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शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 11-12, जुलाई-अगस्त  2014 

          {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति(एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें। स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा। }


।।किताबें।।

सामग्री : इस अंक में  श्याम सुन्दर अग्रवाल के  लघुकथा संग्रह 'बेटी का हिस्सा' की डॉ. सतीश दुबे द्वारा, उषा अग्रवाल ‘पारस’ द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा तथा कपिलेश भोज के कविता संग्रह ‘ताकि वसन्त में खिल सकें फूल’ की श्रीनिवास श्रीकान्त द्वारा लिखित समीक्षाएं। 



डॉ. सतीश दुबे



तपस्वी सृजनधर्मी के बहुआयामी पक्षों को रेखांकित करता दस्तावेजी लघुकथा-संग्रह 



श्यामसुन्दर अग्रवाल पंजाबी-हिन्दी लघुकथा जगत के चर्चित तथा प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं। विगत तीस-चालीस वर्षों से अहर्निश अपने निरपेक्ष अवदानों के जरिये लघुकथा को इस नाम ने जो विशेष पहचान दी है, उसके सम्पूर्ण सिलसिलेवार ब्यौरे को शब्दों में बांधना गहरे और विस्तृत दरिया पर बांध बांधने जैसी दुष्कर या असम्भावित कल्पना है। कोई भी रचनाकार महज इसलिये महत्वपूर्ण नहीं होता है कि अपने सृजन के जरिये उसने ऊँचाइयाँ हासिल की हैं प्रत्युत इसलिए होता है कि उसने समकालीन या संभावनामय सृजकों को अपना हमसफ़र बनाकर ऊँचाइयाँ छूने में विशेष सुकून महसूस किया है। बरसों-बरस से दूर-दूर से मेरी निगाह श्यामसुन्दर अग्रवाल के चेहरे पर अंकित इसी इबारत को पढ़ती आई हैं।
     श्यामसुन्दर अग्रवाल इसलिए तो पहचाने ही जाते हैं कि उन्होंने हिन्दी-पंजाबी में श्रेष्ठ लघुकथाएँ सृजित की हैं किन्तु इसके अतिरिक्त उन्होंने लघुकथा-विकास में जो विशेष और अनूठी भूमिकाएँ अदा की हैं या कर रहे हैं वह उन्हें और केवल उन्हें अन्य रचनाकारों की अपेक्षा अलग पंक्ति में खड़ा होने का हकदार बनाती है।
     करीब तीस वर्षों से पंजाबी भाषा में प्रकाशित ‘मिन्नी’ पत्रिका के बतौर सम्पादक/प्रकाशक इन्होंने द्विभाषी सेतु का आकार ग्रहण कर हिन्दी-पंजाबी लघुकथा लेखकों को एक-दूसरे तक रचनात्मक-पाँवों के जरिये पहुँचाने का कार्य कर अद्भुत मिसाल कायम की है। पत्रिका-मंच के अतिरिक्त भाषायी अनुवाद केवल पत्र-पत्रिकाओं के लिए ही नहीं, अग्रवाल जी ने पंजाबी-हिन्दी रचनाकारों की चुनिंदा लघुकथाओं के रूप में भी किया है। 
     वर्षों से अग्रवाल जी के मौन अवदान के बारे में मस्तिष्क और हृदय में खलबली मचाने वाले उपर्युक्त विचारों को शब्दबद्ध करने की प्रेरणा-पृष्ठभूमि का श्रेय उनके हालिया प्रकाशित लघुकथा-संग्रह ‘‘बेटी का हिस्सा’’ को देना चाहूँगा। वैसे पंजाबी-भाषा में श्यामसुन्दर अग्रवाल के दो एकल संग्रह ‘‘नंगे लोका दां फिक्र’’ तथा ‘‘मरुथल दे वासी’’ प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु हिन्दी में उनका यह प्रथम संग्रह है।   
     बहुप्रतीक्षित ‘‘बेटी का हिस्सा’’ लघुकथा संग्रह की एक सौ बीस लघुकथाएँ अपनी तासीर और तेवर के आइने में रचनाकाल के विभिन्न कालखण्डों के चेहरे से परिचित कराती हैं। अन्तर्मन को गहरे से साहित्यिक सामाजिक सरोकारों के सन्दर्भ में मथने वाले क्षण-विशेष में कौंधने वाले भाव, घटना या विचार-वैशिष्ट्य से अद्भुत कथा-बीज का इन रचनाओं में पल्लवन हुआ है।
     रचनाओं का अन्तर्वस्तु-संसार विस्तृत है। परिवार-समाज के पात्रों-घटनाओं से देश के विभिन्न परिदृश्यों-स्थितियों के तमाम कैमराई-चित्र इन लघुकथाओं में विद्यमान हैं। संग्रह में गहरे से पैठ लगाने पर जाहिर होता है कि संग्रह-संयोजन विषयों की विविधता के मद्देनज़र किया गया है। संतुलन और कथ्यानुसार रचाव इन लघुकथाओं की विशेषता है। इन समस्त प्रारम्भिक विचारगत प्रतिक्रिया के संदर्भ में जरूरी है कि इस ‘बेटी का हिस्सा’ संग्रह की शताधिक लघुकथाओं में से बतौर बानगी खंगाली गई चंद रचनाओं के रचनाकौशल से दो-चार होने का प्रयास किया जाय।
