आपका परिचय

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 11-12  :  जुलाई-अगस्त  2014

।। जनक छंद ।। 

सामग्री : पं. ज्वालाप्रसाद शांडिल्य ‘दिव्य’ के बारह जनक छंद। 


पं. ज्वालाप्रसाद शांडिल्य ‘दिव्य’



{पं. ज्वालाप्रसाद शांडिल्य ‘दिव्य’ का जनक छंद संग्रह ‘मन के नयन हजार हैं’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से ‘दिव्य’ जी के कुछ जनक छंद।}

बारह जनक छन्द

01.
स्वाभिमान को खो नहीं
चाहत पूरी हो नहीं
अंधे आगे रो नहीं
02.
ग्रहण किये परिवेश को 
देश और परदेश में
भूलो मत निज देश को
03.
आभायुक्त विशेष है
जन्मभूमि सुखधाम की
भारत देश विशेष है
04.
होवे शमन कलेश का
चलन चलें अवधेश का
मान बढ़े तब देश का
05.
प्रभा उगे ऊष्मा लिये
ओज तेज प्रतिभा बढ़े
बढ़े चलें गरिमा लिये
06.
नित्य दगा दे आदमी
ठगा-ठगा है आदमी
खूब भला है आदमी
07.
लगे शक्ल से आदमी
चाल-चलन से भेड़िया
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
दीख रहा है आदमी
08.
घात-घात पर घात हो
गम ढोते हैं रात-दिन
पल-पल दृग बरसात हो
09.
दर्द लिये हर भोर है
फिर भी जीवित आदमी
बेचैनी हर ओर है
10.
साहस और उमंग हो
उद्धत हो जीवन कला
खुशहाली का रंग हो
11.
अधिकारों की बाढ़ है
कमर तोड़ती देश की
स्वारथ बुद्धि प्रगाढ़ है
12.
मनके नयन हजार हैं
राजा-रंक-फकीर तक
इसके सभी शिकार हैं

  • 251/1, दयानन्द नगरी, ज्वालापुर, हरिद्वार-249407 (उत्तराखण्ड) / मोबाइल :  09927614628

बाल अविराम

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 11-12 , जुलाई-अगस्त 2014



।। बाल अविराम ।।


सामग्री :  डॉ. सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी की बाल कविता बाल चित्रकार राधिका शर्मा के चित्र के साथ। 


डॉ. सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी


वृक्षदेव

सबसे श्रेष्ठ हैं वृक्षदेव।
देते नित आम सन्तरा सेव।
मिलती इनसे शुद्ध हवा,
सभी रोगों की तन्त दवा।
इनसे पाते लकड़ी घास,
और भी कई तरह की आश।
भू-क्षरण भी वृक्ष रोकते,
वर्षा जल जड़ों से सोखते।
तब धरा-गर्भ में टिकता जल,
चित्र : राधिका शर्मा 

होता समस्याओं का हल।
पर्यावरण भी होता निर्मल,
शुभ होता है इससे हर कल।
प्रत्यक्ष देव हैं ये सब पेड़,
पलती भैंसें बकरी भेड़।
कई उद्योगों का आधार,
इनसे बनते हैं घर-द्वार।
ईंधन के भी काम में आते,
इन्हें बीनने जंगल जाते।
रोजगार भी इनसे मिलता,
इन्हें देख चेहरा है खिलता।
शहर-गांव के जनों को जगायें,
आवो मिल सब वृक्ष लगायें।

  • प्रभारी प्रधानाचार्य, राज. इं. कालेज, रणसोलीधार (चन्द्रवदनी), पो.आ. पुजार गांव वाया हिंडोला खाल, जिला टिहरी गढ़वाल-249122, उ.खंड / मोबाइल : 09690450659

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 11-12,  जुलाई-अगस्त  2014


।। व्यंग्य वाण ।।

सामग्री :  श्री दिनेश रस्तोगी की दो व्यंग्य गजलें।


दिनेश रस्तोगी




दो व्यंग्य गज़लें

01.                   
मंत्री जी और साला  है।
भूत के हाथ में भाला है।
काली मांद का कारिन्दा,
उसका दिल भी काला है।
राजघाट के एक तरफ,
राजनीति का नाला है।
लोकतंत्र है नाम मगर,
सब गड़बड़ घोटाला है।
शोषण की शिकार है जो,
उसके मुंह पर ताला है।
इस करबट या उस करबट,
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 

ऊंट बैठने .....वाला है।
जिससे हम समझे महफूज़,
पड़ा उसी से ....पाला है।

02.
बुद्धिमानों! आपदा का दौर है।
मूर्ख होने का मज़ा कुछ और है।
हुये होंगे तब के सब नेता महान,
आजकल तो गुंडई सिरमौर है।
खा के क्या अपना बनाओगे उसे,
जिस्म से जो पास, दिल इंदौर है।
उम्र दफना कर कमाते जितना हो,
एक मंत्री के वो मुंह का कौर है।
इस प्रदूषण ने कर दिया सारा उलट,
अब न वो बारिश,न अब वो बौर है।
क्या निकालें बाल की हम खाल अब,
जब कि सिर में अब न उनका ठौर है।

  • निधि निलयम, 8-बी, अभिरूप; साउथ सिटी, शाहजहांपुर (उ.प्र.)242226 / मोबाइल : 09450414473



अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष :03, अंक : 09-10,  मई-जून 2014 

।।संभावना।।

सामग्री : सुश्री कमलेश सूद अपनी दो कविताओं के साथ।


कमलेश सूद



दो कविताएँ 

अच्छाई

अच्छाई-
एक सुगन्ध है
सुरभि सी फैलती है
चहुँ ओर 
सुबह की धूप जैसी 
देती है शीतलता
और बनकर चिड़िया
चहकती है, महकती है
बन कस्तूरी।
छाया चित्र :  उमेश महादोषी 


अहम्

आज भी पुरुष
वही पुरानी चादर 
ताने हुए अहम् की
तना हुआ है।

सदियों से
नारी की 
कोमल भावनाओं, वेदनाओं और
संवेदनाओं को वह
महसूसता ही नहीं।

अपने अहम् की धुरी की
करता है परिक्रमा
और सुविधानुसार बदलता है रंग
गिरगिट की तरह।
  • वार्ड नं. 3, घुघर रोड, पालमपुर-176061 (हि.प्र.) / मोबा. :  09418835456

अविराम विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 3,  अंक : 11-12,  जुलाई-अगस्त 2014 

।।विमर्श।।
  
सामग्री : मारीशस के वरिष्ठ साहित्यकार श्री राज हीरामन जी के साथ मॉरीशस व विश्व के अन्य हिस्सों में हिन्दी साहित्य की स्थिति एवं हीरामन जी के अपने साहित्य के बारे में श्री राजेन्द्र परदेसी जी की बापचीत।


मॉरीशस ने अपनी हिन्दी में सृजन करना सीख लिया है : राज हीरामन

श्री राज हीरामन 

{मॉरीशस के वरिष्ठ साहित्यकार श्री राज हीरामन के साथ मॉरीशस व विश्व के अन्य हिस्सों में हिन्दी साहित्य की स्थिति एवं हीरामन जी के अपने साहित्य के बारे में पिछले दिनों श्री राजेन्द्र परदेसी जी ने एक बातचीत की। यहां प्रस्तुत हैं उस बातचीत के कुछ प्रमुख अंश।}


श्री राजेन्द्र परदेसी 
राजेन्द्र परदेसी :  युवा पीढ़ी आप के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ विशेष जानना
चाहेगी, जैसे आपका जन्म-स्थान वहाँ का वातावरण आदि।

राज हीरामन :   मेरा जन्म 11 जनवरी 1953 को एक गरीब परिवार में हुआ। पिता को देखा नहीं, माँ मज़दूरी करती थी। 10 बच्चों में मैं अंतिम संतान था। माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त की। आरम्भ में मज़दूरी की फिर पुलिस कान्स्टेबल और बाद में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर का अध्यापक बना। रूस में पत्रकारिता की। स्थानीय रेडियो, टी.वी पर सालों तक पत्रकार रहा, “स्वदेश”, हिन्दी साप्ताहिक का सम्पादन किया। दो बेटियाँ लण्डन में शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। उनकी माँ का स्वर्गवास हो चुका है, अकेला रहता हूँ। देर से पर 1997 में लिखना शुरू किया और पहली पुस्तक छपी। अब तक 21 पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनाधीन कई कहानी संग्रह और तेरा गाँव बड़ा त्याज्य (यात्रा संस्मरण)।

राजेन्द्र परदेसी :  वे कौन थे, जिनसे आप प्रेरणा पाते हैं, जिनसे प्रभावित होकर आप रचना कर्म की दिशा में प्रस्तुत हुए हैं और होते रहते हैं?

राज हीरामन :   मेरी स्वर्गीय पत्नी, जिन्होंने सारे प्रेम-पत्र कविता में लिखे थे। उनका संकलन करके मुझे भेंट किया था। शादी के बाद और उनके चले जाने के बाद भी मैं लिखता ही आ रहा हूँ। कुंवर बेचेन, जब मॉरीशस पधारे थे और मेरे कमरे में रहते थे। शाम को दिन की लिखी कविता उनकी मेज़ पर रख देता था। वे रात को अपने कार्यक्रमों के बाद लौटते तो कविता देखते और लिख देते, ‘सुन्दर’ या ‘अति सुन्दर’। जब तक वे रहे हैं रोज़ ही कविता लिखता। उनके जाने के बाद भी लिखने की आदत बनी रही। कुंवर बेचेन ने मेरी क्षणिकाएँ पढ़ी और मुझे पत्र लिखा ‘आप अगर अब तक लघुकथाएँ न लिखते हो तो आप इन्हीं विचारों को उसमें पिरो सकते हैं।’ तब से अब तक मेरी तीसरी लघुकथा की पुस्तक छपने जा रही है।

राजेन्द्र परदेसी :  मॉरीशस के साहित्यिक वातावरण के विषय में आपकी क्या धारणा है?

