आपका परिचय

शुक्रवार, 26 मई 2017

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



लघुकथा : अगली पीढ़ी

दीपक मशाल


     {लघुकथा की दूसरी व तीसरी पीढ़ी के लघुकथा लेखन पर केन्द्रित इस स्तम्भ का आरम्भ अविराम साहित्यिकी के मुद्रित प्रारूप में जनवरी-मार्च 2015 अंक से किया गया था। उसी सामग्री को इंटरनेट पर अपने पाठकों के लिए भी हम क्रमश: उपलब्ध करवाना आरम्भ कर रहे हैं। 
इस स्तम्भ का उद्देश्य लघुकथा की दूसरी व तीसरी पीढ़ी के लघुकथा लेखन में अच्छी चीजों को तलाशना और रेखांकित करना है। अपेक्षा यही है कि ये लघुकथाकार अपने समय और सामर्थ्य को पहचानें, कमजोरियों से निजात पायें और लघुकथा को आगे लेकर जायें। यह काम दो तरह से करने का प्रयास है। सामान्यतः नई पीढ़ी के रचनाकार विशेष के उपलब्ध लघुकथा लेखन के आधार पर प्रभावित करने वाले प्रमुख बिन्दुओं व उसकी कमजोरियों को आलेखबद्ध करते हुए समालोचनात्मक टिप्पणी के साथ उसकी कुछ अच्छी लघुकथाएँ दी जाती हैं। दूसरे प्रारूप में किसी विशिष्ट बिषय/बिन्दुओं (जो रेखांकित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो) पर केन्द्रित नई पीढ़ी के लघुकथाकारों की लघुकथाओं में उन लघुकथाकारों की रचनात्मकता के बिन्दुओं की प्रस्तुति कुछ महत्वपूर्ण लघुकथाओं के साथ देने पर विचार किया जा सकता है। प्रस्तुत लघुकथाकारों से अनुरोध है कि समालोचना को अन्यथा न लें। उद्देश्य लघुकथा सृजन में आपके/आपकी पीढ़ी के रचनाकारों की भूमिका को रेखांकित करना मात्र है। कृष्णचन्द्र महादेविया के बाद  इस अंक में हम दीपक मशाल पर प्रस्तुति दे रहे हैं। -अंक संपादक}