     जीवन में प्रतिदिन घटित होने वाले कुछ प्रसंग या अनुभवों को श्यामसुन्दर अग्रवाल ने इस प्रकार कथा-आकार दिया है कि उसमें निहित अर्थ गाम्भीर्य रोचकता, लाक्षणिकता के साथ संदेश देते संत जैसा महसूस होता है। ‘उत्सव’, ‘कोठी नम्बर छप्पन’, ‘चिड़ियाघर’ रचनाएँ मीडिया तथा नई पीढ़ी की भाषा के प्रति उपेक्षा या रुझान को चुटीली भाषा में प्रस्तुत करती हैं। बोरवेल में गिरा बच्चा खबरची के लिए उत्सव तथा ग्राम्य-जीवन में शिक्षा की स्थिति जैसी गम्भीर खबरों के प्रति मीडिया की दृष्टि को जहाँ एक ओर इन लघुकथाओं में बुना गया है, वहीं दूसरी ओर कोठी को छप्पन की बजाय फिफ्टी सिक्स नहीं कहने पर बालक के संस्कारों को प्रकारान्तर से सामने लाने की कोशिश की गई है। ‘गिद्ध’, ‘छुट्टी’, ‘टूटा हुआ काँच’ जैसी अनेक लघुकथाएँ ऐसी ही पृष्ठभूमि पर रची गई हैं। ‘तीस वर्ष बाद’ प्यार की बहुत ही प्यारी रचना है, जिसकी दीपी, नरेश को ही नहीं पाठक को भी झकझोरकर खड़ा कर देती है। इस लघुकथा को पढ़ने एवं विचार करते हुए सायास मेरी आँखों के सामने ‘उसने कहा था’ कहानी के लहना और सूबेदारिन की चित्र-कथा उभर आई। ‘भिाखरिन’ और ‘वही आदमी’ को भी इसी श्रेणी में शुमार किया जा सकता है।
    ‘शहीद की वापसी’, ‘दानी’, ‘मुर्द’, ‘वर्दी’, ‘चमत्कार’, ‘सरकारी मेहमान’ तथा चर्चित लघुकथा ‘मरूथल के वासी’ लोकशाही बनाम राजशाही, न्याय-व्यवस्था, प्रशासनिक स्थितियाँ, धार्मिक-आडम्बर, अराजकता, राष्ट्रप्रेम का खामियाजा जैसी शाश्वत प्रतिध्वनियों के विभिन्न स्वरूप इन और अन्य लघुकथाओं में मिलते हैं। राम का रूप धरे बहुरुपिये राजनेता की विसंगत मानसिकता या स्वार्थ के विरुद्ध उनके असली चेहरे को पहचान कर अब सबक सिखाना जरूरी हो गया है। ‘रावण’ के बंदीमुक्त कैदी द्वारा मंत्री जी का कत्ल शायद इसीलिए किया जाता है। ‘रावण जिन्दा है’ लघुकथा भी इसी लीक पर रची गई रचनाओं की मिसाल है।
     लोक-जीवन तथा देशज-संस्कृति पर कमोबेश संग्रह में जितनी भी लघुकथाओं से श्यामसुन्दर अग्रवाल ने रू-ब-रू कराया है, उनसे गुजरते हुए सायास मेरी पढ़ी हुई विजयदान देथा, मधुकर सिंह, मिथिलेश्वर, माधव नागदा, भालचन्द्र जोशी की कहानियाँ तथा भगीरथ, रत्नकुमार सांभरिया, सिद्धेश्वर, रामकुमार आत्रेय, मधुकांत, कृष्णचन्द्र महादेविया की लघुकथाएं यादों में उभरती गईं।
     रिश्ते फिर चाहे वे पारिवारिक, पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों या मानवीय पक्ष से सम्बन्धित हों, रचते हुए, अहसास होता है मानो अग्रवाल जी ने उनमें अपने आपको तिरोहित कर दिया है। संवेदना से भरपूर आत्मीय-प्यार से लबरेज इन लघुकथाओं के जीवन पात्र रिश्तों की अहमियत से परिचित कराते हैं। पति-पत्नी, सास-बहू, पुत्र-पुत्री, पिता-माँ-बहन जैसे रिश्ताई नामों की सार्थकता के साथ लघुकथाएँ उनके अर्थ को प्रकारान्तर से परिभाषित भी करती हैं। दृष्टव्य है ऐसी ही रचनाओं के तेज-धु्रधले कुछ अक्स।
     भौतिकवादी तथा आत्मकेन्द्रित बदलते जीवन-मूल्यों के माहौल में आज जब पुरानी पीढ़ी को वस्तु समझकर परिवार से निष्कासित या उपेक्षित किया जा रहा है, तब ये लघुकथाएँ उस मानसिकता को खारिज कर, परिवार में उनके महत्व और जीवन में भावनात्मक लगाव का आगाज करती हैं।
