीर्थ ‘श्री महावीर जी’ में वर्ष 2013 का राष्ट्रीय स्वयंभू सम्मान अखिल भारतीय दिगंबर जैन परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री एन.के. जैन, परिषद के मंत्री श्री महेंद्र कुमार पाटनी एवं अपभ्रंश भाषा और साहित्य के प्रकांड विद्वान डॉ. कमलचंद सोगाणी के कर-कमलों से अपभ्रंश व जैन साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वान व साहित्यकार डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ जी को प्रदान किया गया। सम्मान स्वरूप उन्हें रु. इक्यावन हज़ार रुपए का चैक, प्रशस्ति पत्र, अंगवस्त्र और जैन धर्म का मूल्यवान साहित्य भेंट किया गया। डॉ. अरुण जी को यह सम्मान उनके शोध-विनिबन्ध ‘पुष्पदंत’ के लिए दिया गया है। (समाचार प्रस्तुति : अविराम समाचार डेस्क)



व्यंग्य संग्रह ‘जिंदगी के रंग’ का लोकार्पण

श्री कांतिलाल ठाकरे के व्यंग्य संग्रह ‘ज़िन्दगी के रंग’ का लोकार्पण समारोह विगत दिनों प्रीतमलाल दुआ सभागृह में सृजन संवाद द्वारा संपन्न हुआ। अध्यक्षता करते हुए डॉ.सतीश दुबे ने कहा कि ‘श्री ठाकरे निरंतर लिख रहे हैं। यह उनकी रचनात्मकता की प्रगति के नित नए सोपान हैं।’ डॉ जवाहर चौधरी, श्री कृष्णकांत निलोसे, डॉ.कला जोशी, श्री वेद हिमांशु आदि वक्ताओं ने संग्रह की रचनात्मकता पर प्रकाश डाला। संचालन दीपा व्यास, स्वागत राज केसरवानी तथा आभार प्रदर्शन वेद हिमांशु ने किया। (समाचार प्रस्तुति : वेद हिमांशु)




विश्व पुस्तक मेला दिल्ली में नवगीत पर परिचर्चा

       प्रगति मैदान में संपन्न विश्व पुस्तक मेला 2015 में ‘समाज का प्रतिबिम्ब हैं नवगीत’ विषय पर ओमप्रकाश तिवारी के संचालन में व्यापक परिचर्चा हुई। पुस्तक मेले में पहली बार नवगीत विधा पर केन्द्रित आयोजन में बहार से पधारे तथा स्थानीय रचनाधर्मियों ने उत्साहपूर्वक सहभागिता की। संचालक एवं नवगीतकार ओमप्रकाश तिवारी मुम्बई ने विषय प्रवर्तन करते हुए लगभग 50 वर्ष से लिखे जा रहे किन्तु छन्दहीन कविता जैसी अन्य विधाओं की तुलना में नवगीत की अनदेखी किये जाने पर चिंता व्यक्त करते हुए इस धारणा को निराधार बताया कि छांदस रचनाएं जीवन की समस्याओं का बयान नहीं कर पातीं।
       गीत विधा को भारतीय समाज का अभिन्न अंग बताते हुए नवगीतकार सौरभ पांडे ने नवगीत के औचित्य को प्रतिपादित करते हुए कहा कि गीत अमूर्त-वायवीय तत्त्वों की प्रतीति सरस ढंग से करा पाते हैं, जबकि नवगीत आज के समाज के सुख-दुख को सरसता से सामने लाते हैं।
       चर्चित नवगीतकार-नवगीत समीक्षक आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने आदि मानव के जीवन में गीति के उत्स का इंगित करते हुए नवता युक्त कथ्य, लय, सम्प्रेषणीयता, संक्षिप्तता, चारूत्व, लाक्षणिकता, सामयिकता, छान्दसिकता तथा स्वाभाविकता को नवगीत के तत्व बताते हुए उसे युगाभिव्यक्ति करने में समर्थ बताया।
        वरिष्ठ नवगीतकार राधेश्याम बंधु ने छांदस साहित्य के प्रति दुराग्रही दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए, छन्दहीन साहित्य को नीरस, एकांगी तथा अपूर्ण बताया। उन्होंने छंद युक्त रचनाओं की विशेषता बताते हुए कहा कि जनसामान्य की मनोभावनाएँ गीतों के जरिए ही अभिव्यक्त और अनुभूत की सकती हैं और यह दायित्व आजके नवगीतकार बखूबी निभा रहे हैं।
       चर्चा का समापनकर्ता वरिष्ठ नवगीतकार डॉ. जगदीश व्योम के अनुसार नई कविता जो बात छंदमुक्त होकर कहती है, वही बात लय और शब्द प्रवाह के माध्यम से नवगीत व्यक्त करते हैं। परिसंवाद के पश्चात पुस्तक मेले के साहित्य मंच पर सर्वश्री जगदीश पंकज, योगेंद्र शर्मा, डॉ. राजीव श्रीवास्तव, शरदिंदु मुखर्जी, वेद शर्मा, राजेश श्रीवास्तव, गीता पंडित, महिमाश्री, गीतिका वेदिका आदि नवगीतकारों ने नवगीत के विभिन्न आयामों पर चर्चा कर शंकाओं का समाधान पाया। (समाचार : संजीव वर्मा सलिल)





