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गुरुवार, 29 अगस्त 2013

बाल अविराम

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष :  2,  अंक : 11-12 ,  जुलाई-अगस्त  2013

।।बाल अविराम।।

सामग्री : श्रीमती मनीषा सक्सेना की बालकथा 'सर्वश्रेष्ठ उपहार', आरुषि ऐरन, सक्षम गंभीर व  राधिका शर्मा के साथ। 



मनीषा सक्सेना





सर्वश्रेष्ठ उपहार

     कस्तूरबा गांधी राजकीय माध्यमिक स्कूल में शिक्षक दिवस की तैयारी चल रही थी। पिछले कुछ सालों से उनके प्राचार्य महोदय यह देख रहे थे कि बच्चे शिक्षक दिवस पर बाजार से कार्ड, पेन, पुस्तकें इत्यादि खरीदकर ले आते थे और शिक्षकों को भेंट करते थे। उन्होंने सभी शिक्षकों को बुलाया और कहा, ‘‘बच्चों को स्वावलंबी होने की शिक्षा दीजिये और अपने आप कुछ बनाने की प्रवृत्ति को प्रेरित करिये। शिक्षक दिवस पर जो भेंट देने की प्रवृत्ति बच्चों में बढ़ती जा रही है, यह गलत है। इसमें आपकी भी जिम्मेदारी है कि आप इसे रोकें।’’
    बच्चों के प्रिय शिक्षक श्री कृपाशंकर जी ने गत वर्ष ही शिक्षक दिवस वाले दिन अपनी कक्षा के बच्चों को संबोधित करते हुए कहा था, ‘‘इस बार तो ठीक है, पर अगले साल कोई भी बच्चा बाजार का बना या बाजार से खरीदा उपहार नहीं लायेगा। जो भी उपहार मुझे देना चाहता है वह अपने-आप बनाकर लायेगा और जो उपहार मुझे सर्वश्रेष्ठ लगेगा, उसे पुरस्कार मिलेगा।
चित्र : सक्षम गंभीर 
     बच्चे बहुत उत्साहित हैं। आठवीं कक्षा के छात्र-छात्राएं अपने प्रिय शिक्षक श्री कृपाशंकर जी को सबसे अनमोल उपहार देने की सोच रहे थे। हर बच्चा अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ उपहार देना चाहता था। बच्चे तो आखिर बच्चे थे। कुछ दिखाते, कुछ छुपाते थे, पर दूसरा क्या बना रहा है उस पर ध्यान जरूर रखने की कोशिश करते थे।
     ज्यादातर बच्चों ने कार्ड बनाये और गुरुजी के सम्मान में कविताओं की कुछ पंक्तियाँ लिखी थी। कइयों ने पोस्टर बनाये थे; कुछ ने कार्टून, कुछ ने बड़े लोगों के पेंसिल स्केच तो किसी ने पेंटिंग्स बनाई थी। कुछ बच्चों ने हस्तकला में पुरानी चूड़ियों, कागज की कतरनों, सींकों, सीप-शंख से नायाब कलाकृतियाँ बनाई थीं। हर बच्चा दूसरे से बढ़कर काम करना चाहता था। संगीत प्रेमी बच्चों ने नये-पुराने गीतों को मिलाकर गीतों का फ्यूजन बनाया तो कोई पुराने गीतों का ही रियाज कर रहा था। एक बच्चे ने कृपाशंकर जी की विभिन्न मुद्राओं की फोटोस जमा कर कोलाज बनाया था। कुछ बच्चों ने उनके पढ़ाने के ढंग,
चित्र : राधिका  शर्मा 
बोलने-चालने, उठने-बैठने की विशेषताओं को दर्शाते हुए उनके भाषणों की नकल पर मोनोएक्टिंग दर्शायी। कुछ लड़कियों ने अपनी कढ़ाई, रुमालों पर दिखाई; तो कुछ ने रिवन से विशिष्ट फूलों का निर्माण कर गुलदस्ता तैयार किया। कुछ बच्चों ने गुलदावदी, गेंदा, तुलसी, फूलदार पौधे गमले में उगाकर तैयार किये।

    शिक्षक दिवस वाले दिन सब बच्चे अपने-अपने उपहार गुरुजी को देते और गुरुजी सबके उपहारों को सराहते हुए कहते- अरे वाह! बहुत अच्छा, अति सुन्दर, बेहतरीन, लगे रहो, शाबाश जैसे विशेषणों से बच्चों को प्रोत्साहित करते। बच्चों द्वारा तैयार कार्यक्रमों का भी सबने मजा लिया, कहानी, नाटक, जादू का खेल, मोनोएक्टिंग दिखाकर प्रशंसा बटोरी।
    अंत में एक छात्र मणि, दुबला पतला सा गुरुजी के पास आया और बोला, ‘‘मैं जो उपहार आपको देना चाहता हूँ, वह मैं यहाँ नहीं ला सकता। आपको मेरे साथ वहीं चलना होगा, जहाँ मैंने उसे रखा है। गुरुजी के साथ बच्चे भी चकित हो गये। ऐसा कौन सा उपहार है जो यहाँ लाया नहीं जा सकता! खैर, गुरुजी सहर्ष तैयार हो गये। उनके साथ कक्षा के दस-बारह छात्र-छात्रायें भी चल दिये। मणि उनको स्कूल के पिछवाड़े में ले गया, जहाँ थोड़ी ऊबड़-खाबड़ जमीन थी। पर यह क्या! वहाँ 10 फीट ग 10 फीट का चौरस था, जिसके बीच में गोला बना था। चौरस के चारों किनारों पर क्यारियां बनी थीं। एक में सदाबहार, दूसरी में गेंदा, तीसरी में गुलदावदी व चौथी में रजनीगंधा व बेला लगा था। बीचोबीच में सावनी का पौधा लगा था, जिसमें सफेद फूल थे। कोने में छौटा सा गड्डा था, जिसमें पानी में कमलिनी खिली थी। सबके मुँह से निकला, ‘‘वाह मणि!’’
चित्र : आरुषि ऐरन 
    गुरुजी के पूछने पर उसने बताया, ‘‘पिछले साल शिक्षक दिवस पर जब आपने कहा था कि सब बच्चे अपने-आप बनाकर कुछ लायेंगे, तभी मैंने स्कूल की क्यारी में से पौधे एक क्यारी में रोपे और फिर बड़े होने पर क्यारियों में लगाये व बड़े किये। माली काका ने ही मुझे यह आइडिया दिया। रोज स्कूल खत्म होने के बाद मैं यहाँ दो घंटा काम करता था।
    गुरु कृपाशंकर जी ने उसे गले से लगाया, फिर बोले, ‘‘आज का सबसे अच्छा उपहार मुझे यही लगा है, क्योंकि-
1. मणि ने मेरी बात सबसे ज्यादा ध्यान से सुनी और उस कार्य के लिए साल भर मेहनत की।
2. प्राप्त साधनों का उपयोग करके अपने उपहार को संवारा।
3. साल भर तक कठिन परिश्रम किया।
4. उसने मुझे सच्चे शिष्य का सर्वश्रेष्ठ उपहार दिया, जिससे आज मैं बहुत गौरान्वित महसूस कर रहा हूँ।
    गुरुजी की आँखों में खुशी के आँसू थे।

  • द्वारा डॉ. चंद्रदीप सक्सेना, जी-17, बेलवेडियर प्रेस कंपाउन्ड, एलनगंज, इलाहाबाद-211002, उ.प्र.

