आपका परिचय

रविवार, 6 जुलाई 2014

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष :03, अंक : 09-10,  मई-जून 2014 

।।संभावना।।

सामग्री :  इस बार प्रस्तुत हैं उभरती हुई कवयित्री कमलेश चौरसिया जी अपने कुछ हाइकु  के साथ।  


कमलेश चौरसिया




पाँच हाइकु


01.
तिनका लिए
चिड़िया थक गयी
डाली ना मिली
02.
चेत गांधारी
दुशासन उगे हैं
उघाड़ पट्टी
03.
अभिलाषायें
छाया चित्र : रामेश्वर काम्बोज हिमांशु 

पंख लगा उड़ती
दाना चुगती
04.
ठिठक सुनें
गूंज रही ऋचाएँ
राम हो जायें
05.
अटरिया में
शब्द-शब्द आँखों का 
बिछुआ बाजे

  • गिरीश-201, डब्ल्यू.एच.सी. रोड, धरमपेठ, नागपुर-440010 (महारष्ट्र)

अविराम विमर्श


अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 3,  अंक : 09-10,  मई-जून 2014 

।।विमर्श।।
  
सामग्री : सुप्रसिद्ध लघुकथाकार डॉ. बलराम अग्रवाल से लघुकथा से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर डॉ. उमेश महादोषी की बातचीत।

डॉ. बलराम अग्रवाल  

साहित्य को दलित और स्त्री-विमर्श में संकुचित कर दिया गया है : डॉ. बलराम अग्रवाल

{लघुकथा पर अध्ययन-मनन करते हुए मेरे मन में कई तरह के प्रश्न उठते रहे हैं। मैं इन प्रश्नों को नोट करके संग्रहीत करता रहा। करीब तीन वर्ष पूर्व अपनी जिज्ञासाओं को लेकर सुप्रसिद्ध लघुकथाकार एव समालोचक डॉ. बलराम अग्रवाल जी से बातचीत की बात मेरे मन में आई थी, लेकिन संयोग नहीं बन पाया। चूंकि बातचीत काफी लम्बी हो सकती है, इस संभावना के दृष्टिगत हमने निश्चय किया कि अपने प्रश्नों को कुछ खण्डों बाँटकर, समय की उपलब्धता के अनुरूप बातचीत को किश्तों में अंजाम दिया जाये। अब हमने इस प्रक्रिया को आरम्भ किया है। प्रस्तुत है पहली किश्त में लघुकथा की सामान्य स्थिति से जुड़े प्रश्नों पर हुई बातचीत। बातचीत के दौरान पूर्व निर्धारित प्रश्नों में कुछ बदलाव करने पड़े तो कुछ नए प्रश्न भी उभरकर
डॉ. उमेश महादोषी  
सामने आए। जैसे-जैसे समय की उपलब्धता का संयोग बनेगा, हम इस बातचीत को आगे बढायेंगे। -उमेश महादोषी}
उमेश महदोषी :  किसी विधा के आरम्भिक और विकास काल में नियोजित लेखन को क्या आप ठीक मानते हैं? यदि हाँ, तो उस तरह के सन्दर्भ में नियोजित लेखन के प्रमुख चरण क्या होने चाहिए?

बलराम अग्रवाल : हिन्दी कहानी प्रेमचंद से पहले भी थी लेकिन उसके सरोकार रोमांच और रंजन से अधिक नहीं थे। प्रेमचंद ने उसको जनमानस की तत्कालीन पीड़ाओं से जोड़ा। इसलिए कहानी का विकास यदि हम प्रेमचंद से मानें तो मुझे नहीं लगता कि उन्होंने या उनकी पीढ़ी के किसी अन्य कथाकार (प्रमुखतः प्रसादजी आदि) ने कभी नियोजित लेखन के बारे में सोचा भी होगा। विधा का विकास दृष्टि की नवीनता और कालानुरूप दिशाबोध पर निर्भर करता है, नियोजित लेखन उसके बाद की चीज़ है। प्रेमचंद के बाद, नई कहानी के दौर में जिस तरह कहानी-लेखन हुआ या किया गया; और उसके जो सरोकार बताए-गिनाए गये, उसे आप नियोजित लेखन मान सकते हैं। लेकिन समाज और साहित्य के बीच जो जगह नई कहानी ने बनाई उसकी वजह यही थी कि उस दौर के कथाकारों ने कहानी के कथ्य और उसकी प्रस्तुति को प्रेमचंद के काल से आगे पहुँचाने की जरूरत महसूस की। उन्होंने प्रेमचंद की अवहेलना नहीं की; लेकिन उनके कथ्यों का अनुसरण भी नहीं किया। यह भी कह सकते हैं कि बदली हुई परिस्थितियों में वे वहाँ भी पहुँचे जहाँ प्रेमचंद की पहुँच नहीं बन पाई थी। इस कार्य के लिए उनमें यथार्थ ललक और अपने काल की प्रवृत्तियों और मनोवृत्तियों को पहचानने व अभिव्यक्ति देने की अद्भुत कथा क्षमता थी।

उमेश महदोषी :  ठीक है, लेकिन 1970 के बाद 15-20 वर्षों तक समकालीन लघुकथा को एक फोकस के तहत लिखा गया और उस पर विमर्श की मुहिम को चलाया गया। क्या इस तरह के तमाम प्रयासों को एक नवीन विधा के सन्दर्भ में लघुकथा में नियोजित लेखन मानना उचित नहीं होगा?

बलराम अग्रवाल :  नहीं। 1970 के बाद ‘लघुकथा’ को फोकस का मिलना उस काल की महती आवश्यकता थी। 1980 में प्रकाशित अपने संग्रह ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ की भूमिका में अपने समय का, प्रमुखतः 1970 के बाद का जिक्र परसाईजी ने जिस तरह किया था, उसे मैं ज्यों का त्यों उद्धृत करना चाहूँगा- ‘‘इस दौर में चरित्रहीन भी बहुत हुआ। वास्तव में यह दौर राजनीति में मूल्यों की गिरावट का था। इतना झूठ, फरेब, छल पहले कभी नहीं देखा था। दग़ाबाजी संस्कृति हो गई थी। दोमुँहापन नीति। बहुत बड़े-बड़े व्यक्तित्व बौने हो गए। श्रद्धा सब कहीं से टूट गई। इन सब स्थितियों पर मैंने जहाँ-तहाँ लिखा। इनके संदर्भ भी कई रचनाओं में प्रसंगवश आ गए हैं। आत्म-पवित्रता के दंभ के इस राजनीतिक दौर में देश के सामयिक जीवन में सब कुछ टूट-सा गया। भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति ने अपना असर सब कहीं डाला। किसी का किसी पर विश्वास नहीं रह गया था- न व्यक्ति पर न संस्था पर। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का नंगापन प्रकट हो गया। श्रद्धा कहीं नहीं रह गई। यह विकलांग श्रद्धा का भी दौर था। अभी भी सरकार बदलने के बाद स्थितियाँ सुधरी नहीं। गिरावट बढ़ रही है। किसी दल का बहुत अधिक सीटें जीतना और सरकार बना लेना, लोकतंत्र की कोई गारंटी नहीं है। लोकतांत्रिक स्परिट गिरावट पर है।‘‘ ये सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियाँ थीं जो 1967 के आसपास से ही उभरकर सामने आने लगी थीं। ऐसे में अनेक कथाकार कहानी कहने की उस शैली को जो उक्त काल में बोझिल-सी हो चुकी थी, त्यागकर कथाभिव्यक्ति की छापामार शैली की ओर उन्मुख हुए। आप देखेंगे कि उस काल की अधिकतर लघुकथाएँ अपने शिल्प और शैलीगत अधकचरेपन के बावजूद सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक दोगलेपन के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलन्द करती हैं। इस कथा-शैली को ‘तारिका’, ‘कात्यायनी’ जैसी तब की अनेक लघु-पत्रिकाओं ने अपने पन्नों पर जगह देनी शुरू की। कुछ नई पत्रिकाएँ भी शुरू हुईं जिनमें ‘अतिरिक्त’, ‘मिनियुग’, ‘अन्तर्यात्रा’, ‘दीपशिखा’ आदि का नाम आसानी से लिया जा सकता है। इन लघु-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली लघुकथाओं का नोटिस कथाकार-संपादक कमलेश्वर ने लिया और उन्होंने ‘सारिका’ में लघुकथाओं को जगह देनी शुरू की। ‘सारिका’ के जुलाई 1973 अंक को उन्होंने ‘लघुकथा बहुल अंक’ बनाकर प्रकाशित किया। किसी व्यावसायिक कथा-पत्रिका का द्वारा लघुकथा को स्वीकारने की यह महत्वपूर्ण पहल थी। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अपने संपादन में लघुकथा को बढ़ावा देने की शुरुआत करने वाले कमलेश्वर नयी कहानी आंदोलन के स्तम्भ कथाकार थे। आखिर कोई तो बात उन्होंने ‘लघुकथा’ में देखी ही होगी कि वे इस विधा को प्रमुखता देने की ओर उन्मुख हुए। ...तो जिस नियोजन की बात आप कर रहे हैं, उसका निर्धारण समय और परिस्थितियाँ करते हैं, कोई व्यक्ति या व्यक्ति-समूह नहीं। समय और परिस्थितियों से विलग हर नियोजन व्यर्थ जायेगा।

उमेश महदोषी :  क्या आपको लगता है कि पिछली शताब्दी के आठवें और नौवें दशक में लघुकथा को प्रतिष्ठित करने के लिए किए गए प्रयास अपने आप में पूर्ण थे? या कुछ ऐसी चीजें दिखाई देती हैं, जिन्हें किया जा सकता था, लेकिन नहीं किया गया?

बलराम अग्रवाल :  अगर समुचित अध्ययन के द्वारा आपने विवेकशील होने के गुण को साधा है। अगर समाज को देखने-परखने की आपकी दृष्टि में पारदर्शिता है। अगर आप अपने उद्देश्य के निर्धारण में किसी भ्रम या उहापोह के शिकार नहीं हैं। अगर आप ईमानदारी, निष्ठा और सम्पूर्ण शारीरिक-मानसिक क्षमता के साथ अपने उद्देश्य की ओर बढ़ने का दायित्व निभा रहे हैं तो इतर कारणों से अनचीन्हे भले ही रह जाएँ, मेरी नजर में आपके प्रयास में ‘पूर्णता’ है। उमेश जी, व्यक्ति के सम्बन्ध में भी और विधा के सम्बन्ध में भी, मुझे लगता है कि ‘प्रतिष्ठा’ एक सापेक्षिक शब्द है। काल-विशेष या स्थान-विशेष में जैसी प्रतिष्ठा इन्हें मिली हो, वैसी प्रत्येक काल या प्रत्येक स्थान में मिलती रहेगी, आवश्यक नहीं है। वे चीजें, जिन्हें किया जा सकता था और नहीं किया गया, के साथ-साथ एक सवाल यह भी बनता है कि क्या कुछ ऐसी चीजें दिखाई देती हैं जिन्हें किया गया लेकिन नहीं करना चाहिए था। खैर, जिन्हें किया जा सकता था और नहीं किया गया, के बारे में मैं यही कह सकता हूँ कि लघुकथा-संकलनों के संपादन-प्रकाशन का जैसा काम बलराम ने किया वैसा व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े अन्य लघुकथा-हितैषियों को भी करना चाहिए था। दूसरी ओर, बलराम को कोशों के संपादन के साथ-साथ लघुकथा-लेखन पर भी बने रहना चाहिए था। महेश दर्पण अपने लेखन की शुरुआत में लघुकथा से जुड़े थे। ‘मिट्टी की औलाद’ नाम से उनका लघुकथा-संग्रह भी आया था। उन्होंने कहानी पर बहुत बड़ा काम कर दिखाया; लेकिन लघुकथा पर काम के लिए किसी प्रकाशक को तैयार न कर सके। रमेश बतरा तो लघुकथा के हित-चिंतक, विचारक और लेखक सभी कुछ थे। वे ‘सारिका’, ‘नवभारत टाइम्स’ या ‘सण्डे मेल’ जहाँ भी रहे, लघुकथा को जगह देते रहे। जब तक जिये, लघुकथा पर संवाद में बने रहे। उनके दो कहानी संग्रह तो आये; लेकिन अपनी लघुकथाओं का संग्रह प्रकाशित करने की ओर वे क्यों नीरस रहे समझ में नहीं आता है। ये मैं लघुकथा की उन सशक्त संभावनाओं के नाम गिना रहा हूँ जो संयोग से व्यावसायिक प्रकाशन संस्थाओं की साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ी थीं। लघुकथा के चयन और उसकी आलोचना के एक काम को 2013 से मधुदीप ने ‘पड़ाव और पड़ताल’ के रूप में आगे बढ़ाने की शुरुआत की है। उम्मीद है कि उसके माध्यम से स्थिति कुछ साफ अवश्य होगी।

उमेश महदोषी :  निसंदेह मधुदीप जी की योजना लघुकथा के लिए नई ज़मीन तैयार कर सकती है। उन्होंने अपनी नवें दशक की योजना को अब आगे बढ़ाने की ठानी है। आठवां और नौवां दशक समकालीन लघुकथा के लिए सबसे उर्वर समय रहा। क्या उसके बाद के समय में वह लय किसी सीमा तक बनी रह पाई है? या किसी बिन्दु पर जाकर लघुकथा का समय ठहर गया-सा लगता है?

