आपका परिचय

बुधवार, 6 जनवरी 2016

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 5,   अंक  : 01-04, सितम्बर-दिसम्बर  2015



।।क्षणिका।।

सामग्री :  इस अंक में डॉ. बेचैन कण्डियाल की क्षणिकाएँ।


डॉ. बेचैन कण्डियाल




{प्रेम और पीड़ा की अनुभूतियों के कवि डॉ. बेचैन कण्डियाल जी क्षणिका एवं क्षणिका सदृश रचनाओं के सृजन में विशेष रुचि लेते रहे हैं। उनकी क्षणिकाओं का संग्रह ‘टूटे हुए तार’ जून 2011 में प्रकाशित हुआ था। तब यह उनकी पहली प्रकाशित कृति भी थी। प्रस्तुत हैं उनके इसी संगह से कुछ प्रतिनिधि क्षणिकाएँ।}

कुछ क्षणिकाएँ
01. एक दिन में
मैं एक दिन में
कई बार चढ़ जाता हूँ

ताँवाखाड़ी की
चोटी पर,
और कई बार
गिर जाता हूँ
कान्टीनेन्टल की खाई में।
02. ख्याल आया
वादे-
तोड़ने के लिये ही
किये जाते हैं बेचैन,
जब-
तुम न आये तो
यह ख्याल आया।
03. ज्यादा दिन
यह 
अदा ही सही
गुस्सा न हो तेरा,
छायाचित्र : आकाश अग्रवाल
खुदा खैर करे
यह 
ज्यादा दिन न चले।
04. एहसास
भरने नहीं दिया
तब से
अपने जख्मों को मैंने,
भूल का एहसास
कर लेता हूँ
जब-जब दर्द होता है।
05. अकेला
दर्द 
किसका नहीं होता
सबको मिलता है,
कुछ-
लोग बाँट लेते हैं
कुछ अकेले
पचा लेते हैं।
06. पत्ता पतझड़ का
चैन न मिल पाया यहाँ
तो कल
वहाँ चला जाऊँगा,
एक पत्ता हूँ पतझड़ का,
चला जाऊँगा-
जहाँ हवा ले उड़े।
07. टूट जाता है
बहुत से
तागे पिरोकर
देख लिये,
ये दिल है
कि बार-बार
टूट जाता है।
08. आँख मिचौनी
पहले जमाने ने
फिर-
जिन्दगी ने मारा मुझको,
अब-
मौत है कि
आँख-मिचौनी खेलती है।
09. रात हो गई
रोज कहते थे
कि चले जाना
सांझ ढलने के बाद,

आज सांझ ढली भी नहीं
छायाचित्र : उमेश महादोषी

कहते हैं-
रात बहुत हो गई।
10. भरोसा है
अँधेरों का भरोसा है
कि ये
साथ रहेंगे उम्र भर,
उजालों का क्या है
कब
साँझ ढल जाये।

  • ‘आश्ना’, सी ब्लॉक, लेन नं.4, सरस्वती विहार, अजबपुर खुर्द, देहरादून (उ.खण्ड) / मोबा. 09411532432

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 5,   अंक  : 01-04,  सितम्बर-दिसम्बर  2015


।।हाइकु ।।

सामग्री :  इस अंक में श्री श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी एवं श्री ललित मावर के हाइकु।


श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी




{वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी जी का काव्य संग्रह ‘मले तमाखू-से गए’ कुछ ही माह पूर्व प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में त्रिवेदी जी की गज़ल, मुक्तक और दोहा रचनाओं के साथ 145 हाइकु भी संग्रहीत है। प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक से त्रिवेदी साहब के कुछ प्रतिनिधि हाइकु।}

कुछ हाइकु

01.
अँधेरी रातें

भटकते ही काटीं,
पहुँचे कहाँ!!
02.
यम-से काले
गहरे होते जाते
युद्ध के घन।।
03.
अशांत मन
लड़खड़ाते पग
सहें कितना!!
04.
बढ़ते देखा
अँगड़ाये बबूल
पैनाये काँटे।।
05.
कमल खिले
छायाचित्र : आकाश अग्रवाल

सुंदरता को नये
आयाम मिले।
06.
मछली रानी
कितना इतराती
पाकर पानी।।
07.
धुनी कपास
छितरी आसपास
कोरे बादल।।
08.
शरद खिली
नभ से धरा तक
सब निर्मल।।
09.
काटी न कटे
कठिन सवाल-सी
पूस की रात।।
10.
अहं में चूर
खड़े सबसे दूर
ताड़-खजूर।।
11.
मिल ही जाते
जटायु-से सुहृद
अरण्य में भी।।
12.
जीने न देते
दण्डकारण्य में भी
सोने के मृग।।
13.
गाते अल्हैत
बरसते बादल
गरजें दोनों।
14.
तरु-लतायें
हिल-मिलकर ही
शोभा बढ़ायें।।
15.
मन के बौने
दिखने को विराट
उठाये झंडे

  • द्वीपान्तर, ला. ब. शास्त्री मार्ग, फतेहपुर-212601 / फोन : 05180-222828



ललित मावर



{कवि श्री ललित मावर जी के हाइकु संग्रह ‘आकाश गंगा’ का द्वितीय संस्करण वर्ष 2008 में प्रकाशित हुआ था। इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं श्री मावर जी के कुछ प्रतिनिधि हाइकु।}


कुछ हाइकु 

01.
वासन्ती वन
ऋतुराज अहेरी

अहेर मन।
02.
टेसू दहके
पगलाया मौसम
बौर महके।
03.
नदी की बाढ़
यौवन का चढ़ाव
चढ़े पहाड़।
04.
जीवन-धारा
चढ़ता-उतरता
समय पारा।
05.
हवा तूफानी
रेतीला समन्दर
ऊँट जहाज।
06.
पानी में आग
बादल ही बादल
भागम भाग।
07.
रात कैकेयी
मुँह ढँके है पड़ी
माला बिखरी।
08.
फूल खिला  है
छायाचित्र : अभिशक्ति
माटी की तिजौरी से
कुछ मिला है।
09.
झरना कूदे
गाय के बछड़े-सा
आजाद पंछी।
10.
चाँद हँसिया
अँधेरे की धरती
सितारे उगे।
11.
बदली झरी
माटी महक भरी
तपन डरी।
12.
फूले पलाश
बहक गया मन
दहका वन।
13.
नदिया दौड़ी
बाँहें फैला सिन्धु ने
समेट लिया।
14.
गेहूँ की बाली
किसान की किस्मत
मुँह की लाली।
15.
मेघ गायक
मोर-मोरनी नाचें
वर्षा उत्सव।

  • 658, सुदामा नगर, नरेन्द्र तिवारी मार्ग के पीछे, इन्दौर-9 / फोन : 0731-2485860

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 5,   अंक  : 01-04सितम्बर-दिसम्बर 2015


।। जनक छंद ।। 

सामग्री :  इस अंक में डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के जनक छन्द।



डॉ. ब्रह्मजीत गौतम




जनक छन्द 
01.
कुहरे का विस्तार यों
दसों दिशाओं में हुआ
बढ़ता भ्रष्टाचार ज्यों।
02.
गगन-धरा-दिग्धाम में
गहन घटाएँ छा गयीं
ज्यों रिश्वत हर काम में।
03.
कुर्सी में वह ताप है
गूँगा भी पाकर जिसे
भर उठता आलाप है।
04.
नित्य खेल षणयंत्र के
छायाचित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल

नारे भाषण रैलियाँ
चेहरे हैं जनतंत्र के।
05.
आम आदमी आम है
अफ़सर जिसको चूसते
क्या प्रातः क्या शाम है।
06.
डुबकी नहीं लगाइये
चिंता-सागर में कभी
इच्छा-शक्ति जगाइये।
07.
डरो न यों तक़दीर से
कठिन, असंभव काम भी
होते हैं तदवीर से।

  • युक्का 206, पैरामाउन्ट सिम्फनी, क्रासिंग रिपब्लिक, गाजियाबाद-201016(उ.प्र.) / मोबा. 09425102154

बाल अविराम

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 5,   अंक  : 01-04सितम्बर-दिसम्बर  2015



।।बाल अविराम।।

सामग्री :  इस अंक में श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल की बाल कथा एवं डॉ. यशोदा प्रसाद सेमल्टी की बाल कविता बाल चित्रकार  स्तुति शर्मा एवं स्मिति गम्भीर  के चित्रों के साथ।



श्याम सुन्दर अग्रवाल 



मेहनत का मंत्र
      स्कूल में एक जादूगर आया। उसने कहा कि वह एक मंत्र जानता है। मंत्र से वह कुछ भी कर सकता है। मंत्र पढ़कर उसने खाली हैट से सफेद कबूतर निकाला। एक रुपये के नोट को दस रुपये का बना दिया। पानी का दूध बना दिया।
      जादूगर तमाशा दिखा चुका तो एक बच्चा उसके पास गया। बोला, ‘‘जादूगर अंकल, मुझे अपना मंत्र सिखा दो।’’
      ‘‘तुम क्या करोगे मंत्र सीखकर?’’ जादूगर ने पूछा।
      ‘‘परीक्षा में मेरे नंबर कम आते हैं। मंत्र से अपने नंबर बढ़ा लूंगा।’’
      ‘‘उसके पीछे खड़ा दूसरा लड़का बोला, ‘‘अंकल, मैंने तो भगवान को सवा रुपये का प्रसाद चढ़ाने को भी कहा था। फिर भी फेल हो गया। मुझे भी मंत्र सित्रा दो।’’
चित्र : स्तुति शर्मा

      जादूगर ने कहा, ‘‘बच्चो, ये मेहनत का मंत्र है। मैंने बहुत मेहनत कर अपने गुरु से ये सब खेल सीखे हैं। मेहनत और अभ्यास से इन्हें सफाई से करना सीख गया। जादू-वादू कुछ नहीं है। एक के दस कर सकता तो घर बैठकर ही रुपये बना लेता। तमाशा दिखाने का बच्चों से एक-एक रुपया क्यों लेता?’’
      बच्चे हैरान थे। जादूगर बोला, ‘‘बच्चो, मन लगाकर मेहनत करो। मेहनत के मंत्र से तुम्हें सफलता जरूर मिलेगी।’’
      बच्चों ने जादूगर की बात मान खूब मेहनत की। परीक्षा में दोनों को बहुत अच्छे अंक मिले।

  • 575, गली नं.5, प्रतापनगर, पो.बा. नं. 44, कोटकपूरा-151204, पंजाब / मोबाइल : 09888536437



डॉ. यशोदा प्रसाद सेमल्टी



पानी है अनमोल
पानी है अनमोल हे बच्चो
पानी जीवन दानी है
पानी से पशु-पक्षी जीते
पेड़-पौधे पानी से।

पानी से ये बाग-बगीचे

फसल भी उगती पानी से
पानी से यह धरती श्यामल
हरी-भरी है पानी से।

पानी से ये नदियाँ बहतीं
चित्र : स्मिति गम्भीर

झील-सरोवर पानी से
पानी से ये ताल-तलैया
झरने-झरते पानी से

पानी से ये बादल बनते

सागर बनते पानी से
पानी से पनचक्की चलती
बिजली बनती पानी से।

पानी है अमृत धरा का

पानी जग का जीवन है
पानी को बरबाद न करना
पानी की रक्षा करनी है।

  • राजकीय इण्टर कॉलेज, कवां एटहाली, उत्तरकाशी (उत्तराखण्ड)

अविराम विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 5,  अंक : 01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2015 



।।अविराम विमर्श।।

सामग्री :  इस अंक में डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय का आलेख- ‘‘आंचलिक कथासाहित्य की प्रेरक वृत्ति और शक्ति (डॉ. सतीश दुबे की औपन्यासिक कृतियाँ ‘कुर्राटी’ तथा ‘डेरा-बस्ती का सफरनामा’ के विशेष सन्दर्भ में)’’ तथा डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ द्वारा ‘‘सामाजिक-मानवीय परिप्रेक्ष्य में ऑनर किलिंग’’ विषय पर आयोजित बहस (प्रतिभागी- इन्दिरा किसलय, डॉ.रामकिंकर सिन्हा, कविता विकास एवं विनोद सागर)


डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय
आंचलिक कथासाहित्य की प्रेरक वृत्ति और शक्ति
(डॉ. सतीश दुबे की औपन्यासिक कृतियाँ ‘कुर्राटी’ तथा ‘डेरा-बस्ती का सफरनामा’ के विशेष सन्दर्भ में)
      आंचलिक कथा-साहित्य में सामाजिक विसंगतियों, सांस्कृतिक-अवधारणाओं एवं लोक जीवन की तनावग्रस्त रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं को उकेरने का प्रयास हुआ है। वस्तुतः आंचलिक कथा-साहित्य की प्रेरक वृत्ति और शक्ति आंचलिकता में निहित है। कथाकार अंचल विशेष के परिवेश से प्रेरित और प्रभावित होकर कथा-सृजन में जुटता है तथा आंचलिकता के माध्यम से राष्ट्रीयता को जीवंतता प्रदान करने का सद्प्रयास करता है। राष्ट्रीय अस्मिता की खोज ही कथा और कथाकार का अभीष्ट बनता है। यही कारण है कि लोक भावभूमि और लोकजीवन के वैशिष्ट्य को आंचलिकता के धरातल पर कथाकार चित्रित करता हुआ वैविध्य अंतर्निहित ऐक्य स्थापन में भी सफल सिद्ध होता है। लोकजीवन के तनाव को राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में चित्रित करना तथा उसे जनमानस के लिए ग्राह्य बनाना ही कथाकार का उद्देश्य होता है। लोकसंस्कृति का चित्रांकन संास्कृतिक परंपरा की अभिवृद्धि और समृद्धि का द्योतन करता है जिसका सीधा संबंध आंचलिक-कथा से होता है। जनमानस की अभिलाषाओं, आशाओं एवं आकांक्षाओं को मद्देनजर रखते हुए मानवता के प्रति उत्कृष्ट लगाव तथा स्थानीय जीवन और प्रकृति के प्रति गहरे अनुराग ने कथाकारों को कथासाहित्य-सृजन के लिए उत्साहित किया है।
     नया समाज, उसकी नई समस्याएँ एवं उससे उत्पन्न तनावग्रस्त स्थितियों-परिस्थितियों को चित्रांकित करने वाले समकालीन कथाकारों में आंचलिकता के फलक पर प्रस्तुत करने वाले कथाकार रेणु, विवेकीराय, डॉ. सत्यनारायण उपाध्याय, डॉ. नवलकिशोर, डॉ. रामदरश मिश्र आदि हैं, जिन्होंने लोकतत्व और लोकजीवन का सांस्कृतिक परिवेश में यथार्थवादी चित्रांकन प्रस्तुत किया है। समकालीन जीवन, उसके परिवर्तित स्वरूप एवं लोक परम्पराओं से प्रसूत नए मानमूल्यों की कथासाहित्य में उतारने और उभारने का जो कार्य हो रहा है, उनमें एक नाम डॉ. सतीश दुबे का भी जुड़ गया है जिनकी औपन्यासिक कृतियाँ ‘कुर्राटी’ और ‘डेरा-बस्ती का सफरनामा’ हैं। ‘कुर्राटी’ में भील आदिवासी की सामाजिक और सांस्कृतिक विकास और उत्थान की प्रक्रिया को आदिवासी युवा पीढ़ी को संदर्भित करते हुए कथानक का तानाबाना बुना गया है, जिसमें झाबुआ को केन्द्र में रखा गया है। दूसरी कृति ‘डेरा-बस्ती का सफरनामा’ है, जिसमें बांछड़ा समाज में प्रचलित कन्या देह व्यापार की परम्परा को सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में निरीक्षण-परीक्षण किया गया है, जिसके मूल में स्त्री की विवशता और अस्मिता को रेखांकित किया गया है। अतएव दोनों उपन्यास आँचलिक परिवेशगत परिस्थितियों में मानवीय सरोकारों का विचारोत्तेजक धरातल पर चित्रांकन करते हैं। 
      ‘कुर्राटी’ का कथाकार लोकजीवन में आए हुए तनाव से उत्पन्न समस्याओं के प्रति सजग है, सतर्क है एवं सावधान है क्योंकि शोषण के प्रति सम्प्रति भील समाज भी अपनी आवाज उठाने में सक्षम है। व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहा है। युवा पीढ़ी अब दिग्भ्रमित नहीं रही तथा आँचलिकता नए रूप में परिलक्षित होती है। कहा गया है कि ‘‘मेरा आशय यह कदापि नहीं है कि सुदूर-वन्य या ग्रामीण क्षेत्रों का दलित या जनजातीय समाज हाथ-पर-हाथ धरे बैठा है। सच तो यह है कि वह पूरे परिदृश्य से खूब परिचित है। अपने अधिकारों के प्रति सजगता एवं शोषण के विरुद्ध मोर्चेबंदी की चेतना का उसमें जबरदस्त विकास हुआ है। राजनैतिक सोच दलबन्दी के कारण भले ही संकुचित हो गई हो, किन्तु व्यक्तिगत सोच का दायरा बढ़ा है। दरअसल, यही सोच समस्याओं के निदान हेतु कारगर सिद्ध हो सकती है। मेरा आप युवापीढ़ी से अनुरोध है कि शिक्षाकाल समाप्त होने के बाद परिवर्तित सामाजिक स्थिति में भी आप अपने घर-गाँव से जुड़े रहें तथा बौद्धिक स्तर पर ही नहीं, व्यावहारिक स्तर पर भी समस्याओं को समझकर सम्मानजनक हल ढूंढ़ने का प्रयास करें।’’ (पृ.174)
      उल्लेखनीय है कि प्रमुख पात्र के माध्यम से परम्परागत स्थापित समाज और नए बसे समाज के बीच द्वन्द्वात्मक स्थिति, नैसर्गिक जीवन को खंडित करने वाली परिस्थिति तथा लोकजीवन के सांस्कृतिक चैतन्यता को कथाकार ने उभारने का प्र्रयास किया है जिसके मूल में सम्भ्रांतिक जीवन और उसके परिवर्तित स्वरूपों के खोज की अहम् भूमिका है। लोक-विश्वास में आस्था है, परम्परा के प्रति अनुराग और लगाव है। नागराज और दादा के संवाद से स्पष्ट है कि शासन और प्रशासन दोनों स्तरों पर भ्रष्टाचार जोरों पर है और यह लाइलाज है, दूर करना समसामयिक परिवेश में बहुत ही मुश्किल है। साक्ष्य है यह कथन, ‘‘लाखों का बजट रहता है हरिजन आदिवासियों के लिए। सरकार के पास पैसा-ही-पैसा है। उनको व्यवसाय दिलाना, उनके बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए कोडी-कटोर छात्रावास आश्रम है, वहाँ के लिए बिस्तर बर्तन से लेकर गादी-गोदड़े तक खरीदे जाते हैं। सबकी खरीद में सबको मिलता  है। कभी-कभी तो माल खरीदा भी नहीं जाता और स्टॉक इन्ट्री होकर पेमेन्ट हो जाता है। हमको सब मालूम रहता है, और मालूम होते हुए भी पाप की पहली सीढ़ी हम बनते हैं। उस पर भी हक्क का ना मिले तो दुःख तो होगा ना!’’ (पृ.18)
      भीलों की शैक्षणिक एवं सामाजिक चेतना को झाबुआ के परिपार्श्व में रखकर लोकजीवन और लोकसंस्कृति का दिग्दर्शन कराया गया है तथा उससे संदर्भित लोकगीत, कथा, त्यौहार, उत्सव, क्रीड़ा, पूजा-अर्चना आदि को भी यथा प्रसंग विवेचित किया गया है। सोमल्या परम्परागत जीवन शैली में विश्वास रखने वाले परिवारजनों को सुशिक्षित समाज से परिचित कराने में हीनता महसूस करना आदि तथ्यों को भी रेखांकित किया गया है। कथाकार ने भीलों की तांत्रिक-साधना के बारे में प्रचलित धारणा तथा उपलब्ध तथ्यों को आधार मानकर अपने कथ्य को प्रमाणित किया है क्योंकि भील धार्मिक दृष्टि से विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त है। एक वर्ग विशेष शैव मतानुयायी है। तांत्रिक साधना इनमें बहुत प्रचलित है। भैरव तथा भैरवी के आराधक मौके-बेमौके तांत्रिक वेषभूषा में उन्माद के चरम पर मांदल ढोल की उत्तेजक धुनों पर विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करते हैं। तांत्रिक की परम्परा को बड़वे या भौपा किसी न किसी रूप में बनाए रखे हैं। विभिन्न दैविक तथा दैहिक कष्टों का निदान इन्हीे के द्वारा किया जाता है। (पृ. 51) आँचलिकता की तरंगें सम्पूर्ण उपन्यास में प्रवाहित होती देखी गई हैं।
      शिक्षा के क्षेत्र में छात्रवृत्ति का सबको दिलाना, वितरण व्यवस्था में दोष, जबरदस्त भीलों में शैक्षिक ऊर्जा का संचार, महाविद्यालयीन शिक्षा का स्तर, आत्म विश्वास की क्षमता-दक्षता आदि का भी संकेत मिलता है। दलबदल, घोटाला, घेराव, बन्द, रास्ता रोको, मण्डल-कमण्डल, गुटबाजी, फिरका परस्ती, हड़ताल, भ्रष्टाचार, पक्षपात, भाई-भतीजावाद आदि नारे सिद्धान्त की लड़ाई या देश की प्रगति के लिए नहीं- सत्ता, कुर्सी, स्वार्थसिद्धि, अस्तित्वरक्षा, कुनबा-परस्ती के लिए गढ़े गए हैं- को भी रेखांकित किया गया है जो राष्ट्रीय चरित्र का द्योतक करते हैं। नागराज द्वारा भोले-भीलड़े की मदद करना तथा अन्ततः उसकी पहल पर कुर्राटी मारकर भाग जाने में सफल होना आदि तथ्यों ने नैतिक मूल्यों की स्थापना का संकेत दिया है। नागराज के कानों में मंगल्या बेस्ता के ये शब्द गूंजते रहे कि ‘‘शाब, थोड़ी-सी मदद मिल जाए तो कुर्राटी मारकर हम भी कहीं भी पहुंच जायें।’’ (पृ. 176) सम्प्रति इसी छोटी-सी मदद की समस्त पिछड़े क्षेत्रों में आवश्यकता है जिसके द्वारा गरीबी, अशिक्षा, रोजी-रोजगार, बीमारी, आवासीय समस्या, पानी की समस्या आदि से निजात पाया जा सकता है। यही राष्ट्रीय और प्रादेशिक लक्ष्य प्राप्ति हेतु आवश्यक भी है जिसके द्वारा प्रत्येक शोषित-पीडि़त एवं गरीब व्यक्ति कुर्राटी मारकर अपना व्यवस्थित जीवनयापन कर सके। यही सही मायने में राजधर्म, राष्ट्रधर्म एवं मानवधर्म भी है - यही उपन्यास और उपन्यासकार का अभीष्ट भी है। 
      दूसरी क्रान्ति - ‘डेरा-बस्ती का सफरनामा’ प्राकृतिक सुषमा के सुरम्य हरे-भरे वातावरण के मध्य, विशेष प्रकार की जिन्दगी जीने वाले बांछड़ा समाज में व्याप्त अनैतिक क्रियाकलाप एवं स्त्रियों के दैहिक शोषण और उत्पीड़न पर आधृत कथानक का जीता-जागता साक्ष्य है जिसमें कहा गया है कि यह सामाजिक व्यवस्था का ऐसा अभिशप्त समाज है, जहाँ औरत के लिए देह-व्यापार प्रथा के अनुसार बाध्यता है। यहाँ देह व्यापार या धन्धे पर बिठाने के लिए कोखजाई बेटी की माँ रस्म अदायगी, पिता दलाली तथा भाई येन-केन प्रकारेण व्यापार में मदद करता है। मालवा के लोक जीवन में किसी स्त्री को जलील करने के लिए ‘रामजणी’ और ‘वैश्या’ के बाद जिस उच्चतम विशेषण शब्द का प्रयोग किया जाता है, वह है बांछड़ी। (पृ. 13) समकालीन जीवन और उसकी जटिलताओं का लोकतत्व और लोकजीवन से संदर्भित क्रियाकलापों का अन्वेषण कथाकार ने यथार्थवादी फलक पर किया है। बांछड़ा-समाज में प्रचलित अवधारणाएं, मान्यताएं, रीति-रिवाजों, सामाजिक मर्यादाएं एवं सांस्कृतिक पक्षों को उजागर करते हुए नारी की दयनीय एवं विवश स्थिति को संवेदनात्मक धरातल पर चित्रित किया गया है जिसमें विविध प्रकार की यातनाएं भोगनी पड़ी हैं।
      बाँछड़ा समाज की विकृत संस्कृति, विकृति आकृति एवं प्रवृत्ति को समसामयिक परिवेश में सुधारने की आवश्यकता है, जनजागरण अभियान चलाने की महती आवश्यकता है तथा शासन-प्रशासन एवं समाज को संवेदनशीलता और सहानुभूति के धरातल पर उनके जख्मों पर मरहम लगाते हुए सम्मानपूर्वक जीवन जीने को प्रेरित करना है, प्रोत्साहित करना है एवं उन्हें सहयोग देना है ताकि एक स्वस्थ समाज एवं समरस समाज की स्थापना हो सके- यही युगधर्म भी है। माँ द्वारा अपनी कोख से उत्पन्न बेटी को प्रथा निर्वाह हेतु रखैल रूप में बेच देना और ग्राहक द्वारा छोड़ दिए जाने पर बेटी द्वारा देह-व्यापार की ओर प्रवृत्त होना सामाजिक विकृति और विकृत मानसिकता का परिचायक है। यह तथ्य भी विचारणीय है कि देह-व्यापार की मजबूरी का यह मुद्दा किसी एक जाति-विशेष से नहीं हमारे जीवन-मूल्यों की सांस्कृतिक परम्परा और नारी की आदर्श छवि से जुड़ा हुआ है जो अद्यतन परिवेश में चिंता और चिंतन की अपेक्षा रखता है।
      सामाजिकता और सांस्कृतिक चैतन्यता को एकमेव करने की प्रबलेच्छा ने कथा-सृजनशीलता को प्रभावित किया है। आंचलिक कथा-साहित्य की तनावग्रस्तताओं ने सामाजिकता को बुरी तरह से प्रभावित किया है लेकिन विकृति ने संस्कृति को पूरी तरह ध्वस्त नहीं किया है, अभी आस्था और विश्वास के साथ उनमें बदलाव लाया जा सकता है। कथाकार ने अपने द्वारा उठाए गए जीवित प्रश्न का समाधान इन पंक्तियों में प्रस्तुत किया है- ‘‘उपेक्षित और नाकारा वर्ग को मुख्य धारा से सम्बद्ध करने में दो बिन्दु मददगार हो सकते हैं। पहला धर्म और धार्मिक प्रतीकों के प्रति आस्था, जो प्रकारान्तर से उनमें निहित नैतिक बोध से परिचित कराती है और दूसरा, नई पीढ़ी की युवा महिलाओं में बदनामी के कारागृह से मुक्ति की छटपटाहट।’’ (पृ. 156) परम्परागत मान्यताओं को बाधा और अवरोध न मानकर एक चुनौती के रूप में स्वीकारते हुए परिवर्तनगामी स्थितियों और परिस्थितियों को एक अभियान आन्दोलन का रूप देने की आवश्यकता है।
      शास्त्रीय परम्परा में कथा-साहित्य के छः तत्व माने गए हैं जिनमें कथानक, पात्र और चरित्र-चित्रण, कथोपकथन या संवाद, वातावरण या देशकाल परिस्थिति, भाषा-शैली एवं उद्देश्य हैं। यहाँ तात्विक विवेचन की अपेक्षा समीक्षात्मक विश्लेषण अपेक्षित है। दोनों उपन्यासों की कथाएँ उपन्यासकार के निकटस्थ समाज से उपजी हैं जिसमें समाज के अँचल विशेष को परोक्षतः नायकत्व प्रदान किया गया है। ‘कुर्राटी’ में झाबुआ के आदिवासी युवापीढ़ी भीलों की सामाजिक और शैक्षणिक चेतना को कथानक के रूप में नायकत्व प्रदान किया गया है जबकि ‘डेरा-बस्ती का सफरनामा’ बाँछड़ा समाज का प्रतिनिधित्व करने में सफल रहा है। मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था एवं विश्वास तथा सामाजिक बदलाव के प्रति रुचि-रुझान ने कथाकार को आदिवासी भील समाज और बाँछड़ा समाज से संवेदनशीलता के स्तर पर जुड़ने को प्रेरित किया है, प्रोत्साहित किया है जिसकी चरम परिणति इन उपन्यासों की सर्जना में देखने को मिली है।
      इन उपन्यासों में परिवेश के बहुआयामी चित्रांकन के साथ-साथ मानवीय मूल्यों के क्षरण की चिंता भी देखी गई है जो कथाकार की अभिनव उपलब्धि कही जा सकती है। अंचल विशेष की सम्पूर्ण विशिष्टताओं के साथ बोली, त्यौहार, उत्सव, समारोह, लोकगीत, लोकपर्व एवं परिवेशगत जनरीतियों का जीवंत चित्रण निश्चय ही औपन्यासिक प्रवृत्ति का द्योतक सिद्ध हुआ है। अंचल विशेष की समस्या जनसामान्य की समस्या बन गई है तथा प्रकारान्तर से वही राष्ट्रीय समस्या भी है। संक्रमणकालीन स्थिति और परिस्थिति से जूझता हुआ ‘बांछड़ा’ और ‘भील’ समाज धूमिल और दिशाहीन स्थिति से गुजरते हुए सम्प्रति पंकजीवन मुक्ति हेतु व्यग्र है, व्याकुल है क्योंकि आदिवासियों-दलितों पर बेवजह अत्याचार और उनके द्वारा चुपचाप सहते रहने का जमाना अब कोसों दूर पीछे रह गया है। समग्रतः कहा जा सकता है कि कथाकार की अभीष्ट प्राप्ति सामाजिक और सांस्कृतिक चैतन्यता और उससे उत्पन्न विसंगतियों के प्रस्तुतीकरण में निहित है। इन उपन्यासों में सामाजिक और सांस्कृतिक विडम्बनाओं के परिप्रेक्ष्य में आंचलिक परिवेशगत वृत्ति और शक्ति को रेखांकित करते हुए चुनौती भरे प्रश्न उठाए गए हैं जिसके लिए डॉ.सतीश दुबे की प्रज्ञा की अनुशंसा करते हुए उनकी साहित्य-साधना हेतु अनेकानेक धन्यवाद!

