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बुधवार, 24 मई 2017

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               अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2016


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डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’



इंद्रधनुषी बिम्बों से सजा एक कविता-संग्रह

कविता और संगीत का अनूठा संगम कही जा सकने वाली समर्थ्य और प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ. मीरा गौतम का सद्यः प्रकाशित काव्य-संग्रह ‘मुझे गाने दो मल्हार’ पढ़कर महाप्राण ‘निराला’ की याद ताजा हो आई, क्योंकि डॉ. मीरा ने जो कविताएँ रची हैं, वे वस्तुतः ‘मुक्त छंद’ की कविताएँ हैं, मात्र ‘अतुकान्त’ गद्य के टुकड़े नहीं हैं!
     अपने विलक्षण ‘समर्पण’ में कवयित्री ने जो कुछ लिखा है, वह उनके ‘हृदय’
को पाठकों के समक्ष रख देने में सक्षम और समर्थ हुआ है- ‘‘मल्हार एक राग है जिसे वर्षा ऋतु में गाया जाता है! भीतर आर्द्र संवेदनाएँ चुक रही हैं और बाहर मनुष्य के हस्तक्षेपों से पूरा भूगोल असंतुलित हो रहा है। दोनों एक-दूसरे को ढहाने पर लगे हैं! उन सबके लिए जो मेरी यह बात महसूस कर लें कि विकट स्थितियों में मल्हार का निनादित होना कितना जरूरी है कि बाहर और भीतर दोनों ही बचे रह सकें।’’
     निस्संदेह, डॉ. मीरा की ये कविताएँ आज की आपाधापी में हमारे जीवन में आते जा रहे ‘भीतर’ और ‘बाहर’ के असंतुलन से जूझने की कविताएँ हैं, जो उद्वेलित भी करती हैं और प्रेरणा भी देती हैं। मेरी दृष्टि में आज तो ये कविताएँ नितांत प्रासंगिक हो उठी हैं। मीरा की इन कविताओं में अनेक रंग हैं, संगीत के अनेक रागों का जिक्र इनमें है और जीवन की छवियों के महकते फूल भी आपको इन कविताओं में मिल जाएँगे तो साथ ही कुछ चुभते हुए प्रश्नों के कांटे भी चुभेंगे जरूर!
     ‘कविता के बंध जाने का डर’ शीर्षक अपनी कविता में डॉ. मीरा ने साफ चेतावनी दी है- ‘मैं’ लिपटता जाता है कविता से जब,/लिजलिजेपन की हद से/मुक्त होना असंभव था,/कविता आप बीती का टोकरा तो नहीं/अपने सर से उठाकर/पाठक के सर पर टेक दिया/गर्दन तोड़ने के लिए! (पृष्ठ-62)
     डॉ. मीरा के ये शब्द आज की हिंदी कविता को ‘आइना’ दिखाने वाले हैं, जिनमें कहीं आपका ‘दर्द’ भी छिपा हो सकता है। ऐसी ही एक और कविता है- ‘बीहड़ों में पगडंडियाँ’, जिसमें कवयित्री मीरा गौतम का ‘दिल’ ही जैसे बोल उठा है। इस कविता का सच निश्चय ही आपकी आँखों को गीला करने की सामर्थ्य स्वयं में रखता है- ‘‘अपना सा मन दे दो कवि!/चोट सहूँ पत्थर बन जाऊँ!/0 0 0/इतना ही हो पास/छद्म के चाबुक खाकर भी/बिखरूँ नहीं,/पालती रहूँ ऊर्जा तन-मन में/संभावनाओं के जागें स्वर,/व्यर्थता न रहे क्षण भर/बीहड़ों में पगडंडियाँ मापने की तरह!’’ (पृष्ठ-63)
     डॉ. मीरा ने इस काव्य संग्रह में प्रकाशित कुल 65 कविताओं में ऐसी इन्द्र धनुषी छवियाँ संजोई हैं कि पाठक का मन अनायास ही ‘वाह’ कह उठता है। अपनी पहली ही कविता में मीरा अपने ‘काव्य-दर्शन’ की जैसे घोषणा कर देती है-‘‘बादलों से कहेंगे हम/पगडंडियां बचाकर रक्खें हमारे लिए/0 0 0/विध्वंस के बाद भी/जगहें मिल ही जाती हैं/अनंत संभावनाओं की तरह/नया घर बन जाता है’’ (पृष्ठ-9)