बलराम अग्रवाल :  मेरा मानना है कि लघुकथा लेखन के लिए समय की उर्वरता सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में शुरू हो चुकी थी। अनेक लोगों ने उस दौर में कथाभिव्यक्ति की इस शैली को अपनाने की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया था। उस जमीन को पकने में करीब एक दशक लगा और आठवें दशक के मध्य तक आते-आते यह पूरी तरह तैयार हो चुकी थी। हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि भारतवासियों के जीवन में वह राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक- सभी मोर्चों पर नये-नये शोषक झंडाबरदारों के पैदा हो जाने और उनके द्वारा निर्द्वंद्व ठगे जाने के एहसास का काल था। शोषण और अत्याचार के खिलाफ कहीं कोई सुनवाई नहीं। सभी प्रकार के नेतृत्व के खिलाफ जितना उग्र स्वर उस काल के भारतीय साहित्य में मिलता है, उतना उसके बाद वाले काल में नहीं। इसलिए लघुकथा में भी विरोध की वह लय नवें दशक के बाद टूटती-सी नजर आती है। यहाँ एक और बात की ओर भी ध्यान दिलाना अप्रासंगिक नहीं होगा। नवें दशक के बाद समूचे साहित्य को दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श में संकुचित कर दिया गया। इससे जनसंघर्ष के अनेक मुहानों पर सूनापन छा गया, लूटखोरों के लिए वे निर्द्वंद्व हो गये। माना, कि ये दोनों विमर्श भारतीय समाज की बड़ी आवश्यकताएँ थीं; लेकिन इनके जरिए समूचे असंतोष को संकुचित कर देने की अभिजात्य चालाकी पर किसी का ध्यान नहीं गया। अशिक्षा, बेरोजगारी और भुखमरी से आज का भारत सातवें-आठवें-नवें दशक के भारत से कम त्रस्त नहीं है, लेकिन उस ओर आज के साहित्य का रुझान बेमानी बना दिया गया है। यही वह बिन्दु है जहाँ लघुकथाकार भी भ्रमित है, कहानीकार भी और कवि भी। शाश्वत संघर्ष की धार को पूँजी और सत्ता किस चालाकी से कुंद करती हैं, यह उसका सजीव उदाहरण है।

उमेश महदोषी :  समूचे विमर्श को ‘दलित विमर्श’ और ‘स्त्री विमर्श’ के इर्द-गिर्द संकुचित कर देने की बात महत्वपूर्ण है, बावजूद कि ये दोनों बड़े मुद्दे हैं। निसंदेह इसके पीछे पूँजी और सत्ता की चालाकी खड़ी है, लेकिन इतना मान लेना क्या पर्याप्त होगा? क्या इसमें कहीं साहित्य और साहित्य से जुड़े, लोगों बल्कि तमाम बुद्धिजीवी वर्ग की असफलता समाहित नहीं है? यह वर्ग सत्ता और पूंजी को प्रभावित करने की बजाय उससे क्यों प्रभावित हो जाता है? क्या आप इसे सामयिक चिन्तन के सन्दर्भ में मौलिकता के पथ, जो नई विधाओं की प्रासंगिकता की ओर इंगित करता है, से विचलन नहीं मानेंगे?

बलराम अग्रवाल :  पूँजी, सत्ता और अभिजात्य- ये तीनों उस शतरंज के माहिर खिलाड़ी हैं जिसमें पैदल, हाथी, घोड़ा, ऊँट, वज़ीर, रानी और राजा नामक मोहरों की जगह आम आदमी को इस्तेमाल किया जाता है। दुनिया का हर साधारण व्यक्ति ‘सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का’ का चिंतक और पूजक है। उसकी इस अभिलाषा को अपने पक्ष में भुनाने के लिए ये कुछ ऐसे तर्क और योजनाएँ लेकर उपस्थित होते हैं कि पूँजीहीन, सत्ताहीन और शक्तिहीन सामाजिक कभी आसानी से तो कभी कुछेक समझौतों के साथ इनके चंगुल में फँस ही जाता है। इस कार्य में धनाकांक्षी, पदाकांक्षी और महत्वाकांक्षी लोग इनके सहायक बनते हैं। पूँजी और सत्ता ऐसे लोलुपों को मुख्यतः धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गलियारों में तलाशती और नियुक्त करती हैं। ये चालाक लोग आम आदमी को चारों ओर से घेरकर ऐसा बिगुल फूँकना शुरू करते हैं कि वह उसी की धुन को समय की धुन मानकर उसकी लय पर झूमने लगता है। जो आदमी इनके बिगुल की लय पर नहीं झूमता, उसे ये दकियानूस, प्रतिक्रियावादी, पुनरुत्थानवादी या जो इनके मन में आये वह सिद्ध करके किनारे सरका देते हैं। वक्त का पहिया तो कभी रुकता नहीं है, चलता रहता है। अवसरवादी लोग उसकी अरनियों को पकड़कर लटक जाते हैं। पहिए की गति के साथ अरनि ऊपर आई तो वे ऊपर आ जाते हैं और नीचे गई तो नीचे पहुँच जाते हैं। अवसरवादी आदमी मान-अपमान और मानवीयता-अमानवीयता जैसी भावुकताओं से परे रहता है तथा सब काल में समान बना रहता है।

उमेश महदोषी :  अच्छा, लघुकथा के सन्दर्भ में एक स्थिति देखने में आई है- एक तरफ नवें दशक के बाद कई वरिष्ठ लोग लघुकथा लेखन के प्रति अनासक्त हो गए, जबकि अनेक नए लेखक लघुकथा लेखन के प्रति आकर्षित हुए। रचनात्मकता के कारणों और परिस्थितियों के सन्दर्भ में इस परिदृश्य को आप किस तरह देखते हैं?

बलराम अग्रवाल :  देखिए, समान ‘वस्तु’ को कुछेक अवान्तर प्रसंगों के सहारे विस्तार देकर कुछ कथाकार कहानी बनाकर प्रस्तुत करने के अभ्यस्त हैं तो कुछ अवांतर प्रसंगों की घुसपैठ को अनावश्यक मानते हैं। सामान्यतः पाठक को भी अवान्तर प्रसंगों में घुसना रोचक नहीं लगता है; लेकिन उसके मनोमस्तिष्क पर कहानी का पारम्परिक प्रारूप इतना हावी है कि अवान्तर प्रसंगों से हटना उसे भयभीत करता है। यह स्थिति किसी समय अंग्रेजी कहानीकारी की रह चुकी है, जिनकी रचना (कहानी यानी शॉर्ट स्टोरी) को उपन्यास के पाठकों और समालोचकों द्वारा वर्षों यह कहकर नकारा जाता रहा कि इतने कम शब्दों में जीवन की घटनाओं को व्यक्त नहीं किया जा सकता; और यह कि कहानी लेखन में केवल वे ही महत्वाकांक्षी उतर रहे हैं जो उपन्यास लिखने में अक्षम हैं। ये दोनों ही नकार आखिरकार निराधार भय ही साबित हुए और ‘शॉर्ट स्टोरी’ ने अपनी जगह आम पाठकों के बीच बना ही ली। कथा-लेखन में अक्षम होने संबंधी आरोपों का जो दंश पूर्ववर्ती अंग्रेजी कहानीकारों ने झेला था, वही दंश हिन्दी लघुकथाकार भी झेल रहे हैं। मुझे विश्वास है कि जो सूरज उन्होंने देखा था, वही लघुकथाकार भी अवश्य देखेंगे। दूसरी बात- जब आप ‘सकाम’ लेखन करते हैं तो निश्चय ही आपकी नजर लेखन की बजाय कहीं और टिकी होती है। उस उद्देश्य की प्राप्ति में देरी आपमें लेखन के प्रति उकताहट पैदा करती है और आपको वहाँ से हट जाने को विवश कर देती है। लघुकथा के जिन वरिष्ठों की ओर आप लघुकथा-लेखन से अनासक्त या विरक्त होने का संकेत कर रहे हैं उनमें से कुछ ने केवल लघुकथा-लेखन ही छोड़ा है, लेखन नहीं। यानी कि आकांक्षाओं की पूर्ति के उन्होंने अन्यान्य क्षितिज तलाश लिए हैं, जहाँ परिणाम तत्काल नहीं तो बहुत जल्द मिलने की उम्मीद हो।

उमेश महदोषी :   नयी पीढ़ी के रचनाकारों में लघुकथा लेखन के प्रति आकर्षण को आप कितना वास्तविक और सार्थक मानते हैं? क्या ये रचनाकार लघुकथा में लेखन का कोई ‘विजन’ देते दिखाई देते हैं?

बलराम अग्रवाल :   नयी पीढ़ी के रचनाकारों में लघुकथा लेखन के प्रति आकर्षण पर शक करने का कोई कारण मुझे नजर नहीं आता है। अगर कोई कथाकार सार्थक लघुकथाएँ दे पाने में सफल रहता तो उसके आगमन को वास्तविक ही माना जायेगा। सभी में न सही, नये आने वाले कथाकारों में से कुछ में ‘विज़न’ है।

उमेश महदोषी :  मैं शक की नहीं, अपेक्षाओं की बात कर रहा हूँ। बहुत सारे नए लघुकथाकारों में से कुछेक गिने-चुने लघुकथाकारों के पास ‘विजन’ हो सकता है, पर क्या एक परिदृश्य का संकेत मिल पा रहा है? लघुकथा की पहली पीढ़ी ने समग्रतः जो पृष्ठभूमि उपलब्ध करवाई, क्या नई पीढ़ी से उससे आगे जाने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए? आज की नई पीढ़ी अपने समय को कहीं अधिक अच्छी तरह से पहचान और समझ सकती है और इसलिए वह अपने समय के सच और संघर्ष को भी बेहतर ढंग से आगे बढ़ा सकती है। तुलनात्मक रूप से उसके पास संसाधन भी कहीं अधिक उपलब्ध हैं। ऐसे में क्या हमारी नई पीढ़ी वैसे परिणाम दे पा रही है, जैसी जरूरत और अपेक्षा है?

बलराम अग्रवाल :  देखिए, यह तो निर्विवादित है कि लघुकथा-लेखन में उतरने वाले कथाकारों की संख्या आठवें, नौवें, दशवें दशक जितनी शायद आज नहीं है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं जिनमें से एक यह भी है कि जैसे राजनीति के जरिए समाजसेवा के हमारे प्रतिमान बदले हैं, वैसे ही साहित्यसेवा के जरिए समाज में बदलाव लाने के हमारे विश्वास में कमी आई है। विश्वास में आई यह कमी हमें संघर्ष के लम्बे रास्ते पर कदम रखने से रोकती है। आप कहते हैं कि लघुकथा की पहली पीढ़ी ने जो पृष्ठभूमि उपलब्ध कराई, नई पीढ़ी को उसे उससे आगे ले जाना चाहिए। बेशक। लेकिन कब? उमेशजी, आकलनरहित साहित्य कितने भी ऊँचे दर्जे का क्यों न हो, नये लेखक को न तो आकर्षित ही कर पाता है और न बहुत दिनों तक उसे खुद से बाँधकर ही रख पाता है। लघुकथा के साथ यही हो रहा है। बड़ी समझी जाने वाली जो पत्रिकाएँ अपने लगभग हर अंक में लघुकथाएँ छापती हैं, लघुकथा-केन्द्रित आलोचनात्मक लेख को स्थान उनके पास नहीं है। तो कोई लेखक क्यों ऐसी किसी विधा से जुड़ना चाहेगा जिसमें उसके लेखन के आकलन की सम्भावना शून्य हो। जो संसाधन उसे उपलब्ध हैं, उनका इस्तेमाल वह उन विधाओं में क्यों न करे, जिनमें उसके लेखन के मूल्यांकन की सम्भावना अधिक भी है और तुरत-फुरत भी। हमारे देखते-देखते कहानी-लेखन में पूरी की पूरी नई पीढ़ी आ गई और बेहतर रचनाएँ भी दे रही है। ऐसा सम्भव हो पाया क्योंकि ज्ञानपीठ आदि बड़े प्रतिष्ठानों की पत्रिकाओं के संपादकों ने कहानी के नये लेखकों को प्रश्रय देने की योजना बनाई। लघुकथा को ऐसा प्रश्रयदाता कमलेश्वर के बाद नहीं मिल पाया।

उमेश महदोषी :   लघुकथा में कथ्य और शिल्प की नकारात्मकता से जुड़ी चीजें, लेखकों की भीड़ के साथ आई। एक समय इन चीजों से पीछा छुड़ाने की कोशिशें भी दिखने लगी थीं। परन्तु आज के समूचे लघुकथा-परिदृश्य पर दृष्टि डालने पर वे सब चीजें फिर से दिखाई देती हैं। ऐसा क्यों? कहीं न कहीं इसमें नयी पीढ़ी के लघुकथाकारों की लापरवाह छवि ध्वनित नहीं होती है? इसमें पुरानी पीढ़ी की भूमिका पर आप क्या कहेंगे?

बलराम अग्रवाल : नया लेखक पूर्ववर्ती लेखन का अनुगमन करता है। इस अनुगमन से कोई जल्दी पीछा छुड़ाकर अपना रास्ता बना लेता है, कोई देर से छुड़ा पाता है; और कोई ऐसा भी होता है जो ताउम्र अनुगामी ही बना रहता है, अपनी कोई धारा स्वतंत्रतः नहीं बना पाता। जहाँ तक लघुकथा की बात है, सभी जानते हैं कि यह लघुकाय कथा-विधा है। सब बस इतना ही जानते हैं, यह नहीं जानते कि ‘लघुकाय’ में छिपा क्या-क्या है, उसमें साहित्यिक गुणों का समावेश कथाकार ने किस खूबी के साथ कर दिया है और यह भी कि प्रचलित कथा-रचनाओं की प्रभावान्विति से अलग और विलक्षण उसने कुछ ऐसा पाठक को दे दिया है कि वह अचम्भित है। अचम्भित चौंकाने वाले अर्थ में नहीं; बल्कि इस अर्थ में कि जो बात इस लघुकथाकार ने कह दी है, वह साधारण होते हुए भी स्वयं उसके जेहन से दूर क्यों थी?

उमेश महादोषी :  नयी पीढ़ी के लघुकथाकार अलग-अलग कुछ अच्छी लघुकथाएं देते रहे हैं। परन्तु अपने समग्र लघुकथा लेखन से उस तरह प्रभावित कर पाने में सफल नहीं दिखते, जैसा उन्हें होना चाहिए या फिर जैसा आठवें दशक में उभरे लघुकथाकार सफल हुए। प्रमुख कारण आप क्या मानते हैं?

बलराम अग्रवाल :  यह कमी पुरानी पीढ़ी के भी एक-दो लघुकथाकारों में दिखाई देती है। उनके समग्र लघुकथा लेखन में विषय वैविध्य नदारद है। कोई साम्प्रदायिक दंगो के, कोई राजनेताओं की कथनी-करनी के तो कोई घर-परिवार के दुखांत कथानकों में ही उलझकर रह गया है। इस सब का प्रमुख कारण तो मात्र एक ही है- जीवनानुभवों की सीमा।

उमेश महादोषी :  नयी पीढ़ी के अधिकांश लघुकथाकार लघुकथा-लेखन से तो जुड़े हैं, किन्तु विमर्श और अच्छी लघुकथाओं को रेखांकित करने के अन्य प्रयासों में कोई सार्थक भूमिका निभाते दिखाई नहीं देते। आप क्या कहेंगे?

बलराम अग्रवाल :  लेखन अलग कर्म है और समीक्षण अलग। विमर्श में उतरने के लिए प्रत्येक कथाकार को जिस अध्ययन, गाम्भीर्य और शब्द-कौशल की आवश्यकता होती है, वह धीरे-धीरे ही आता है; एकदम से नहीं।

उमेश महादोषी :  क्या आपको नहीं लगता कि आज भी लघुकथा प्रमुखतः आठवें-नौवें दशक के स्थापित लघुकथाकारों के इर्द-गिर्द ही घूम रही है? यदि ऐसा है तो इस स्थिति से लघुकथा को निकालने के लिए किस तरह के प्रयास होने चाहिए? पुरानी और नयी पीढ़ी के लघुकथाकारों की अपनी-अपनी भूमिकाएं क्या हो सकती हैं?

बलराम अग्रवाल :  आठवें-नौंवें दशक के लघुकथाकार उस काल में स्थापित कथाकार नहीं थे; नवोदित थे सब के सब। उन्हें अगर आज स्थापित माना जा रहा है तो उनका लेखकीय श्रम और मेधा ही उसके कारण हैं। लघुकथा लघुकथाकारों के इर्द-गिर्द घूम रही है, यह कथन ऐसा ही है जैसे कोई यह कहे कि लेखन की बागडोर लेखक के हाथ से खिसककर रचना के हाथ में चली गई है। और अगर आपका तात्पर्य यह है कि स्थापित लघुकथाकार नये कथाकारों को आगे नहीं आने दे रहे तो यह भी सच नहीं है। चैतन्य त्रिवेदी, शोभा रस्तोगी, दीपक मशाल आदि अनेक लोग लघुकथा को नई सदी के पहले दशक की देन माने जा सकते हैं। भूमिका इसमें रचनाशीलता ही निभाती है, गोड-फादरशिप नहीं।

उमेश महादोषी :  आपकी बात निसन्देह ठीक है। पर मैं किसी अवरोध या गॉड फादरशिप की बात नहीं कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि लघुकथा में आप लोगों के बाद की पीढ़ी को जिस तरह और जिस स्तर पर लघुकथा को आगे ले जाने के लिए, विशेषतः समीक्षा-समालोचना की प्रक्रिया में, आगे आना चाहिए था, वह अपेक्षा से बहुत कम है। इस प्रश्न को मैं इसलिए उठा रहा हूँ कि मुझे लगता है कि आज हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक स्थितियाँ और हालात जैसे हैं, उन्हें लघुकथा (और क्षणिका जैसी विधाओं) में नई पीढ़ी कहीं अधिक प्रभावपूर्ण और सार्थक ढंग से अभिव्यक्ति दे सकती है, नया चिन्तन और विचार ला सकती है। दूसरे कई अन्य विधाओं में देखें तो वहाँ बाद की पीढ़ियों के रचनाकार भी समस्तर पर सक्रिय रहे हैं। क्या कहेंगे?

बलराम अग्रवाल :  लघुकथा लेखकों में सामयिक चिंतन से जुड़ी अभिव्यक्ति देने का संकट तो अक्सर नजर आता है, निःसंदेह; लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। मुझे लगता है कि... लगता ही नहीं है बल्कि कभी-कभी उसका सामना भी करना पड़ जाता है; वो यह कि हम आज भी लघुकथा के पारम्परिक रूप-आकार पर ही रूढ़ रवैया अपनाए हुए हैं। इस ‘हम’ में लेखक, पाठक, संपादक, आलोचक सब शामिल हैं। रचना ने ‘हमारे’ पैमाने वाले आकार का अतिक्रमण किया नहीं कि उसे लघुकथा कहने में हमें संकोच होने लगता है। उसने बिम्ब का, प्रतीक का सहारा लिया नहीं कि हम उसे आम पाठक की समझ से बाहर की रचना मानने लगते हैं। ‘आम आदमी के लिए साहित्य’ के नाम पर बड़े से बड़ा आलोचक ऐसा साहित्यिक भोजन चाहने लगा है जो उसके मुँह में जाते ही घुल जाये, जिसे चबाने को लेशमात्र मशक्कत उसे न करनी पड़े। शब्द से जो अर्थ स्वतः फूटता है, उसे रिसीव करने वाले इनके ट्रांसमीटर्स आउट-डेटेड हो चुके हैं। इन्हें अब बस शब्द ही दीखता है, उसका नेपथ्य नहीं। मैं सब की नहीं, अधिकतर की बात कह रहा हूँ। इन अधिकतर के कारण नये कलेवर और सोच की रचनाएँ चर्चा पाने से वंचित रह जाती हैं।

उमेश महादोषी :  क्या लघुकथा अपना सर्वाेत्तम समय देख चुकी? यदि नहीं, तो उसके ‘लक्षित समय’ की कल्पना आप किस तरह करते हैं? क्या उस ‘समय’ के आने की आशा है आपको? वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए क्या आपको लगता है कि अगले पचास वर्ष के बाद लघुकथा साहित्य में अपनी सार्थक भूमिका के साथ खड़ी होगी?

बलराम अग्रवाल :  उमेश जी, कला व साहित्य के रचनात्मक क्षेत्रों में ‘सर्वाेत्तम समय’ वह नहीं होता जिसे सामान्य लोग सर्वाेत्तम समय कहते या मानते हैं। इनमें सर्वाेत्तम समय वह होता है जब उससे जुड़े लोग पूरी निष्ठा के साथ निष्पक्ष रूप से सृजनात्मक व परिवीक्ष्णात्मक दायित्वों को निभाते हैं। मैं समझता हूँ कि कुछेक अपवादों को छोड़कर अधिकतर समकालीन लघुकथाकारों ने अपने इस दायित्व का निर्वाह किया है और उनमें से कुछ अभी तक भी कर रहे हैं। दूसरी बात यह है कि पूर्व प्रचलित विधाओं के चलते नवीन विधाओं का अपनी जगह बना लेना बहुत आसान कभी भी नहीं रहा। समय लगता है; लेकिन इसके लिए आप कोई निश्चित समय-रेखा नहीं खींच सकते। कारण यह है कि यह मात्र आपकी यानी लेखक और आलोचक की इच्छा पर निर्भर नहीं है। इस बारे में, जिसके बीच जगह बनानी है, उस ‘जन’ को आप दोयम पायदान पर नहीं रख सकते। तीसरी बात यह है कि लघुकथा यदि आज साहित्य में अपनी सार्थक भूमिका के साथ नहीं खड़ी है तो यह निश्चित मानिए कि पचास क्या दस साल बाद भी वह अपनी सार्थक भूमिका में खड़ी दिखाई नहीं देगी। हमें सबसे पहले अपने ‘आज’ को देखना है, भावी समय को नहीं। अगर हम आज समय के साथ नहीं खड़े हैं तो आने वाला समय हमारे साथ क्यों खड़ा होगा?

उमेश महादोषी :  आपकी बात बिल्कुल ठीक है। लेकिन यहाँ मेरी जिज्ञासा ‘समय के यथार्थ’ को दिशा देने में साहित्य (लघुकथा) की भूमिका के सन्दर्भ में है। आपका भी मानना रहा है कि समय कभी अचानक नहीं बदलता, धीरे-धीरे बदलता है। इस बदलाव को पहचानकर भविष्य के लिए साहित्य से मार्गदर्शन की अपेक्षा गलत तो नहीं होगी? यदि आज के कुछ हालात बिना किसी अवरोध के चलते हुए पचास वर्ष बाद किसी विस्फोटक स्थिति में बदलने का संकेत देतेे हैं, तो क्या हमारा दायित्व यह नहीं होना चाहिए कि हम उसकी कल्पना करें और उसे रोकने के लिए अपनी भूमिका निभायें या निभाने के लिए तैयार रहें? चूंकि अब लघुकथा अपने रूप-स्वरूप और दिशा आदि की स्थापना के प्रयासों से आगे आ रही है, अतः उसकी पिछली सामाजिक भूमिका से अलग एक अनुकूल विधा के रूप में भावी भूमिका को लेकर अधिक अपेक्षा करना क्या उचित नहीं होगा? पिछली पीढ़ी ने हमें जो प्रभावशाली अस्त्र तैयार करके दिया है, अगली पीढ़ी अपने और भावी पीढ़ियों के हित में उसका प्रभावी उपयोग करे, क्या ऐसी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए?

बलराम अग्रवाल :  उमेशजी, मैं पुनः दोहराऊँगा कि यदि हम ‘आज’ को साध लेते हैं, ‘आज’ के साथ ईमानदार बर्ताव करते हैं तो ‘भावी’ को साधने की चिंता में हमें अधिक घुलना नहीं पड़ेगा। हमें पचास साल बाद वाली विस्फोटक स्थिति की कल्पना में जाने की जरूरत नहीं है; क्योंकि पचास साल बाद वाली समूची स्थिति का पूर्वाभास आज की स्थिति दे रही होती है। उस पूर्वाभास को भी कथाकार लघुकथा की ‘वस्तु’ बना सकता है, बनाना चाहिए; क्योंकि उस रचना में भी कहीं न कहीं ‘आज’ ही अभिव्यक्त हो रहा होगा। हाँ, वर्तमान पीढ़ी के लघुकथाकारों से अपने ‘आज’ को अपनी रचना का सच बनाने की आपकी अपेक्षा का मैं सम्मान करता हूँ क्योंकि इस अपेक्षा के दायरे में कहीं न कहीं स्वयं मैं भी अपने आप को खड़ा देखता हूँ।

  • डॉ.बलराम अग्रवाल, एम-70, उल्धनपुर, दिगम्बर जैन मन्दिर के पास, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32// मोबा. : 08826499115  
  • डॉ.उमेश महादोषी, एफ-488/2, गली सं0 11, राजेन्द्र नगर, रुड़की, जिला-हरिद्वार (उ.खण्ड)-247667// मोबा. : 09458929004 

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10, मई-जून 2014 

          {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति(एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें। स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा। }


।।किताबें।।

सामग्री : इस अंक में रतन चन्द्र रत्नेश के कहानी संग्रह 'झील में उतरती ठण्ड' की सुदर्शन वशिष्ठ द्वारा लिखित समीक्षा। 



सुदर्शन वशिष्ठ

छोटी कहानियों के माध्यम से बड़े अनुभव

     ‘‘झील में उतरती ठण्ड’’ रतन चंद ‘रत्नेश’ की सोलह कहानियों का संकलन है। अधिकांश कहानियां आकार में छोटी हैं। वास्तव में छोटी कहानी के माध्यम से बड़ी बात कहना अधिक कठिन रहता है। ऐसी कहानियों में फालतू की बात करने की गुंजाईश बहुत कम रह जाती है। किंतु इस चुनौती को रत्नेश ने सहजता से स्वीकार किया है।
     गांव का बदलता परिवेश हो या छोटे शहर के बड़े अनुभव; परिवारिक समस्या हो या दफ्तर का माहौल; बुजुर्गों की उपेक्षा हो या युवाओं की बेकारी; आज के माहौल का आतंक हो या समाज की विसंगतियां; सब विषयों को छूने का प्रयास किया गया है कहानियों के माध्यम से। 
     संग्रह की पहली दो कहानियां: बुजुर्गों के जीवन और मनोदशा को रेखांकित करती हैं। ‘वह चली गई तो’ एक वृद्ध दम्पति की कहानी है जिसमें वृद्ध खुद ही रखी हर चीज को भूल जाने का आदी हो गया है। कोई भी किताब, पत्रिका, चप्पल, ऐनक कहीं रखने पर वह अकसर भूल जाता है। उसे यह भी महसूस होने लगता है कि पत्नी उसकी कोई चीज ढूंढने के बजाय पड़ोसन को सूट दिखाने में ज्यादा रूचि लेती है। किंतु सुबह तौलिया, किताब, चश्मा अपनी जगह सहेजा हुआ देख कर उसे तसल्ली होती है। साथ ही यह चिंता भी सताने लगती है कि यदि पत्नी पहले चली गई तो वह अपनी शेष जिंदगी कैसे गुजारेगा! दूसरी कहानी ‘झील में उतरती ठण्ड’ जिस पर संग्रह का शीर्षक भी रखा गया है, एक शालीन बुजुर्ग की कथा है जो रोज झील के किनारे सैर करने आता है। ऐसे बुजुर्ग जो अपने समय में रोबीले और मस्तमौला रहे, अब पत्नियों की मृत्यु के बाद बच्चांे की उपेक्षा झेल रहे हैं। समय बिताना उनके लिए एक समस्या बन गई हैं। रोज सैर करते-करते अकसर उनसे जान पहचान भी हो जाया करती है। एक रिटायर्ड कर्नल जिसकी एक आलीशान कोठी है जो अब दोनों बेटों के नाम है। उससे आठ दस साल छोटा एक साथी जो हाई कोर्ट में समय बिताने की खातिर वकालत करता था, अचानक चल बसा। उसके कुछ समय बाद कर्नल साहब भी दोपहर की नींद के बाद उठ नहीं पाए।
     रतन चंद रत्नेश की कहानियां एक अप्रत्याशित और चमत्कारिक मोड़ पर आ कर रुकती हैं और यही इनकी विशेषता है। यहां दो कहानियों का उल्लेख करना आवश्यक हो जाता है। पहली कहानी ‘आपकी सुरक्षा में’ आज की संवेदनहीन व्यवस्था पर आधारित है जिसमें सभी अपने अपने में मस्त और व्यस्त हैं। समय पड़ने पर कोई सहायता के लिए आगे आने को तैयार नहीं। उधर समाजविरोधी तत्व रात को सामने सामने ही स्कूटर के अस्थिपंजर खोल कर ले जाने को आमादा हैं। स्कूटर मालिक और पत्नी घर की बत्ती जगा कर उन्हें भगाने के लिए खिड़की से चिल्लाते हैं किंतु वे आराम से बेख़ौफ, उनसे वर्तालाप करते हुए अपने काम में लगे रहते हैं। अपने मित्र दोस्तों के बाद पुलिस को फोन लगाने पर भी कोई सहायता नहीं मिलती। अंततः बेबसी में रोशनी बुझाने के ठीक पहले गली का आवारा कुत्ता बौंजो जिसे वे दूध रोटी देते थे, उन पर भौंकता है और देखते देखते गली के और कुत्ते इकट्ठा हो कर उन पर टूट पड़ते हैं। पड़ौसी व पुलिस की सहायता न मिलने पर चोरों का आवारा कुत्तों से डर कर भागना एक मारक घटना है।
     इसी प्रकार एक दूसरी कहानी ‘खेत में कणक’ में हरिया को बिस्तर में सोए हुए साथ के खेत में पशुओं के होने का आभास होता है। सुक्खे की कणक में गौंएं चर रहीं थीं। वह बिस्तर में लेटा हुआ इन्हें खदेड़ने से पहले कई विचार करता है। उसके मन में सामने खेत में चरती गौंओं  को देख सुक्खे की उसके प्रति बेरुखी और पड़ौसी धर्म की ऊहापोह मची रहती है। अंततः वह उन्हें भगा कर एक उदार विजयी भाव से निश्ंिचत हो पिछवाड़े दातुन करने लगता है तो दंग रह जाता है। उसका पूरा खेत गौंए चर चुकी थीं।
     ‘तीन दस्तक’ मोहन राकेश की कहानी की तरह चलती हुई ‘आपकी सुरक्षा में’ से मेल खाती है। ‘खोयी हुई आशा’ एक गूंगी महिला की कहानी है जो एबनॉर्मल होते हुए भी घर परिवार केा सम्भालती है। बड़ी लड़की के अस्पताल में भर्ती होने पर उसका छोटी लड़की सहित अकस्मात गुम हो जाना लापरवाह ड्राइवर पति का चिंता का कारण बनता है। एफ0आई0आर0 करवाने के बाद मुश्किल से अख़बार में विज्ञापन देने पर भी वह मिल नहीं पातीं। अंत में एक साधु के कहने पर कि वे दोनों उत्तर प्रदेश के एक मंदिर में है, पति पैसे जुटा कर वहां जाने की साध पालता है। ‘नशे में बहकी विदाई’ कहानी में विवाह के मौके पर शराब पी कर तरह तरह के विषयों पर चर्चा करते हुए मित्रों का सजीव चित्रण जीवंत भाषा में देखने को मिलता है।
     ‘एक गुमशुदा पुस्तक’ में मनुष्य की बहुत कुछ पा लेने की दमित इच्छा की कहानी है जिसमें मोदी को रद्दी वाले से किताब मिलती है जिसमें जो इच्छा करो, मिल जाने के नुस्खे लिखे हैं। वह दो करोड़ पाने की इच्छा करता है और मेल से आने वालों लाखों कराड़ों के धन को पाना चाहता है। अपने मित्र कुलकर्णी को किताब दिखा कर अपने मन की बात कहता है किंतु कुलकर्णी के जाने पर वह किताब उसे घर में नहीं मिल पाती। आजकल लोग किस तरह एक मृगतृष्णा को लिए जी रहे हैं, इस कहानी से स्पष्ट होता है।
     ‘अपने हिस्से की हवा’ में अपने चचेरे भाई के पास नौकर की तरह रहते एक बेकार युवक हिमांशु की व्यथा-कथा है जो रोज सुबह नाश्ता तैयार करने के बाद अख़बारों में आए विज्ञापनों के अनुसार नौकरी की तलाश में निकल जाता है। सामने के मकान से आती प्राणदायक मादक गन्ध से अपने फेफड़ों को भरता हुआ वह आज सुपरवाइजर की पोस्ट के लिए ‘ऑन द स्पॉट’ इंटरव्यू देने का मन बनाता है। यह आधुनिक क्लिनिक खानदानी वैद्य का था जिसमें अब खानदानी बैद्य की आदमकद फोटों के साथ  अतिआधुनिक स्वागत कक्ष था। यहां आ कर लगा कि आज लगभग नव्वें प्रतिशत लोग गुप्त रोगों से पीड़ित हैं और कई सामान्य रोग भी गुप्त रोगों की श्रेणी में आते हैं। उस का बायोडेटा एक पर्ची पर ले कर लम्बे इंतजार के बाद भी इंटरव्यू के लिए नहीं बुलाया जाता और अंत में घर में सूचना देने की घोषणा कर दी जाती है। बाहर आने पर उसे तसल्ली होती है इस भागमभाग में वह अकेला नहीं है।
     ‘कथा कोलाज’ में गांव की बदलती तसवीर पेश की गई है जिसमें एक सूखती नदी पर भव्य भवन बनाए जाने उल्लेख है जबकि गांव में बहती नदीं ख्वाजा पीर की होती थी। यह नदी या खड्ड भी कभी हरहराती थी, अब इस पर एक स्टोन क्रशर भी लग गया है। अमरो तायी द्वारा सुनाई परदेसी की दुकान और बाज पण्डित की कथा अब लोक कथा बनती जा रही है और खड्ड में धीरे धीरे कई मकान और दुकानें बनती गईं। गांव में अब कोई गाय न पाल कर भैंस ही पालता है। गांव वालों द्वारा अवारा छोड़ी गई गायों का ट्रेक्टर में डाल कर दूर छोड़े के लिए हर घर से दस दस रूपए इकट्ठा किए जाते हैं और लड़के रात को शराब के अहाते में लड़के नशे में डूब कर गाते हैं।
     ‘उन्हें आंसू दिखाई नहीं देते’ आज की हड़ताली परंपरा की कहानी है जिसमें गरीब लक्ष्मी अपने बेटे के दिल का वाल्व बदलाने के लिए अस्पताल की कुव्यवस्था का शिकार होती है। ऑप्रेशन का समय आने पर अचानक कर्मचारियों की हड़ताल हो जाती है जिस के कारण सभी मरीज असहाय से पड़े हुए मृत्यु से जूझते रहते हैं और कईयों की हालत नाजुक हो जाती है। ‘आग में तपा सोना’ एक ऐसी विधवा की कहानी है जो अपनी बेटी की खातिर दो बच्चों के बाप एक विधुर प्रोफेसर से दूसरा विवाह करने को राजी हो जाती है। विवाह के बाद उसकी बेटी से अच्छा व्यवहार नहीं होता अतः अपनी बैंक की नौकरी के सहारे पुनः अकेली रहने को विवश हो जाती है।
     जैसाकि पहले कहा गया, रत्नेश के इस संग्रह में छोटी कहानियां अधिक हैं। ऐसी कुछ कहानियां प्रसंग मात्र है तो कुछ अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहती हैं। ‘पहचान तो हैं’, ‘अब कहीं और नहीं’, बहुत बड़ा काम’, ‘बापू तां आ नहीं सकदे’ ऐसी ही छोटी कहानियां हैं जिनमें अफसर तन्त्र, पारिवारिक विद्रुपदाएं, दफतर संस्कृति पर रेखाचित्र खींचे गए हैं। नौकरी में पद की दूरी को किनारे रख जो एक आपसी नजदीकी बनती है वह बड़ा अधिकारी बनने पर कैसे पुनः दूरी में बदल जाती है या आज दफतरों में देरी से आने, चाय पीने या खाना खाने, क्रिकेट की चर्चा करने का काम ही किया जाता है; इसका चित्रण छोटी कहानियों में किया गया है। ‘बापू तां आ नहीं सकदे’ कहानी में एक बच्चे के जीवट का चित्रण कहानी को सजीव बनाता है। नाई द्वारा जैसे तैसे लापरवाही में टिंड में बदले उसके बाल, मैले कपड़े उसके अभावों से भरे जीवन को दर्शाते हैं मगर मां की बीमारी पर उसका बाप से मिलने जाने का जीवट एक गहरा प्रभाव छोड़ता है।
      कुल मिला कर संग्रह की कहानियां एक प्रभाव छोड़ने में समर्थ हैं। लेखक की अपनी एक शैली है। ‘जैसे कोई बुत बोल उठा’, ‘हिन्दी के अख़बारों में नौकरियां कम होती है, छोकरियां अधिक’, ‘आवाज बेकार वस्तुओं की तरह नीचे टपकती है’ जैसे वाक्यांश लेखक की परिपक्व शैली को दर्शाते हैं। कहानियांे में स्थानीय बोली व पंजाबी का प्रयोग बोझिल नहीं लगता अपितु इन्हें प्रभावी बनाता है।
झील में उतरती ठण्ड :  कहानी संग्रह। लेखक : रतन चंद ‘रत्नेश’। प्रकाशक :  अक्षरधाम प्रकाशन, करनाल रोड़ कैथल (हरि0)। मूल्य: रु.160/- । संस्करण: 2013 

