आपका परिचय

रविवार, 29 जनवरी 2012

अविराम विस्तारित



अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०५, जनवरी २०१२ 


।।कथा प्रवाह।।  

सामग्री :  भगीरथ परिहारकृष्णलता यादव, ऊषा अग्रवाल ‘पारस’, सीताराम गुप्ता, सत्य शुचि, आकांक्षा यादव एवं नन्दलाल भारती की लघुकथाएं। 


भगीरथ परिहार


क्या मैने ठीक किया ?

   जब मैं पहली बार गर्भवती हुई तो घर में खुशियां छा गई । सास-ससुर, पति के सपने संवरने लगे। मैं अब घर की एक विशिष्ट सदस्य बन गई थी और मेरा खास खयाल रखा जाने लगा। 
    रूटीन चैकअप करते हुए डॉक्टर ने कहा- सब कुछ ठीक है, बच्चे की ग्रोथ सामान्य है। विटामिन, आयरन और कैल्शियम की गोलियां लेने की सलाह दी। पति ने पूछा- सोनोग्राफी का क्या परिणाम रहा डाक्टर साहब। 
   ‘हार्ट ठीक है, रक्त संचार सामान्य है।’
   ‘यह नही, गर्भ में लड़का है या लड़की ?’
   ‘अरे पहली संन्तान है, ईश्वर का आशीर्वाद समझ कर जो भी है उसे स्वीकार कर लो। 
    खुशियों के बीच उनके माथे पर चिन्ता की रेखायें स्पष्ट दिखाई दे रही थी। 
    मैं अभी माँ नहीं बनना चाह रही थी, मैं अपने केरियर पर ध्यान देना चाहती थी। एबोर्शन के फेवर में थी, लेकिन जब जाना कि गर्भ में लड़की है और ये लोग उसे गिरा देना चाहते हैं तो मैंने उसे जन्म देने की ठान ली। अपनी सन्तान को प्रतिपल महसूस करने लगी।     
    ‘अपने प्यार की पहली निशानी है, इसे जन्म लेने दो। दूसरी बार देख लेंगे, तुम कहोगे जैसा करूंगी।’ मैनें हाँ कह दी कि भविष्य का किसे क्या पता! हो सकता है पुत्र ही हो, भविष्य की बात को लेकर वर्तमान क्यों खराब करूँ। मेरे उक्त आश्वासन वे मान गये। 
   पहला प्रसव मेरे मायके में हुआ। वे मुझे और बच्ची को देखने तक नहीं आये, न ही मेरे सास-ससुर आये। मेरे कई बार फोन करने पर वे बेरुखी से आजकल आने का कहते रहे। फिर पिता ने समाज का दबाव बनाया, कानून का डर दिखाया तो वे आये जैसे एहसान किया हो, न बच्ची को दुलारा न मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछा। 
‘चलो घर चलो लेकिन इस बला (बच्ची) को यहीं नाना-नानी के पास छोड़ दे।’  मेरा प्रियतम ऐसा कैसे कह सकता है! आखिर पापा ने एक लाख रूपये की बच्ची के नाम एफ डी. कराई तो लिवा ले गये। 
     जब दूसरी बार गर्भवती हुई तो घर में खुशियाँ मचलने लगी, ज्योतिषी कह गये थे कि इस बार पुत्र जन्म लेगा। पीर-औलिया के पास ले जाया गया। गंडे ताबीज बांधे गये, झाड़ फंूक की गई, हवन, यज्ञ किये नाना प्रकार की पूजाएं की। चौथे माह में चैंकिग हुआ तो घर में भूचाल आ गया कि मैं फिर अपनी कोख में लड़की पाल रही हँू। 
    इसकी मॉं ने एक छोरा नहीं जना यह कहाँ से जनेगी। छोरियां जन-जन कर घर बरबाद करेगी। गाली गलौज होने लगी। पग-पग पर अपमान। मार-पीट भी होने लगी। विशाल समझाने लगे ‘तूने कहा था कि अगली बार देख लेंगे, तो अब समय आ गया है एबोर्शन करा लो और इस जिल्लत से बचो। 
रेखांकन : नरेश उदास 
    ‘विशाल ये नहीं माने तो इसे इसके घर पर छोड़ दे, अब हमारा इससे कोई लेना-देना नहीं। बहुत पड़ी हैं छोरियाँ।
    ‘नहीं मैं अपनी बच्ची को नहीं मारूंगी।’
     उनका एक झन्नाटेदार हाथ मेरे गाल पर पड़ा। 
    मैं सुबकती-सुबकती बच्ची को लेकर माँ-बाबूजी के पास आ गई। मैंने अपनी बच्ची को तो बचा लिया लेकिन क्या यह मैने ठीक किया ?
    लोग कहते हैं कि मैने स्वयं अपने व बच्चों के लिए नरक रचा है । 
    मैं मानसिक तौर पर टूट चुकी हूँ न अब मुझे केरियर की ंिचंता है न बच्चों की। बच्चे हमेशा डरे-सहमे रहते हैं। 
    विशाल ने दूसरी शादी कर ली हैं। 
    कोर्ट कचहरी हुई, गिरफतारियाँ भी हुईं। 
    2700 रू. की भरण पोषण राशि वो भी नियमित नहीं मिलती, उसकी वसूली के लिए, नानी याद आ जाये। 
    क्या मैंने ठीक किया ? आप ही बतायें। 
  •     228, नयाबाजार कालोनी रावतभाटा, राजस्थान पिन- 323307