    ‘माँ का कमरा’, ‘यादगार’ लघुकथाएँ इस सन्दर्भ में बेहतर प्रमाण के रूप में देखी जा सकती हैं। दोनों ही रचनाओं के बेटे आधुनिक जीवन शैली या जिसे कार्पोरेट-कल्चर कहा जाना चाहिए, से जुड़े हुए होने के बावजूद माँ के भाल पर सम्मान का तिलक लगाते हुए विशाल कोठी में उसके लिए सर्वसुविधायुक्त कमरा या याद बनाए रखने वाले स्कूल का निर्माण करते हैं। शीर्षक रचना ‘बेटी का हिस्सा’ भी इसी किस्म की लघुकथा है, जिसमें सम्पत्ति के बंटवारे में बेटी हिस्से के रूप में माँ-बाप को सेवाधन के रूप में प्राप्त करना चाहती है। बुजुर्ग-ज़िन्दगी के इर्द-गिर्द रची रचनाओं में सामान्य कथ्यों से इतर बरवस      ध्यान आकृष्ट करने वाली लघुकथाएँ हैं- ‘अनमोल खजाना’, ‘टूटी हुई ट्रे’, ‘बेड़ियाँ’ तथा ऐसी ही अन्य। ‘बारह बच्चों की माँ’ मातृत्व की बेहतरीन तस्वीर प्रस्तुत करती रचना है, जिसमेें घरेलू विधवा नौकरानी का अपने ही परिवार के अनाथ बच्चों का पालन-पोषण हेतु निरन्तर जद्दोजहद से गुजरते रहने का उल्लेख है।
     प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’ से अब तक परम्परा रूप में चले आ रहे परिवारों में वृद्धों की उपेक्षा विषयवस्तु को श्यामसुन्दर अग्रवाल के भावुक मन ने संवेदना लिप्त शब्दों के साथ ‘साझा दर्द’, ‘अपना-अपना दर्द’, ‘माँ’, ‘पुण्य कर्म’ रचनाओं में तराशा है। दहेज, वैवाहिक-मानदंड, सास-बहुओं के मधुर-कटु सम्बन्ध भी संग्रह में मौजूद हैं। लब्बोलुआब यह है कि पारिवारिक-जीवन से सम्बन्धित प्रत्येक उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख को अग्रवाल जी की पैनी नज़र ने देखकर शब्दों में बांधा है। पति-पत्नी, सम्बन्धों के एल्बम में आधुनिक-बोध से परिचित कराता ‘एक उज्ज्वल लड़की’ शीर्षक चित्र मौजूद है, जो यह कहना चाहता है कि आधुनिक चकाचौंध के वातावरण में मधुर सम्बन्ध बनाये रखने के लिए विश्वास, आत्म मंथन तथा प्रायश्चित ज़रूरी है। मेरी भी ऐसी ही एक लघुकथा ‘समकालीन सौ लघुकथाएँ’ संग्रह में ‘गंगाजल’ शीर्षक से संग्रहीत हैं।
     संग्रह में वे लघुकथाएँ अधिक प्रभावशाली बन पड़ी हैं, जो स्वार्थजनित रिश्तों को चुनौती देते हुए सहयोग, सौहार्द तथा मानवीय पक्ष में खड़ी हैं। ट्रेन मे सफर करते हुए युवक का वृद्धयात्री को सहयोग करते हुए विदा होते हुए यह कहना कि आप तो मेरे पिता के बॉस रहे हैं, कृतज्ञता भाव की कायमी का संकेत है। ‘सेवक’ के मजिस्ट्रेट साहब भी तकरीबन ऐसी ही मुद्रा में सामने खड़े होते दिखते हैं। ‘बेटा’, ‘सिपाही’, ‘कर्ज’ या ‘दानी’ लघुकथाएँ मानवीय पक्ष, सकारात्मक सोच तथा आदमी को आदमी से जोड़ने का आगाज करती हैं।
     अधिकांश लघुकथाओं में साहित्यिक-आस्वाद की दृष्टि से इतनी शक्ति है कि वे पाठक को अंतिम छोर तक साथ सफर करने के लिए मजबूर करती हैं। जहाँ रचना समाप्त होती है, वहाँ से पाठक एकदम आगे नहीं बढ़ता, ठहरता, सोचता है। आशय लघुकथा चिंतन की सोच के साथ पाठक से रिश्ता कायम कर लेती है।
     कथावस्तु के विभिन्न आयाम सग्रह में विद्यमान हैं। ‘अन्तर्वस्तु किसी भी कालखण्ड की हो यदि उसे भविष्य के गवाक्ष से देख-परखकर तराशा गया है तो वह काल की सीमा की अपेक्षा कालातीत होने का दावा करती है।’’ रचना की अस्मिता का यह सूत्र-वाक्य श्यामसुन्दर अग्रवाल के लेखन पर चस्पा किया जाना उनकी साधना का निरपेक्ष मूल्यांकन होगा।
    कथ्य-प्रवाह, भाषा सौष्ठवता तथा सम्प्रेष्य क्षमता के मद्देनजर ये लघुकथाएँ बेमिसाल हैं। बनावट-बुनावट के अलावा इनका शिल्प-पक्ष, भाषायी लालित्य आज लिखी जा रही या लिखी गई लघुकथाओं से अलहदा है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि श्रेष्ठ लघुकथाओं की रचना-प्रक्रिया की चर्चा जब कभी होगी, इन लघुकथाओं को बतौर मिसाल याद किया जायेगा।
     मुझे विश्वास है नई दस्तक के साथ आया यह संग्रह साहित्य-जगत में अपना विशेष स्थान एवं पहचान बनाने में कामयाब हो सकेगा। लघुकथा-संसार को इस महत्वपूर्ण भेंट के लिए श्यामसुन्दर अग्रवाल बिना किसी व्यक्तिगत व्यामोह के धन्यवाद के पात्र हैं। 
बेटी का हिस्सा :  लघुकथा संग्रह :  श्यामसुन्दर अग्रवाल। प्रकाशक :  राही प्रकाशन, दिल्ली। मूल्य :  रु.350/-। संस्करण :  2014।