  • ‘‘अभिनंदन’’, कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला-171009, हि.प्र.

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 09-10 ,  मई-जून 2014 

{आवश्यक नोट-  कृपया संमाचार/गतिविधियों की रिपोर्ट कृति देव 010 या यूनीकोड फोन्ट में टाइप करके वर्ड या पेजमेकर फाइल में या फिर मेल बाक्स में पेस्ट करके ही भेजें; स्केन करके नहीं। केवल फोटो ही स्केन करके भेजें। स्केन रूप में टेक्स्ट सामग्री/समाचार/ रिपोर्ट को स्वीकार करना संभव नहीं है। ऐसी सामग्री को हमारे स्तर पर टाइप करने की व्यवस्था संभव नहीं है। फोटो भेजने से पूर्व उन्हें इस तरह संपादित कर लें कि उनका लोड 02 एम.बी. से अधिक न रहे।}



महादेवी वर्मा के 107वें जन्मदिन पर संगोष्ठी
कविता दायित्वबोध की सार्थक अभिव्यक्ति :  किरण अग्रवाल


कविता गहरे दायित्वबोध की सार्थक अभिव्यक्ति है। आधुनिक हिंदी कविता में भविष्य के समाज की स्पष्ट तस्वीर देखी जा सकती है। सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध वह आक्रोश ही व्यक्त नहीं करती बल्कि चेतना जाग्रत कर अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का भी निर्वाह करती है। उक्त विचार प्रख्यात साहित्यकार किरण अग्रवाल ने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अंतर्गत रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ में सुप्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा के 107वें जन्मदिन के अवसर पर ‘आधुनिक हिंदी समाज और कविता’ विषयक एक दिवसीय संगोष्ठी में बतौर मुख्य वक्ता व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि कविता सदैव अपने सामाजिक परिवेश से प्रभावित रही है। शिल्प के बंधनों से मुक्त आज की कविता वैचारिक रूप से अधिक परिपक्व है। चर्चित कवि शैलेय ने कहा कि शब्दों का अंबार लगाने से कविता नहीं बनती। कविता मनुष्य की सबसे पुरानी
भाषा है और भाषा को हम विचार से पहचानते हैं। समालोचक मदन मोहन पाण्डे ने कहा कि किसी भी भाषा की शक्ति का अंदाज बिल्कुल नए कवियों की भाषा से लगाया जा सकता है। इन कवियों की कविता में जहाँ समय को समझने की कोशिश है, वहीं उनकी कविता अपने समय को बिना किसी आकुलता के पकड़ती है।
          प्रो. नीरजा टण्डन ने कहा कि हिंदी में स्त्री-विमर्श की शुरुआत का श्रेय महादेवी वर्मा को जाता है। महादेवी की कविता का उनके गद्य से गहरा संबंध है। डॉ. अधीर कुमार ने कहा कि अधिक से अधिक को कम से कम शब्दों में कहने की प्रवृत्ति के कारण कविता लगातार संश्लिष्ट हुई है। आज की कविता में प्रतिरोध का स्वर बहुत तेज है और आने वाली कविता पूरी तरह प्रतिरोध की कविता होगी।
           
संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवयित्री प्रो. दिवा भट्ट ने कहा कि पुस्तकों के बजाय इंटरनेट और ब्लॉग जैसे माध्यमों के जरिए लोकप्रिय हो रही कविता भाषा और विन्यास की सीमा से परे बिल्कुल एक नए प्रयोग की तरह है जो बहुत कम शब्दों में अपनी गहरी छाप छोड़ जाती है। संगोष्ठी को प्रो. निर्मला ढैला बोरा, डॉ. ममता पंत, डॉ. तेजपाल सिंह, खेमकरण सोमन  आदि ने भी संबोधित किया। चर्चाकारों में डॉ. शुभा मटियानी, यशपाल सिंह रावत, नेहा गौड़, शालिनी मिश्रा, ललित सौल, छत्रपति पन्त, नवनी चन्द्र, पवनेश ठुकराठी, चंचल गोस्वामी, शिव प्रकाश त्रिपाठी, जितेन्द्र कुमार यादव, सुनील कुमार, ललित चंद्र जोशी आदि शामिल थे।
         कार्यक्रम के दूसरे सत्र में सर्वश्री रमेश चंद्र पंत, अनिल घिल्डियाल, जहूर आलम, डॉ. महेश बवाड़ी, दिनेश उपाध्याय, अनिल कार्की, डॉ. वेद प्रकाश ‘अंकुर’, नवीन बिष्ट, नीरज पंत, देवकी नंदन कांडपाल, श्याम सिंह कुटौला, त्रिभुवन गिरि, डॉ. शांति चंद आदि ने कविता-पाठ किया। सत्र की अध्यक्षता करते हुए कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एच. एस. धामी ने कहा कि वर्ष 2005 में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अंतर्गत महादेवी वर्मा सृजन पीठ की स्थापना जिन उद्देश्यों को लेकर की गई थी, पीठ उस दिशा में निरंतर कार्यरत है तथा पीठ ने अपने कार्यकलापों के माध्यम से देशभर में एक विशेष पहचान बनाई है। पीठ के स्थायित्व तथा विकास के लिए जो सहयोग विश्वविद्यालय से अपेक्षित होगा, वह पीठ को निरंतर मिलता रहेगा। अपने स्वागत संबोधन में महादेवी वर्मा सृजन पीठ के निदेशक, प्रो. देव सिंह पोखरिया ने कहा कि पीठ को उत्तराखण्ड
की साहित्यिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र के रूप में विकसित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि महादेवी की स्मृति में सामूहिक प्रयासों से सृजन पीठ राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक संस्थान के तौर पर स्थापित हो सके तो यही महादेवी जी के प्रति वास्तविक श्रद्धांजलि होगी।
           इससे पूर्व दीप प्रज्वलन और विशिष्ट अतिथियों द्वारा महादेवी जी के चित्र पर माल्यार्पण से कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। कार्यक्रम का संचालन पीठ के शोध अधिकारी मोहन सिंह रावत ने किया। इस अवसर पर महेन्द्र ठकुराठी के कुमाउनी कहानी-संग्रह ‘ठुलि बरयात’ तथा युवा कवि सन्तोष कुमार तिवारी के कविता-संग्रह ‘फिलहाल सो रहा था ईश्वर’ का विमोचन गणमान्य अतिथियों ने किया। {समाचार प्रस्तुति : मोहन सिंह रावत, बर्ड्स आई व्यू, इम्पायर होटल परिसर, तल्लीताल, नैनीताल-263002 (उत्तराखण्ड)}



केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा ‘‘पं. कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ रचना संचयन’’ प्रकाशित 

 
   केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने कालजयी साहित्यकारों की प्रतिनिधि रचनाओं को पुस्तकाकार ‘रचना संचयन’ के रूप में प्रकाशित करने की अपनी महत्वाकांक्षी योजना की इक्कीसवीं कड़ी के रूप में देश के सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री पं कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ के प्रतिनिधि साहित्य को ‘रचना संचयन’ के रूप में प्रस्तुत किया है। इससे पूर्व इस योजना के तहत केन्द्रीय साहित्य अकादमी गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’, जयशंकर प्रसाद, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, महाकवि सूर्य कान्त त्रिपाठी ‘निराला’, भारतेंदु हरिश्चंद्र, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, पं.महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि के ‘रचना संचयन’ देश के विभिन्न वरिष्ठ साहित्यकारों के संपादन एवं चयन के आधार पर प्रकाशित कर चुकी है। ‘‘ पं कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ रचना संचयन’’ के संपादन एवं रचना चयन का दायित्व वरिष्ठ साहित्यकार एवं साहित्य अकादमी के पूर्व सदस्य और पूर्व प्राचार्य डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ जी को सौंपा गया था, जिसे तत्परता से उन्होंने कुशलतापूर्वक पूरी निष्ठा से संपन्न करके उक्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
     देश के प्रतिष्ठित पत्रकार एवं साहित्यकार पद्मश्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ को हिंदी में ‘रिपोर्ताज’ विधा का जनक माना जाता है! एक शैलीकार के रूप में उनका अति विशिष्ट स्थान रहा है। उनका जन्म सहारनपुर जिले के सुप्रसिद्ध कस्बे देवबन्द में 29 मई, 1906 को हुआ था और उन्होंने प्रमुखतः सहारनपुर को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। देश, समाज और साहित्य-पत्रकारिता के लिए समर्पित जीवन जीते हुए वह 09 मई 1995 को परलोक सिधारे। स्वयं द्वारा आरंभ लोकप्रिय पत्रों ‘विकास’ एवं ‘नया जीवन’ के साथ ही उन्होंने कई प्रतिष्ठित एवं राष्ट्रव्यापी चर्चा में रहे पत्र-पत्रिकाओं, यथा- ज्ञानोदय, राष्ट्रधर्म, विश्वज्ञान, विश्वास,मनोरंजन, शांति आदि का संपादन भी किया। उनका लेखन संसार अब तक प्रकाशित उनकी बहुप्रशंषित लगभग दो दर्जन कृतियों में फैला हुआ है।
    पद्मश्री पं कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की लगभग सभी कृतियों से प्रतिनिधि रचनाओं को लेकर केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा प्रस्तुत ‘रचना-संचयन’ में प्रकाशित किया गया है। कुल 360 पृष्ठों के इस संचयन को संपादक डॉ. ‘अरुण’ जी ने आत्मचिंतन, संस्मरण एवं रेखाचित्र, ललित निबंध व संस्मरणात्मक निबंध, रिपोर्ताज, प्रेरक एवं प्रसंगात्मक आलेख, जीवन स्मरण एवं विविधि विधाओं शीर्षक से (लघुकथाएं, बालकथाएं, पत्रकारिता एवं युवाओं के लिए प्रेरक आलेख आदि) सात खंडों में संयोजित किया है। साथ ही अपनी 25 पृष्ठों की महत्त्वपूर्ण संपादकीय भूमिका में उन्होंने ‘प्रभाकर’ जी की साहित्य-साधना के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला है।  
      पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जन्में और इसी भूखंड को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले किसी साहित्यकार पर केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा इस तरह का ‘रचना संचयन’ पहली बार प्रकाशित किया गया है। इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ से पद्मश्री ‘प्रभाकर’ जी के
पत्रकारिता एवं साहित्य को प्रदत्त योगदान को नई पीढ़ी एवं शोधकर्ताओं के लिए समझना आसान हो जायेगा। ग्रन्थ का मूल्य मात्र दो सौ रुपये रखा गया है। (समाचार सौजन्य :  डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’, पूर्व प्राचार्य, 74/3, न्यू नेहरु नगर, रूडकी-247667, हरिद्वार)



