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रविवार, 12 नवंबर 2017

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017




।। कथा प्रवाह ।।


मनीषा सक्सेना







वंचित
      नानी माँ की तेरहवीं पर आखिरकार मैं पहुँच ही गई। आँगन में सफ़ेद पंडाल लगा है, कुर्सियों पर सफ़ेद कवर चढ़े हैं। बड़े मामा साजसज्जा का पूरा ध्यान रख रहे हैं।
      ‘‘सफ़ेद गुलदाउदी की मालाएँ, फोटो के पीछे परदे पर लगाओ!’’
      ‘‘लोबान की धूपबत्ती पूजा में रखो और फोटो के सामने चन्दन की अगरबत्तियाँ लगेंगी।’’
      ‘‘बड़े भैया, अम्माँ की पसंद का सारा खाना बनवाया है, तीन तरह के अचार, मीठी सौंठ, मीठे में हलुए के साथ-साथ आमरस भी बनवाया है। फिर भी लगता है जैसे अभी अम्माँ बोल पड़ेंगी, छोटे ये और कर लेता। ...अम्माँ बहुत कायदे से सारा काम करती थीं।’’ 
      ‘‘हाँ छोटे, तू तो पूरा अम्माँ के ऊपर गया है; तभी तो तेरा नाम अम्माँ ने इंतजामअली रखा था।’’ मेरे ऊपर मामा की दृष्टि पड़ी तो लपक कर मेरे पास आये- ‘‘अरी बिट्टो, अच्छा हुआ तू आ गयी। आखिरी साँस तक तेरे ही नाम की माला जप रहीं थीं, मालती जीजी तो रहीं नहीं, बस तुझे ही बुलाने की जिद कर रहीं थीं। बार-बार कहती थीं कि एक वही तो मुझे समझे है। अब इतनी जल्दी भी तुम आ नहीं सकती थीं, पिछले हफ्ते ही तो मिलकर गयी थीं।’’ 
      ‘‘हाँ, मामाजी!’’ मैंने निःश्वास छोड़ी।
      अन्दर पहुँची तो छोटे-बड़े सफ़ेद मोतियों की माला मामियाँ व मौसियाँ मिलकर बना रहीं थीं, साथ में बातचीत भी जारी थी। ‘‘अम्माँ को मोती इतने पसंद थे कि हर रंग की साडी के साथ वे मोती का सेट पहनती थीं। जीजी, इसीलिए हमने सोचा है कि अम्मा की फोटो पर चन्दन की बजाय मोती की माला पहनाएंगे।’’ 
      अम्मा इतनी सफाईपसंद थी कि हर काम के लिए अलग तौलिया अथवा झाड़न रखती थी, हाथ के लिए अलग, पैर पोंछने के अलग, मुँह पोंछने के लिए अलग टॉवल होता था। कुछ झक्की भी हो गयी थीं।’’ 
      ‘‘जीजी आप झूठ मानेगी पर जब नर्स नहला कर जाती थी तो एक बार में वाशिंग मशीन में सिर्फ उनके ही कपड़े धुलते थे।’’ ‘‘कुछ भी कहो अम्माँ ने अपना बुढापा बेटे-बहुओं, नाती-पोतों की सेवा लेते हुए चैन से काट लिया।’’
      हमेशा खुश रहने वाली नानी के मुख पर उदासी क्यों रहती थी? पिछली बार जब मैं यहाँ आई थी तब मैंने उनसे पूछा भी था। नानी बोली थीं, ‘‘बिट्टो काम तो मेरे सब हो रहे हैं, खाना, पीना, ओढना, बिछाना सब घड़ी की मुताबिक़ चल रहा है पर मेरे पास बैठने के लिए किसी के पास समय नहीं है। अपने मन की बात मैं किसी से नहीं कर सकती। कभी-कभी मन इतना उदास हो जाता है कि फोन पर भी बात करने की इच्छा नहीं होती। लगता है मैं सबके लिए बोझ हो गई हूँ। काम सब हो रहे हैं और समय पर हो रहे हैं पर रोबोट की तरह सब आते हैं, जाते हैं। इतने भरे-पूरे परिवार के होते हुए भी लगता है मैं अकेली हूँ, बिट्टा,े इन सबको मैं कैसे समझाऊँ कि शरीर की टूटन से आदमी इतना नहीं टूटता है जितना उपेक्षित रहकर टूटने लगता है।’’
      मुझे लगा अभी नानी फोटो में से बोल उठेंगी, ‘‘मेरी जितनी भी अपेक्षाएँ हैं खाने-पीने की, सलीके से जीवन व्यतीत करने की, ढँग से रहने की, ये सब इसलिये हैं ताकि मैं तुम सबसे बातचीत कर सकूँ, अपने मन की बात कह सकूँ।’’
  • जी-17, बेल्वेडीयर प्रेस कम्पाउंड, मोतीलाल नेहरु रोड, इलाहाबाद-211002, उ.प्र.

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