राज हीरामन :   हिन्दी जैसे आप भारतीयों को विरासत में मिली है वैसे हम मॉरीशसवासियों को नहीं मिली। बहुत ही संघर्ष के बाद हमें हिन्दी प्राप्त हुई है। इसीलिए जैसे आपकी मातृ भाषा हिन्दी है। हमारे लिए हिन्दी दर्द है। संस्कार की भाषा है। मॉरीशस ने एक अपनी हिन्दी में सृजन करना सीख लिया है। वह प्रवासी हिन्दी ही... हमारी हिन्दी है। दर्द की भाषा है... सम्मान की भाषा है। इज़्जत की भाषा है। इसीलिए यहाँ एक अनुकूल वातावरण बनाने में हम कामयाब हुए हैं। हमारे यहाँ हिन्दी-सृजन खूब हो रहा है।

राजेन्द्र परदेसी:  मॉरीशस में प्रचार-प्रसार की स्थिति के बारे में कुछ बताइए।
राज हीरामन :   बच्चा 5 साल से विश्वविद्यालय स्तर तक हिन्दी निःशुल्क पढ़ रहा है। साथ ही पीएच. डी. तक के लिए हिन्दी में प्रावधान है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए आर्य समाज/सनातन सभाएँ/आर्य रविवेद प्रचारिणी सभा/ हिन्दी प्रचारिणी सभा आदि स्वैच्छिक संस्थाएँ कर्म कर रही है। भारत-मॉरीशस सरकार हमारे देश में हिन्दी सचिवालय की स्थापना कर रही है और वह छः वर्षों से कार्यरत है। हिन्दी-प्रकाशन भी तेज़ी पर हैं।
राजेन्द्र परदेसी:  हिन्दी के प्रति साहित्य सृजताओं से अलग अन्य लोगों की सोच क्या है?

राज हीरामन :   जहाँ यह हिन्दी भाषा के साहित्यकारों की चिंता है, वहाँ यह उन लोगों की भी चिंता है, जिन्हें हिन्दी नहीं आती पर इसके प्रति उद्गार व्यक्त करते हैं, कि हमारे मुल्क में हिन्दी का भविष्य क्या है? क्या यह इतनी सारी महाशक्तियों के दबाव में पनप सकती है? कि हमारे देश में हिन्दी साहित्य जो आज कुछ नामी और अच्छे साहित्यकारों की वजह से एनटिक और संवाद में गण्य है,इस का भविष्य कैसा होगा? क्या आने वाली पीढ़ी तैयार हो रही है? या कोई उनकी तैयारी के बारे में सोच भी रहा है?

राजेन्द्र परदेसी :  मॉरीशस की साहित्यिक संस्थाएँ साहित्य के प्रति कहां तक प्रतिबद्ध है?

राज हीरामन :   हमारे यहाँ साहित्यिक संस्थाएँ न के बराबर हैं। धार्मिक संस्थाएँ ही हिन्दी प्रचार-प्रसार करती आ रही हैं। हिन्दी प्रचारिणी सभा ही एक ऐसी संस्था है जो सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दी का कार्य कर रही है। पर ऐसा नहीं है कि हिन्दी साहित्य का कार्य नहीं हो रहा है। साहित्य सृजन यहाँ  ज़ोरों से चल रहा है। यद्यपि यहाँ प्रकाशन की सुविधाएँ अधिकतर नहीं है और महंगी है। फिर भी मॉरीशस ही ऐसा देश है जहाँ भारत से बाहर सबसे अधिक हिन्दी सृजन हो रहा है और हिन्दी प्रकाशन भी सबसे अधिक हो रहा है।

राजेन्द्र परदेसी : आपकी मातृ भाषा हिन्दी तो नहीं है, फिर भी आप हिन्दी के प्रति आपका लगाव क्यों हो रहा है?
राज हीरामन :   क्योंकि यह हमारा संस्कार है। यह हमारे बाप-दादों पर जो कोड़े अंग्रेज़ों ने बरसाए थे, वह दर्द ही हमारे लिए हिन्दी भाषा है। यह एक बहुत ही अहम धरोहर की भाषा है। यह हमारे भौंहों में बसती है। यह हमारे दिल में/हृदय में बसती है। हमारे खेतों की भाषा है/ प्रेम करने की भाषा है। संस्कार रूपी सांस्कृतिक चादर है हिन्दी। हिन्दी बोलना हमारे लिए वरदान है।

राजेन्द्र परदेसी :   साहित्य की किस विधा में आपकी विशेष रुचि है? और आप इस के अतिरिक्त किन-किन विधाओं में अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं?

राज हीरामन :   मेरी विशेष रुचि कविता है। मैंने कविता में ही प्रेम पत्र लिखना आरम्भ किया था। बाद में उन पत्रों का एक संकलन मेरे पत्नी के नाम पर है- ‘कविताएँ जो छप न सकीं’। पाँच काव्य संकलनों के प्रकाशन के बाद ही मेरा पहला कहानी-संग्रह छपा था। आजकल कहानी के साथ लघुकथा भी लिख रहा हूं। दो कहानी संग्रहों और दो लघुकथा-संग्रहों का प्रकाशन हो चुका है। हायकु, यात्रा-संस्मरण और डायरी भी लिख रहा हूं।

राजेन्द्र परदेसी :   मॉरीशस में साहित्य सृजन की क्या स्थिति है? आप इससे संतुष्ट हैं?

राज हीरामन :  मॉरीशस वह देश है, जहाँ भारत से बाहर सबसे अधिक हिन्दी धुरन्धर हैं। पूजानन्द नेमा, राज हीरामन, धनराज शम्भु, भानुमति नागदान, सुमति सन्धु, कुछ ऐसे रचनाकार है। कुछ दिनों पहले पूजानंद नेमा और पिछले साल भानुमति नागदान जी का स्वर्गवास हो चुका है। अभिमन्यु अनत को अगले सप्ताह साहित्य अकादमी का सर्वश्रेष्ठ सर्वाेत्तम सम्मान प्राप्त होने जा रहा है। उन्होंने अब तक हिन्दी में 85 पुस्तकों की रचना की है। जिनमें 60 उपन्यास हैं। रामदेव धुरंधर भी स्तरीय साहित्य लिख रहा है। बात संतुष्टि की नहीं है। एक गहरी चिन्ता है। आने वाले पीढ़ी के रचनाकार आगे आ नहीं रहे हैं अर्थात उनकी तैयारी नहीं हो रही है।

राजेन्द्र परदेसी :   आपके विचार से साहित्यकारों को प्रेरित करने के लिए कैसा वातावरण होना चाहिए?

राज हीरामन :   स्वच्छ वातावरण। ईमानदारी का वातावरण। सहानुभूति का वातावरण। सहिष्णुता का वातावरण। आक्रोश का वातावरण। शांत वातावरण ज़रूरी नहीं है। एकांत वातावरण ज़रूरी नहीं। नदी का कल-कल करता पानी। भौंरे का गुंजन, पहाड़-नदियाँ, उठती लहरें, हरे-भरे सुगंधित फूल की भी आवश्यकता नहीं! आज की माँग कुछ और है। आज आदमी अन्तर से बीमार है। तनावग्रस्त है! मानसिकता बिगड़ी हुई है। बच्चों के पालन-पोषण में फर्क आने के सहारे बदल रहा है। और ये सारी बातें लिखने के लिए आप हसीन होंठों से प्रेरित नहीं हो सकते।

राजेन्द्र परदेसी :   विश्व के स्तर पर हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रचार एवं प्रसार की दिशा में जो प्रयास हुए उन से आप कहाँ तक संतुष्ट हैं? कोई सुझाव भी देना चाहेंगे?

राज हीरामन :   हिन्दी भारत की भाषा है न! जहाँ 700 वर्ष मुगलों और 200 साल तक अंग्रेज़ों ने राज किया। तोड़ा। तहस-नहस किया। चुराया और रोका। इसके बावजूद भी हिन्दी को कोई रोक नहीं पा रहा है। कल यह बाज़ार की भाषा बन जाती है तो हिन्दी की धारा में से लोग बह जाएँगे और इनका पता तक नहीं चलेगा। यह उसी तरह है जैसे गांधी के कदमों पर चलने वाले नेलसन मंडेला, उनका पाँच बार नाम लेने वाले को तो शांति का नोबल पुरस्कार मिल गया पर स्वयं गांधी को यह सम्मान नहीं मिला। क्यों? क्योंकि वे भारत के थे। इसलिए।
      अभिमन्यु अनत को जो मेरे देश का है, उन्हें साहित्य अकादमी को सर्वाेच्य सम्मान मिलता है। यह हिन्दी और हिन्दी की अंतरार्ष्ट्रीयता ही तो है। भारत के बाहर यहाँ सबसे अधिक हिन्दी रचनाकारों के प्रकाशन हो रहे हैं। यह अंतरार्ष्ट्रीयता ही तो है। मॉरीशस में हिन्दी सचिवालय का सक्रिय होना। सब संकेत देता है कि भारत को छोड़ दुनिया के अन्य देश भी हिन्दी के विकास के लिए कटिबद्ध हैं। दिलो-जान से वे हिन्दी को चाहते हैं और जी-जान से उसके लिए काम कर रहे हैं। हिन्दी को राष्ट्र संघ में ले जाने की ज़रूरत है। हमें हिन्दी को उस गद्दी बैठाने के लिए चंदा की धन-राशि की ज़रूरत पड़ेगी। लगन, श्रद्धा और हिन्दी को गले लगाने की आवश्यकता है।

राजेन्द्र परदेसी :   अपने अनुभवों के आधार पर आप नयी पीढ़ी को क्या कहना चाहेंगे?