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष  :  2,  अंक  :  11-12,  जुलाई-अगस्त  2013  

।।व्यंग्य वाण।।

सामग्री : आशीष दशोत्तर का व्यंग्यालेख 'वीसा की महिमा' 




आशीष दशोत्तर




वीसा की महिमा

     विदेश का मोह हो तो ऐसा। बार-बार बेइज्जत हो कर भी वहीं जाने की चाह, वाह क्या बात है। विदेश से इतना प्रेम हो भी क्यूं नहीं। आखिर विदेश जाने पर ही तो देश में इज्जत बढ़ती है। और फिर आजकल तो सभी कुछ विदेशी होने से ही प्रभावी होने लगा है। देशी माल पर परदेशी मुहर उसकी कीमत बढ़ा देती है। इस मुहर को लगवाने के लिए बाहर अपमानित भी होना पड़े तो क्या फर्क पड़ता है? वीसा की चाह में दिन-रात एक कर चुके और तमाम तरह की तिकड़में लगा चुके वे कल हमसे टकरा गए। बार-बार अपमानित होते देख उनसे हमने कहा कि यह ठीक नहीं है, आपके अपमानित होने से आपकी इमेज पर प्रभाव पड़ता है। वे कहने लगे, इससे तो मेरी मार्केट वेल्यू और बढ़ गई है। मेरे प्रशंसको की मेरे प्रति सहानुभूति बढ़ी है। हमने कहा कि आपके प्रशंसकों ने बाज़ार में हवा फैला रखी है कि आप समाज को राह दिखाते हैं। आपके अपमानित होने से समाज पर क्या असर पड़ेगा? इस पर वे नाराज हो गए। कहने लगे, राह दिखाने का ठेका हमने ही ले रखा है क्या? राह दिखानी ही है तो ठेकेदार दिखाए, समाज की चिन्ता करने वाले समाज सेवक दिखाएं। हमें तो बस वीसा चाहिए। वो भी अमेरिका का। उनकी ज़िद को देखते हुए हमने सोचा कि वे काफी ज़िद्दी हैं। कुछ भी कर सकते है। वे जो कहते हैं वो बात सही भी है। मग़र उन्हें कौन समझाए कि ठेकेदारों ने देश का बेड़ा गर्क करने का ठेका ले रखा हैं। यह ठेका अभी निरस्त होने की स्थिति में दिखता नहीं है। इसको लगातार एक्सटेंशन मिलता जा रहा है।
    सेवक बन चुके लोग, जनता की सेवा करने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। पहले खुद साधन सम्पन्न बनकर, जनता को सुख-सुविधा उपलब्ध कराने के संकल्प के प्रति ये सेवक दृढ़ संकल्पित नज़र आ रहे हैं। जनता को यकीन दिलाया जा रहा है कि उसकी किस्मत बदलने वाली है। और जनता भी सेवकों की इस बात पर विश्वास करते हुए अपनी किस्मत बदलने का इंतज़ार कर रही है। वैसे समाजसेवकों के प्रयास भी कमतर नहीं हैं। समाज की नींव मज़बूत करने से पहले वे अपनी नींव मज़बूत कर रहे हैं। उनका मानना है कि वे एक बार मज़बूत बन जाएं फिर समाज को तो चुटकियों में मजबूत बना देंगे। समाज के लोग जो खुद को ‘सामाजिक प्राणी कहते वक्त गर्व का अनुभव करते है, वे अपने इन समाज सेवकों की मज़बूत होती नींव को देख रहे हैं, और इस मज़बूती से संतुष्ट भी हैं।
     यानी हर कोई अपने-अपने मिशन में पूरी निष्ठा से जुटा हुआ है। इसीलिए आपसे ही यह अपेक्षा की जा रही है कि समाज को सही राह दिखाएं। वे कहने लगे, हम भी अपनी पूरी कोशिश कर रहे हैं कि  पथप्रदर्शक बने रहें। समाज की तमाम बुराइयों को हकीकत में पेश कर हम नागरिकों को नफ़रत करना सिखा रहे हैं। नायक और खलनायक के भेद को मिटाकर बन्धुत्व की भावना का विकास कर रहे हैं। समाज की बुराइयों को ‘नवीनतम तकनीक’ के जरिये इस तरह पेश कर रहे हैं कि लोगों को ‘बुराई‘ बुरी लगे ही नहीं। बुराइयाँ अच्छाइयों में तब्दील हों या बुराई ही अच्छी लगने लगे, इसमें फ़र्क क्या पड़ता है? हम तो बार-बार अपमानित हो कर भी विदेश जा ही इसीलिए रहे हैं ताकि समाज को बता सकें कि चाहे जितना अपमान हो हिम्मत कभी नहीं हारना चाहिए। वीसा के लिए इसीलिए तमाम कोशिश कर रहे हैं। आप भी हमारे लिए दुआ करें। हो सके तो किसी से पत्र लिखवा दें। यह निगौड़ी वीसा एक बार मिल तो जाए फिर हम सबको देख लेंगे।

  • 39, नागर वास, रतलाम-457001 (म.प्र.)

किताबें

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 11-12 ,  जुलाई-अगस्त   2013  


{अविराम के ब्लाग के इस अंक में  श्री सुरेश जांगिड़ 'उदय' द्वारा सम्पादित वरिष्ठ कथाकार डॉ. सतीश दुबे  की श्रेष्ठ लघुकथाओं के संग्रह ‘‘डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएं’’ एवम वरिष्ठ कथाकार-समालोचक डॉ बलराम अग्रवाल द्वारा सम्पादित समालोचना पुस्तक  'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद'  की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा तथा वरिष्ठ साहित्यकार श्री ललित नारायण उपाध्याय  के व्यंग्य लघुकथा संग्रह  "एक गधे का प्रमोशन" की डॉ. राम कुमार घोटड द्वारा  लिखित समीक्षायें  रख रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें।}





