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गुरुवार, 22 नवंबर 2012

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2,  अंक : 2,  अक्टूबर  2012  

।।कथा प्रवाह।।  


सामग्री :  इस अंक में श्री  सुभाष नीरव, श्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु,  डॉ. मुक्ता,  डॉ. शरद नारायण खरे,  श्री मनोहर शर्मा ‘माया’ एवं  श्री रोहित यादव की लघुकथाएं।




सुभाष नीरव





{वरिष्ठ कवि-कथाकार, अनुवादक और ब्लॉगर के रूप में प्रतिष्ठित श्री सुभाष नीरव जी लघुकथा के क्षेत्र में प्रभावी दख़ल रखते हैं। हाल ही में उनकी उत्कृष्ट लघुकथाओं का संग्रह ‘सफ़र में आदमी’ प्रकाशित हुआ है। हम अपने पाठकों के लिए उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी दो प्रतिनिधि लघुकथाएँ।}



वॉकर

     ‘‘सुनो जी, अपनी मुन्नी अब खड़ी होकर चलने की कोशिश करने लगी है।’’ पत्नी ने सोते समय पास सोयी हुई मुन्नी को प्यार करते हुए मुझे बताया।
     ‘‘पर, अभी तो यह केवल आठ ही महीने की हुई है!’’ मैंने आश्चर्य व्यक्त किया।
     ‘‘तो क्या हुआ? मालूम है, आज दिन में इसने तीन-चार बार खड़े होकर चलने की कोशिश की।’’ पत्नी बहुत ही उत्साहित होकर बता रही थी, ‘‘लेकिन, पाँव आगे बढ़ाते ही धम्म से गिर पड़ती है।’’
     मुन्नी हमारी पहली सन्तान है। इसलिए हम उसे कुछ अधिक ही प्यार करते हैं। पत्नी उसकी हर गतिविधि को बड़े ही उत्साह से लेती है। मुन्नी का खड़ा होकर चलना, हम दोनों के लिए खुशी की बात थी। पत्नी की बात सुनकर मैं भी सोयी हुई मुन्नी को प्यार करने लगा।
छाया चित्र : अभिशक्ति 
     एकाएक पत्नी ने पूछा, ‘‘सुनो, वॉकर कितने तक में आ जाता होगा?’’
     ‘‘यही कोई सौ-डेढ़ सौ में....।’’ मैंने अनुमानतः बताया।
     ‘‘कल मुन्नी को वॉकर लाकर दीजियेगा।’’ पत्नी ने कहा, ‘‘वॉकर से हमारी मुन्नी जल्दी चलना सीख जायेगी।’’
     मैं सोच में पड़ गया। महीना खत्म होने में अभी दस-बारह दिन शेष थे और जेब में कुल डेढ़-दौ सौ रुपये ही बचे थे। मेरे चेहरे पर आयी चिन्ता की शिकन देखकर पत्नी बोली, ‘‘घबराओ नहीं, सौ रुपये मेरे पास हैं, ले लेना। वक्त-वेवक्त के लिए जोड़कर रखे थे। कल ज़रूर वॉकर लेकर आइयेगा।’’
     सुबह तैयार होकर दफ्तर के लिए निकलने लगा तो पत्नी ने सौ का नोट थमाते हुए कहा, ‘‘घी बिल्कुल खत्म हो गया है और चीनी, चाय-पत्ती भी न के बराबर हैं। शाम को लेते आना। परसों दीदी और जीजा जी भी तो आ रहे हैं न!’’
     मैंने एक बार हाथ में पकड़े हुए सौ के नोट को देखा और फिर पास ही खेलती हुई मुन्नी की ओर। मैंने कहा, ‘‘मगर, वह मुन्नी का वॉकर..।’’
     ‘‘अभी रहने दो। पहले घर चलाना ज़रूरी है।’’
     मैंने देखा, मुन्नी मेरी ओर आने के लिए उठकर खड़ी हुई ही थी कि तभी धम्म से नीचे बैठकर रोने लगी।