     कवयित्री के ह्नदय में ‘बढ़ते विश्वव्यापी आतंकवाद’ के प्रति चिंता की सहज अभिव्यक्ति उनकी ‘ताबूतों में जिंदगी’ कविता में देखते ही बनती है। आतंकवाद का घिनौना सच एकबारगी तो हमारी आँखों में साकार हो उठता है, जब वे अपनी इस कविता में अत्यंत भावुक होकर कहती हैं- ‘‘अभी-अभी दंगों में/दहन हुआ नवजात शिशु/आँखों से मर गया पानी!/आतंक उतर आया जमीन पर/रक्त में बहता है पिशाच/तवों पर सिक रही/वोटों की रोटी!’’ (पृष्ठ-15)
     इन कविताओं में ‘स्त्री’ भी बड़ी सिद्दत के साथ विद्यमान है, लेकिन कोई ‘नारा’ या कोरा ‘वाद’ बनकर नहीं, बल्कि एक शक्ति और सृष्टि की धात्री के रूप में है। कई कविताओं में स्त्री के भिन्न-भिन्न रूप आपको मिलेंगे। ‘चलो सखी घूम आएँ’, ‘पर्वत की बेटियाँ हैं नदियाँ’ और ‘पर्वतों की तलहटी में’ जैसी कविताओं में ऐसी ‘स्त्री’ विद्यमान है, जो निरंतर गलती रहती है, कभी ‘उफ’ नहीं करती, लेकिन ‘स्त्री: विषपायिनी’ शीर्षक कविता में डॉ. मीरा ने ‘स्त्री’ के सर्वथा विलक्ष़्ाण रूप को उकेरा है-‘‘जीवित है विषपायिनी/शताब्दियों से/निर्वासित कर देने की/प्रताड़नाओं के बीच,/0 0 0/उसके इर्द-गिर्द कई घेरे/कई-कई पहरे/सर्पों के विषदन्त तोड़ने में/सदियों से माहिर/फिर भी सहज और/निष्पन्द है विषपायिनी!’’ (पृष्ठ-30)
     इस संग्रह की कई कवितायें चुभती भी हैं और सवालों को भी उठाती हैं। ऐसी कविता है ‘धूप के पैगाम’, जहाँ कविता की सजग अभिव्यक्ति-क्षमता को कवयित्री एक बार पुकारती है, जैसे आज वह खो गई हो? ‘कविता का वनवास’ और ‘बंट रही है कविता; सचमुच विचारोत्तेजक रचनाएँ कही जा सकती हैं, जिनमें कविता के सृजन की छटपटाहट मिलती है। डॉ. मीरा की कुछ कविताओं में गहरा दर्शन उभरा है, जिनमें ‘कहाँ हो नीलकण्ठ’ और ‘पत्तों का मरण-पर्व’ पाठकों को अवश्य प्रभावित करेंगी। इस संग्रह की एक कविता मुझे सचमुच बहुत ‘बोल्ड’ और बेहद सामयिक लगी है, जिसने बेबाक ढंग से चुभते सवाल पर आपका ध्यान खींचा है। यह कविता है ‘मीडिया में हिंदी’, जिसमें डॉ. मीरा ने चुभते सवाल उठाए हैं- ‘‘बहुत संवर गई है/बणज-ब्यौपार में!/0  0  0/उधार की लिपि में/अंग्रेजी की बन आई/देवनागरी के हर पाये पर/माल ढोती-लादती है अंग्रेजी’’ (पृष्ठ-58)
     मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि डॉ. मीरा की यह कविता हिंदी को बिगाड़ते आज के ‘मीडियार्मियों’ की आँखें जरूर खोल सकेगी। कवयित्री ने ‘पर्यावरण’ और सामाजिक संबंधों में निरंतर आते जा रहे विघटन को लेकर भी बहुत सहज कविताएँ लिखी हैं, जो अपनी विचार-शक्ति से प्रभावित करती हैं। डॉ. मीरा की एक कविता ‘अंगारों में दहकते हैं शब्द’ तो सचमुच आपको हिला देगी और आप ‘शब्द-ब्रह्म’ की शक्ति को नमन करेंगे। एक प्यारी कविता है ‘चलो सखि! घूम आएं’, जिसमें डॉ. मीरा ने बड़ी शिद्दत से ‘नारी-स्वभाव’ पर प्यारे कटाक्ष भी किए हैं, जो देखते ही बनते हैं। आप भी देखिए इन पंक्तियों में छिपा हुआ कटाक्ष- ‘‘पीढ़ियां बीत गयी हैं उनकी/निंदा-रस पीते-पिलाते/उस जमात में/हम शामिल न हो जाएं/चलो सखि घूम आएं/पार्क का चक्कर लगा आएं!’’ (पृष्ठ-19)
     कवयित्री डॉ. मीरा गौतम का यह कविता संग्रह निस्संदेह एक ताज़गी भरी रचनाओं का ऐसा गुलदस्ता है, जो अपनी सुगंध से आपको मोह लेगा। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण-पृष्ठ ख़ासा नयनाभिराम है। इस संग्रह से अनेक संभावनाओं को जन्म मिल रहा है, इसलिए इसका स्वागत हिंदी जगत में होना जरूरी है।
मुझे गाने दो मल्हार : कविता संग्रह : डॉ. मीरा गौतम। प्रकाशक : यूनिस्टार बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.ओ. 26-27, से.34ए, चण्डीगढ़। मूल्य : रु.175/- मात्र।