डॉ. उमेश महादोषी

   एक बड़े लघुकथाकार की लघुकथाओं से रू-ब-रू होना

      साहित्य की किसी भी विधा का महत्व  इस बात से तय होता है कि वह विधा समग्रतः अपने साहित्यिक उद्देश्य में कहाँ तक सफल है। इस परिप्रेक्ष्य में लघुकथा के विधागत योगदान का मूल्यांकन करना हो तो हमें उसके फलक पर छाए तमाम सृजन-बिन्दुओं पर दृष्टि डालनी होगी, जो फलक की व्यापकता के भी कारण बनते हैं। वर्तमान समकालीनता के दायरे में आने से पूर्व लघुकथा के जितने भी रूप-स्वरूप मौजूद हैं, उनके सापेक्ष चार-पाँच दशकों में लघुकथा का जो रूप-स्वरूप विकसित होकर सामने आया है, वह उसके विधागत समकालीन साहित्यिक उद्देश्य को बड़े स्तर पर पूरा करता है। उसके विधागत फलक पर जीवन की व्यापकता की परतों को उघाड़ते मानवीय व्यवहार के अनेकानेक चित्र और संवेदनाएँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। इस रास्ते पर लघुकथा को लाने में लघुकथा के कई हस्ताक्षरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, डॉ. सतीश दुबे जी उनमें अग्रणी हैं। डॉ. दुबे साहब ने हमेशा से प्रयास किया है कि लघुकथा रूपाकार, शिल्प-शैली और विषय-कथ्य, किसी भी स्तर पर एकांगी पथ की यात्री बनकर न रह जाये! उनका यह प्रयास आलेखों-साक्षात्कारों से आगे जाकर उनके सृजन में व्यापक स्तर पर प्रतिबिम्बित हुआ है।
     जीवन के विभिन्न पक्षों और मानवीय संवेदना के विभिन्न रूपों से जुड़े अनेकानेक कथ्यों को दुबे साहब ने अपनी लघुकथाओं में अभिव्यक्ति दी है और गहन अनुभूतिपरक लघुकथाओं का सृजन किया है। अब तक उनके छः लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनकी लघुकथाओं में एक नहीं, कई ऐसी हैं, जो पाठक के अन्तर्मन में तूफानी हलचल पैदा कर देती हैं, चेतना और संवेदना- दोनों स्तरों पर। कई ऐसी हैं जो मनुष्य के अहंकार पर चोट करती हैं, उसमें यथास्थिति के प्रति व्यामोह से जनित छटपटाहट पैदा करती हैंे, और अन्ततः अहंकारमय यथास्थिति के कवच को तोड़कर बाहर आने के लिए विवश करती हैं। दूसरी ओर उन्होंने ऐसी लघुकथाओं का सृजन भी किया है, जिनमें वह हमें जीवन-सरस्वती की उस धारा से रूबरू करा रहे होते हैं, जिसके यथार्थ के परिदृश्य से लुप्त हो जाने के बावजूद हम अपने अन्तर्मन के पटल से लुप्त होना स्वीकार नहीं कर पाते। 
     जैनेरेशन गैप, जीवन का एक ऐसा पहलू है, जो सामाजिक-पारिवारिक जीवन के स्नेह-तंतुओं में सड़ांध पैदा करने लगा है। इस विषय को जितनी गहराई से दुबे साहब ने समझा है, वह कम ही जगह देखने को मिलेगा। नई पीढ़ी के साथ वह बेहद व्यावहारिक सोच के साथ खड़े नजर आते हैं। निसंदेह उनकी इस व्यावहारिक सोच के पीछे जीवन के सत्य और उद्देश्य के प्रति गहरी समझ खड़ी होती है। जिस संतान को हम बेहद लाड़-दुलार के साथ पालते-पोषते हैं, बचपन में उनकी जाने कितनी नादानियों पर खुशियों से झूम उठते हैं, यकायक उनकी युवावस्था में हम उन्हें घोड़ों की तरह नियंत्रित करना अपना अधिकार समझने लग जाते हैं। जबकि उनकी अनेकानेक भावनाओं के विकास के लिए कहीं न कही हम स्चयं भी जिम्मेवार होते हैं। नई पीढ़ी की भावनाओं को समझना और उनके साथ तालमेल की जिम्मेवारी वरिष्ठ पीढ़ी के कंधों पर कहीं अधिक होती है। बाल मनोविज्ञान और स्त्री विमर्श पर भी उनकी कई लघुकथाएँ गहरे तक प्रभावित करती हैं। बड़ी संख्या में उनकी लघुकथाओं को उनके पाठक लम्बे समय तक भुला नहीं सकेगें। अकादमिक स्तर भी उनकी लघुकथाएँ लम्बे समय तक चर्चा में रहेंगी। 
     डॉ. दुबे साहब के व्यापक लघुकथा संसार से अपनी पसन्द की करीब 99 श्रेष्ठ लघुकथाओं का चयन कर भाई सुरेश जांगिड़ ‘उदय’ ने प्रमुख लघुकथाकारों की श्रेष्ठ लघुकाथाओं की प्रस्तुति की अपनी योजना की प्रथम कड़ी के रूप में ‘डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ नाम से प्रस्तुत किया है। साहित्य की महत्वपूर्ण विधाओं के सापेक्ष लघुकथा के महत्व को भी रेखांकित करने के सन्दर्भ में उनकी सोच को सकारात्मक दृष्टि से देखा जा सकता है। निसंदेह आज कई लघुकथाकार हमारे बीच मौजूद हैं, जिन्हें हम समकालीन महान साहित्यकारों की श्रेणी में रख सकते हैं और लघुकथा पर कई आरोपों के बावजूद कई लघुकथाओं को हम कालजयी रचनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर इनका नोटिस लेने से पीछे क्यों रहा जाये? जिस सम्मान के वे हकदार हैं, उससे उन्हें क्यों वंचित रखा जाये?