कृष्णलता यादव



आशावादिता
   महतो बढ़ई तन्मयता से काम में जुटा था। उसके पास बैठा हुआ रमाशंकर उसके हाथ की कलाकारी को गौर से देख रहा था। थोड़ी देर बाद वह बोला- ‘मिस्त्री जी, आजकल लकड़ी का काम कम हो रहा है, जहां देखो प्लास्टिक और स्टैनलैस स्टील की घुसपैठ हो रही है। अगर सिलसिला यूं ही चलता रहा तो आपकी आने वाली पीढ़ियों के धंधे का क्या होगा?’
दृश्य छाया चित्र : डॉ.उमेश महादोषी 
   महतो मुस्कराकर बोला, ‘मेरा मन तो कहता है कि जब तक धरती रहेगी, पेड़-पौधे भी रहेंगे।’
   ‘बात तुम्हारी ठीक है, लेकिन पेड़-पौधों को उगने के लिए जगह कहां मिलेगी? कल-कारखाने और बहुमंजिली इमारतें जमीन को निगलते जा रहे हैं।’
   इस बार महतो खिलखिलाया, ‘मां कुदरत की गोद सदा हरी रहा करती है। अपने ठीक सामने देखिए, दीवार के बीच में उगे उस नन्हें पीपल के पेड़ को।’
   रमाशंकर वाह! वाह! कर उठा।
  • 1746, सैक्टर 10ए, गुडगांव-122001 (हरियाणा)


ऊषा अग्रवाल ‘पारस’



लक्ष्मी के रूप

   बाहर के नल से पानी की गगरी कंधे पर उठाए बहू ने अंदर प्रवेश करते समय सामने पड़ी झाड़ू को, गिरने से बचने के लिए, पैर से हटाया। तभी सामने दीवान पर बैठकर चाय पी रहे सास और पति की नजरें उसकी ओर उठीं। सास डपटती हुई बोली- ‘झाड़ू को लात लगाती है, बहू! तुझे इतनी भी अक्ल नहीं, वह घर की लक्ष्मी होती है।’
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
   तभी बहू का हाथ अपनी कमर पर चला गया, जिस पर कल रात छोटी सी बात पर नाराज हो पति ने अनगिनत लात चलाई थी। बाजू के कमरे में सो रही सास की नींद उसकी चीख और सिसकी सुनकर भी नहीं खुली थी, ना ही सुबह उसने उसकी सूजी आँखों का कारण पूछा था। 
   वह सोचने लगी, ‘एक निर्जीव वस्तु, जो सफाई के काम आती है, वह लक्ष्मी का रूप है। पर एक सजीव इन्सान, जो स्वयं एक गृह-लक्ष्मी है, क्या वह एक झाड़ू से भी तुच्छ है!’
   अचानक उसकी कमर का दर्द और कंधे पर रखी गगरी का बोझ, दोनों बढ़ गये थे।
  • मृणमयी अपार्टमेन्ट, 108 बी/1, खरे टाउन, धरमपेठ, नागपुर-440010 (महा.)