  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009, म.प्र. / मोबाइल : 07312482314




डॉ. उमेश महादोषी



भविष्य के लघुकथाकारों का संकलन

उषा अग्रवाल लघुकथा के क्षेत्र में उभरता हुआ नाम है। उन्होंने कुछ वर्षों में अपने रचनात्मक सृजन से लघुकथा में तेजी से अपनी पहचान बनाई है। नागपुर शहर में लघुकथा विषयक गतिविधियों के आयोजन के साथ उन्होंने कई अन्य रचनाकारों को लघुकथा लेखन में प्रेरित भी किया है। अपने प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए गत वर्ष उन्होंने स्वयं द्वारा प्रेरित और विशेषतः नागपुर के नए रचनाकारों की सृजनात्मकता को रेखांकित करने के उद्देश्य से लघुकथा संकलन तैयार करने की योजना बनाई व उसे अंजाम दिया- ‘लघुकथा वर्तिका’ के रूप में। लघुकथा वर्तिका में नागपुर के स्थानीय रचनाकारों को तो प्रमुखता दी ही है, देश के अन्य भागों से भी कई रचनाकारों की अच्छी लघुकथाओं को स्थान दिया है। 
      संकलन को दो भागों में बांटकर सतीश दुबे, बलराम अग्रवाल, शकुन्तला किरण, सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, सतीश राज पुष्करणा आदि 16 वरिष्ठ लघुकथाकारों को ‘परंपरा’ खंड में तथा 83 उभरते हुए और नवोदित रचनाकारों को ‘प्रवाह’ खंड में रखा गया है। परंपरा में शामिल रचनाकारों को जिस उद्देश्य से लिया गया है, अधिकांश स्तरीय रचनाएं होने के कारण सामान्यतः पूरा होता है। लेकिन बेहद महत्वपूर्ण बात ‘प्रवाह’ में शामिल अधिकांश रचनाकारों की लघुकथाओं में ऊर्जा का संचरण और उसकी तीव्रता है। निश्चित रूप से इनमें से कई लघुकथाकार भविष्य में लघुकथा जगत में बड़ा काम कर दिखायेगे। भूमिका में डॉ.सतीश दुबे साहब ने इस पर काफी विस्तार से लिखा है और नई पीढ़ी की पैनी दृष्टि को लघुकथाओं की सकारात्मकता के साथ रेखांकित किया है। उनके शब्दों में ‘‘कैमरे की आँख की तरह कुछ क्षण या मिनटों के घटना प्रसंग-चित्र रूपी कथावस्तु को लघुकथा क्लिक करती है। जाहिर है, इस प्रक्रिया में समय अंतराल (टाइम गैप) की कोई भूमिका नहीं होती। दिन या महीनों का वृतांत कहानी का एल्बम होता है, लघुकथा नहीं। खुशी है कि अधिकांश लघुकथाकारों ने लघुकथा की इस रचना प्रक्रिया के अनुकूल कथा-वस्तु का चयन किया है। यही नहीं कथ्य के अनुरूप उन तमाम शैलियों का आत्मविश्वासी प्रयोग भी उनमें हुआ है, जिसकी वजह से ये सम्प्रेष्य स्तर पर प्रभावी बन पड़ी हैं।’’   