    इस पुस्तक में दुबे साहब की कई प्रसिद्ध और प्रभावशाली लघुकथाएँ शामिल हैं। इनमें प्रेम और अपनेपन की डोर से एक मनुष्य और जानवर (बन्दर) के बीच बने रिश्ते की अटूटता और निश्छलता को रेखांकित करती ‘रिश्ताई नेह बंध’ और इसी अटूटता व निश्छलता पर आघात होने पर एक पशु के विद्रोह को अभिव्यक्ति देती ‘प्रतिरोध’ जैसी लघुकथाएँ हैं। इसमें संग्रहीत उनकी सुप्रसिद्ध लघुकथा ‘वर्थ-डे गिफ्ट’ में एक पोती और उसके दादा जी के रिश्ते में व्यात ऊर्जा बाल मनोविज्ञान की सुखद व्याख्या करती है। लेकिन जब आयु के साथ बच्चों का अन्तर्मन स्वार्थ के पाग में पग जाता है तो ‘थके पाँवों का सफ़र’ के चाचाजी की सूखी आँखों के आँसू पाठक की आँखों तक पहुँच जाते हैं। 
     बाल मनोविज्ञान के विविधि पहलुओं को रेखांकित करती ’खेल वाली माँ’, ‘विनियोग’, ‘दिल का दायरा’, ‘पेड़ों की हँसी’, ‘बस एक कहानी और’ जैसी सशक्त लघुकथाएँ भी यहाँ संग्रहीत हैं। ‘प्रमुख अतिथि’ लघुकथा भी शामिल है, जिसमें हरदर्शन जैसा बड़ा आदमी बेटे की जन्मदिन पार्टी में अपने प्रमुख चालक शिवलाल को परिवार का हिस्सा और गुरु मानकर प्रमुख अतिथि बनाता है। इसमें यथार्थ के पटल से लुप्त जीवन-सरसवती को पाठक अपने अर्न्तमन के पटल पर खोजता महसूस करता है। इसी श्रेणी की ‘गबरू चरवाहा’, ‘बन्दगी’, ‘धरमभाई’, ‘रहनुमा’ जैसी लघुकथाएँ भी पाठकों के अन्तर्मन को आनन्दानुभूति से सराबोर करती हैं। प्रेम की गहन अनुभूति को अभिव्यक्त करती लघुकथा ‘प्रेम-ब्लॉग’ एक शैलीगत प्रयोग भी है। ‘पहचाना कि नहीं?’ एवं ‘सपनों का स्वेटर’ भी गहन प्रेम अनुभूति की रचनाएँ हैं। इसी पृष्ठभूमि से जुड़ी लघुकथा ‘पासा’ को शिल्पगत कसावट के लिए भी याद रखा जा सकता है। प्रतिकूल समय में बड़ों (अपनों) का साथ और सहानुभूति व्यक्ति को टूटने से बचा लेती है; ‘फीनिक्स’ में इसे प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है। ‘मर्द’ व ‘उत्स’ जैसी रचनाएँ निराशाजनक वातावरण में भी जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोंण की प्रेरणा बनती हैं। ‘बाबूजी’, ‘भीड़’, ‘अगला पड़ाव’, ‘फूल’ आदि रचनाओं में गहन मानवीय संवेदना के अलग-अलग रूप देखने को मिलते हैं।
     हिन्दू-मुस्लिम परिवारों में पारस्परिक स्नेह के रिश्तों के अनेक उदाहरण हमारे समाज में दिखाई दे जाते हैं। इन रिश्तों की गर्माहट को उजागर करने का अपना महत्व है, क्योंकि दोनों समुदायों को अपनी प्रगति करनी है, जीवन को सिद्दत से जीना है तो अन्ततः एक साथ ही रहना होगा। मानवीय लोकतन्त्र में इसका कोई और विकल्प नहीं है। पाकिस्तान का अलग अस्तित्व भी नकारात्मक आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाया है। ऐसे में विद्यमान वातावरण को बदलने के प्रयास साहित्य सृजन के स्तर पर रिश्तों की इसी गर्माहट को रेखांकित करके हो सकते हैं। ‘वादा’, ‘रिश्तों की सरहद’ जैसी लघुकथाएँ अन्तर्धर्मीय रिश्तों की इसी गर्माहट के संचरण का माध्यम बनती हैं। ‘अतिथि’ का संदेश भी इसी दिशा में देखा जाना चाहिए। ‘अंतिम सत्य’ का तो सीधा संदेश ही यही है।
     भय और शोषण के खिलाफ साहस और संघर्ष की अभिव्यक्ति सकारात्मक सृजन का हिस्सा होती है। इस पृष्ठभूमि पर रचे गए कथ्यों को ‘प्रज्ज्वलितं श्रेयं’, ‘योद्धा’, ‘माँ का धर्म’, ‘दस्तूर’ जैसी लघकथाओं में प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित किया गया है। व्यवस्था की संवेदनहीनता पर ‘फैसला’, ‘भूत’, ‘हुकुम सरकार का’ तथा सामाजिक संवेदनहीनता को उजागर करती ‘कत्ल’, ‘शहर के बीच मौत’ जैसी कई महत्वपूर्ण लघुकथाओं का चयन इस संग्रह में शामिल है। राजनीति के विद्रूप चेहरे को बेनकाब करती ‘रीढ़’, ‘हरि इच्छा बलवान’, ‘मूर्ति’, ‘फरियाद’ तथा धार्मिक असहिष्णुता पर ‘विधर्मी’ जैसी पैनी लघुकथाएँ संग्रह में मौजूद हैं। 
    कुल मिलाकर संग्रह में सुरेश जांगिड़ जी ने डॉ. दुबे जी की कई अच्छी लघुकथाओं की पुनर्प्रस्तुति की है। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि डॉक्टर साहब की कुछ अन्य बेहतरीन लघुकथाएँ इस संग्रह में होनी चाहिए थीं, भले कुछ शामिल लघुकथाओं को छोड़ना पड़ता। पर इस तरह के निर्णय हमेशा व्यक्ति सापेक्ष होते हैं, उनमें मशीनी निरपेक्षता संभव नहीं है। पुस्तक का परिचय देते हुए संपादक सुरेश जी के दृष्टिकोंण और प्रयास- दोनों का स्वागत है। इस संग्रह से गुजरने का अर्थ एक बड़े लघुकथाकार की लघुकथाओं से रू-ब-रू होना है। जो नए रचनाकार-पाठक डॉ. सतीश दुबे जी जैसे अग्रणी लघुकथाकार के संग्रह नहीं पढ़ पाये हैं, निसंदेह इस संग्रह के माध्यम से उनकी अनेक श्रेष्ठ लघुकथाओं का आस्वाद ले सकेंगे।