मुस्कराहट

    वह, यानी सदानन्द बाबू तकलीफ़ में होते तो उनकी कोशिश रहती कि उनकी तकलीफ़ किसी को मालूम न हो। वह अन्दर ही अन्दर अपनी तकलीफ़ों से जूझते रहते और उनसे मुक्ति पाने का रास्ता तलाशते रहते। यह उनकी आदत में शुमार हो चुका था या उनके चेहरे की बनावट ही ऐसी थी कि उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते, बोलते-बतियाते, आते-जाते चौबीसों घंटे उनके होठों पर मुस्कराहट खेलती रहती। ऐसा नहीं था कि उनके चेहरे पर कोई आभा, दमक या चमक जैसी कोई बात थी। वह तो एक पिटा हुआ-सा चेहरा था। बचपन से लेकर आज तक तकलीफ़ों की अंधी सुरंगों के बीच से घिसटते हुए बाहर निकलने की कोशिश में संलग्न चेहरा! अपनी गरीबी, भुखमरी के बीच मामूली-सी नौकरी को बचाये रखने की चिंता और मुट्ठीभर आय से पूरे घर की गाड़ी को किसी तरह चलाये रखने की कोशिश में लगातार खटता हुआ चेहरा!
छाया चित्र : पूनम गुप्ता 
    करीबी लोग उन्हें देखकर हैरान-परेशान हुआ करते कि एक पिटे हुए चेहरे पर मुस्कराहट की तितली हर समय कैसे और क्योंकर नाचती रहती है? उनके चेहरे को देखकर लोग क्या सोचते हैं, वह नहीं जानते थे, न ही जानने के लिए कभी फ़िक्रमंद दिखे। लेकिन यह भी सच ही था कि वह स्वयं अपनी इस मुस्कराहट से बेख़बर थे। उन्हें कभी मालूम ही नहीं हुआ कि उनके होठों पर चौबीसों घंटे मुस्कराहट जैसी कोई चीज़ चस्पा रहती है।
    और, एकाएक उनके दिन फिरे। हुआ यूँ कि कुछ कर्ज़ पकड़कर, कुछ दफ्तर से लेकर, खुद को फ़ाक़ामस्ती जैसी हालत में डालकर उन्होंने अपने नालायक इकलौते बेटे को सऊदी अरब भेज दिया। शुरू-शुरू में हालत काफ़ी खस्ता रही। लेकिन, कुछ ही वर्षों बाद वह किराये के मकान से अपने मकान में आ गये। बेटा जब नौकरी छोड़कर आया तो आते ही उसने दो-तीन गाड़ियाँ डालकर छोटी-सी टूरिस्ट कंपनी खोल ली। बेटे के कहने पर उन्होंने अपनी पक्की नौकरी को लात मार दी और टूरिस्ट कंपनी का काम देखने लगे। अब वह मारुति में आते-जाते और दिनभर अपने छोटे-से वातानुकूलित कमरे में बैठे टेलीफोन की घंटियाँ सुनते रहते हैं।
     देखते ही देखते, बुढ़ापे में जवानी वाली कहावत उन पर चरितार्थ होने लगी। कहने का मक़सद यह कि अब उनके चेहरे पर एक नूर था और सेहत भी पुख्ता हो गयी थी। लोग उन्हें देखकर हैरान होते। चमकता, दमकता और आभायुक्त चेहरा अब उनके पास था।
    पर लोगों ने देखा, और बड़े गौर से देखा, हर वक़्त उनके होठों पर खेलने वाली मुस्कराहट अब वहाँ नहीं थी। 