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बहस संयोजक :  डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
सामाजिक-मानवीय परिप्रेक्ष्य में ऑनर किलिंग
साहित्य में कई तरह के सामाजिक सरोकारों को लेकर आन्दोलनात्मक बहसें, चिन्तन और चर्चाएं होती रही हैं। बहस का एक सामाजिक मुद्दा ‘ऑनर किलिंग’ यानी ‘अपने सम्मान की रक्षा के नाम पर परिजनों की हत्या कर देना’है। इस सन्दर्भ में सम्मान से जुड़े जिन कारणों से हत्यायें की जाती हैं, के परिप्रेक्ष्य में इस तथ्य पर विचार किया जाना जरूरी है कि सम्मान का प्रश्न (चाहे जितना भी बड़ा हो) क्या किसी के जीवन से ऊपर हो सकता है? माना कि हमारी सामाजिक व्यवस्था के वर्तमान ढांचे में बहुत सी चीजें स्वीकार्य नहीं हैं और वे किसी परिवार या व्यक्ति के सम्मान को बहुत हद तक ठेस भी पहुंचाती हैं, लेकिन क्या ऐसी चीजों का कोई ऐसा हल नहीं ढूंढ़ा जा सकता कि जीवन सर्वोपरि बना रहे? अविराम साहित्यिकी में ‘बहस’ की दूसरी कड़ी का आरम्भ इसी विषय पर करने का निश्चय करते हुए हमने साहित्यकारों-पाठकों से उनके विचार इन प्रश्नों के सन्दर्भ में आमंत्रित किए थे- 1. समाज के हर तबके का शैक्षणिक व आर्थिक विकास हो रहा है और विभिन्न जाति समूहों के मध्य अन्तर्सम्बन्ध भी विकसित हो रहे हैं, पुरानी परम्पराएं टूट रही हैं और नए मूल्यों के प्रति स्वीकार्यता भी बढ़ रही है, फिर भी ऑनर किलिंग की घटनाएं बढ़ रही हैं। अनुभवों और चिंतन के आधार पर इस परिदृश्य को आप कैसे देखते हैं? 2. विभिन्न जाति समूहों के मध्य बन रहे अन्तर्सम्बन्धों की मिकेनिज्म (प्रक्रिया) आपको कैसी लगती है? कहीं इस मिकेनिज्म की प्रकृति तो ऑनर किलिंग का कारण नहीं बन रही है? 3. सामान्यतः ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाओं के मूल में जातियों-समूहों-समुदायों के मध्य की विषमताएं होती हैं। साहित्य इन विषमताओं को आइना दिखाता रहा है। इस दृष्टि से साहित्य इस समस्या के निदान में क्या भूमिका निभा सकता है? 4. समाज के विभिन्न समूहों के पारस्परिक सरोकार और उनमें विकसित हो रही नई व्यवहार दृष्टि के सूत्र ऑनर किलिंग के कारणों का समाधान प्रस्तुत करने में कोई भूमिका क्यों नहीं निभा पा रहे हैं? 5. ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाओं को सरकार के स्तर पर कठोर कानून के माध्यम से क्या रोका जा सकता है? आप सरकार की भूमिका को किस तरह देखते हैं? 6. ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाओं को रोकने के लिए साहित्यकार के रूप में आप तेजी से बदलते मूल्यों में विश्वास करने वाली नई पीढ़ी की भूमिका को किस प्रकार देखते हैं? 
    प्राप्त विचारों में से जिन चार लेखकों के विचार प्रस्तुति हेतु उपयुक्त लगे, वे यहाँ प्रस्तुत हैं। कुछेक मित्रों ने कुछ और समय चाहा, लेकिन अंक के प्रकाशन में बिलम्ब करना संभव नहीं था। संपादक से बात करके यह विकल्प खुला रखा गया है कि यदि किसी मित्र का आलेख विलम्ब से प्राप्त होता है, तो उसे आगामी किसी अंक में एक सामान्य आलेख के रूप में शामिल कर लिया जायेगा। पर यह चिन्तनीय अवश्य है कि सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर चर्चा के लिए लघु पत्रिकाओं के पाठकों/लेखकों के पास समय की कमी है। क्या लघु पत्रिकाओं को समाज से जुड़ी चीजों पर चर्चा की ओर ले जाने का प्रयास इनके पाठकों और लेखकों को नहीं करना चाहिए? फिलहाल प्रस्तुत है एक महत्वपूर्ण विषय पर प्रतीकात्मक चर्चा।

इन्दिरा किसलय



वोट बैंक की राजनीति शह देती है

औद्योगिक क्रान्ति के बाद महाबली बाजार ने मात्र मुनाफे की भाषा का आविष्कार किया और संचार क्रान्ति ने ग्लोबल विलेज की संकल्पना साकार की। ऐसे में सांस्कृतिक संवाद, आक्रमण और अतिक्रमण होना ही था। इस पृष्ठभूमि पर भारत में कुछ परंपराएँ ध्वस्त हुई, कुछ शिथिल तो कई कुनमुनाती हुई पड़ी रहीं। विभिन्न जाति समूहों के बीच रोटी-बेटी के संबंध बने, जो श्रेष्यकर कहे जा सकते हैं।
    यह संक्रमण काल है। ऑनर किलिंग बदस्तूर जारी है। इसका अर्थ इतना सा है कि समाज में सतह पर जो बदलाव नज़र आता है, वह कुछ ही वर्गों या इलाकों में आया है, सर्वत्र नहीं। दरअसल पूरा समाज एक स्वीकृत मान्यता पर नहीं चलता। उसके कई तल होते हैं। आर्थिक स्तर, जातीय श्रेष्ठता, विरासत का अहं और क्षेत्र विशेष की मान्यताएँ इसे संचालित करती हैं। ऑनर किलिंग को जाति, समुदाय या कबीलों में वर्चस्व की लड़ाई, इलाकाई रंजिश, निजी खुन्नस या वंश, गोत्र, परंपरा के नाम पर जानलेवा अहंकार का प्रफल कहा जाना चाहिए।
     साहित्य से परिवर्तन की आकांक्षा, मेघों से वर्षा की चाह जैसी स्वाभाविक है। पर साहित्य की प्रकृति माचिस की तीली की तरह नहीं होती,कि बाती को छूकर तत्काल उजाला कर दे। सामाजिक परिवर्तन, कछुए की चाल चलते हैं। वर्तमान में जिस स्तर पर साहित्य ने अवसरवाद का झंडा ऊँचा किया है, गंभीर वैचारिकी और सामाजिक प्रतिबद्धता धूल चाटने लगी है।
     बेशक समाज के कई समूहों में विज्ञानवादी व्यवहार दृष्टि और पारस्परिक सरोकार विकसित हुए। पर यह नूतन दर्शन हाफ हार्टेडली अपनाया गया! न पुराने का मोह छूटा न नये का आकर्षण। जैसे कोई युवती जीन्स टॉप और पेंसिल हील वाले सैंडिल धारण करे और पाजेब बिछुए पहनकर मांग में सिन्दूर की लंबी रेखा खींच दे।
     सरकार और कानून किसी भी सामाजिक विकृति को जड़ से नहीं उखाड़ सकते। क्योंकि वोट बैंक की राजनीति ही है जिसकी शह पर ‘खाप’ जैसे संगठन बेखौफ फतवे जारी करते हैं। राज्य सरकारें, दिखावे के लिए, हल्ला मचाकर चुप हो जाती हैं और मीडिया चौबीस घंटे बीन बजाकर रुख बदल लेता है।
     जब तक पंचायतों के माध्यम से गांव किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी के हमराज़, हमकदम, हमनिवाला बने रहेंगे, ऑनर किलिंग का खात्मा नामुमकिन है।
     इस सन्दर्भ में नई पीढ़ी की भूमिका, निश्चय ही अहम है। वह चरम व्यक्तिवाद की गिरफ्त में है। कुछ क्रान्तिकारी युवा पहल करना चाहें तो बेबसी उनके कदम रोक लेती है क्योंकि उन्हें पता है कि शहर कोतवाल और चोर की हथकड़ी का नंबर एक है। गांवों में कबीले, कट्टरवाद के तहत लामबन्द होते हैं तथा शहर में पैसा और रसूख बोलता है।
     निष्कर्षतः एकाकी प्रयास से कुछ न होगा। साहित्य, मीडिया, युवा, महिलाएँ, कानून और स्वयंसेवी संगठन मिलकर, समवेत स्वर में प्रयास करें, तो ही परिवर्तन हेतु जमीन तैयार होगी और सड़ी गली मान्यताओं को दो गज जमीन के नीचे दफ्न किया जा सकेगा।

  • 58/101, बल्लालेश्वर मार्ग, रेणुका विहार, रामेश्वरी रिंग रोड, नागपुर-440027(महा.) / मो.: 09371023625 



डॉ.रामकिंकर सिन्हा




जनमानस को तैयार करके ही समाधान संभव है
01. ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाएँ इसलिए बढ़ रही हैं कि लोगों में शैक्षणिक एवं आर्थिक विकास तो हो रहा है, पर मानसिक विकास नहीं। स्त्रियों के प्रति हमारा दृष्टिकोण एकदम पुरातन पंथी है। उन्हें हम गुलामों से अधिक कुछ नहीं समझते, उन्हें स्वतंत्रता नहीं दे सकते कि वह अपनी पसंद के लड़के से विवाह संबंध स्थापित कर सके। लड़का दूसरी जाति का हो तब तो यह प्रायः असंभव ही है। झूठे जातीय स्वाभिमान का भाव इतना बढ़ गया है कि पुरुष सत्तात्मक समाज भौतिकता और दिखावे की चकाचौंध में पहले तो आंकलन ही नहीं कर पाता है कि उनकी लड़की की किसी दूसरी जाति के लड़के से घनिष्ठता बढ़ रही है और जब इस संबंध के पराकाष्ठा पर पहुँचने की जानकारी हो जाती है, तो लड़की के घर के अभिभावक हताश होकर उहापोह की स्थिति में लड़की के साथ ‘ऑनर किलिंग’ का अमानुषीय खेल खेलते हैं।
02. विभिन्न जाति समूहों के बीच अन्तर्संबंध की प्रक्रिया मात्र झूठे आत्मसम्मान और भौतिक समृद्धि को लेकर है। मेरी समझ से इसमें स्त्रियों की सामाजिक स्थिति बदले और उनकी भावनाओं का सम्मान हो, इसको लेकर कहीं कोई भाव कार्य नहीं कर रहा है। इसलिए मुझे यह ‘ऑनर किलिंग’ का कारण नहीं लगता है।
03. यह सच है कि साहित्य जातियों-समूहों-समुदायों की विषमताओं को युगों से आइना दिखाता आ रहा है, पर वर्त्तमान में ऐसी प्रवृत्तियों की रफ्तार अत्यन्त धीमी है। साहित्य इस समस्या के निदान में अपनी भूमिका बखूबी निभा सकता है, बशर्तें कि साहित्यकार इस समस्या को केन्द्र बनाकर इसके उन्मूलन हेतु रचनाएँ लिखें, क्योंकि यह पीढि़यों तक चलने वाला कार्य है। खुलापन और व्यक्तियों के मेलजोल तो बदलते परिवेश में रुकेंगे नहीं, उन्हें चिन्तन के स्तर पर ऊँचा बनाने का कार्य साहित्य ही कर सकता है।
04. ऐसा इसलिए नहीं हो पा रहा है कि समूहों के पारस्परिक सरोकार और उनमें विकसित होने वाली नई व्यवहार दृष्टि में ‘ऑनर किलिंग’ कोई विषय है ही नहीं। लोग स्वेच्छाचारी हो गये हैं और नैतिकता तथा सामाजिक दृष्टिबोध के अभाव में इसे कोई सामाजिक समस्या मानता ही नहीं। लोग सोचते हैं कि जिसकी समस्या है वही इसका समाधान भी खोजे, हम व्यर्थ में इस पचड़े में क्यों पड़ें? इसका नतीजा यह होता है कि ये समस्या जिनपर भी पड़ती है वे आनन-फानन में झूठे आत्मसम्मान की रक्षा के लिए विक्षिप्तों की तरह ‘ऑनर किलिंग’ का अत्यन्त दारुणकृत्य कर बैठते हैं।
05. हर्गिज नहीं। आज तक कानून के माध्यम से किसी भी सामाजिक समस्या का निदान नहीं हुआ है जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण दहेज रोकने के लिए बने कानून हैं। सरकार समाज को विश्वास में लेकर ही ऐसी समस्याओं पर अंकुश लगाने के बारे में सोच सकती है। जब तक बैठकों, विचार गोष्ठियों, सभाओं, सेमिनारों, आंदोलनों आदि के माध्यम से जनमानस को तैयार नहीं किया जाता तब तक कोई भी सरकार इतने नाजुक विषय को छूने की भी हिम्मत नहीं कर सकती।
06. आज के तेजी से बदलते मूल्यों में विश्वास करने वाली नई पीढ़ी की भूमिका इस संबंध में अत्यन्त उदासीन है। नई पीढ़ी के सामने बस उनका अपना खुद का भविष्य है कि पढ़-लिख कर हजारों-लाखों रुपयों का पैकेज़ मिल जाए जिससे वे वैभव-विलास से भरपूर जीवन बिता सकें। नई पीढ़ी को इससे कोई मतलब नहीं है कि कौन क्या है? किस समस्या का कैसे समाधान हो सकता है? इसका कारण यह है कि उसका सामाजिक और नैतिक स्तर अत्यन्त सामान्य है और चूँकि वह वर्त्तमान शिक्षा-पद्धति की उपज है जहाँ भौतिक समृद्धि और व्यक्तिगत सफलता पाने के लिए आदमी कुछ भी कर सकता है, पर नैतिक शिक्षा, सामाजिक शिक्षा और मानवीय संवेदनाओं से शून्य पीढ़ी के पास इतनी ऊँची सोच कहाँ कि वह ऐसी घटनाओं के बारे में कुछ सोचे, विचारे और करे।