शब्द प्रवाह साहित्य मंच का सम्मान समारोह संपन्न
शब्द प्रवाह साहित्य मंच ने किया साहित्यकारों को सम्मानित
शब्द प्रवाह एवं तीन पुस्तकों का हुआ विमोचन

      साहित्यिक संस्था शब्द प्रवाह साहित्य मंच उज्जैन द्वारा छठे अखिल भारतीय पुरस्कार एवं सम्मान 22मार्च 2015 रविवार को कालिदास संस्कृत अकादमी में आयोजित भव्य समारोह में प्रदान किए गये। शब्द प्रवाह के संपादक श्री संदीप सृजन एवं डॉ राजेश रावल ने जानकारी देते हुए बताया की आयोजन में विक्रम वि. वि. के पूर्व कुलपति डॉ रामराजेश मिश्र की अध्यक्षता में कुलानुशासक डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा, अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं शोध केंद्र चेन्नई के निदेशक डॉ दिलीप धींग, वरिष्ठ चिकित्सक डॉ सतिंदर कौर सलूजा ने साहित्यकारों को सम्मानित किया।
      आयोजन का मंगलाचरण आचार्य राजेश्वर शास्त्री मुसलगावकर ने किया, सरस्वती वंदना प. अरविंद सनन ने की, स्वागत उद्बोधन शब्द प्रवाह के संपादक संदीप सृजन ने दिया, सम्मानित साहित्यकारों का
परिचय कमलेश व्यास कमल ने दिया, संचालन डॉ सुरेन्द्र मीणा ने किया, आभार डॉ राजेश रावल ने माना।
      आयोजन में साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए श्री परमानंद शर्मा उज्जैन को शब्द साधक सम्मान एवं डॉ इकबाल बशर देवास को सरस्वती सिंह स्मृति सम्मान प्रदान किया जाएगा। साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं पर प्राप्त हुई पुस्तकों में से हिन्दी कविता के क्षेत्र में डॉ.मृदुला झा (मुंगेर, बिहार) की कृति ‘सतरंगी यादों का कारवाँ’, लधुकथा के लिए श्रीमती ज्योति जैन (इंदौर) की कृति ‘बिजूका’ एवं व्यंग्य के लिए श्री सदाशिव कौतुक (इंदौर) की कृति ‘भगवान दिल्ली में’ को प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया।
      इस अवसर पर ‘गजल के तत्व एवं सिद्धांत’ विषय पर डॉ इकबाल बशर का विशेष उद्बोधन हुआ तथा कोमल वाधवानी प्रेरणा की पुस्तक ‘कदम कदम पर’, अशोक शर्मा मृदुल की पुस्तक ‘मृदुल का गुलदस्ता’ व शब्द प्रवाह का विमोचन भी हुआ । (समाचार सौजन्य : संदीप सृजन, संपादक- शब्द प्रवाह, ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन / मो. 09926061800)