दीपक मशाल का लघुकथा में उभरना एक सकारात्मक घटना जैसा है 
डॉ. उमेश महादोषी
         1980 में जन्मे दीपक मशाल का समकालीन लघुकथा सृजन में उभरने का अर्थ है विशुद्धतः इक्कीसवीं सदी की लघुकथा। उनके इस दुनियाँ में पदार्पण तक समकालीन हिन्दी लघुकथा अपना रूपाकार प्राप्त कर चुकी थी और एक रचनात्मक आन्दोलन के तौर पर लघुकथा का सृजन और विमर्श, दोनों ही अपने उत्कर्ष के तात्कालिक शिखर पर पहुँच रहे थे। दीपक जी द्वारा लघुकथा को समझने और सृजन से जुड़ने तक के बीस-तीस वर्षों में लघुकथा कई तरह की घटनाओं और प्रक्रियाओं की साक्षी बन चुकी थी। उसकी शक्ति और कमजोरियों को प्रदर्शित करने वाले सामान्य बिन्दु पूरी स्पष्टता के साथ सामने आ चुके थे, भले उसके अद्यतन होने की प्रक्रिया पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाई हो। इन वर्षों के कालखण्ड में लघुकथा की जन स्वीकार्यता बढ़ने के बावजूद अनेक वरिष्ठ लघुकथाकारों का लघुकथा सृजन से विमुख होना बेहद चिंतनीय था। उनके विमुख होने के कारणों का मुखर और बहुत स्पष्ट न होना भी लघुकथा के लिए एक तरह की चुनौती जैसा रहा है। इस तरह के वातावरण में जब एक जागरूक और सृजनात्मक प्रतिभा से सम्पन्न नया रचनाकार लघुकथा को समझने और उससे जुड़ने का प्रयास करता है, उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है, तो यह इस विधा की भावी सम्भावनाओं की ओर संकेत तो करता ही है, लघुकथा के विधागत विकास में एक सकारात्मक घटना का संकेत भी करता है। दीपक मशाल और उन जैसे अन्य लघुकथाकारों के उभरने को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
    लघुकथा में दीपक मशाल की चर्चा मैं वरिष्ठ लघुथाकारों, विशेषतः डॉ. बलराम अग्रवाल जी व रा. का. हिमांशु जी से सुनता रहा था किन्तु उनकी सृजनात्मक क्षमताओं से वास्तविक परिचय ‘पड़ाव और पड़ताल’ के मधुदीप जी संपादित पाँचवें खण्ड में शामिल उनकी लघुकथाओं के माध्यम से हुआ। ‘पड़ाव और पड़ताल’ में उनकी सभी ग्यारह लघुकथाएँ प्रभावित करती हैं। इसके बाद मैंने दीपक जी की कई अन्य लघुकथाओं को मँगवाकर पढ़ा। लगभग तीन दर्जन लघुकथाओं के पाठ में के आधार पर मुझे लघुकथा में उनकी उपस्थिति सार्थक लगी। लघुकथा के सन्दर्भ में दीपक जी की प्रतिभा को स्वीकारने में किसी को कोई संकोच नहीं होना चाहिए। 
     मोटे तौर पर दीपक जी की अधिकांश लघुकथाएँ किसी न किसी वजह से प्रभावित करती हैं। उनमें कथा तत्व विद्यमान है, कथ्य स्वाभाविक तरीके से प्रकट होते हैं। यथार्थ के प्रस्तुतीकरण में रचनाकार को यह देखना जरूरी होता है कि किस यथार्थ को उसकी नकारात्मकता के साथ प्रस्तुत करना है और किसे नकारात्मक वृत्ति से सकारात्मक वृत्ति की ओर ले जाना है। अधिकांश लघुकथाओं में दीपक जी इस कार्य को बेहद सहजता से अंजाम देते हैं। ‘संशय’ में अवश्य वह चूक गये लगते हैं। इस रचना में सृजन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए लघुकथा को थोड़ा और आगे जाकर यथार्थ में सकारात्मकता लाना चाहिए था। यथार्थ की नकारात्मकता ठेस, क्रान्ति, अहम्, दखल जैसी लघुकथाओं में भी है, किन्तु वहाँ यथार्थ से पर्दा हटाकर रचनाकार अभीष्ट की प्राप्ति कर रहा है। लघुकथा की स्वाभाविकता में वातावरण और भाषा की सानुकूलता की भूमिका अहम् होती है। दीपक जी इस सन्दर्भ में बेहद सफल हैं। निर्धारण में जिस वातावरण की प्रस्तुति है, उसके लिए निश्चित रूप से लेखक को उसे समझना पड़ा होगा, कई चीजों की जानकारी अब या तब अध्ययन और मित्रों से लेनी पड़ी होगी। संशय, मुआवजा जैसी रचनाओं में स्थानीय भाषा का उपयोग, क्रान्ति में फिल्म प्रोडक्शन की शब्दावली, परछाई के संवादों को कथानायक की स्थिति और प्रकृति के अनुरूप रख पाने में उनकी सफलता जाहिर करती है कि उन्होंने लघुकथा को किस स्तर पर समझने का प्रयास किया है। वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्रीकृष्ण त्रिवेदी जी ने अपने एक आलेख में प्रवासी साहित्य के बारे में स्पष्ट किया है कि लेखक जिस देश में प्रवास कर रहा है, उसकी रचनाओं में उस देश का वातावरण और दूसरी चीजों की उपस्थिति ही उसे प्रवासी साहित्य का दर्जा दिला सकती है। इस दृष्टि से लघुकथा ‘समझदार’ को निसन्देह- प्रवासी लघुकथा माना जा सकता है। ‘प्रगति’, ‘पसीजे शब्द’ आदि में भी प्रवासी वातावरण है। उम्मीद है विदेश में रहता यह भारतीय लघुकथाकार कुछ और महत्वपूर्ण प्रवासी लघुकथाएँ देगा। ‘बड़े’ लघुकथा में काव्यात्मक भाषा-शैली का उपयोग प्रभावित करता है। लघुकथाओं के शीर्षक सोचे-समझे और सोद्देश्य रखे गये हैं। कई रचनाओं का अंत प्रतीकात्मक होने के कारण बेहद प्रभावशाली हो गया है। प्रतीकों का उपयोग उन्होंने बहुत खूबसूरती से किया है। उन्होंने छूट गये जैसे कोनों पर टॉर्च की रौशनी डालने का सफल प्रयास भी कई लघुकथाओं में किया है। इसे तजुर्बा, अंगुलियाँ, आतंक आदि में देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं में विषयों की विविधता भी भरपूर है। 
     कुछ जटिल विषयों को उठाते हुए लघुकथा में अतिरिक्त सावधानी की जरूरत होती है। ‘माचिस’ और ‘दूध’ अच्छी लघुकथाएँ हैं, लेकिन ये और भी अच्छी हो सकती थीं। ‘माचिस’ में कल्पनाशीलता का अंश थोड़ा कम किया जा सकता है और ‘दूध’ में लड़के के व्यवहार (में परिवर्तन) को वेश्या के व्यवहार जैसा स्वाभाविक बनाने की गुंजाइश है। कुल मिलाकर दीपक मशाल की लघुकथा के प्रति समझ असंदिग्ध है। यहाँ हम उनकी चार प्रतिनिधि लघुकथाओं क्रान्ति, आतंक, प्रगति एवं पसीजे शब्द की चर्चा-प्रस्तुति कर रहे हैं।
     सांस्कृतिक-सामाजिक सन्दर्भों में मनुष्य की कार्यगतिविधियों का उद्देश्य सामाजिक चेतना पर केन्द्रित माना जाता है। सांस्कृतिक दृष्टि से कलात्मकता का पुट अधिक हो सकता है और उसकी दिशा मनुष्य के लिए एक आकर्षण का कारण हो सकती है। लेकिन हर गतिविधि का एक अर्थशास्त्र भी होता है, जिसके बिना उसका अस्तित्व संभव नहीं है। स्वाभाविक है कि प्रमुख उद्देश्य के साथ गतिविधि को अस्तित्व में लाने के समायोजन को नकारा नहीं जा सकता। इसके बावजूद प्रमुख उद्देश्य प्रमुख ही रहना चाहिए। सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि का यही पाठ है। लेकिन हमने देखा है कि कला से प्राप्त लोकप्रियता ग्लैमर की ओर ले जाती है। ग्लैमर के साथ पैसा जुड़ता है। पैसा नैतिक-अनैतिक के प्रश्न को दरकिनार करता है। यह चीज जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में है, विशेषतः फिल्मों के क्षेत्र में सीमा से काफी अधिक। सीन कुछ ऐसा बने कि पर्दे पर आग लग जाये। आग लगेगी तो तमाशबीन भी अधिक जुटेंगे। और फिल्मों में पैसे का बड़ा हिस्सा तमाशबीनों की जेब से ही आता है। तो आग की प्रकृति को भी तमाशबीनों की अपेक्षाओं और आदतों का पोषक ही नहीं जनक भी बनना पड़ता है। ‘क्रान्ति’ इसी यथार्थ से पर्दा हटाती है। फिल्म का निर्देशक पर्दे पर आग लगाना चाहता है, इसलिए बार-बार रिटेक से बात न बनने पर सहायक निर्देशक का आइडिया उसे पसन्द आता है और दृश्य व संवाद- दोनों बदल जाते हैं। आग लगाने की कोशिश में शब्दों की प्रकृति और ध्वनित प्रभाव का कोई अर्थ नहीं रह जाता। फिल्म बनाना कितना सांस्कृतिक-सामाजिक रह जायेगा, यह प्रश्न बेमानी हो जाता है। कुछ लोग कहेंगे कि कला में स्वाभाविकता के लिए समाज में घटने वाली यथार्थ घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में ही रखना जरूरी है, पर ऐसे लोगों को यह भी सोचना होगा कि कला में रचनात्मकता को कैसे परिभाषित करेंगे? अभिनेत्री के माध्यम से आप नारी की जिस शक्ति को उभारना चाहते हैं, उसकी चुकायी जा रही कीमत का आकलन क्या जरूरी नहीं है? उसे शक्तिशाली बनाने का अर्थ बाजारू बनाने से अलग होता है। शायद इसीलिए दीपक मशाल जैसा रचनाकार इस कन्टेन्ट पर लघुकथा की जरूरत महसूस करता है। शीर्षक से लेकर रचना का वातावरण लघुकथा की तकनीक के सानुकूल है और कथ्य को सपोर्ट करने वाला भी। 
     स्कूली शिक्षा में कान्वेन्ट कल्चर के माध्यम से कुछ उन्नत चीजों के साथ समस्याएँ भी आई हैं। भाषायी समस्या बहुत बड़ी है। अंग्रेजी सिखाना गलत नहीं है, लेकिन उसे थोपना और इस कदर थोपना कि बच्चों का विकास अवरुद्ध होने लगे, वे दूसरी समस्याओं, विशेषतः मनोवैज्ञानिक, का शिकार होने लगें तो इस पर सिर्फ माता-पिता और सामाजिक लोगों को ही नहीं, स्वयं स्कूल संचालकों और शिक्षा विशेषज्ञों को भी सोचना चाहिए। एक अहम् प्रश्न यह है कि शहरों-कस्बों में अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे हिन्दी वातावरण वाले परिवारों से आते हैं। घर में अंग्रेजी का स्वाभाविक वातावरण नहीं होता। स्कूलों में अंग्रेजी बोलना सिखाने की अलग से कोई व्यवस्था नहीं होती। एक विषय के तौर पर अंग्रेजी की औपचारिक शिक्षा का स्तर भी बहुत संतोषजनक नहीं होता। लेकिन बच्चों को अंग्रेजी में ही बोलने के लिए बाध्य किया जाता है, वे चाहे अपनी बात कह पायें या नहीं। इस प्रक्रिया में इन स्कूलों में बहुत सारे बच्चे गूँगे-बहरे बनकर रह जाते हैं। कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं। यहाँ तक कि उनका स्वाभाविक विकास अवरुद्ध होने लग जाता है। मैंने अपने बेटे के सन्दर्भ में रुड़की के एक प्रमुख स्कूल के प्रिंसिपल के समक्ष इस मुद्दे को उठाया था, प्रिंसिपल साहब संवेदनशील थे सो उन्होंने समस्या को समझा और अपने स्कूल में बच्चों को ऐसी किसी बात को, जिसे वह अंग्रेजी में व्यक्त नहीं कर पा रहे हों, हिन्दी में व्यक्त करने की अनुमति दे दी थी और शिक्षक-शिक्षिकाओं को हिदायत भी। लेकिन हर स्कूल ऐसा नहीं कर पाता है। दीपक मशाल ने इसी समस्या को ‘आतंक’ में बेहद सरल-स्वाभाविक ढंग से उठाया है। बच्चा बाथरूम जाने की अनुमति के लिए अंग्रेजी में नहीं बोल पाता, हिन्दी में पूछने पर टीचर दण्ड देते हैं। इसलिए भयग्रस्त होकर पेशाब आने पर भी वह बाथरूम नहीं जाता और उसका पेशाब पैंट में ही निकल जाता है। लघुकथा का सकारात्मक पक्ष यह है कि शिकायत आने पर उसका पिता बच्चे को सीने से लगाकर प्यार से समस्या को जानने का प्रयास करता है। खेद की बात है कि स्कूल वाले इस बात की शिकायत तो करते हैं लेकिन अपने स्तर पर समस्या को जानने-समझने और समाधान का प्रयास नहीं करते। यह संवेदनहीन स्थिति है। दीपक जी ने ‘आतंक’ में स्कूली आतंक को अभिव्यक्ति तो दी ही है, एक गम्भीर समस्या की ओर भी समाज का ध्यान आकर्षित करने में भी वह सफल हुए हैं।
     जिन लघुकथाओं में जीवन से जुड़े बदलावों की चर्चा हुई है, उनमें सामान्यतः समय के साथ आ चुके बदलाव ही शामिल होते हैं। भविष्य के संभावित बदलावों की एक कल्पना दीपक मशाल की ‘प्रगति’ में देखने को मिलती है। इसमें रचनाकार ने भविष्य के रिश्तों और सम्बोधनों में आने वाले परिवर्तनों का कल्पनाशील किन्तु स्वाभाविक चित्र भविष्य के ही एक समय बिन्दु पर स्थित होकर प्रस्तुत किया है। कल्पनाशीलता का एक अच्छा उदाहरण है यह। आज कई कार्यालयों में जूनियर-सीनियर सभी एक दूसरे को नाम से पुकारते हैं, बिना किसी सम्मानसूचक शब्द का प्रयोग किए। सम्बोधनों से पता ही नहीं चलता कि कौन जूनियर है और कौन सीनियर। निसन्देह ‘प्रगति’ की कल्पनाशीलता कोरी कल्पना नहीं है। कार्यालयों की संस्कृति बहुत सारे अर्थ लेकर घरों और व्यक्तिगत रिश्तों में भी प्रवेश कर रही है। दूसरी ओर बच्चे और उनके माध्यम से आ रही पीढ़ी के लिए बहुत सारे शब्दों-सन्दर्भों के अर्थ बदलते जा रहे हैं। ऐसे में यह लघुकथा भविष्य की स्थितियों पर एक यथार्थ कमेंट प्रस्तुत कर रही है। दीपक जी की यह कल्पना रुचिकर है कि चालीस-पचास वर्षों के बाद बच्चे माता-पिता, दादा-दादी, बुआ-चाचा आदि जैसे शब्दों को भूल चुके होंगे, उनके लिए हर व्यक्ति सिर्फ एक व्यक्ति होगा, जिसका कोई एक नाम होगा। सम्बोधित करने के लिए वह नाम ही पर्याप्त होगा, किसी रिश्ते या आदर सूचक शब्दों का प्रयोग कॉम्प्लीकेटेड चीज बनकर रह जायेगा, जिसे मैनेज करना उस समय की नई पीढ़ी के लिए सम्भव नहीं होगा। जीवन का आनन्द जिसे जिस चीज में मिलता है, उसके लिए जिन्दगी वैसी ही चीजों से जुड़ जाती है। लघुकथा का वातावरण, विशेषतः संवादों में व्याप्त मनोविनोद संकेत करता है कि मम्मी-पापा, दादा-दादी की पीढ़ियों को संतानों की पीढ़ियों के जीवन से जुड़ी चीजों के साथ आनन्दित होना सीख लेना चाहिए। ‘जैनरेशन गैप’ से जनित पीड़ा को पसीने में बहा देने का यही एक तरीका होगा।
     जीवन से जुड़ी कई यथार्थ स्थितियाँ ऐसी होती हैं, जिनमें पर्याप्त नकारात्मकता होती है, लेकिन वही रचनात्मकता का स्रोत बन जाती है। ‘पसीजे शब्द’ एक ऐसी ही लघुकथा है। नकारात्मक यथार्थ के बावजूद रचनात्मक लघुकथा! दीपक जी की सर्वोत्तम लघुकथाओं में से एक। रचना का प्रमुख पात्र, एक ऐसा व्यक्ति है, जो बेहद मेहनती और ईमानदार है और इसी के बलबूते पर उसने एक मुकाम हासिल किया है। लेकिन उसके बचपन से जुड़ी कुछ विशेष (कड़वी) यादें हैं, जिन्हें वह किसी भी रूप में याद नहीं करना चाहता। विदेश में रहता यह व्यक्ति अपनी स्थिति को लगातार मजबूत करने के लिए छुट्टी के दिन भी काम करता है। छोटी सी बेटी द्वारा पावर्टी याने गरीबी का मतलब पूछे जाने पर उसका गला भर आता है। वह कहना चाहता है कि उसकी अपनी सन्तान को गरीबी का मतलब पता न चले यानी जो दुर्दिन उसने देखे हैं, वे सन्तान को न देखने पड़ें, इसीलिए वह इतनी मेहनत करता है, अपना देश छोड़कर परदेश में आ बसा है, लेकिन उसके शब्द दर्द के पसीने में पसीज जाते हैं और वह अपनी बेटी को सीने से भींच लेता है। बेटी उसके आँसुओं में कुछ अर्थ ढूँढ़ने लग जाती है। यह पीड़ा और संवेदनात्मक पराकाष्ठा का क्षण है, जो लघुकथा को चरम पर ले जाता है। चीजों के प्रति उसकी चिड़चिड़ाहट नकारात्मकता को दर्शाती है, वहीं बेटी के प्रति गहनतम प्रेम रचनात्मकता को। संभवतः संतान के प्रति इसी प्रेम के चलते उसने परिश्रम और ईमानदारी का संकल्प लिया और बहुत कुछ (जो रचना में पर्दे के पीछे है) झेलकर भी किसी गलत रास्ते पर नहीं गया, इस सरल-स्वाभाविक रचना में निसन्देह ऐसा कुछ है, जिसमें डूबा जा सकता है, जिसे अन्तर्मन में सहेजा जा सकता है!
     यह कहते हुए मैं बेहद उत्साहित हूँ कि दीपक मशाल की लघुकथाओं में बहुत कुछ है, जिसकी अपेक्षा की जाती है। नई पीढ़ी के अभी तक मेरी दृष्टि में आये, वह सबसे ऊर्जावान और संजीदा लघुकथाकार हैं। उनके लेखन में परिपक्वता है। इक्कीसवीं सदी में सृजित लघुकथाओं का समुचित प्रतिनिधित्व प्रस्तुत किया है उन्होंने। आने वाले समय में वह लघुकथा के भंडार को समृद्ध तो करेंगे ही, नए आयाम भी देंगे; यह विश्वास किया जा सकता है। 