        निसंदेह बहुत दिनों बाद एक ऐसा संकलन सामने आया है, जिसमें बड़ी संख्या में नई पीढ़ी के रचनाकार अपनी ऊर्जावान उपस्थिति से भविष्य की बड़ी उम्मीदें जगाते हैं। दो बातें विशेष रूप से रेखांकित की जानी चाहिए, एक- इसमें नागपुर से जितनी संख्या में ऊर्जावान लघुकथाकार सामने आये हैं उसे और उनकी लघुकथा के प्रति समझ को देखते हुए निश्चित ही नागपुर के रूप में सृजन का एक बड़ा केन्द्र लघुकथा को मिलने जा रहा है। दूसरी बात, उषा जी ने जिस तरह से कई अन्य अहिन्दी भाषी क्षेत्रों से हिन्दी लघुकथा की उत्कृष्ट समझ वाले कुछ रचनाकारों को प्रस्तुत किया है, वह लघुकथा में गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों की स्थानीय समस्याओं और प्रवृत्तियों को लघुकथा में प्रस्तुत करने के द्वार खोलेगा। बड़ी संख्या में महिला लघुकथाकारों की उपस्थिति भी संकलन की उपलब्धि है। निसन्देह यह भविष्य के लघुकथाकारों का संकलन है। संपादन, प्रस्तुति के साथ पुस्तक का गेट-अप आदि सराहनीय है।
लघुकथा वर्तिका :  लघुकथा संकलन। संपादन : उषा अग्रवाल ‘पारस’। प्रकाशक : विश्व हिन्दी साहित्य परिषद, एडी-94डी, शालीमार बाग, दिल्ली-88। मूल्य :  रु.250/-। संस्करण :  2013।

  • एफ-488/2, गली संख्या-11, राजेन्द्रनगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार, उत्तराखण्ड/ मोबाइल: 09458929004