  • 74/3, न्यू नेहरू नगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उ.खंड)/मोबाइल : 09412070351

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अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2016





डॉ. अनीता देवी
ज्वलन्त समस्याओं को चित्रित करती व्यंग्य रचनाएँ


हिन्दी साहित्य की विधाओं में व्यंग्य विधा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हैं। इसके द्वारा जीवन के विविध आयामों का प्रस्तुतिकरण अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। व्यंग्यात्मकता के माध्यम से मानव जीवन में विघटित विसंगतियों व बिडम्बनाओं की सफल अभिव्यक्ति मन को स्पर्श कर जाती है। ‘ख्यालीराम कुंआरा रह गया’ मधुकांत की व्यंग्यात्मक रचनाओं का पहला संग्रह है। लेखक ने समाज में बिगड़ते लिंग अनुपात, नेताओं के काले चेहरों पर आदर्श के मुखौटे, कन्या भ्रूण हत्या, शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, नेतागीरी में वंश परम्परा, रेल व्यवसाय में घाटा, लीडरशिप, मिड-डे-मील घोटाला, स्कूल व्यवस्था में भ्रष्टाचार व आधुनिक शिक्षा पद्धति के दोषपूर्ण होने के कारण होनहार विद्यार्थियों के भी डगमगाते आत्मविश्वास का अत्यन्त मार्मिक, हृदयग्राही एवं सफल चित्रण किया है।
    इस संग्रह की प्रथम रचना ‘नेता ख्यालीराम भीड़ में’ एक नेता के उस चरित्र का वर्णन करती है, जो आदर्श जीवन जीना तो नहीं चाहता लेकिन आदर्शमयी दिखना अवश्य चाहता है। यह रचना आदर्श का मुखौटा पहनने वाले नेताओं पर करारा व्यंग्य है।
     आज देश में मिलावट का कारोबार तेजी से फल-फूल रहा है। दूसरा व्यंग्य ‘असली नकली ख्यालीराम’ इसी मिलावटी कारोबार पर करारा व्यंग्य है। ख्यालीराम जैसे व्यक्ति मिलावट की चर्चा तो करते हैं परन्तु कुछ ठोस कार्य नहीं करते।
     संग्रह की तीसरी रचना समाज में बिगड़ते लिंग अनुपात अर्थात लड़कियों की घटती संख्या के फलस्वरूप कुँआरे लड़कों की मानसिक वेदना का चित्रण है। कन्या भ्रूण की हत्याओं से घटती लड़कियों की जनसंख्या के फलस्वरूप गली-मौहल्ले में कुँआरे घूमते लड़कों और माँ-बाप की यही वेदना एक दिन कन्याओं की आवश्यकता का महत्व जता देगी।
    ‘मार्किंग मास्टर ख्यालीराम’ में मूल्यांकन पद्धति का चित्र प्रस्तुत किया गया है। रचनाकार का मानना है कि शिक्षा बोर्ड व विश्वविद्यालय छात्रों की उत्तर-पुस्तिकाओं का पुनः मूल्यांकन करा ले तो बड़े भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं। देश के होने वाले कर्णधारों के साथ ऐसा भद्दा मजाक किया जाएगा तो कैसे उनकी आस्था शिक्षा के साथ जुड़ पाएगी!
     सरकार जनता से टैक्स के रूप में या अन्य साधनों से जो धन जुटाती है, उसकी किस प्रकार बंदर-बांट करके मौज मस्ती की जाती है। इस विषय पर ‘तम्बाकू मंत्री ख्यालीराम’ में दर्शाया गया है।
     देश में रीढ़ की हड्डी समझी जाने वाली रेलवे सदैव घाटे का व्यवसाय कर रही है, क्योंकि इसमें अनेक स्थानों पर भ्रष्टाचार के छिद्र हैं। हाल ही की घटना है 10 करोड़ का रेलवे प्रमोशन घोटाला। जिसमें नियमों को ताक पर रखकर भाई-भतीजावाद की परम्परा को अपनाकर प्रमोशन सीनियॉरिटी के आधार पर नहीं होता। यात्री बेटिकट क्यों चलता है? रेल मन्त्रालय ने न तो इसकी विवशता को समझा और न ही इसको रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाया। 
    नेता बनाने की ‘लीडरशिप एकेडमी’ खुलते ही जो भीड़ इकट्ठी हुई, उससे पता लगता है कि देश में नेतागीरी करने का कितना बड़ा मोह लोगों ने पाल रखा है। अयोग्य से अयोग्य और चरित्रहीन व्यक्ति भी नेता बनने का सपना देखने लगा है। आजादी के 64 वर्ष बीत जाने के बाद भी आज योग्य और प्रशासनिक अधिकारी नेताजी की गुलामी करने के लिए विवश है। ‘विद्याव्रत की अन्त्येष्टि’ पूर्णतया व्यंग्य रचना नहीं है, बल्कि एक रचनाकार की आत्मपीड़ा है।
     कमोवेश प्रदेश के सभी सरकारी स्कूलों में किसी न किसी मास्टर का भूत घूमता रहता है, जो कहीं कुछ भी ठीक नहीं होने देगा। कभी मिड-डे-मील में घोटाला तो कभी सामान खरीद में, कभी फंड्स में तो कभी अबोध बालिका पर बुरी नजर... न जाने क्या-क्या।
    यदि सरकार केवल काम के दिनों का वेतन देने लगे तो कर्मचारियों को छुट्टी का दिन सबसे खराब लगेगा। व्यंग्य ‘छुट्टी मास्टर ख्यालीराम’ में छुट्टी के प्रति कर्मचारियों के दृष्टिकोंण को चित्रित करने के साथ उस मजदूर की बात भी कही है जो अचानक छुट्टी हो जाने पर अपने घर खाली हाथ लौटता है।
    ‘स्कूल की मुँडेर पर उल्लू’ स्कूल व्यवस्था के भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य है। एक ओर अध्यापक को राष्ट्र निर्माता का सम्माननीय पद दिया गया है। जब समाज में अध्यापक ही भ्रष्टाचारी व लालची हो जाएगा तो देश का निर्माण कौन करेगा!
    ‘भूकम्प’ में एक कर्मठ अध्यापक छुट्टी लिए बिना, कोई शुल्क लिए बिना, पढ़ाने के लिए छात्रों को बुलाए। प्राकृतिक आपदा घटने पर उस अध्यापक पर यह अभियोग चलाया जाए कि उसने छुट्टी वाले दिन छात्रों को पढ़ाने के लिए क्यों बुलाया और इसी अपराध में उसे पदच्युत कर दिया जाए तो कौन अध्यापक छात्रों के लिए परिश्रम करेगा। गुरु पर जब इतने बंधन लग जाएंगे तो क्या अध्यापक अपने गुरुत्व की रक्षा कर पाएगा?
     रचनाकार का व्यंग्य विधा में प्रथम प्रयास सफल व उच्चकोटि का है। जिसमें भारतीय समाज की ज्वलन्त समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए इन्हें सुलझााने के प्रयास किए हैं।
ख्यालीराम कुंआरा रह गया : व्यंग्य संग्रह : मधुकांत। प्रकाशक : निहाल पब्लिेकेशन्स एण्ड बुक डिस्ट्रीब्यूटर्स, सी-70, गली नं. 3, उत्तरी छज्जूपुर, दिल्ली। मूल्य : रु.200/- मात्र। पृष्ठ : 96। संस्करण : 2013। 
  • हिन्दी विभाग, भक्तफूल सिंह महिला डिग्री कॉलेज, खानपुरकलाँ, सोनीपत (हरि.)/मो. 09992572003