दीपक मशाल की चार प्रतिनिधि लघुकथाएँ

क्रान्ति 
     शूटिंग जारी थी 
     - साले कमीने, घर में माँ-बहन नहीं है क्या?
     अभिनेत्री ने चीखते हुए सीटी बजाने वाले बदमाश को लताड़ा। 
     - कट, कट, कट... नहीं यार बात नहीं बन रही आमना, एक्स्प्रेशन्स ही ढँग से नहीं आ रहे। फिर ट्राई करते हैं, अबके सही से करना। निर्देशक ने युवा अभिनेत्री को समझाते हुए कहा। 
     - ओके गाइज़, गैट रेडी फॉर रीटेक। क्लैप, रोल लाइट 
     - रोलिंग 
     - रोल साउण्ड, रोल कैमरा 
     - रोलिंग    
     - रोलिंग 
     - एक्शन 
     - साले कमीने, घर में माँ-बहन नहीं है क्या?
     - कट कट, कट इट... वो मज़ा ही नहीं आ रहा, मैं इस सीन को कुछ ऐसा बनाना चाहता हूँ कि लोग आने वाले कई सालों तक याद रखें। पर्दे पर आग लग जाए, कुछ ऐसा कि एक नई क्रान्ति पैदा हो। तुम समझ रही हो न?
     - या नो प्रॉब्लम, वी कैन डू इट अगेन। अभिनेत्री ने कोई ना-नुकुर नहीं की। 
     - अरे मोहन, बाल ठीक कर मैडम के। निर्देशक ने मेकअप आर्टिस्ट को बुलाया कि तभी सहायक निर्देशक ने उससे कुछ मशविरा किया, जिस पर निर्देशक ने खुश होते हुए सहमति की मोहर लगा दी। 
     - हाँ, ये ठीक कह रहे हो, कमाल का पकड़ा तुमने। बदलकर यही कर देते हैं, तहलका मचा देगा ये। 
     - यस गाइज़, वन मोर टाइम... लाइट, कैमरा, एक्शन...  
     अभिनेत्री ने बदमाश के बालों को पकड़ पूरे जोश से उसकी नाक को अपने घुटने पर मारा और 
     - मादर... घर में माँ-बहन नहीं तेरे? भेन के... 

आतंक 
     समर सेन के लिए स्कूल से भेजी गई बेटे की शिक़ायत उन्हें सिर्फ़ हैरान ही नहीं बल्कि परेशांन करने वाली भी थी। खुद की याददाश्त पर ज़ोर देने के बाद भी जब ऐसा कुछ याद न आया तो उन्होंने पत्नी से पूछा 
     - अरे सुनो, क्या विकू कभी रात में भी बिस्तर गीला करता है क्या?
     - नहीं, रात में तो उसने आज तक कभी ऐसा नहीं किया, ये तो पिछले हफ़्ते से हो रहा है कि रोज जब स्कूल से लौटकर आता है तो पैन्ट में ही सू-सू किए आता है। 
     रात को बेटे को बिस्तर में अपने सीने से लगाकर उन्होंने उसके सर पर हाथ फेरते हुए प्यार से पूछा 
     - बेटा क्या बात है, स्कूल में तुम पैंट में क्यों सू-सू कर लेते हो? तुम तो मेरे राजाबेटा हो ना, तुम्हें तो बाथरूम में जाना चाहिए, जैसे घर में जाते हो। 
     विकू उनके सीने से चिपक कर सहमते हुए बोला 
     - पापा, मैं बाथरूम जाने के लिए सर से अंग्रेज़ी में नहीं पूछ पाता और जो बच्चे हिन्दी में पूछते हैं सर उन्हें पनिशमेंट देते हैं।  