श्रीनिवास श्रीकान्त


सकारात्मक बदलावों के लिए व्यग्र एक कवि 

एक सचेत और सम्वेदना से भरा कवि अपने देशकाल और आसपास से निरन्तर प्रभावित रहता है। उसकी कविता में ये प्रभाव सहज ही पहचाने जा सकते हैं। उत्तराखण्ड के काव्य रचनाकार कपिलेेश भोज ऐसे ही एक कवि हैं, जिनकी कृतियांे में उनकी कुमाऊँँनी भू-संस्कृति की छाप तद्वत मौजूद है। मूलतः वे एक जनधर्मी कवि हैं और बदलाव के लिए अपनी भाषिक संरचनाओं में सामाजिक और सकारात्मक बदलावों के लिए व्यग्र दिखाई देते हैं। अपने पर्वतीय भूगोल और पहाड़ के ग्रामांचलों के लोक जीवन से उनकी प्रतिबद्धता स्थायी है जो निर्गमन के बावजूद उनके ज़हन मेें जिन्दा है- कहीं स्मृतियों के रूप में तो कहीं सघन रिश्तों के रूप में। रानीखेत, अल्मोड़ा, नैनीताल और हिमालय के अन्तरिम क्षेत्र उन्हें जुम्बिश में ले आते हैं और वे उन चित्रों की लघुता और महनीयता को अपनी क्षमता के अनुरूप ही रेखांकित करते हैं।
     ‘यह जो वक्त है’ (2010) के बाद ‘ताकि वसन्त में खिल सकें फूल’ (2013) उनका दूसरा कविता-संग्रह है, जिसमें वे गत कविताओं की थीम को सहज योग्यता के साथ आगे ले जाते हैं। संकलन की कविताएँ अपनी तफ़सीलों में कुमाऊँ अंचल के जन-जीवन के सम्बन्ध में न केवल उपयोगी जानकारी मुहय्या करती हैं बल्कि वहाँ की विशिष्ट और कठोर पहचान को पाठक के मन में उकेरती हैं। रिश्ते किस तरह छूटते हैं और आदमी के वर्तमान में वे किस तरह उसके हृदय और मन मस्तिष्क में अपनी एक अलग ताब रखते हैं, प्रस्तुत संग्रह की कुछेक कविताएँ इसे पूरी शिद्दत के साथ बयान करती हैं। ये एक समय खण्ड का ज्वलंत पुनराभास है यानी जो कुछ पीछे अच्छा था, अब वह नहीं है और जिसे निरन्तर अपनी तरह ही अग्रगामी होना चाहिए था। देहात के अंचल की सौम्यता और स्नेहिल छाँव के लिए सहज आतुर नजर आती हैं ये कविताएँ।
     ‘इजा तू रहना सदा मेरे साथ’ स्नेह के बुनियादी रिश्तों का एक भावपरक चित्रण और विवरण है। इस कविता में लोक तत्व का समावेश प्रामाणिक बिम्ब संयोजन के जरिए सघन व सार रूप में निर्मित किया गया है। मसलन- ‘लम्फू के पीले उजाले में/एक ओर बढ़ती जाती थी/अंगारों की तपन/दूसरी ओर/उसकी यादों के गोलों से/खुलते चले जाते थे/धागों पर धागे...’ कपिलेश के कवि ने यहाँ भाववाचक (एबस्ट्रेक्ट) ढंग से अपनी ठेठ देहाती श्रमशील माँ का चित्र इसी तरह के बिम्ब समन्वय से तद्वत रचा है। पर खास बात यह है कि माता के इस संस्मरण में स्मृति का भाव कहीं भी बौद्धिक क्षोभ अथवा नकारात्मक गृह विरह (नॉस्टेल्जिया) का भाव पैदा नहीं करता। जीवन की सीमाओं में वह एक अनश्वर छवि का नितान्त भावपरक ढंग से सहज ही सृजन कर जाता है।
     माँ की एक और नायाब छवि उपेक्षित नहीं की जा सकती। यहाँ वह है पहाड़ की एक कामगार किसान माँ। एक बानगी- ‘पत्थरों और तुषार के तीखेपन को रौंदती/ भतिना और खौड़िया के जंगलों में/ धँसती चली जाती थी वह/और फिर/लकड़ियों या बाँज के पतेलों का गट्ठर लिए/ लौटती थी तब/ धूप में नहा रहे होते थे जब/नदी-पहाड़-पत्ते-खेत और घर...’
     अगर अन्यथा न समझा जाए तो मैं यह कहूँगा कि समकालीन हिन्दी कविता का फलक एक व्यापक चित्रपट है जिसकी स्थानीय स्थापनाओं को प्रस्तुत कवि ने पूूरी तहदारी के साथ निभाया है और जो काव्य रसिक की ग्राह्यता की तलबगार है। स्थानीयता के चरित्र को आगे बढ़कर समझा जाए तो यह माँ विश्व की किसी भी श्रमजीवी किसान माँ के समान नजर आएगी।
     पहाड़ी जीवन में श्रमजीवी औरतों का एक अहम मुकाम है। उनका जीवन वहाँ के समाज के लिए पूजनीय निधि (वर्शिपेबल ट्रस्ट) है। ‘कहती हैं पहाड़ की औरतें’ शीर्षक कविता में भोज के कवि ने कुछेक लफ्जोें में ही गाँव की औरत का एक अनोखा चित्र खींचा है। बाईस असमान पंक्तियों की इस कविता में वह यथार्थ के पदस्थल (पैडस्टल) पर, अपनी त्रासदिक अवस्थिति के बावजूद, आत्म सम्मान के साथ खड़ी है। यह कोई मिथक नहीं, अकूट यथार्थ है। ये पहाड़ की वे औरतें हैं, जिन्होंने अपने समर्पित श्रम से ’खेतों को दी है हरियाली‘ और जिनका ‘खून-पसीना/लहराता है/ धान, गेहूँ और जौ की बालियों में....’ ‘खिला रही हैं’ वे ‘खुशियों और हौसलों के फूल‘। यह एक संघर्षशील,प्रगतिशील और जीवन में भरपूर निष्ठा रखने वाली स्त्री की छवि है।