राज हीरामन :  सभी यही कहते हैं। आज का युवा कल का नेता। क्या युवा वर्ग यह समझ रहा है कि भावी में उसकी क्या भूमिका रहेगी? और इसके लिए क्या और कितना करना पड़ेगा? भावी पीढ़ी खोखली नज़र आ रही है। नशाखोरी में कितने ही जीवन बर्बाद हो रहे हैं। ज़िम्मेदारी, कर्त्तव्य, शिष्टाचार आदि का तो कोई एहसास ही नहीं रहा। अभी हाल ही में मैं पटना में था मेरे मित्र हरिदेश अपने पत्नी के साथ मुझे मिलने आया और रॉची लौटते ही एम.पी. मनोनित हुआ। तब मैंने लिखा- ‘‘गांधी, जेपी, राम मनोहर लोहिया तुममें जन्मे हैं? आज युवा पीढ़ी में हम गांधी, जेपी, टेगौर, दयानंद, विवेकानंद, लोहिया के पुनर्जन्म की आशा डाल सकते हैं?
   ‘‘आज की द्रौपदी को/दुर्योधन की प्रतीक्षा है/वह इसका विरोध भी करती है/कि कृष्ण उसके बदले/अपनी नाक न डाले।’’
     क्या आज की युवा पीढ़ी मेरी इस क्षणिका को झुठला सकती है? वह गांधी नहीं बन सके तो अपने को उनके चरण छूने के काबिल बनाए। काबिलयत बेशुमार है। उसका सही प्रयोग करे और ज़माने को बदल डाले।


  • राज हीरामन,  Morcellement Swan, Beau Manguiers, Pereybere, Grand Bay, Mauritius / मोबाइल :  230-59109094 / ई मेल : rajheeramun@gmail.com


  • राजेन्द्र परदेसी :  44, शिव विहार, फरीदी नगर, लखनऊ-226015 (उ.प्र.) भारत / मोबाइल :  09415045584

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 11-12, जुलाई-अगस्त  2014 

          {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति(एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें। स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा। }


।।किताबें।।

सामग्री : इस अंक में  श्याम सुन्दर अग्रवाल के  लघुकथा संग्रह 'बेटी का हिस्सा' की डॉ. सतीश दुबे द्वारा, उषा अग्रवाल ‘पारस’ द्वारा संपादित लघुकथा संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा तथा कपिलेश भोज के कविता संग्रह ‘ताकि वसन्त में खिल सकें फूल’ की श्रीनिवास श्रीकान्त द्वारा लिखित समीक्षाएं। 



डॉ. सतीश दुबे



तपस्वी सृजनधर्मी के बहुआयामी पक्षों को रेखांकित करता दस्तावेजी लघुकथा-संग्रह 



श्यामसुन्दर अग्रवाल पंजाबी-हिन्दी लघुकथा जगत के चर्चित तथा प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं। विगत तीस-चालीस वर्षों से अहर्निश अपने निरपेक्ष अवदानों के जरिये लघुकथा को इस नाम ने जो विशेष पहचान दी है, उसके सम्पूर्ण सिलसिलेवार ब्यौरे को शब्दों में बांधना गहरे और विस्तृत दरिया पर बांध बांधने जैसी दुष्कर या असम्भावित कल्पना है। कोई भी रचनाकार महज इसलिये महत्वपूर्ण नहीं होता है कि अपने सृजन के जरिये उसने ऊँचाइयाँ हासिल की हैं प्रत्युत इसलिए होता है कि उसने समकालीन या संभावनामय सृजकों को अपना हमसफ़र बनाकर ऊँचाइयाँ छूने में विशेष सुकून महसूस किया है। बरसों-बरस से दूर-दूर से मेरी निगाह श्यामसुन्दर अग्रवाल के चेहरे पर अंकित इसी इबारत को पढ़ती आई हैं।
     श्यामसुन्दर अग्रवाल इसलिए तो पहचाने ही जाते हैं कि उन्होंने हिन्दी-पंजाबी में श्रेष्ठ लघुकथाएँ सृजित की हैं किन्तु इसके अतिरिक्त उन्होंने लघुकथा-विकास में जो विशेष और अनूठी भूमिकाएँ अदा की हैं या कर रहे हैं वह उन्हें और केवल उन्हें अन्य रचनाकारों की अपेक्षा अलग पंक्ति में खड़ा होने का हकदार बनाती है।
     करीब तीस वर्षों से पंजाबी भाषा में प्रकाशित ‘मिन्नी’ पत्रिका के बतौर सम्पादक/प्रकाशक इन्होंने द्विभाषी सेतु का आकार ग्रहण कर हिन्दी-पंजाबी लघुकथा लेखकों को एक-दूसरे तक रचनात्मक-पाँवों के जरिये पहुँचाने का कार्य कर अद्भुत मिसाल कायम की है। पत्रिका-मंच के अतिरिक्त भाषायी अनुवाद केवल पत्र-पत्रिकाओं के लिए ही नहीं, अग्रवाल जी ने पंजाबी-हिन्दी रचनाकारों की चुनिंदा लघुकथाओं के रूप में भी किया है। 
     वर्षों से अग्रवाल जी के मौन अवदान के बारे में मस्तिष्क और हृदय में खलबली मचाने वाले उपर्युक्त विचारों को शब्दबद्ध करने की प्रेरणा-पृष्ठभूमि का श्रेय उनके हालिया प्रकाशित लघुकथा-संग्रह ‘‘बेटी का हिस्सा’’ को देना चाहूँगा। वैसे पंजाबी-भाषा में श्यामसुन्दर अग्रवाल के दो एकल संग्रह ‘‘नंगे लोका दां फिक्र’’ तथा ‘‘मरुथल दे वासी’’ प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु हिन्दी में उनका यह प्रथम संग्रह है।   
     बहुप्रतीक्षित ‘‘बेटी का हिस्सा’’ लघुकथा संग्रह की एक सौ बीस लघुकथाएँ अपनी तासीर और तेवर के आइने में रचनाकाल के विभिन्न कालखण्डों के चेहरे से परिचित कराती हैं। अन्तर्मन को गहरे से साहित्यिक सामाजिक सरोकारों के सन्दर्भ में मथने वाले क्षण-विशेष में कौंधने वाले भाव, घटना या विचार-वैशिष्ट्य से अद्भुत कथा-बीज का इन रचनाओं में पल्लवन हुआ है।
     रचनाओं का अन्तर्वस्तु-संसार विस्तृत है। परिवार-समाज के पात्रों-घटनाओं से देश के विभिन्न परिदृश्यों-स्थितियों के तमाम कैमराई-चित्र इन लघुकथाओं में विद्यमान हैं। संग्रह में गहरे से पैठ लगाने पर जाहिर होता है कि संग्रह-संयोजन विषयों की विविधता के मद्देनज़र किया गया है। संतुलन और कथ्यानुसार रचाव इन लघुकथाओं की विशेषता है। इन समस्त प्रारम्भिक विचारगत प्रतिक्रिया के संदर्भ में जरूरी है कि इस ‘बेटी का हिस्सा’ संग्रह की शताधिक लघुकथाओं में से बतौर बानगी खंगाली गई चंद रचनाओं के रचनाकौशल से दो-चार होने का प्रयास किया जाय।
     जीवन में प्रतिदिन घटित होने वाले कुछ प्रसंग या अनुभवों को श्यामसुन्दर अग्रवाल ने इस प्रकार कथा-आकार दिया है कि उसमें निहित अर्थ गाम्भीर्य रोचकता, लाक्षणिकता के साथ संदेश देते संत जैसा महसूस होता है। ‘उत्सव’, ‘कोठी नम्बर छप्पन’, ‘चिड़ियाघर’ रचनाएँ मीडिया तथा नई पीढ़ी की भाषा के प्रति उपेक्षा या रुझान को चुटीली भाषा में प्रस्तुत करती हैं। बोरवेल में गिरा बच्चा खबरची के लिए उत्सव तथा ग्राम्य-जीवन में शिक्षा की स्थिति जैसी गम्भीर खबरों के प्रति मीडिया की दृष्टि को जहाँ एक ओर इन लघुकथाओं में बुना गया है, वहीं दूसरी ओर कोठी को छप्पन की बजाय फिफ्टी सिक्स नहीं कहने पर बालक के संस्कारों को प्रकारान्तर से सामने लाने की कोशिश की गई है। ‘गिद्ध’, ‘छुट्टी’, ‘टूटा हुआ काँच’ जैसी अनेक लघुकथाएँ ऐसी ही पृष्ठभूमि पर रची गई हैं। ‘तीस वर्ष बाद’ प्यार की बहुत ही प्यारी रचना है, जिसकी दीपी, नरेश को ही नहीं पाठक को भी झकझोरकर खड़ा कर देती है। इस लघुकथा को पढ़ने एवं विचार करते हुए सायास मेरी आँखों के सामने ‘उसने कहा था’ कहानी के लहना और सूबेदारिन की चित्र-कथा उभर आई। ‘भिाखरिन’ और ‘वही आदमी’ को भी इसी श्रेणी में शुमार किया जा सकता है।
    ‘शहीद की वापसी’, ‘दानी’, ‘मुर्द’, ‘वर्दी’, ‘चमत्कार’, ‘सरकारी मेहमान’ तथा चर्चित लघुकथा ‘मरूथल के वासी’ लोकशाही बनाम राजशाही, न्याय-व्यवस्था, प्रशासनिक स्थितियाँ, धार्मिक-आडम्बर, अराजकता, राष्ट्रप्रेम का खामियाजा जैसी शाश्वत प्रतिध्वनियों के विभिन्न स्वरूप इन और अन्य लघुकथाओं में मिलते हैं। राम का रूप धरे बहुरुपिये राजनेता की विसंगत मानसिकता या स्वार्थ के विरुद्ध उनके असली चेहरे को पहचान कर अब सबक सिखाना जरूरी हो गया है। ‘रावण’ के बंदीमुक्त कैदी द्वारा मंत्री जी का कत्ल शायद इसीलिए किया जाता है। ‘रावण जिन्दा है’ लघुकथा भी इसी लीक पर रची गई रचनाओं की मिसाल है।
     लोक-जीवन तथा देशज-संस्कृति पर कमोबेश संग्रह में जितनी भी लघुकथाओं से श्यामसुन्दर अग्रवाल ने रू-ब-रू कराया है, उनसे गुजरते हुए सायास मेरी पढ़ी हुई विजयदान देथा, मधुकर सिंह, मिथिलेश्वर, माधव नागदा, भालचन्द्र जोशी की कहानियाँ तथा भगीरथ, रत्नकुमार सांभरिया, सिद्धेश्वर, रामकुमार आत्रेय, मधुकांत, कृष्णचन्द्र महादेविया की लघुकथाएं यादों में उभरती गईं।
     रिश्ते फिर चाहे वे पारिवारिक, पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों या मानवीय पक्ष से सम्बन्धित हों, रचते हुए, अहसास होता है मानो अग्रवाल जी ने उनमें अपने आपको तिरोहित कर दिया है। संवेदना से भरपूर आत्मीय-प्यार से लबरेज इन लघुकथाओं के जीवन पात्र रिश्तों की अहमियत से परिचित कराते हैं। पति-पत्नी, सास-बहू, पुत्र-पुत्री, पिता-माँ-बहन जैसे रिश्ताई नामों की सार्थकता के साथ लघुकथाएँ उनके अर्थ को प्रकारान्तर से परिभाषित भी करती हैं। दृष्टव्य है ऐसी ही रचनाओं के तेज-धु्रधले कुछ अक्स।
     भौतिकवादी तथा आत्मकेन्द्रित बदलते जीवन-मूल्यों के माहौल में आज जब पुरानी पीढ़ी को वस्तु समझकर परिवार से निष्कासित या उपेक्षित किया जा रहा है, तब ये लघुकथाएँ उस मानसिकता को खारिज कर, परिवार में उनके महत्व और जीवन में भावनात्मक लगाव का आगाज करती हैं।
    ‘माँ का कमरा’, ‘यादगार’ लघुकथाएँ इस सन्दर्भ में बेहतर प्रमाण के रूप में देखी जा सकती हैं। दोनों ही रचनाओं के बेटे आधुनिक जीवन शैली या जिसे कार्पोरेट-कल्चर कहा जाना चाहिए, से जुड़े हुए होने के बावजूद माँ के भाल पर सम्मान का तिलक लगाते हुए विशाल कोठी में उसके लिए सर्वसुविधायुक्त कमरा या याद बनाए रखने वाले स्कूल का निर्माण करते हैं। शीर्षक रचना ‘बेटी का हिस्सा’ भी इसी किस्म की लघुकथा है, जिसमें सम्पत्ति के बंटवारे में बेटी हिस्से के रूप में माँ-बाप को सेवाधन के रूप में प्राप्त करना चाहती है। बुजुर्ग-ज़िन्दगी के इर्द-गिर्द रची रचनाओं में सामान्य कथ्यों से इतर बरवस      ध्यान आकृष्ट करने वाली लघुकथाएँ हैं- ‘अनमोल खजाना’, ‘टूटी हुई ट्रे’, ‘बेड़ियाँ’ तथा ऐसी ही अन्य। ‘बारह बच्चों की माँ’ मातृत्व की बेहतरीन तस्वीर प्रस्तुत करती रचना है, जिसमेें घरेलू विधवा नौकरानी का अपने ही परिवार के अनाथ बच्चों का पालन-पोषण हेतु निरन्तर जद्दोजहद से गुजरते रहने का उल्लेख है।
     प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’ से अब तक परम्परा रूप में चले आ रहे परिवारों में वृद्धों की उपेक्षा विषयवस्तु को श्यामसुन्दर अग्रवाल के भावुक मन ने संवेदना लिप्त शब्दों के साथ ‘साझा दर्द’, ‘अपना-अपना दर्द’, ‘माँ’, ‘पुण्य कर्म’ रचनाओं में तराशा है। दहेज, वैवाहिक-मानदंड, सास-बहुओं के मधुर-कटु सम्बन्ध भी संग्रह में मौजूद हैं। लब्बोलुआब यह है कि पारिवारिक-जीवन से सम्बन्धित प्रत्येक उतार-चढ़ाव, सुख-दुःख को अग्रवाल जी की पैनी नज़र ने देखकर शब्दों में बांधा है। पति-पत्नी, सम्बन्धों के एल्बम में आधुनिक-बोध से परिचित कराता ‘एक उज्ज्वल लड़की’ शीर्षक चित्र मौजूद है, जो यह कहना चाहता है कि आधुनिक चकाचौंध के वातावरण में मधुर सम्बन्ध बनाये रखने के लिए विश्वास, आत्म मंथन तथा प्रायश्चित ज़रूरी है। मेरी भी ऐसी ही एक लघुकथा ‘समकालीन सौ लघुकथाएँ’ संग्रह में ‘गंगाजल’ शीर्षक से संग्रहीत हैं।
     संग्रह में वे लघुकथाएँ अधिक प्रभावशाली बन पड़ी हैं, जो स्वार्थजनित रिश्तों को चुनौती देते हुए सहयोग, सौहार्द तथा मानवीय पक्ष में खड़ी हैं। ट्रेन मे सफर करते हुए युवक का वृद्धयात्री को सहयोग करते हुए विदा होते हुए यह कहना कि आप तो मेरे पिता के बॉस रहे हैं, कृतज्ञता भाव की कायमी का संकेत है। ‘सेवक’ के मजिस्ट्रेट साहब भी तकरीबन ऐसी ही मुद्रा में सामने खड़े होते दिखते हैं। ‘बेटा’, ‘सिपाही’, ‘कर्ज’ या ‘दानी’ लघुकथाएँ मानवीय पक्ष, सकारात्मक सोच तथा आदमी को आदमी से जोड़ने का आगाज करती हैं।
     अधिकांश लघुकथाओं में साहित्यिक-आस्वाद की दृष्टि से इतनी शक्ति है कि वे पाठक को अंतिम छोर तक साथ सफर करने के लिए मजबूर करती हैं। जहाँ रचना समाप्त होती है, वहाँ से पाठक एकदम आगे नहीं बढ़ता, ठहरता, सोचता है। आशय लघुकथा चिंतन की सोच के साथ पाठक से रिश्ता कायम कर लेती है।
     कथावस्तु के विभिन्न आयाम सग्रह में विद्यमान हैं। ‘अन्तर्वस्तु किसी भी कालखण्ड की हो यदि उसे भविष्य के गवाक्ष से देख-परखकर तराशा गया है तो वह काल की सीमा की अपेक्षा कालातीत होने का दावा करती है।’’ रचना की अस्मिता का यह सूत्र-वाक्य श्यामसुन्दर अग्रवाल के लेखन पर चस्पा किया जाना उनकी साधना का निरपेक्ष मूल्यांकन होगा।
    कथ्य-प्रवाह, भाषा सौष्ठवता तथा सम्प्रेष्य क्षमता के मद्देनजर ये लघुकथाएँ बेमिसाल हैं। बनावट-बुनावट के अलावा इनका शिल्प-पक्ष, भाषायी लालित्य आज लिखी जा रही या लिखी गई लघुकथाओं से अलहदा है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि श्रेष्ठ लघुकथाओं की रचना-प्रक्रिया की चर्चा जब कभी होगी, इन लघुकथाओं को बतौर मिसाल याद किया जायेगा।
     मुझे विश्वास है नई दस्तक के साथ आया यह संग्रह साहित्य-जगत में अपना विशेष स्थान एवं पहचान बनाने में कामयाब हो सकेगा। लघुकथा-संसार को इस महत्वपूर्ण भेंट के लिए श्यामसुन्दर अग्रवाल बिना किसी व्यक्तिगत व्यामोह के धन्यवाद के पात्र हैं। 
बेटी का हिस्सा :  लघुकथा संग्रह :  श्यामसुन्दर अग्रवाल। प्रकाशक :  राही प्रकाशन, दिल्ली। मूल्य :  रु.350/-। संस्करण :  2014।