  • सनशाइन प्ले एंड पब्लिक स्कूल, ब्लॉक रोड, पेटोल पंप के पीछे, पो. जपला, जिला पलामू-822116,झारखंड / मो. 07631146532



कविता विकास




शिक्षा का अभाव बड़ी सीमा तक जिम्मेवार है 

समाज के तथाकथित ठेकेदार जिन्होंने समाज का ठेका ले रखा है, अपने सम्मान की रक्षा में कुछ भी करवा सकते हैं। अमानवीय अत्याचार तो इनके लिए बहुत छोटी बात है और किसी की जान लेना कोई बड़ी बात भी नहीं। एक समय में सामंतवादी प्रथा का इतना दबदबा था कि अपनी साख बनाये रखने के लिए ये पूरा का पूरा क़स्बा मिटा डालते थे पर झुकने या समझौता करने जैसी कोई बात इनके शब्दकोश में नहीं होते थे। समय बहुत बदला। गुलामी की ज़ंजीरें टूटीं। पर कुछ स्थानों में अपने नियम-क़ानून आज भी चलते हैं। उनके लिए न्यायालय बहुत दूर हैं। समाज के ऐसे वर्ग देश की मुख्यधारा से कटे हुए हैं। उनमंे शिक्षा का घोर अभाव है। निम्न जातियों में भी जो सबसे उच्च हैं वो अपना दबदबा  कायम रखने के लिए कभी अंतर्जातीय विवाह नहीं पसंद करते। इससे वे अपनी मांन्यताओं या परम्पराओं को विखंडित होना मानते हैं। मूल कारण इनके पीछे फिर वही है, यानी अज्ञानता, विचारों के परस्पर आदान-प्रदान का अभाव और क्षेत्र विशेष की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन को अपनाने से दूर भागना। सूचना का अधिकार इन भूभागों में पहुँचा ही नहीं। स्वयं सेवी संस्थाएं भी इन तक नहीं पहुँचती जब तक की कोई हादसे की खबर सार्वजनिक न हो जाए। वीरभद्र की घटना को ही लीजिये। विजातीय लड़के से प्रेम करना इतना बड़ा अपराध माना गया कि लड़की को पूरे पंचायत के सामने नंगा खड़ा कर पीटा गया और साथ में गाँव के बड़े-बुज़ुर्गों के सामने उस लड़की से सामूहिक बलात्कार करने का फैसला सुनाया गया। प्यार करने का अपराध किसी भी कीमत पर लड़की की जान से बड़ा नही था। ऑनर किलिंग का एक और हालिया घटना बोकारो के निकटवर्ती गाँव से जुड़ा हुआ है। मामला अंतर्जातीय विवाह का और फैसला मानवता की सारी हदों को पार करता हुआ बेहद संवेदनशील। लड़की के भाई को आदेश दिया गया कि वह लड़के की बहन का रेप करे। भला ऐसी सज़ाएँ कानून की किस किताब में लिखी हैं? पिछले दिनों ओडि़सा की एक जनजाति में 18 साल की युवती के गर्भवती होने की सूचना आयी और पंचायत ने उस अविवाहित युवती को नंगे बदन गाड़ी से बाँध कर कई किलोमीटर तक सड़क पर खिंचवा डाला। अंततः उसकी मृत्यु हो गयी। इन सभी घटनाओं में एक बात कॉमन है, वह यह कि ये सभी गाँव-देहात में बसने वाली पिछड़ी जातियों में ज्यादा प्रचलित है। ज़ाहिर है, उन इलाकों में शिक्षा का घोर अभाव है। साहित्य की बातें तो साधारण पढ़े-लिखे परिवारों में भी नहीं समझा जाता है, फिर इन कस्बों में भला कौन समझेगा। ज़रुरत है इनमे जागरूकता लाने की। वह भी मोटी-मोटी पोथियों से नहीं, हलके-फुल्के संवादों से। नुक्कड़ नाटक, नौटंकी या चौपाल के माध्यम से जागरूकता लाने की पहल करनी होगी। हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में प्रचलित खाप व्यवस्था भी अंतर्जातीय  प्रेम प्रसंग को अपने सम्मान से जोड़कर देखता है और ऐसी घटनाएं जब तक राष्ट्रीय समाचारों का हिस्सा बनतीं हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। उन जोड़ों को कुसूरवार ठहराते हुए अपमानित किया जाता है और कठोर सज़ाएं दी जातीं हैं।
     ऑनर किलिंग का आधार जातीय संकीर्णता रही है। विभिन्न समाज सुधारकों द्वारा इसके उन्मूलन के प्रयास किये गए, पर यह अब भी कायम है। जातीयता और अपने मापदंडों से परे कोई काम इनकी आन, बान और शान पर बट्टा लगने जैसा है। इसलिए ये अनुचित और अनैतिक कार्य करते हैं। यह निश्चित है कि जब तक जातीय संकीर्णता रहेगी, तब तक समाज में जाति-पाँति, छुआछूत, ऊँच-नीच आदि की भावना व्याप्त रहेगी। एकता, समानता और हम की भावना का अभाव रहेगा। सरकार को जातीयता के नाम पर हो रहे भेदभावों को दूर करने के लिए यथासंभव कदम उठाने होंगे, नयी क़ानून व्यवस्था बनाकर उनका कड़ाई से पालन करना होगा। कबीर ने आज से दो सौ साल पहले समाज की बुराइयों की जड़ संकीर्ण जातीयता बताई थी, इसलिए उसने, ‘‘जाती पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’’ कहकर जातीयता को ख़त्म करने की चुनौती दी थी। एक साहित्यकार का आयाम बहुत विस्तृत होता है। वह अपनी कलम को तलवार बना कर समाज के उक्त ठेकेदारों की सोच को बदल सकता था। अपनी लेखनी के माध्यम से जाति व्यवस्था का विरोध करते हुए उन्नति के मार्ग को प्रशस्त कर सकता है। ऋग्वेद की एक उक्ति में कहा गया, ‘‘पुरान पुमासं परि पातु विश्वत।’’ भारतीयों को अधिकार और सामजिक न्याय दिलाने का संघर्ष प्राचीन है। शिक्षा का समान अधिकार वैदिक काल में था जो मुग़ल काल में नगण्य हो गया। 1908 ईस्वी में मालवरी द्वारा स्थापित सेवा सदन सोसाइटी तथा 1914 ईस्वी में वुमन मेडिकल सर्विस संस्था आदि ने शिशु स्वास्थ्य, मातृत्व की प्रगति और विधवाओं को नौकरियाँ दिलाने जैसे प्रशंसनीय कार्य किये। ज़मींदारी उन्मूलन का निर्णय एक क्रांतिकारी कदम था। पर देश के आंतरिक भागों में पंचायत या खाप के फैसले अब तक मान्य हैं। पंचायती राज के अंतर्गत स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाएं छोटी-मोटी समस्याओं को सुलझाने में कामयाब हैं। लेकिन इन्हें अपने स्तर से उठकर थोड़ा लचीला और व्यापक होना होगा। शादी-विवाह जैसे मामलों में जहाँ अंतर्जातीय सम्बन्ध बनाने की बात आती है, इन संस्थाओं को निजता से परे संबंधों की गरिमा पर ध्यान देना होगा। एक मज़बूत क़ानून व्यवस्था के तहत पंचायतों के अमानवीय निर्णयों को पूरी तरह ख़त्म कर देनी चाहिए।  
     मानव अधिकार प्राकृतिक है। समस्त व्यक्तियों को समाज में प्रतिष्ठा के साथ जीवन यापन के मौलिक अधिकार मिलने चाहिए। एक कल्याणकारी राष्ट्र के लिए धर्म, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में लिंग, जाति या भाषा में भेदभाव नहीं  होनी चाहिए। इन विषमताओं को दूर कर मनुष्य को उसका मौलिक अधिकार देना चाहिए क्योंकि अधिकार ईश्वर प्रदत्त है न कि मानव प्रदत्त।

  • डी.-15, सेक्टर- 9, पो.ओ. कोयलानगर, जिला धनबाद-826005, झारखण्ड / मो. 09431320288


विनोद सागर




मूल्यों में बदलाव की इच्छुक नई पीढ़ी ही उदासीन है
01. ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाएँ इसलिए बढ़ रही हैं कि लोगों में आज के इस शैक्षणिक परिवेश में भी झूठे आत्मसम्मान की मानसिकता हावी है। आज भी लोग पूर्वाग्रहों से इस कदर ग्रसित हैं कि वे खुद को स्वयंभू भूमिका में देख रहे हैं। यही कारण है कि वे नयी विचारधारा वाली नई पीढि़यों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उनके मन में यह विचार घर कर गया है कि अगर वे नई पीढि़यों को साथ लेकर चलेंगे, तो उनकी सदियों से बरकरार प्रतिष्ठा एक पल में ध्वस्त हो जाएगी। इसलिए जब भी उनके घर की लड़की अपने पसंद के लड़के के साथ जीवन-यापन करना चाहती है, तो वे अपनी झूठी शोहरत को बरकरार रखने हेतु आनन-फानन में उस लड़की के साथ ‘ऑनर किलिंग’ जैसा अमानवीय व्यवहार कर बैठते हैं।
02. विभिन्न जाति समूहों के बीच अन्तर्संबंधों की मिकेनिज़्म (प्रक्रिया) मुझको कागज के बने उस गुलाब की तरह लगता है जो खूबसूरत रहने के बावज़ूद खुशबू से रहित होता है। आज जितने भी अन्तर्सम्बंध स्थापित हो रहे हैं सब के सब भौतिकवादिता में लिप्त हो रहे हैं। हाँ यह काफी हद तक सच है कि विभिन्न जाति समूहों के बीच अन्तर्संबंधों की प्रक्रिया झूठे आत्मसम्मान और विलासिता से ऊपर उठकर जब विवाह जैसी पवित्र संबंध का रूप लेना चाहती है तब यही घनिष्ठता ‘ऑनर किलिंग’ का कारण बन जाता है।
03. हाँ यह सौ फीसदी सच है कि साहित्य जातियों-समूहों-समुदायों की विषमताओं को युगों से आइना दिखाता आ रहा है, पर वर्त्तमान में ऐसी प्रवृत्तियों की रफ्तार अत्यन्त धीमी ही नहीं, बल्कि विलुप्ति के कगार पर है, क्योंकि आज का साहित्य पूँजीपतियों के घरों में बन्धक बनकर रह गया है। आज का साहित्य बाजारवाद की भाषा बोल रहा है। आज उसे ‘‘मुन्नी बदनाम हुई’’ और ‘‘उलाला-उलाला’’ करके लाखों कमाने से फुर्सत कहाँ कि वह ‘ऑनर किलिंग’ जैसी गंभीर समस्या के निदान को अपना उद्देश्य बना सके।
04. समूहों के पारस्परिक सरोकार और उनमें विकसित होने वाली नई व्यवहार दृष्टि में ‘ऑनर किलिंग’ के कारणों का समाधान प्रस्तुत करने में कोई भूमिका इसलिए नहीं निभा पा रहे हैं कि वे यह सोचते हैं कि जिनकी यह समस्या है वही इसका निदान भी खोजेें। हम क्यों इस पचड़े में पड़कर अपना माथा खराब करें या बिन मोल की लड़ाई अपने जिम्मे लें?   
05. बिल्कुल ही नहीं। आज तक सरकार के स्तर पर कानून के कठोर नियमों के माध्यम से किसी भी सामाजिक समस्या का निदान ना तो कभी हुआ है और ना ही भविष्य होता हुआ प्रतीत हो रहा है। आज भी दहेज एवं भ्रूण-हत्या जैसी मूलभूत समस्याएँ यथावत् खड़ी है। अगर सरकार कानून के मार्फत इस पर अंकुश लगाना चाहती है, तो सर्वप्रथम उसे उनकी सामाजिक मनःस्थितियों के दौर से गुजरना होगा और समाज के उन लोगों को विश्वास में लेना होगा जो ‘ऑनर किलिंग’ को ही समस्या का निदान समझते हैं। 
06. ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाओं को रोकने के लिए साहित्यकार के रूप में हम तेजी से बदलते मूल्यों में विश्वास करने वाली नई पीढ़ी की भूमिका को उदासीनता के रूप में देखते हैं, क्योंकि आज की युवा पीढ़ी को बस अपने कैरियर का ख्याल रह गया है। उसका इन सामाजिक सरोकारों से कोसों तक कुछ भी लेना-देना नहीं है और इसका सबसे बड़ा कारण है उनके पाठ्यक्रम से नैतिक शिक्षा का विलुप्तीकरण। आज के मध्यम वर्ग के कुछ युवा प्रेम-विवाह जैसी गतिविधियों में तो रूचि दिखाते हैं, पर सामाजिक रूढि़वादियों के मकड़जाल के कारण वे ‘ऑनर किलिंग’ का शिकार होते जा रहे हैं।