     ‘क्या मनुष्य नहीं हूँ मैं?’ कविता में पहाड़ की यही स्त्री अपनी दमित स्थिति का जिक्र करती हुई अपनी कुर्बानी के लिए न्याय की गुहार भी लगाती है। यथा- ‘‘हे पुरुष!/तुम्हारी अतृप्त इच्छाओं को/मौन रहकर पूरा करती/झिंझोड़ी जाती रहूँ बार-बार.... बताओ मेरे सहचर/क्या मनुष्य नहीं हूँ मैं?’’
     अपने पहाड़ों से कवि को बेपनाह मोहब्बत है। प्रस्तुत संकलन की एकाधिक कविताओं में पहाड़ी जीवन और प्रकृति के रंग शेड देखने को मिलेंगे जिन्हें उसने भरपूर जिया है और कविता लिखते समय भी हूबहू महसूस किया है। ‘मेरी यादों का लखनाड़ी’ में कवि के अपने गाँव का जिक्र है, जिससे सम्बन्धित स्मृतियों को उसने चुनिन्दा ढंग से सँजोया है। रचयिता की यह खूबी है कि वह अपने इलाके की सभी भौतिक विशेषताओं को टुकड़ों में सँजो कर अपने गाँव और उसके आसपास का एक सजीव चित्र बनाता है। विनियोजित करने पर ये टुकड़े सामान्य लगेंगे लेकिन अपने संयोजन में वे आपको एक अनदेखी-अनजानी और सुन्दर-रमणीक स्थलीय गरिमा से साक्षात्कार कराते हैं। पूरी कविता की अभिव्यक्ति अभिधात्मक होते हुए भी वह  अनजाने ही एक विलक्षण जगह की पहचान को स्थिर करती है- ‘‘भतिना के/ऊँचे शिखर/और/तीन ओर से/पहरेदारों-सी खड़ी/छोटी पहाड़ियों के आगोश में/दुबके पड़े/बौरा रौ घाटी के/हे मेरे प्यारे गाँव/लखनाड़ी!’’
     एक ग्रामीण का अपने स्थल को छोड़कर जाना कैसा अनुभव होगा, यह कविता इसका सरल चित्रण करती है। यथा, स्मृतियों में उभरता यह बिम्ब- ‘‘भले ही/बरसों पहले/तुमसे हो जाना पड़ा/मुझे दूर/बनकर रह जाना पड़ा/प्रवासी/मगर/अक्सर/उड़कर चला ही जाता है/मेरा मन-पाखी/तुम्हारी ओर..!’’
    ‘मेरी यादों का नैनीताल’ में शहर का आवश्यक भूगोल और स्थानों के संदर्भ निजी प्रसंग से भरे हैं, फिर भी कविता के रूप में एक पर्वतीय पर्यटन स्थली के मोण्टाज का निर्माण करते हैें। इनमेेें ही कुछ पूर्व के जिए शहर की कुछेक नामाचीन शख्सीयतों का जिक्र भी मौजूद है लेकिन अत्यावश्यक जानकारी के अभाव में वे महज अपर्याप्त व्यक्ति चित्र ही नजर आते हैं। यानी चेहरे रचयिता के ज़हन में ही उभरे, वे सब मुख्तसर भी कोई संकेतात्मक पोर्टेªट नहीं बन पाए।
     इसी तरह के व्यक्तिगत शख्सियतों के सन्दर्भ ‘कहो, कैसे हो, रानीखेत?’ और ‘यह है बौरा रौ घाटी’ में भी हैं। जहाँ तक रानीखेत और बौरा रौ घाटी की शब्द चित्रीयता का सवाल है, इन्हें यथातथ्य ही कहा जा सकता है, मगर शख्सियतों का सूचीबद्ध विवरण कविता को कुछ हद तक हलका बना देता है। फिर भी जो व्यक्ति चित्र कवि ने ‘तुम भी क्या आदमी थे यार गिर्दा!’ और ‘हे चिर धावक, हे चिर यात्री!’ में उकेरे हैें, वे निश्चय ही गिर्दा और शेखर पाठक का एक सुथरा-सा स्नेप-शॉट तो छोड़ ही जाते हैं।
     सुदूर अतीत-स्मृतियों में ‘चौबटिया के पथ पर’ एक परिपूर्ण कविता है, जिसे कवि ने शब्द संयम के साथ लिखा है। रचना की बनावट और बुनावट भी अपने लक्षित समय को सरल रेखात्मक ढंग से सरंजाम देती है। यही नहीं, इसमें जीवनी के कुछ सामान्यतः रुचिकर अंश भी हैं, जो कविता में शामिल होकर जीवन के अहम कोनों को प्रकाशित करते हैं। यहाँ समय के अन्तराल भी अपनी रैखिक प्रतीति नहीं देते। ‘लगने लगता है कि जैसे यह 2009 नहीं बल्कि 1965-66 है’... ‘बर्फ, कोहरे और धूप के बीच अपने परिवार जनों के साथ उन्हीं पगडण्डियों पर कुलाँचें भरता एक बच्चा’। असली जिन्दगी में भी स्मृतियों के प्रभाव में काल अक्सर वर्ततान में गुजरे हुए काल की मरीचिका में रूपान्तरित हो जाता है- कवि ने ऐसी देशिक (स्पेसियल) अनुभूति को सांकेतिक ढंग से रेखांकित किया है। कवि अपनी स्मार्त कविताओं में अपने परिचितों का जिक्र करना भी नहीं भूलता। रानीखेत के चौबटिया में घूमते हुए वह भौगोलिक बिन्दुओं को भी परिगणन शैली में याद करना नहीं भूलता- यहाँ नन्दाघुण्टी, त्रिशूल, नन्दादेवी के ये सुझावी बिन्दु प्रकृति का एक खूबसूरत फ्रेम तैयार करते हेैं। इन शिखरों को क्षेत्र से बाहर के लोग भी जानते हैं, अतः रचना में इनका जिक्र ही पर्याप्त दिखाई देता है।