रमाकान्त की कृति का लोकार्पण

        रविवार 8 फरवरी 2015 लेखपाल संघ सभागार में रविवार को चर्चित कवि एवं यदि पत्रिका के संपादक रमाकांत की पुस्तक ‘बाजार हंस रहा है’ का विमोचन किया गया। कार्यक्रम का शुभारम्भ मुख्य अतिथि वरिष्ठ गीतकार गुलाब सिंह, अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यकार रामनारायण रमण, अतिविशिष्ट अतिथि आलोचक शिवकुमार शास्त्री एवं विशिष्ट अतिथि
अवनीश सिंह चौहान द्वारा माँ सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्जवलन से हुआ। तदुपरांत वरिष्ठ साहित्यकार दुर्गा शंकर वर्मा दुर्गेश ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत करने के बाद रमाकांत जी के उक्त संग्रह से कुछ गीतों को विश्लेषणात्मक ढंग से श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत किया। कृति पर प्रकाश डालते हुए वरिष्ठ गीतकार गुलाब सिंह ने कहा कि रमाकांत का यह संग्रह नवगीत की विरासत को आगे बढ़ाने में सक्षम है। रमाकांत के गीत समाज को न केवल नया संदेश देते हैं, बल्कि समाज की विसंगतियों को
भी बखूबी उजागर करते हैं। उन्होंने कहा कि बाज़ार हंस रहा है क्योंकि आदमी रो रहा है और जब तक आदमी रोता रहेगा तब तक समाज में अमन और चैन नहीं आ सकता। युवा गीतकार अवनीश सिंह चौहान ने उक्त संग्रह पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि रमाकांत जी रायबरेली में दिनेश सिंह की परंपरा के अकेले कवि
हैं। वह केवल गीत ही नहीं रचते, वरन वह गीत को जीते भी हैं। वह अच्छा लिखते ही नहीं, वरन अच्छा बोलते भी हैं; वह अच्छा सोचते ही नहीं, वरन अच्छा करते भी हैं। यह बात उनकी लेखनी, उनकी वाणी, उनके व्यवहार से स्पष्ट हो जाती है। जहाँ तक उनके इस गीत संग्रह की बात है तो इसमें बाजारवाद की गिरफ़्त में समकालीन जीवन और उसकी जटिलताओं, जड़ताओं और अवसादों का सटीक चित्रण देखने को मिलता है।

       वरिष्ठ आलोचक एवं शिक्षाविद शिवकुमार शास्त्री ने कहा कि पुस्तक न केवल बाजार की विसंगतियों को प्रस्तुत करती है, बल्कि बाजार के तौर तरीकों से भी अवगत कराती है। बाज़ार किस तरह से हमें सम्मोहित करता है और हमें निचोड़ता है इसकी सटीक व्यंजना इस गीत संग्रह में है। सुपरिचित ग़ज़लगो शमशुद्दीन अज़हर ने इस संग्रह की रचनाओं को समाज का आईना मानते हुए कहा कि रमाकांत जी जैसा देखते हैं वैसा ही लिखते हैं। साहित्यसेवी विनोद सिंह गौर ने इस कृति को अपने समय का जरूरी दस्तावेज मानते हुए रमाकांत को शुभकामनायें दीं।
     गीतकार रमाकांत ने अपनी रचना-प्रक्रिया को विस्तार से बतलाते हुए कहा कि उन्होंने अपने आस-पास
जो भी देखा, सुना और समझा है, उसे अपने गीतों में व्यक्त करने का प्रयास किया है। उन्होंने बतलाया कि उनकी ये लयात्मक अभिव्यक्तियां जीवन की सुंदरता के साथ उसकी कलुषता को भी सहज भाषा में प्रस्तुत करती हैं।
      अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में रामनारायण रमण ने रमाकांत के गीतों की भाषा को सहज एवं बोधगम्य बतलाया। उन्होंने कहा कि गीत में भाषा की मुख्य भूमिका होती है, शायद इसीलिये रमाकांत के गीतों की भाषा जन-सामान्य के इर्द-गिर्द घूमती है। साथ ही उनकी यह कृति उनके पारदर्शी व्यक्तित्व को भी उजागर करती है।
     इस अवसर पर आनंद, प्रमोद प्रखर, राधेरमण त्रिपाठी, निशिहर, राममिलन, राजेंद्र यादव, राकेश कुमार, राम कृपाल आदि मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन सुपरिचित कवि जय चक्रवर्ती और आभार अभिव्यक्ति लेखपाल संघ के पूर्व अध्यक्ष हीरालाल यादव ने की।(समाचार सौजन्य : अवनीश सिंह चौहान)