शोषण के विरुद्ध रचनात्मक हथियार है लघुकथा : सतीश राठी


‘शेर ने बकरी से पूछा मांस खाएगी? बकरी ने कहा, हुजूर मेरा बच जाये यही बहुत है।’ स्व. रामनारायण उपाध्याय की इस लघुकथा को सुनाते हुए वरिष्ठ लघुकथाकार सतीश राठी ने इंडियन सोसायटी ऑफ औथर्स की लघुकथा संगोष्ठी मे विशेष अतिथि पद से कहा कि समकालीन लघुकथा उत्पीडन, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध रचनात्मक हथियार सिद्ध हुई है, जो उसकी निरन्तर लोकप्रियता कि सबसे बड़ी वजह है। श्री राठी ने उक्त विचार इस अयोजन में सुरेश शर्मा, वेद हिमांशु, संध्या भराडे, ज्योती जैन और चंद्रसायता के लघुकथा पाठ के पश्चात व्यक्त किए। इस अवसर पर ज्योती जैन ने कहा कि आज कि लघुकथाएं समाज की दोहरी नैतिकता पर प्रहार करती है और समाज की बदलती हुई जीवान शैली को अपने केन्द्र मे रखती है। अयोजन अवसर पर के. एस. रावत, श्री गुप्ता, नन्दलाल भारती, शारदा गुप्ता और राजश्री हिमांशु साहित नगर के अनेक रचनाकार उपस्थित थे। संचालन एवम आभार प्रदर्शन ज्योती जैन ने किया। (समाचार प्रस्तुति : वेद हिमांशु, इन्दौर)





रतलाम में प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा खांपा रत्न सम्मानोपाधि से विभूषित


उज्जैन। विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं प्रसिद्ध समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को उनकी सुदीर्घ साहित्यिक साधना, हिन्दी एवं मालवी भाषा के व्यापक प्रसार एवं संवर्धन एवं संस्कृति के क्षेत्र में किए महत्वपूर्ण योगदान और के लिए किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए हल्ला गुल्ला साहित्य मंच, रतलाम द्वारा खांपा रत्न सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। उन्हें यह सम्मानोपाधि रतलाम में आयोजित 10वें अ. भा. खांपा सम्मेलन अर्पित की गई। इस सम्मान के अन्तर्गत उन्हें प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिह्न एवं अंगवस्त्र अर्पित किए गए। उन्हें मुख्त अतिथि इप्का लैब के उपाध्यक्ष श्री दिनेश सियाल, समाजसेवी श्री दिनेश पाटीदार, संस्थापक व्यंग्यकार संजय जोशी सजग, संयोजक अलक्षेन्द्र व्यास, जुझारसिंह भाटी आदि ने सम्मानित किया। इस आयोजन में देश के सैंकड़ों साहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।
     प्रो.शर्मा आलोचना, लोकसंस्कृति, रंगकर्म, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि से जुड़े शोध लेखन एवं नवाचार में विगत ढाई दशकों से निरंतर सक्रिय हैं। उनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित पच्चीस से अधिक ग्रंथ एवं आठ सौ से अधिक आलेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। उनके ग्रंथों में प्रमुख रूप से शामिल हैं- शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा, देवनागरी विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, अवंती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, मालवा का लोकनाट्य माच एवं अन्य विधाएँ, मालवी भाषा और साहित्य, मालवसुत पं. सूर्यनारायण व्यास,आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता, हरियाले आँचल का हरकारा.-हरीश निगम, मालव मनोहर आदि। प्रो.शर्मा को देश-विदेश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। प्रो. शर्मा को खांपा रत्न सम्मानोपाधि से अलंकृत किए जाने पर म.प्र. लेखक संघ के अध्यक्ष प्रो. हरीश प्रधान, विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.जवाहरलाल कौल, पूर्व कुलपति प्रो.रामराजेश मिश्र, पूर्व कुलपति प्रो.टी.आर. थापक, कुलसचिव डॉ.बी.एल. बुनकर, विद्यार्थी कल्याण संकायाध्यक्ष डॉ.राकेश ढंड, इतिहासविद् डॉ.श्यामसुन्दर निगम, साहित्यकार श्री बालकवि बैरागी, डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ.शिव चौरसिया, डॉ.प्रमोद त्रिवेदी, प्रो.प्रेमलता चुटैल, प्रो.गीता नायक, डॉ.जगदीशचन्द्र शर्मा, प्रभुलाल चौधरी, अशोक वक्त, डॉ.अरुण वर्मा, डॉ. जफर मेहमूद, प्रो. बी.एल. आच्छा, डॉ. देवेन्द्र जोशी, डॉ. तेजसिंह गौड़, डॉ.सुरेन्द्र शक्तावत, श्री युगल बैरागी, श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव श्नवनीतश्, श्रीराम दवे, श्री राधेश्याम पाठक उत्तम, श्री रामसिंह यादव, श्री ललित शर्मा, डॉ.राजेश रावल सुशील, डॉ.अनिल जूनवाल, डॉ.अजय शर्मा, संदीप सृजन, संतोष सुपेकर, डॉ.प्रभाकर शर्मा, राजेन्द्र देवधरे श्दर्पणश्, राजेन्द्र नागर निरंतर, अक्षय अमेरिया, डॉ.मुकेश व्यास, श्री श्याम निर्मल आदि ने बधाई दी। (समाचार प्रस्तुति : डॉ. अनिल जूनवाल, संयोजक, राजभाषा संघर्ष समिति, उज्जैन, मोबा. 09827273668)





भगवान अटलानी के कहानी संग्रह का विमोचन


   
 जयपुर 15 अप्रेल। हिन्दी और सिंधी के वरिष्ठ सहित्यकार भगवान अटलानी के सिंधी कहानी संग्रह “जीअरी मखि” का विमोचन मंगलवार को हुआ। देश विदेश से आये लगभग पच्चीस हज़ार प्रतिनिधियों की उपस्थिति में चैत्र माह मेले के दौरान अमरापुरा स्थान में प्रेम प्रकाश आश्रम के महामंडलेश्वर स्वामी भगत प्रकाश जी और महाराष्ट्र् सिंधी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा. दयाल आशा ने पुस्तक का विमोचन किया। पुस्तक में नौ कहानियंा शामिल की गई हैं।
     अब तक भगवान अटलानी की कुल 23 पुस्तकें प्रकाशित हो रही चुकी हैं। उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी तथा राजस्थान सिंधी अकादमी के सर्वोच्च सम्मान क्रमशः मीरा पुरस्कार व सामी पुरस्कार मिल चुके हैं। अटलानी राजस्थान सिंधी अकादमी के अध्यक्ष रहे हैैं। (समाचार सौजन्य: भगवान अटलानी, डी-183, मालवीय नगर, जयपुर, राज.)



मालवी जाजम की ग्रीष्म फुहार गोष्ठी आयोजित


   लोकभाषा मालवी के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये प्रतिबद्ध संस्था मालवी जाजम द्वारा (25 मई को ) ग्रीष्म फुहार रचना की संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसमे मालवी के वरिष्ठ कवियों ने अपनी रचनाओं में ग्रीष्म ऋतु को केन्द्र में रखकर पर्यावरण सम्बंधी रचनाएं प्रस्तुत कर काव्य फुहारून से श्रोताओं को भिगो दिया।
     मालवी जाजम के सूत्रधार कविवर नरहरि पटेल ने मीठी उलाहना देता गीत ‘ओ म्हारा राम जी, एक असाड़ काम करी ने  दो सावन करी दीजो/गरीबना की बस्ती मे सुख साधन करी दीजो’ प्रस्तुत किया तो वेद हिमांशु ने अपने मर्म स्पर्शी ग्रीष्म नवगीत को जीवन की तल्ख सच्चाई को कुछ इस तरह परिभाषित किया- ‘सुधियों की नदियों मे पसरी ऊब की रेत, मर गई मछलियाँ पानी समेत, ये कैसे आये उदास सूखे  कछार से दिन, काटे नहीं कटते ये चुभन भरे दिन, बिखर गयी जैसे सारे आंगन आलपिन’।
ग्रीष्म फुहार की इस अभिनव काव्य संगोष्ठी ने सर्व श्री संतोष जोशी, हरमोहन नेमा, विजय विश्वकर्मा, मुकेश इन्दोरी, राज सांदोलिया आदि ने भी अपनी मालवी रचनाएं प्रस्तुत की। (समाचार प्रस्तुति : वेद हिमांशु, इन्दौर)





केदार शोध पीठ, बांदा में  उद्भ्रांत का एकल काव्यपाठ


बांदा। विगत केदार शोध पीठ न्यास, सिविल लाइन्स बांदा के सभागार में वरिष्ठ कवि उदभ्रांत का एकल काव्यपाठ का आयोजन किया गया जिसमें नगर एवं आसपास के जनपदों के कई रचनाकार उदभ्रांत एवं उनकी कविताओं को सुनने के लिए आये, इस अवसर पर बोलते हुये उदभ्रांत ने केदारजी से जुडे़ हुये कई संस्मरण यहां पर सुनायें, केदार जी के जीवन काल में कई बार उदभ्रांत यहां आ चुके थे। न्यास की सक्रियताओं की सराहना करते हुये कहा कि हिन्दी में अपने आप में यह अकेला न्यास है, जो किसी अपने रचनाकार को लेकर इतनी शिद्दत के साथ जुड़कर कार्य कर रहा है। न्यास द्वारा केदार जी के अप्रकाशित साहित्य के प्रकाशन के कार्य को भी देखा, जो न्यास द्वारा 10 पुस्तकों के रुप में अब तक प्रकाशित कराया जा चुका है, इसके लिए न्यास के सचिव की सराहना की। 
इस अवसर पर उदभ्रांत जी ने अपनी कई चर्चित कविताओं का काव्य पाठ किया जिनमें बकरामंडी, सुअर, घर, पान का बीडा, आगरे का पेठा, तवायफ़, आवारा कुत्ते, जोकर, बचपन, आत्महत्या, मोमबत्ती, सीता रसोई, ब्लैकहोल मुख्य रुप से श्रोताओं के द्वारा सराही गई। इस अवसर पर उदभ्रांत ने हाल में ‘प्रेरणा’, ‘हमारा भारत’ पत्रिका में प्रकाशित उपन्यास ‘नक्सल’ की चर्चा की, इस चर्चित उपन्यास की पृष्ठभूमि पर बात करते हुये उन्होंने यह भी बताया कि यह उनके द्वारा क्यों लिखा गया, नक्सलियों के प्रति सरकारी रवैये की चर्चा की। 
इस आयोजन की अध्यक्षता डॉ. रामगोपाल गुप्त ने की और संचालन चन्द्रपाल कश्यप ने किया। आयोजन के अन्त में न्यास के सचिव एवं समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवि नरेन्द्र पुण्डरीक ने सभी के प्रति आभार प्रकट किया। (समाचार प्रस्तुति : चन्द्रपाल कश्यप, केदार शोध पीठ, बांदा)