डॉ. सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएँ :   लघुकथा संग्रह। संपादक  :  सुरेश जांगिड़ उदय। प्रकाशक  :  अक्षरधाम प्रकाशन, करनाल रोड, कैथल-136027 (हरियाणा)। मूल्य :  (भारत में) रु.180/-, (विदेश में) $ 18 यू.एस.डालर। संस्करण  :  2013। 



प्रेमचंद के साथ लघुकथा की कसौटी के औजारों की तलाश

लघुकथा पर विमर्श और शोध कार्य अब तक काफी मात्रा में हो चुका है, तदापि लघुकथा की सामयिक समालोचना पर अभी उतना कार्य भी नहीं हुआ है, जितने न्यूनतम की अपेक्षा की जाती है। अधिकांश विमर्श और शोध लघुकथा के विधागत तत्वों के निर्धारण-परीक्षण तक सीमित रहा है। अधिकांशतः लघुकथा के लेखक ही सामान्यतः विमर्श के प्रणेता व भागीदार रहे हैं और कहीं न कहीं अधिकांश के अपने-अपने ‘रिजर्वेशन्स’ रहे हैं। इस संदर्भ में एक तथ्य यह है कि उदाहरण देने के लिए अधिकतर को अपनी ही लघुकथाएँ उपयुक्त लगती हैं तो दूसरा यह कि लघुकथा के सामान्यतः स्वीकृत निकषों के संदर्भ में अधिकांश लघुकथाकारों ने अपनी ही अनेक रचनाओं पर पुनर्विचार का प्रयास शायद ही किया हो। संग्रहों-संकलनों को प्रकाशित करने की होड़ में अनेक रचनाएं, जो लघुकथा की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, खपा दी जाती रही हैं। भाई-चारे की समीक्षा-संस्कृति में उन पर बोलकर मतभिन्नताओं को मनभिन्नता या मनखिन्नता के दरवाजे पर ले जाकर कौन खड़ा करे? ऐसी ही स्थितियों के मध्य डॉ. बलराम अग्रवाल ने प्रेमचंद की लघ्वाकारीय कथा रचनाओं को आधार बनाकर लघुकथा-समालोचना के लिए कसौटी के औजार तलाशने के प्रयास में ‘समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद’ पुस्तक का संपादन किया है। इस कार्य के लिए सीधे ‘समकालीन लघुकथा’ रचनाओं को आधार क्यों नहीं बनाया गया, इसका स्पष्टीकरण उन्होंने भूमिका में दिया है। ‘‘...इस कार्य के लिए अभी तक न तो कोई मानक लघुकथा तय हो पाई है और न ही मानक लघुकथाकार।....’’ यह वस्तुस्थिति है (क्यों....?), तो शुरूआत कहां से की जाये? कहीं से तो करनी होगी। शायद जोखिमों से बचते हुए जोखिम वाले काम की शुरूआत करने का एक अच्छा विकल्प था किसी अमर कथाकार की लघ्वाकारीय कथा रचनाओं को आधार बनाना, जो समकालीनता के सर्वाधिक निकट हो। निसंदेह सर्वाधिक उपयुक्त ‘प्रेमचंद’ को आधार बनाकर लघुकथा की कसौटी के औजारों की तलाश के दो अतिरिक्त दूरगामी लाभ दृष्टिगोचर हो रहे हैं, एक- प्रेमचंद जैसे प्रतिष्ठित कथाकार की रचनाओं पर बोलने से लघुकथा के स्वतंत्र समीक्षक-समालोचक बनने के रास्ते में जो संकोच हैं, उनके दूर होने का आधार तैयार हुआ है; दूसरा- प्रेमचंद ‘समकालीन लघुकथा’ के ऐसे आधार बिन्दु बनकर उभरे हैं, जिसकी ओर हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी के लघुकथाकार मुड़कर देख सकते हैं। और शायद लघुकथा में ही मानक रचनाएं और मानक रचनाकार तय (स्वीकार) करने में भी इस कार्य से कुछ अप्रत्यक्ष मदद मिल सके।
     बलराम अग्रवाल जी ने इस पुस्तक को परिचर्चात्मक आलेखों के जरिये समालोचना का रूप दिया है। इसके लिए उन्होंने प्रेमचंद की 14 लघ्वाकारीय कथा रचनाओं (जिनमें लघुकथा के तत्वों की तलाश संभव थी) को अपने कुछ प्रश्नों के साथ लघुकथा से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे अनेक विद्वानों को उनकी समालोचनात्मक सम्मति के लिए भेजा था। सप्रयास प्रत्युत्तर में प्राप्त 25 विद्वानों के आलेखों के साथ तीन विद्वानों के अनूदित या मूल आलेख अन्य स्रोतों से लेकर एवं एक स्वयं के आलेख के साथ यानी कुल 29 विद्वानों के आलेख पुस्तक में शामिल हैं। इनमें कुछ प्रमुख विद्वान हैं- सर्वश्री कमल किशोर गोयनका, भगीरथ, सतीश दुबे, सूर्यकांत नागर, अशोक भाटिया, कृष्णानंद ‘कृष्ण’, पृथ्वीराज अरोड़ा, हरमहेन्द्र सिंह बेदी, वेदप्रकाश अमिताभ, रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’, रूप सिंह चंदेल, रामयतन यादव, गौतम सान्याल, सुभाष नीरव, श्यामसुन्दर दीप्ति, श्यामसुन्दर अग्रवाल,  व्यासमणि त्रिपाठी, सतीशराज पुष्करणा आदि। अधिकांश विद्वानों ने प्रेमचंद की विचारार्थ 14 लघ्वाकारीय कथा रचनाओं में से कुछ को स्पष्टतः समकालीन लघुकथा के सांचे में स्वीकार किया है, कुछ को पूरी तरह अस्वीकार। कुछ रचनाओं पर मतभिन्नता है। लेकिन खास बात यह है कि सभी ने स्वीकार-अस्वीकार के कारणों पर रोशनी डालकर समालोचना की जमीन तैयार करने में योगदान किया है। यह बेहद महत्वपूर्ण है। दूसरे, यह समालोचना भले प्रेमचंद की रचनाओं पर केन्द्रित है पर अप्रत्यक्षतः अनेक समकालीन लघुकथाकारों को आइना दिखाने जैसी है। हमारे समकलीन लघुकथाकार इस पूरी पुस्तक को पढ़ें तो निश्चय ही वे अपने लेखन और समग्रतः लघुकथा के उन्नयन के लिए काफी कुछ कर पाएंगे। यह कहना कि शोधार्थियों और समालोचना में काम करने वालों के लिए पुस्तक बेहद उपयोगी होगी, महज रस्म अदायगी जैसा होगा, वास्तविकता यह है कि सृजनरत लघुकथाकारों, विशेषतः नवांकुरों के लिए भी यह बेहद उपयोगी है।
समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद :  समालोचना । संपादक :  बलराम अग्रवाल। प्रकाशक: ग्रंथ सदन, 27/109ए/3,भूतल, पांडव रोड, शंकरगली के सामने, ज्वालानगर, शाहदरा, दिल्ली-32। संस्करण: 2012। मूल्य: रु.280/- मात्र।

  • एफ-488/2, गली सं.11, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखण्ड) 