डॉ. यायावर को ‘ब्रजभाषा विभूषण’ सम्मान



साहित्य मण्डल, श्रीनाथद्वारा द्वारा आयोजित पाटोत्सव ब्रजभाषा महोत्सव में डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’ को उनकी ब्रजभाषा और साहित्य सेवाओं के लिए ‘ब्रजभाषा-विभूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। (समाचार सौजन्य :  डॉ.रामसनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’ )






शिलांग में राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मेलन सम्पन्न


पूर्वाेत्तर हिंदी अकादमी के तत्वावधान में दिनांक 5 जून से 7 जून 2015 तक श्री राजस्थान विश्राम भवन, शिलांग में राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मेलन का भव्य आयोजन किया गया। 5 जून को सम्मेलन का उद्घाटन मुख्य अतिथि श्रीमती उर्मि कृष्ण ने अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों एवं गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में दीप प्रज्ज्वलित कर किया। इस सत्र में पूर्वाेत्तर वार्ता,  शुभ तारिका के डा. महाराज कृष्ण जैन विशेषांक, वैश्य परिवार पत्रिका, श्री बिमज की पुस्तक भावाञ्जलि, श्री रण काप्ले के कविता-संग्रह भय, डा.दविन्दर कौर होरा की कविता-संग्रह खिली कलियाँ, डा. बीना रानी गुप्ता की पुस्तक महिला साहित्याकरों का नव-चिंतन, श्रीमती लक्ष्मी रूपल की पुस्तक बंजारे हैं शब्द और श्री प्रवीन विज की पुस्तक घाव आज भी हरे हैं का लोकार्पण मंचस्थ अतिथियों ने किया। इस सत्र के दौरान पाथेय साहित्य कला अकादमी, जबलपुर की ओर से कई विभूतियों को सम्मानित किया गया। शाम को आयोजित काव्य संध्या में अनेक कवियों ने काव्यपाठ किया। 6 जून को प्रथम सत्र में डा. गार्गी शरण मिश्र मराल की अध्यक्षता में ‘पूर्वाेत्तर भारत में हिंदी का प्रचार’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, गुवाहाटी तथा पूर्वाेत्तर हिंदी अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में किया गया। द्वितीय सत्र में देश भर के अनेक साहित्यकारों को सम्मानित किया गया। तीसरे सत्र में सांस्कृतिक संध्या का आयोजन सम्पन्न हुआ। 7जून को सभी लेखकों ने बस द्वारा मतिलांग पार्क, मौसमाई गुफा, थांगखरांग पार्क आदि स्थानों का भ्रमण किया। (समा. सौजन्य : डॉ. अकेला भाइ)




चन्द्रसेन विराट सम्मानित



विगत 19 मई 2015 को भोपाल भोपाल की प्रतिष्ठित साहित्य संस्था दुष्यंत संग्रहालय ने कवि चन्द्रसेन विराट को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए ‘सुदीर्घ साधना सम्मान-2014’ प्रदान किया। उन्हें यह सम्मान राजुरकर राज, एन. लाल, बटुक चन्द्र वैदी, पद्मश्री ज्ञान चतुर्वेदी एवं श्री वाले आदि की उपस्थिति में प्रदान किया गया। (समाचार सौजन्य : चन्द्रसेन विराट)