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अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2016





कमलेश सूद




थोड़े में जीवन को कहती क्षणिकाएँ
नरेश कुमार ‘उदास’ मूलतः हिन्दी भाषा के लेखक व कवि हैं। इनकी 14 पुस्तकें आ चुकी हैं और हाल ही में क्षणिका संग्रह ‘माँ आकाश कितना बड़ा है’’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में उदास जी ने जीवन के हर पहलू को उजागर किया है। यदि कहें कि इसमें उन्होंने ‘गागर में सागर भरने’ का काम किया है, तो अतिश्योक्ति न होगी। संग्रह की सभी 252 क्षणिकाओं का सृजन बड़े मनोयोग से किया गया है। उदास जी की सृजनात्मकता अनेक रचनाओं में देखने को मिलती है। ये पंक्तियाँ देखें- ‘‘मिटा सको तो/आपस के फासले/मिटाओ/वर्ना दूरियाँ/बढ़ती चली जाएँगी/दिलों में नफरत/बढ़ती जाएगी‘‘।
     आज की ज्वलंत समस्याओं पर कई सारगर्भित प्रभावशाली रचनाएँ हैं। एक क्षणिका देखें- ‘‘भूख से लड़ती मां/भूख से लड़ता है बाप/भूख से लड़ते हैं बच्चे/भूख से लड़ता है/सारा घर’’। जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाया है कवि ने इस रचना में- ‘‘जीवन नश्वर है/सब जानते भी हैं/लेकिन फिर भी/जीते-जी/इस बात को/स्वीकार नहीं करते’’।
     कवि को समाज में अपना स्थान बनाने के लिए प्रयत्न करती, जूझती, बनती, मिटती औरत की भी चिंता है, जिसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- ‘‘औरत कहीं कहीं/जूझ रही है/लड़ रही है/फिर भी/पीछे धकेली जा रही है’’। समाज में भ्रूण हत्या जैसे कुकृत्य से सामाजिक मूल्यों का खंडित होना कवि को दुखी कर जाता है। लड़के-लड़कियों के अनुपात में अंतर मादा‘भ्रूणों को मिटाने से ही आया है। कवि की चिंता देखें- ‘‘मादा भ्रूणों को/आए दिन/नष्ट किया जा रहा है/लड़कियों को/पैदा होने से पूर्व ही/मिटाया जा रहा है’’। 
     आज भारत के प्रत्येक बड़े शहर में हर पल डरती, सहमती, आगे बढ़ती दामिनी को देखा जा सकता है; जो कदम तो फूँक-फूँक कर रखती है पर मन में अनजाना सा डर उसे हर पल दहला देता है। यह डर सोते हुए भी उसका पीछा नहीं छोड़ता- ‘‘लड़की के सपनों में/बार-बार क्यों चले आ रहे हैं/बलात्कारी चेहरे/लड़की सोये-सोये/चीख उठती है/हर बार’’।
    संग्रह की हर क्षणिका दिल को झकझोरकर यथार्थ के धरातल पर हमें निर्णयात्मक भूमिका निभाने के लिए छोड़ देती है। इसी भूमिका के तहत उदास जी समाज में बढ़ती नफरत और दिलों के फासलों को पाटने के लिए कई जगह आग्रह करते दिखते हैं। सामाजिक कुरीतियों, सामाजिक चेतना व पर्यावरण आदि जैसे विषयों पर भी कवि अपनी चिंता भी बेहद सादगी से रखता है। 
    मन के भीतर की पीड़ा व अपनों से बिछुड़ने का दर्द कवि अच्छे से समझता है। दर्दीले गीतों में फूटती उदास मन की व्यथा को इस क्षणिका में सटीक अभिव्यक्ति मिली हैं- ‘‘उदास दिनों में/अनायास ही/फूट पड़ते हैं/कंठ से/कुछ दर्दीले गीत/और मन बोझिल सा हो जाता है‘‘। 
    क्षणिकाओं की इस माला में दुःख-सुख, राजनीति, ममता, वात्सल्य, अनुशासन आदि कितने ही मोती हैं, जिनकी चमक असाधारण है। थोड़े शब्दों में जीवन को कह जाना, क्षणिका का एक बड़ा गुण है और इस संग्रह का भी। इस संग्रह में आपको जीवन के हर पहलू पर कवि के विचार मिलेंगे। इन्हें पढ़ते हुए आपका मन गहरे तक स्पंदित हुए बिना नहीं रहेगा। संग्रह की शीर्षक रचना में माँ की गोद को आकाश से भी बड़ा बताया गया है, जिसमें बालक का सम्पूर्ण संसार समाया होता है- ‘‘गोदी में/लेटे-लेटे/नन्हे मुन्ने ने/मचलते हुए/माँ से अचानक पूछा था/माँऽऽऽऽ आकाश कितना बड़ा है?/माँ ने उसे/प्यार से थपथपाते/आँचल में ढकते हुए कहा था/मेरी गोद से/छोटाऽऽ हैऽऽ रे’’।
    पुस्तक का मुखपृष्ठ आकर्षक व मुद्रण त्रुटिहीन है। विश्वास है कि यह संग्रह पाठकों की आशाओं पर खरा उतरेगा और साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनायेगा।
माँ आकाश कितना बड़ा है : क्षणिका संग्रह : नरेश कुमार ‘उदास’। प्रकाशक : प्रगतिशील प्रकाशन, एन-3/25, प्रथम तल, मोहन गार्डन, उत्तम नगर, नई दिल्ली-59। मूल्य : रु. 150/- मात्र। पृष्ठ : 104। संस्करण : 2014।