डॉ. रामकुमार घोटड़


एक गधे का प्रमोशन :  आधुनिक समाज का हकीकती दस्तावेज

    साहित्यिक उत्तराधिकार की परंपरा का निर्वाह करने वाले ललित नारायण जी जीवन के सातवें दशक में भी लेखन की निरंतरता बनाये हुए हैं। इस अवस्था में लेखन की सक्रियता को अगर हम संस्कारों की देन न कहे तो क्या कहें? अपने रचनाधर्मिता के पांच दशकों में ललित जी ने बहुत लिखा, अपनी लेखन सामग्री में वर्तमान तक साठ पुस्तकें प्रकाशित व लगभग अस्सी पांडुलिपियाँ प्रकाशन के इन्तजार में हैं। इनका लेखन व्यंग्य विधा में रहा है। गद्य एवं पद्य, दोनों में बराबर लिखा है लेकिन लेखन का मुखर व्यंग्य भरा अधिक सामने आया है। गद्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ लघुकथा विधा में भी सफलता पूर्वक रचनाधर्म को निभाया है। इसका उदाहरण है ‘व्यथारोग’ (2005) तथा ‘एक गधे का प्रमोशन’ (2012) लघुकथा पुस्तकें व विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ।
    समीक्ष्य कृति ‘एक गधे का प्रमोशन’ एक एकल व्यंग्य लघुकथा संग्रह है। सभी लघुकथाएं व्यंग्यात्मक शैली की हैं। इस पुस्तक के पठनोपरान्त ‘रागदरबारी’ और ‘एक गधे की आत्मकथा’ की बरबस ही याद हो आती है। परिवेश का यथार्थमयी प्रस्तुतीकरण दिया है श्रीमान ललित नारायण जी ने। आम आदमी के जीवन में प्रतिदिन घटित क्षण, आपाधापी, संवेदनहीन, स्वार्थपूर्ण मतलबी रिश्ते, मर्यादाओं से परे दोगली राजनीति के चरित्र को उजागर करती हुई इस पुस्तक की लघुकथाएं हमें अपने आप में झांकने को मजबूर करती हैं और यह जानने की ओर इशारा करती हैं कि अपने को तलाश करो कि तुम इन्सानी चोले में हो या बाहर। ललित जी के ये व्यंग्य ही नहीं हैं बल्कि आधुनिक समाज का हकीकती दस्तावेज के पन्ने हैं, जिनमें प्रत्येक पल की तस्वीरें अंकित हैं।
    यूं तो इस संग्रह की लगभग सभी लघुकथाएं पठनीय हैं, फिर भी आदमी के घर जाने पर सजा, शुद्ध भैंस, मेहनतकसों के बीच, गमी, महाभोज, तम्बोला, दारू की बोतल, आदमी का अ-आदमीपना, खरगोश और कछुआ, राम की वापसी, रिश्वत का सहारा, भागीरथ प्रयास, बराबर के हो गये, समय का सत्य, स्वार्थ लघुकथाएं बेजोड़ हैं।
    लघुकथाओं के साथ कुछ व्यंग्य रचनाएं भी इस पुस्तक में हैं, जिनमें पुस्तक शीर्षक वाली व्यंग्य रचना ‘एक गधे का प्रमोशन’ के साथ ‘तू आती क्या राजनीति में’, ‘नमक मैं और मेरा देश’, सड़क ढूँढ़ो प्रतियोगिता’ आदि रचनाएं व्यंग्य लेखन का बेहतरीन नमूना हैं।
    पुस्तक में कुछ लघुकथाओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी प्रकाशित किया गया है, जिससे लेखक के प्रचार-प्रसार और लोकप्रियता का अहसास होता है।
     ललितनारायण जी एक सिद्धहस्त साहित्यकार एवं यायावर कलम के धनी हैं। उन्होंने विरासत में मिले रचनाधर्मी संस्कारों को अपनी लेखनी के माध्यम से फलने-फूलने दिया है। व्यंग्यप्रधान लघुकथाएं अपने आप में लघुकथा की एक विशिष्ट शैली है। शैली विशेष की इतनी सारी लघुकथाएं एक साथ पढ़कर पाठक आनन्दानुभूति के साथ संतुष्टि महसूस करेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।

एक गधे का प्रमोशन :  व्यंग लघुकथाओं एवं व्यंग्यालेखों का संग्रह। लेखक :  ललित नारायण उपाध्याय। प्रकाशक :  साहित्य संगम, सुदामानगर, इन्दौर, म.प्र.। मूल्य :  रु. 50/- मात्र।  पृष्ठ :  116। संस्करण :  2012।
  • सादुलपुर, चूरू, राजस्थान।

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 11-12,  जुलाई-अगस्त 2013 



डॉ. ‘अरुण’ ‘श्री मठ’ के प्रतिष्ठित ‘तुलसी सम्मान’ से विभूषित


  13 अगस्त की शाम हरिद्वार के संत समाज और बुद्धिजीवियों के लिए यादगार बन गई, जब ख्यातिलब्ध कवि, शोधकर्ता एवं समर्पित शिक्षक डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ को जगद्गुरु रामानंद द्वारा स्थापित ‘श्री मठ’, वाराणसी के वर्तमान पीठाधीश्वर श्री राम नरेशाचार्य जी ने राष्ट्रीय ‘तुलसी सम्मान’ से विभूषित किया!

    ‘तुलसी जयन्ती’ के पावन अवसर पर श्रद्धा भाव से मनाई गई महाकवि तुलसीदास की जयन्ति पर ‘श्री मठ’ के पीठाधीश श्री रामनरेशाचर्य जी ने ‘जैन राम काव्य’ के शोधकर्ता एवं विद्वान् डॉ ‘अरुण’ को ‘महाकवि तुलसी’ का प्रतिरूप मानकर ‘मंगल तिलक’ लगाया और अंग-वस्त्र, स्मृति-चिन्ह, प्रसाद और 51000/- रुपए देकर सम्मानित किया! ‘अभिनन्दन पत्र’ में डॉ ‘अरुण’ को ‘साहित्य, शिक्षा और शोध की त्रिवेणी’ बताते हुए उनके बहुमुखी साहित्यिक अवदान को सराहा गया! विभिन्न पीठों के धर्माचार्यों ने डॉ ‘अरुण’ को यह ‘सम्मान पत्र’ एक साथ मिल कर समर्पित किया!
    डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा कि महाकवि तुलसी की पावन जयन्ति पर ’गंगा-तीर्थ’ हरिद्वार में मिला यह सम्मान निस्संदेह प्रभु श्री राम का वरदान ही है! डॉ ‘अरुण’ ने कहा कि महाकवि तुलसी ने ‘राम’ को घर-घर पहुंचा कर भारत को नवजीवन और आस्था का अमृत दिया था, जिस ने भारत को आज तक प्राणवान बना रक्खा है!
    श्री मठ के पीठाधीश्वर राम नरेशाचार्य जी ने कहा कि तुलसी जैसा महाकवि विश्व में आज तक कोई हुआ ही नहीं, जिसकी रचना को घर-घर में ‘पूजा’ जाता है! इस अवसर पर गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डॉ कमल कान्त बुधकर एवं उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डॉ सुशील उपाध्याय सहित अनेक संत, महंत एवं ‘श्री मठ’ के विद्वान व्यक्ति उपस्थित रहे!