प्रगति 
     अपने हर काम के लिए लगभग 90-95 प्रतिशत तक मशीनों पर निर्भर हो चुके मानव को अपने वर्तमान युग को अतीत से सम्बन्ध जोड़कर देखना हास्यास्पद लगने लगा था, तभी न एक दिन मैनी ने ऐजो को एक तस्वीर दिखाते हुए कहा
     - तुम विश्वास कर सकोगे ऐजो कि आज से लगभग पचास साल पहले यानि सन 2000 के आसपास के युग की इस तस्वीर से दुनिया कितनी बदल चुकी है, अगर तुम उस समय पैदा हुए होते तो किमी को बुआ कहकर बुलाते और जॉन को चाचा। 
     - अच्छा! क्या तुम भी अपने रिश्तेदारों को ऐसे ही बुलाती थीं मैनी?
     ऐजो ने उत्सुकतावश और जानना चाहा। 
     मैनी के बोलने से पहले ही पास में सोफेनुमा कुर्सी पर पसरे सैम ने बताना चालू किया।
     - अरे नहीं, हमारे समय तक कुछ और बदलाव आये थे। हमने उस समय के चाचा-बुआ को अंकल-आंटी कहना शुरू कर दिया था। 
     - हाऊ इंट्रेस्टिंग! कितनी जल्दी बदलाव आते गए! क्या मिस्टर समीर और मिस रिमी को भी उस समय में मैं चाचा-बुआ कहकर बुलाता सैम?
     ऐजो ने रिश्तों के नामों पर डिसकशन में मजा लेना शुरू कर दिया था। 
     - नहीं डिअर यहाँ चाचा की पार्टनर को लोग चाची कहते थे, समीर और रिमी को तुम उस समय में दादा-दादी कहते।
     ब्लैक कॉफ़ी के सिप मारते हुए ऐजो ने फिर कहा 
     - कितना कॉम्प्लीकेटेड था न सबकुछ उस समय, कैसे मैनेज करते थे तुम लोग? और तुम दोनों को कैसे बोलता मैं उस समय मैनी?
     - सैम को पापा और मुझे मम्मी। हँसते हुए मैनी ने जवाब दिया। 


पसीजे शब्द 
     जब उसने पहली बार इस पराई ज़मीन पर क़दम रखा था तो जेब में दस पाउंड और बैग में तीन जोड़ी कपड़े भर थे। आज ये न सिर्फ उसका कहना है बल्कि लोगों का मानना भी है कि पंद्रह सालों में उसने अपनी लगन, मेहनत और ईमानदारी के दम पर ‘फर्श से अर्श’ तक का सफ़र तय किया है। मगर बचपन की न जाने वो कौन सी यादें हैं जिनका वह अपने आज से कोई भी रिश्ता नहीं रखना चाहता था। कोई भारतप्रेमी अंग्रेज़ दोस्त उससे भारत के विषय में जानकारी लेना चाहता तो वह चिड़चिड़ा हो उठता।
     आज इतवार को शत-प्रतिशत छुट्टी घोषित करती गुनगुनी धूप निकली थी लेकिन उसने आज भी एक क्लाइंट को समय दे रखा था। दफ्तर जाने के लिए जूतों में पैर डाले, तस्मे बाँधे, फिर कलाई पर घड़ी पहन ही रहा था कि तभी उसकी फूल सी बेटी हाथ में पेन-कॉपी और जिहन में सवाल लिए उसके पास आई। 
     - पापा ये पावर्टी क्या होती है?
     वह पल भर को ठिठका, बेटी के माथे को चूमा फिर ठण्डी आवाज़ में बोला 
     - गरीबी बेटा! 
     वह जोर से खिलखिला उठी। 
     - ओह्हो आप भी न बुद्धू हो पापा... हिंदी मीनिंग तो मुझे भी पता है लेकिन गरीबी का मतलब क्या होता है।
     जवाब भरे गले से निकला 
     - तुम्हें इसका मतलब पता न चले इसीलिये तो.... 
     शेष शब्द दर्द के पसीने में पसीज गए, उसने अचानक बेटी को सीने से भींच लिया। बेटी उसके आँसुओं में गरीबी के मायने ढूँढने में लग गई।
  • दीपक मशाल, कोलम्बस-ओहायो/ईमेल : mashal.com@gmail.com
  • भारत में : द्वारा श्री रामबिहारी चौरसिया, मालवीय नगर, बजरिया कोंच (शुक्लाजी की दुकान के सामने), जिला जालौन-285205, उ.प्र.