  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009, म.प्र. / मोबाइल : 07312482314




डॉ. उमेश महादोषी



भविष्य के लघुकथाकारों का संकलन

उषा अग्रवाल लघुकथा के क्षेत्र में उभरता हुआ नाम है। उन्होंने कुछ वर्षों में अपने रचनात्मक सृजन से लघुकथा में तेजी से अपनी पहचान बनाई है। नागपुर शहर में लघुकथा विषयक गतिविधियों के आयोजन के साथ उन्होंने कई अन्य रचनाकारों को लघुकथा लेखन में प्रेरित भी किया है। अपने प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए गत वर्ष उन्होंने स्वयं द्वारा प्रेरित और विशेषतः नागपुर के नए रचनाकारों की सृजनात्मकता को रेखांकित करने के उद्देश्य से लघुकथा संकलन तैयार करने की योजना बनाई व उसे अंजाम दिया- ‘लघुकथा वर्तिका’ के रूप में। लघुकथा वर्तिका में नागपुर के स्थानीय रचनाकारों को तो प्रमुखता दी ही है, देश के अन्य भागों से भी कई रचनाकारों की अच्छी लघुकथाओं को स्थान दिया है। 
      संकलन को दो भागों में बांटकर सतीश दुबे, बलराम अग्रवाल, शकुन्तला किरण, सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, सतीश राज पुष्करणा आदि 16 वरिष्ठ लघुकथाकारों को ‘परंपरा’ खंड में तथा 83 उभरते हुए और नवोदित रचनाकारों को ‘प्रवाह’ खंड में रखा गया है। परंपरा में शामिल रचनाकारों को जिस उद्देश्य से लिया गया है, अधिकांश स्तरीय रचनाएं होने के कारण सामान्यतः पूरा होता है। लेकिन बेहद महत्वपूर्ण बात ‘प्रवाह’ में शामिल अधिकांश रचनाकारों की लघुकथाओं में ऊर्जा का संचरण और उसकी तीव्रता है। निश्चित रूप से इनमें से कई लघुकथाकार भविष्य में लघुकथा जगत में बड़ा काम कर दिखायेगे। भूमिका में डॉ.सतीश दुबे साहब ने इस पर काफी विस्तार से लिखा है और नई पीढ़ी की पैनी दृष्टि को लघुकथाओं की सकारात्मकता के साथ रेखांकित किया है। उनके शब्दों में ‘‘कैमरे की आँख की तरह कुछ क्षण या मिनटों के घटना प्रसंग-चित्र रूपी कथावस्तु को लघुकथा क्लिक करती है। जाहिर है, इस प्रक्रिया में समय अंतराल (टाइम गैप) की कोई भूमिका नहीं होती। दिन या महीनों का वृतांत कहानी का एल्बम होता है, लघुकथा नहीं। खुशी है कि अधिकांश लघुकथाकारों ने लघुकथा की इस रचना प्रक्रिया के अनुकूल कथा-वस्तु का चयन किया है। यही नहीं कथ्य के अनुरूप उन तमाम शैलियों का आत्मविश्वासी प्रयोग भी उनमें हुआ है, जिसकी वजह से ये सम्प्रेष्य स्तर पर प्रभावी बन पड़ी हैं।’’   