बाल साहित्य चिंतन पर द्वीप लहरी का महत्वपूर्ण विशेषांक प्रकाशित

हिन्दी साहित्य कला परिषद, पोर्टब्लेयर द्वारा प्रकाशित प्रतिष्ठित प्रत्रिका ‘द्वीप लहरी’ का बाल साहित्य चिंतन पर बहुप्रतीक्षित एवं महत्वपूर्ण विशेषांक (अगस्त-दिसंबर 2013) प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. बलराम अग्रवाल के सौजन्य संपादन में प्रकाशित हो गया है। इस विशेषांक में बाल चिंतन पर डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, राजकमल, दिविक रमेश, रूप सिंह चन्देल, अनिल पतंग, ओमप्रकाश कश्यप आदि 17 लेखकों के महत्वपूर्ण आलेख हैं, जिनमें बाल साहित्य से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। अन्य सामग्री के साथ श्री महावीर प्रसाद जैन ने संस्मरण में अपने पराग के संपादन से जुड़े दिनों को याद किया है। उम्मीद है यह अंक बाल साहित्य में कुछ नई संभावनाओं के द्वार खोलेगा। विशेष बात यह है कि हिन्दी के प्रसारार्थ  परिषद ने इस अंक को निशुल्क वितरित करने का फैसला किया है।


अभिनव इमरोज का लघुकथा विशेषांक शीघ्र

सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘अभिनव इमरोज’ का दिसम्बर अंक लघुकथा विशेषांक होगा, जिसके अतिथि संपादक वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुकेश साहनी एवं श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमान्शु’ होंगे। लघुकथाएं 15 अक्टूबर 2013 तक यूनीकोड, सुषा, वाकमैन, चाणक्य या कृतिदेव 010 फोण्ट में ईमेल द्वारा     संहीनांजीं89/हउंपसण्बवउ पर या डाक द्वारा श्री सुकेश साहनी, 193/21, सिविल लाइन्स, बरेली-243001, उ.प्र. के पते पर भेजी जा सकती हैं। (समा. सौजन्य: रामेश्वर काम्बोज ‘हिमान्शु’)




राजेन्द्र परदेसी को केरल हिन्दी साहित्य अकादमी का सम्मान





वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र परदेसी को केरल हिन्दी साहित्य अकादमी का ’साहित्य श्री’ सम्मान मानव संसाधन विकास मंत्रालय के दस हजार रुपये के पुरस्कार के साथ प्रदान किया गया है। परदेसी जी को यह सम्मान हिन्दी भाषा एव साहित्य के उन्नयन एवं संवर्धन में उत्कृष्ट उपलब्धियों तथा महत्वपूर्ण योगदान के लिए प्रदान किया गया है। (समा. सौजन्य :  राजेन्द्र परदेसी)



साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला को अकादमी पुरस्कार 


सुपरिचित साहित्यकार श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला को बाल साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए राजस्थान साहित्य अकादमी ,उदयपुर द्वारा शम्भूदयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार प्रदान किया गया है। यह पुरस्कार उनकी चर्चित बाल साहित्य कृति ‘नया सवेरा’ के लिए दिया गया है। राजस्थान राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, उदयपुर के सभागार में आयोजित साहित्य पर्व -2013 एवं मीरा समारोह में श्री  ठकुरेला  को इस पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। अकादमी के उपाध्यक्ष श्री आबिद अदीव ने श्री ठकुरेला का माल्यार्पण कर स्वागत किया। अकादमी अध्यक्ष श्री वेद व्यास ने शॉल, सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री  बालकवि बैरागी ने सम्मान-पत्र, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने स्मृति-चिन्ह, अकादमी सचिव डॉ. प्रमोद भट्ट ने पुरस्कार राशि (रु.15000 /=) एवं गुजराती के चर्चित साहित्यकार डॉ. केशुभाई देसाई ने पुष्पगुच्छ भेंट किया। इस अवसर पर राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य की विविध विधाओं में किये गए  उल्लेखनीय कार्य के लिए कुल 26 साहित्यकारों को पुरस्कृत एवं सम्मानित किया गया। उल्लेखनीय कार्य के लिए कुल 26 साहित्यकारों को पुरस्कृत एवं सम्मानित किया गया। (समाचार सौजन्य: त्रिलोक सिंह ठकुरेला) 

अविराम के अंक

अविराम साहित्यिकी 
(समग्र साहित्य की समकालीन त्रैमासिक पत्रिका)


खंड (वर्ष) : 2 / अंक : 2   / जुलाई -सितम्बर  2013   (मुद्रित)

प्रधान सम्पादिका : मध्यमा गुप्ता
अंक सम्पादक : डा. उमेश महादोषी 
सम्पादन परामर्श : डॉ. सुरेश सपन
मुद्रण सहयोगी : पवन कुमार




रेखांकन : सिद्धेश्वर 
अविराम का यह मुद्रित अंक रचनाकारों व सदस्यों को 19 अगस्त  2013  को तथा अन्य सभी सम्बंधित मित्रों-पाठकों को 28 अगस्त 2013   तक भेजा जा चुका  है। 10 सितम्बर 2013 तक  अंक प्राप्त न होने पर सदस्य एवं अंक के रचनाकार अविलम्ब पुन: प्रति भेजने का आग्रह करें। अन्य  मित्रों को आग्रह करने पर उनके ई मेल पर पीडीऍफ़ प्रति भेजी जा सकती है। पत्रिका पूरी तरह अव्यवसायिक है, किसी भी प्रकाशित रचना एवं अन्य  सामग्री पर पारिश्रमिक नहीं  दिया जाता है। इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है- 


।।सामग्री।।

लघुकथा के स्तम्भ :  महावीर प्रसाद जैन (3) 

अनवरत-1(काव्य रचनाएँ) :  सुभदा पाण्डेय(7), डॉ.सुरेन्द्र वर्मा व बी.एस.गौतम (8), स्व.राकेश वत्स (9), प्रशान्त उपाध्याय व शेर सिंह (10),  डॉ.रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ व डॉ.नलिन (11) तथा  राजेन्द्र परदेसी, डॉ. रामनिवास ‘मानव’ व  प्रतिभा माही (12)


मेरी लघुकथा यात्रा :  श्याम सुन्दर अग्रवाल (13)

विमर्श :  रचना का मौलिक अधिकार: भगवान अटलानी (16) व  निर्माण की प्रक्रिया में उथलपुथल तो होगी ही: रेखा चमोली (19)

आहट  :  डॉ. सुधा गुप्ता व सुदर्शन रत्नाकर की क्षणिकाएँ (21) 

बहस :  डॉ. विजय प्रकाश (22), श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी (23), कृष्ण सुकुमार (24), डॉ. शरद नारायण खरे (25), कुँवर प्रेमिल (27), राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ व खान अब्बास ‘संगदिल’ (28)।
कविता के हस्ताक्षर प्रदीप कान्त (30) व देवेन्द्र रिणवा (32)।

कथा कहानी  : अंतिम परत/डॉ. सतीश दुबे (34) जिन्दगी: थोमस जोर्ज/अनुवाद के.जी. बालकृष्ण पिल्लै (38) 
व्यंग्य वाण :  सुख उड़ने-उड़ाने का/डॉ.गोपाल बाबू शर्मा (40), देश की एकता में कवि सम्मेलनों का योगदान/ध्रुव तांती (41) एवं मदन बाबू/ओम प्रकाश मंजुल (42) 