  • 372, टाइप-4, लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली-110023 




रामेश्वर काम्बोज हिमांशु




भग्नमूर्ति

     सरूप जी का मकान पूछते-पूछते मैं परेशान हो चुका था। जब किसी से पता नहीं चला तो मैं ऑटो छोड़कर उस पॉश कॉलोनी में पैदल ही चल पड़ा। चिलचिलाती धूप में मेरा सिर चकराने लगा। कंठ प्यास के मारे सूख गया। ऐसे में कहीं से एक गिलास पानी मिल जाता।
     सरूप जी ने कहा था- कभी इधर आओ तो ज़रूर मिलना। घूमते-भटकते नेम प्लेट पर दृष्टि पड़ी तो जान में जान आई। आँगन में मौलसिरी का छतनार पेड़ और उसके नीचे स्थापित सरस्वती की कमनीय मूर्ति। मन शीतल हो गया।
     लोहे का भारी गेट दो बार खटखटाया। नारी-कंठ की समवेत खिलखिलाहट में खटखटाहट डूबकर रह गई। तीसरी बार गेट खटखटाने पर भीतर से ऊब भरी आवाज़ आई- ‘‘कौन है भाई?’’
     ‘‘सरूप जी घर में हैं?’’ मैं गेट खोलकर आगे बढ़ा- ‘‘मैं हूँ विजय प्रकाश। लखनऊ से आया हूँ।’’
     ‘‘विजय प्रकाश?’’ वे बाहर आकर अचकचाए। सामने के कमरे से कुछ नज़रें मुझे घूर रही थीं।
     ‘‘आपने पहचाना नहीं? पिछले साल अभिनंदन-समारोह में मिले थे हम लोग।’’
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
     ‘‘अरे हाँ, याद आया। आपने अभिनंदन-पत्र पढ़ा था।’’ वे माथे की सिलवटों पर हाथ फेरते हुए बोले- ‘‘बहुत अच्छा पढ़ा था भाई आपने। सुबह ही बम्बई से लौटा हूँ। ‘कला भारती’ में कल मेरा सम्मान किया गया।’’
     वे वहीं खड़े-खड़े आयोजन की गतिविधियाँ सुनाते रहे। मुझे थकान महसूस होने लगी। प्यास और तेज हो गई थी; परन्तु पानी पीने की इच्छा जैसे मर चुकी थी।
     ‘‘कभी लखनऊ आना हो, मेरे यहाँ ज़रूर आइए......’’ मैंने सरूप जी को अपना कार्ड देते हुए आग्रह किया।
     ‘‘ज़रूर-ज़रूर...’’ उन्होंने कार्ड जेब में रखते हुए कहा।
     ‘‘अच्छा चलता हूँ जी।’’ मैंने अभिवादन की मुद्रा में हाथ जोड़े।
     ‘‘अच्छा!’’ कहकर उन्होंने जमुहाई ली।
     मेरे मस्तिष्क में धुआँ-सा उठा। चलते समय मैंने एक दृष्टि सरस्वती की मूर्ति पर डाली। आँखों के आगे धुँधलापन छा गया। मूर्ति का केवल धड़ दिखाई दे रहा था। मैंने आखें मलीं पर बहुत प्रयास करने पर भी मूर्ति का सिर नहीं दिखाई दिया।

  • फ्लैट न-76, (दिल्ली सरकार आवासीय परिसर), रोहिणी सैक्टर-11, नई दिल्ली-110085



डॉ. मुक्ता




वह मां थी!