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



प्रो. बी. एल. आच्छा

Add caption

खुरदुरेपन में रिश्तों को सहेजती लघुकथाएँ
      ‘अस्थायी चार दिवारी’ वाणी दवे का पहला लघुकथा संग्रह है। हिन्दी लघुकथा क्षेत्र में यह पहली दस्तक इसलिए आश्वस्त करती है कि इनके भीतर पारिवारिक रिश्तों, संगत-असंगत परिदृश्यों, आर्थिक-सामाजिक स्तरभेद, आधुनिकता और कर्त्तव्यबोध, अभिव्यक्ति की आज़ादी और चैनलों पर प्रायवेसी की हत्या की, जातीय स्तर भेद और उनको ठेलकर सकारात्मक रचनाधर्मिता की वह सहभागी भी है। यही नहीं इन लघुकथाओं में पंचतंत्र की कथा शैली, दृष्टांत कथाओं, कथाकथन पद्धति और डायरी शैली के प्रयोग शिल्पगत तलाश की प्रवृत्ति का परिचय देते हैं।
      इस संग्रह की अधिकतर लघुकथाएँ पारिवारिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में बनते-बिगड़ते परिदृश्यों को रचती हैं, परन्तु मूल्य-सापेक्ष नज़रिया संवेदनात्मक स्पर्श लिए हुए है। ये लघुकथाएँ जीवन की कठोरताओं और विडम्बनाओं में उन कोमलताओं को सँवारती है, जो जीवन के बेहतर रसायन हैं। ‘तेरी बदसूरत माँ’ में माँ का बिन-जतलाया त्याग है जो बचपन में बेटे की बदसूरती को सँवारने के लिए अपनी आँख दे देती है, पर बेटा एक आँख वाली माँ से शर्मिन्दा है। वात्सल्य और मातृत्व के ये रसायन इन लघुकथाओं को भाव-संवेदी बनाते हैं। ‘रंग’ लघुकथा में भी युवा बच्चे माँ के वैधव्य की उदास सफेदी को रंगों से छिटका देते हैं। ‘बौने पापा के मजबूत कंधे’ में बौनेपन के बावजूद बच्चों में खुशियों का उजास भर देने वाले पिता की अक्षय ऊर्जा है। ‘उँगली’ में रिश्तों का स्मृति भय और कोमल स्पर्शों को उकेरता अहसास है। ‘ट्रेनिंग’ में बेटी को अन्नपूर्णा बनाने की सहज शिक्षा है जो ससुराल में उसे खुशहाल बना देती है।  ‘घर’ लघुकथा में दीवारों पर पानी छिड़कने वाले वृद्ध पिता का समर्पित भाव है जो उम्र की जंग में घर की नींव को कमजोर नहीं होने देता। ‘जानकी भवन’ में बेटी के टूटते घर को जोड़ता ममत्व है, जो बेटे के गृह-प्रवेश में अनुपस्थित रहकर भी पूरे परिवार को जोड़ता है। 
      पारिवारिक पृष्ठभूमि में ही पति-पत्नी के रिश्तों में कहीं तल्खि़यों के चित्र हैं तो कहीं दाम्पत्य से लिपटते भावनात्मक रसायन। ‘पूर्ण विराम’ में वह पत्नी भी है, जो शराबी पति की हत्या में भी प्रसन्नता का अनुभव करती है तो ‘क़ीमती’ में दाम्पत्य के रिश्तों का गठबंधन उम्र के चौथेपन में भी ‘अँगूठी’ से प्रेम-वलय बनाता है। या कि ‘डायरी’ के हाथ लगने पर पत्नी में पति की प्रतिमा ही नया रूप गढ़ लेती है। ‘दंपत्ति’ लघुकथा में वृद्ध दंपति के केनवास पर पति-पत्नी के अहमीले संसार को रचा गया है, जिसकी परिणति टूटते-बिखरते दाम्पत्य के हँसते-मुस्कुराते गठजोड़ में हो जाती है। लेकिन ‘तरीका’ लघुकथा में तो नगरवधू ही दाम्पत्य की सकारात्मक सीख देती है, व्यथाओं के भीतर दूसरों के लिए प्रेम की योजकता की। ‘सेटलमेन्ट’ में ‘मंगलसूत्र’ के लिए वृद्धा पुलिस से सेटलमेन्ट नहीं करती।
      माता-पिता और संतति के रिश्तों के बीच लगाव और अलगाव, सेवा संस्कार और विस्थापन भरे अकेलेपन इन लघुकथाओं को संवेदनशील बनाते हैं। ‘इंटीरियर’ में नयी पीढ़ी का संस्कार पुरानी पीढ़ी को भी स्तब्ध कर देता है जब माता-पिता के पुराने चित्रों को हटाने से नाराज़ माता-पिता चाँदी की फ्रेम में उनके माँ-बाप के सुसज्जित चित्रों को देखते हैं। लेकिन दूसरी ओर ‘टाइल्स’ लघुकथा में वह पुत्र भी है जो अपने ‘आदर्श पुत्रत्व’ की प्रतिमा गढ़ने के लिए फ्रि़क्रमंद है, न कि श्रद्धा भाव से विनत। ‘उत्तरकार्य’ में तो पैकेज संस्कृति में पलते युवाओं पर अविश्वास करते हुए माता-पिता जीवित ही अपने उत्तरकार्य निपटा देते हैं। लेकिन वृद्धावस्था का अकेलापन या विदेश में पलती संतानों की बाट जोहते माता-पिता की विकल अवस्था के चित्र भी इन लघुकथाओं को व्यापक फ़लक देते हैं। ‘अकेलापन’ और ‘रिस्क’ इसी भावबोध की लघुकथाएँ हैं। पर मजदूर परिवार के पिता-पुत्र का वह रिश्ता पाठक को बेधता है, जब शराबी पिता बीमारी के बावजूद पुत्र द्वारा कमाये गये पचास रुपये छीनकर उसे ‘दुआ’ देता है। ‘गुलमोहर’ में माँ की गुलमोहर से सजी अर्थी से उपजी बाल-कल्पना अन्तरस्पर्शी है।
      इन लघुकथाओं में सामाजिक-आर्थिक स्तरभेद के चित्र भी उस खाई को दर्शाते हैं, जो समता की ज़मीन को पटने नहीं देती। ‘अस्थायी चार दिवारी’ में मकान बन जाने पर विस्थापित हुए मजदूर की व्यथा है। अब का यह अर्थशास्त्र पूँजी के जबड़ों में कितना बेचैन है, जो नीले आकाश के हवाले ही ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर है। जातिवाद का देश हमारे समाजशास्त्र का अनपटा सामाजिक धरातल है; ‘किसकी बलि’, ‘खाई’ लघुकथाओं में जातीयता के ऊँचे-नीचे एहसास समता के संस्कार उगने ही नहीं देते। लेेकिन ‘फिरकी’ में आर्थिक स्तरभेद का अहंकार बड़े नोटों में इठलाता है, पर खुल्ले के लिए उनको भी छोटों के पास ही आना पड़ता है। मिडिल और हाई के गुमान का लेखिका ने समय की समझ में परोसा है- ‘फिरकी को पहले हम चलाते थे जबकि आज उसे समय की हवा चला रही है।’ ‘किरदार’ में नारी-पुरुष विमर्श की झलक है, जहाँ पुरुष की नारीमय समझ और नारी का समर्पित प्रेेम दाम्पत्य कीर्ति बन जाते हैं। इन लघुकथाओं में समलैंगिकता, चैनलों की असीमित आज़ादी, वृद्धों के साथ मजाकिया सलूक, किन्नरों की व्यथा, पुलिसिया रिश्वतनामा, ईमानदार कर्मियों को फँसाने की केकड़ा-प्रवृत्ति, नारों में जीता सरकारी तंत्र, शरीफों की नाज़ायज हरकतें, पैकेज संस्कृति, पारिवारिक रिश्तों का स्वार्थी अंदाज़, आरोपों में जीते ईमानदार पारिवारिक रिश्ते, गोदामों में सड़ता अनाज और दानों के लिए मोहताज ग़रीब बच्चे जैसे अनेक विषय इन लघुकथाओं को वैविध्य प्रदान करते हैं।
      लेखिका ने पंचतंत्र शैली के प्रयोग भी किये हैं। ‘विश्वास’ में पक्षियों के माध्यम से बड़ों के बजाय जड़ों से जुड़ने की सीख है। ‘अवसाद’ में सहकार से अवसाद को बहार में बदलने की शिक्षा दी गयी है। ‘निवाला’ में पशुओं में अग्रगामी बने मातृत्व को उकेरा गया है। बूढ़ा घोड़ा, पत्थर, बड़ी मछली, तमाचा जैसी लघुकथाएँ बोधकथा या दृष्टान्त शैली में रची गयी हैं। ‘अनाज: तीन दृश्य’ में भी प्रयोगी शिल्प देखा जा सकता है। लेकिन अधिकतर लघुकथाएँ कथा-कथन शैली की हैं। प्रयोगशीलता के बावजूद यह कहना असंगत न होगा कि इन लघुकथाओं में कथा-धैर्य के बावजूद कसावट का अभाव है। कथन की सरलता जहाँ इन लघुकथाओं को आसान बनाती है, वहीं नाटकीय मोड़, क्रियात्मकता, घात-प्रतिघात, संवादीपन का वैसा नियोजन नहीं है, जो इन लघुकथाओं को  अधिक प्रभावी बना सकता है। अलबत्ता इन लघुकथाओं में एक नज़रिया है, जो कहीं न कहीं सामाजिक-पारिवारिक स्तर पर सँवारने के लिए प्रतिबद्ध है। कभी-कभी तो वह उद्घोषक बनकर रचनाकार को सामने ले आता है। पर सामाजिक सत्यों को समाज-भाषा में ही कहने और कभी-कभी सूक्ति वाक्यों को गढ़ने की ताक़त लेखिका के भाषाधिकार को भी दर्शाती है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि भाषागत कतरव्योंत, नाटकीय मोड़ों का सृजन और संवादी-सक्रियता, भविष्य की लघुकथाओं में उतरकर आएँगे, जिनके बीज-संस्कार इन लघुकथाओं में विद्यमान हैं।
अस्थायी चार दिवारी : लघुकथा संग्रह : वाणी दवे। प्रकाशक : जैनसन प्रिन्टर्स, इन्दौर। मूल्य: रु. 150/- मात्र। संस्करण: 2016।
  • 36, क्लीमेन्स रोड, सखना स्टोर्स के पीछे, पुरुषवाकम् चेन्नई-600007/मोबा. 09425083335