        निसंदेह बहुत दिनों बाद एक ऐसा संकलन सामने आया है, जिसमें बड़ी संख्या में नई पीढ़ी के रचनाकार अपनी ऊर्जावान उपस्थिति से भविष्य की बड़ी उम्मीदें जगाते हैं। दो बातें विशेष रूप से रेखांकित की जानी चाहिए, एक- इसमें नागपुर से जितनी संख्या में ऊर्जावान लघुकथाकार सामने आये हैं उसे और उनकी लघुकथा के प्रति समझ को देखते हुए निश्चित ही नागपुर के रूप में सृजन का एक बड़ा केन्द्र लघुकथा को मिलने जा रहा है। दूसरी बात, उषा जी ने जिस तरह से कई अन्य अहिन्दी भाषी क्षेत्रों से हिन्दी लघुकथा की उत्कृष्ट समझ वाले कुछ रचनाकारों को प्रस्तुत किया है, वह लघुकथा में गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों की स्थानीय समस्याओं और प्रवृत्तियों को लघुकथा में प्रस्तुत करने के द्वार खोलेगा। बड़ी संख्या में महिला लघुकथाकारों की उपस्थिति भी संकलन की उपलब्धि है। निसन्देह यह भविष्य के लघुकथाकारों का संकलन है। संपादन, प्रस्तुति के साथ पुस्तक का गेट-अप आदि सराहनीय है।
लघुकथा वर्तिका :  लघुकथा संकलन। संपादन : उषा अग्रवाल ‘पारस’। प्रकाशक : विश्व हिन्दी साहित्य परिषद, एडी-94डी, शालीमार बाग, दिल्ली-88। मूल्य :  रु.250/-। संस्करण :  2013।

  • एफ-488/2, गली संख्या-11, राजेन्द्रनगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार, उत्तराखण्ड/ मोबाइल: 09458929004


श्रीनिवास श्रीकान्त


सकारात्मक बदलावों के लिए व्यग्र एक कवि 

एक सचेत और सम्वेदना से भरा कवि अपने देशकाल और आसपास से निरन्तर प्रभावित रहता है। उसकी कविता में ये प्रभाव सहज ही पहचाने जा सकते हैं। उत्तराखण्ड के काव्य रचनाकार कपिलेेश भोज ऐसे ही एक कवि हैं, जिनकी कृतियांे में उनकी कुमाऊँँनी भू-संस्कृति की छाप तद्वत मौजूद है। मूलतः वे एक जनधर्मी कवि हैं और बदलाव के लिए अपनी भाषिक संरचनाओं में सामाजिक और सकारात्मक बदलावों के लिए व्यग्र दिखाई देते हैं। अपने पर्वतीय भूगोल और पहाड़ के ग्रामांचलों के लोक जीवन से उनकी प्रतिबद्धता स्थायी है जो निर्गमन के बावजूद उनके ज़हन मेें जिन्दा है- कहीं स्मृतियों के रूप में तो कहीं सघन रिश्तों के रूप में। रानीखेत, अल्मोड़ा, नैनीताल और हिमालय के अन्तरिम क्षेत्र उन्हें जुम्बिश में ले आते हैं और वे उन चित्रों की लघुता और महनीयता को अपनी क्षमता के अनुरूप ही रेखांकित करते हैं।
     ‘यह जो वक्त है’ (2010) के बाद ‘ताकि वसन्त में खिल सकें फूल’ (2013) उनका दूसरा कविता-संग्रह है, जिसमें वे गत कविताओं की थीम को सहज योग्यता के साथ आगे ले जाते हैं। संकलन की कविताएँ अपनी तफ़सीलों में कुमाऊँ अंचल के जन-जीवन के सम्बन्ध में न केवल उपयोगी जानकारी मुहय्या करती हैं बल्कि वहाँ की विशिष्ट और कठोर पहचान को पाठक के मन में उकेरती हैं। रिश्ते किस तरह छूटते हैं और आदमी के वर्तमान में वे किस तरह उसके हृदय और मन मस्तिष्क में अपनी एक अलग ताब रखते हैं, प्रस्तुत संग्रह की कुछेक कविताएँ इसे पूरी शिद्दत के साथ बयान करती हैं। ये एक समय खण्ड का ज्वलंत पुनराभास है यानी जो कुछ पीछे अच्छा था, अब वह नहीं है और जिसे निरन्तर अपनी तरह ही अग्रगामी होना चाहिए था। देहात के अंचल की सौम्यता और स्नेहिल छाँव के लिए सहज आतुर नजर आती हैं ये कविताएँ।
     ‘इजा तू रहना सदा मेरे साथ’ स्नेह के बुनियादी रिश्तों का एक भावपरक चित्रण और विवरण है। इस कविता में लोक तत्व का समावेश प्रामाणिक बिम्ब संयोजन के जरिए सघन व सार रूप में निर्मित किया गया है। मसलन- ‘लम्फू के पीले उजाले में/एक ओर बढ़ती जाती थी/अंगारों की तपन/दूसरी ओर/उसकी यादों के गोलों से/खुलते चले जाते थे/धागों पर धागे...’ कपिलेश के कवि ने यहाँ भाववाचक (एबस्ट्रेक्ट) ढंग से अपनी ठेठ देहाती श्रमशील माँ का चित्र इसी तरह के बिम्ब समन्वय से तद्वत रचा है। पर खास बात यह है कि माता के इस संस्मरण में स्मृति का भाव कहीं भी बौद्धिक क्षोभ अथवा नकारात्मक गृह विरह (नॉस्टेल्जिया) का भाव पैदा नहीं करता। जीवन की सीमाओं में वह एक अनश्वर छवि का नितान्त भावपरक ढंग से सहज ही सृजन कर जाता है।
     माँ की एक और नायाब छवि उपेक्षित नहीं की जा सकती। यहाँ वह है पहाड़ की एक कामगार किसान माँ। एक बानगी- ‘पत्थरों और तुषार के तीखेपन को रौंदती/ भतिना और खौड़िया के जंगलों में/ धँसती चली जाती थी वह/और फिर/लकड़ियों या बाँज के पतेलों का गट्ठर लिए/ लौटती थी तब/ धूप में नहा रहे होते थे जब/नदी-पहाड़-पत्ते-खेत और घर...’
     अगर अन्यथा न समझा जाए तो मैं यह कहूँगा कि समकालीन हिन्दी कविता का फलक एक व्यापक चित्रपट है जिसकी स्थानीय स्थापनाओं को प्रस्तुत कवि ने पूूरी तहदारी के साथ निभाया है और जो काव्य रसिक की ग्राह्यता की तलबगार है। स्थानीयता के चरित्र को आगे बढ़कर समझा जाए तो यह माँ विश्व की किसी भी श्रमजीवी किसान माँ के समान नजर आएगी।
     पहाड़ी जीवन में श्रमजीवी औरतों का एक अहम मुकाम है। उनका जीवन वहाँ के समाज के लिए पूजनीय निधि (वर्शिपेबल ट्रस्ट) है। ‘कहती हैं पहाड़ की औरतें’ शीर्षक कविता में भोज के कवि ने कुछेक लफ्जोें में ही गाँव की औरत का एक अनोखा चित्र खींचा है। बाईस असमान पंक्तियों की इस कविता में वह यथार्थ के पदस्थल (पैडस्टल) पर, अपनी त्रासदिक अवस्थिति के बावजूद, आत्म सम्मान के साथ खड़ी है। यह कोई मिथक नहीं, अकूट यथार्थ है। ये पहाड़ की वे औरतें हैं, जिन्होंने अपने समर्पित श्रम से ’खेतों को दी है हरियाली‘ और जिनका ‘खून-पसीना/लहराता है/ धान, गेहूँ और जौ की बालियों में....’ ‘खिला रही हैं’ वे ‘खुशियों और हौसलों के फूल‘। यह एक संघर्षशील,प्रगतिशील और जीवन में भरपूर निष्ठा रखने वाली स्त्री की छवि है।
     ‘क्या मनुष्य नहीं हूँ मैं?’ कविता में पहाड़ की यही स्त्री अपनी दमित स्थिति का जिक्र करती हुई अपनी कुर्बानी के लिए न्याय की गुहार भी लगाती है। यथा- ‘‘हे पुरुष!/तुम्हारी अतृप्त इच्छाओं को/मौन रहकर पूरा करती/झिंझोड़ी जाती रहूँ बार-बार.... बताओ मेरे सहचर/क्या मनुष्य नहीं हूँ मैं?’’
     अपने पहाड़ों से कवि को बेपनाह मोहब्बत है। प्रस्तुत संकलन की एकाधिक कविताओं में पहाड़ी जीवन और प्रकृति के रंग शेड देखने को मिलेंगे जिन्हें उसने भरपूर जिया है और कविता लिखते समय भी हूबहू महसूस किया है। ‘मेरी यादों का लखनाड़ी’ में कवि के अपने गाँव का जिक्र है, जिससे सम्बन्धित स्मृतियों को उसने चुनिन्दा ढंग से सँजोया है। रचयिता की यह खूबी है कि वह अपने इलाके की सभी भौतिक विशेषताओं को टुकड़ों में सँजो कर अपने गाँव और उसके आसपास का एक सजीव चित्र बनाता है। विनियोजित करने पर ये टुकड़े सामान्य लगेंगे लेकिन अपने संयोजन में वे आपको एक अनदेखी-अनजानी और सुन्दर-रमणीक स्थलीय गरिमा से साक्षात्कार कराते हैं। पूरी कविता की अभिव्यक्ति अभिधात्मक होते हुए भी वह  अनजाने ही एक विलक्षण जगह की पहचान को स्थिर करती है- ‘‘भतिना के/ऊँचे शिखर/और/तीन ओर से/पहरेदारों-सी खड़ी/छोटी पहाड़ियों के आगोश में/दुबके पड़े/बौरा रौ घाटी के/हे मेरे प्यारे गाँव/लखनाड़ी!’’