  • वार्ड नं. 3, घुघर रोड, पालमपुर-176061 (हि.प्र.)/मोबा.: 09418835456

रविवार, 28 अगस्त 2016

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  5,   अंक  :  05-12,  जनवरी-अगस्त  2016



प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।





।।सामग्री।।


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सम्पादकीय पृष्ठ {सम्पादकीय पृष्ठ}:  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} : इस अंक में डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण', प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय, शान्ति सुमन, विज्ञान व्रत,  मालिनी गौतम, चेतना, सुरेन्द्र गुप्त ‘सीकर’ , सुमन शेखर , रमेश मिश्र ‘आनंद’  की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में पड़ाव और पड़ताल से श्री भगीरथडॉ. बलराम अग्रवाल एवं  लघुकथा : अगली पीढ़ी में ज्योत्सना कपिल की लघुकथाएँ।

कहानी {कथा कहानी} : नई पोस्ट नहीं।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} : इस अंक में श्री केशव शरण की क्षणिकाएँ। 

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में डॉ. सतीश दुबे, सुश्री विभा रश्मि एवं श्री रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’ के हाइकु। 

जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} : इस अंक में डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ के जनक छन्द।

माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  नई पोस्ट नहीं।

बाल अविराम {बाल अविराम} : नई पोस्ट नहीं।

हमारे सरोकार {सरोकार} :  नई पोस्ट नहीं।

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  इस अंक में डॉ.सुरेन्द्र वर्मा का व्यंग्यालेख- 'जुगाड़ से जुडि़ये' एवं ओमप्रकाश मंजुल का व्यंग्यालेख- 'काश! मैंने भी सम्मान हथिया ही लिया होता' 

संभावना {संभावना} :  नई पोस्ट नहीं।

स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} :  नई पोस्ट नहीं।

क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : नई पोस्ट नहीं।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} : इस अंक में डॉ. पुरुषोत्तम दुबे का आलेख- ‘‘हिन्दी लघुकथा : स्थापना के सोपान’’ तथा डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’ का आलेख- ‘‘सांस्कृतिक बदलाववाद और लघुकथा की स्थिति का नारको टेस्ट’’

किताबें {किताबें} :  इस अंक में ‘‘गौशाला : वैष्णवधर्मी जीवन पद्धति’’/कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’ के गीत-काव्य की श्यामसुंदर निगम द्वारा तथा "श्वेत श्यामपट : लम्बी काव्य यात्रा का सुफल"/श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी के काव्य-संग्रह, "डॉ. मिथिलेश दीक्षित का क्षणिका-साहित्य : एक  परिचयात्मक नोट"/ डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर' द्वारा सम्पादित विमर्श, "टूटे हुए तार : क्षणिका में अहसासों की अनुभूतियाँ"/डॉ. बेचैन कण्डियाल के क्षणिका- संग्रह , "केनवास पर शब्द  :  रेखाओं के मध्य कविताएँ"/संदीप राशिनकर के ग़ज़ल-संग्रह, "मैं जहाँ हूँ : मानवीय अहसासों की ग़ज़लें"/विज्ञान व्रतके ग़ज़ल-संग्रह, "अँगूठा दिखाते समीकरण : सहजता-सरलता के साथ व्यंय में उभरती क्षणिका"/चक्रधर शुक्ल के क्षणिका- संग्रह, "दूरी मिट गयी :  कुछ लघु कविताओं के साथ उत्कृष्ट क्षणिकाएँ"/केशव शरण के क्षणिका संग्रह की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा परिचयात्मक समीक्षाएँ। 
लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : नई पोस्ट नहीं।