शिलांग में राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मेलन का भव्य आयोजन

    पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी के तत्वावधान में दिनांक 30 मई 2014 से 1 जून 2014 तक श्री राजस्थान विश्राम भवन, लुकियर रोड, गाड़ीखाना, शिलांग में राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मेलन का भव्य आयोजन किया गया। इस तरह का आयोजन अकादमी द्वारा प्रतिवर्ष मई महीने में सन् 2008 से किया जा रहा है। इसके पूर्व 2002 में भी अखिल भारतीय लेखक शिविर का आयोजन किया गया था।
उद्घाटन सत्र :  दिनांक 30 मई को इस सम्मेलन का उद्घाटन मुख्य अतिथि श्री जी. एल. अग्रवाल, वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रधान संपादक पूर्वांचल प्रहरी, गुवाहाटी ने दीप प्रज्ज्वलित कर किया। इस सत्र में मुख्य अतिथि के अतिरिक्त अति विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री अतुल कुमार माथुर, भारतीय पुलिस सेवा, भूतपूर्व निदेशक उत्तर पूर्वी पुलिस अकादमी, उमियम, जिला रिभोई, विशिष्ट अतिथि के रूप में वैश्य परिवार मासिक पत्रिका के प्रधान संपादक श्री श्रीहरि वाणी, कानपुर, स्थानीय समाजसेवी एवं अकादमी के संरक्षक श्री ओंमप्रकाश जी अग्रवाल, पूर्वाेत्तर हिंदी अकादमी के अध्यक्ष श्री बिमल बजाज, संरक्षक श्री किशन टिबरीवाल, प्रबंध निदेशक, होटल पोलो टावर लि., शिलांग मंच पर उपस्थित थे। इस सत्र को दौरान अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका पूर्वाेत्तर वार्ता एवं शुभ तारिका के डा. महाराज कृष्ण जैन विशेषांक सहित वैश्य परिवार पत्रिका, पावन छाया पुस्तक, वैश्य शिरोमणि भामाशाह तथा डा. महाराज कृष्ण जैन की रचनाओं का नूतन संग्रह गुरु नमन का लोकार्पण मंचस्थ अतिथियों ने किया। इस सत्र का सफल संचालन किया डॉ. अरुणा कुमारी उपाध्याय ने। सम्मेलन के संयोजक डा. अकेलाभाइ ने अपने स्वागत भाषण में इस समारोह तथा पुरस्कारों का पूरा विवरण प्रस्तुत किया। इस संत्र का आरंभ में कुमारी लानुला जमीरस सुश्री सुष्मिता दास, कुमारी अर्पिता चक्रवर्ती एवं साथियों ने स्वागत गीत तथा सरस्वती वंदना प्रस्तुत किया। इस सत्र के अति विशिष्ट अतिथि श्री अतुल कुमार माथुर ने अपने बीज भाषण में अकादमी की गतिविधियों से लोगों को अवगत कराते
हुए कहा कि हिंदीतर प्रदेशों में हिंदी का प्रचार-प्रसार करना अत्यंत कठिन कार्य है और इस कठिन कार्य को पूर्वाेत्तर हिंदी अकादमी सक्रिय रूप से विगत 24 वर्षों से कर रही है। यह अकादमी सिर्फ हिंदी का प्रचार ही नहीं करती बल्कि पुस्तक प्रकाशन, विद्यालयों में गांधी शिक्षा देने आदि का कार्य भी कर रही है। इस अकादमी के हर प्रयास को सफल एवं उचित कहा जाएगा। श्री जी. एल अग्रवाल ने अपने वक्तव्य में कहा कि अकादमी का कार्य निसन्देह सराहनीय है। हिंदी प्रेमियों को सम्मानित करना और पूर्वाेत्तर भारत में हिंदी का प्रचार प्रसार करना यह अत्यंत सराहनीय है। असम तथा पूर्वाेत्तर भारत आठों राज्यों में पत्रकारिता की दशा और दिशा की चर्चा करते हुए कहा कि पूर्वांचल प्रहरी विगत 26 वर्षों से पूर्वाेत्तर क्षेत्र में हिंदी पत्रकारिता कर रहा है। उन्होंने ने आयोजन समिति को आश्वासन दिया कि इस तरह का समारोह यदि गुवाहाटी में आयोजित किया जाता है तो हमारी तरफ से पूरा आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाएगा। श्री ओमप्रकाश अग्रवाल, श्री श्रीहरि वाणी, श्री किशन जी टिबरीवाल ने भी अपने अपने विचार रखे और अकादमी के प्रयासों की सराहना की। इस सत्र का समापन अकादमी के अध्यक्ष श्री बिमल जी बजाज के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।
काव्य संध्या :  शाम 6-30 बजे से काव्य संध्या का आयोजन कानपुर उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ कवि एवं साहित्यकार डा. रामस्वरूप सिंह चन्देल की अध्यक्षता में किया गया। इस सत्र का संचालन श्री अजय कुलश्रेष्ठ और श्रीमती रश्मि कुलश्रेष्ठ ने किया। इस सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में मंच पर श्री अतुल कुमार माथुर, भारतीय पुलिस सेवा, भूतपूर्व निदेशक उत्तर पूर्वी पुलिस अकादमी, उमियम, जिला रिभोई उपस्थित रहे। विशिष्ट अतिथि के रूप में नेपाली भाषा के कवि एवं चित्रकार श्री विक्रमवीर थापा, साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता और खासी विभाग की प्रो. स्ट्रीमलेट डखार मंच पर उपस्थित रहे। सर्वश्री नयन कुमार राठी, डा. सतीशचन्द्र शर्मा सुशांधु, केवलकृष्ण पाठक, सूर्य नारायण सूर्य, राधेश्याम चौबे, केदारनाथ सविता, किसान दीवान, अजय कुलश्रेष्ठ, चंद्रप्रकाश पोद्दार, रमेश चौरसिया राही, संजय अग्रवाल, श्रीप्रकाश सिंह, विशाल के. सी. बलजीत सिंह, कुमारी आईनाम इरिंग, श्रीमती मालविका रायमेधी दास, सलमा जमाल, डा. अनीता पण्डा, श्रीमती सरिता शर्मा, कुमारी मिलीरानी पाल, कुमारी मोर्जूम लोई, कुमारी गुम्पी ङूसो, श्रीमती बन्टी आशा काकति चालिहा, श्रीमती रश्मि कुलश्रेष्ठ और श्रीमती हरकीरत हीर आदि ने काव्य-पाठ किया। आभार एवं धन्यवाद ज्ञापन संयोजक डा. अकेलाभाइ ने किया। डा. अरुणा उपाध्याय और डा. अनीता पण्डा ने मंचस्थ कवियों का स्वागत फुलाम गामोछा पहना कर किया।
हिंदी संगोष्ठी :  दिनांक 31 मई 2014 को पूर्वाह्न 10.30 बजे से केन्द्रीय हिंदी संस्थान की क्षेत्रीय निदेशिका प्रो. अपर्णा सारस्वत की अध्यक्षता में पूर्वाेत्तर भारत में हिंदी-दशा और दिशा विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें देश के विभिन्न राज्यों से आये 9 प्रतिभागियों ने अपने-अपने आलेख पढ़े। इस सत्र का संचालन राजीव गांधी विश्वविद्यालय की हिंदी अधिकारी कुमारी गुम्पी ङुसो ने किया। मुख्य अतिथि के रूप में असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, गुवाहाटी के मंत्रि डा. क्षीरदा कुमार शइकीया, अति विशिष्ट अतिथि के रूप में पावरग्रीड कारपोरेशन के उप महा-प्रबंधक श्री उत्पल शर्मा, विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती सलमा जमाल और प्रेरणा भारती साप्ताहिक समाचार पत्र की संपादिका श्रीमती सीमा कुमार मंच पर उपस्थित थे। श्रीमती मालविका रायमेधा दास, कुमारी ययमुना तायेंग, श्री संजय अग्रवालस श्री हरिमोहन नेमा हरि, श्रीमती बन्ती आशा काकति चालिहा, श्रीमती सलमा जमाल, श्री किसान दीवान, कुमारी भारती लालुंग, कुमारी लानुला जमीर आदि विद्वानों ने अपने-अपने आलेख प्रस्तुत किये। अपने अध्यक्षीय भाषण में डा. सारस्वत ने कहा कि हिंदी का विकास राष्ट्र का विकास है। इस भाषा के विकास के लिए हम सभी को प्रयत्न करना चाहिए। राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए हिंदी का विकास आवश्यक है।  इस संत्र के लिए डा. अकेलाभाइ ने आभार व्यक्त किया।
     अखिल भारतीय लेखक सम्मान समारोह: दोपहर 3-30 बजे से अखिल भारतीय लेखक सम्मान समारोह के मुख्य अतिथि रूप के रूप में श्री अतुल कुमार माथुर, विशिष्ट अतिथि के रूप में डॉ. क्षीरदा कुमार शइकीया, श्री कुंज बिहारी अजमेरा, श्री पवन बावरी, श्री पुरुषोत्तमदास चोखानी, अकादमी के अध्यक्ष श्री बिमल बजाज मंच पर उपस्थित थे। इस सत्र का सफल संचालन डॉ. अरुणा उपाध्याय ने किया। इस सत्र में सर्व श्री नयन कुमार राठी, हरिमोहन नेमा हरि (इंदौर), रमेश चौरसिया राही, राधेश्याम चौबे, केवलकृष्ण पाठक (बिलासपुर), डा. रामस्वरूप सिंह चन्देल, अजय कुलश्रेष्ठ, रश्मि कुलश्रेष्ठ, सुरेन्द्र जायसवाल (कानपुर), डा. सतीशचन्द्र शर्मा सुधांशु (बदायूँ), कुमारी मिलीरानी पाल, गुम्पी ङुसो, मोर्जूम लोई (अरुणाचल प्रदेश), किसान दीवान (छतीसगढ़), सीमा जैन (पंजाब), सूर्यनारायण गुप्ता सूर्य, केदारनाथ सविता, मञ्जरी पाण्डेय (उत्तर प्रदेश),
बलजीत सिंह (हरियाणा), कुमारी रानी तिवारी, सलमा जमाल (म. प्र.), श्रीप्रकाश सिंह, विशाल के. सी. (मेघालय), श्रीमती बंती आशा काकति चालिहा, सोमित्रम (असम) को डॉ. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान प्रदान किया गया। आस वर्ष का श्री केशरदेव गिनिया देवी बजाज स्मृति सम्मान सर्वश्री संजय अगवाल (सिक्किम), बिमल कुमार मिश्र, श्रीमती मालविका रायमेधी दास, श्रीमती सीमा कुमार (असम), कुमारी लानुला जमीर (नागालैण्ड) को प्रदान किया गया। श्री जीवनराम मुंगी देवी गोयनका स्मृति सम्मान 2014, श्रीमती हरकीरत हीर, डा. संतोष कुमार (असम), डा. अनीता पण्डा (मेघालय) को तथा श्री जे. एन. बावरी स्मृति सम्मान 2014, श्रीमती सरिता शर्मा, श्री चन्द्रप्रकाश पोद्दार (असम) को उनके समस्त लेखन एवं साहित्यधर्मिता के लिए प्रदान किया गया। पूर्वाेत्तर हिंदी अकादमी को सहयोग देने तथा हिंदी के क्षेत्र में अत्यंत सराहनीय योगदान के लिए डा. क्षीरदा कुमार शइकीया, श्री जी. एल. अग्रवाल (असम) तथा श्री श्रीहरि वाणी (उ. प्र.) को मानपत्र से सम्मानित किया गया।
नृत्य एवं संगीत समागम :  सायं 6-30 बजे से सांस्कृतिक संध्या का आयोजन संगीत नाटक अकादेमी, नई दिल्ली के सहयोग से किया गया। इस नृत्य एवं संगीत समागम में भरतनाट्यम् असम प्रदेश का लोकप्रिय बिहु लोक नृत्य, मणिपुरी लोकनृत्य, नेपाली लोक नृत्य, पंजाबी लोकनृत्य, अरुणातल प्रदेश का लोक नृत्य, आधुनिक गीतों पर आधारित नृत्य, असमीया लोकगीत, भजन, आधुनिक गीत आदि विभिन्न कलाकारों ने प्रस्तुत किया। इस संगीत और नृत्य के रंगारंग कार्यक्रम में सिंह स्टार डांस इंसिच्यूट, नॉर्थ इस्ट डान्स अकादमी, कुमारी गरीयसी, दरथी ठाकुरिया, कुमारी गुम्पी ङुसो, मोर्जूम लोई, कुमारी ज्योत्स्ना शर्मा, उत्पल शर्मा, श्रीमती रमा चोरसिया, श्रीमती श्याम कुमारी चौरसिया, श्री किसान दीवान, श्री श्रीहरि वाणी, कुमारी लानुला जमीर, श्रीमती रश्मि कुलश्रेष्ठ, श्री सुखदेव सिंह, कुमारी रोमा सिन्हा आदि कलाकारों का सराहनीय योगदान रहा। 
पर्यटन एवं वनभोज :  रविवार 1 जून 2014 को कुल प्रतिभागी लेखकों ने बस द्वारा मतिलांग पार्क, मौसमाई
गुफा, थांगखरांग पार्क आदि स्थानों  का भ्रमण किया। बस का सफर काफी मनोरंजक था। महिला प्रतिभागियों ने रास्ते भर गीत और संगीत से इस यात्रा को सुखद और मनोरंजन-पूर्ण बना दिया। जिन लोगों ने पहली बार इस सम्मेलन में आये उनके लिए यह पर्यटन कौतूहल भरा था और सभी अपने-अपने कैमरे में क़ैद करने की कोशिश कर रहे थे। दोपहर के भोजन का आनंद सभी लेखकों ने बांगलादेश की सीमा पर लिया और रूपातिल्ली नदी को देख कर आन्नदित हुए। लेखक जब थाँगख्रांग पार्क पहुँचे तभी बरसात शुरू हो गयी। इस तरह चेरापूँजी की बरसात का आनन्द भी लेखको ने खूब उठाया।
     इस सम्मेलन के आयोजन में केशरदेव गिनिया देवी बजाज चौरिटेबुल ट्रस्ट, जीवनराम मुंगी देवी गोयनका पब्लिक चौरिटेबुल ट्रस्ट, जे. एन. बावरी ट्रस्ट, महाबीर जनकल्याण निधि, मेसर्स केशरीचंद जयसुखलाल, कहानी लेखन महाविद्यालय, श्री पुरुषोत्तम दास चोखानी और श्री ओमप्रकाश अग्रवाल के सहयोग और समर्थन के लिए आयोजन समिति ने आभार प्रकट करते हुए अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। (समाचार प्रस्तुति : आयोजन समिति की ओर से अकेलाभाई, अकादमी सचिव)