  • सागर निवास, कुम्हार टोली, पो. जपला, जिला पलामू-822116, झारखंड / मो. 09905566775

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  :  5,   अंक  : 01-04,  सितम्बर-दिसम्बर  2015 



        {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कालौनी, बदायूं रोड, बरेली, उ.प्र. के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें।स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा }


।।किताबें।।

सामग्री :  इस अंक में ‘‘पीले पंखों वाली तितलियाँ : रचनात्मक विविधिताओं से भरा संग्रह’’/डॉ. बलराम अग्रवाल के लघुकथा संग्रह एवं ‘‘समय का पहिया : अपने समय का लघुकथा’’/मधुदीप के लघुकथा संग्रह की डॉ. उमेश महादोषी द्वाा तथा ‘‘लघुकथा संकलन ‘मुट्ठी भर अक्षर’: एक पाठकीय प्रतिक्रिया’’/ नीलिमा शर्मा और विवेक कुमार संपादित लघुकथा संकलन की दीपक मशाल द्वारा परिचयात्मक समीक्षाएँ। 


डॉ. उमेश महादोषी



पीले पंखों वाली तितलियाँ : रचनात्मक विविधिताओं से भरा संग्रह

डॉ. बलराम अग्रवाल लघुकथा के उन शीर्षथ हस्ताक्षरों में से हैं, जिन्होंने लघुकथा में सृजन और समीक्षा-समालोचना के साथ लघुकथा का रूप-स्वरूप तय करने का काम भी किया है और उत्कृष्ट व संभावनाओं की तलाश करने वाले संपादन के माध्यम से भी लघुकथा को विभिन्न कोंणो से समृद्ध किया है। दूसरी बात उन्होंने अपने एकल संग्रहों की संख्या बढ़ाने की ओर ध्यान देने की बजाय लघुकथा विषयक ऐसे कामों को पुस्तकाकार रूप में लाने का प्रयास किया, जो लघुकथा पर शोध और संभावनाओं की तलाश के लिए जरूरी थे। शायद यही कारण रहा है कि लघुकथा जगत ‘सरसों के फूल’ के बाद उनकी लघुकथाओं के पुस्तकाकार रूप की प्रतीक्षा ही करता रहा। उनकी एक के बाद एक अनेक उत्कृष्ट लघुकथाएं विभिन्न माध्यमों से सामने आती रहीं लेकिन संग्रह के शीर्षक की तलाश अब जाकर ‘पीले पंखों वाली तितलियाँ’ के रूप में पूरी हुई है। 
      लम्बी प्रतीक्षा के दृष्टिगत इस संग्रह में आने से पूर्व ही उनकी अनेक लघुकथाएं बेहद चर्चित और लोकप्रिय हो चुकी हैं। मसलन कुंडली, बिना नाल का घोड़ा, बीती सदी के चोंचले, कंधे पर बेताल, लगाव आदि-आदि। डॉ. बलराम अग्रवाल जी ने किसी विषय विशेष को अपना प्रिय नहीं बनाया, अपितु मानवीय जीवन के तमाम पहलुओं को अपने सृजन में उजागर करने की कोशिश की है। उन्होंने अपने सृजन में संवेदना के नए-नए रूप तलाशने की कोशिश की है। ‘विंधे परिन्दे’, ‘प्यासा पानी’, ‘आधे घंटे की कीमत’ जैसी लघुकथाओं को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। यथार्थ की प्रस्तुति में तर्कसंगत विश्लेषण और अभिव्यक्ति की कलात्मकता का संयोजन अनेक लघुकथाओं में मिलेगा। यह संयोजन जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी साधारण चीजों में रचनात्मकता को तलाशनेे के लिए जरूरी होता है। खनक, सियाही, गरीब का गाल, तिरंगे का पाँचवां रंग. आहत आदमी जैसी अनेक उत्कृष्ट लघुकथाएं मानो क्रिकेट के मैदान पर गेंद को दो फील्डरों के बीच मामूली से गैप से निकालकर मारे गए चौके हैं। ‘वे दो’, ‘संकल्प’, ‘रमेश की मौत’, ‘बब्बन की बीवी’, ‘सलीम, मेरे दोस्त’ आदि लघुकथाएँ शिल्प के स्तर पर लघुकथा में आ रहे बदलावों का उदाहरण हैं। शीर्षक लघुकथा ‘पीले पंखों वाली तितलियाँ’ लघुकथा में बाल मनोविज्ञान की रचनात्मक प्रस्तुति का तो उत्कृष्ट उदाहरण है ही, कलात्मक प्रस्तुति का भी सुन्दर नमूना है। इस संग्रह को विषयगत विविधिता के साथ रचनात्मक व कलात्मक विविधिता को समझने के लिए पढ़ना तो रुचिकर होगा ही, लघुकथा में आ रहे बदलावों की दृष्टि से भी प्रभावशाली माना जायेगा।
पीले पंखों वाली तितलियाँ :  लघुकथा संग्रह :  डॉ.बलराम अग्रवाल। प्रका. :  राही प्रकाशन, एल-45, गली-5, करतारनगर, दिल्ली। मूल्य :  रु.300/-मात्र। पृष्ठ : 152। सं. : 2015।


समय का पहिया : अपने समय का लघुकथा संग्रह


कथाकार मधुदीप जी कथा साहित्य की तीनों विधाओं, उपन्यास, कहानी और लघुकथा में सृजन कर्म से जुड़े रहे हैं। लघुकथा में उन्होंने संपादन और विमर्श में पर्याप्त काम किया है। जब कोई रचनाकार सृजन के साथ संपादन-विमर्श से भी जुड़ा होता है, तो उसके सामने लेखन की कई चुनौतियां खड़ी होती हैं, जिन्हें स्वीकार करके लेखन के साथ न्याय करना कठिन हो जाता है। यदि आपके सृजन में कमजोरियां हैं तो आप संपादन व विमर्श में कई प्रश्नों से जूझेंगे और यदि आप संपादन और विमर्श में विधागत मापदंडों के साथ चल रहे हैं, समझौते नहीं कर रहे हैं, तो आपको अपने सृजन पर भी उसी तरह ध्यान देना पड़ेगा, जैसी दूसरों से अपेक्षा करते हैं अन्यथा सृजन कर्म से हटना पड़ेगा। मधुदीप जी ने दोनों ही क्षेत्रों में न सिर्फ पर्याप्त कार्य किया है, अपितु पूरा न्याय भी किया है। उनकी साहित्य साधना एक लम्बे मध्यान्तर के साथ दो पारियों में बंटी हुई है, लेकिन उनकी दोनों पारियों के बीच का मध्यान्तर उनके लेखन-संपादन-विमर्श में से किसी में भी किसी तरह की शिथिलता का कारण नहीं बना है। दूसरी पारी में ‘पड़ाव और पड़ताल’ संकलन को एक ऐतिहासिक श्रंखला में बदलकर जो काम उन्होंने किया है, उसे दोहरा पाना किसी अन्य के लिए शायद ही संभव हो पाये। लेकिन समान रूप से उन्होंने लघुकथा सृजन में भी महत्वपूर्ण काम किया है, जो ‘समय का पहिया’ के रूप में हमारे सामने है। 
      उनके इस संग्रह में उनकी पहली पारी यानी 1995 तक की 30 तथा इक्कीसवीं सदी, संभवतः पिछले कुछेक वर्षों में ही लिखी गईं 41 लधुकथाएं दो अलग-अलग खंडों में शामिल की गई हैं। दोनों खण्डों की लघुकथाओं को पढ़ने से दो बातें अत्यंत स्पष्ट हैं- पहली यह कि लम्बे अन्तराल, का उनके सृजन की गुणात्मकता पर न तो कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ा है और न ही ऐसा आभास मिलता है कि वह लघुकथा से उनकी कोई दूरी रही है। दूसरी बात, जो कुछ वरिष्ठ लघुकथाकार लघुकथा सृजन के पैटर्न को बदलते दृष्टिगोचर हो रहे हैं, उनमें मधुदीप जी भी शामिल दिखाई देते हैं। उन्होंने न सिर्फ अपने-आपको नई जमीन से जोड़ा है, नई जमीन की तलाश में भी स्वयं को शामिल किया है। नाट्य शैली में लिखी ‘समय के पहिया’ जैसी लघुकथा के माध्यम से उन्होंने लघुकथा में काल दोष की समस्या के समाधान की ओर ध्यान खींचा है। संभवतः लघुकथा में इस तरह का यह दूसरा उदाहरण है। चैटकथा, पिंजरे में टाइगर, ऑल आउट, मेरा बयान जैसी कई लघुकथाएं लघुकथा के लिए नई ज़मीन तोड़ती दिखाई देती हैं। अबाउट टर्न, अवाक्, मजहब, वजूद की तलाश, विषपायी, शोक उत्सव, सन्नाटों का प्रकाश पर्व, साठ या सत्तर से नहीं, हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ जैसी सशक्त लघुकथाएँ मधुदीप जी की दूसरी पारी को पहली पारी से जोड़ती हैं। निसंदेह ‘समय का पहिया’ कथा साहित्य में लघुकथा की उपस्थिति दर्ज कराता अपने समय का संग्रह है।
समय का पहिया :  लघुकथा संग्रह :  मधुदीप। प्रकाशक :  दिशा प्रकाशन, 138/16, त्रिनगर, दिल्ली। मूल्य : रु.300/-मात्र।  पृष्ठ : 152। संस्करण :  2015।

  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बीडीए कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली, उ.प्र. / मो. 09458929004


दीपक मशाल 



लघुकथा संकलन ‘मुट्ठी भर अक्षर’ :  एक पाठकीय प्रतिक्रिया 
लघुकथा हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा है जिसको कि पसन्द करने की पाठकों के पास कई अपनी-अपनी वजहें हैं। यह विधा कहानी से ठीक उतनी ही स्वतन्त्र है जितनी कि संस्मरण या यात्रा वृतान्त। अब चाहे वह शिल्प के मामले में हो या किसी और में। कहानी के समानान्तर ही लघुकथा के विकास की प्रक्रिया भी पिछले कुछ दशकों से चलती रही है और इसका आधुनिक स्वरुप सामने आया है। बीते दो दशकों में लघुकथा के क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं उसका श्रेय कई वरिष्ठ लघुकथाकारों को जाता है। 2010 के बाद के सिर्फ पाँच सालों को ही देखें तो लघुकथा लेखन-प्रकाशन में पर्याप्त तेजी आई है।
पंजाबी लघुकथा की पत्रिका मिन्नी हो या हिन्दी लघुकथा को समर्पित अविराम साहित्यिकी या संरचना वार्षिकी, दिशा प्रकाशन कीे लघुकथा की श्रृंखलाबद्ध समीक्षात्मक पुस्तक ‘पड़ाव और पड़ताल’ हो या फिर निर्वाचित लघुकथाएँ संकलन। ये सब लघुकथा के उल्लेखनीय कार्य में लगे हैं। इंटरनेट पर लघुकथा डाट कॉम एक मजबूत स्तम्भ की तरह स्थापित हो चुकी है, गद्यकोश व फेसबुक पर लघुकथा साहित्य का पृष्ठ दिनोंदिन समृद्ध हो रहा है। विगत दिनों हिन्दी-चेतना, अभिनव इमरोज़, द्वीप लहरी, सरस्वती-सुमन आदि पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांक तथा विश्व हिन्दी सचिवालय,मॉरिशस द्वारा अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता व कथादेश पत्रिका की लघुकथा प्रतियोगिता, ओपन बुक्स ऑनलाइन वेबसाइट लघुकथा गोष्ठी आदि भी उल्लेखनीय है। लघुकथा पर ऑडियो व फिल्मांकन भी हो रहा है। 
      ये लघुकथा की लोकप्रियता के कुछ उदाहरण मात्र हैं। इन्हीं में एक उदाहरण ‘मुट्ठी भर अक्षर’ के रूप में शामिल हुआ है। हिन्दयुग्म प्रकाशन के बैनर तले नीलिमा शर्मा और विवेक कुमार के सम्पादन में प्रकाशित यह लघुकथा संकलन कुछ माह पूर्व ही सामने आया है। दुनिया भर से 30 रचनाकारों की कुल 180 रचनाओं को शामिल किए यह संकलन धनात्मक और ऋणात्मक पक्ष, दोनों ही सिमेटे हुए है। 
    ग़ज़ल की तरह लघुकथा के लिए भी कहा जा सकता है कि ‘लघुकथा या तो होती है या नहीं होती’। फ़कऱ् सिर्फ यादगार और विस्मृत हो जाने वाली लघुकथाओं का होता है, पढ़ने पर दिल-दिमाग पर जो अपनी छाप इस तरह अंकित कर दें कि कभी न भूल सकें वो उत्तम लघुकथाएँ। एक पाठक के तौर पर मुझे इस संकलन से निराशा हुई इसलिए यह प्रतिक्रिया इसे लघुकथा संकलन की तरह स्वीकार नहीं कर पाती। जिस तरह थॉमस अल्वा एडिसन ने बल्ब के निर्माण की सफलता पर कहा था कि ‘‘भविष्य में बल्ब बनाने के और भी तरीके बताए जा सकते हैं लेकिन मैं वह 10,000 तरीके बता सकता हूँ जिनसे कि बल्ब नहीं बन सकता’’ ठीक वैसे ही इस संकलन की अधिकांश लघुकथाएँ कम से कम यह तो सिखाती ही हैं कि लघुकथा ऐसी नहीं होती। 
      संकलन ने 30 रचनाकारों को लघुकथा लेखन की कोशिश के लिए प्रेरित किया और नीलेश शर्मा की लघुकथाओं से परिचित कराया उसके लिए साधुवाद भी देता हूँ। नीलेश की दाल, बेटी, दोनों तरफ और कबूतर लघुकथाऐं अवश्य छाप छोड़ती हैं। उनके अतिरिक्त नीलिमा शर्मा, संध्या तिवारी एवं रेखा सुथार की रचनाओं को लघुकथा कह सकते हैं। अन्य रचनाकार कहानी, संस्मरण या यात्रा-वृतान्त तो लिख सकते हैं मगर उनकी रचनाओं को लघुकथा कह पाना फिलहाल मुश्किल है। पाठक को इन रचनाओं से यह सन्देश भी जाता है कि ‘मुट्ठी भर अक्षर’ के अधिकांश रचनाकार पठन और खासकर लघुकथा पठन में यक़ीन नहीं रखते बल्कि सिर्फ लिखने में विश्वास करते हैं जो कि एक बड़ी कमज़ोरी है। ‘संस्कारहीन’ शीर्षक से प्रकाशित प्रवीण झा की रचना मीरा चन्द्रा की लघुकथा ‘बच्चा’ को दोहराती भर है, इस दोहराने को कोई दूसरा नाम मैं देना नहीं चाहता। उम्मीद है कि ब्लॉग और सोशल साइट्स के माध्यम से इस संकलन के बाकी सभी रचनाकार इस विधा में खुद को माँजते रहेंगे, पढ़ते रहेंगे और अगला पत्थर ऐसी तबियत से उछालेंगे कि आसमान में छेद होगा ज़रूर। 
मुट्ठी भर अक्षर :  लघुकथा संकलन। संपादन :  नीलिमा शर्मा/विवेक कुमार। प्रका. :  हिन्दयुग्म प्रकाशन, दिल्ली । मूल्य :  रु.120/-मात्र। संस्करण :  2015।