बाल साहित्य पुरस्कारों हेतु प्रविष्टियाँ आमन्त्रित
राजकुमार जैन ‘राजन’ अकोला द्वारा बाल साहित्य पर कई पुरस्कारों का आयोजन किया जा रहा है। पं. सोहनलाल द्विवेदी बाल साहित्य पुरस्कार हेतु हिन्दी में बाल साहित्य पर किसी भी विधा की पुस्तके विचारार्थ भेजी जा सकती हैं। ‘युवा बाल साहित्यकार सम्मान’ व ‘डॉ.राष्ट्रबन्धु स्मृति वरिष्ठ बाल साहित्यकार सम्मान’ हेतु उपलब्धियों का विवरण तथा ‘चन्द्रसिंह बिरकाली राजस्थानी बाल साहित्य पुरस्कार’ हेतु राजस्थानी बाल साहित्य की कृतियाँ आमंत्रित की गई हैं। निशुल्क प्रविष्टियाँ 20 नवम्बर 2015 तक राजकुमार जैन (मो.09828219919), चित्रा प्रकाशन, अकोला-312205, चित्तौड़गढ़, राज. के पते पर आमंत्रित की गई हैं। (समाचार सौजन्य : राजकुमार जैन ‘राजन’)




उमेश शर्मा को भीलवाड़ा में दोहरा सम्मान




भीलवाड़ा की संस्था ‘साहित्यांचल संस्थान’ ने अष्ठम राष्ट्रीय साहित्यांचल शिखर सम्मान 2015 का सफल आयोजन किया। इस समारोह में देश भर के अनेक साहित्यकारों ने भाग लिया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ.देवेन्द्र नाथ साह, सम्माननीय अतिथि डॉ. हरिश ओझा एवं मुख्य वक्ता श्री ए.वी.सिंह थे। इसी कार्यक्रम में हरिद्वार के युवा कवि उमेश शर्मा को ‘शैलेन्द्र मरमट राष्ट्रीय साहित्यांचल सृजन सम्मान प्रदान किया गया। इसी दिन सामयिकी संस्था के अध्यक्ष श्री श्यामसुन्दर ‘सुमन’ द्वारा उमेश शर्मा को उनके हाइकु संग्रह ‘स्पंदन’ हेतु ‘हाइकु सम्राट सम्मान’ से सम्मानित किया गया। (समाचार सौजन्य : उमेश शर्मा)



   
अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति पुरस्कारों हेतु
हिन्दी में उपन्यास, कहानी, कविता, व्यंग एवं निबन्ध विधाओं की 1 जनवरी 2013 से लेकर 31दिसम्बर 2014 के मध्य प्रकाशित पुस्तकें अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति पुरस्कारों हेतु 30 अक्टूबर 2015 तक श्रीमती राजो किंजल्क, साहित्य सदन, 145-ए, सांईनाथ नगर सी-सेक्टर, कोलार रोड, भोपाल-462042 के पते पर आमंत्रित की गई हैं। विस्तृत जानकारी मो. 09977782777 व ईमेल- jagdishkinjalk@gmail.com  पर ली जा सकती है। (समा. सौजन्य : जगदीश किंजल्क)



                             
राना लिधौरी जबलपुर में सम्मानित



श्री राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ को लघुकथा के क्षेत्र में योगदान के लिए म.प्र. लघुकथाकार परिषद जबलपुर ने रानी दुर्गावती संग्रहालय के सभाकक्ष में ‘लघुकथा गौरव सम्मान’ से सम्मानित किया। डॉ.सुमित्र कर की अध्यक्षता में कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो. हरिशंकर दुवे व विशिष्ट अतिथि राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ थे। डॉ.कुँवर प्रेमिल व डॉ. मोहम्मद मुइनुद्दीन ‘अतहर’ द्वारा संपादित ‘प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ कृति व ‘लघुकथा अभिव्यक्ति’ पत्रिका का विमोचन भी किया गया। इसी बीच राना लिधौरी को अखिल भारतीय बुंदेलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद जिला इकाई टीकमगढ़ का महामंत्री भी बनाया गया है। राना लिधौरी का हाइकु संग्रह ‘नौनी लगे बुंदेली’ बुंदेली का पहला हाइकु संग्रह है। (समाचार सौजन्य : राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी)