आपका परिचय

बुधवार, 4 मार्च 2015

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 05-06,   जनवरी-फ़रवरी  2015 


।।क्षणिका।।

सामग्री :  इस अंक में श्री महेश पुनेठा एवं सुश्री हरकीरत ‘हीर’ की क्षणिकाएं।



महेश पुनेठा


तीन क्षणिकाएं

01. विकास 
इस वर्ष 
लाला जी के 
गाड़ियों के काफिले में 
बढ़ गयी है एक और गाड़ी 
खड़ी हो गयी है एक और मंजिल 
और 
कलुआ के 
टैंट की पन्नी में 
जड़ गया है एक और पैबंद 
बेच डाली है उसने एक और बच्ची।

02. काश !
तुम हवा, मैं पानी 
तुम बहो, मैं खो जाऊँ।
तुम बादल बन जाओ 
मैं गोद तुम्हारे सो जाऊँ।
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 

तुम बरसो मैं फिर से 
धरती में बिखर जाऊँ
दग्ध हृदय को सुख पहुँचाऊँ
काश! प्रेम में ऐसी गति पाऊँ। 

03. माँ 
किसी को 
तनिक सा भी दर्द हो कोई 
सभी पुकारते हैं उसे 
आवाज के साथ 
दौड़े-दौड़े चली आती है वह 
पर 
दर्द अपना  
छुपा लेती है ऐसे 
जैसे 
बुझी राख आग को। 

  • शिव कालोनी, वार्ड पियाना, डाक डिग्री कॉलेज, पिथौरागढ़-260501 (उत्तराखंड) / मोबाइल : 09411707470




हरकीरत ‘हीर’



चार क्षणिकाएं

01. तेरी याद...
जब भी...
तेरी याद का परिंदा 
मेरी छत की मुँडेर पर 
बैठता है...
मेरे मकान की नींव हिलने लगती है 
आ इक बार ही सही...
अपनी मोहब्बत की इक ईंट लगा जा 
कहीं ये ढह न जाए...!!

02. उम्मीदों के दीये...
रातों की उदासी
और मायूसी के बीच
इस बार फिर जलाये हैं
छाया चित्र : अभिशक्ति 

कुछ उम्मीदों के दीये...
देखना है चिरागों में रौशनी
लौटती है या नहीं...!!

03. तीखे शब्द....
छिलते-छिलते 
जख्म नासूर बन गया है 
तुमने गाड़े भी तो थे 
गहरे तक धँसने वाले 
तीखे शब्द....

04. अनकहे शब्द....
तुमने कभी 
पढ़ा ही नहीं 
मेरे अनकहे शब्दों का प्रेम 
पता नहीं कसूर 
मेरी आँखों का था 
या तुम ही नहीं पढ़ पाए 
मेरी आँखों को कभी...

  • 18, ईस्ट लेन, सुन्दरपुर, आर.जी. बारू रोड, हाउस नं.5, गुवाहाटी-781005 (असम) / मोबाइल : 9864171300

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 05-06,   जनवरी-फ़रवरी  2015



।।हाइकु।।

सामग्री :  इस अंक में ‘क़ाफ़िले रोशनी के’ संग्रह से डॉ. गोपाल बाबू शर्मा व ‘साँसों की सरगम’ संग्रह से डॉ. रमा द्विवेदी के हाइकु। 


डॉ. गोपाल बाबू शर्मा




{डॉ. गोपाल बाबू शर्मा का हाइकु संग्रह ‘क़ाफ़िले रोशनी के’ गत वर्ष प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इस संग्रह से उनके पन्द्रह प्रतिनिधि हाइकु।}

पन्द्रह हाइकु

01.
मिले अक्सर 
मुसकानों में छुपे,
खूनी ख़ंजर।

02.
कहीं बबूल
कहीं देते खुशबू,
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

जूही के फूल।

03.
उड़ा दुपट्टा
उन्मुक्त प्रदर्शन,
नई सभ्यता।

04.
लिखना है तो,
मृत्यु के पृष्ठों पर,
ज़िन्दगी लिखो।

05.
शब्दों की भीड़
दीख नहीं पड़ते,
कहीं भी अर्थ।

06.
धूल-बबूल
कागों की काँव-काँव,
कोकिला मौन।

07.
नीले नभ में,
खरबूजे की फाँक,
ताकते बच्चे।

08.
उन्मन मन,
दहकता है जैसे,
ढाक का वन।

09.
जीवन ऐसे
पानी पर बहता,
फूल हो जैसे

10.
ज़िन्दगानी है
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

इसके सिवा क्या कि,
आग-पानी है।

11.
वही आदमी,
रखे औरों के लिए,
आँखों में नमी।

12.
निगोड़ी यादें
फूल बन दुलारें,
शूल-सी चुभें।

13.
किससे कहे
शाख से टूटा पत्ता,
मन की बात।

14.
रेशमी जाल,
फँसती मछलियाँ,
छूटता ताल।

15.
लाया फागुन,
मस्ती भरी चिट्ठियाँ,
बाँचती हवा।

  • 46, गोपाल विहार कॉलोनी, देवरी रोड, आगरा-282001 (उ.प्र.) / मोबाइल :  09259267929 




डॉ. रमा द्विवेदी




{डॉ. रमा द्विवेदी का हाइकु संग्रह ‘साँसों की सरगम’ वर्ष 2013 में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत हैं उनके इस संग्रह से उनके पन्द्रह प्रतिनिधि हाइकु।}


पन्द्रह हाइकु

01.
अनूठा प्यार
नदी समंदर का
कभी न घटे।

02.
आया सैलाब
देहरी लाँघ गई
घर की लाज।

03.
चाँद के आँसू
ओस बन बिखरे
ऊषा ने पोंछे।

04.
माँ नैन-ज्योति
माँ कोटि-सूर्य आभा
माँ चाँद-तारे।

05.
सूरज फीका
चाँद पीला-पीला-सा
चाँदनी रोई।

06.
चाँदनी सोई
देख न पाया कोई
कान्हा का जन्म

07.
खिलता मन
छाया चित्र  : डॉ. बलराम अग्रवाल 

नई कोपलें देख
विस्मृत ग़म।

08.
ब़र्फीला मन
ठिठुरते सपने
ऊष्मा रहित।

09.
प्यास बेताब
ख़ुशबुएँ पी-पी के
मिटी न प्यास।

10.
खिलते पुष्प
मंदिर बयार में
झूमे बसंत।

11.
आँखों की झील
सागर से गहरी
छाया चित्र :
उमेश महादोषी 
डूबने वास्ते

12.
वाष्पित जल
उत्सर्जित कविता
धुएँ-सी उड़े।

13.
कैसी बेढंगी
15.
सपने बुने
अलगनी में पड़े
सूखते रहे।

  • फ़्लैट नं.102, इम्पीरिअल मनोर अपार्टमेंट, बेगमपेट, हैदराबाद-500016 / मोबाइल : 09849021742 

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 05-06 :  जनवरी-फ़रवरी  2015


।। जनक छंद ।। 

सामग्री :  इस अंक में विजय गिरि गोस्वामी ‘काव्यदीप’ के जनक छंद। 



विजय गिरि गोस्वामी ‘काव्यदीप’



सात जनक छन्द

01.
मन मोहक परिवेश है
कहाँ ‘विजय’ संसार में
भारत जैसा देश है

02.
सर्दी का भय रूप है
सूरज की किरणें स्वयं
ढूँढ़ रही ‘गिरि’ धूप है

03.
नेह बीज तो खो गया
कैसे होगा अंकुरण
मन रेतीला हो गया

04.
जल से जग साकार है
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

सोच समझ उपयोग ले
बिन जल हाहाकार है

05.
दीन जनों पर तरस तू
करना है उपकार ‘गिरि’
बादल बनकर बरस तू

06.
नदी मेघ जाते जहाँ
उपकारी ये हर जगह
भेदभाव करते कहाँ

07.
भ्रूण गिराना पाप है
मारे जो शिशु कोख में
कैसी माँ वह, बाप है

(‘जनक छन्द रत्नावली-1’ संग्रह से साभार)

  • मु. बोदिया, पोस्ट मादलदा, तह. गढ़ी, जिला बांसवाड़ा-327034 (राजस्थान) / मोबाइल :  09928699344

बाल अविराम

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 4,   अंक  : 05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2015



।।बाल अविराम।।

सामग्री  :  इस अंक में कवि डॉ. अशोक कुमार गुप्त 'अशोक' के  दो बाल गीत  बाल चित्रकार सर्वज्ञ उनियाल  के चित्रों के साथ।  


डॉ. अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’





{कवि डॉ. अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’ बच्चों के लिए भी रचनाएं लिखते हैं। कुछ माह पूर्व ही उनके बाल गीतों का एक संग्रह ‘‘बटोही के बाल गीत’ प्रकाशित हुआ है। यहां उनके इसी संग्रह से दो बालगीत प्रस्तुत हैं। साथ ही नन्हे-मुन्ने सर्वज्ञ उनियाल के पहली बार कुछ चित्र।}

कृष्ण कन्हैया

सुघर साँवरे कृष्ण कन्हैया
बलदाऊ के प्यारे भैया

खेल खेल में माखन खाते
बछड़ा-गैया नित्य चराते
चित्र : सर्वज्ञ उनियाल 

कालीदह में नाग नथैया
बलदाऊ के प्यारे भैया

माखन मिसरी हमें खिलाओ
टॉफी, बिस्कुट भी दिलवाओ
तान मिलाएँ ता-ता थैया
बलदाऊ के प्यारे भैया

बस्ता बहुत हो गया भारी
दुःख जाती है पीठ हमारी
बोझ करो कम गिरिधर भैया
बलदाऊ के प्यारे भैया

मुरली सुन बोलें मधुबानी
झूम उटें सब हिन्दुस्तानी
चित्र : सर्वज्ञ उनियाल 

जग प्रसिद्ध हो रास रचैया
बलदाऊ के प्यारे भैया

बहुत जरूरी जग में पानी

कहते हमसे नाना नानी
बहुत जरूरी जग में पानी
करिए मत इसको बरबाद
यह करता जग को आबाद

जीवन का आधार यही है
जीव जगत का सार यही है
मीठा खारा मटमैला है
अम्बर धरती तक फैला है

बिन पानी सब सूना लगता
बड़े-बड़ों को चूना लगता
इसका आदर करना सीखो
वर्षा जल को भरना सीखो

पानी संचय, पुण्य काम है
चित्र : सर्वज्ञ उनियाल 

जग में होता, बहुत नाम है
पानी रखकर रहें ‘अशोक’
पावन करें सदा यह लोक।

  • 124/15, संजय गाँधी नगर, नौबस्ता, कानपुर-21, उ.प्र. /  मोबाइल : 09956126487



नए बाल चित्रकार 

सर्वज्ञ उनियाल




माँ : श्रीमती बीना उनियाल
पिता : श्री भुवन उनियाल

कक्षा : 2
जन्म : 09.01.2008


स्कूल : बलूनी सोसियल पब्लिक स्कूल, देहरादून, उ.खण्ड


अविराम विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 4,  अंक : 05-06,  जनवरी-फ़रवरी 2015  


।।अविराम विमर्श।।

सामग्री : इस अंक में प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय का  लघुकथा पर विश्लेणात्मक आलेख "पातनिकी" तथा दूरदर्शन केन्द्र, दिल्ली में अधिशासी डा. अमरनाथ ‘अमर’ जी से साहित्य व मीडिया से जुड़े प्रश्नों पर मनीषा जैन की बातचीत।



प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय


पातनिकी
{यह आलेख डॉ.बलराम अग्रवाल के संपादन व श्री मधुदीप के संयोजन में दिशा प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित लघुकथा संकलन श्रंखला ‘पड़ाव और पड़ताल’’  के खंड-2 में संकलित सभी 6 लघुकथाकारों की 66 लघुकथाओं के मद्देनजर आधार-लेख के रूप में लिखा गया था। वरिष्ठ समालोचक प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय जी ने इसमें समकालीन लघुकथा का विषद और व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।} 

        समय बड़ा बलवान होता है। मनुष्य को चलना पड़ता है उसके मुताबिक, उसके इशारे पर; अन्यथा वह टूट-टूटकर बिखर जाता है। उसका वजूद मिट्टी में मिल जाता है। एक बादशाह ने कहा कि तुम आज़ाद हो, कुछ भी बोलने के लिए। कहीं भी जाने के लिए। परंतु ध्यान रखना, शब्द वही होंगे जो मैं बोलूँगा। तुम जहाँ भी जाओगे, बंदगी मेरी ही करोगे। जो भी सुर्खाब लगाओगे, कलगी मेरी ही बनेगी। फिर बदला जमाना। बदला राजा। दूसरे बादशाह ने भी सिंहासन पर बैठते ही ऐलान किया कि तुम यथावत आज़ाद हो- कुछ भी करने को, कुछ भी बोलने को। पर इतना ध्यान अवश्य रखना कि यह बराबर कहते रहना कि पिछला बादशाह कमीना था। लुच्चा था। लफंगा था। तुम आजाद हो, कहीं भी जाने के लिए। पर जाओ जहाँ भी, जैसे भी, मेरी बादशाहत का करते रहो ऐलान जी भरकर। विशेषण का कोश खाली हो जाये, परवाह नहीं; पर तुम मेरी बड़ाई करते ही जाओ। अचानक लोग देखने लगे शब्दों के आरपार। वे जब लौटे क्षितिजों से यथार्थ की जमीन पर, उनकी उँगलियों के पोरों पर खंजर उग आये थे।
     आज इसी खौफ से व्याप्त है पूरा देश। सारी जनता। साहित्य की विधा का आलम भी युगानुसार बदलता गया। कभी समृद्धि और ऐश्वर्य की सभ्यता महाकाव्य में अभिव्यंजना पाती थी; जटिलता और संघर्ष उपन्यासों में। जीवन की समग्रता का ऐसा आख्यान हुआ कि ‘गोदान’ को ग्रामीण जीवन का महाकाव्य कहा जाने लगा। परन्तु लोगों के पास समय कहाँ है? अतएव, शुरू हुई लघुता की साधना। धूलिकण से बवंडर का परिचय। एक जलकण से सागर की विशालता का माप। अणु में विराट को बाँधने की साधना। जैनेन्द्र कुमार ने समकालीन सच को विवृत करने पर बल दिया। कारण, मनुष्य लाख प्राचीन मूल्यों, आदर्शों, प्रतिमानों, चरित्रों के आलोक से घिरा हो, युगसत्य, समकालीन समस्याओं से उसे सामना करना ही पड़ता है चाहे वह जीत जाए या फिर बिखर जाए। उन्होंने स्पष्ट कहा: ‘‘युग की प्रत्येक अगली लहर के आगे जो कुछ लहरा रहा है, हमें वही चाहिए। हमें पुराना कुछ भी नहीं चाहिए।’’ (‘समय और हम’ पुस्तक में ‘साहित्य की कसौटी’)
      हमारा जीवन अजीब संकट के दौर से गुजर रहा है। हमारे समक्ष प्राचीन आदर्श हैं। मूल्य हैं। महापुरुष हैं। उनके बलिदान की कथाएँ हैं। हम उनके गीत गाते नहीं अघाते। राजनीति, दो नम्बरी काम में यह विरुदावली सामने वाले के भावात्मक शोषण के लिए कारगर औजार है। विमल मित्र ने ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’ में कहा था कि ‘तुम बिकने के लिए एक बार तैयार हो गये, तो खरीदार की कमी नहीं होगी, चाहे तुम करोड़ों में बिको। तुम बिक तो गये।’
      नीतिकार का कहना कि जिन्होंने अपनी आत्मा को बेच दिया है, वही खरीदे जाने के लिए खोजे जाने हैं। लेकिन ध्यान रहे कि हजार स्वर्ण मुद्राएँ देकर हाथी खरीदे जाते हैं, पर सिंह नहीं खरीदे जा सकते : 
‘‘येनात्मा पण्यतां नीतः सैवान्विष्यते जनैः
हस्ती हेमसहस्रेण न क्रियन्ते मृगाधिपः’’
      हमारा जीवन अजीब संकट के दौर से गुजर रहा है। कथनी करनी में सैदव अंतर। बिना श्रम किए पाने की उद्दाम लालसा। सब बराबर मुखौटे लगाकर चलते हैं। कारण, अपना चेहरा दिखाने की हिमाकत नहीं है। चारों ओर मुखौटे ही मुखौटे। इतने कि अपना चेहरा भी ढूँढ़ना कठिन हो जाए: ‘‘मुखौटों की लग गई है कतार चारों ओर।/खुद अपना ही चेहरा न ढूँढ़ पाता आदमी’’ -प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय
     मनुष्य के छद्म चरित्र को सामासिक शैली में कैसे अनावृत करती है साहित्य की यह विधा लघुकथा, इसी पर विरमकर विचार करना यहाँ अभीष्ट है। कई दशक पहले शशांक आदर्श की लघुकथा ‘ये पत्र ये लोग’ ने ध्यान आकर्षित किया था। राधेश्याम (नायक का चाचा) के स्वर्ग सिधारने पर उनके भतीजे ने दो घंटे बाद शोक-विह्वल होकर दो पत्र लिखे। पहला पत्र स्नेही जनों को संबोधित था: ‘‘बंधु, अत्यंत दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि चाचा जी का देहावसान हो गया है। हाय, मुझ अनाथ को अब कौन सहारा देगा?’’
     लगे हाथ उसने दूसरा पत्र अपनी प्रियतमा के नाम लिखा: ‘‘प्रिये, चलो बुड्ढा खिसका; भगवान को लाख-लाख शुक्रिया। जायदाद मेरे नाम हो गई है। अब हम शीघ्र ही शादी करने का विचार ले सकते हैं।’’
      डॉ. बलराम अग्रवाल लघुकथा साहित्य के चर्चित हस्ताक्षर हैं। इन्होंने लघुकथाओं का भंडार ही नहीं भरा है, इस विधा को ताकत दी है। सार्थकता दी है। साहित्य जगत में इसकी मुकम्मल पहचान बनाई है। मैं इन्हें निरंतर पढ़ता रहा हूँ; और इनकी प्रतिभा का कायल हूँ। उपर्युक्त लघुकथा से बेहतर, मूल्यवान एवं व्यंग्यात्मक लघुकथाओं का इनके द्वारा संपादित यह संग्रह है। डॉ. अग्रवाल का साहित्य-कर्म कठोर साधना का परिणाम हैं। इनकी सोच, इनका तर्क, निर्णय, स्थापत्य, मूल्य-निर्धारण विलक्षण हैं। अद्वितीय है। डॉ. शकुन्तला किरण का एक संक्षिप्त परिचय उनकी लघुकथाओं के आधार पर यहाँ ध्यातव्य है, जो डॉ. अग्रवाल ने दिया है: हिन्दी लघुकथा के तत्कालीन आपाधापी-भरे मसीहाई माहौल से हटकर अपनी रचनात्मक शक्ति का सदुपयोग उन्होंने उससे अलग विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक संगठनों व समितियों में अपनी सक्रियता को बढ़ाकर किया। (डॉ. शकुन्तला किरण की पुस्तक ‘हिन्दी लघुकथा’ के अन्तिम कवर पृष्ठ से)
     इन लघुकथाओं के पारायण से पता चलता है कि जीवन, जगत, मनुष्य, मूल्य, राजनीति, छल, छद्म, मानवता का घोर पतन, उसकी पराजय, नारी की दुर्दशा, मूल्यक्षरण- समकालीन लघुकथाकारों की नजर से समाज व जीवन का कोई भी पक्ष जैसे छूटा नहीं है। यही नहीं, ये सभी लघुकथाएँ काफी असरदार हैं। ये बिहारी के ‘नावक के तीर’ हैं जो करते हैं गंभीर घाव। इनके बारे में कहना ही क्या है- ‘सबसे भले विमूढ़ जन, जिन्हें न व्यापे जगत गति।’ बहरहाल, इस संकलन के लघुकथाकार हैं- चित्रा मुद्गल, जगदीश कश्यप, बलराम अग्रवाल, भगीरथ, युगल और सुकेश साहनी। इन सभी को हिन्दी का सशक्त लघुकथाकार कहा जा सकता है। संकलन में प्रत्येक की ग्यारह-ग्यारह यानी कुल छियासठ लघुकथाओं को स्थान दिया गया है। इन सारी लघुकथाओं पर टिप्पणी की जाए, उनकी महत्ता और सार्थकता में विरमा जाए, तो एक प्रबंध तैयार करना पड़ेगा, जो न सैद्धांतिक है, न व्यावहारिक। अतएव, ध्यान रहेगा कि उनकी प्रकृति, प्रवृत्ति और प्रेरणा पर विहंगम दृष्टि डाली जाए; वैसे ‘खत का मजमून जाना जाता है लिफाफा देखकर।’
     चित्रा मुद्गल कहती हैं कि व्यावहारिक जीवन में अपनी सुख-सुविधानुसार लोगों के ‘मानदंड’ बदलते हैं, निर्धारित होते हैं। महानगर है। दोहरे मानदंड अपनाकर वहाँ अपने काम निकालना सांसारिक विवशता है। महरी के अभाव में अछूत और दाद-खाज से भरी सावित्री ही उपयुक्त है। गरीबी की दयनीयता, विवशता भला क्या-क्या नहीं कराती, बोलवाती है। ‘गरीब की माँ’ को एक बार नहीं, बार-बार मरना पड़ता है। मकान का भाड़ा माँगने आई मालकिन से मलप्पा की बीवी को झूठ बोलना पड़ता है कि उसके ससुर ने तीसरी शादी रचाई। समाज में स्त्री-पुरुष का भेद शाश्वत है। सनातन है। बेटा दूध पीकर पहलवान हो जाए, बेटी भले ही कृशकाय हवा में डोले। बेटी गर्म दूध की सोंधी गंध बर्दाश्त नहीं कर पाई और चोरी-चोरी उसे पीने लगी। चोरी पकड़ी गई। घोर भर्त्सना हुई। पर बेटी का अंतर्मन विद्रोह कर उठा। रोक नहीं सका अपने को- ‘‘तो मेरे हिस्से का छातियों का दूध भी क्या तुमने घर के मर्दों को पिला दिया था?’’ अब स्त्री को ‘द सेकेंड सेक्स’ कहने का किसी को अधिकार नहीं है। 
      मानवता की दुहाई देकर भीख माँगना तो सभी जानते हैं; लेकिन रेलवे प्लेटफॉर्म की सीढ़ियों के नीचे मैला अँगोछा बिछाकर भीख माँगने वाला ‘बोहनी’ का बौना भिखारी अन्य भिखारियों से अलग है। बिछे अँगोछे को वह अपनी दूकान मानता है और कथा-नायिका से मिलने वाले भीख के पहले सिक्के को अपनी ‘बोहनी’। झूठे अहंकार, दिखावे के अंधकार में मानवता, शील पता नहीं कहाँ खो जाते हैं। रामू का अतिथि रूप में घर आए बच्चू यानी उमेश को आदर देना मामी को गवारा नहीं होता। नागपुर से आए नारंगी के झाबे से कालीन पर गिरे फूस को साफ करने को ‘प्राथमिकता’ दी जाती है, अतिथि भांजे को नहीं। सैद्धांतिक दृष्टि से देखा जाए तो इस लघुकथा में कालतत्व दोष स्पष्ट है। लोभ का चश्मा आँखों पर चढ़ जाए, तो छोटा बहुत बड़ा और उपयोगी लगने लगता है। यही ‘व्यावहारिकता’ का तकाजा है। मानवता के वशीभूत जो पुराने कपड़े महरी के उपयोग के लिए दिये गये थे, उससे उसने रोटी का डिब्बा खरीद लिया फेरीवाले से। इस लघुकथा का शिल्प अत्यन्त गठा हुआ है। इसका शीर्षक बहुआयामी है और समूचे कथ्य के साथ न्याय करता हुआ ‘व्यावहारिकता’ के अनेक कोणों को पाठकों के समक्ष खोलता है। कहते हैं, समाज पर भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद का भयंकर आक्रमण है। नतीजा यह है कि नर्सिंग होम जन, समाज सेवा के लिए नहीं खोला गया है। शुद्ध व्यापार इसका उद्देशय है। अतएव ‘बाज़ार’ को ध्यान कर इसका नामकरण होता है ‘तिरुपति बालाजी नर्सिंग होम’, जहाँ सब आएँ। इलाज कराएँ। इस लघुकथा में भी चित्रा मुद्गल की व्यंजना शक्ति ध्यान देने योग्य है। पत्नी द्वारा सुझाए गये नाम को सुनते ही अनुभवी डॉक्टर पति सोफे से उछल पड़ता है और कहता है- ‘‘एक्सलैंट! क्या नाम सुझाया है तुमने! भला कौन-सी जाति, धर्म, व्यवसाय के लोग हैं जो बालाजी के दर्शनों को न जाते हों; और अपनी कामना की पूर्ति के लिए मूड़ न मुड़वाते हों।’’ इस तरह चित्रा मुद्गल बड़ी सफाई से कह जाती हैं कि आधुनिक साज-सज्जा सम्पन्न नर्सिंग होम्स मानव सेवा की दृष्टि से नहीं बनाए जा रहे; बल्कि मनुष्यों को ‘मूड़ने’ के लिए बनाए जा रहे हैं। यह व्यंजना लघुकथा की अमोघ शक्ति है, जो बड़े ठंडेपन के साथ अपना काम कर जाती है; और जिसे कथा-आलोचकों को पहचानना चाहिए। ‘बयान’ मानवता की घोर पराजय और नारी दुर्दशा का कारुणिक दस्तावेज़ तो है ही; घिनौनी हो चुकी जनसुरक्षा व्यवस्था की संवेदनहीनता का भी प्रमाण है। हिन्दी लघुकथा में चरित्रों और वृत्तियों का प्रत्यारोपण किस खूबसूरती के साथ हो रहा है, यह उसका एक उदाहरण भी है। अगर मुझे इज़ाज़त दी जाए तो इस स्थान पर मैं हिन्दी के ही एक अन्य वरिष्ठ लघुकथाकार पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथा ‘बेटी तो बेटी होती है’ का नाम भी अवश्य लेना चाहूँगा। लोग मनुष्य की विवशता का कैसा मखौल उड़ाते हैं, इसका प्रमाण है ‘नसीहत’। ‘‘भीख दो न मेमसाब भीख! दस पैसा-पाँच पैसा... सीख क्यों देता है?’’ भिखारी लड़के का यह वाक्य उसका अपना मखौल उड़ाता-सा लगता है जब तक कि उसका पूरा संवाद न सुन लिया जाए, ‘‘जब तुम खुदीच हमारा पर ईश्वास नईं कर सकता, नईं माँगता। रखो अपना पैसा...’’ यह वाक्य उस आंतरिक द्वंद्व का मुखर प्रतिकार है, जिससे हर बुर्जुआ विचारक, सुधारक और आदर्शवादी गुजरता है। हताश-निराश-बेरोजगार बेटा शराब पिए, तो वह राक्षस हो जाता है। निकाला जाता है घसीटकर घर से। परंतु उसी से अपने साहब को खुश करने के लिए ओल्ड मॉक रम मँगवाता है। बेटा सहज भाव से पूछ बैठता है कि साहब शराब पीता है तो साहब ‘राक्षस’ है क्या? तो उस पर तमाचा पड़ता है। कारण, पीने वाला उसका साहब जो है। ध्वन्यार्थ यह कि प्रसंगानुकूल शब्दों के अर्थ एकदम बदल जाते हैं और उनके तात्पर्य भी। देखा जाए तो चित्रा मुद्गल के कथ्यों की सपाटता ही उनकी शक्ति है। वे जीवन को गहराई से देख और व्यक्त कर पाने में सिद्धहस्त हैं।
     बॉस को जिमाने के लिए शराब जगदीश कश्यप की ‘ब्लैक हॉर्स’ में भी मँगाई जाती है; लेकिन यहाँ पुत्र नहीं, पिता शराब लाने के लिए जाता है। स्पष्ट है कि इन लघुकथाओं में कहीं न कहीं समकालीन समय में बॉस-अधीनस्थ सम्बन्ध रूपायित हुए हैं, भीष्म साहनी की सुप्रसिद्ध कहानी ‘चीफ की दावत’ की तरह; लेकिन उसकी नकल पर नहीं, मौलिकता के साथ। कहा जा सकता है कि समकालीन लघुकथा में समय कहानी से कम मुखर नहीं है, उसके समरूप है। परिस्थिति की विपरीतता, कुरूपता मनुष्य को कितना जलील कर जाती है, यह जगदीश कश्यप की लघुकथा ‘उपकृत’ में देखा जा सकता है। उस भीषण ठंड में जहाँ जाड़ा भी ठंडक का अनुभव करता है, रामदीन अंग्रेजी शराब की वांछित बोतल लाकर दस रुपए पाता है और ‘उपकृत’ अनुभव करता है यह सुनकर कि मालिक उसकी कर्मठता से खुश हैं। यह खुशी ही आदमी को आदमी का गुलाम बनाए रखती है। कवि को कहा गया है, स्वयंभू। अपार काव्य संसार का प्रजापति कवि ही तो होता है। ‘सरस्वती पुत्र’ मरते दम तक अपनी आन पर डटा है- ‘कार्यं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि’। वह प्रेमिका के पिता की शर्त वाली न नौकरी स्वीकार करेगा और न आत्मनिर्भर होने तक उस लड़की से विवाह ही करेगा। ‘ताड़ वृक्ष की छाया’ के लिए ही दस हजार रुपए दिये जा रहे हैं। घूस, पैरवी जो कुकर्म न करा ले।
     ‘रंभाती गाय’ में तुलना की जाती है एक हिस्टीरिया से पीड़ित बहू और गाय की। गाय का दूध थन में भर जाता है तो वह रम्भाने लगती है। यहाँ हिस्टीरिया से पीड़ित बहू है, जो हो जाती है बेहोश पर किसी का ध्यान नहीं जाता है इस ओर कि इसे भी प्रेम, प्यार की उष्णता से सेंका जाए। गरीबी, मँहगाई ने अदने आदमी को ‘साँपों के बीच’ खड़ा कर दिया है। पता नहीं कब डस ले।
     लाख गरीबी, विवशता, जहालत हो, पर कुछ सामान्य औरत को विपरीतता में जीने की आदत हो जाती है। ‘गृहस्थी’ की औरत अपने संपादक पति से कतई समझौता करने नहीं कहती है। कारण, संपादक सरकार का अधिक विरोध स्वीकार नहीं कर सकता पर मधुकर ईमानदार है और जनता की आवाज़ छापना चाहता है। भले ही बच्चे मर जाएँ भूखों, पर वह अपने पति को अन्याय के आगे झुकने नहीं देना चाहती है।
     ‘दूसरा सुदामा’ राजनेताओं के झूठे आश्वासन, आम जनता को बराबर अंधकार में रखकर उसे छलने की साजिश का भंडाफोड़ करती है। शशांक अपने लंगोटिया यार मंत्री के पास कई सपने लेकर जाता तो है; मंत्री अपनत्व, मित्रता का नाटक भी अच्छा करता है, पर इसे छोड़ कहीं चला जाता है। इसके सपने ऐसे ही दम तोड़ देते हैं।
     आधुनिक सभ्यता में आतिथ्य सत्कार में मिठाई, फल, मेवे का थोड़े ही कोई स्थान है! वहाँ चाहिए शुद्ध शराब ‘ब्लैक हॉर्स’। बेटा नशे में धुत्त, लड़खड़ाता हुआ; और  पिता साहब के लिए ‘ब्लैक हॉर्स’ लाने जाता है। स्वार्थ की खातिर मानवीय मूल्यों और संबंधों पर कितना बड़ा संकट गहरा रहा है। द्विज जी ने ‘विश्व वेदना’ कविता में लिखा है:  ‘‘दानवता की विजय, पराजय मानवता की/घोर अनय है/बात पराए की मत पूछो/हमें हाय, अपनों का भय है।’’
     ‘चादर’ एक सफल प्रतीक-कथा है। इस कथा में यह निरीह मज़दूरों के शोषण का प्रतीक बनकर उभरी है। यह जिसे ओढ़ाई जाती है, वह या तो अकाल काल-कवलित होता है या फिर ऐसा मरणासन्न हो जाता है कि उसका अस्तित्व ही व्यर्थ हो जाता है। मानवता को शर्मसार करने वाले ऐसे दोहरे चरित्रों से दुनिया भरी पड़ी है, जो प्रकटतः मजदूरों, मज़लूमों के हितैषी हैं; लेकिन वास्तव में वे संघर्षशील मजदूरों के बीच पूँजीपतियों द्वारा रोप दिये गये अपने गुर्गे हैं। मानवीय मूल्यों और मजदूर आंदोलनों की दिन-दहाड़े हत्या की यह साजिश कितनी दारुण, शोचनीय और विचारणीय है।
     दुनिया जिन सिद्धांतों, न्याय, मूल्य और निष्ठा पर टिकी है, उसमें ही सेंध लग जाए, दिन दहाड़े हो जाए उसकी हत्या, तो मनुष्य कैसे जिए आखिर! किसी का वकील विरोधी पक्ष से घूस लेकर अपने ही मुवक्किल को हरवा दे, तो मनुष्य किस पर करे विश्वास- ‘औकात’ इसका अप्रतिम उदाहरण है। ‘भूख’ मनुष्य से जो न करा ले।
    डॉ. बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘सियाही’ की बात आती है, तो मुझे बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की एक कविता ‘हम विषपायी जनम के’ की याद आ जाती है। वह जन्म से ही विषपान करता है, तो रोटी को अखबार की बजाय पुराने कपड़े के टुकड़े में लपेटने से भी भला क्या सुरक्षा मिलेगी? ‘सियाही’ यहाँ अनेकार्थी होकर सामने आती है। अखबार मनुष्य की संवेदना को जगाने की जगह उसको सियाह करने का काम कर रहे हैं। दूसरी ओर लगातार प्रदूषित हो रहे पर्यावरण की सियाही है, जिसके बारे में उसका नायक अपनी माँ से साफ कहता है- ‘‘वह तो हर साँस के साथ जिंदगी भर जाती रहेगी पेट में, काम ही ऐसा है।’’ फिर भी, निराशा, हताशा के विरुद्ध आशा का संग्राम जारी है। माँ ध्यान रखती है इसका; पर उसका मानवता को तार-तार करने वाली खबरों को देखकर ही सारा आपा झन्ना उठता है।
     इन दिनों शादी दो दिलों का मिलन नहीं है; बल्कि शुद्ध व्यापार है। ‘कुंडली’ यहाँ जन्मपत्री मात्र नहीं है; बल्कि दहेज लोलुपों की औकात का इज़हार भी है, जो कन्या के पिता को डस लेने के लिए अपने घरों में कुंडली मारे बैठे हैं। लड़के वाले की माँग की सूची है- प्रत्येक माता-पिता (लड़की के) इसे बखूबी जानते हैं, पर अपना भाग्य आजमाते फिरते हैं। कोई कठिन मसला हल न हो पाए, तो डाल पर लटका बेताल विक्रम के कन्धे पर चढ़कर इसका उत्तर खोज निकालता है। तत्वतः न ताल है, न बेताल है। हमारा मन ही दोनों है। यहीं संशय के मेघ उमड़ते हैं। यहीं समाधान की वर्षा होती है। एक सेर, दूसरा सवा सेर। ‘भरोसा’ मनुष्य के भीतर वाष्प की तरह तैरते द्वेष और सदाशयता दोनों को अपनी छोटी काया में समेटे एक प्रभावशाली कथा है। शहर में दंगा फैलते ही, उसके बहाने बाप-बेटा अपने दुश्मन पड़ोसी को बरबाद करने के कुचक्र पर विचार करने बैठ जाते हैं। बेटा अपने ही घर में आग लगाने की योजना बनाता है, ताकि पड़ोसी पर आरोप लगाकर उसे फँसाया जा सके। कोई दूसरा जान न जाए, इसलिए चोर की भाँति मकान का मुख्य दरवाज़ा खोलकर सिर को बाहर निकालता है गली में झाँकने के लिए। पर वहाँ पहरेदारी कर रहा पड़ोसी उसको देखकर समझता है कि लड़का दंगाइयों के डर से बाहर झाँक रहा है। वह उसे ‘भरोसा’ दिलाता है कि उसके होते वह बिल्कुल भी न डरे और निश्चिंत होकर घर में सोये। जैसा जिसका मन होता है, वैसा ही वह सोचता भी है और यथासंभव करता भी है। 
      गुदड़ी में छिपे होते हैं लाल कहीं-कहीं। मनुष्य उन्हें पहचान नहीं पाता। सुधीर भी क्या करे? लम्बी बेरोजगारी के चलते उपाधियों का तो कोई मोल रहा नहीं। अतः उनके बोझ से उबरने के लिए उसे रद्दी के भाव बेच देता है। पर ‘रद्दीवाला’ उसे लौटाने के लिए आ जाता है और गहन अंधकार में दिव्य प्रकाश फैलाता है- ‘‘हिम्मत जुटाकर खुद को बाहर निकालिए और दिनभर व्यस्त रहने का कोई तरीका अपना लीजिए।’’
     ‘आहत आदमी’ सर्वत्र आहत होता है। माई को जगाने के लिए बज रहे बाजों के शोर से ऊबकर भागता है इधर-उधर। पुलिस है, ध्वनि-प्रदूषण विभाग है, पर सब व्यर्थ। ढाक के तीन पात। सीधे, सपाट शब्दों के माध्यम से भी व्यवस्था और परम्परा की शल्य-क्रिया कैसे होती है, इस लेखकीय कौशल का यह लघुकथा बेहतरीन उदाहरण है। मनुष्य की पराजय, दुर्दशा का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि आज के घोर पूँजीवादी दौर में वह ‘बिना नाल का घोड़ा’ हो गया है। अब कौन मालिक नाल पर फिजूल खर्च करे। मनुष्य का सीधे पशु में रूपांतरण। परिस्थिति की विरूपता चाहे जो न करा ले। लघुकथा की अभिव्यक्ति क्षमता का एक और सफल उदाहरण। ‘कंधे पर बेताल’ का रूपलाल हिम्मत का धनी है। डट सकता है, जूझ सकता है। ‘‘जो सर से कफन को बाँध चुका, वह आँख चुराना क्या जाने’’ का जज्बा जिसके पास है, काल भी उससे घबराता है। बेताल कथा की शैली में कही गई इस लघुकथा में बलराम अग्रवाल ‘पलायन’ के प्रचलित अर्थ को जैसे पलट ही देते हैं। मनुष्य अपनी पत्नी की स्मृति में क्या-क्या नहीं करता है। कोई ताजमहल बनवाता है, तो कोई कुछ; लेकिन एक निर्धन और असहाय बूढ़ा क्या करे? वह पत्नी की स्मृतियों से जुड़ी वस्तुओं को अपने सीने से सटाकर रखता है। ‘लगाव’ के विधुर बाबूजी पत्नी द्वारा प्रयोग की जाने वाली मसनद को ही बगल में दबाए उसकी यादों में खोने लगे हैं। भला उससे अपना ‘लगाव’ कभी विस्मृति के गह्वर में फेंका जा सकता है?
     आजकल के माँ-बाप बच्चों के प्राकृतिक विकास, उसके बचपन, फूल, चिड़ियों से उसके लगाव आदि के बारे में कतई नहीं सोचते। उनके समक्ष एक ही महत्त्वाकांक्षा है, बच्चा बड़ा आदमी बने। अतएव पढ़े। पढ़ता रहे। पीले पंखोंवाली तितलियों के पीछे कतई न भागे। जयशंकर प्रसाद की एक पंक्ति याद आती है- ‘‘महत्त्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में पलता है।’’ यह निष्ठुरता बचपन के स्वाभाविक विकास को किस प्रकार कुचल रही है, इसे ‘पीले पंखोंवाली तितलियाँ’ में बड़े सहज भाव से दर्शाया गया है। ‘बिंधे परिंदे’ में भी बच्चे के स्वाभाविक उछाह को प्रतिबंधित किए जाने को विषय बनाया गया है। बच्चे के संगीत-प्रेम की बार-बार बलि चढ़ती है; वह आहत है। पर माँ भी क्या करे? सब-कुछ जानती है; लेकिन वह भी विवश है।
      ‘प्यासा पानी’ शीर्षक ही अपने आप में एक विरोध को प्रकट करता है। वह, जिसका धर्म ही शाश्वततः दूसरों की प्यास बुझाना है, स्वयं प्यासा है! कैसी त्रासद स्थिति है। यौन-क्षुधित लेकिन संयमित स्त्री-मन को वाणी देने वाली यह उल्लेखनीय कथा है। सहानुभूति का हल्का-सा स्पर्श पाकर मिसेज आहलूवालिया गिरीश के सामने फफक पड़ती है। कैसे इतने दिनों तक रोक रखे थे अपने आँसू उन्होंने: ‘‘जो घनीभूत पीड़ा थी/मस्तक में स्मृति-सी छाई/दुर्दिन में आँसू बनकर/वह आज बरसने आई’’ -जयशंकर प्रसाद
     काश, आज के लघुकथाकार इस मानवीय संवेदना को पहचानने और उकेरने की बार-बार कोशिश करते। 
     भगीरथ जानते हैं कि विवशता, दीनता मनुष्य से जो न करा ले; अनुचित, उचित का भेद जाने बिना। ‘पेट सबके है’, इसीलिए तो पाँच रुपए मज़दूरी तय हुई। आधी मजदूरी। इस पर दो मजदूर काम की खातिर उलझ पड़े, तो तीन-तीन रुपए में दोनों को राजी कर लिया। चतुर पूँजीवाद। बदतर हालात आम मनुष्य के। भीतर तक कैसे तोड़ देते हैं। ‘बेकारी व्यक्ति को तोड़ देती है’, ‘समझौता जीवन की बहुत बड़ी शर्त है’, ‘शॉर्ट कट की संस्कृति में शॉर्ट कट बहुत हैं’ जैसे ठेठ अनुभवों से निकले वाक्य हैं, जो ‘मोहभंग’ में सहज ही नजर आते हैं। यहाँ इन्हें उद्धृत करने का उद्देश्य मात्र यह दिखाना है कि हिन्दी लघुकथाकार कुछेक प्रचलित मुहावरों पर चलते न रहकर अपने स्वयं के जीवनानुभवों से भी साहित्य के भंडार को पुष्ट कर रहे हैं। अर्थहीन परिस्थितियाँ एक संघर्षशील मनुष्य को भी कितना-कितना दीन, असहाय और समझौतावादी बना देती हैं कि ‘यस सर’ कहने के अलावा नहीं रहता उसके पास कोई उपाय। बूढ़े-बूढ़ी दंपति के जीवन में क्या आकर्षण है, पर पारस्परिक लगाव ही उन्हें जिलाए रहता है। ‘सोते वक्त’ में कुछेक सहज संवादों के माध्यम से एकाकी पड़ गये वृद्ध जीवन की अनेक परतों को खोला, बाँधा गया है। ‘अंतर्द्वंद्व’ जैसी मनोविश्लेषात्मक लघुकथाएँ हिन्दी में बहुत अधिक नहीं लिखी गई। भगीरथ व रमेश जैन द्वारा संपादित ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ में संकलित कैलाश जायसवाल की लघुकथा ‘पुल बोलते हैं’ को समकालीन दौर की पहली मनोविश्लेषात्मक लघुकथा माना जा सकता है। उसके बाद भगीरथ, जगदीश कश्यप, बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, चैतन्य त्रिवेदी, श्याम सुन्दर अग्रवाल, श्यामसुन्दर दीप्ति ने भी मानव-मन को सफलतापूर्वक पकड़ा है। परन्तु हिन्दी लघुकथाकारों को इस ओर अभी भी बहुत श्रम करने की आवश्यकता है। ‘अंतर्द्वंद्व’ निराशा के विरुद्ध आशा के संचार का उदाहरण है। इसके नायक को बधिया कराने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। यह समझते ही वह चीते की फुर्ती से उठता है और उनसे मुक्त होता है।
      भगीरथ की लघुकथाएँ चेहरा, चुनौती, दलाल, धार्मिक होने की घोषणा और आग विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों, दशाओं, विसंगतियों को अनावृत्त करती चलती है, तो स्वयं को नहीं पहचान पाती। जो ‘करो या मरो’ के लिए प्रतिबद्ध है, वह ठाकुर से क्या डरेगा? वह आखिरी साँस तक डटेगा- ‘‘जो शीश कटाने आया है, वह पीछे हटना क्या जाने!’’ सांप्रदायिक दंगे हमारे वहशीपन के परिणाम हैं। कहलाते हैं धार्मिक। शुद्ध अहिंसावादी। बुद्ध के अनुयायी, पर धार्मिक होने का  हमारा मापदंड है- ‘‘हिंदुओं ने कितने मुसलमान कत्ल किए और मुसलमानों ने कितने हिंदू हलाल किए।’’ यही हमारा अहिंसा-धर्म है, सह-अस्तित्व दर्शन है। गरीबों की झोंपड़ी, सार्वजनिक स्थल को हथियाकर पूँजीपति महल खड़े कर रहे और गरीबों के प्रति सहानुभूति के आँसू बहा रहे हैं। और लोग चर्चा जो भी कर लें, पर ‘आग’ के पास सिकुड़कर बैठे हैं। यही विवशता है।
      युगल की लघुकथाएँ आम तौर पर कथा-किस्सा शैली की सफल रचनाएँ हैं। बूढ़े ने भले ही अपनी पत्नी को उसके आग्रहानुसार तीर्थाटन पर भेज दिया, पर भीतर से वह काफी बेचैन रहता है। शंका के मेघ उमड़ते रहते हैं उसके मस्तिष्क में और तीर्थयात्रियों की बस के खड्ड में गिर जाने का समाचार पढ़कर तो वह अव्यवस्थित और चिंताग्रस्त हो जाता है। यह है दाम्पत्य का चरम लगाव, समर्पण। सभ्यता, संस्कृति का भले चढ़ा ले कोई लबादा, पर भीतर से कौम की भावना दहाड़ें मारती रहती है। सविता ने विवशतावश नौकर तो रख लिया, पर उसका नुरुल्ला नाम बर्दाश्त नहीं हुआ। उसका ‘नामांतरण’ नीरूलाल कर ही दम लिया। ‘पुलिस’ में उसकी निर्लज्जता का आख्यान है। वह कितनी पतित है। ‘विस्थापन’ नई पीढ़ी पर व्यंग्याघात है जो पिता की पुरानी यादों की तस्वीर को माधुरी दीक्षित की तस्वीर में बदल देता है। पितृऋण चुकाने का नायाब नमूना है। सांप्रदायिक और अमानुषिक विचारधारा के लोग मरकर भी कौम की ही बात करते हैं। कथाकार ने उन्हें ‘मुर्दे’ नाम दिया है। उनके खोजने वाले होने चाहिए उसी कौम के। मानवता को शर्मसार करने का एक दृष्टांत। ‘पेट का कछुआ’ सचमुच पेट में चलता-फिरता है। हरकत करता है। बारह वर्ष का बेटा भारी संकट में है; फिर भी, पेट की खातिर उसे दिखाकर कमाई होती है। सच है: ‘‘दैव पेट की भूख जहाँ है,/वहाँ हृदय की भूख न देना‘‘ -गरीबिन का बेटा
     ‘जनतंत्र’ इब्राहिम लिंकन की प्रजातंत्रीय परिभाषा से नहीं चलता। विनय को छल से धक्का देकर गिराकर मारा गया और प्रिंसीपल ने उसे दुर्घटना बताया। पुलिस कुछ न कर सकी। ‘कर्फ्यू की वह रात’ मातृत्व की विजयगाथा है। ‘जब द्रोपदी नंगी नहीं हुई’ मनुष्य के भीतर दबी यौन वासना, हैवानियत को उघारकर रखती है। कला से किसी को कुछ लेना-देना नहीं है। पुरुष खुली आँखों स्त्री देह को नग्न देखना चाहता है। मनुष्य की पशुता का मार्मिक आख्यान है यह लघुकथा। ‘आश्रय’ और ‘औरत’ दोनों ही औरत की दुर्गति की करुण कहानी प्रस्तुत करती हैं। ऐसी कहानी कि करुणा भी लजा जाए।
     कोई बड़ी बात नहीं कि कभी उशीनर ने स्वमांस दान किया था। यहाँ तो नरमांस काटकर अतिथि-सत्कार किया जा रहा है। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘गोश्त की गंध’ निम्नवित्तीय भारतीय परिवारों में व्याप्त उस रिवाज़ को निशाना बनाती है, जिसके चलते घर आने वाले मेहमान विशेषतः दामाद की तीमारदारी अपने खून-पसीने से कमाई दौलत को लुटाकर करते हैं। दामाद यहाँ आम दामादों की तुलना में मानवीय दृष्टि से युक्त है और सब्जी की तरी व उसमें आए पनीर के टुकड़ों को अपने ससुर व साले के रक्त-मांस के रूप में चिह्नित करता व अफसोस प्रकट करता है- ‘‘यह सब देखकर उसने सोचा- काश! ये गोश्त की गंध उसे बहुत पहले ही महसूस हो गयी होती।’’ ‘चादर’ भी प्रतीक कथा है उस मनुष्य की हैवानियत की, जो घूम-घूमकर दंगे-फसाद कर मानवता की लाश पर स्वार्थ की रोटी सेंक रहा है। कुछ पाठकों को इसका शिल्प और कुछ भाव भी, खलील जिब्रान की विश्वप्रसिद्ध लघुकथा ‘पवित्र नगर’ से प्रभावित महसूस हो सकते हैं तथा इसके  बिम्ब-निर्वहन पर अंशतः जगदीश कश्यप की ‘चादर’ का साया मँडराता-सा नजर आ सकता है; तथापि यह एक प्रभावपूर्ण लघुकथा है। एक अन्तर्राष्ट्रीय कंपनी में नियुक्ति हेतु साक्षात्कार का संदर्भ ग्रहण करके बताया गया है कि आज की ‘कसौटी’ लड़की की नियुक्ति में पवित्रता, ईमानदारी नहीं खोजती- ‘‘यू आर नाइन्टी फाइव परसेंट प्यूअर। वी रिक्वाअर ऐट लीस्ट फोर्टी परसेंट नॉटी।’’ माँ-बाप खुश हैं कि उनकी बेटी एम.एन.सी. में बड़े अच्छे पैकेज पर नियुक्त है; लेकिन उसके नियोक्ताओं की खोटी नीयत से वे परिचित नहीं हैं। खुले आम ऐसी कसौटी पर प्रत्याशी का परीक्षण होगा तो भला देश का क्या होगा?
     ‘ओए बबली’ में पानी के संकट से जूझते परिवार की व्यथा-कथा है, जिसे जबर्दस्त फैंटेसी के माध्यम से बुना गया है। इतनी कारुणिक कि करुणा भी लजा जाए। ‘आइसबर्ग’ एक प्रतीकात्मक शीर्षक है। आइसबर्ग समुद्र में तैरते बर्फ के पहाड़ को कहते हैं, जिसका तीन चौथाई भाग पानी में डूबा रहता है और एक चौथाई पानी से ऊपर दिखाई देता है। ऊपरी हिस्सा समय की गर्द को पकड़कर हरे-भरे टापू जैसा भी दिखाई देने लगता है जिसके झाँसे में अनेक समुद्री नाविक आकर अपनी जान गँवा बैठते हैं। ‘आइसबर्ग’ के नायक का चरित्र भी इसी तरह का घातक है, जो अपने समीप आकर बैठने वाली सवारियों को उनके मनोविज्ञान के आधार पर डराने-सहमाने की नीति अपनाये हुए है। नरसंहार के हृदय-विदारक दृश्य उपस्थित कर वह स्वयं को महफूज करने के फिराक में रहता है। भोगने के लिए कालेज होस्टल में कहीं से उठाकर लाई गई एक मजदूर लड़की के कमरे में छठे व्यक्ति के तौर पर शेखर को धकेल दिया जाता है। उस निरीह लड़की को देखकर वहाँ उसका आदर्शवाद जाग उठता है और कुछ करे-धरे बिना ही वह कमरे से बाहर आ जाता है; परंतु दोस्तों के पूछने पर बताता है- ‘धाँसू’। शेखर का अंतर्मन लड़की को लड़कों के चंगुल से न बचा पाने के कारण उसे ‘नपुंसक’ कह-कहकर धिक्कारता है। राम ने धरती को राक्षसों से विहीन करने का प्रण लिया था- ‘‘निसिचरहीन करहुँ महि, भुज उठाय पन कीन्ह’’। समाज में राक्षसी वृत्ति की उत्तरोत्तर वृद्धि का आलम यह है कि सिर-कटी युवती की जिस लाश की ‘शिनाख्त’ नहीं हो पा रही थी, उसको अपना बताने के लिए भीड़ लग गई है; क्योंकि सांप्रदायिक दंगे में मरने वालों को पाँच-पाँच लाख रुपए का मुआवज़ा मिलने वाला है। दुनिया का सबसे बेहतरीन ‘स्कूल’ स्वयं दुनिया है। इसके कार्य-व्यवहार में उतरकर माँ की नजरों में नन्हा बच्चा बना रहा बेटा भी तीन दिनों में ही वह कितना बड़ा हो गया। ‘अंततः’ का श्यामलाल परेशान है कि दो महीने बाद, जब वह रिटायर हो जायेगा, तब घर का खर्च कैसे चलेगा? दफ्तर से उसकी विदाई की पूरी तैयारी हो गई है, पर वह सेवामुक्ति के विरुद्ध प्रत्यावेदन के फेर में है। परंतु सेवायोजन कार्यालय के सामने से गुजरते हुए जब वह समय से पहले बूढ़े हो चुके बेहाल युवाओं को भटकते देखता है, तो उनके प्रति उसकी सद्भावना जाग्रत हो उठती है और वह सामान्य हो जाता है। मनुष्य कितनी आशाएँ, सपने संजोए रहता है। आज की अंग्रेजी शिक्षा के दौर में पनप चुकी स्पर्द्धा और बच्चों को पीट-पीटकर हकीम बनाने पर सशक्त व्यंग्य है ‘बैल’।
     शब्द की तीसरी शक्ति है व्यंजना, जिससे बना है व्यंग्य। लघुकथाओं की अंतश्चेतना व्यंग्य ही होती है, ऐसा बहुत लोग मान सकते हैं; लेकिन इस संकलन की लघुकथाएँ वैचारिक पूर्वग्रह की इस चौहद्दी को तोड़ती हैं। इनमें अनेक गहन, गंभीर, चिंतन-दृष्टि युक्त, मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषणात्मक तत्वों से लबरेज हैं। इसी से ये लघुकथाएँ अनय, भ्रष्टाचार, मूल्यहीनता, मानवता की घोर पराजय ऐसे ज्वलंत मुद्दों पर आक्रमण करती हैं। ये सुधी पाठक वर्ग को आकर्षित करने व आलोचक वर्ग को समूची विधा का नए सिरे से मूल्यांकन करने का न्यौता देती-सी लगती हैं। इनके पारायण के बाद कोई नहीं कह सकता कि लघुकथा का व्यंग्यधर्मी होना अनिवार्य है; बल्कि कहेगा कि लघुकथा कथाधर्मी विधा है; क्योंकि ये कथा को उसकी सम्पूर्णता में सिद्ध व पुष्ट करती हैं। आँखों में उँगली डालकर जगाती हैं। चेताती हैं। ‘मालविकाग्निमित्रम्’ के एक श्लोक से वाणी को विराम देता हूँ : 
‘‘पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि सर्वं नवमित्यवद्यम्।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढ़ः परप्रत्ययनेेय बुद्धिः।’’

  • वृन्दावन, मनोरम नगर, एल.सी. रोड, धनबाद-826001 (झारखंड) / मो॰ : 09334088307




डा. अमरनाथ ‘अमर’ से साहित्य व मीडिया से जुड़े प्रश्नों पर मनीषा जैन की बातचीत




चैनलों पर सृजन व संवेदना के लिए भी समय होना चाहिए :  डॉ. अमरनाथ ‘अमर’
{भारत सरकार के गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, हिन्दी अकादमी के साहित्यकार सम्मान जैसे कई महत्वपूर्ण सम्मानों से विभूषित दूरदर्शन केन्द्र, दिल्ली में अधिशासी पद पर आसीन डा. अमरनाथ ‘अमर’ जी ने कविता, कहानी व मीडिया पर कई पुस्तकें लिखी हैं। पिछले दिनों कवयित्री मनीषा जैन ने साहित्य व मीडिया से जुड़े प्रश्नों पर उनसे बातचीत की। प्रस्तुत है इसी बातचीत के प्रमुख अंश।}

मनीषा जैन :  आप दूरदर्शन में पर्दे के पीछे रहकर महत्वपूर्ण काम करते हैं। आपने कई पुस्तकें भी लिखी हैं।
आपके जीवन की वे कौन सी प्रमुख बातें रही, जो आपकी सृजन यात्रा की प्रेरणा बनी हों?
अमरनाथ अमर :  दरअसल दूरदर्शन इतना बड़ा माध्यम है कि जितना पर्दे पर काम है उससे कहीं ज्यादा पर्दे के पीछे का काम होता है। और जो निमार्ण है जो प्रक्रिया है जो सृजन है उसमें तो और भी बहुत सारी मेहनत होेती है। एक प्लान करना होता है, जो प्रीप्रोडक्शन कहलाता है। उसके बाद विषय की प्रासंगिकता के आधार पर, उसकी महत्ता के आधार पर हम कार्यक्रमों का निमार्ण करते हैं। और सबसे बड़ी बात कि जो जनहित में हो, वो कार्यक्रम हम बनाते हैं। आज की पीढ़ी उस साहित्य को समझ सके, उस संवेदना को समझ सके जिसकी आज जरूरत है। आज भागदौड़ है, आपाधापी है, व्यस्तता है, किसी के पास समय नही है, ऐसे में हमंे इस बात की जरूरत है कि हम संवेदना को समझें। प्रकृति के करीब जाए और अपने जीवन को सार्थक करें तथा दूसरे के जीवन को भी सार्थक करें। लिखने की प्रेरणा बचपन से ही मिली और आधार बनी प्रकृति। मेरा बचपन प्रकृति के बीच था, फूल थे, ताजगी थी, रंगत थी, खुशबू थी और छोटी-छोटी पहाड़ियां थी; तो उसने मेरे मन को एकदम जैसे बांध लिया, प्रभावित कर लिया, आकर्षित किया। जीवन का एक बड़ा सुखद व सुदंर पक्ष ये है कि वहां जो सौन्दर्यबोध की अनुभूति हुई उस सौन्दर्यबोध ने मुझे लिखने की प्रेरणा दी। और इसके अलावा जो जीवन का संघर्ष है चाहे वो अपना संघर्ष हो, किसी दूसरे का हो, किसी गरीब का संघर्ष हो, किसी नारी का संघर्ष हो या युवा का, उन तमाम चीजों ने लिखने की प्रेरणा दी।
    मेरा बचपन धनबाद में बीता। पिताजी कोल माइन्स में थे जो अब झारखंड में है, पहले बिहार में था; तो वहां मेरा बचपन गुजरा। जहां भरपूर प्रकृति थी और मेरी मां को प्रकृति से बहुत लगाव था। वहां पिताजी का बड़ा सा बंगला था। उसमें बहुत सारी फूल पत्तियां पौधे थे और मां स्वयं उनकी देखभाल करती थीं। उनसे मुझे न केवल प्रेरणा मिली बल्कि जीवन के सौन्दर्यबोध की सारी परिभाषाएं भी समझ में आने लगी थी। फिर वहां पढ़ाई की, बी.ए आनर्स पटना से किया, रांची से एम.ए, फिर पीएच.डी. किया। इस तरह से चीजें आगे बढ़ती गई। फिर बचपन से रेडियों में प्रोग्राम करता था। कविता कहानी। फिर रेडियो में एनाउंसर बना। उसके बाद पटना से एक साहित्यिक पत्रिका निकलती थी ‘कोशा’। उसका सहसंपादक बना। फिर पत्रकारिता का अनुभव हुआ। इसी तरह धीरे धीरे कुछ समय बाद मेरा दूरदर्शन में चयन हुआ फिर निर्माण की, सृजन की नई प्रक्रिया शुरू हुई।
मनीषा जैन :  आपकी चार पुस्तकें आ चुकी हैं, आपने अपने लेखन की शुरूआत कहाँ से की? आपके काव्य का मूल स्वर क्या है?
अमरनाथ अमर :  मेरी चार किताबों में एक तो कविता संग्रह है ‘स्पंदित प्रतिबिंब’। और तीन किताब मीडिया पर हैं, और तीन छप कर आ रही हैं। इनमें से एक कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह और एक है ‘वक्त की परछाईयां’, मैं एक कॉलम लिखता हूं उनका संग्रह है। जहां तक कविता के मूल स्वर की बात है तो प्रकृति, प्रेम, सौन्दर्यबोध और जीवन का संघर्ष और उस संघर्ष पर विजय पाने का जो माद्दा है, जो विचार है वही मुख्य धारा के रूप में विद्यमान है।
मनीषा जैन :  आप इलेक्ट्रªोनिक मीडिया से जुड़े हैं, पहले टेलीविज़न ड्रªाइंग रूम में रखा जाता था लेकिन अब इसने बेडरूम में सेंध लगा ली है, आप इसे कैसे देखते हैं?
अमरनाथ अमर :  आपने सही कहा। एक समय में जब केवल दूरदर्शन था तब घर परिवार सब मिल कर देखते थे और सामाजिक सरोकार से जुड़े कार्यक्रम होते थे। पूरा परिवार साथ मिल कर देखते थे, एक तरह से सभी को बांधा जाता था। लेकिन जैसे जैसे हम विकसित होते गए, दुनिया के अनेक चैनल आते चले गए। अपनी-अपनी पंसद बढ़ने लगी और घर के आर्थिक पक्ष मजबूत होते चले गए। फिर घर में दो-दो, चार-चार टी वी का आगमन हुआ। पहले दूरदर्शन से बुनियाद, रामायण, महाभारत आता था, सब मिल कर देखते थे और प्रतीक्षा करते थे। अब सैकड़ों चैनल हमारे घर में हैं। अब हालात यह हैं कि यदि घर में दस लोग हैं तो दस टी.वी हैं। लेकिन इसमें पारिवारिक संदर्भ की बात करें तो इसमें कुछ अच्छी बातें भी हैं कुछ खतरनाक भी। जैसे कई चैनलों के विज्ञापन में अश्लीलता का पुट होता है जिसे बच्चों के साथ बैठ कर नहीं देख सकते। तब थोड़ी सी परेशानी होती है इस आधुनिकता के दौर में। इसके अलावा भी कई चैनलों पर एडल्ट फिल्में आती हैं रात में। तो एक दौर था जब इसकी नई शुरूआत हुई थी कि पैरेन्ट सोचते थे कि जब बच्चे सो जाए तो हम फिल्म देखें और बच्चे सोचते थे कि पेरेन्ट सो जाए तो हम देखें। तो ये जो चीज है वह स्वाभाविक है। चीजें आकर्षित करती हैं। लेकिन जरूरत है पारिवारिक स्तर पर देखना कि किसको क्या देखना है? ये चीजें स्वयं परिवार में तय करें और खासकर बच्चों को इससे बचा कर निकाल ले जाएं क्योंकि उन्हें बहुत कुछ करना है जीवन में अपने लिए, समाज के लिए, देश के लिए। एक टी.वी सेन्स डेवलप करने की जरूरत है जो कि परिवार स्तर पर ही हो सकता है।
मनीषा जैन :  साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है लेकिन आज समाज टेलीविजन से प्रभावित है। इसके समाज पर असर के बारे में आपकी क्या राय है?
अमरनाथ अमर :  ये सच है कि साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है लेकिन जहां तक टेलीविजन की बात है वहां साहित्य नहीं के बराबर है। हां, जहां तक दूरदर्शन की बात है तो पत्रिका कार्यक्रम, साहित्यिकी, किताबनामा, कवि गोष्ठियां दूरदर्शन के परदे पर तो दिखाई देती है लेकिन बाकी चैनल पर साहित्य नहीं के बराबर है या बहुत ही कम हैं। जब साहित्य हमारे टेलिविजन सेट पर नहीं होगा, घर-घर में नहीं होगा तो स्थिति तो विकराल होगी ही होगी। और एक दुर्भाग्य की बात यह भी है कि साहित्य घर से भी गायब है। हम लोग जब छोटे थे तो घर में बहुत तरह की पत्रिकाएं आती थी, बहुत तरह के अखबार आते थे। और ड्राइंग रूम में इतनी सारी किताबें होती थी कि हम न चाहते हुए भी उनको पढ़ते थे। लेकिन अब सजे हुए ड्राइंगरूम हैं उनमें मंहगी-मंहगी चीजें हैं लेकिन किताबें, पत्र-पत्रिकाएं गायब हैं। तो अब साहित्य नहीं है तो साहित्य समाज का दर्पण भी नहीं है। वो संवेदना गायब होती जा रही है। और समाज में इसका ये असर है कि हत्या, बलात्कार, आतंकवाद सब संवेदनहीनता के कारण बढ़ रहा है।
मनीषा जैन :  आज जो साहित्य सृजन हो रहा है वह भारतीय जीवन के कितना निकट है और हमारा जीवन उससे कितना प्रभावित हो रहा है? हो भी रहा है या नहीं?
अमरनाथ अमर :  आज जो साहित्य सृजन हो रहा है उसमें गांव, कस्बा, नगर और महानगर है। इन चारों क्षेत्रों के लोग साहित्य सृजन कर वहां के जीवन को अपनी लेखनी में समाहित कर रहे हैं। एक तो साहित्य है जो परिस्थिति, हालात व समाज की स्थितियों को देखकर लिखा जाता है और कुछ कल्पना के आधार पर मनगढंत भाव से। एक चीज जो स्वाभाविक रूप से लिखी जाती है, बेहतर होती है। रच-रच कर लिखा जाने वाला साहित्य उतना गम्भीर नहीं होता हैै। लेकिन सवाल यह है कि पुस्तक मेलों में अच्छी खासी भीड़ होती है। लोग पढ़ते हैं, ई-बुक्स का जमाना है, इसके बावजूद लोग पढ़ते हैं, घरों में पुस्तकें रखते हैं। खासकर गांव व कस्बों में इसकी काफी मांग है। अंग्रेजी साहित्य भी पढ़ते हैं लोग, लेकिन फैशन के तौर पर। लेकिन हिंदी समाज में, खासकर गांवों, कस्बों में पढ़ने की प्रवृति आज भी काफी है। तो सृजन तो हो रहा है। अपने अपने स्तर पर और उसका प्रभाव भी है।
मनीषा जैन :  आज बाजारवाद, पंूजीवाद का बोलबाला है और पंूजी मीडिया पर हावी हो रही है। ऐसे में मीडिया सामाजिक आदर्शो की रक्षा कैसे कर पायेगा?
अमरनाथ अमर :  सही कहा आपने। आज बाजारवाद व पंूजीवाद का बोलबाला है। और यह मीडिया पर तो हावी है ही। यहां तक कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौेेेेरान पत्रकारिता की चेतना व साहित्य की संवेदना ये दोनों एक साथ चलती थी और एक लक्ष्य होता था राष्ट्र का निमार्ण, स्वतंत्रता प्राप्ति और जीवन मूल्यों को बहाल करना। लेकिन आजादी के बाद धीर धीरे मापदंड बदलते चले गए और आज जो संपादक है वे संपादक न होकर मैनेजर है। उनका उद्देश्य है कि उनके अखबार की बिक्री कैसे बढ़े, उसका सर्कुलेशन कैसे बढ़े? तो उसकी बिक्री के लिए उसके व्यापारिक पक्ष के लिए जो भी चीजें आती हैे उनमें मसाला भरा जाता है। तो वहां भी साहित्य की स्थिति, संवेदना की स्थिति कम होती चली गई। लेकिन हमें यदि समाज और मूल्यों को बचाना है तो साहित्य को पत्र पत्रिकाओं में, मीडिया में रखना ही होगा।
मनीषा जैन :  आपने दूरदर्शन में रहते हुए मीडिया पर पुस्तकें लिखीं। साहित्य आपको अपने क्षेत्र में कैसे सहायता करता है?
अमरनाथ अमर :  दरअसल, साहित्य भी सृजन है और दूरदर्शन पर कार्यक्रमों का निमाणर््ा भी सृजन है। दोनों एक दूसरे के पूरक है। वहां की कल्पना, वहां की सीख यहां लागू होती है और यहां की कल्पना व सीख वहां लागू होती है, तो दोनों एक दूसरे के पूरक है। दोनों का समन्वित रूप है। दोनों से मुझे बहुत सहायता मिलती है।
मनीषा जैन :  समकालीन कविता के गद्यमय होने व कविता के लोकोन्मुखी के बजाय वैयक्तिक होने का क्या कारण मानते हैं? क्या साहित्य आम जन तक संप्रेषित हो रहा है?
अमरनाथ अमर :  सबसे बड़ी बात है कि आज भाग दौड़, व्यस्तता और स्वार्थ की सामाजिक स्थिति में सब अपने आप में सिमटते चले गए है। हमारी संवेदना स्व से सर्व तक जाती रही है कविता में, हम एक-दूसरे के दुख दर्द को अपने में समाहित करते रहे हैं, लेकिन अब हम अपने आप में सिमटते जा रहे हैैं। सर्व से स्व की ओर आ रहे हैं। हम व्यक्तिगत इच्छाओं में, स्वार्थ में सिमटते चले गए हैं। तो कविता भी और हम भी सर्व से स्व की ओर आने लगे हैं। कारण इसका है व्यक्तिगत स्वार्थ, व्यक्तिगत लगाव, संवेदना की कमी और बाकी लोगों के दुख-दर्द में सहायक होने की प्रवृत्ति का कम होना। बहुत से कारण हैं, लेकिन जहां तक आज के साहित्य का प्रश्न है तो समकालीन परिस्थितियों के आधार पर ही सृजन होता है। तो जैसा समाज, जैसी परिस्थिति फिर वैसा ही सृजन।
मनीषा जैन :  साहित्य के संदर्भ में मीडिया के समक्ष आप क्या चुनौतियां मानते हैं?
अमरनाथ अमर :  आज साहित्य के संदर्भ में मीडिया के सामने बहुत सी चुनौतियां हैं। सबसे बड़ी बात है कि साहित्य समाज में जिस संवेदना के लिए जाना जाता है, समाज के दपर्ण के रूप में जाना जाता है, उस दपर्ण पर धुंध सी जम गई है तो उसे साफ करने की जरूरत है। ऐसे कार्यक्रमों को बनाने की जरूरत है जो हममें जागरूकता लाए, संवेदना को बढ़ाए और समाज की सही तस्वीर को उभारे। यदि संघर्ष है तो संघर्ष की कल्पना कर उसकी चर्चा  कर उसके निदान के संदर्भ में भी हम आगे बढ़ सकें। सबसे बड़ी बात है कि जो न्यूज चैनल हैं उनकी रूप रेखा अलग होती है। लेकिन साहित्य कोई बिकाऊ चीज नहीं है। आज हर चैनल और अखबार यह देखता है कि कहां आप का टी आर पी बढ़ेगा? कहां आपकी ज्यादा कमाई होगी। तो साहित्य सृजन या साहित्य पर कार्यक्रम कोई कमाई का माध्यम नही हैं। वो समाज में जागृति, चेतना, रोशनी लाने का माध्यम है। अगर मान लीजिए आप कमाएं भी, आप उसका कमर्शियल पक्ष भी रखें लेकिन जहां तक सृजन व संवेदना का प्रश्न है तो इसके लिए थोड़ा सा समय चाहे एक घंटे का ही हो, आधे घंटे का ही होे, चाहे सप्ताह में हो। यदि सारे चैनल इस ओर ध्यान दें तो एक संवेदना का पक्ष लागू होगा और उनकी महत्ता बढ़ेगी। 

  • अमरनाथ अमर, 61-एफ, सै.4, बंगला साहिब रोड, गोल मार्केट, नई दिल्ली-1 / मो. 09818355106 
  • मनीषा जैन, 165, वेस्टर्न एवेन्यू, सैनिक फार्म, नई दिल्ली-110080 / मो. : 09871539404

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  :  4,   अंक  : 05-06, जनवरी-फ़रवरी 2015 

        {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कालौनी, बदायूं रोड, बरेली, उ.प्र. के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें। स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा }


।।किताबें।।

सामग्री :  इस अंक में  ‘चिमनी पर टँगा चाँद यानी समय के मुहावरे को सही अर्थ देने की बेचैनी’: डॉ. बलराम अग्रवाल द्वारा स्व. सुरेश यादव के कविता संग्रह ‘‘चिमनी पर टँगा चाँद’’ की, ‘इंद्रधनुषी बिम्बों से सजा एक कविता-संग्रह’: डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ द्वारा डॉ. मीरा गौतम के कविता संग्रह ‘मुझे गाने दो मल्हार’ की; ‘अनुभूतियों की सच्चाई का काव्य कलश’:  श्री राजेन्द्र परदेसी द्वारा राजेशकुमारी के कविता संग्रह ‘काव्य कलश’ की; ‘ज्वलन्त समस्याओं को चित्रित करती व्यंग्य रचनाएँ’: डॉ. अनीता देवी द्वारा मधुकान्त की व्यंग्य कथाओं के संग्रह ‘ख्यालीराम कुंआरा रह गया’ की; ‘‘देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध- ध्वनि’’: श्री ग्यारसी लाल सेन द्वारा श्री रामस्वरूप मूंदड़ा कक हाइकु संग्रह ‘ ध्वनि’ की तथा ‘थोड़े में जीवन को कहती क्षणिकाएं’: सुश्री कमलेश सूद द्वारा श्री नरेश कुमार उदास के क्षणिका संग्रह ‘माँ आकाश कितना बड़ा है’ की समीक्षा।


डॉ. बलराम अग्रवाल



चिमनी पर टँगा चाँद यानी समय के मुहावरे को सही अर्थ देने की बेचैनी
      ‘उगते अंकुर’ (1981) तथा ‘दिन अभी डूबा नहीं’ (1986) के बाद सुरेश यादव का यह तीसरा काव्य संग्रह है। निःसंदेह, यह सवाल अनायास ही मस्तिष्क में उभर सकता है कि तीसरा संग्रह 24 वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद क्यों आया है? स्वाभाविक-जैसा लगने के बावजूद इस सवाल को माना बचकाना ही जाएगा, क्योंकि सृजनशीलता की पहचान प्रकाशनकाल के  अन्तराल के बरक्स नहीं, समय के साथ उसके सरोकारों के बरक्स होनी चाहिए। ‘चिमनी पर टँगा चाँद’ के साथ भी उसका आकलन करते हुए एकदम यही स्थिति अपनानी श्रेयस्कर है। 
     संग्रह की रचनाओं को कुल तीन खण्डों में विभक्त किया गया है- यह शहर किसका है, चट्टान तोड़ती गई तथा वह सपनों से प्यार करता है। पहले खण्ड में 24, दूसरे में 31 तथा तीसरे में 26 यानी कुल 81 कविताएँ इसमें संग्रहीत हैं। इन कविताओं के बारे में कवि का कथन है कि- ‘‘मेरी कविता को/अब न पढ़ना उस तरह/उस दिन से आज तक/शब्दों के अर्थ/बहुत बदल गए हैं‘‘ (मेरी कविता, पृष्ठ: 105)। और यह भी कि- ‘‘मेरी कविताओं की जमीन/उस आदमी के भीतर का धीरज है/छिन चुकी है/जिसके पाँवों की जमीन‘‘ (जमीन, पृष्ठ: 34)।  
     संग्रह की कविताओं के ये अंश कवि-मन का यथार्थ है जिसे वह पूरे संकलन में इसी सहजता से दर्शाता चलता है। किसी भी प्रकार की शाब्दिक चतुराई को वह छल मानता है- ‘‘मासूम भाव छले जाते हैं/बड़ी चतुराई से कभी-कभी-/शब्द जब होते हैं/बहुत सुन्दर’’ (मासूम भाव, पृष्ठ: 126)।
     सुरेश यादव की कविताओं में बिम्बों, प्रतीकों, रूपकों का आरोपण नहीं है। जो कुछ भी है सीधा सहज-सा है लेकिन सपाट नहीं है वैसा दिखते हुए भी। अनेक दृष्टि से सुरेश यादव आहत संवेदनाओं के कवि प्रतीत होते हैं- ‘‘यह शहर किसका है?/ जब-जब मेरा मन पूछता है/जलती सिगरेट पर पड़ता है/किसी का नंगा पाँव/और/जवाब में एक बच्चा चीखता है!’’ (यह शहर किसका है, पृष्ठ: 23)।
     क्यों चीखता है कवि के भीतर का यह बच्चा? इसलिए कि गाँव से उसके साथ आया चाँद पीला पड़ गया है और स्वयं वह भी सपनीले वादे ढोते-ढोते सूखकर काँटा हो गया है। लेकिन वह हताश नहीं होता है। विपरीत हवाओं के खिलाफ अलाव का विचार उसमें जागता है। क्यों? इसका उत्तर देता हुआ कवि लिखता है- ‘‘बात इतनी-सी है/आदत झुकने की नहीं है/दरिन्दगी के आगे/टूटता हूँ बार-बार इसलिए कि/झुका नहीं जाता’’ (झुका नहीं जाता, पृष्ठ: 68)। बार-बार टूटने से आहत कवि बाह्य दबावों से त्रस्त और भयभी्त न हो ऐसा नहीं है। अन्ततः तो वह है इस संसार का ही प्राणी। मनोबल टूटने की इस दशा में वह कविता को अपना सम्बल पाता है और कह उठता है- ‘‘रे कवि! हार मत/साथ कविता है‘‘ (रे कवि! हार मत, पृष्ठ: 69)। कवि से ही नहीं, वह कविता से भी कुछ कहता है- ‘‘गूँगे हर शब्द को/आवाज़ दे/पूरे जोर से झकझोर/संवेदना का द्वार/हर बन्द खिड़की/अपने हाथों- खोल कविता/कुछ बोल कविता’’ (कुछ बोल कविता, पृष्ठ: 66)।
     गाँव और गरीबी के विषय में सुरेश यादव के चित्र अप्रतिम हैं- ‘‘गाँव- गरीब है इतना/‘ब्लैकबोर्ड’ की तरह/अमीरी का एक-एक अक्षर यहाँ/खड़िया-सा चमक जाता है‘‘ (गरीब गाँव, पृष्ठ: 74)। तथा, ‘‘गरीबी/बाजार में- मुँह बाँधकर जाती हुई मिलती है/खाली जेब मिलती है मेले में/गुब्बारे के साथ फूलती और फूटती है/समय के झूलों में/गरीबी झूलती है- पेंडुलम की तरह/समय को जिन्दा रखती है‘‘ (क्या होती गरीबी, पृष्ठ: 72)।
     महानगर में अपने समय के एक क्रूर सत्य को कवि इन शब्दों में लिखता है- ‘‘सड़क पर गिरा/रोटी का टिफन/खुलता नहीं जब तलक/सब्जी, रोटी, दाल/बम की तरह फटते रहते हैं/मासूम लोग दूर हटते रहते हैं’’ (बम लगता है, पृष्ठ: 89)। हालत यह है कि, ‘‘अखबारों में/हर सुबह, लिपटकर आते हैं/हादसे/खुल जाते हैं/चाय की मेज पर/फैल जाते डरावनी तस्वीरों में/घर के कोने-कोने/हर सुबह!‘‘ (अखबार की सुबह, पृष्ठ: 65)। तथा, ‘‘एक पत्ता भी टूटता है/खबर फैलती है/‘सनसनी’ बनकर’’ (माहौल, पृष्ठ: 96)।
      तात्पर्य यह कि ‘चिमनी पर टँगा चाँद’ कवि सुरेश यादव के बहुआयामी कविकर्म को प्रस्तुत करता ऐसा काव्य संग्रह है जिसकी कविताएँ आम पाठक- जो काव्य-बिंबों, काव्य-प्रतीकों, रूपकों आदि गूढ़ काव्यांगों के पचड़े में पड़े बिना आज की कविता में स्वयं को और अपने समय को तलाशना-देखना चाहता है, उसका रसास्वादन करना चाहता है- के लिए तो सहज-ग्राह्य हैं ही, विखंडन की प्रक्रिया से गुजारे बिना कविता को कविता न कहने-मानने वालों के लिए भी स्वीकार्य सिद्ध होंगी। इस संग्रह की अन्य कविताओं में महायुद्ध, गरीब का हुनर, मेले में मुर्गा, ठहरी झील, परिंदे, नन्हा-सा दिया, घर और डर, भूख बड़ी हो गई, हाथों में लिए उजाला, ईश्वर से बात, सीख जाता है हँसना, चटकते बरतन, माटी का घड़ा, अपनी राह, चुभन से खेलता है, दूब हैं हम, रोते बच्चे की माँ, किरन, देह की दीवार, वह हँसी, जलती शाम, बेबसी तथा पूजा भी उल्लेखनीय हैं। इनमें कई को नवगीत-शैली में भी लिखा गया है। बहरहाल, एक-दो को छोड़कर काव्यपरक लयबद्धता तो हर कविता में है ही। अपने समय के मुहावरे को सही अर्थ में प्रस्तुत करने की स्पष्ट बेचैनी के कारण ‘चिमनी पर टँगा चाँद’ एक सार्थक काव्य संग्रह सिद्ध होता है।
चिमनी पर टँगा चाँद :  काव्य संग्रह :  सुरेश यादव। प्रकाशक :  शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली-110032। मूल्य :  रु. 150/- मात्र। पृष्ठ : 128।     

  • एम-70, निकट पुराना जैन मन्दिर, उल्धनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032/मोबाइल: 08826499115



डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’


इंद्रधनुषी बिम्बों से सजा एक कविता-संग्रह 

        कविता और संगीत का अनूठा संगम कही जा सकने वाली समर्थ्य और प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ. मीरा गौतम का सद्यः प्रकाशित काव्य-संग्रह ‘मुझे गाने दो मल्हार’ पढ़कर महाप्राण ‘निराला’ की याद ताजा हो आई, क्योंकि डॉ. मीरा ने जो कविताएँ रची हैं, वे वस्तुतः ‘मुक्त छंद’ की कविताएँ हैं, मात्र ‘अतुकान्त’ गद्य के टुकड़े नहीं हैं!
         अपने विलक्षण ‘समर्पण’ में कवयित्री ने जो कुछ लिखा है, वह उनके ‘ह्नदय’ को पाठकों के समक्ष रख देने में सक्षम और समर्थ हुआ है- ‘‘मल्हार एक राग है जिसे वर्षा ऋतु में गाया जाता है! भीतर आर्द्र संवेदनाएँ चुक रही हैं और बाहर मनुष्य के हस्तक्षेपों से पूरा भूगोल असंतुलित हो रहा है। दोनों एक-दूसरे को ढहाने पर लगे हैं! उन सबके लिए जो मेरी यह बात महसूस कर लें कि विकट स्थितियों में मल्हार का निनादित होना कितना जरूरी है कि बाहर और भीतर दोनों ही बचे रह सकें।’’
         निस्संदेह, डॉ. मीरा की ये कविताएँ आज की आपाधापी में हमारे जीवन में आते जा रहे ‘भीतर’ और ‘बाहर’ के असंतुलन से जूझने की कविताएँ हैं, जो उद्वेलित भी करती हैं और प्रेरणा भी देती हैं। मेरी दृष्टि में आज तो ये कविताएँ नितांत प्रासंगिक हो उठी हैं। मीरा की इन कविताओं में अनेक रंग हैं, संगीत के अनेक रागों का जिक्र इनमें है और जीवन की छवियों के महकते फूल भी आपको इन कविताओं में मिल जाएँगे तो साथ ही कुछ चुभते हुए प्रश्नों के कांटे भी चुभेंगे जरूर!
         ‘कविता के बंध जाने का डर’ शीर्षक अपनी कविता में डॉ. मीरा ने साफ चेतावनी दी है- ‘मैं’ लिपटता जाता है कविता से जब,/लिजलिजेपन की हद से/मुक्त होना असंभव था,/कविता आप बीती का टोकरा तो नहीं/अपने सर से उठाकर/पाठक के सर पर टेक दिया/गर्दन तोड़ने के लिए! (पृष्ठ-62)
          डॉ. मीरा के ये शब्द आज की हिंदी कविता को ‘आइना’ दिखाने वाले हैं, जिनमें कहीं आपका ‘दर्द’ भी छिपा हो सकता है। ऐसी ही एक और कविता है- ‘बीहड़ों में पगडंडियाँ’, जिसमें कवयित्री मीरा गौतम का ‘दिल’ ही जैसे बोल उठा है। इस कविता का सच निश्चय ही आपकी आँखों को गीला करने की सामर्थ्य स्वयं में रखता है- ‘‘अपना सा मन दे दो कवि!/चोट सहूँ पत्थर बन जाऊँ!/0 0 0/इतना ही हो पास/छद्म के चाबुक खाकर भी/बिखरूँ नहीं,/पालती रहूँ ऊर्जा तन-मन में/संभावनाओं के जागें स्वर,/व्यर्थता न रहे क्षण भर/बीहड़ों में पगडंडियाँ मापने की तरह!’’ (पृष्ठ-63)
           डॉ. मीरा ने इस काव्य संग्रह में प्रकाशित कुल 65 कविताओं में ऐसी इन्द्र धनुषी छवियाँ संजोई हैं कि पाठक का मन अनायास ही ‘वाह’ कह उठता है। अपनी पहली ही कविता में मीरा अपने ‘काव्य-दर्शन’ की जैसे घोषणा कर देती है-‘‘बादलों से कहेंगे हम/पगडंडियां बचाकर रक्खें हमारे लिए/0 0 0/विध्वंस के बाद भी/जगहें मिल ही जाती हैं/अनंत संभावनाओं की तरह/नया घर बन जाता है’’ (पृष्ठ-9)
           कवयित्री के ह्नदय में ‘बढ़ते विश्वव्यापी आतंकवाद’ के प्रति चिंता की सहज अभिव्यक्ति उनकी ‘ताबूतों में जिंदगी’ कविता में देखते ही बनती है। आतंकवाद का घिनौना सच एकबारगी तो हमारी आँखों में साकार हो उठता है, जब वे अपनी इस कविता में अत्यंत भावुक होकर कहती हैं- ‘‘अभी-अभी दंगों में/दहन हुआ नवजात शिशु/आँखों से मर गया पानी!/आतंक उतर आया जमीन पर/रक्त में बहता है पिशाच/तवों पर सिक रही/वोटों की रोटी!’’ (पृष्ठ-15)
          इन कविताओं में ‘स्त्री’ भी बड़ी सिद्दत के साथ विद्यमान है, लेकिन कोई ‘नारा’ या कोरा ‘वाद’ बनकर नहीं, बल्कि एक शक्ति और सृष्टि की धात्री के रूप में है। कई कविताओं में स्त्री के भिन्न-भिन्न रूप आपको मिलेंगे। ‘चलो सखी घूम आएँ’, ‘पर्वत की बेटियाँ हैं नदियाँ’ और ‘पर्वतों की तलहटी में’ जैसी कविताओं में ऐसी ‘स्त्री’ विद्यमान है, जो निरंतर गलती रहती है, कभी ‘उफ’ नहीं करती, लेकिन ‘स्त्री: विषपायिनी’ शीर्षक कविता में डॉ. मीरा ने ‘स्त्री’ के सर्वथा विलक्ष़्ाण रूप को उकेरा है-‘‘जीवित है विषपायिनी/शताब्दियों से/निर्वासित कर देने की/प्रताड़नाओं के बीच,/0 0 0/उसके इर्द-गिर्द कई घेरे/कई-कई पहरे/सर्पों के विषदन्त तोड़ने में/सदियों से माहिर/फिर भी सहज और/निष्पन्द है विषपायिनी!’’ (पृष्ठ-30)
          इस संग्रह की कई कवितायें चुभती भी हैं और सवालों को भी उठाती हैं। ऐसी कविता है ‘धूप के पैगाम’, जहाँ कविता की सजग अभिव्यक्ति-क्षमता को कवयित्री एक बार पुकारती है, जैसे आज वह खो गई हो? ‘कविता का वनवास’ और ‘बंट रही है कविता; सचमुच विचारोत्तेजक रचनाएँ कही जा सकती हैं, जिनमें कविता के सृजन की छटपटाहट मिलती है। डॉ. मीरा की कुछ कविताओं में गहरा दर्शन उभरा है, जिनमें ‘कहाँ हो नीलकण्ठ’ और ‘पत्तों का मरण-पर्व’ पाठकों को अवश्य प्रभावित करेंगी। इस संग्रह की एक कविता मुझे सचमुच बहुत ‘बोल्ड’ और बेहद सामयिक लगी है, जिसने बेबाक ढंग से चुभते सवाल पर आपका ध्यान खींचा है। यह कविता है ‘मीडिया में हिंदी’, जिसमें डॉ. मीरा ने चुभते सवाल उठाए हैं- ‘‘बहुत संवर गई है/बणज-ब्यौपार में!/0  0  0/उधार की लिपि में/अंग्रेजी की बन आई/देवनागरी के हर पाये पर/माल ढोती-लादती है अंग्रेजी’’ (पृष्ठ-58)
          मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि डॉ. मीरा की यह कविता हिंदी को बिगाड़ते आज के ‘मीडियार्मियों’ की आँखें जरूर खोल सकेगी। कवयित्री ने ‘पर्यावरण’ और सामाजिक संबंधों में निरंतर आते जा रहे विघटन को लेकर भी बहुत सहज कविताएँ लिखी हैं, जो अपनी विचार-शक्ति से प्रभावित करती हैं। डॉ. मीरा की एक कविता ‘अंगारों में दहकते हैं शब्द’ तो सचमुच आपको हिला देगी और आप ‘शब्द-ब्रह्म’ की शक्ति को नमन करेंगे। एक प्यारी कविता है ‘चलो सखि! घूम आएं’, जिसमें डॉ. मीरा ने बड़ी शिद्दत से ‘नारी-स्वभाव’ पर प्यारे कटाक्ष भी किए हैं, जो देखते ही बनते हैं। आप भी देखिए इन पंक्तियों में छिपा हुआ कटाक्ष- ‘‘पीढ़ियां बीत गयी हैं उनकी/निंदा-रस पीते-पिलाते/उस जमात में/हम शामिल न हो जाएं/चलो सखि घूम आएं/पार्क का चक्कर लगा आएं!’’ (पृष्ठ-19)
           कवयित्री डॉ. मीरा गौतम का यह कविता संग्रह निस्संदेह एक ताज़गी भरी रचनाओं का ऐसा गुलदस्ता है, जो अपनी सुगंध से आपको मोह लेगा। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण-पृष्ठ ख़ासा नयनाभिराम है। इस संग्रह से अनेक संभावनाओं को जन्म मिल रहा है, इसलिए इसका स्वागत हिंदी जगत में होना जरूरी है।
मुझे गाने दो मल्हार :  कविता संग्रह :  डॉ. मीरा गौतम। प्रकाशक :  यूनिस्टार बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.ओ. 26-27, से.34ए, चण्डीगढ़। मूल्य :  रु.175/- मात्र।

  • 74/3, न्यू नेहरू नगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उ.खंड) / मोबाइल : 09412070351




राजेन्द्र परदेसी 




अनुभूतियों की सच्चाई: काव्य कलश
     ‘काव्य कलश’ चर्चित कवयित्री राजेशकुमारी की विभिन्न विधाओं जैसे छंद, गीत, अतुकांत आदि कविताओं का नवीनतम संग्रह है। सच्चे काव्य और सच्ची कला की कसौटी अनुभूति की सच्चाई है। राजेशकुमारी इस कसौटी पर खरी उतरती हैं, उन्होंने बिना किसी लाग लपेट, आडम्बर और कृत्रिमता के जीवन सम्बन्धी अनुभूतियों को सरल और सीधे ढंग से अभिव्यक्त किया है, उन पर अलंकारों की परत चढाने की चेष्टा नहीं की परन्तु फिर भी उनमें जीवन का सत्य
निर्मल स्फटिक मणि के समान दैदीप्यमान है। राजेशकुमारी की सरल शब्दों में आत्माभिव्यक्ति उनके अक्षय आत्मविश्वास की ऊर्जा से अनुप्राणित होने के कारण उनकी कवितायें गहन वेदना से ओतप्रोत हैं। उनकी ये वेदना कृत्रिम नहीं है अपितु प्राकृतिक है, नैसर्गिक है और उसमे सिन्धु की सी अतल गहराई है। वह एक दिन की नहीं है अपितु उसमे अविरल गति है अविरल प्रवाह है अक्षत और अमर है। इसलिए वह ऊपर की वस्तु नहीं, हृदय में बसी हुई है -
कोई प्यासा न रहे, करती प्रकृति प्रयास।
पीकर बूंदे ओस की, भानु बुझाता प्यास।।
     संवेदनाओं एवं भावनाओं को कवयित्री राजेशकुमारी व्यक्त करते समय स्पष्टवादिता को नहीं छोड़ती। वह अपने हृदय के उद्गार यूँ बयान करती हैं जैसे शब्द उनकी परिक्रमा कर रहे हों और वह जिस शब्द को चाहती हैं अपनी कविता में शामिल कर उसमे भाव पैदा कर देती हैं। हृदय की सागर जैसी गहराई को सतह पर लाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। यह बात कवयित्री की काव्य क्षमता को दर्शाने के लिए काफी हैद्य। द्रष्टव्य है-
खाने को रोटी नहीं, सोते भूखे पेट।
रैंक बने हैं मेमने, शासन के आखेट।।
     राजेशकुमारी को एक कोमल हृदय प्राप्त है जो केवल कवि होने होने के कारण सहृदय एवं सरल ही नहीं है अपितु सात्विक गुणों से परिपूर्ण है, क्योंकि इनकी कविताओं में जो निश्छल प्रेम वेदना का निरूपण हुआ है उसमंे न कहीं कटुता है न कहीं द्वेष न कहीं घ्रणा की भावना है। इनकी वेदना तो अपनी सहज निवृति में विश्व वेदना सी बन गई है-
रक्त पिपासु के सम्मुख चाकू क्या तलवार क्या 
आतंकवादी कहाँ सोचे सरहद क्या दीवार क्या
शांत बस्तियों का जलना ही जिनके मंसूबे हों 
उन दरिंदों की खातिर परम्परा क्या परिवार क्या !!
      राजेशकुमारी ने अपने व्यापक ज्ञान भण्डार और जीवन के अनुभव के रंगों-छंदों से अपनी कविता भण्डार को अनुपम भाव सम्पदा प्रदान की। इनकी कविताओं को पढने से ऐसा लगता है कि इनकी कविताओं में मानव मूल्यों की सतत तलाश है-
मेरे अपने ही फूलों ने झुका दिया इस डाली को 
वरना मेरी गर्दन ने कभी झुकना नहीं सीखा!
     आज विसंगतियों के टक्कर में मानव फंसा हुआ है,एक कविता में टी. एस. इलियट ने लिखा है कि सूर्य की किरण हमारे ऊपर आघात कर रही हैं, कल्पनाएँ छिन्न भिन्न हो गई हैं, मृत वृक्ष छाया नहीं देते, कहीं आराम नहीं है, हर तरफ़ सूखे पत्थर हैं पानी की कल-कल ध्वनी सुनाई नहीं देती। इलियट के ये विचार वस्तुतः आज के आम आदमी की मनः स्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आज का आम आदमी जिस तरह की छटपटाहट में जी रहा है उसका वर्णन करना कठिन है उसकी विवशताएँ असीम हैं। कवयित्री राजेशकुमारी की कविता की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- 
खुद को जलाकर जग को देते हो उजाला 
फिर भी एक नज़र तुझे कोई देखना नहीं चाहता 
कोई तुझसा बेचारा नहीं देखा।
     कवयित्री राजेशकुमारी की कविता संग्रह ‘काव्य कलश’ का समग्र रूप का यदि मूल्यांकन किया जाए तो इनकी विरहानुभूति सर्वथा निश्छल एवं नैसर्गिक प्रेम की पवित्र सरिता है जो अपने पुनीत प्रवाह से पाठकों को प्रेम विगलित बना देती हैं। करुणाई भर देती है इसमें अत्यधिक स्वाभाविकता, सरलता, सरसता के दर्शन होते हैं क्यूंकि इसमें वेदना का हाहाकार नहीं है अपितु एकाकीपन की नीरवता भरी हुई है। यह मूक वेदना कविता के सहज एवं स्वाभाविक आवरण को धारण करके नैसर्गिक रूप में यहाँ अभिव्यक्त हुई है। पूर्ण विश्वास है साहित्य जगत इस कविता संग्रह का हृदय से स्वागत करेगा तथा राजेशकुमारी की लेखनी को बल प्रदान करेगा।
काव्य कलश :  कविता संग्रह :  राजेशकुमारी। प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, 942, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद-211003। संस्करण : 2014। मूल्य :  रु. 140/-।
  • 44, शिव विहार, फरीदी नगर, लखनऊ-226015, उ.प्र./ मोबाइल : 09415045584





डॉ. अनीता देवी

ज्वलन्त समस्याओं को चित्रित करती व्यंग्य रचनाएँ

       हिन्दी साहित्य की विधाओं में व्यंग्य विधा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हैं। इसके द्वारा जीवन के विविध आयामों का प्रस्तुतिकरण अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। व्यंग्यात्मकता के माध्यम से मानव जीवन में विघटित विसंगतियों व बिडम्बनाओं की सफल अभिव्यक्ति मन को स्पर्श कर जाती है। ‘ख्यालीराम कुंआरा रह गया’ मधुकांत की व्यंग्यात्मक रचनाओं का पहला संग्रह है। लेखक ने समाज में बिगड़ते लिंग अनुपात, नेताओं के काले चेहरों पर आदर्श के मुखौटे, कन्या भ्रूण हत्या, शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, नेतागीरी में वंश परम्परा, रेल व्यवसाय में घाटा, लीडरशिप, मिड-डे-मील घोटाला, स्कूल व्यवस्था में भ्रष्टाचार व आधुनिक शिक्षा पद्धति के दोषपूर्ण होने के कारण होनहार विद्यार्थियों के भी डगमगाते आत्मविश्वास का अत्यन्त मार्मिक, हृदयग्राही एवं सफल चित्रण किया है।
    इस संग्रह की प्रथम रचना ‘नेता ख्यालीराम भीड़ में’ एक नेता के उस चरित्र का वर्णन करती है, जो आदर्श जीवन जीना तो नहीं चाहता लेकिन आदर्शमयी दिखना अवश्य चाहता है। यह रचना आदर्श का मुखौटा पहनने वाले नेताओं पर करारा व्यंग्य है।
     आज देश में मिलावट का कारोबार तेजी से फल-फूल रहा है। दूसरा व्यंग्य ‘असली नकली ख्यालीराम’ इसी मिलावटी कारोबार पर करारा व्यंग्य है। ख्यालीराम जैसे व्यक्ति मिलावट की चर्चा तो करते हैं परन्तु कुछ ठोस कार्य नहीं करते।
     संग्रह की तीसरी रचना समाज में बिगड़ते लिंग अनुपात अर्थात लड़कियों की घटती संख्या के फलस्वरूप कुँआरे लड़कों की मानसिक वेदना का चित्रण है। कन्या भ्रूण की हत्याओं से घटती लड़कियों की जनसंख्या के फलस्वरूप गली-मौहल्ले में कुँआरे घूमते लड़कों और माँ-बाप की यही वेदना एक दिन कन्याओं की आवश्यकता का महत्व जता देगी।
    ‘मार्किंग मास्टर ख्यालीराम’ में मूल्यांकन पद्धति का चित्र प्रस्तुत किया गया है। रचनाकार का मानना है कि शिक्षा बोर्ड व विश्वविद्यालय छात्रों की उत्तर-पुस्तिकाओं का पुनः मूल्यांकन करा ले तो बड़े भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं। देश के होने वाले कर्णधारों के साथ ऐसा भद्दा मजाक किया जाएगा तो कैसे उनकी आस्था शिक्षा के साथ जुड़ पाएगी!
     सरकार जनता से टैक्स के रूप में या अन्य साधनों से जो धन जुटाती है, उसकी किस प्रकार बंदर-बांट करके मौज मस्ती की जाती है। इस विषय पर ‘तम्बाकू मंत्री ख्यालीराम’ में दर्शाया गया है।
     देश में रीढ़ की हड्डी समझी जाने वाली रेलवे सदैव घाटे का व्यवसाय कर रही है, क्योंकि इसमें अनेक स्थानों पर भ्रष्टाचार के छिद्र हैं। हाल ही की घटना है 10 करोड़ का रेलवे प्रमोशन घोटाला। जिसमें नियमों को ताक पर रखकर भाई-भतीजावाद की परम्परा को अपनाकर प्रमोशन सीनियॉरिटी के आधार पर नहीं होता। यात्री बेटिकट क्यों चलता है? रेल मन्त्रालय ने न तो इसकी विवशता को समझा और न ही इसको रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाया। 
    नेता बनाने की ‘लीडरशिप एकेडमी’ खुलते ही जो भीड़ इकट्ठी हुई, उससे पता लगता है कि देश में नेतागीरी करने का कितना बड़ा मोह लोगों ने पाल रखा है। अयोग्य से अयोग्य और चरित्रहीन व्यक्ति भी नेता बनने का सपना देखने लगा है। आजादी के 64 वर्ष बीत जाने के बाद भी आज योग्य और प्रशासनिक अधिकारी नेताजी की गुलामी करने के लिए विवश है। ‘विद्याव्रत की अन्त्येष्टि’ पूर्णतया व्यंग्य रचना नहीं है, बल्कि एक रचनाकार की आत्मपीड़ा है।
     कमोवेश प्रदेश के सभी सरकारी स्कूलों में किसी न किसी मास्टर का भूत घूमता रहता है, जो कहीं कुछ भी ठीक नहीं होने देगा। कभी मिड-डे-मील में घोटाला तो कभी सामान खरीद में, कभी फंड्स में तो कभी अबोध बालिका पर बुरी नजर... न जाने क्या-क्या।
    यदि सरकार केवल काम के दिनों का वेतन देने लगे तो कर्मचारियों को छुट्टी का दिन सबसे खराब लगेगा। व्यंग्य ‘छुट्टी मास्टर ख्यालीराम’ में छुट्टी के प्रति कर्मचारियों के दृष्टिकोंण को चित्रित करने के साथ उस मजदूर की बात भी कही है जो अचानक छुट्टी हो जाने पर अपने घर खाली हाथ लौटता है।
    ‘स्कूल की मुँडेर पर उल्लू’ स्कूल व्यवस्था के भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य है। एक ओर अध्यापक को राष्ट्र निर्माता का सम्माननीय पद दिया गया है। जब समाज में अध्यापक ही भ्रष्टाचारी व लालची हो जाएगा तो देश का निर्माण कौन करेगा!
    ‘भूकम्प’ में एक कर्मठ अध्यापक छुट्टी लिए बिना, कोई शुल्क लिए बिना, पढ़ाने के लिए छात्रों को बुलाए। प्राकृतिक आपदा घटने पर उस अध्यापक पर यह अभियोग चलाया जाए कि उसने छुट्टी वाले दिन छात्रों को पढ़ाने के लिए क्यों बुलाया और इसी अपराध में उसे पदच्युत कर दिया जाए तो कौन अध्यापक छात्रों के लिए परिश्रम करेगा। गुरु पर जब इतने बंधन लग जाएंगे तो क्या अध्यापक अपने गुरुत्व की रक्षा कर पाएगा?
     रचनाकार का व्यंग्य विधा में प्रथम प्रयास सफल व उच्चकोटि का है। जिसमें भारतीय समाज की ज्वलन्त समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए इन्हें सुलझााने के प्रयास किए हैं।
ख्यालीराम कुंआरा रह गया :  व्यंग्य संग्रह :  मधुकांत। प्रकाशक :  निहाल पब्लिेकेशन्स एण्ड बुक डिस्ट्रीब्यूटर्स, सी-70, गली नं. 3, उत्तरी छज्जूपुर, दिल्ली। मूल्य :  रु.200/- मात्र। पृष्ठ :  96। संस्करण : 2013। 
  • हिन्दी विभाग, भक्तफूल सिंह महिला डिग्री कॉलेज, खानपुरकलाँ, सोनीपत (हरि.) / मो. 09992572003




ग्यारसी लाल सेन
देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध : ध्वनि
        कवि रामस्वरूप मूंदड़ा की कृति ‘ध्वनि’ जापानी से हिन्दी में आई विधा ‘हाइकु’ रचनाओं का संग्रह है। मूंदड़ा जी जाने-माने गीत व ग़ज़लकार तथा कई सम्मानों से विभूषित कवि हैं। पुलिस महकमें में सेवारत रहकर इन्होंने दीर्घ समय से साहित्य सृजन से सम्बन्ध रखा, यह अद्भुत है।
     भारतीय दृष्टिकोंण हमेशा से ही समन्वयात्मक रहा है। धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक हो या साहित्यिक, कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, जहाँ से जो भी उत्तम मिला, जिसमें मानव कल्याण की चिन्ता हो, लोक मंगलकारी हो, हमारे देश ने उसे ग्रहण किया है। इस प्रकार हमारी संस्कृति को अनेक संस्कृतियों का संगम होने का गौरव प्राप्त है। सभी के सम्मिलित प्रयास से ही यह महिमा हमें प्राप्त हो सकी है। और यही भारतीय संस्कृति कहाती है। 
    हाइकु जापानी विधा है, जिसमें 5,7,5 अक्षरों की तीन पंक्तियाँ हैं। मूंदड़ा जी के इस संग्रह के 114 पृष्ठों में कुल 755 हाइकु संग्रहीत हैं। जापानी मूल की होने के कारण इस विधा को भले आयातित विधा कहा जाये पर साहित्यकार के समक्ष सृजन के साथ ‘बहुजन हिताय’ और ‘बहुजन सुखाय’ का उद्देश्य ही प्रमुख होता है। ये गुण इस संग्रह की रचनाओं में हैं। इन रचनाओं में जन मानस की सत्ता के साथ-साथ आध्यात्म, प्रकृति, राजनीति, पशु-पक्षी, हमारे देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध की गहन अनुभूति भी है।
     हमारे देश की संस्कृति आध्यात्म आधारित है, जहाँ आत्मा, परमात्मा, जन्म, मृत्यु व पुनर्जन्म, लोक-परलोक आदि सिद्धान्तों पर आये दिन चर्चा होती रहती है। ईश्वर तत्व, जीवात्मा तत्व, प्रकृति तत्व, बह्माण्डीय सृष्टि आदि पर हमारे धर्मग्रन्थों में विस्तार से चर्चा है। इस संग्रह में कविता का प्रारंभ भी ऐसी ही गूढ़ चर्चा से किया गया है- 1. ‘‘मरती नहीं/वेश बदलती है/सच में आत्मा’’। 2. ‘‘छोड़ जाएंगे/एक एक करके/साथ श्वासें भी’’।
     आज के रचनाकारों को प्रकृति से जुड़ाव नहीं रह गया है, उनके काव्य में राजनीति, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं की ही चिंताएं अधिक होने लगी हैं। यदि कुछ रचनाकार ऐसी रचनाएं करते भी हैं तो उनमें न तो प्रकृति प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है, न भव्य वर्णन, न ही पद्यों की रमणीयता, न स्वर सौष्ठव ही। आइए, मूंदड़ा जी के इन हाइकु की बानगी देखें- 1. ‘‘मन हरखा/भर गई बरखा/ताल-तलैया’’। 2. ‘‘हँस रही जो/बादलों की ओट में/सौदामिनि है’’। 3. ‘‘नीली ओढ़नी/पहनती है रात/सितारों वाली‘‘।
    रूमानी स्मृतियों में रची बसी अनुभूतियों से भी बेखबर नहीं है कवि। देखिये इन हाइकु में उनके स्वर- 1. ‘‘प्यार में चोट/दर्द में डूबे गीत/यही सामान‘‘। 2. ‘‘तुम्हारी लगे/हर एक आहट/नयन थके‘‘।
     कवि ने जीवन के विभिन्न पक्षों को सामने लाते हुए हमारे समाज पर कटाक्ष ही नहीं कठोर व्यंग्य भी किये हैं- 1. ‘‘लुच्चे लफंगे/सियासत में चंगे/आये थे नंगे’’। 2. ‘‘सुलगा रहे/नफरत की आग/जलेंगे हम’’। 3. ‘‘चाँद सूरज/गरीब को रोटी में/नजर आये‘‘।
     संग्रह के एक-एक हाइकु की गहनता और व्यापकता में जाना संभव नहीं है पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि मूंदड़ा जी की यह कृति ‘ध्वनि’ उनकी प्रतिभा से परिचय कराती है और जापानी एवं भारतीय काव्य साहित्य के मध्य सेतु का भी उद्देश्य पूर्ण करती है। ये कविताएँ देश-प्रान्त की सीमाओं को लाँघकर विश्व साहित्य का हिस्सा बनती हैं। संग्रह का आवरण सुन्दर व आकर्षक है। भूमिका हाइकु के विद्वान डॉ. भगवतशरण अग्रवाल जी ने लिखी है। 
ध्वनि :  हाइकु संग्रह :  रामस्परूप मूँदड़ा। प्रकाशक :  युगबोध प्रकाशन, 6/489, रजत कॉलोनी, बून्दी, राज.। मूल्य :  रु.150/-मात्र।  पृष्ठ : 115। संस्करण : 2012।
  • मंगलपुरा, झालावाड़-326001, राज. / मोबाइल :  9166696587



कमलेश सूद




थोड़े में जीवन को कहती क्षणिकाएं
       नरेश कुमार ‘उदास’ मूलतः हिन्दी भाषा के लेखक व कवि हैं। इनकी 14 पुस्तकें आ चुकी हैं और हाल ही में क्षणिका संग्रह ‘माँ आकाश कितना बड़ा है’’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में उदास जी ने जीवन के हर पहलू को उजागर किया है। यदि कहें कि इसमें उन्होंने ‘गागर में सागर भरने’ का काम किया है, तो अतिश्योक्ति न होगी। संग्रह की सभी 252 क्षणिकाओं का सृजन बड़े मनोयोग से किया गया है। उदास जी की सृजनात्मकता अनेक रचनाओं में देखने को मिलती है। ये पंक्तियाँ देखें- ‘‘मिटा
सको तो/आपस के फासले/मिटाओ/वर्ना दूरियाँ/बढ़ती चली जाएँगी/दिलों में नफरत/बढ़ती जाएगी‘‘।
     आज की ज्वलंत समस्याओं पर कई सारगर्भित प्रभावशाली रचनाएँ हैं। एक क्षणिका देखें- ‘‘भूख से लड़ती मां/भूख से लड़ता है बाप/भूख से लड़ते हैं बच्चे/भूख से लड़ता है/सारा घर’’। जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाया है कवि ने इस रचना में- ‘‘जीवन नश्वर है/सब जानते भी हैं/लेकिन फिर भी/जीते-जी/इस बात को/स्वीकार नहीं करते’’।
     कवि को समाज में अपना स्थान बनाने के लिए प्रयत्न करती, जूझती, बनती, मिटती औरत की भी चिंता है, जिसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- ‘‘औरत कहीं कहीं/जूझ रही है/लड़ रही है/फिर भी/पीछे धकेली जा रही है’’। समाज में भ्रूण हत्या जैसे कुकृत्य से सामाजिक मूल्यों का खंडित होना कवि को दुखी कर जाता है। लड़के-लड़कियों के अनुपात में अंतर मादा‘भ्रूणों को मिटाने से ही आया है। कवि की चिंता देखें- ‘‘मादा भ्रूणों को/आए दिन/नष्ट किया जा रहा है/लड़कियों को/पैदा होने से पूर्व ही/मिटाया जा रहा है’’। 
     आज भारत के प्रत्येक बड़े शहर में हर पल डरती, सहमती, आगे बढ़ती दामिनी को देखा जा सकता है; जो कदम तो फूँक-फूँक कर रखती है पर मन में अनजाना सा डर उसे हर पल दहला देता है। यह डर सोते हुए भी उसका पीछा नहीं छोड़ता- ‘‘लड़की के सपनों में/बार-बार क्यों चले आ रहे हैं/बलात्कारी चेहरे/लड़की सोये-सोये/चीख उठती है/हर बार’’।
    संग्रह की हर क्षणिका दिल को झकझोरकर यथार्थ के धरातल पर हमें निर्णयात्मक भूमिका निभाने के लिए छोड़ देती है। इसी भूमिका के तहत उदास जी समाज में बढ़ती नफरत और दिलों के फासलों को पाटने के लिए कई जगह आग्रह करते दिखते हैं। सामाजिक कुरीतियों, सामाजिक चेतना व पर्यावरण आदि जैसे विषयों पर भी कवि अपनी चिंता भी बेहद सादगी से रखता है। 
    मन के भीतर की पीड़ा व अपनों से बिछुड़ने का दर्द कवि अच्छे से समझता है। दर्दीले गीतों में फूटती उदास मन की व्यथा को इस क्षणिका में सटीक अभिव्यक्ति मिली हैं- ‘‘उदास दिनों में/अनायास ही/फूट पड़ते हैं/कंठ से/कुछ दर्दीले गीत/और मन बोझिल सा हो जाता है‘‘। 
    क्षणिकाओं की इस माला में दुःख-सुख, राजनीति, ममता, वात्सल्य, अनुशासन आदि कितने ही मोती हैं, जिनकी चमक असाधारण है। थोड़े शब्दों में जीवन को कह जाना, क्षणिका का एक बड़ा गुण है और इस संग्रह का भी। इस संग्रह में आपको जीवन के हर पहलू पर कवि के विचार मिलेंगे। इन्हें पढ़ते हुए आपका मन गहरे तक स्पंदित हुए बिना नहीं रहेगा। संग्रह की शीर्षक रचना में माँ की गोद को आकाश से भी बड़ा बताया गया है, जिसमें बालक का सम्पूर्ण संसार समाया होता है- ‘‘गोदी में/लेटे-लेटे/नन्हे मुन्ने ने/मचलते हुए/माँ से अचानक पूछा था/माँऽऽऽऽ आकाश कितना बड़ा है?/माँ ने उसे/प्यार से थपथपाते/आँचल में ढकते हुए कहा था/मेरी गोद से/छोटाऽऽ हैऽऽ रे’’।
    पुस्तक का मुखपृष्ठ आकर्षक व मुद्रण त्रुटिहीन है। विश्वास है कि यह संग्रह पाठकों की आशाओं पर खरा उतरेगा और साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनायेगा।
माँ आकाश कितना बड़ा है :  क्षणिका संग्रह :  नरेश कुमार ‘उदास’। प्रकाशक :  प्रगतिशील प्रकाशन, एन-3/25, प्रथम तल, मोहन गार्डन, उत्तम नगर, नई दिल्ली-59। मूल्य :  रु. 150/- मात्र। पृष्ठ : 104। संस्करण : 2014।
  • वार्ड नं. 3, घुघर रोड, पालमपुर-176061 (हि.प्र.) / मोबा. : 09418835456