हमारे युवा {हमारे युवा} :  नई पोस्ट नहीं।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम की समीक्षा {अविराम की समीक्षा} :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम के अंक {अविराम के अंक} : इस अंक में अविराम साहित्यकी के अक्टूगर-दिसम्बर 2015, जनवरी-मार्च 2016, अप्रेल-जून 2016 एवं जुलाई-सितम्बर 2016 मुद्रित अंक में प्रकाशित सामग्री की सूची।

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य {हमारे आजीवन पाठक सदस्य} :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के 31 जुलाई 2016  तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} :  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित

               अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  5,   अंक  :  05-12,  जनवरी-अगस्त  2016



।।कविता अनवरत।।


सामग्री :  इस अंक में डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण', प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय, शान्ति सुमन, विज्ञान व्रत,  मालिनी गौतम, चेतना, सुरेन्द्र गुप्त ‘सीकर’ , सुमन शेखर , रमेश मिश्र ‘आनंद’  की काव्य रचनाएँ।


डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण'



लाइलाज बीमारी

सभी जानते हैं खुद को, बस छिपने की लाचारी है।
धोखा देने की आदत तो, एक लाइलाज बीमारी है।।


रेखाचित्र : उमेश महादोषी 
जिनकी करतूत उजागर, छिपते हैं खूब मुखौटों में,
धन्ना सेठ बने फिरते वे, सिर पे जिनके उधारी है।।

रहबर बन के साथ चले, कसमें खाईं मुहब्बत की,
चुपके-चुपके खूब चलाई, जो आस्तीन में आरी है।।

हमने तो समझाया भी, पर बात हमारी नहीं सुनी,
अब रोते हैं वो जार-जार, वक्त जो खुद पे भारी है।।


वक्त किसी का सगा नहीं, सबसे वसूल कर लेता है,
'अरुण' वक्तसे बचके रहना, आनी सब की बारी है।।

  • 74/3,न्यू नेहरू नगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखण्ड)/मोबाइल : 09412070351 


प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय 




अस्तित्व

किसी का जीवित होना ही
नहीं होता अस्तित्व का चिन्ह
न होता है उसका नज़रिया
मनुष्य का खाना, पीना, सोना
दिन-रात काम की चक्की में पिसना
यह भी उसके अस्तित्व को 
नकारता ही जाता है
अपने से अलग खड़े होकर
एकदम तटस्थ मुद्रा अपनाकर
पढ़ना जीवन को नज़दीक से
क्या किसी की रुलाई से
नम हो पाती हैं उसकी आँखें
उसकी खुशी क्या फेंक पाती है
कोई खूबसूरत कोंपल
भीतर से उठ पाता है आनंद का
ज्वार पर ज्वार
ऐसा हो पाए तो वह मनुष्य है
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया 
अन्यथा उसमें और पशु में 
भला कैसा अन्तर है?

कविता का मौसम
भूखी, प्यासी, मरणासन्न माँ
झल रही है-
बुखार से पीड़ित पुत्र को
ताड़ का पंखा
न उसकी आँख कभी झपकती है
न अँगड़ाई लेकर उठने का ही
मन करता है
पुत्र असक्त, विवश 
माँ को टुकुर-टुकुर ताकता है
मन ही मन कुछ निश्चय करता है
फिर पता नहीं विजातीय विवाह ने 
कैसे-कैसे उसे तोड़ा है
उसका माता से मुख मोड़ा है
अब माँ एकदम नहीं सुहाती है
कभी एकांत के किसी कोने में
बरबस माँ की याद सताती है
तो उसे लगता है- वह जीवित है
कविता का यह सही मौसम है
और वह बरस-बरस पड़ता है।

  • वृंदावन मनोरम नगर, धनवाद-826001(झारखण्ड)/मोबाइल : 09334088307


शान्ति सुमन




रेती की दीवारें

दूर-दूर से अलग-अलग हम बसे
बहुत दिन हुए हँसे

नींदों में भी दीखा करतीं
गीली रेती की दीवारें
पूरब वाले घर की छूटी
टूट-टूट गिरती शहतीरें
मन से मन की साँसें कुछ-कुछ कसे
बहुत दिन हुए हँसे

थोड़ी आमदनी की बातें
छायाचित्र : उमेश महादोषी
सहज घरों से बाहर होतीं
कहीं दुपहरी थक जाती है
खुशियाँ पाँखें आँख भिगोतीं
पँखुरी पर लिखे दिन होते अब से
बहुत दिन हुए हँसे

सीढ़ियाँ उतरते बादल के
संग-संग चलते पैदल ही
हरी चूड़ियाँ लाल रिबन में
सज जाते सब लय-सुर यों ही
आँखों बसे ये गीत कहें सबसे
बहुत दिन हुए हँसे