सीताराम गुप्ता



एक क़सम और

  हर्ष की राजकुमार जी के यहाँ जाने की कोई इच्छा नहीं होती,  फिर भी भाई का ख़याल करके वह चला जाता है; क्योंकि हर्ष अपने भाई को दुखी नहीं करना चाहता। रामकुमार जी के यहाँ न जाने पर भाई को दुख होगा यही सोचकर हर्ष राजकुमार जी के यहाँ हर फंक्शन में सम्मिलित होने का प्रयास करता है और हर बार अगली बार न जाने का प्रण करके भी अंततोगत्वा पहुँच ही जाता है। भाई सब जानता है लेकिन पूछता है कि क्या किसी के यहाँ केवल खाना खाने ही जाया जाता है? अथवा क्या तुम स्वयं में इतने कमज़ोर हो कि कोई भी कहीं भी, तुम्हारी प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला देगा? भाई के तर्क अकाट्य होते हैं और सही भी इसलिए हर्ष हर बार चुपचाप रामकुमार जी के यहाँ पहुँच जाता है।
इस बार घर में ही एक कार्यक्रम रखा था रामकुमार जी ने। कार्यक्रम छोटा था या बड़ा नहीं कहा जा सकता, पर न बैठने की जगह थी और न खड़े होने की ही। जगह कम थी और लोग ज़्यादा। कुछ लोग छत पर चले गए थे और हलवाई की कारीगरी के नमूने देखने में व्यस्त हो गए थे तो बहुत सारे लोग गली में ही दूर-दूर तक फैल गए थे। गरमी और उमस के मारे बुरा हाल था सभी का। हर्ष दूर भागता है ऐसे माहौल से। खाना शुरु हुआ। गिद्धभोज की सी स्थिति थी। हर्ष ने किसी तरह जल्दी-जल्दी तथाकथित दाल-मखानी के साथ सूखे चमड़े सा कच्चा-पक्का, आधा सफेद और आधा कोयले सा काला एक नान तथा एक गुलाबजामुन जिसकी मिठास उसके खट्टेपन के कारण दब गई थी, हलक़ से नीचे उतार लिए और रामकुमार जी से इजाज़त माँगी।
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 
हर्ष को देखते ही रामकुमार जी के माथे पर बल पड़ गए। हर्ष की बात को अनसुनी करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘कुछ खाना-वाना लिया भी या नहीं? वैसे आपका आना न आना बराबर है। सबसे बाद में आओगे और सबसे पहले भागने की कोशिश करोगे। ये नहीं चलेगा। अरे! कुछ देर तो बैठो।’’ हर्ष का एक पल भी रुकने का मन नहीं था लेकिन इसके बावजूद वह रामकुमार जी की बात को रखने के लिए बैठने का स्थान ढूँढ़ने लगा। उसे पता था कि पाँच मिनट भी नहीं बैठना है, फिर भी एक सोफे पर जहाँ पहले ही तीन लोग फँसे बैठे थे। हर्ष किसी तरह उन्हीं के बीच जगह बनाने का प्रयास कर ही रहा था कि रामकुमार जी ने कहा, ‘‘हर्ष जी यदि नहीं रुकना चाहते तो कोई बात नहीं लेकिन एक काम करो। कम से कम बच्चों के लिए खाना लेते जाओ।’’
हर्ष, जो किसी तरह सोफे पर बैठने ही वाला था, ऐसी अवस्था में था जहाँ से बैठा तो जा सकता था पर वापस खड़ा होना बहुत मुश्किल होता, फौरन किसी तरह सीधा खड़ा हो गया। हर्ष ने खाना ले जाने से साफ मना कर दिया लेकिन रामकुमार जी नहीं माने और खाना पैक करवाने चले गए। हर्ष बेवकूफों की तरह दरवाज़े के बाहर खड़ा था और आते-जाते लोग प्रश्नसूचक निगाहों से उसे घूर रहे थे। काफी देर बाद रामकुमार जी की पुत्र-वधू  बरतन माँजने वाली बाई के साथ आती दिखलाई पड़ी, जिसके हाथों में एक पॉलिथीन की पारदर्शी थैली में झिलमिलाती लज़ीज़ दाल-मखानी थी तथा एक पुराने से पीले रंग के अख़बार में आधे लिपटे आधे बाहर झाँकते तीन श्वेत-श्याम वर्णी यिन-यांग रूपी नान। रामकुमार जी की पुत्रवधु ने ये सारे व्यंजन कामवाली बाई से लेकर हर्ष को संभलवा दिये।
हर्ष ने एक बार फिर क़सम खाई कि वह रामकुमार जी के यहाँ फिर कभी नहीं आएगा।
  • ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा, दिल्ली-110034


सत्य शुचि



बच्चों की फीस   

   शीतकालीन अवकाश में बच्चों सहित मीरा अपने पीहर में थी, और आज उसके लौटने का दिवस था।
   ....मीरा सब बहनों में छोटी और उनकी लाड़ली भी! एक मीरा ही बाहर थी, जबकि सारी की सारी बहनों का स्थानीय वास-निवास था, ऐसे में चलते समय उसे आय-आमदनी भी कम नहीं हुई थी, चूँकि आजकल नेगचार में कपड़े-लत्तों चलन कम ही होता जा रहा है।
   ‘‘...कैसी बीती छुट्टियां!’’ जिज्ञासावश वह पत्नी को निहारने लगा।
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 
   ‘‘एकदम बढ़ियाँ...!’’ पत्नी मंद-मंछ मुस्करा उठी, ‘‘आपको वहाँ सभी याद कर रह थे...’’
   ‘‘क्यूँ नहीं करेंगे....! आखिर, उस घर का दामाद हूँ।’’ उसने न चलने का रहस्य एक झटके में खोला, ‘‘तुम्हारे जाने से सात दिनों का यहाँ घर में दाना-पानी तो बचा ही है.... वरना अपनी इस ठेके पर कपड़ों की सिलाई में कितना-क्या मिलता-बचता है?’’
   ‘‘हाँ-हाँ...! यही बात समझते हुए मैंने नेगचार नकद ही....’’
   ‘‘यह तुमने गलत नहीं किया! ... अब इसे जुलाई के वास्ते संभालकर रखना।’’
   ‘‘क्या नेगचार की राशि कुछ महीने कहीं ब्याज पर डाल दें तो....’’
   ‘‘हाँ, मैं तुम्हारे विचार से अलग नहीं हूँ... मंजूर है मुझे भी।’’
   और थोड़ी देर में ही काम निपटाकर वह उठा और खुशमिजाजी में गेट से निकलते-निकलते वह बुदबुदाया, ‘‘आज वास्तव में उसका यह दिन बेहद सुखद-बेमिसाल है!’’
  •  साकेत नगर, ब्यावर-305901 (राजस्थान) 