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



राधेश्याम भारतीय


मानवता का पाठ पढ़ाता लघुकथा संग्रह
लघुकथा विधा पर गंभीरता से काम करने वाले लेखकों में कमल चोपड़ा का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। सद्यः प्रकाशित उनके लघुकथा संग्रह ‘अनर्थ’ में साम्प्रदायिकता जैसे एक ही विषय पर रचित 79 लघुकथाएं संग्रहीत हैं। इन लघुकथाओं का मुख्य प्रतिपाद्य यही है कि जो लोग धर्म की दुहाई देकर लोगों को आपस में लड़वाते हैं, वे वास्तव में धर्म के मर्म को नहीं जानते। वे कट्टरपंथी जिन धर्मगं्रंथों को लेकर झगड़ते हैं, उन्हें  वे पढ़ते ही नहींे। यदि वे उन्हें पढ़ लें तो कोई विवाद ही पैदा न हो। क्योंकि उनमें लिखी हर पंक्ति मानवता का संदेश देती है। धार्मिक समन्वयता का
खुला आसमान देती हैं। ताकि हम खुले मन से सोच सकें। 
      लघुकथा ‘छोनू’ में बताने का प्रयास हुआ है कि मनुष्य की कोई जाति धर्म नहीं होता। वह केवल मानव है और है उसकी मानवीयता। जिस तरह एक बच्चा सोचता है और कहता है कि ‘‘मैं छिक्ख-छुक्क नईं हूँ... मैं बीज-ऊज नहीं हूँ...मैं तो छोनू हूँ।’’ ऐसे ही सोचना चाहिए सभी को।
      लघुकथा ‘फुहार’ में बच्चे के गेंद खेलने से हुई थोड़ी-सी असुविधा पर ही हम विधर्मी को मारने-काटने पर तैयार हो जाते हैं। जबकि बात जरा-सी भी नहीं। जब हम दूसरे की बातों में न आकर अपने विवेक से काम लेते तो फिर से वही प्रेम, वही मोहब्बत कायम हो जाती है। अंत कितना सुंदर है। बच्चा शाबू कहता है, ‘‘सॉरी-सॉरी... अब जब आप सूर्य को जल चढ़ा रहे होंगे न उस वक्त मैं नहीं खेला करूंगा।’’ वहीं दूसरी ओर लाला जी ने शाबू को गोद में उठा लिया और कहा-‘‘नहीं रे, अब मैं सुबह-सुबह तेरे उठकर बॉल खेलने से पहले ही जल चढ़ा लिया करूंगा। और सारा मामला समाप्त। ऐसी लघुकथाएँ कालजयी रचना बन जाती हैं। 
      कमल चोपड़ा की अधिकतर लघुकथाएँ सकारात्मक सोच के साथ समाप्त हुई हैं। सकारात्मक सोच वह जल की फुहारे हैं जो नफरत की आग को ठंडा कर सकती हैं। लघुकथा ‘धर्म के अनुसार’ समन्वय की बेजोड़ लघुकथा जान पड़ती है। ‘उल्टा आप’ में  धर्म-अधर्म की तस्वीर बडे़ ही सहज ढंग से प्रस्तुत हुई है। जहाँ अध्यापक किसी की जान बचाने को धर्म समझता है, वहीं एक धर्म के लोग विधर्मी की जान लेने को ही धर्म समझते हैं। 
      साम्प्रदायिक दंगों की आग मनुष्य का सब कुछ छीन लेती है। और जो बच जाते हैं उनका सुख-चैन सब मिट जाता है। हम दूसरों पर वार बड़ी आसानी से कर सकते हैं। परन्तु जब हम उसी घटना चक्र से गुजरते हैं तो हमारी दशा पागलों जैसी हो जाती है। इसी की अनुभूति लघुकथा ‘चमक’ में होती है। मन्दिर-मस्जिद जिसे हम ईश्वर का घर मानकर उसकी चौखट पर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। वहीं उन्मादी व्यक्ति ईश्वर के बंदों का कत्ल करने में परहेज नहीं करते। कभी-कभी ऐसा लगता है कि भगवान है ही नहीं। यदि भगवान होता तो उसकी आँखों के सामने दरिंदगी का नंगा नाच न होता। और बेगुनाहों का खून न बहता। ‘वहीं रहते वे’ में इसी यथार्थ को कथ्य बनाया गया है।   
      लघुकथा ‘फर्क’ तर्क-वितर्क करके पाठक को विवेक से निर्णय लेने को बाध्य करती है कि किसी धर्म के लोगों को मार रहे हैं और उन्हीं का सामान प्रयोग करते हुए न कोई नफरत न कोई घिन्न! ‘कल्पना’ लघुकथा किसी राष्ट्र के लोगों की सोच पर ही प्रश्नचिह्न लगा देती है कि जब एक राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष है तो वहाँ साम्प्रदायिक दंगे कैसे हो जाते हैं। यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। ऐसे प्रश्नों को खड़ा करना ही साहित्य का उद्देश्य होता हैं। इस विषय पर पूरी मानव जाति को सोचना चाहिए।
      साम्प्रदायिक दंगों में अधिकतर बेगुनाह लोग मारे जाते हैं। और जो उस आग को हवा देने वाले होते हैं वे ना जाने कौनसी गुफा में जा छिपते हैं। उनका कोई नुकसान ही नहीं होता। लघुकथा ‘ऐसा कोई दंगा’ में एक ऐसे दंगे की माँग की जाती है जिसमें असली मुजरिमों को चुन-चुनकर मारा जाए। बस फिर कोई दंगा न हो। लघुकथा ‘हथियार’ लोगों को सचेत करती है मत खेलो इन हथियारों से। हथियार फर्क करना नहीं जानते कि कौन देवता है और कौन राक्षस, म्लेच्छ कौन, काफिर कौन। हथियारों की आँखें नहीं होती कि देख पाए ठीक-गलत। छोटा-बड़ा, बच्चा-बूढ़ा। हथियारों का धर्म से कोई लेना देना नहीं। ‘गुनाह’ लघुकथा आँखें खोल देने वाली लगी। आपका घर मुस्लिम जला दे तो गुनाह और हिन्दू जला दे तो बेगुनाह। गुनाह कोई भी करे...यहाँ करे या वहाँ...गुनाह तो गुनाह ही होगा।
      संग्रह में जिस विषय पर कमल चोपड़ा जी ने कलम चलाई है वह अत्यंत संवेदनशील है। उन्होंने बड़ी ही सूझबूझ से काम लिया है। और धर्म का जो असली सार है उसको दिखाने का प्रयास किया है। साम्प्रदायिक दंगों में लगी चोट को लोग चोट ही नहीं मानते बल्कि विजय-तिलक मानते हैं। पर लेखक इन बातों से सहमत नहीं होता, वह अंततः बोध करवा ही देता है कि वह चोट नहीं कलंक है।
      लघुकथाओं में पात्रों का मनोविश्लेषण बड़े ही सटीक ढंग से हुआ है। हमने मदिंर मस्जिद गिरजाघर इसलिए बनाए ताकि हम अपने आराध्य देवों की आराधना कर सकें। वहाँ परम शांति का अनुभव कर सकें। परन्तु  देखने में आता है वहाँ तो महाभारत की पटकथा लिखने का काम किया जाता है। 
      यह संग्रह हमें सोचने पर बाध्य करता है कि जिस धर्म का झंडा लेकर हम चल रहे हैं वह किसी को मारने की इजाजत नहीं देता। आशा है जहाँ-जहाँ ये लघुकथाएँ पढ़ी जायेगी। अपना असर अवश्य दिखायेंगी। 
अनर्थ : लघुकथा संग्रह : डॉ. कमल चोपड़ा। प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली नई दिल्ली-30। मूल्य: रु. 350/- मात्र। संस्करण: 2015।
  • नसीब विहार कालोनी, घरौंडा, करनाल, हरि./मो. 093153882236