  • 2, कैजर बंगला, कपाली रोड, कदमा (कदमा-सोनारी लिंक), जमशेदपुर-831005, झारखंड/मोबाइल : 09430917356


विज्ञान व्रत 




दो ग़ज़लें

01.
कब से मन में रक्खे हो
जाने दो जाने भी दो

मैं पहचान गया तुमको
तुम भी औरों जैसे हो

कैसे समझाऊँ तुमको
तुम मुझको समझाओ तो

ऐसे देख रहा है वो
जैसे कोई अपना हो

नामुमकिन है जीत सको
रेखाचित्र : विज्ञान व्रत 
कैसे हारूँ बतला दो

02.
खर्च कब के हो चुके हो
और फिर भी बच गये हो

खुद कभी के मर चुके हो
सिर्फ़ मुझ में जी रहे हो

ज़िन्दगी भर चुप रहे हो
अब नहीं हो, बोलते हो

ये रही मंज़िल तुम्हारी
रास्ते में क्यूँ रुके हो

आप मेरे क्या बनोगे
क्या कभी खुद के हुए हो

  • एन-138, सेक्टर-25, नोएडा-201301(उ.प्र.)/मोबाइल : 09810224571


मालिनी गौतम






दो ग़ज़लें

01.
इस तरह क्यों हुई तू विकल ज़िन्दगी 
कुछ सँभल, कुछ बहल, आगे चल ज़िन्दगी

हैं उमीदें कई शेष अरमान हैं 
थाम ले तू हमें, यूँ न छल ज़िन्दगी 

छन्द बहरों में नाहक तलाशा किये 
चाक सीने से निकली ग़ज़ल ज़िन्दगी 

नित नयी मुश्किलों से जो घबरा गये 
कर दे उनके इरादे अटल ज़िन्दगी 

वो हैं नादां, हुई उनसे बेशक ख़ता 
दे न उनको सजा, कुछ पिघल ज़िन्दगी 

देखकर क्रूर मंज़र जो पथरा गये 
उनकी आँखों को कर दे सजल ज़िन्दगी 
रेखाचित्र :
रमेश गौतम
 

नव्य आशा, मिली है नयी चेतना 
त्याग दे पथ पुराना, बदल ज़िन्दगी 

02.
तार जीवन के जब भी उलझ जायेंगे             
आपसी प्यार से उनको सुलझायेंगे 

ढूँढते हो कहाँ हमको पृष्ठों में तुम
हाशिये में तुम्हें हम नज़र आयेंगे

तप के सोना हुए जो कड़ी धूप में 
वे सदा कामयाबी के फल पायेंगे 

प्यार भी दीजिये खाद पानी के संग 
फूल बंजर धरा पे भी इठलायेंगे 

अपनी नकली हँसी और ठहाकों से वो  
महफ़िलों को भला कैसे गरमायेंगे 
  • मंगल ज्योत सोसाइटी, संतरामपुर-389260 जिला-पंचमहल, गुजरात/मो. 09427078711


चेतना वर्मा




नदी का जल

अब नदी के पानी में
नहीं दिखाई देता
चिड़िया का चेहरा
देखा करती थी झाँक-झाँक कर
उसमें
अपनी आँखों के रंग और पंखों की छाँह
चिड़िया जानती है कि खड़ी है वह
दो लड़ाइयों के बीच
एक तो बदल देना चाहती है
रेखाचित्र :
शशिभूषण बडोनी 
नदी का जल
और दूसरी जो बचाकर रखना चाहती है
उसको
चिड़िया यह भी जानती है
कि बची रहेगी नदी
और बचा रहेगा उसका साफ जल
तो देखा करेंगी अपने को
आने वाली पीढ़ियाँ
और तेज करती रहेंगी
अपनी लड़ाइयाँ।
  • 2, कैजर बंगला, कपाली रोड, कदमा (कदमा-सोनारी लिंक), जमशेदपुर-831005, झारखंड/मोबाइल : 08292675554


सुरेन्द्र गुप्त ‘सीकर’ 





गीत

कवि कुछ ऐसा तो लिख जाओ, जो प्रबोध को प्रसार दे दे।
जो समष्टि को सँवार दे अरु, जो प्रसून को निखार दे दे।

नीति, शान्ति और स्नेह के पावन
पाथर रख दे जो घाटों पर।
पिस न सके जो कवि कबीर-सा
चलती चाकी के पाटों पर।
ऐसा ठोस कि जो विकास-हित, जन-जन को नव विचार दे दे।
कवि कुछ ऐसा तो लिख जाओ....

हो विमुक्त जो भेद-भाव से
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी 
निज-पर की सीमा से परे हो।
अभिनव जल-प्रपात सा निर्मल,
धर्म-धुरी की धार धरे हो।
जो विशिष्ट हो, जो पवित्र हो, जो उदात्त को उभार दे दे।
कवि कुछ ऐसा तो लिख जाओ....

जो भी लिखें हम सोच-समझ कर,
आत्मा से हो वह साक्षात्कृत।
मंगल संदेशा धारित हो,
प्रतिपालक अरु प्राणाधारित।
दुःख-विनाशक, अनिष्ट-नाशक, तप्त ह्नदय को तुषार दे दे।
कवि कुछ ऐसा तो लिख जाओ....