आकांक्षा यादव



बेटियाँ

   अपनी जवानी के दिनों में कुलवंत सिंह ने बेटों को कोई तकल्ीफ नहीं होने दी। उनकी हर फरमाइश पूरी की। उनके दो बेटे थे। पड़ोसियों और रिश्तेदारों से बहुत गर्व के साथ हिते कि जरूर पिछले जन्म में कुछ अच्छे काम किए थे कि ईश्वर ने उन्हें दो-दो बेटे दिए।
   वह बार-बार अपने पड़ोसी राधेश्याम को सुनाते रहते, जिनके पास तीन लड़कियां थीं। वक्त बीतने के साथ कुलवन्त सिंह के दानों बेटे अच्छी नौकरी पाकर विदेश में सेटल हो गए, वहीं राधेश्याम ने तीनों बेटियों की शादी कर मानों ग्रगा नहा लिया हो।
रेखांकन : बी. मोहन नेगी 
   इस बीच कुलवंत सिंह की तबियत बिगड़ी तो अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। उनकी पत्नी अकेले अस्पताल में पड़ी रहीं, पर बुढ़ापे में कितना दौड़तीं। कुछ दिन बाद कुलवंत सिंह का हाल -चसल लेने राधेश्याम अस्पताल पहुँचे तो साथ में बेटी भी थी।
   ... अरे! आपके बेटे नहीं दिख रहे? सब ठीक-ठाक तो है न?
   .... बेटों को संदेश तो भेजा था, पर छुट्टी न मिलने की समस्या बताकर उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। अकेले कितनी भाग-दौड़ करूँ?
  ’.... हम हैं न आंटीजी, आप चिंता मत कीजिए। दवाओं के लाने से लेकर फल व खाना लाने तक का जिम्मा मेरा।’ यह राधेश्याम की बेटी की आवाज थी।
   मुझे माफ कर देना राधेश्याम। बेटियाँ तो बेटों से भी बढ़कर हैं।.... इतना कहकर बीमार कुलवंत सिंह फफक-फफक कर रो पड़े थे।
  • टाइप 5, ऑफिसर्स बंगला, हैडो, पोर्टब्लेयर-744102 (अंड.-निको. द्वीप समूह)

नन्दलाल भारती



बदनामी का पट्टा

   छबीला बाबू क्या हाल है?
   कहां से आ रहे हो भाई। कभी-कभी हमारी गली भी आ जाया करो।
   यार तुमने याद किया, मैं आ गया मिठाई खाने।
   कैसी मिठाई यार। मिठाई तो बनती है प्रमोशन की। बड़े बाबू पार्टी करते, पर क्या करें।
   क्या करें का मतलब....?
   बेचारे फेल कर दिये गये।
   क्यों...........?
   येग्यता नहीं है।
   कैसी योग्सता चाहिए तुम्हारे दफ्तर में माणकलाल से ज्यादा पढ़ा और सम्मान प्राप्त है क्या कोई?
रेखांकन : सिद्धेश्वर 
   नहीं ना सर जी। पर दूसरी योग्यतायें नहीं हैं। हमारे विभाग में मुख्य ये प्वाइण्ट देखे जाते हैं- गाडफादर का हाथ है कि नहीं, जातीय श्रेष्ठता और सिर पर जूता लेकर चलने की क्षमता यानि चमचागीरी और ये सब माणकबाबू में हैं नहीं। एक तो करेला, दूसरे नीम की डाल। एक तो एस.सी. दूसरे अत्यधिक शैक्षणिक योग्यता। कैसे प्रमोशन होगा।
   अच्छा तो चमड़े के सिक्कों का चलन है इस विभाग में।
   जी.....तभी तो योग्यता दम तोड़ रहा है।
   योग्यता कभी नहीं दम तोड़ सकती छबीला बाबू।
   श्रेष्ठता के मद में चूर प्रबन्धन ने माणक के साथ नाइंसाफी कर खुद के गले में बदनामी का पट्टा डाल लिया है।
  • आजाददीप, 15-एम, वीणा नगर, इन्दौर (म.प्र.)