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



डॉ. उमेश महादोषी



बरेली शहर का यथार्थ चेहरा
     वरिष्ठ साहित्यकार श्री हरिशंकर शर्मा जी ने ‘शहर की पगडंडियाँ’ के माध्यम से बरेली (बाँस बरेली) शहर के चेहरे को इतिहास और वर्तमान के सन्दर्भ में पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास किया है। इसके माध्यम से उन्होंने शहर की गलियों-बस्तियों-चौराहों के चित्र खींचे हैं, शहर की विरासत को याद किया है, उसकी खूबियों पर लिखा है, इतिहास से लेकर वर्तमान तक उन सामाजिक-सांस्कृतिक -साहित्यिक रेखाओं को अपनी तूलिका की स्याही प्रदान करने की चेष्टा की है, जो शहर के चेहरे को चमक प्रदान करती दिखाई देती हैं। उन्होंने साहित्य से लेकर संगीत, गायन, अभिनय, पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकालयों के साथ
धार्मिक स्थलों की स्थिति, प्रकाशन व्यवयाय और उस पर बाजार के प्रभाव पर भी प्रकाश डाला है, इन सबमें रची-बसी सुगन्ध को पाठकों के अन्तर्मन तक पहुँचाने का समर्पित प्रयास किया है। लेकिन यह सब करते हुए उनके अपने अन्तर्मन में शायद कई चीजें घूमती रही हैं, जिनमें अच्छी चीजों के सुफल को देखने की जिज्ञासा के साथ कहीं न कहीं बरेली की आधुनिक प्रगति में संस्कारों और विरासत की उपेक्षा का दर्द भी शामिल है। पं. राधेश्याम कथावाचक जी, साहित्यिक पत्रिका ‘भ्रमर’ और निरंकार देव सेवक जी का जिस तरह एकाधिक प्रसंगों में स्मरण किया गया है, वह सिर्फ उन्हें स्मरण करना भर नहीं है, अपितु उनके बाद के खालीपन की कचोट को महसूस करना भी है। आधुनिक बरेली शहर निसन्देह भौतिक सुख-सुविधाओं की दृष्टि से काफी आगे बढ़ रहा है, लेकिन उसकी प्रगति अपूर्ण है क्योंकि उसमें अपने संस्कारों और विरासत की सुगंध का अभाव है। भावार्थ की दृष्टि से ‘प्रगति’ में मानक जीवन की सहजता के अनुरूप वर्तमान की तार्किक और भविष्य की अनुमानित आवश्यकताओं की पूर्ति के संकल्पों के साथ बीते हुए और बीत रहे समय की सकारात्मक महत्वपूर्ण चीजों का संरक्षण भी शामिल होता है।
      पुस्तक में संगीत, साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े परिवेश पर काफी लिखा गया है। जो जानकारी दी गई है, वह इन क्षेत्रों में बरेली के योगदान को रेखांकित करने के लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन यही जानकारी महत्वपूर्ण प्रश्न भी उठाती है कि ये महत्वपूर्ण चीजें सामान्य उपलब्धता और सामान्य ज्ञान के दायरे में आकर लोगों के आकर्षण का माध्यम क्यों नहीं बन पाईं? ऐसी आधारभूमि के होते हुए भी बरेली साहित्य-संगीत के राष्ट्रीय फलक पर अपना स्थान क्यों नहीं बना पाया? आज भी साहित्य और संगीत से जुड़े कई महत्वपूर्ण व्यक्तित्व बरेली शहर में उपस्थित हैं, उनकी पहुँच और प्रभाव भी है, लेकिन इसके बावजूद शहर की विरासत को प्रदर्शित करने वाला कोई प्रतीक चिन्ह शहर के प्रमुख सार्वजनिक स्थलों पर सामान्यतः दिखाई नहीं देता। नई प्रतिभाओं में ऊर्जा का संचार नहीं हो पा रहा है, यह प्रतिभा या जागरूकता की कमी का मामला हो या प्रोत्साहन का अभाव, लेकिन इतना तय है कि यदि नई प्रतिभाएँ राष्ट्रीय फलक पर नहीं आयेंगी तो शहर की तमाम नामचीन हस्तियाँ अपनी परम्परा स्वयं बनकर रह जायेंगी। साहित्य की उभरती हुई विधा ‘लघुकथा’ पर दो-दो अखिल भारतीय सम्मेलनों का मेजबान शहर भाई सुकेश साहनी जी के आधे कद का भी कोई दूसरा लघुकथाकार पैदा नहीं कर पाया! जैसा कि यह पुस्तक भी संकेत करती है, ‘भ्रमर’ के बाद कोई स्तरीय नियमित लघु पत्रिका बरेली शहर नहीं दे पाया है। वर्तमान में ‘मंदाकिनी’ नियमित नहीं हो पा रही है। ‘गीतप्रिया’ (जिसकी चर्चा पुस्तक में नहीं है) नियमित रूप से निकल रही है, लेकिन एक तो वह केवल गीत विधा पर केन्द्रित है, दूसरे संभवतः सहयोग एवं मार्गदर्शन के अभाव में व्यापक भूमिका का निर्वाह नहीं कर पा रही है।
      हमें यह बात समझनी होगी कि किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक-साहित्यिक-सामाजिक प्रगति प्रतिभाओं के उभार और उसके सतत प्रवाह के बिना संभव नहीं है। नई प्रतिभाओं को भी संघर्ष और समर्पण के रास्तों के साथ अपनी क्षमताओं की पहचान करनी होगी। लेकिन वातावरण बनाने में बड़ों की भूमिका होती है, वह उस तरह दिख नहीं रही है। ऐसी चीजों के पीछे के कारणों पर पुस्तक में भले प्रत्यक्षतः प्रश्न न उठाया गया हो, लेकिन पुस्तक के पीछे की अन्तर्भावना को तो समझना ही पड़ेगा। कई चीजों को शर्मा साहब ने बड़े परिश्रम और समर्पण भाव से खोजबीन कर प्रस्तुत किया है, किन्तु वे चीजें व्यवहार के धरातल पर भी अपने प्रभाव और दमक के साथ दिखाई दें, तो कुछ बात बने। श्री हरिशंकर शर्मा जी मूलतः बरेली के हैं, उनके अन्तर्मन में इस शहर के प्रति अगाध प्रेम और समर्पण का भाव है, जो पुस्तक के शब्द-शब्द में झलक रहा है।
      पुस्तक में शामिल सभी आलेख काफी पहले लिखे गये व प्रकाशित हैं, इसलिए उन्हें किसी न किसी रूप में अद्यतन किए जाने की आवश्यकता थी। आवश्यकतानुसार आलेखों के अंत में नोट लगाए जा सकते थे या भूमिका में प्रमुख परिवर्तनों पर लिखा जा सकता था। बरेली के बारे में मुझे बहुत सघन-सूक्ष्म जानकारी नहीं है, लेकिन सिटी शमशान भूमि पर स्थित चंदन का वृक्ष वर्षों पूर्व तस्करों की भेंट चढ़ चुका है। वह अब केवल एक किंवदंती भर है। शहर के चेहरे को नोंचने जैसा यह कृत्य क्या स्थानीय शह के बिना संभव हो पाया होगा? थोड़े से पैसों के लिए शहर की अमूल्य निधि को बेच-खाने वालों के पेट की भूख कितने दिनों के लिए मिटी होगी! मुझे नहीं पता कि उस चन्दन वृक्ष की हत्या पर इस शहर की आँखें कितना नम हुई होंगी? हाँ, शर्मा साहब और बरेली के तमाम वासियों से क्षमा याचना के साथ इतना अवश्य कहूँगा जो शहर एक खूबसूरत और जीवन की अंतिम यात्रा को सुगन्धित करने वाले शहर की पहचान बन चुके और महामहिम राष्ट्रपति के हाथों रोपित पवित्र वृक्ष को नहीं बचा पाया, वह अपनी संस्कृति और विरासत के प्रति कितना प्रतिबद्ध और समर्पित हो सकेगा! 
     शहर के जो लोग बड़े बन गये हैं, भले ही अपने परिश्रम से बने हैं, शहर को भी उतना ही बड़ा बनाने के बारे में सोच सकें, तो निसंदेह आने वाला समय उन्हें महान कहेगा, उनकी महानता के गुण गायेगा। श्री हरिशंकर शर्मा जी ने बरेली से दूर जाकर भी अपने शहर के लिए अपनी क्षमताओं के अनुरूप अपना एक कदम बढ़ाया है, देखते हैं आज भी इस शहर की दाल-रोटी खाने वाले कितने कदम आगे बढ़ाते हैं!
शहर की पगडंडियाँ : आलेख संग्रह : हरिशंकर शर्मा। प्रकाशन : नारवाल प्रकाशन, मेन मार्केट, रतनलाल रूंगटा के पास, पिलानी, राज.। मूल्य : रु. 250/- मात्र। संस्करण : 2016।
  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004 

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



{आवश्यक नोट-  कृपया संमाचार/गतिविधियों की रिपोर्ट कृति देव 010 या यूनीकोड फोन्ट में टाइप करके वर्ड या पेजमेकर फाइल में या फिर मेल बाक्स में पेस्ट करके ही ई मेल aviramsahityaki@gmail.com पर ही भेजें; स्केन करके नहीं। केवल फोटो ही स्केन करके भेजें। स्केन रूप में टेक्स्ट सामग्री/समाचार/ रिपोर्ट को स्वीकार करना संभव नहीं है। ऐसी सामग्री को हमारे स्तर पर टाइप करने की व्यवस्था संभव नहीं है। फोटो भेजने से पूर्व उन्हें इस तरह संपादित कर लें कि उनका लोड लगभग 02 एम.बी. से अधिक न रहे।}  




बरेली में डॉ. नरेन्द्र मोहन का काव्य पाठ






विगत 28-29 सितम्बर को वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. नरेन्द्र मोहन बरेली नगर में थे। इस अवसर पर नगर के कई साहित्यकारों ने उनसे मुलाकात की। 29 सितम्बर की शाम डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. यू. सी. चतुर्वेदी, रमेश गौतम, डॉ. सविता मिश्रा, डॉ नितिन सेठी, डॉ. उमेश महादोषी आदि ने डॉ. नरेन्द्र मोहन जी के काव्य-श्रवण का कार्यक्रम बनाया और मोहन साहब जिस होटल में ठहरे हुए थे, वहीं सब एकत्र हुए। सबने डॉ. नरेन्द्र मोहन जी की कई कवताएँ सुनीं। 
          डॉ. नरेन्द्र मोहन ने अपनी आत्मकथा के सन्दर्भ में कई प्रसंग भी सबके साथ साझा किये, जो सृजन की दृष्टि से बेहद प्रेरणादायी थे। डॉक्टर साहब की इच्छानुरूप सभी उपस्थित स्थानीय कवियों ने भी अपनी रचनाएँ सुनाई।
           निसन्देह उस खूबसूरत शाम में मोहन साहब जैसे मृदुल एवं प्रेरक व्यक्तित्व के स्नेहिल सानिध्य के साथ एक अनौपचारिक मिलन संगोष्ठी का संश्ल्ष्टि भाव-सम्प्रेषण भी समाहित था, जो औपचारिक कार्यक्रमों में प्रायः नहीं दिखता। (समाचार प्रस्तुति : अविराम समाचार डेस्क)