    मंदी के इस दौर में कम्पनी में काम करने वालों पर सदैव तलवार लटकी रहती है। उन्हें हर दिन आखिरी महसूस होता है। उनके भीतर एक डर समाया रहता है और वे निश्चिंत जीवन नहीं जी सकते। उसने अपनी मम्मी को फोन पर बताया कि वह आजकल बहुत परेशान है। यदि उसकी नौकरी छूट गई तो उसके परिवार का क्या होगा? वह समाज में कैसे जी पाएगा, कैसे वह बच्चों का सामना कर पाएगा? सन्तोष की बातें सुनकर उसकी माँ परेशान हो उठी।
    अगले दिन वह उसके घर पहुँची तथा दो लाख का चेक थमाते हुए बोली, ‘‘अभी तो तुम्हारी नौकरी सलामत है, यदि छूट भी जाएगी तो इस सैशन तुम बच्चों को यहीं रखना और दो महीने पश्चात अपने घर में आ जाना। हमें भी पोता-पोती के साथ रहने का सुख प्राप्त होगा और आभास होगा कि हमारा भी हंसता-खेलता, भरा-पूरा परिवार है। जब तक मैं जिन्दा हूँ, तुम्हें बिल्कुल चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। जरा सोचो, शरीर के विकृत होने से क्या इन्सान चैन से, सुकून से जी सकता है। तुम्हारी खुशी ही हमारी जिन्दगी का मकसद है।’’

  • निदेशक, हरियाणा ग्रन्थ अकादमी, सेक्टर-14, पी-16, पंचकुला-134113 (हरियाणा)




डॉ. शरद नारायण खरे




लगाई-बुझाई

    माधुरी ने ससुराल में कदम रखते ही ससुरालवालों का दिल जीतने की कोशिश की। उसने सास को माँ जैसा आदर, ससुर को पिता का दर्जा व देवर-ननद को भाई-बहन जैसा प्यार दिया। सभी लोग उससे बहुत खुश थे।
    पर एक बार जब माधुरी की सास अपनी एक ऐसी सहेली से अपनी बहू की तारीफ कर रही थी, जो स्वयं भी सास बन चुकी थी, तो वह चिढ़कर कहने लगी- ‘‘अरी बहना, तुम इन आजकल की बहुओं को नहीं जानती हो, ये बहुत चालूपुर्ज़ा होती हैं। ये मन की मैली भी होती हैं। तुम देखना, तुम्हारी बहू अपनी नकली मिठास से सबको अपने वशीभूत कर तुमको घर से निकालकर एक दिन घर की मालकिन बन बैठेगी, तब उस दिन तुम्हारी आँखें खुलेंगी।
    इस झूठी लगाई-बुझाई ने माधुरी की सास के मन में एक निरर्थक शंका को जन्म दे दिया था।

  • विभागाध्यक्ष: इतिहास, शासकीय महिला महाविद्यालय, मंडला-481661(म.प्र.)



मनोहर शर्मा ‘माया’




{कवि-कथाकार श्री मनोहर शर्मा ‘माया’ का वर्ष 2010 में प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘मकड़जाल’ हाल ही में हमें पढ़ने का अवसर मिला। अविराम के पाठकों के लिए उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो लघुकथाएँ।}




चरित्र

    ‘‘क्यों रे देखकर नहीं चलता? जहाँ कोई जवान लड़की दिखी नहीं कि किसी भी बहाने छूने को मचल उठते हो। कुछ नहीं तो  धक्का ही मार दिया। इतने सैण्डिल मारूँगी कि सारी जवानी धरी रह जायेगी।‘’
    अचानक ही जरा सा धक्का लग जाने पर इतनी तल्ख टिप्पणी सुनकर मैं सहम गया। ‘सॉरी’ कहते ही जब लड़की से सामना हुआ तो मैं दंग रह गया। यह मेरे ही मुहल्ले की मोहनी थी। मुझे पहचान कर वह और गुर्राई- ‘‘अच्छा तो आप हैं जनाब! मोहल्ले के हैं, सो छोड़ देती हूँ, वर्ना.....।’’
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
     आस-पास लग चुकी तमाशबीनों की भीड़ में हर व्यक्ति मुझे ही घूर रहा था, मानो मैंने कोई बड़ा पाप कर दिया हो। व्यर्थ ही अपमानित होकर भी मैं कुछ कहने या करने की स्थिति में नहीं था। अतः चुपचाप मुँह लटकाये अपने घर की ओर बढ़ गया।
    अभी ग्लानि दूर भी नहीं हुई थी कि तीसरे दिन के एक सांध्य दैनिक में पढ़ा- ‘‘देह व्यापार में लिप्त युवती रंगे हाथों पकड़ी गई।’’ नीचे विस्तार से समाचार छपा था। साथ ही प्रकाशित फोटो में युवती द्वारा अपना चेहरा छुपाने के प्रयास के बाद भी मोहनी अलग से पहचानी जा सकती थी।

झाड़ू वाला लड़का


    सुरेश बाबू अपने बगल के बर्थ पर बैठे सहयात्री से चर्चा कर रहे थे कि ‘‘रेल यात्रा में छोटे लड़के और अन्य भिखारी सामान पार करने की टोह में रहते हैं। इनसे सतर्क रहना चाहिये।’’ तभी एक दस-बारह साल का लड़का हाथ में झाड़ू लिये आया और डिब्बे का फर्श साफ करने लगा। सुरेश बाबू का स्टेशन आने वाला था, अतः वे अपना सामान पैक कर अपने स्टेशन की राह देखने लगे। झाड़ू लगाकर वह लड़का हर यात्री के सामने हाथ फैलाकर याचक दृष्टि से देखता। कोई कुछ दे देता तो कोई यों ही टरका देता। सुरेश बाबू ने भी उसे झिड़क कर आगे बढ़ने को कह दिया। तभी उनका स्टेशन आ गया और वे अपना सामान समेट कर उतर गये।
     गेट के पास पहुँच कर जब उन्होंने टिकिट निकालने हेतु जेब में हाथ डाला तो स्तब्ध रह गये। जेब में पर्स नहीं था। वे सोच रहे थे कि क्या करें, तभी वही झाड़ू वाला लड़का दौड़ते हुए आया और बोला, ‘‘साहब, यह पर्स आपकी सीट पर पड़ा था, शायद आपका ही होगा, लीजिये।’’ पर्स उनके हाथ में देकर वह लड़का दौड़कर चलती ट्रेन के एक डिब्बे में चढ़ गया। सुरेश बाबू ने पर्स खोलकर देखा तो टिकिट, पैसे और जरूरी कागजात सभी सही सलामत थे।

  • बी-6, अविनाश कॉलोनी, सागर नाका, दमोह-470661 (म.प्र.)



रोहित यादव




गऊ-सेवा



   गऊमाता की दुर्दशा को लेकर गो-सेवा समिति के कार्यकर्ताओं का एक शिष्टमंडल उपायुक्त से मिलने उनके कार्यालय आया और उन्हें बताया कि जबसे कृषि का यंत्रीकरण हुआ है, लगभग तभी से गऊमाता पर उसके अस्तित्व का संकट गहरा उठा है। अधिकांश पशुपालकों ने अब अपनी गायों को खूँटों से खोल दिया है। अब वे आवारा बनी गली-कूँचों में पॉलीथीन खा-खाकर मर रही हैं। गऊमाता की यह दुर्दशा हमसे देखी नहीं जा रही। अतः हमने गऊसेवा करने का निर्णय लिया है। इसके लिए आप हमारी समिति को कुछ अनुदान देने की अनुकंपा करें ताकि हम गौमाता की सेवा बेहतर ढंग से कर सकें।
छाया चित्र : उमेश महादोषी 

    उपायुक्त ने उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनीं और गऊसेवा का कार्य करने के लिए उनकी सराहना की। अचानक उपायुक्त ने उनसे एक प्रश्न पूछा- ‘‘तुम में से कितने गौ-सेवकों ने अपने घर में गायें बाँध रखी हैं।’’ उपायुक्त के अचानक किये गये इस प्रश्न से वे हतप्रभ रह गये और एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे थे। क्योंकि उनमें से किसी ने भी अपने घरों में गाय नहीं पाल रखी थी।

  • सैदपुर, मंडी अटेली-123021 जिला महेन्द्रगढ़ (हरियाणा)

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