अविराम विस्तारित



अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०५, जनवरी २०१२  


।।कथा कहानी।।

सामग्री :
 कमलेश भारतीय की कहानी-मैंने नाम बदल लिया है



कमलेश भारतीय


मैंने नाम बदल लिया है

      कहते हैं कि ट्रांसफर होने वाले अपने मुकाम पर बाद में पहुँचते हैं, पर उनसे पहले उनके बारे में अच्छी-बुरी बातें हवा में तैरती हुई पहुँच चुकी होती हैं। जी हां, रमिन्दर के साथ भी बिल्कुल ऐसा ही हुआ था, आप शायद जानते नहीं, मैं रमिन्दर सिद्धू की बात कर रहा हूँ। अब याद आयी अपको- लंबी कद-काठी वाली, गोरी-गोरी-सी, बड़ी-बड़ी आंखों वाली रमिंदर की?
   वह हमारे स्कूल में ट्रांसफर होकर आने वाली थी कि स्कूल में उसके बारे में बतकहियां शुरू हो चुकी थीं और उसके बारे में चटखारे ले-लेकर किस्से सुनाये जा रहे थे, उन्हीं दंतकथाओं में ही यह बात सामने आयी थी कि उसका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं है, इसलिए वह अपने बेटे रिक्कू के साथ, अकेली जीवन-संघर्ष में एक-एक कदम रख रही है।
   यों, मुझे मुख्यालय में ही एक बुजुर्ग कर्मचारी ने सब कुछ बताते हुए हाथ जोड़कर विनीत भाव से कहा था, आपके स्कूल में रमिंदर को भेज रहे हैं, उसके जीवन में पहले ही ज़हर घुला हुआ है, ज़रा उसे आराम से दिन गुजारने देना, मैं उसे अपनी बेटी की तरह समझता हूं।
   असल में मैं परिस्थितियों के बहाव में स्कूल का एकछत्र नेता बन चुका था और मेरे संघर्ष के कारण प्राचार्य को त्यागपत्र देकर भाग जाने के सिवा दूसरा विकल्प नज़र नहीं आया था। इसी कारण मुख्यालय में मेरा नाम एक हौवा बन चुका था। खैर, यह किस्सा फिर कभी, मैं तो आपको रमिंदर के बारे में बता रहा था न।
   उस बुजुर्ग कर्मचारी की हाथ जोड़कर विनती करने वाली मुद्रा से मैं अंदर तक भीग गया और उसी समय उनके हाथों को अपने हाथों में लेकर मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि रमिंदर को मुझसे शिकायत का मौका नहीं मिलेगा। आप उसे बेफिक्र होकर हमारे स्कूल में भेजिए, यहां उसे कोई तकलीफ नहीं होगी। मेरे आश्वासन से उस बुजुर्ग कर्मचारी की आंखों में संतोष साफ-साफ चमकने लगा था।
    कुछ इस तरह के माहौल में रमिंदर ने स्कूल में ड्यूटी ज्वाइन की। साथ में उसका बेटा रिक्कू और उसकी शरारतें भी पहुंची। रमिंदर के चाचा-चाची उसका सामान छोड़ गये। इस तरह नयी जगह पर अपने अतीत से पिंड छुड़ाने की कोशिश शुरू की रमिंदर ने।
   नया माहौल, नये चेहरों के बीच रमिंदर अतीत के काले साये भूलकर हंसने की कोशिश करने लगी। शुरूआती दिनों में स्कूल की अध्यापिकाओं ने उसे सिर-आंखों पर लिया। उनके साथ खूब बनने और छनने लगी। स्टाफ-रूम में उसकी हंसी गंूजती रहती, स्वैटरों की नयी-नयी बुनतियां भी उसे खुशी-खुशी मिल जातीं।
   उसका कभी-कभी बेटे के कारण मन परेशान हो उठता। रिक्कू अपने इकलौते होने का पूरा फायदा उठाता। वह प्राचार्य कार्यालय में बेखटके घुसकर घंटी बजा देता। चपरासी दौड़े आते तो सबको दांत निकालकर दिखा देता। जब उसका मन आता, वह मर्जी से पीरियड की घंटी बजा देता। ऐसे में सब कुछ गड़बड़ हो जाता, रमिंदर उसकी ऐसी शरारतों से तंग आकर रोने लगती और रिक्कू अपने बाल-सुलभ ढंग से मम्मी के गले में बांहे डालकर उसे मनाने लगता और अध्यापिकाएं कहतीं- धन्य है बेचारी। ऐसे बेटे के साथ जीवन काटने की सोच रही है।
   बुजुर्ग कर्मचारी को दिये गये वादे के कारण बीच-बीच में उसकी छोटी-छोटी समस्यायें हल करने में मैं उसकी मदद करता। मसलन- उसके बेटे को उसकी पसंद के अच्छे स्कूल में भर्ती करवाया। नंबर बुक न होने पर के बावजूद गैस-सिलेन्डर भरवा दिया और उस गांव से शहर के बस-स्टैंड पर मां-बेटे को छोड़ आया।
   अक्सर रिक्कू मेरी मोटरसाइकिल देखकर मचल उठता। पहले-पहले रमिंदर ने रिक्कू को अकेले ही बिठाते हुए कहा- ‘सर! इसे जरा घुमा दीजिए। पर एक बार रिक्कू अड़ गया कि मम्मी के बिना नहीं बैठेगा। जिद्द के आगे रमिंदर को झुकना पड़ा। लेकिन उसकी झिझक मुझसे छिपी न रही, इस तरह जैसे चोरी करती हुई पकड़ी गयी हो। रमिंदर ने झेंपकर कहा- सर, छोटा सा गांव है। किसी के मुंह पर हम लगाम नहीं दे सकते न। बट...अ...अ...रिक्कू की जिद्द ठहरी और मेरी जान की मुसीबत।
   बात-बात में रमिंदर द्वारा इस तरह बट...अ... पर लाकर बात को अधूरे लेकिन दिलचस्प, साथ ही गहरे मोड़ पर लाकर छोड़ देना बड़ा भला लगता, जैसे वह अक्सर कहती- ‘सर। आपके बारे में जितना कुछ सुना था, उससे सच पूछो तो आपकी छवि एक बहुत बुरे आदमी के रूप में यानि खलनायक की छवि उभरती थी। बट...अ....आप तो...’ इतना कहते ही उसके गालों पर हंसी के साथ डिंपल दिखायी देने लगते और मैं सोचने लगता- आखिर इसका वैवाहिक जीवन क्यों बिखर गया?
   कभी-कभी मन में आता कि उसके मुंह से उसकी राम-कहानी सुनूं, पर उसी के लहजे में बट...अ... मैं उसकी हंसी नहीं छीनना चाहता था। यह जानते हुए भी कि यह हंसी दिखावे की हंसी है। दिन की हंसी है....रात के अंधेरे एकांत में वह अपने अतीत को लेकर आंसू बहाती होगी और निर्जन जंगल से घनघोर एकांत वाले भयावह वर्तमान को देखकर सहम जाती होगी...ऐसे में अपने जीवन के एकमात्र सहारे रिक्कू की हर जिद्द के आगे नतमस्तक हो जाती थी।
    मुझे अच्छी तरह याद है कि जिद्द के सामने पूरी तरह घुटने टेकते हुए उसने न चाहते हुए भी रिक्कू का जन्मदिन मनाया था। रिक्कू मचल उठा था- धूमधाम से अपना जन्मदिन मनाने के लिए और रमिंदर कहीं अतीत में डूब गयी थी... जब उसका जन्म हुआ होगा.... जब पिता ने प्यार से उसे गोद में उठाकर माथा चूमा होगा और खुद रमिंदर विजय की पुलक महसूस करते-करते नजरें मिलते ही शरमा गयी होगी... उसके गालों पर ‘डिंपल’ बन गये होंगे.... बट...अ.... वह तो अतीत का कोई एक सुनहरा, खुशनुमा दिन.... अब तो उसके सामने अंधकारमय जीवन था। 
   रिक्कू के सामने पूरी तरह हारते हुए रमिंदर ने जन्मदिन मनाने की घोषणा की थी। कुछेक अध्यापिकाओं को उसने आमंत्रित भी किया। मुझे भी और अपने उन चचा-चाची को भी जो उसे ज्वाइन करवाने आये थे। चाचा कैमरे में रंगीन रील डाल आये थे। रमिंदर ने केक बनवा लिया था। उस दिन चाचा ने जब रिक्कू के हाथ में छुरी पकड़ाकर ‘केक’ काटने में मदद की थी, तब कहीं अलमारी में बंद एलबम की कोई फोटो उसकी आंखों के आगे साकार हो उठी थी। जब रिक्कू के पिता ने पहले जन्मदिन पर केक कटवाया था। हो-हल्ले में ‘हैप्पी बर्थडे’ के बीच शराब की बोतल खुल गयी थी और यहीं से शुरूआत हुई थी बिखराव की।
  