     संकलन की ‘आकाश बादलों से ढका है’ और ‘कम हो गया एक वोटर’ सामाजिक त्रासदियों पर रोशनी प्रसारित करती कविताएँ हैैं। एक तरफ तो वे घटनाएँ हैं, संघर्षमय अस्तित्व की दास्तानें और वारदातें और दूसरी तरफ वे पिछड़े हुए देहाती परिवारों के सन्ताप को भी बयान करती हैं। वह सारा दोश प्रकृति के ऋतु-विपर्यय को देता है, जिसकी वजह से उसके जीने के ‘सारे काम काज’ जड़ हो चुके हैं, तिस पर परिवार का आर्थिक दुर्बलता के कारण असहनीय बोझ भी। एक भारतीय औसत परिवार मेें उसके दुख-दर्द का इजहार सम्वेदनामय है। यथा- ‘‘पाँच बेटियों का बाप/रतन सिंह/कँपकँपाता शरीर लिए/आकाश की ओर टकटकी लगा/पुकार रहा है-/बादलों को हटा/अब तो/कल सवेरे प्रकट होओे/हे सूर्य भगवान!/ताकि निकल सकूँ मैं/काम पर/क्योंकि/आटा बचा है/बस/आज रात के लिए ही...’’ 
     यहाँ सहसा प्रेमचन्द के ‘गोदान’ और पर्ल एस बक के ‘गुड अर्थ’ की याद हो आती है। 
     ‘कम हो गया एक वोटर’ में शराब ही समाज की त्रासदी का कारण है, जिसे कवि ने अति मद्यपता से त्रस्त गणेश के बाबू के जरिए प्रदर्शित किया है। इस दृष्टि से यहाँ कविता महज कार्यात्मक और वृत्तिमूलक ही नहीं, वह व्यंजना से भी परिपूर्ण और सहज मानवीय करुणा से भरी है। पात्र की अकाल मृत्यु को रचयिता ने एक वोटर के कम होने का व्यंग्य निर्मित करके हमारे ढीले -ढाले और स्वार्थकेन्द्रित प्रजातंत्र पर तन्ज की है। ‘कम हो गया एक वोटर’ अपने फार्मेट में एक त्रासदिक कहानी भी है, जिसे कम शब्दों में ही कामयाबी के साथ सम्प्रेषित किया गया है।
     कपिलेश भोज के कवि ने तथाकथित भोग्य आजादी के बुर्जुआ वातावरण के खिलाफ लड़ी जा रही क्रान्ति का समर्थन किया है। कहीं स्पष्ट शब्दों में तो कहीं संकेतात्मक ढंग से। हमारे जैसे समाजवादी प्रजातंत्र पर उसने कुछेक कविताओं में मारक व्यंजना भी की है। ‘होगा विकास एक दिन’ व्यंग्य की शक्ल में उसका एक जोरदार और सार्थक प्रतिवाद है। वर्तमान समय में परिधिजन्य और पिछड़े हुए क्षेत्रों में जड़ता की स्थिति है, उस पर इस कविता में एक जोरदार ढंग से अपनी बात की है। चर्चित कविता मेें कपिलेश ने व्यंग्योक्ति के जरिए अपने लक्ष्य का बेधन किया है। मसलन- ‘‘.....पाँच साल में न सही/अगले पाँच साल में/या/उसके अगले पाँच साल में/धीरे-धीरे ही सही/होगा/जरूर होगा/होकर ही रहेगा/तुम्हारा विकास/आखिर/एक न एक दिन...’’
     मनसूबों और अहम कार्यों का निरन्तर स्थगन ही हमारे जैसे समाजवादी और वर्गीय प्रजातंत्र का शासन करने का तौर तरीका है, जिसे इस कविता में एक खण्डनात्मक और व्यंग्योक्त पैमाने पर पूरा किया गया है।
     उपर्युक्त के सन्दर्भ में कवि यह भी चाहता है कि सिर्फ कविता में ही न जलती रहे क्रान्ति की मशाल। ऐसी मशाल का जिक्र करते हुए एक कविता में यह स्पष्ट कहा गया है कि- ‘‘बरसों से/वे/बड़े ही ओजस्वी स्वर मंे/सुनाते आ रहे हैं/अपनी वे कविताएँ/जिनमें की गई है गुहार/मशाल जलाने की...’’ पर ‘‘वाहवाही लूटने के बावजूद/कहीं नहीं जली/ उनके आसपास/एक भी मशाल/और/जो कुछ मशालें/जली हुई हैं दूर-दराज/उनसे नहीं है/उनका कोई वास्ता।’’  (जो सिर्फ कविता में जलाते हैं मशाल) 
     कवि ने यह चाहा है कि क्रान्ति न महज शब्दों में ही जीती रहे, वह उसके फ्रेमवर्क से बाहर आए, जन चेतना की भूमि पर उतर कर सक्रिय रूप से अपनी भूमिका अदा करे। हेमचन्द्र पाण्डेय की स्मृति में लिखी गई ‘आखिर कब तक ?’, ‘कभी-कभी ऐसा ही कुछ सोचते हैं विमल दा’, ‘दोस्त फेलिक्स ग्रीन!’, ‘आओ पिघला दे बर्फ, ‘ताकि वसन्त में खिल सकें  फूल’ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से क्रान्ति के उभार का समर्थन करती हुई कविताएँ हैं।
परिचर्चित कविताओं के अतिरिक्त ‘मण्डीहाउस से लौटते हुए’, ‘भाऊ यह मेला नहीं है’ ‘कविता का साथ’, ‘महाकवि की जयन्ती’, ‘समीक्षक का कमाल’, ‘बनाई गई है यह जो दुनिया’, ‘हमारे लिए’, ‘अलविदा शेफालिका...’ समकालीन जीवन के एकाधिक मुद्दों व आशयों को स्पर्श करती हुई कुछेक अधोरेखांकित करने योग्य कविताएँ हैं। 
ताकि वसन्त में खिल सकें फूल :  कविता-संग्रह :  कपिलेश भोज। प्रकाशक :  अंतिका प्रकाशन, सी-56, यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II, गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.)। मूल्य :  रु 230/- मात्र। संस्करण :  2013।

  • 9/ए, पूजा हाउसिंग सोसायटी, संदल हिल्ज, लोअर चक्कर, शिमला-171005 (हि.प्र.)/दूरभाष: 01772-633272

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