अनवरत-2 (काव्य रचनाएँ) :  डॉ. सुरेश उजाला व प्रो. विनोद अश्क (44), विजय चतुर्वेदी व डॉ. मालिनी गौतम (45), प्रकाश श्रीवास्तव, प्रो. रमेश सिद्धार्थ व केशव शरण (46),  विज्ञान व्रत, अमित ‘अहद’ व सूर्यकान्त श्रीवास्तव (47) अजय अज्ञात व पूजा भाटिया प्रीति (48)  तथा वन्दना गुप्ता व विवेक चतुर्वेदी (49) 


कथा प्रवाह (लघुकथाएँ) :  डॉ.बलराम अग्रवाल व संतोष सुपेकर (50), हरनाम शर्मा व के.एल. दिवान (51), सिद्वेश्वर (52), उषा अग्रवाल (53),  सत्य शुचि व गुरुनाम सिंह रीहल (54),  अरविन्द अवस्थी (55),  बच्चन लाल बच्चन व मनोहर शर्मा ‘माया’(56),  अहफ़ाज अहमद कुरैशी व डॉ. नन्द लाल भारती (57),  डॉ. मुक्ता व डॉ. नरेन्द्र नाथ लाहा (58) तथा  सुखपाल सिंह व देशपाल सिंह सेगर (59) 

अनवरत-3 (काव्य रचनाएँ)  :  डॉ. रामशंकर चंचल व अशोक भारती  देहलवी (60), सुजीत आर. कर व गांगेय कमल (61), धर्मेन्द्र गुप्त ‘साहिल’, संजीव कुमार अग्रवाल व ऊषा कालिया (62) 

किताबें (संक्षिप्त समक्षाएँ) :  बदलते समय की सटीक कहानियां: डॉ.सतीश दुबे के कहानी संग्रह ‘कोलाज’ की (63), विद्योत्तमा के वास्तविक सत्य तक पहुंचने का प्रयास: डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा के महाकाव्य ‘वैदुष्यमणि विद्योत्तमा’ की (65) व प्रेमचंद के साथ लघुकथा की कसौटी के औजारों की तलाश: डॉ0 बलराम अग्रवाल संपादित समालोचना पुस्तक ‘समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद’ की (66) डॉ.उमेश महादोषी द्वारा संक्षिप्त समीक्षाएं।


माइक पर :
उमेश महादोषी का संपादकीय (आवरण 2) 

हमारे आजीवन सदस्य  : 
अविराम साहित्यकी के आजीवन  सदस्यों की सूची (6)


चिट्ठियाँ  :
विगत अंक पर प्रतिक्रियाएं (68)

गतिविधियाँ  :
संक्षिप्त साहित्यिक समाचार (70)

प्राप्ति स्वीकार :
त्रैमास में प्राप्त विविध प्रकाशनों की सूचना (72)


इस अंक की साफ्ट (पीडीऍफ़) प्रति ई मेल (umeshmahadoshi@gmail.com) अथवा  (aviramsahityaki@gmail.com)  से मंगायी जा सकती है।

इस अंक के पाठक अंक की रचनाओं पर इस विवरण के नीचे टिप्पणी कालम में अपनी प्रतिक्रिया स्वयं पोस्ट कर सकते हैं। कृपया संतुलित प्रतिक्रियाओं के अलावा कोई अन्य सूचना पोस्ट न करें। 

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

ब्लॉग का मुख पृष्ठ

अविराम  (ब्लॉग संकलन) :  वर्ष  : 2,   अंक  : 9-10,  मई-जून 2013

प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09412842467)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन  
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 

शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के "अविराम का प्रकाशन" लेवल/खंड में दी गयी है।
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क्षणिका विशेषांक के सम्बन्ध में आवश्यक सूचना सम्पादकीय पृष्ठ पर देखें। 
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रेखाचित्र : राजेन्द्र परदेसी 


।।सामग्री।।
कृपया सम्बंधित सामग्री के पृष्ठ पर जाने के लिए स्तम्भ के साथ कोष्ठक में दिए लिंक पर क्लिक करें। 


सम्पादकीय पृष्ठ { सम्पादकीय पृष्ठ } : उमेश महादोषी का सम्पादकीय एवं अविराम के बारे में जरुरी सूचना।

अविराम विस्तारित : 
काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत:    इस अंक में सर्वश्री हरनाम शर्मा, गणेश भारद्वाज ग़नी, डॉ. सुरेश उजाला, अजय चन्द्रवंशी, सुधीर कुमार मौर्य एवं सुश्री विनोद कुमारी किरन की काव्य रचनाएं।

लघुकथाएँ   {कथा प्रवाह} :  इस अंक में डॉ.सतीश दुबे, श्री श्यामसुन्दर अग्रवाल, सु-श्री शोभा रस्तोगी ‘शोभा’, श्री अहफ़ाज़ अहमद कुरैशी, डॉ नन्द लाल भारती व श्री किशन लाल शर्मा की लघुकथाएं।

कहानी {कथा कहानी  नई पोस्ट नहीं

क्षणिकाएँ  {क्षणिकाएँ:   सु-श्री राजवन्त राज की क्षणिकाएँ।
हाइकु व सम्बंधित विधाएँ  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  : इस अंक में डॉ मिर्जा हसन नासिर की हाइकु आधारित रचनाएँ

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द:   डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया 'अराज'  के पाँच जनक छंद।

बाल अविराम {बाल अविराम:  बाल अविराम के इस अंक में प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि प्रभुदयाल श्रीवास्तव की दो कविताएँ सक्षम गंभीर, राधिका शर्मा व मिली भाटिया के चित्रों के साथ।
हमारे सरोकार  (सरोकार) :   नई पोस्ट नहीं

व्यंग्य रचनाएँ  {व्यंग्य वाण:   नई पोस्ट नहीं

संभावना  {सम्भावना:    नई पोस्ट नहीं

स्मरण-संस्मरण  {स्मरण-संस्मरण:  नई पोस्ट नहीं

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} : सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं चिन्तक डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी के साथ वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र परदेसी की बातचीत।

किताबें   {किताबें} :  इस अंक में वरिष्ठ कथाकार डॉ. सतीश दुबे के कहानी संग्रह ‘‘कोलाज’’ की तथा वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ के महाकाव्य "वैदुष्यमणि विद्योतमा" की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा द्वारा लिखित समीक्षायें।
लघु पत्रिकाएँ   {लघु पत्रिकाएँ} :  नई पोस्ट नहीं

हमारे युवा  {हमारे युवा} :  नई पोस्ट नहीं

गतिविधियाँ   {गतिविधियाँ} : पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।
अविराम की समीक्षा (अविराम की समीक्षा) : नई पोस्ट नहीं

अविराम के अंक  {अविराम के अंक} :   नई पोस्ट नहीं

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  विराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के 30 जून  2013  तक अद्यतन आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार  {अविराम के रचनाकार} : नई पोस्ट नहीं