     एक ग्रामीण का अपने स्थल को छोड़कर जाना कैसा अनुभव होगा, यह कविता इसका सरल चित्रण करती है। यथा, स्मृतियों में उभरता यह बिम्ब- ‘‘भले ही/बरसों पहले/तुमसे हो जाना पड़ा/मुझे दूर/बनकर रह जाना पड़ा/प्रवासी/मगर/अक्सर/उड़कर चला ही जाता है/मेरा मन-पाखी/तुम्हारी ओर..!’’
    ‘मेरी यादों का नैनीताल’ में शहर का आवश्यक भूगोल और स्थानों के संदर्भ निजी प्रसंग से भरे हैं, फिर भी कविता के रूप में एक पर्वतीय पर्यटन स्थली के मोण्टाज का निर्माण करते हैें। इनमेेें ही कुछ पूर्व के जिए शहर की कुछेक नामाचीन शख्सीयतों का जिक्र भी मौजूद है लेकिन अत्यावश्यक जानकारी के अभाव में वे महज अपर्याप्त व्यक्ति चित्र ही नजर आते हैं। यानी चेहरे रचयिता के ज़हन में ही उभरे, वे सब मुख्तसर भी कोई संकेतात्मक पोर्टेªट नहीं बन पाए।
     इसी तरह के व्यक्तिगत शख्सियतों के सन्दर्भ ‘कहो, कैसे हो, रानीखेत?’ और ‘यह है बौरा रौ घाटी’ में भी हैं। जहाँ तक रानीखेत और बौरा रौ घाटी की शब्द चित्रीयता का सवाल है, इन्हें यथातथ्य ही कहा जा सकता है, मगर शख्सियतों का सूचीबद्ध विवरण कविता को कुछ हद तक हलका बना देता है। फिर भी जो व्यक्ति चित्र कवि ने ‘तुम भी क्या आदमी थे यार गिर्दा!’ और ‘हे चिर धावक, हे चिर यात्री!’ में उकेरे हैें, वे निश्चय ही गिर्दा और शेखर पाठक का एक सुथरा-सा स्नेप-शॉट तो छोड़ ही जाते हैं।
     सुदूर अतीत-स्मृतियों में ‘चौबटिया के पथ पर’ एक परिपूर्ण कविता है, जिसे कवि ने शब्द संयम के साथ लिखा है। रचना की बनावट और बुनावट भी अपने लक्षित समय को सरल रेखात्मक ढंग से सरंजाम देती है। यही नहीं, इसमें जीवनी के कुछ सामान्यतः रुचिकर अंश भी हैं, जो कविता में शामिल होकर जीवन के अहम कोनों को प्रकाशित करते हैं। यहाँ समय के अन्तराल भी अपनी रैखिक प्रतीति नहीं देते। ‘लगने लगता है कि जैसे यह 2009 नहीं बल्कि 1965-66 है’... ‘बर्फ, कोहरे और धूप के बीच अपने परिवार जनों के साथ उन्हीं पगडण्डियों पर कुलाँचें भरता एक बच्चा’। असली जिन्दगी में भी स्मृतियों के प्रभाव में काल अक्सर वर्ततान में गुजरे हुए काल की मरीचिका में रूपान्तरित हो जाता है- कवि ने ऐसी देशिक (स्पेसियल) अनुभूति को सांकेतिक ढंग से रेखांकित किया है। कवि अपनी स्मार्त कविताओं में अपने परिचितों का जिक्र करना भी नहीं भूलता। रानीखेत के चौबटिया में घूमते हुए वह भौगोलिक बिन्दुओं को भी परिगणन शैली में याद करना नहीं भूलता- यहाँ नन्दाघुण्टी, त्रिशूल, नन्दादेवी के ये सुझावी बिन्दु प्रकृति का एक खूबसूरत फ्रेम तैयार करते हेैं। इन शिखरों को क्षेत्र से बाहर के लोग भी जानते हैं, अतः रचना में इनका जिक्र ही पर्याप्त दिखाई देता है।
     संकलन की ‘आकाश बादलों से ढका है’ और ‘कम हो गया एक वोटर’ सामाजिक त्रासदियों पर रोशनी प्रसारित करती कविताएँ हैैं। एक तरफ तो वे घटनाएँ हैं, संघर्षमय अस्तित्व की दास्तानें और वारदातें और दूसरी तरफ वे पिछड़े हुए देहाती परिवारों के सन्ताप को भी बयान करती हैं। वह सारा दोश प्रकृति के ऋतु-विपर्यय को देता है, जिसकी वजह से उसके जीने के ‘सारे काम काज’ जड़ हो चुके हैं, तिस पर परिवार का आर्थिक दुर्बलता के कारण असहनीय बोझ भी। एक भारतीय औसत परिवार मेें उसके दुख-दर्द का इजहार सम्वेदनामय है। यथा- ‘‘पाँच बेटियों का बाप/रतन सिंह/कँपकँपाता शरीर लिए/आकाश की ओर टकटकी लगा/पुकार रहा है-/बादलों को हटा/अब तो/कल सवेरे प्रकट होओे/हे सूर्य भगवान!/ताकि निकल सकूँ मैं/काम पर/क्योंकि/आटा बचा है/बस/आज रात के लिए ही...’’ 
     यहाँ सहसा प्रेमचन्द के ‘गोदान’ और पर्ल एस बक के ‘गुड अर्थ’ की याद हो आती है। 
     ‘कम हो गया एक वोटर’ में शराब ही समाज की त्रासदी का कारण है, जिसे कवि ने अति मद्यपता से त्रस्त गणेश के बाबू के जरिए प्रदर्शित किया है। इस दृष्टि से यहाँ कविता महज कार्यात्मक और वृत्तिमूलक ही नहीं, वह व्यंजना से भी परिपूर्ण और सहज मानवीय करुणा से भरी है। पात्र की अकाल मृत्यु को रचयिता ने एक वोटर के कम होने का व्यंग्य निर्मित करके हमारे ढीले -ढाले और स्वार्थकेन्द्रित प्रजातंत्र पर तन्ज की है। ‘कम हो गया एक वोटर’ अपने फार्मेट में एक त्रासदिक कहानी भी है, जिसे कम शब्दों में ही कामयाबी के साथ सम्प्रेषित किया गया है।
     कपिलेश भोज के कवि ने तथाकथित भोग्य आजादी के बुर्जुआ वातावरण के खिलाफ लड़ी जा रही क्रान्ति का समर्थन किया है। कहीं स्पष्ट शब्दों में तो कहीं संकेतात्मक ढंग से। हमारे जैसे समाजवादी प्रजातंत्र पर उसने कुछेक कविताओं में मारक व्यंजना भी की है। ‘होगा विकास एक दिन’ व्यंग्य की शक्ल में उसका एक जोरदार और सार्थक प्रतिवाद है। वर्तमान समय में परिधिजन्य और पिछड़े हुए क्षेत्रों में जड़ता की स्थिति है, उस पर इस कविता में एक जोरदार ढंग से अपनी बात की है। चर्चित कविता मेें कपिलेश ने व्यंग्योक्ति के जरिए अपने लक्ष्य का बेधन किया है। मसलन- ‘‘.....पाँच साल में न सही/अगले पाँच साल में/या/उसके अगले पाँच साल में/धीरे-धीरे ही सही/होगा/जरूर होगा/होकर ही रहेगा/तुम्हारा विकास/आखिर/एक न एक दिन...’’
     मनसूबों और अहम कार्यों का निरन्तर स्थगन ही हमारे जैसे समाजवादी और वर्गीय प्रजातंत्र का शासन करने का तौर तरीका है, जिसे इस कविता में एक खण्डनात्मक और व्यंग्योक्त पैमाने पर पूरा किया गया है।
     उपर्युक्त के सन्दर्भ में कवि यह भी चाहता है कि सिर्फ कविता में ही न जलती रहे क्रान्ति की मशाल। ऐसी मशाल का जिक्र करते हुए एक कविता में यह स्पष्ट कहा गया है कि- ‘‘बरसों से/वे/बड़े ही ओजस्वी स्वर मंे/सुनाते आ रहे हैं/अपनी वे कविताएँ/जिनमें की गई है गुहार/मशाल जलाने की...’’ पर ‘‘वाहवाही लूटने के बावजूद/कहीं नहीं जली/ उनके आसपास/एक भी मशाल/और/जो कुछ मशालें/जली हुई हैं दूर-दराज/उनसे नहीं है/उनका कोई वास्ता।’’  (जो सिर्फ कविता में जलाते हैं मशाल) 
     कवि ने यह चाहा है कि क्रान्ति न महज शब्दों में ही जीती रहे, वह उसके फ्रेमवर्क से बाहर आए, जन चेतना की भूमि पर उतर कर सक्रिय रूप से अपनी भूमिका अदा करे। हेमचन्द्र पाण्डेय की स्मृति में लिखी गई ‘आखिर कब तक ?’, ‘कभी-कभी ऐसा ही कुछ सोचते हैं विमल दा’, ‘दोस्त फेलिक्स ग्रीन!’, ‘आओ पिघला दे बर्फ, ‘ताकि वसन्त में खिल सकें  फूल’ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से क्रान्ति के उभार का समर्थन करती हुई कविताएँ हैं।
परिचर्चित कविताओं के अतिरिक्त ‘मण्डीहाउस से लौटते हुए’, ‘भाऊ यह मेला नहीं है’ ‘कविता का साथ’, ‘महाकवि की जयन्ती’, ‘समीक्षक का कमाल’, ‘बनाई गई है यह जो दुनिया’, ‘हमारे लिए’, ‘अलविदा शेफालिका...’ समकालीन जीवन के एकाधिक मुद्दों व आशयों को स्पर्श करती हुई कुछेक अधोरेखांकित करने योग्य कविताएँ हैं। 
ताकि वसन्त में खिल सकें फूल :  कविता-संग्रह :  कपिलेश भोज। प्रकाशक :  अंतिका प्रकाशन, सी-56, यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II, गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.)। मूल्य :  रु 230/- मात्र। संस्करण :  2013।