    जन्मदिन की महफिल खत्म होने पर जब मैं रमिंदर से विदा लेने गया तो उसने नम आंखों से फुसफुसाते हुए कहा था- बेटे की खुशी के लिए आपको तकलीफ दी....
   ‘और मां की खुशी?’
   ‘नहीं, नहीं, सर... मां तो बेटे की खुशी में ही खुश है।’
   ‘मां बनने से पहले वह रमिंदर भी तो है?’
   ‘बट....अ....सर....वह तो रिक्कू के लिए मर गयी।’
   ‘नहीं, झूठ कहती हो....रमिंदर को तुमने मन के किसी कोने में कै़द कर रखा है, जिस दिन उसने विद्रोह कर दिया तब देखना...’
   ‘उस दिन की देखी जायेगी, सर।
   और वह खिलखिला उठी, चांदनी में उसके ‘डिंपल’ और भी चमक उठे थे।
   समय गुजरता गया। समय के साथ-साथ चीजें भी बदलती गयीं। रमिंदर का चयन किसी सरकारी स्कूल में हो गया और वह अपनी अधूरी व्यथा-कथा समेटकर चुपचाप चली गयी। संयोग यह रहा कि मैं भी किसी समाचार पत्र के संपादकीय विभाग में चुन लिये जाने पर अध्यापन क्षेत्र को अलविदा कहकर नये क्षेत्र में चला गया।
   नया क्षेत्र, नयी जगह, नये काम में कभी-कभी पुराने क्षेत्र, पुरानी जगह, पुराने काम के सहकर्मियों की याद आ ही जाती, उनमें रमिंदर का चेहरा भी उभर आता....बट...अ....सामने तो बेकार-सी खबरें घूमती रहतीं या टेलीप्रिंटर चलते रहते....कभी कोई बच्चा मोटरसाइकिल पर घुमाने की जिद्द करता तो रिक्कू की शरारतें याद हो जातीं।
रेखांकन : सिद्धेश्वर  
   एक दिन कार्यालय में बैठा खबरों की मरम्मत कर रहा था कि रिसेप्शन से फोन आया कि कोई मिसेज ग्रेवाल मिलने आयी हैं।
   ‘मिसेज ग्रेवाल? कौन मिसेज ग्रेवाल?’
   ‘लीजिए, फोन पर आप ही पूछ लीजिए।’
   ‘हैलो? कौन मिसेज ग्रेवाल?’
   ‘सर। आपने मुझे पहचाना नहीं न!’  
   ‘बट....अ...पहचानते भी कैसे? मैं रमिंदर हूं....रमिंदर कौर सिद्धू....अब तो पहचान गये न।’
   ‘हां ऐसा करो, रिसेप्सन पर मेरा इंतजार करो, मैं वहीं आता हूं.....’
   