स्वर-व्यंजन-युत शब्द-समूहों
का सविनय सुन्दर सम्मेलन।
भावों का संवेदनाओं का-
हो संयम संग, शुभ आमेलन।
जो विशिष्ट को भी समष्टि से, सिन्धु-सन्धि-हित कगार दे दे।
कवि कुछ ऐसा तो लिख जाओ....
  • 43, नौबस्ता, हमीरपुर रोड, कानपुर-208021, उ.प्र./मोबा. 09451287368  


सुमन शेखर 



{हिमाचल की उभरती  हुई कवियत्री सुश्री सुमन शेखर का कविता संग्रह ‘कल्पतरु बना जाना तुम’ वर्ष 2012 में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह में उनकी प्रतिनिधि 61 कविताएँ रूाामिल हैं। इस संग्रह से सुश्री शेखर जी की तीन कविताएँ प्रस्तुत हैं।}

कुंवारी लड़कियाँ

कुंवारी लड़कियाँ
जब मिलती हैं तो
पूछती हैं एक दूसरे से कि
उसका रिश्ता तय हुआ या नहीं
या
उसकी जन्म कुंडली
जो भेजी गयी थी
उसका मिलान हुआ या नहीं
या कि लड़का उसे देखने 
कब आ रहा है?
कुंवारी लड़कियों की माताएं
सिखाती हैं
उन्हें खाना पकाना
और बात-बात पर
धमकाती हैं कि
फुल्का जल गया तो
सास हाथ जला देगी
कुंवारी लड़कियों के पिता
खुद तो नहीं
पर माँ से कहते हैं कि
बेटी को कह दे
वह ठीक से उठे-बैठे
और ठीक कपड़े पहने
उसे दूसरे घर जाना है
कुंवारी लड़की का भाई
उसे टोकता है
कि वो शीशे के सामने
ज्यादा देर क्यों खड़ी रही
या कल जिससे
उसने किताब माँगी थी
उस लड़के से वह
ज्यादा बात न करे
कुंवारी लड़की की बड़ी 
शादी-शुदा बहन कहती है
शादी में कुछ नहीं रखा है
पर फिर भी 
तेरे लिए एक लड़का देखा है
कुंवारी लड़की 
क्या सोचती है
अपने बारे में
यह लड़की खुद भी 
नहीं जानती

माँ के बिना

घर जाना
हमेशा अच्छा लगा
जब 
माँ
घर पर होती थी
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी 
बिना माँ के 
घर घर नहीं लगता
लगता 
अजनबी मकान में प्रविष्ट 
हुई हूँ
माँ की मधुर मुस्कान से
घर के 
असंख्य दीप 
जल उठते थे
हमेशा अच्छा लगता था
उन जलते दीपकों की लौ
से आलोकित होना
अब माँ नहीं है
घर का कोना-कोना
उदास लगता है
बुझे अंगारे सा
दिखता है

सड़क

उस पराये शहर के घर में
जो गुम हुई औरत
तो अब
ढूंढ़ने से भी नहीं मिलती है

पता चला 
वह सड़क बन गयी है
सभी उस पर से
गुजर रहे हैं
अपनी मंजिल पाने को

वह केवल सड़क ही
बनी रह गयी है
उसकी कोई मंजिल नहीं है
  • नजदीक पेट्रोल पम्प, ठाकुरद्वारा, पालमपुर-176102, जिला कांगड़ा (हि.प्र.)/मोबाइल: 09418239187


रमेश मिश्र ‘आनंद’






गीत

श्रम की स्याही से हम किस्मत का इतिहास लिख रहे।
एक-एक मिल बन अनेक हम, एक नया इतिहास लिख रहे।

भूखे प्यासे श्रमिक पुरानी दीवारों सा ढह जाते हैं
उड़ने वाले ‘पर’ आशा के आँसू बनकर बह जाते हैं
बीत रही है जो हम पर अपने मन का संत्रास लिख रहे।
श्रम की स्याही से हम अपनी किस्मत का इतिहास लिख रहे।

कितने वादे हुए और वादे कूड़े का ढेर हो गये
कितने हुए घोटाले कितने पाप और अंधेर हो गये
दिन बीते हैं जो अब तक हम उनका नया समास लिख रहे।
रेखाचित्र :
कमलेश चौरसिया 
श्रम की स्याही से हम अपनी किस्मत का इतिहास लिख रहे।

सावन आया और गया पर धरती है प्यासी की प्यासी
मुरझाये-मुरझाये चेहरे हर चेहरे पर लिखी उदासी
बरसे मेघ खिलें कलियाँ हम ऐसा नया विकास लिख रहे।
श्रम की स्याही से हम अपनी किस्मत का इतिहास लिख रहे।

भूखे को रोटी मिल जाये, प्यासे जल से प्यास बुझायें
सपने हों साकार हमारे, हम आनंद के दीप जलायें
हो जाये तम दूर धरा से ऐसा एक प्रयास लिख रहे।
श्रम की स्याही से हम अपनी किस्मत का इतिहास लिख रहे।
  • प्लॉट नं.1420, हनुमन्त विहार, नौबस्ता, कानपुर-208021(उ.प्र.)/ मोबा. 09415404461