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 5,   अंक  : 01- 04,  सितम्बर-दिसम्बर 2015  

{आवश्यक नोट-  कृपया संमाचार/गतिविधियों की रिपोर्ट कृति देव 010 या यूनीकोड फोन्ट में टाइप करके वर्ड या पेजमेकर फाइल में या फिर मेल बाक्स में पेस्ट करके ही भेजें; स्केन करके नहीं। केवल फोटो ही स्केन करके भेजें। स्केन रूप में टेक्स्ट सामग्री/समाचार/ रिपोर्ट को स्वीकार करना संभव नहीं है। ऐसी सामग्री को हमारे स्तर पर टाइप करने की व्यवस्था संभव नहीं है। फोटो भेजने से पूर्व उन्हें इस तरह संपादित कर लें कि उनका लोड लगभग 02 एम.बी. का रहे।}  



नहीं रहे लघुकथा के दो पुरोधा- प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा 

एवं विक्रम सोनी
प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा 


श्री विक्रम सोनी
लघुकथा के लिए 2015 का जाना और 2016 का आना- दोनों ही आघात देने वाले सिद्ध हुए। 2015 के जाते-जाते प्रो. पृथ्वीराज अरोड़ा जी (20 दिसम्बर को) और 2016 के आते ही ‘लघु आघात’ जैसी महत्वपूर्ण और लघुकथा साहित्य में अमर हो चुकी पत्रिका के संपादक श्री विक्रम सोनी जी (04 जनवरी को) अपनी अंतिम यात्रा पर चले गए। लघुकथा साहित्य के सृजन और विकास में इन दोनों का महत्व कभी भुलाया नहीं जा
विक्रम सोनी जी के साथ उमेश महादोषी
(सितम्बर 2015 )
सकता। प्रो. पृथ्वीरज अरोड़ा, यद्यपि पिछले कुछेक वर्षों से बीमार चल रहे थे, लेकिन समकालीन हिन्दी लघुकथा के आन्दोलन के समय से किसी न किसी रूप में जीवन पर्यन्त लघुकथा में सक्रिय रहे। ‘कथा नहीं’, कील आदि जैसी उनकी कई लघुकथाएँ बेहद 
विक्रम सोनी जी के साथ
संतोष सुपेकर व राजेंद्र देवधरे ‘दर्पण’
अविराम के लिए एक मुलाकात के दौरान
 (2012 )
चर्चित हुईं। तीन न तेरह, आओ इन्सान बनाएँ उनके लघुकथा संग्रह हैं। विक्रम सोनी जी एक लम्बे अर्से पूर्व अपना कार्यक्षेत्र बदलने के चलते और बाद में लम्बी अस्वस्थता के चलते लघुकथा के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़े नहीं रह पाये थे, तदापि लघुकथा में उनके द्वारा किया गया कार्य इतना महत्वपूर्ण था कि लघुकथा जगत ने सदैव उन्हें अपने साथ महसूस किया। लघुकथा आन्दोलन की एक-एक ईंट को रखने और उसकी समग्र विकास यात्रा को ऊर्जा प्रदान करने के साथ उसकी दिशा भी तय की थी ‘लघु आघात’ ने। ‘लघु आघात’ के साथ विक्रम सोनी साहब भी लघुकथा के इतिहास में अमर हो गये। दोनों ही महान विभूतियों को अविराम परिवार की हार्दिक श्रद्धांजलि! (अविराम समाचार डेस्क)



नहीं रहे बरेली के वयोवृद्ध कवि श्री ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’ 



बरेली शहर के चर्चित वयोवृद्ध कवि श्री ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’ जी विगत 22 दिसम्बर को इस लोक से विदा ले गए। 06.06.1939 को जन्मे श्री कुमुद जी मूलतः कवि थे। अनेक प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं एवं 50 से अधिक संकलनों में उनकी काव्य रचनाएँ संकलित हुई हैं। कल्याण कुँज भाग-एक व भाग-दो, कल्याण-काव्य कलश, कल्याण-काव्य कुसुमाँजली, कल्याण-काव्य कदम्ब, कल्याण-काव्य कमलाकर -7 आदि आपकी मौलिक प्रकाशित काव्य कृतियाँ हैं। श्री चेतन दुबे ‘अनिल’ ने स्वसंपादित संकेत-13 का अंक आपके प्रेम गीतों पर केन्द्रित किया था। कुमुद जी कुछ पत्र-पत्रिकाओं व काव्य संकलनों के संपादन से भी संबद्ध रहे। कक्षा पांच के पाठ्यक्रम संबन्धी एक पुस्तक में रचना शामिल। देश भर की कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं मानद उपाधियों से अलंकृत। वह ‘कवि गोष्ठी आयोजन समिति’ बरेली के संस्थापक/महामंत्री थे। इस संस्था के माध्यम से वह बरेली में अनेक साहित्यिक गतिविधियों का संचालन करते रहे। कुमुद जी को अविराम परिवार की ओर से श्रद्धांजलि! (अविराम समाचार डेस्क)



धूमधाम से मना डॉ. सतीश दुबे का अमृत महोत्सव


इन्दौर की साहित्यिक संस्था ‘सृजन-संवाद’ द्वारा जीवन के 75 वर्ष पूर्ण होने पर सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं लघुकथा के पुरोधा डॉ. सतीश दुबे का अमृत महोत्सव मनाया गया। प्रीतमलाल दुआ सभागृह में साहित्यकार डॉ. कृष्णा अग्निहोत्री की अध्यक्षता में आयोजित भव्य एवं गरिमामयी समारोह में डॉ. सतीश दुबे को उनके साहित्यिक अवदान के लिए संस्था ‘सृजन-संवाद’’ के द्वारा शॉल, श्रीफल, श्रद्वानिधि, स्मृतिचिन्ह व अभिनंदन पत्र भेंट कर ‘‘अमृत साहित्य सम्मान’’ से सम्मानित किया गया। समारोह में साहित्यकार डॉ. शरद पगारे, श्री चंद्रसेन विराट एवं गांधीवादी विचारक श्री अनिल त्रिवेदी मुख्य अतिथि थे।
इस अवसर पर डॉ. सतीश दुबे की सहधर्मिणी श्रीमती मीना दुबे का अभिनन्दन इंदौर लेखिका संघ की अध्यक्ष प्रेम कुमारी नाहटा, संस्था रंजन कलश की अध्यक्ष रंजना फतेहपुरकर व समावर्तन की फीचर सम्पादिका वाणी दवे द्वारा किया गया। इसके बाद नगर के अनेक साहित्यकारों, समाज और साहित्यिक संस्थाओं के पदाधिकारियों एवं गणमान्य नागरिकों ने भी अपनी-अपनी ओर से शॉल, श्रीफल, स्मृतिचिन्ह, पुष्पहार/पुष्पगुच्छ आदि भेंटकर डॉ. सतीश दुबे का अभिनन्दन किया। 
अभिनन्दन से अभिभूत डॉ. सतीश दुबे ने सम्मान के लिए आभार व्यक्त करते हुए कहा कि यह सम्मान व्यक्ति का नहीं अपितु सृजन और रचनात्मकता का सम्मान है। प्रकारांतर से यह पाठकों या समाज से लेखन की सराहना है, जिससे प्रेरणा और ऊर्जा मिलती है। मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे हर पीढ़ी और उसकी रचनात्मकता से रूबरू होने का अवसर मिला है। पाठकों व मित्रों से मिले प्यार और सम्मान से प्राप्त ताकत लिखने के लिए प्रेरित करती रही है। डॉ. सतीश दुबे ने साहित्यकारों द्वारा लौटाए जा रहे सम्मानों पर चुटकी लेते हुए कहा कि मैं यह सम्मान नहीं लौटाऊँगा।
इससे पूर्व खचाखच भरे सभागृह में श्रोताओं से रूबरू होते हुए मुख्य अतिथि श्री अनिल त्रिवेदी ने कहा कि व्यक्ति का शरीर नहीं, विचार महत्वपूर्ण होते हैं। स्वामी विवेकानंद ने बिना किसी संसाधन के सिर्फ विचार के बल पर ही सनातन धर्म का डंका पूरे विश्व में बजा दिया था। इसी प्रकार डॉ. सतीश दुबे, जिनके पास शरीर की सम्पत्ति नहीं के बराबर है, फिर भी विचार और रचनाधर्मिता से विगत 50 वर्षों से देश के साहित्यिक आकाश में धूमकेतु की भांति चमक रहे हैं। श्री चंद्रसेन विराट ने कहा कि मैं बड़े गर्व व हर्ष के साथ इस बात की ताकीद करता हूँ कि कथा साहित्य में लघुकथा विधा के जनक डॉ. सतीश दुबे हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसका श्रेय लेने की कौन कोशिश कर रहा है। मैं कवि होने के बावजूद एक कथाकार के कार्यक्रम में डॉ. सतीश दुबे के प्रति स्नेह एवं श्रद्वा के कारण आया हूँ। डॉ. शरद पगारे ने विगत कुछ वर्षों से डॉ. सतीश दुबे के शारीरिक स्वास्थ्य ठीक न होने के उपरांत भी लगातार लेखन की प्रशंसा करते हुए कहा कि एक ऋषि की भांति साहित्य साधना कर रहे हैं। उन्होंने डॉ. दुबे में कबीर और तुलसी को भी देखा और यहाँ तक कहा कि डॉ. दुबे में अष्टावक्र का डीएनए है। अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. कृष्णा अग्निहोत्री ने पुराने क्षणों को स्मृत करते हुए कहा कि जब साहित्य समाज में स्त्री साहित्यकार के सृजन को शंका की दृष्टि से देखा जाता था तथा उसकी लेखन क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाते थे तब डॉ. सतीश दुबे ने न केवल मेरी रचना क्षमता को पहचाना बल्कि मुझे सदैव प्रोत्साहित भी किया। डॉ. दुबे जितने अच्छे साहित्यकार हैं उससे ज्यादा अच्छे इंसान हैं। सकारात्मक दृष्टिकोंण रखते हुए आप सदैव नए साहित्यकारों को प्रोत्साहित करते व प्रेरणा देते रहे हैं।
डॉ. दुबे के इस अमृताभिनंदन समारोह में इन्दौर नगर के संस्थापक रावराजा नन्दलाल के वंशज श्री श्रीकांत जमींदार, अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चित्रकार श्री ईश्वरी रावल, समावर्तन पत्रिका के संपादक श्री श्रीराम दवे, साहित्यकार सर्वश्री सूर्यकांत नागर, राजकुमार कुम्भज, चैतन्य त्रिवेदी, सी. पंछीराज, चकोर चतुर्वेदी सहित भारी संख्या में साहित्यकार, साहित्य प्रेमी व गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।
समारोह का आरम्भ अतिथियों द्वारा माँ सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण व दीप प्रज्ज्वलन एवं श्रीमती रीना पाठक की सरस्वती वन्दना से हुआ। सर्वश्री कांतिलाल ठाकरे, ललित मावर, योगेश केसरवानी, अरुण ठाकरे, मनोज सेवलकर, सतीश पगारे, डॉ. शशि निगम ने शॉल, श्रीफल व तुलसी की माला से अध्यक्ष और मुख्य अतिथियों का स्वागत किया। श्री राज केसरवानी ने स्वागत उद्बोधन के शब्दों से अतिथियों का स्वागत किया। डॉ. सतीश दुबे जी के परिवार की ओर से पुत्र-पुत्रवधू परेश-अंजना व पुत्री नीता व्यास ने अतिथियों को स्नेह चिन्ह भेंट किये। कार्यक्रम का संचालन डॉ. दीपा व्यास ने किया। मनोहर दुबे ने समारोह को अपनी गरिमामयी उपस्थिति से सफल बनाने के लिए सभी उपस्थित जनों का आभार प्रकट किया। (समाचार सौजन्य : मनोहर दुबे, महासचिव, सृजन-संवाद, इन्दौर)