कार्टून का विश्वकीर्तिमान




व्यंग्य चित्रकार डॉ. देवेन्द्र शर्मा को देश विदेश की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके सर्वाधिक सामयिक कार्टून सांख्या (55167) के विश्वकीर्तिमान के लिये अमेरिका का ‘गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स’ सम्मान प्रदान किया गया। 
      जानकारी देते हुये श्री वेद हिमांशु ने बताया कि मध्य प्रदेश के सर्वप्रथम ट्रेड सेंटर व्यवसायिक कार्टूनिस्ट, देवेन्द्र शर्मा कार्टून विषय पर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त हैं। वे इस विधा के पत्रकारिता के अंतर्गत अध्यापन के सिलसिले में माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविध्यालय से भी संबद्ध रहे हैं। (समाचार प्रस्तुति :  वेद हिमांशु, इन्दौर)




नरेश कुमार ‘उदास’ को श्रेष्ठ कृति पुरस्कार





जम्मु-कश्मीर साहित्य अकादमी ने वर्ष 2012 के लिए वरिष्ठ साहित्यकार श्री नरेश कुमार ‘उदास’ को श्रेष्ठ कृति सम्मान देने की घोषणा की है। यह सम्मान उन्हें वर्ष 2012 में प्रकाशित उनकी हिन्दी में लिखित कहानी संकलन ‘माँ गाँव नहीं छोड़ना चाहती’ के लिए दिया जाएगा। इस सम्मान के अन्तर्गत इक्यावन हजार रूपये की राशि के साथ-साथ एक शॉल एक स्मृति चिह्न तथा प्रशस्ति पत्र दिया जायेगा। यह सम्मान समारोह निकट भविष्य में जम्मु-कश्मीर की राजधानी श्री नगर में आयोजित होगा। इस समारोह में प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री उमर अब्दुला स्वयं उपस्थित रहकर रचनाकार को अपने करकमलों से सम्मानित करेंगे।
           श्री नरेश कुमार बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने कविता, कहानी, तथा लघुकथा में अपनी विशिष्ठ पहचान बनाई है। अब तक इन सभी विधाओं में उनकी 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इससे पूर्व केन्द्रीय सरकार अहिंदी भाषा प्रदेशों के रचनाकारों को हिंदी में उत्कृष्ट लेखन कार्य के लिए सम्मानित करने की नीति के तहत उन्हें भी सम्मानित कर चुकी है। इनकी चुनी हुई रचनाओं के अनुवाद अंग्रेजी, पंजाबी, उड़िया तथा डोगरी भाषा में प्रकाशित हो चके हैं। वे ‘निर्झर’ साहित्य मंच पालमपुर(हिमाचल प्रदेश) के संस्थापक है। रचनाकार को बधाई। ( समाचार प्रस्तुति : राधेश्याम ‘भारतीय’, नसीब विहार कालोनी, घरौंडा करनाल 132114, मो- 09315382236)





सुरभि कहानी कार्यशाला का आयोजन 




दिनांक 29.06.14 को नांगलोईए दिल्ली में सुरभि कहानी कार्यशाला में अंजू शर्माए मृदुला शुक्लाए राजीव तनेजाए वंदना गुप्ताए सुनीता शानूए शोभा रस्तोगी ने कहानी पाठ किया।  अध्यक्षता की.. वरिष्ठ साहित्यकार.. सुभाष नीरव ने।   विशिष्ट अतिथि रहे . युवा साहित्यकार  विवेक मिश्र।  वाचित कहनियों पर सार्थक चर्चा हुई । प्रश्नकाल का दौर भी चला  एन बी टी के डा ललित्य ललितए वरिष्ठ साहित्य्कार प्रेमचंद सहजवालाए अनुवादिका अमृता बेरा ने अपने विचार रखे।  
         कार्यक्रम में जाह्न्वी सुमन, बल्जीत, आनंद द्विवेदी, विनोद पाराशर, निवेदिता मिश्रा झा, प्रमोद कुमार, डॉ भोज कुमार मुखी, बलजीत कुमार, वीके बॉस, संजू तनेजा, विशाखा शर्मा, देवान्या शर्मा आदि ने शिरकत की।  संचालन किया शोभा रस्तोगी ने।  आयोजक थे राजीव तनेजा। (समाचार प्रस्तुति : शोभा रस्तोगी )




हम सब साथ साथ की रोचक फेसबुक मैत्री संगोष्ठी

     यहां बुद्ध पूर्णिमा के शुभ अवसर पर सुरभि संगोष्ठी के सभागार में हम सब साथ साथ पत्रिका द्वारा प्रथम क्रियेशन एवं सुरभि संगोष्ठी के साथ मिलकर तृतीय फेसबुक मैत्री संगोष्ठी का रोचक, मनोरंजक एवं ज्ञानवर्द्धक आयोजन किया गया। कार्यक्रम का शुभारम्भ सर्वश्री किशोर श्रीवास्तव, पूनम माटिया, संगीता शर्मा एवं निवेदिता मिश्रा के भाईचारे गीत ‘‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैग़ाम हमारा...‘‘ के साथ हुआ तत्पश्चात दिल्ली एनसीआर व दूरदराज क्षेत्रों के अनेक फेसबुक मित्रों ने फेसबुक की वर्चुवल दुनिया से निकलकर रियल दुनिया में आकर अपने खटटे-मीठे अनुभव मित्रों के साथ साझा किये। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथियों में शामिल सर्वश्री विनोद बब्बर (संपादक-राष्ट्रकिंकर), डा.सरोजिनी प्रीतम (प्रसिद्ध व्यंग्यकार), विजय गुरदासपुरी (प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक) एवं श्रीमती रेखा बब्बल (फिल्म/धारावाहिक लेखिका व निर्माता, मुंबई) ने भी फेसबुक के अपने रोचक अनुभव व रचनायें सुनाकर
श्रोताओं को ताली बजाने पर मज़बूर किया। इस अवसर पर एक प्रतियोगिता के माध्यम से चुनी गई पांच प्रतिभागियों (संजना तिवारी, आंध्रा, पूनम माटिया, निवेदिता मिश्रा, राम के. भारद्वाज दिल्ली एवं जगत शर्मा, दतिया) को स्मृति चिन्ह व प्रमाण पत्र देकर सम्मानित किया गया। निर्णायक मंडल में शामिल थे, सर्वश्री ओम प्रकाश यति, अनिल मीत एवं डा. पूरन सिंह। श्री यति ने भी फेसबुक के अपने श्रेष्ठ अनुभव अपनी बेहतरीन शायरी के साथ साझा किये। इस अवसर पर सर्वश्री डा. दीपक, कामदेव शर्मा, मनीष मधुकर, विनोद पाराशर, विमलेन्दु सागर, नागेन्द्र, सोमा बिस्वास, अलका, संगीता शर्मा, नवीन द्विवेदी, असलम बेताब, चंद्रसेन, अविनाश वाचस्पति, रमेश, मधुबाला, सुजीत शौकीन, डा. के. चौधरी एवं शशि श्रीवास्तव आदि ने भी अपने रोचक व मनोरंजक विचार गद्य एवं पद्य में प्रस्तुत किये और श्रोताओं की वाहवाही बटोरी। संगोष्ठी में फेसबुक की अन्य जो चर्चित हस्तियां
मॉजूद रहीं उनमें सर्वश्री भानु शर्मा, संजू तनेजा, कमला सिंह जीनत, रचना आभा, मनीषा जोशी, सखी सिंह, भुवनेश सिंघल, दीपक गोस्वामी, रामश्याम हसीन, राघवेन्द्र अवस्थी, बबली वशिष्ठ, पीके बास, अंजू चौधरी, नीलिमा शर्मा, अखिलेश द्विवेदी, प्रतीक, शशि कुमार तिवारी,, मंजू लता, अमित कुमार, शीतल आहूजा रेणु बाला एवं दिव्या आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। समस्त कार्यक्रम के सुंदर संयोजन एवं छायांकन में श्री राजीव तनेजा (सुरभि संगठन) एवं व्यवस्था को बेहतरीन अंजाम तक पहुंचान में श्री पंकज प्रथम (प्रथम क्रियेशन) की प्रभावशाली भूमिका रही। 4 घंटे से भी अधिक समय तक चले इस पूरे कार्यक्रम के बीच हंसी के फव्वारे छूटते रहे और श्रोतागण अपनी कुर्सियों से चिपके बैठे रहे। कार्यक्रम के सफल संचालन एवं हास्य की फुहारें छोड़ने का जिम्मा उठाया था हम सब साथ साथ के कार्यकारी संपादक श्री किशोर श्रीवास्तव ने। (समाचार सौजन्य : शशि श्रीवास्तव, संपादक- हम सब साथ साथ पत्रिका एवं पंकज त्यागी, नई दिल्ली)