  • 9/ए, पूजा हाउसिंग सोसायटी, संदल हिल्ज, लोअर चक्कर, शिमला-171005 (हि.प्र.)/दूरभाष: 01772-633272

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 11-12,  जुलाई-अगस्त  2014 

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डॉ अरुण को संस्कृति मंत्रालय की वरिष्ठ शोधवृत्ति मिली
   


भारत सरकार की ओर से प्रतिवर्ष ‘फ़ेलोशिप फॉर आउट स्टैंडिंग पर्सन्स’ योजना के अंतर्गत प्रदान की जाने वाली ‘वरिष्ठ शोध वृत्ति’ वर्ष 2012- 2013 के लिए निर्णय की घोषणा कर दी गई है, जिस के अनुसार रूडकी के निवासी डॉ योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ को भी राष्ट्रीय स्तर की इस प्रतिष्ठित शोधवृत्ति के लिए चुना गया है!
     भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की तरफ से प्रतिवर्ष वरिष्ठ और कनिष्ठ शोध वृत्तियाँ दी जाती हैं! वर्ष 2012-13 के लिए इस बार ‘ऑनलाइन’ आवेदन मांगे गए थे! पूरे देश से आए हुए आवेदनों में से हिंदी साहित्य में वरिष्ठ शोध वृत्ति प्रदान करने के लिए मात्र बाईस विद्वानों के आवेदन-पत्रों को चुन कर उनसे विस्तृत ‘शोध-योजना’ संस्कृति मंत्रालय द्वारा माँगी गई थी!
     विशेषज्ञों की समिति में इन बाईस विस्तृत शोध-परियोजनाओं पर विचार के बाद कुल ग्यारह शोध परियोजनाओं को अंतिम रूप से संस्कृति मंत्रालय ने अपनी स्वीकृति प्रदान करने की सूचना दी है! इन में रूड़की के पूर्व प्राचार्य और प्रतिष्ठित कवि डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ की वह शोध परियोजना भी स्वीकृत हो गई है, जो अपभ्रंश भाषा में रची गई ‘जैन कृष्ण कथा के महाकाव्य’ से जुड़ी हुई है!
     डॉ. ‘अरुण’ की शोध परियोजना का शीर्षक ‘‘जैन कृष्ण कथा पर ‘महाभारत’ का प्रभाव: महाकवि स्वयंभू देव प्रणीत ‘रिठ्नेमी चरिउ’ के विशेष सन्दर्भ में’’ है, जिसके अन्तरगत डॉ. ‘अरुण’ वास्तव में दसवीं शताब्दी के जैन कवि पुष्पदंत द्वारा रचे गए महाकाव्य ‘रिठ्नेमी चरिउ’ को आधार बना कर जैन कृष्ण कथा पर महाभारत के प्रभाव का आकलन करेंगे! इस शोध वृत्ति के अंतर्गत डॉ. ‘अरुण’ को संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार की ओर से प्रति माह बीस हज़ार रूपए मानदेय के साथ यात्रा-व्यय तथा अनुशांगिक व्यय आगामी तीन वर्षों तक दिए जाएँगे!
      डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ को मिली यह वरिष्ठ शोध वृत्ति उत्तराखंड के किसी विद्वान को मिली ‘प्रथम’ शोध वृत्ति है, जिसके लिए डॉ. ‘अरुण’ को उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ.रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के साथ ही दिगंबर जैन समिति, श्री महावीरजी, जयपुर के अध्यक्ष पूर्व न्यायमूर्ति श्री एन. के. जैन, सचिव श्री नरेन्द्र कुमार पाटनी, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर के निदेशक और प्रख्यात विद्वान डॉ. कोमल चाँद जैन आदि ने बधाइयाँ दी हैं! (समाचार सौजन्य :  डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’) 


नागपुर में हाइकु की दो पुस्तकों का लोकार्पण

         विगत 03 अगस्त 2014 को विदर्भ साहित्य सम्मेलन, नागपुर के सभागार में एक भव्य समारोह हाइकु की दो महत्वपूर्ण कृतियों का लोकार्पण सम्पन्न हुआ। ये दोनों कृतियां थीं- सुप्रसिद्ध हाइकुकार उषा अग्रवाल ‘पारस’ का हाइकु संग्रह ‘हाइकुयाना’ एवं उन्हीं के द्वारा संपादित हाइकु संकलन ‘हाइकु व्योम’। दोनों कृतियों का लोकार्पण मंच पर कृतिकार एवं संपादक उषा अग्रवाल ‘पारस’ की उपस्थिति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार-समालोचक डॉ.गोविन्द प्रसाद उपाध्याय, वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक डॉ. मिथिलेश कुमार अवस्थी, अविराम साहित्यिकी के अंक संपादक डॉ. उमेश महादोषी तथा ‘आधुनिक साहित्य’ पत्रिका के संपादक श्री आशीष कंधवे ने किया। समारोह की अध्यक्षता डॉ. गोविन्द प्रसाद उपाध्याय ने की। डॉ. मिथिलेश कुमार अवस्थी व डॉ. उमेश महादोषी प्रमुख वक्ता तथा श्री आशीष कंधवे विशेष अतिथि थे।
         इस अवसर पर हाइकु व्योम पर प्रमुख वक्ता के रूप में डॉ. मिथिलेश कुमार अवस्थी ने ‘हाइकु व्योंम’ पर विस्तार से अपने समीक्षात्मक विचार रखे। उन्होंने संकलन के कई हाइकुकारों के प्रतिनिधि उदाहरणों के माध्यम से अपनी बात रखी। कुछ कवियों के अच्छे हाइकुओं के मध्य उन्हीं के कमजोर हाइकुओं पर डॉ. अवस्थी ने आश्चर्य व्यक्त किया। डॉ. उमेश महादोषी ने अपने वक्तव्य में उषा अग्रवाल के संग्रह ‘हाइकुयाना’ को रचनात्मकता के स्तर बेहद सफल कृति बताया। उन्होंने कई हाइकुओं के रचनात्मक पक्ष को उजागर करते हुए कहा कि इन हाइकुओं में समुद्र सी गहराई है। श्री आशीष कंधवे ने अपने वक्तव्य में हाइकु जैसी विधा पर हाइकु जैसे ही संक्षिप्त प्रारूप में समीक्षात्मक विचार रखने की सलाह दी। अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ. गोविन्द प्रसाद उपाध्याय ने दोनों कृतियों को सफल बताया लेकिन नई पीढ़ी द्वारा वरिष्ठ पीढ़ी के साहित्यकारों की उपेक्षा पर चिन्ता जाहिर की। उन्होंने नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करते हुए उन्हें अपनी धरोहर को सहेजकर रखने की आवश्यकता समझाई।
         सभी मंचासीन एवं अन्य वक्ताओं ने उषा अग्रवाल की रचनात्मकता, साहित्य के प्रति समर्पण एवं नागपुर में साहित्यिक गतिविधियों में उनके योगदान की खुलकर प्रशंसा की। साथ ही उनके पति डॉ. योगेन्द्र अग्रवाल व बच्चों के योगदान को भी रेखांकित किया। इस अवसर पर अनेक स्थानीय साहित्य प्रेमियों एवं कुछ संस्थाओं ने उषा अग्रवाल ‘पारस’ को उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मानित किया। समारोंह में दोनों कृतियों के चित्रकारों श्रीमती कमलेश चौरसिया व श्री सुभाष तुलसिता का भी सम्मान किया गया। ज्ञातव्य है कि दोनों ही पुस्तकों में अनेक भावपूर्ण रेखाचित्रों का भी उपयोग किया गया है। कार्यक्रम का गरिमापूर्ण संचालन श्रीमती रीमा चड्ढा ने किया। समारोह में बड़ी संख्या में स्थानीय साहित्यकार एवं सुधीजन उपस्थित रहे, जिनमें ‘दिवान मेरा’ के संपादक श्री नरेन्द्र परिहार, अविराम साहित्यिकी की प्रधान संपादिका श्रीमती मध्यमा गुप्ता, कवयित्री माधुरी राउलकर, वंदना सहाय, सुश्री इन्द्रा किसलय, श्रीमती कमलेश चौरसिया, चित्रकार श्री सुभाष तुलसिता, वरिष्ठ कवि श्री अहफ़ाज अहमद कुरेशी, विक्रम सोनी आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय थी। अन्त में श्री राजेन्द्र देवधरे ने सभी उपस्थित अतिथियों एवं साहित्य प्रेमियों का आभार व्यक्त किया। (समाचार प्रस्तुति : अविराम समाचार डेस्क)


कथा संगम समारोह सम्पन्न



उज्जैन। साहित्य अकादमी म. प्र. संस्कृति परिषद से संबद्ध प्रेमचंद सृजन पीठ द्वारा मुंशी प्रेमचंद स्मृति सप्ताह के अंतर्गत कथा संगम का विशिष्ट समारोह (5 अगस्त को) विक्रम विश्वविध्यालय के वाकदेवी सभागार में आयोजित किया गया, जिसमे म.प्र. के प्रतिनिधि कथाकारों वेद हिमांशु, संदीप सृजन, नियति सप्रे, गोपाल माहेश्वरी, अनामिका त्रिवि, अनुराग पाठक, स्वामीनाथ पांडे, एवं दिनेश परिहार आदि ने समकालीन संदर्भों पर केन्द्रित सामाजिक सरोकारों की कहानियों तथा लघुकथाओं का पाठ किया।
     प्रस्तुत की गयी रचनाओं पर समीक्षा वक्तव्य डॉ. बी. एल. आच्छा ने दिया। मुख्य अतिथि साहित्य अकादमी भोपाल के निर्देशक प्रो. त्रिभुवन नाथ शुक्ल थे। प्रस्तुत की गई कहानियों पर विचार प्रकट करते हुए कहा कि इन कहानियों में गरीबी, आधुनिक तकनीक से प्रभावित हो रहे विचार तथा पीढियों के अंतराल को रेखांकित किया गया है एवं इन कहानियों ने प्रेमचंद कि परंपरा को आगे बढ़ाया है। समारोह की अध्यक्षता डॉ. प्रेमलता चुटैल ने की। इस अवसर पर सृजन पीठ के अध्यक्ष डॉ. जगदीश तोमर ने भी संबोधित किया। संचालन डॉ. जगदीश शर्मा ने एवं आभार वक्तव्य प्रो. गीता नायक ने दिया। (समाचार प्रस्तुति : वेद हिमांशु/मोबाइल :  94245-86658)



डॉ अरुण को राष्ट्रीय ‘स्वयंभू सम्मान’ 





अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर की कार्यकारिणी समिति ने राष्ट्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ की पुस्तक ‘पुष्पदंत’ पर उन्हें वर्ष 2013 का राष्ट्रीय ‘स्वयंभू सम्मान’ प्रदान करने का निर्णय लिया है! इस गौरवशाली सम्मान में अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर इक्यावन हज़ार रूपए के नकद पुरस्कार के साथ प्रशस्ति-पत्र, अंग-वस्त्र आदि एक भव्य समारोह में प्रदान करती है। समारोह किसी उपयुक्त समय पर जयपुर में या श्री महावीरजी में आयोजित होगा! स्मरणीय है कि साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित डॉ. अरुण की यह पुस्तक ‘पुष्पदंत’ दसवीं शताब्दी के अपभ्रंश भाषा के महाकवि पुष्पदंत पर शोधपरक विनिबंध है, जो राष्ट्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ जैसी महत्त्वपूर्ण योजना के अंतर्गत वर्ष 2012 में प्रकाशित की है और जिसे साहित्य अकादमी ने भी महत्त्वपूर्ण माना है!
    महाकवि पुष्पदंत पर लिखी गई इस पुस्तक के समीक्षक हिंदी साहित्य-जगत के प्रकांड विद्वान् डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी रहे हैं, जिन्होंने मुक्तकंठ से इस ग्रन्थ की प्रशंसा करते हुए इसे ‘अपभ्रंश साहित्य की मूल्यवान कृति’ माना है! (समाचार सौजन्य :  डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’) 



अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका  ‘‘अक्षरवार्ता’’ का विमोचन 



उज्जैन। उज्जैन से प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका ‘अक्षरवार्ता’ का विमोचन विदिशा में आयोजित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त समारोह में संपन्न हुआ। साहित्य अकादेमी मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद्, भोपाल द्वारा आयोजित दो दिवसीय समारोह के उद्घाटन अवसर पर इस मासिक शोध-पत्रिका का विमोचन अकादेमी के निदेशक एवं वरिष्ठ विद्वान प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल एवं मंचासीन अतिथियों ने किया। पत्रिका का विमोचन प्रधान सम्पादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, सम्पादक डॉ. मोहन बैरागी, सम्पादक मंडल सदस्य डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा ने करवाया। इस मौके पर विदिशा के शास. महाविद्यालय की प्राचार्य डॉ. कमल चतुर्वेदी, साहित्यकार डॉ. शीलचंद्र पालीवाल, डॉ. वनिता वाजपेयी, जगदीश श्रीवास्तव (विदिशा), डॉ. तबस्सुम खान (भोपाल), युवा शोधकर्ता पराक्रमसिंह (उज्जैन) आदि सहित अनेक संस्कृतिकर्मी और साहित्यकार उपस्थित थे।
     उज्जैन से प्रकाशित इस आई एस एस एन मान्य अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में कला, मानविकी, समाजविज्ञान, जनसंचार, विज्ञान, वैचारिकी से जुड़े मौलिक शोध एवं विमर्शपूर्ण आलेखों का प्रकाशन किया जा रहा है। यह पत्रिका देश-विदेश की विभिन्न अकादमिक संस्थाओं, संगठनों और शोधकर्ताओं के साथ ही इंटरनेट पर भी उपलब्ध रहेगी। (समाचार प्रस्तुति :  डॉ. मोहन बैरागी / प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा, अक्षरवार्ता, उज्जैन)



राधेश्याम भारतीय के लघुकथा संग्रह का लोकार्पण



हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित राधेश्याम भारतीय के लघुकथा संग्रह ‘अभी बुरा समय नहीं आया है’ का लोकार्पण समारोह दिनांक 16 अगस्त 2014 को राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय घरौंडा (करनाल) के प्रांगण में आयोजित हुआ।  लोकार्पण करने वाले साहित्यकारों में- डॉ.सुभाष रस्तोगी, डॉ.अशोक भाटिया, नरेश कुमार उदास, डॉ. ओमप्रकाश करुणेश, रामकुुमार आत्रेय, सुभाष शर्मा, ओमसिंह अशफाक, कमलेश चौधरी, छाया उदास, अरुण कुमार, रामकुमार भारतीय आदि प्रमुख थे।
           इस अवसर पर मुख्यअतिथि नरेश कुमार उदास ने अपने वक्तव्य में कहा कि आज का युवा इंटरनेट और दूरदर्शन की वजह से  साहित्य से दूर भाग रहा है। यदि वह सहित्य से जुड़ जाएं, तो समाज का चेहरा कुछ और ही होगा। मुख्य वक्ता के तौर पर डॉ. अशोक भाटिया ने इस विधा पर विस्तार से चर्चा की और अनेक लघुकथाएं सुनाकर इस विधा के सशक्त होने के प्रमाण दिए।
          अध्यक्ष सुभाष रस्तोगी ने राधेश्याम भारतीय के लघुकथा संग्रह पर कहा कि इन लघुकथाओं में समाज का यथार्थ चित्रण है और प्रथम कृति होने पर अच्छी लघुकथाएं पढ़ने को मिली। सुभाष शर्मा ने अपनी देशभक्ति कविता सुना कर सभी को ईमानदारी से काम करने को प्रेरित किया। रामकुमार आत्रेय ने राधेश्याम भारतीय के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला। कमलेश चौधरी ने कई लघुकथाओं पर अपनी राय दी। रामकुमार भारतीय ने इस संग्रह कई लघुकथाओं की चर्चा की, जो पाठक को शीघ्र आकर्षित करती हैं। अंत में जयभगवान पत्रकार ने सभी का आभार प्रकट किया। मंच संचालन मदन लाल ‘शिरशववाल’ ने किया। (समाचार प्रस्तुति :  सुभाष शर्मा, घरौंडा करनाल)



नरेश कुमार उदास के कहानी संग्रह का लोकार्पण




विगत दिनों पालमपुर, हिमाचल प्रदेश में कवि-कथाकार श्री नरेश कुमार ‘उदास’ के कहानी संग्रह ‘रोशनी चिन्ता हुआ शब्द’ का विमोचन सुश्री छाया रानी, डॉ. कालिया एवं डॉ. लेख राज के द्वारा किया गया। इस अवसर पर कई स्थानीय साहित्यकार एवं गणमान्य लोग उपस्थित रहे। (समाचार सौजन्य :  नरेश कुमार उदास)



पंचतंत्र कथा की एकल नाट्यभिनय प्रस्तुति 



इन्दौर। मालवी बोली के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु प्रतिबद्ध रचनाकारों के समूह मालवी जाजम के तत्वावधान में (7 अगस्त को) हिन्दी साहित्य समिति मे पंचतंत्र कथा पर आधारित वेद हिमांशु के मालवी आलेख पर केन्द्रित एकल नाट्यभिनय की प्रस्तुति वरिष्ठ रंगकर्मी / अभिनेता संतोष जोशी ने दी।
इस अवसर पर आयोजित इस मालवी समागम में  नरहरि पटेल, वेद हिमांशु, हरमोहन नेमा, रेणु मेहता, कुसुम मंडलोई ,एवं मुकेश इन्दोरी आदि रचनाकरों ने काव्य पाठ किया। (समाचार प्रस्तुति :  वेद हिमांशु, मालवी जाजम/मोबाइल :  94245-86658)



‘गाय, गुरु और गंगा’ पर काव्य संकलन की योजना


कानपुर की साहित्यिक संस्था बटोही द्वारा ‘गाय, गुरु और गंगा’ विषयक कविताओं के एक काव्य संकलन के प्रकाशन की योजना है। जो कवि बन्धु इस संकलन में शामिल होना चाहते हैं, अपनी अधिकतम तीस पंक्तियों की कविताएं 31 दिसम्बर 2014 से पूर्व डॉ. अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’ को 124/15, संजय गांधी नगर, नौबस्ता, कानपुर-208021, उ.प्र. के पते पर भेज सकते हैं। सभी प्रकाशित रचनाकारों को प्रकाशनोपरांत संकलन की निःशुल्क लेखकीय प्रति भेजी जायेगी। (समाचार सौजन्य :  डॉ. अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’/मोबाइल :  09956126487)




मध्य प्रदेश लेखक संघ का ‘वार्षिक उत्सव’ व सम्मान समारोह 


टीकमगढ़/नगर की सर्वाधिक सक्रिय साहित्यिक संस्था ‘म.प्र.लेखक संघ’ जिला ईकाई टीकमगढ़ का ‘वार्षिक उत्सव’ व सम्मान समारोह नगर भवन पैेलेस टीकमगढ़ के सभा कक्ष में होकर सम्पन्न हुआ। इस आयोजन में वरिष्ठ साहित्य मनीषी सम्मान्य पं.श्री सुरेन्द शर्मा ‘शिरीष’ (छतरपुर) अध्यक्ष, सम्मान्य श्री राजेश कुमार गौतम निदेशक आकाशवाणी छतरपुर मुख्य अतिथि श्री नवीन खंड़ेलवाल‘निर्मल’(इंदौर) ने विशिष्ट अतिथि की आसंदी को सुशोभित किया। आयोजन दो चरणों में सम्पन्न हुआ। प्रथम चरण में म.प्र. लेखक संघ की वार्षिक पत्रिका ‘आकांक्षा’ पत्रिका के 9वें अंक का विमोचन तथा शायर हाजी ज़फ़रउल्ला खां ज़फ़र’ के द्वितीय ग़ज़ल संग्रह ‘शगुफ़्ता चमन’ का विमोचन किया जायेगा। इस अवसर पर टीकमगढ़ म.प्र.लेखक संघ के जिलाध्यक्ष राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ के पूज्य दादाजी स्व.पन्नालाल जी नामदेव की स्मृति के आयोजित कार्यक्रम में श्री नवीन खण्डेलवाल जी (इंदौर) को उनकी कृति ‘‘तुम कहाँ हो? अंर्तमन’’ के लिए रु. 1111/- का प्रथम स्व.पन्नालाल जी नामदेव स्मृति सम्मान 2013 से सम्मानित किया गया। उन्हें सम्मान निधी, आकर्षक सम्मान पत्र, स्मृति चिन्ह् प्रदान किया गया।
          द्वितीय चरण में काव्य संध्या (म.प्र.लेखक संघ की नियमित 185वीं साहित्यिक गोष्ठी) का आयोजन किया गया, जिसका संचालन उमाशंकर मिश्र ने किया। आाभार प्रदर्शन म.प्र.लेखक संघ के जिला अध्यक्ष राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी ने किया। (समाचार प्रस्तुति :  राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’, जिला अध्यक्ष-म.प्र.लेखक संघ)



डॉ. सुनील कुमार परीट को ’मंडल रत्न सम्मान’




 11-08-2014  के गुरु पूर्णिमा के पावन दिन उत्तर प्रदेश के श्री एकरसानंद आश्रम, मैनपुरी में प.पू. श्री श्री श्री स्वामी शारदानंद सरस्वती महाराज जी ने अपने पावन कर कमलों से कर्नाटक के प्रसिध्द साहित्यकार डॉ. सुनील कुमार परीट जी को आश्रम का सर्वाेत्कृष्ट सम्मान ’मंडल रत्न सम्मान’ से अलंकृत किया। 
      इस शुभ अवसर पर स्वामी जी ने डॉ. परीट को सम्मान-पत्र, अंगवस्त्र, किताबें, श्रीगणेश जी की मंगलमूर्ति, रुद्राक्ष मालाएँ, प्रसाद आदि प्रदान करके सम्मानित किया। स्वामी जी का आशीर्वाद अनुग्रह पाकर डॉ. परीट धन्य हो गये। (समाचार सौजन्य :  डॉ. सुनील कुमार परीट, ज्ञानोदय साहित्य संस्था, कर्नाटक)