'मैथिली संस्कार गीतों के विविध आयाम’ विषयक 

परिसंवाद

      ’साहित्य अकादमी’ नई दिल्ली और एमएलटी महाविद्यालय, सहरसा के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ’मैथिली संस्कार गीतों के विविध आयाम’ विषयक परिसंवाद एवं ’युवा साहिती’ कार्यक्रम में डा. देवेन्द्र कु. देवेश, विशेष कार्याधिकारी, साहित्य अकादमी ने कहा कि ’साहित्य अकादमी’ एक ऐसी संस्था है जिसका सरकार द्वारा वित्त पोषण तो किया जाता है लेकिन अपनी कार्य शैली में इसे स्वायत्तता है। यह स्वायत्तशासी संस्था के रूप में अपनी जिम्मेवारी निभा रही है। अकादमी द्वारा
प्रतिवर्ष सौ पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। विभिन्न राष्ट्रीय संगोष्ठी, बहुभाषी सम्मेलन आदि में 24 भाषी लेखक एक साथ मौजूद होते हैं। साहित्यिक संगोष्ठी को सुदूर गांवों तक ले जाने का प्रयास होता है। एक वर्ष में लगभग साढे चार सौ आयोजन किए जा रहे हैं। अकादमी द्वारा प्रतिवर्ष चार से साढे चार सौ पुस्तकें प्रकाशित की जा रही हैं। पुस्तक प्रदर्शनी लागाये जा रहे हैं। डा. देवेश ने कहा कि मैथिली का दायरा बढ़ता जा रहा है। मैथिली भाषा परामर्श मंडल के संयोजक डा. वीणा ठाकुर ने कहा
कि ’साहित्य अकादेमी’ को जो प्रतिष्ठा मिली है उसके अधिकारी आप लोग हैं। आयोजन के विषय ’मैथिली संस्कार गीतों के विविध आयाम’ पर उन्होंने कहा कि ’संस्कार’ का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। जब मनुष्य की उत्पति हुई होगी तभी गीत भी सामने आया होगा। मनुष्य ने अपने सुख-दुख अथवा आनंद की अभिव्यक्ति को वाणी दी, फिर उसे शास्त्रीयता में बांधा..। मैथिली साहित्य का मध्यकाल मैथिली साहित्य के लिए स्वर्ण युग था। उन्होंने आगे कहा कि लोक गीतों की कोई सीमा नहीं होती। यह स्वतंत्र है, इसकी भाषा सरल व सुबोध होती है। लोक गीतों का भौतिकीकरण नहीं किया जा सकता। समारोह के शुभारंभ में अतिथियों का स्वागत पाग एवं अंगवस्त्र के साथ किया गया।
      इस सत्र का बीज वक्तव्य कुलानंद झा ने दिया। उन्होंने इस विषय को वटवृक्ष की संज्ञा
दी। अध्यक्षता करते हुए साहित्यकार धीरेन्द्र नारायण धीर ने कहा कि संस्कार गीत अथाह है, समुद्र है, हमारे मिथिलांचल में जन्म से मृत्यु तक संस्कार जुड़े हैं। विद्यापति के गीतों में संस्कार है, रस है। हमें अपने संस्कार नहीं छोड़ने चाहिए। प्रधानाचार्य डा. के पी यादव नें धन्यवाद ज्ञापन करते हुए संस्कार गीतों पर समग्र रूप से प्रकाश डाला। इस सत्र में आलेख पाठ करते हुए रामनरेश सिंह ने कहा कि संस्कार से जीवन के चार आश्रमों की पूर्णता होती है। रंजीत कुमार सिंह ने कहा कि संस्कार गीत से मनुष्य जीवन दैदिव्य और महान होता है। हरिवंश झा ने कहा कि संस्कार गीत लोक जीवन की आत्मा है।
श्री जगदीश प्रसाद ने कहा कि संस्कार गीत लोकगीत का मेरुदंड है। यह मंगलगीत है. हमारे यहाँ 16 संस्कार गीत हैं, अंतिम संस्कार गीत मृत्यु गीत है। हम लोग मंगलकारी हैं अतः मृत्यु गीत पर अधिक विमर्श नहीं करते। उन्होंने अंक 16 के महत्व को रेखांकित किया।
      समारोह का द्वितीय सत्र ’युवा साहिती’ का था जिसकी अध्यक्षता सुभाष चंद्र यादव ने
की। संचालन करते हुए डा. देवेश ने युवा रचनाकारों की रचनात्मकता में अकादमी की सहभागिता को रेखांकित किया। इस सत्र में स्वाति शाकंभरी अपनी कविता का पाठ किया। मधुबनी से पधारे अमित कुमार मिश्र ने अपने गीत-ग़ज़ल से श्रोताओं का ध्यान खींचा। युवा कवि उमेश मंडल ने चलू फिल्म चलू तथा बाधा शीर्षक कविताओं को सुनाया। कवि उमेश पासवान ने अपनी कविता में पर्यावरण प्रदूषण को रेखांकित किया। रंगमंच और क्षेत्रीय इतिहास से जुड़े कवि रघुनाथ मुखिया ने ’अन्हरजाल’ तथा ’बीजमंत्र जपैत’ शीर्षक कविता द्वारा वर्तमान विश्व व्यवस्था से जुड़ी कई समस्याओं से श्रोताओं को झकझोरा। निक्की प्रियदर्शनी ने ’उपन्यास में कथ्य’ तथा ’प्रकृति की बात कहु’ शीर्षक कविता से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। अकादमी द्वारा- युवा कविता पुरस्कार से सम्मानित कवि नारायण झा ने ’हंसी हरयलै’ व ’अप्पन हिस्सा’ शीर्षक कविता से प्रभावित किया। सत्र की अध्यक्षता करते हुए सुभाष चंद्र यादव ने कहा
कि समकालीन कविता परिवर्तन की उपज है। कविता विभिन्न रूपों मे लिखी जा रही है। ये अमूर्त वस्तु हैं, हृदय से निकले विचार हैं, युवा कवियों में अकूत संभावनाएं दबी है, उसे तराशने की जरूरत है।
      इस यादगार आयोजन का धन्यवाद ज्ञापन कुलानंद झा ने साहित्य अकादमी एवं एमएलटी महाविधालय का आभार व्यक्त किया। आयोजन में डा. देवनारायण साहा की पुस्तक ’मिथिलाक साहित्य-संस्कृतिक उत्कर्षमें संतकवि लोकनिक अवदान’ का साहित्यकारों द्वारा लोकार्पण, साहित्य अकादमी द्वार पुस्तक प्रदर्शनी एवं बिक्री स्टाल लगाना एवं बिजली प्रकाश व उनके सहयोगियों द्वारा स्वागत गान गायन भी था। (समाचार प्रस्तुति : अरविन्द श्रीवास्तव, सहरसा, मोबा. 09431080862)



कानपुर में डॉ. राष्ट्र बन्धु की स्मृति में बाल साहित्य 

संवर्धन संस्थान की स्थापना

सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार 
स्व. (डॉ.) श्रीकृष्ण तिवारी ‘राष्ट्र बन्धु’ 
     विगत 19 नवम्बर 2015 को नौबस्ता, कानपुर में सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार डॉ. श्री कृष्ण तिवारी ‘राष्ट्र बन्धु’ की समृति में बाल साहित्य के विकास, प्रोत्साहन एवं संवर्द्धन के उद्देश्य से ‘‘बाल साहित्य संवर्धन संस्थान’’ नाम से एक संस्था की स्थापना की गई। सर्व सम्मति से लिए गए निर्णयानुसार श्री अनिल अवस्थी को संस्थापक, सुरेन्द्र गुप्त ‘सीकर’ को अध्यक्ष, श्री चक्रधर शुक्ल व श्री उपेन्द्र नाथ शुक्ल को उपाध्यक्ष तथा श्री रमेश मिश्र ‘आनन्द’ को महामंत्री चुना गया। कार्यकारिणी के अन्य पदाधिकारियों में सर्वश्री गोविन्द नारायण ‘साँडिल्य’, सुरेश गुप्त ‘राजहंस’, राम सिंह ‘विकल’, अजीत सिंह राठौर, अविनाश अवस्थी, सुशील पाण्डेय एवं श्री अशोक गुप्त ‘अशोक’ शामिल हैं। कार्यकारिणी के गठन के बाद सभी पदाधिकारियों ने संस्थान की ओर से डॉ. भेरु लाल गर्ग (सम्पादक बाल वाटिका, भीलवाड़ा, राजस्थान) को रु. 5001/- का सम्मान प्रदान करने हेतु चयनित किया गया। साथ ही एक स्थानीय प्रतिभाशाली बालक/बालिका साहित्यकार को भी सम्मानित करने का निर्णय लिया गया। श्री अनिल अवस्थी के द्वारा उसे रु. 501/- का नकद पुरस्कार भी दिये जाने की घोषणा की गयी। (समाचार प्रस्तुति : रमेश मिश्र ‘आनन्द)



शिवना सम्मानों की घोषणा 

      शिवना प्रकाशन द्वारा प्रति वर्ष दिये जाने वाले तीन सम्मानों की घोषणा कर दी गई है। इस वर्ष के सम्मानों की चयन समिति (साहित्यकार श्री नीरज गोस्वामी, डॉ. सुधा ओम ढींगरा, श्रीमती इस्मत ज़ैदी, तथा पत्रकार श्री चंद्रकांत दासवानी) ने सर्वसम्मति से ‘रमेश हठीला स्मृति शिवना सम्मान’ हेतु साहित्यकार श्री सौरभ पाण्डेय को उनकी पुस्तक ‘छंद मंजरी’ हेतु, ‘मोहन राय स्मृति शिवना सम्मान’ हेतु साहित्यकार डॉ. लालित्घ्य ललित को पुस्तक ‘मुखौटे के पीछे का सच’ हेतु तथा ‘अम्बादत्त भारतीय स्मृति शिवना सम्मान’ हेतु पत्रकार श्री ब्रजेश राजपूत को उनकी पुस्तक ‘चुनाव, राजनीति और रिपोर्टिंग’ हेतु चयनित किया है। शहरयार खान ने जानकारी देते हुए बताया कि शिवना प्रकाशन द्वारा नई दिल्ली के प्रगति मैदान पर आयोजित विश्व पुस्घ्तक मेले में दिनांक 13 जनवरी को 12.30 बजे आयोजित शिवना सम्मान समारोह में ये सम्मान प्रदान किये जाएंगे। (समाचार प्रस्तुति :  sehore.news@gmail.com)



डॉ. यायावर को इमिरेट्स फैलोशिप

      विश्वविद्यालय अनुदान आयोग दिल्ली द्वारा डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ को उनके द्वारा प्रस्तुत ‘नवगीत कोश तैयार करने हेतु शोध प्रकल्प’’ पर इमिरेट्स रिसर्च फैलोशिप प्रदान की गई है। आयोग द्वारा यह प्रतिष्ठित फैलोशिप अनेक विषयों में केवल सेवामुक्त प्राध्यापक श्रेणी के 100 विद्वानों को दी जाती है। नवगीतकार इस शोध प्रकल्प में सहयोग एवं सन्दर्भ हेतु अपना परिचय एवं प्रकाशित कृतियाँ तथा नवगीत की जानकारी रखने वाले सुधीजन अपने पास उपलब्ध नवगीत विषयक कोई भी सूचना/जानकारी डॉ. यायावर को ‘‘86, तिलकनगर, बाईपास रोड, फीरोजाबाद-283203, उ.प्र./मोबाइल 09412316779’’ के पते पर उपलब्ध करवा सकते हैं। (समाचार सौजन्य : डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’) 


प्राची मासिक का ‘युवा लेखन कहानी विशेषांक

साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘प्राची’ ने 35 वर्ष तक आयु वाले युवा कथाकारों के कहानी लेखन पर केन्द्रित ‘‘युवा लेखन कहानी विशेषांक’’ के प्रकाशन की योजना बनाई है। पात्र युवा कथाकार अपनी अप्रकाशित/अप्रसारित मौलिक हिन्दी कहानियाँ ‘‘प्राची मासिक, 7, श्री होम्स, कंचन विहार, बचपन स्कूल के पास, लामटी, विजय नगर, जबलपुर-482002 (म.प्र.) के पते पर 31 मार्च 2016 से पूर्व भेज सकते हैं। रचना के साथ कहानीकारों से अपना संक्षिप्त परिचय एवं नवीनतम फोटो भेजने की अपेक्षा भी की गई है। (समाचार प्रस्तुति : संपादक, प्राची)



खुर्शीद शेख ‘खुर्शीद’ के ग़ज़ल संग्रह का लोकार्पण

      उदयपुर के वरिष्ठ साहित्यकार खुर्शीद शेख ‘खुर्शीद’ के ग़ज़ल संग्रह ‘हौसलों की उड़ान’ का लोकार्पण नेहरू हॉस्टल, उदयपुर के तिलक सभागार में राजस्थान के गृहमंत्री श्री गुलाबचन्द कटारिया जी के मुख्य आतिथ्य में संपन्न हुआ। श्री कटारिया ने श्री खुर्शीद के साहित्य और उनके कार्यों की प्रशंसा करते हुए उनके साथ अपनी पुरानी मित्रता को याद किया। समारोह की अध्यक्षता उदयपुर के महापौर श्री चन्द्र सिंह कोठारी ने करते हुए कहा कि इस छोटी पुस्तक में गहरे भाव समाहित हैं। श्री खुर्शीद नवाब साहब ने खुर्शीद शेख की इस पुस्तक की साफ-सुथरी समीक्षा की। समारोह में विशिष्ट अतिथि शब्बीर के. मुस्तफा, उदयपुर ग्रामीण क्षेत्र के विधायक श्री फूल चन्द जी मीणा की उपस्थिति भी उल्लेखनीय थी। डॉ. इकबाल सागर ने अतिथियों का स्वागत किया। संचालन श्री मुस्ताक चंचल ने किया। मनमोहन मधुकर ने समारोह को सफल बनाने के लिए सभी उपस्थित जनों का धन्यवाद किया। इस अवसर पर चित्तौड़गढ़ के शायर अब्दुल जब्बार की अध्यक्षता में काव्य गोष्ठी का आयोजन भी किया गया। (समाचार सौजन्य : मनमोहन मधुकर, अध्यक्ष - युगधारा, उदयपुर)