   रिसेप्सन पर रमिंदर को देखते ही मैं हैरान रह गया। मेरी हैरानी भांपते हुए रमिंदर ने ही शुरूआत की, सर। ऐसे क्या देख रहे हैं? मैंने दूसरी शादी कर ली है, इसलिए आप मिसेज ग्रेवाल को पहचान नहीं पा रहे हैं।
   ‘क्यों? कब?’
   मेरे मुंह से अचानक ये शब्द उछलकर उसकी ओर जा गिरे- किसी घायल पक्षी के टूटे पंखों की तरह।
   ‘सर। किसी औरत को, खासकर अकेली औरत को मर्द तो जी लेने देते हैं बट...अ...औरतें ही उसका जीना दुश्वार कर देती हैं।’
   ‘मैं समझा नहीं।’
   ‘सर। जब तक आपके स्कूल में रही, तब तक आपने एक बार भी मेरे अतीत में नहीं झांका, पर....साथी अध्यापिकाओं ने मेरे सारे गड़े मुर्दे उखाड़ डाले। ताना दिया कि इतनी ही धुली और पाक-साफ होती तो पति के घर न होती। अब पाक-साफ होने का यह कौन-सा पैमाना हुआ? खुद कृष्णा और चरणजीत ब्याहता और पतियों के साथ रहते भी बाहर क्या गुल नहीं खिलाती थीं। अब, आप ही बताइए सर कि एक पढ़ी-लिखी औरत किसी जानवर जैसे आदमी के साथ, हर जुल्म बर्दाश्त करते हुए ज़िंदगी गुजार दे। ज़िंदगी बर्बाद कर दे, यह कैसे हो सकता है? बस, सर। चुभ कर रह गयीं पाक-साफ होने की खोखली परिभाषाएं। मैं तो अपनी ज़िंदगी रिक्कू के नाम अर्पित कर चुकी थी। पर इस समंदर में अकेली औरत जीवन की नाव खे ले जाये....मुश्किल है...हर कहीं घूरती आंखें....थपेड़े...बस, व्यंग्य-वाणों से आहत होकर दूसरी शादी करने का फैसला ले लिया...आप भी तो....’
   ‘और रिक्कू? रिक्कू कैसा महसूस कर रहा है?’
   ‘रिक्कू मुझसे अलग कहां है? धीरे-धीरे समझ जायेगा, अपनी मां की तरह ज़िंदगी को, ज़िंदगी की ठोकरों को...फिर आप ही तो कहते थे कि मैंने रमिंदर को कैद कर रखा है...आखिर उसने विद्रोह कर ही दिया.....अब तो आपको मेरे फैसले से खुश होना चाहिए....नहीं?’
     इसके आगे उसका गला रुंध गया.....वह सिसक रही थी....पता नहीं अपने अतीत को लेकर या वर्तमान को लेकर।
     कुछ देर बाद संयत होते हुए बोली, ‘माफ कीजिएगा, सर। आपको अपनी राम-कहानी सुनाकर बोर किया, आज तक आपने मेरे छोटे-बड़े अनेक काम किये हैं। एक तकलीफ आपको और देने आयी हूं, शादी के बाद मैं रमिंदर कौर ग्रेवाल बन गयी हूं और संबंधित लोग मुझे इसी नाम से पुकारें...बस इसी नाम परिवर्तन और सूचना को आपके अख्बार में निकलवाना चाहती हूं। मेरा यह काम कर देंगे न सर?’
   मैंने उसके सारे विवरण नोट कर लिये और उसे शुभकामनाएं देते हुए कहा, ‘रमिंदर इसके बाद तुम्हें किसी और नाम को बदलने की जरूरत न पड़े।’
  • उपाध्यक्ष: हरि. ग्रन्थ अकादमी, अकादमी भवन, पी-16, सैक्टर-14, पंचकुला-134113, हरियाणा