अखिल भारतीय शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान 2016 

हेतु पुस्तकें आमंत्रित

उज्जैन की साहित्यिक संस्था शब्द प्रवाह साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक मंच द्वारा कविता (गीत, ग़ज़ल, छन्द, नई कविता), व्यंग्य एवं लघुकथा विधाओं में ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान 2016’ हेतु वर्ष 2012 से 2015 के मध्य प्रकाशित पुस्तकें 31 जनवरी 2016 तक आमंत्रित की गई हैं। इसी के साथ स्व. बालशौरि रेड्डी स्मृति बाल साहित्य सम्मान हेतु बाल साहित्य की एवं श्रीमती सत्यभामा सुखदेव त्रिवेदी स्मृति गीतकार सम्मान हेतु गीत काव्य की कृतियाँ भी तीन-तीन प्रतियों में आमंत्रित की गई हैं। विस्तृत विवरण जानने एवं रचनाकार परिचय एवं दो रंगीन फोटो सहित प्रविष्टियाँ प्रेषण हेतु ‘‘शब्द प्रवाह, ए-99, व्ही.डी. मार्केट, उज्जैन-456006 (म.प्र.)/मोबा. 09926061800’’ के पते पर संपर्क किया सकता है। (समाचार सौजन्य : संदीप सृजन, संपादक: शब्द प्रवाह)



राजस्थान साहित्य परिषद ने  

कृष्ण कुमार यादव को किया सम्मानित 

प्रशासन के साथ-साथ हिंदी साहित्य और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय सेवाओं के लिए राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र जोधपुर के निदेशक (डाक सेवाएँ) एवं साहित्यकार श्री कृष्ण कुमार यादव को राजस्थान साहित्य परिषद् की ओर से 4 नवंबर को सम्मानित किया गया। श्री यादव को यह सम्मान उनके हनुमानगढ़ प्रवास के दौरान राजस्थान साहित्य परिषद, हनुमानगढ़ की तरफ से इसके संस्थापक एवं अध्यक्ष श्री दीनदयाल शर्मा, वरिष्ठ बाल साहित्यकार और सचिव श्री राजेंद्र ढाल ने शाल ओघकर, नारियल फल देकर एवं प्रशस्ति पत्र देकर अभिनन्दन और सम्मानित किया। श्री शर्मा ने कहा कि श्री कृष्ण कुमार यादव का हनुमानगढ़ में आगमन सिर्फ एक अधिकारी के रूप में ही नहीं बल्कि साहित्यकार, लेखक और ब्लॉगर के रूप में भी हुआ है और उनके कृतित्व से हम सभी अभिभूत हैं। इस दौरान दून महाविद्यालय, हनुमानगढ़ के प्राचार्य श्री लक्ष्मीनारायण कस्वां, श्रीगंगानगर मंडल के डाक अधीक्षक श्री भारत लाल मीणा सहित तमाम अधिकारीगण और साहित्यकार उपस्थित रहे। (समाचार प्रस्तुति : राजेंद्र ढाल, सचिव- राजस्थान साहित्य परिषद, हनुमानगढ़, राजस्थान)



सपना मांगलिक को ‘राष्ट्र गौरव सम्मान’ सम्मान 

विगत 15 नवम्बर को लखनऊ के चारबाग स्थित रवीन्द्रालय ऑडिटोरियम में सीमापुरी टाइम्स, मेहर टाइम्स, आरोग्य दर्पण पत्रिका एवं हमराह फाउंडेशन के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित ‘प्राइड ऑफ नेशन’ सम्मान समारोह में आगरा की प्रसिद्द रचनाकार सपना मांगलिक को साहित्य की हर एक विधा, यथा- संपादन, लेखन, काव्य, पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘राष्ट्र गौरव सम्मान’ से सम्मानित किया गया। उन्हें यह सम्मान असम, उड़ीसा एवं झारखंड के पूर्व राज्यपाल सर सैय्यद शिपते राजिद, भारत सरकार के पूर्व स्वास्थ्य निदेशक डॉ ओ पी सिंह, वरिष्ठ आयकर अधिवक्ता श्री शिवमंगल जोहरी, समाज सेवी मनमोहन तिवारी, अपर स्वास्थ्य महानिदेशक टी.एस. थानवी द्वारा प्रदान किया गया। सुश्री सपना मांगलिक के साथ ही देश-विदेश की अन्य उनतालीस हस्तियों को भी इस सम्मान से नवाजा गया। .कार्यक्रम का संचालन कृषि मंत्रालय के सहायक निदेशक और खरी-खरी फेम किशोर श्रीवास्तव जी ने किया। (समाचार सौजन्य : सपना मांगलिक, मोबा. 09548509508)



‘राना लिधौरी’ को मिला 

‘साहित्य सृजन सम्मान-2015’  

टीकमगढ के साहित्यकार एवं म.प्र.लेखक संघ के जिलाध्यक्ष राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ को उनकी रचनाधर्मिता एवं सतत् सृजन शीलता के लिए मध्यप्रदेश लेखक संघ की जिला इकाई अशोकनगर द्वारा 35 वें आंचलिक साहित्यकार सम्मान समारोह 2015 में ‘’साहित्य सृजन सम्मान 2015 से सम्मानित किया। राना लिधौरी को स्मृति चिह्न श्रीफल,श्री शाल एवं सम्मान पत्र भेंट किया गया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि भोपाल से श्री राधावल्लभ आचार्य प्रदेशाध्यक्ष, योगेश शर्मा, अरविन्द्र चतुर्वेदी, राकेश वर्मा ‘हेरत’ मंचासीन थे। (समाचार सौजन्य : राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’)




कक्का के काव्य संग्रह ‘सब ठीक-ठाक हौ’ का लोकार्पण



हास्य-व्यंग्य के सशक्त कवि-लेखक और समीक्षक  अजय चतुर्वेदी ‘कक्का’ के भोजपुरी हास्य-व्यंग्य काव्य संग्रह ‘सब ठीक-ठाक हौ’ का लोकार्पण अवधूत भगवान राम स्नातकोत्तर महाविद्यालय अनपरा (सोनभद्र) के सभागार में देश के जाने माने गजलकार डॉ. मधुर नज़्मी और बी एच यू के प्रोफेसर एवं लब्ध प्रतिष्ठित गीत-गजलकार डॉ. वशिष्ठ अनूप द्वारा 19 दिसम्बर 2015 को किया गया। इस अवसर पर डॉ. मधुर नज़्मी ने कक्का की प्रशंसा करते हुए कहा- ‘अजय चतुर्वेदी कक्का का हास्य-व्यंग्य समय संदर्भ की वाजिब अक्काशी है। समय के रूहानी दर्द पर नस्तरी चाकू की तरह इनके व्यंग्य चलते हैं और खुभते हैं। इनकी रचनाओं के संदर्भ में महेश अश्क का यह शेर सटीक बैठता है -‘इन्हें छेड़ो जहॉं से बोलती हैं, किताबें आदमी को खोलती हैं।’ डॉ. वशिष्ठ अनूप ने कक्का की सराहना करते हुए कहा- समाज और राजनीति के तल्ख यथार्थ को लोकभाषा और लोकछंदों में खूबसूरत ढंग से प्रस्तुत करने वाले श्री अजय चतुर्वेदी ‘कक्का’ श्रेष्ठ रचनाकारों में एक हैं। (समाचार प्रस्तुति : अजय चतुर्वेदी ‘कक्का’) 



नारायणी साहित्य अकादमी का 

सम्मान समारोह बरेली में सम्पन्न

      नारायणी साहित्य अकादमी शाखा उ.प्र. के तत्वावधान में सम्मान समारोह व काव्य संध्या का आयोजन अकादमी अध्यक्षा निरुपमा अग्रवाल के प्रभात नगर, बरेली स्थित आवास पर वरिष्ठ शाइर विनय साग़र जायसवाल की अध्यक्षता में आयोजित किया गया। मुख्य अतिथि डॉ. हसन ज़ैदी व विशिष्ट अतिथि व्यापारी नीरज अग्रवाल रहे। डॉ रंजन विशद की वाणी वंदना से प्रारंभ हुए कार्यक्रम का संचालन युवा कवि रोहित राकेश ने सफलता पूर्वक किया। 
      इस अवसर पर डॉ भावना शर्मा (नई दिल्ली) व डॉ मोनिका अग्रवाल (बरेली) का सारस्वत सम्मान किया गया। काव्य संध्या पी एफ कमिश्नर आलोक यादव, डॉ सतेन्द्र सिंह, सिया सचदेव, आनंद गौतम, शिवशंकर यजुर्वेदी, कृष्णा खन्डेलवाल, डॉ राकेश यदुवंशी, अजय भटनागर, नगमा बरेलवी, नीलम सक्सेना, संजय शर्मा (नई दिल्ली), जीतेश राज (पीलीभीत), सुधीर चंदन आदि ने अपनी बेहतरीन रचनाओं से अंत तक समाँ बाँधे रखा। नगर विधायक डॉ. अरुन कुमार व युवा समीक्षक डॉ. नितिन सेठी सहित अन्य गणमान्य नागरिक अंत तक काव्य संध्या का आनंद लेते रहे। शाइरा सिया सचदेव ने सहभागी बनने के लिए सभी उपस्थित जनों का आभार प्रकट किया। (समाचार प्रस्तुति : विनय साग़र जायसवाल, बरेली)



पं. हरप्रसाद पाठक-स्मृति 

बाल साहित्य पुरस्कार घोषित


पं. हरप्रसाद पाठक-स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार समिति, मथुरा के तत्वावधान में आयोजित वर्ष-2014 के पुरस्कार हेतु श्री रमेशचंद पंत (अल्मोड़ा) के बाल काव्यसंग्रह-‘‘44 बाल कविताएॅं’’ को तथा वर्ष-2015 के लिए श्रीमती नीरजा द्विवेदी (लखनउ) के बाल कहानी संग्रह- ‘‘आलसी गीदड़’’ को चुना गया है। पुरस्कार वितरण समारोह दिसम्बर-15 के अंतिम सप्ताह में सम्पन्न होगा। पुरस्कृत कृतियों के अतिरिक्त भी जिन पुस्तकों को श्रेष्ठ पाया गया है उनके रचनाकारों के लिए सम्मान-पत्र डाक द्वारा दिसम्बर-15 के द्वितीय सप्ताह में भेज दिए जायेंगे। वर्ष-2014 के लिए बालकहानी संग्रह-‘‘पेड़ नहीं कटेगा’’ के लेखक डॉ. देशबन्धु शाहजहॉंपुर को एवं वर्ष-2015 के लिए बालकहानी संग्रह-‘‘चॉकलेट’’ के लेखक डॉ. मौ. साजिदखान फैजाबाद को, बालकहानी संग्रह-‘‘बिल्ली मौसी बड़ी सयानी’’ के लेखक श्री गोविन्द शर्मा अजमेर को, तथा बाल-उपन्यास-‘‘जंगल का लोकतंत्र’’ के लेखक श्री कमलेश भट्ट ‘कमल’ गाजियाबाद को शामिल किया गया है। वर्ष-2015 के डॉं रमनदास पंड्या-स्मृति बालसाहित्यकार पुरस्कार हेतु श्री अनुज चतुर्वेदी मथुरा को एवं श्री शिवनारायण रावत-स्मृति युवा साहित्यकार पुरस्कार हेतु भीलवाड़ा राज. के श्री सत्यनारायण‘सत्य’ को चुना गया है। (डॉ. दिनेश पाठक शशि, सचिव, पं0हरप्रसाद पाठक-स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार समिति,मथुरा, उ.प्र.)



डॉ. रमेश कटारिया ‘पारस’ सम्मानित



      विगत दिनों कोटा (राज.) में भारतेन्दु हरिश्चंद्र की 165 वीं जयंती के अवसर पर आयोजित साहित्य सम्मेलन में देश भर के 19 अन्य साहित्यकारों के साथ कवि श्री रमेश कटारिया ‘पारस’ को भारतेन्दु हरिश्चंद्र समिति कोटा द्वारा सम्मानित किया गया। समिति की ओर से श्री पारस को सम्मानस्वरूप सुप्रसिद्ध कवि श्री रामेश्वर शर्मा (रामू भैया) द्वारा शॉल, श्रीफल, साहित्य श्री सम्मान, प्रतीक चिन्ह एवं रु. 1100/- नकद राशि प्रदान की गई। (समाचार प्रस्तुति : रमेश कटारिया ‘पारस’)



टीकमगढ़ के ‘हनुमानगढ़ी’ क्षेत्र में हुआ 

हास्य कवि सम्मेलन

टीकमगढ़ नगर की साहित्यिक संस्था ‘म.प्र.लेखक संघ’, अ.भा.साहित्य परिषद, अ.भा. बुन्देलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद, बज़्मे अदब, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, कवि संगम सहित अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने मिलकर ग्राम महाराजपुरा में हनुमानगढ़ी सिद्ध क्षेत्र पर एक ‘हास्य कवि सम्मेलन’ का आयोजन किया जिसमें जमकर ठहाके लगाये गये। सभी को अपनी रचनाएँ सुनाने से पूर्व एक पर्ची उठाकर उसमें लिखे अनुसार कार्य करना था। इस हास्य कवि सम्मेलन की अध्यक्षता ‘म.प्र.लेखक संघ’ के जिलाध्यक्ष राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ ने की जबकि मुख्य अतिथि के रूप में डॉ.जे.पी.रावत रहे एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ गीतकार पं.मनमोहन पाण्डेय उपस्थित रहे। सर्वश्री पं.मनमोहन पाण्डेय, सीताराम राय, योगेन्द तिवारी ‘योगी’, राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’, रामगोपाल रेैकवार, गुलाब सिंह यादव ‘भाऊ’, पूरनचन्द्र गुप्ता, उमाशंकर मिश्र तन्हा, डॉ.जे. पी. रावत, चाँद मोहम्मद ‘आखिर’, गणेशी पन्नालाल शुक्ला, विजय मेहरा, सियाराम अहिरवार, दीनदयाल तिवारी, शांति कुमार जैन, भारत विजय बगेरिया, अभिनंदन गोइल, परमेश्वरीदास तिवारी, संतोष कठैल, हरेन्द्रपाल सिंह, राजेन्द्र विदुआ आदि कवियों ने काव्य पाठ किया। संचालन उमाशंकर मिश्र’ एवं पूरनचन्द्र गुप्ता ने तथा उपस्थित जनों का आभार व्यक्त किया परमेश्वरीदास तिवारी ने। (समाचार प्रस्तुति : राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’)