अविराम विस्तारित


अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०५, जनवरी २०१२ 

।।हाइकु।।

सामग्री : केशव शरण एवं मिली शर्मा के हाइकु ।


केशव शरण


आठ हाइकु
1.
गंध पा गये
फूलों का रस लेने
भौंरे आ गये
2.
मिसाइल का
निशाना महल था
नष्ट नीड़ है
3.
चोट से ज्यादा
मरहम पट्टी से 
रो रहा बच्चा
4.
फड़क उठी 
   
दृश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी 
बरगद की जटा
छाते ही घटा
5.
कैसे संभाले
धीरे-गंभीर नदी
उद्दंड नाले
6.
पूरा करेगी
पेड़-पेड़ की इच्छा
कैसे ये लता
7.
आया न चांद
गिन-गिन के तारे
मैं सो गया हूँ
8.
जला है दिल
छंटते-छंटते ही
छंटेगा धुआं
  • एस-2/564, सिकरौल, वाराणसी कैन्ट, वाराणसी-2 (उ0प्र0)

मिली शर्मा

चार हाइकु
1. 
चहचहाट
दृश्य छाया चित्र : रोहित कम्बोज 
शहर में गौरैया
नहीं गुंजाती
2. 
नर्मदा नदी
साधनाओं की नदी
पूजती सदी
3. 
नीम कटाया
आवरण बिगाड़ा
बजा नगाड़ा
4. 
दण्डकारण्य
सागौन एवं साल
है मालामाल।
  • ९२ / ७७, राजकिशोर नगर, बिलासपुर, छत्तीसगढ़

अविराम विस्तारित




अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : १, अंक : ०५, जनवरी २०१२ 


।।जनक छन्द।।

सामग्री : डा. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’, पं. गिरिमोहन गिरि ‘गुरु’ व अनामिका शाक्य के जनक छंद। 

डा. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’


पांच जनक छंद
1. 
ढूंढ़ें कैसे ठौर अब?
अधकचरे अँग्रेज हम
दिखे और का और सब
2.
फबा आम सिर बौर है
फागुन की छवि देखिये
रूप और का और है
3.
सदा साथ में धर्म है
जीभा पर जब राम है
और हाथ में कर्म है
4.
दृश्य छाया चित्र : डॉ. उमेश महादोषी 
पत्थर पर्वत से कटे
आग बने आ नगर में
पर्वत के सोते घटे
5.
कण-कण में कल्याण है
किन्तु स्वयम् जो बँध रहा 
उसे कहाँ निर्वाण है!
  • बी-2-बी-34, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058
:

पं. गिरिमोहन गिरि ‘गुरु’


पांच जनक छन्द
1.
सिर्फ देखता ही रहा
शब्द सभी पथरा गये
मुस्कानों ने सब कहा
2.
क्या ही बढ़िया सीन है
नेता के घर मौज है
शेष प्रजा गमगीन है
3.
समय सरकता जा रहा
लेकिन यह मन आज भी
तुझसे बंधता जा रहा
4.
यात्रा लक्ष्य वहीन है
जीने को तो जी रह
मन चिन्ताकुज दीन है
5.
खाली पन भरते रहो
मन निराश होवे नहीं
ऐसा कुछ करते रहो

  • गोस्वामी सेवाश्रम, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, होशंगाबाद-461001 (म.प्र.)


अनामिका शाक्य


चार जनक छन्द
1.
सच्चा प्यार महान है
बंधन सारे तोड़ता
दुनियां क्यों अंजान है!
2.
मिलती जब-जब जीत है
मधुर तराने गँूजते
जीवन मीठा गीत है
3.
दृश्य छाया चित्र : पूनम गुप्ता 
पावन गंगा-धार है
पापों को धो डालती
आता सब संसार है 
4.
ऊँचा कितना नाम है
चमक रहा संसार में
सूरज तुझे सलाम है
  • ग्राम किरावली, पोस्ट तालिबपुर, जिला मैनपुरी (उ.प्र.)