महाश्वेता चतुर्वेदी को साहित्य भूषण एवं अन्य सम्मान
         बरेली की सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा दो लाख रुपये का ‘साहित्य भूषण सम्मान-2015’ प्रदान किया गया। डॉ. महाश्वेता जी को इस सम्मान की प्राप्ति के अवसर पर नगर की कई संस्थाओं की ओर से उनका अभिनन्दन किये जाने की जानकारियाँ भी प्राप्त हुई हैं। 
          प्रमुख समाचार पत्र दैनिक जागरण ने भी अपने स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित कवि सम्मेलन में डॉ. महाश्वेता जी को ‘रुहेलखण्ड गौरव’ सम्मान से विभूषित किया है। डॉ. महाश्वेता जी ने अनेक पुस्तकों की रचना के साथ द्विभाषी पत्रिका ‘मंदाकिनी’ के माध्यम से भी हिन्दी साहित्य की महती सेवा की है। (समाचार प्रस्तुति: अविराम समाचार डेस्क)



डी.एम. मिश्र के गजल संग्रह का विमोचन




जन संस्कृति मंच की ओर से हिन्दी के चर्चित कवि डी.एम. मिश्र के नये गजल संग्रह ‘आईना-दर-आईना’ का विमोचन 15 सितम्बर 2016 को लखनऊ के जयशंकर प्रसाद सभागार, कैसरबाग में किया गया। कार्यक्रम का आरम्भ लोक गायिका व गजलकार डा. मालविका हरिओम के डी.एम. मिश्र की गजलों के सस्वर पाठ से हुआ। उन्होंने श्री मिश्र की गजलों को प्रगतिशीलता का परिचायक बताया। इस अवसर पर डी.एम. मिश्र ने भी अपनी गजलों का पाठ किया।                  कार्यक्रम की अध्यक्षता कथाकार संजीव ने की। संजीव ने डा. मिश्र में वह चिनगारी देखी, वह ताप देखा,
जो किसी भी कवि को उसकी परंपरा से अलग चमक देकर महत्वपूर्ण बना देता है। उन्होंने कई उदाहरणों के साथ डा. मिश्र को जनता का कवि बताया। विशिष्ट अतिथि कमल नयन पांडेय ने डा. मिश्र को एक साधक कवि बताया। वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति, डा. हरिओम, सुभाष राय, ओमप्रकाश नदीम के साथ संचालन कर रहे कौशल किशोर ने भी अपने वक्तव्यों में डॉ. मिश्र की ग़ज़लों की प्रशंसा की। इस अवसर पर गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, दयाशंकर पांडेय, नसीम साकेती, सुधाकर अदीब, ज्ञानप्रकाश चौबे, राकेश, विजय राय, राम किशोर, नाइश हसन, संध्या सिंह, श्याम अंकुरम, क.ेके. वत्स, तरुण निशांत, कल्पना, आदियोग, लालजीत अहीर, एस.के. पंजम, प्रज्ञा पांडेय, अजीत प्रियदर्शी, महेश चंद्र देवा, सुशील सीतापुरी आदि उपस्थित रहे। (समाचार सौजन्य : विमल किशोर)




डॉ. शिवशंकर यजुर्वेदी अभिनन्दन ग्रन्थ लोकार्पित




विगत 31 जुलाई को सुप्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेमचन्द जयन्ती एवं ‘गीतप्रिया’ पत्रिका के संपादक डॉ. शिवशंकर यजुर्वेदी के षष्ठिपूर्ति के अवसर पर सम्पन्न वृहद आयोजन में डॉ. शिवशंकर यजुर्वेदी अभिनन्दन ग्रन्थ का लोकार्पण मुख्य अतिथि केन्द्रीय राज्यमंत्री व स्थानीय सांसद श्री संतोष गंगवार तथा मंचासीन वरिष्ठ साहित्यकारगण सर्वश्री रमेश चन्द्र शर्मा ‘विकट’ (कार्यक्रम अध्यक्ष), वीरेन्द्र अटल (विशिष्ट अतिथि), डॉ. मुरारीलाल सारस्वत व आचार्य देवेन्द्र ‘देव’ (मुख्य वक्ता) द्वारा अर्बन कोआपरेटिव बैंक के सभागार में किया गया। अभिनन्दन ग्रन्थ का संपादन सुप्रसिद्ध गीतकार श्री रमेश गौतम ने किया है। 
         आरम्भिक सत्र में मुंशी प्रेमचन्द का भावपूर्ण स्मरण किया गया। कई वक्ताओं ने उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियाँ श्रोताओं के साथ साझा कीं। दूसरे चरण में डॉ. यजुर्वेदी के षष्ठिपूर्ति के अवसर पर उनका अभिनन्दन अनेक साहित्यकारों एवं संस्थाओं ने किया, जिनमें सर्वश्री धर्मपाल सिंह चौहान ‘धर्म’, रामशंकर शर्मा ‘प्रेमी’, राधेश्याम शर्मा ‘श्याम’, देवेन्द्रनाथ शर्मा, धर्मेन्द्र सहाय, उपमेन्द्र कुमार सक्सेना, सुधीर कुमार चन्दन आदि प्रमुख थे। कार्यक्रम में सर्व सुश्री (डॉ.) ममता गोयल, मीना अग्रवाल, नीलिमा रावत, प्रेमा यजुर्वेदी  तथा सर्वश्री रमेश गौतम, हरिशंकर सक्सेना, सतीश गुप्ता ‘द्रवित’, प्रताप मौर्य ‘मृदुल’, डॉ. रंजन विशद, रणधीर प्रसाद गौड़ ‘धीर’, रामकुमार भारद्वाज ‘अफरोज’, राम कुमार कोली, गुडवन मसीह, अविनाश अग्रवाल, रामप्रकाश सिंह ‘ओज’, एस. ए. हुदा ‘सोंटा’, रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’, ए. के. तन्हा, चित्रभानु मित्र ‘बादल’, शिवनाथ बिस्मिल, विपिन यजुर्वेदी आदि अनेक साहित्यकार एवं गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे। भावपूर्ण संचालन डॉ. नितिन सेठी ने किया। (समाचार प्रस्तुति : अविराम समाचार डेस्क)




अहिसास का हिन्दी साहित्य सम्मान समारोह




अखिल हिन्दी साहित्य सभा (अहिसास) का राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य सम्मान समारोह नासिक में शंकराचार्य पूर्तकोटि सभागार में 16 अक्टूबर को आयोजित किया गया। मुख्य अतिथि वैज्ञानिक श्री विपुल सेन, समारोह अध्यक्ष श्रीमती मनीषा अधिकारी, विशिष्ट अतिथि श्री प्रदीप शैणे थे। अहिसास के अध्यक्ष श्री सुबोध मिश्र द्वारा अहिसास की स्थापना के औचित्य के उद्बोधन से हुई। इसके बाद स्मारिका ‘विद्याभारती‘, त्रैमासिक पत्रिका ‘सार्थक नव्या’ के ‘विदर्भ विशेषांक’, डा. आकुल के नवगीत संग्रह ‘जब से मन की नाव चली’ का विमोचन किया गया। इस अवसर पर डा. गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’ को विद्योत्त्मा साहित्य सम्मान, डा. राम सनेही लाल ‘यायावर’ को ‘साहित्य साधना पुरस्कार’, श्री रमेश यादव को ‘साहित्य सृजन सम्मान’, श्री विजय कुमार संपति को ‘साहित्य आराधना सम्मान’ तथा शायर नासिर शाकेब को ‘अहिसास गौरव सम्मान’ प्रदान किया गया। कोटा के जनकवि और साहित्यकार डा. गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’ व उनकी पुस्तक का परिचय अनीता दुबे ने पढ़ा। कार्यक्रम में सभी निर्णायकों को भी सम्मानित किया गया, जिन्होंने प्राप्त 18 प्रविष्टियों से पाँँच साहित्यकारों को सम्मान हेतु चयन किया। समारोह में सहयोगी बने सभी विज्ञापनदाता, प्रायोजकों को भी सम्मानित किया गया। अंत में शीला डोंगरे, संस्थापक अध्यक्ष अहिसास ने आभार व्यक्त किया। दूसरे सत्र में पधारे सम्मानित साहित्यकारों एवं कवि सम्मेलन के लिए विशेष रूप से आमंत्रित कवियों द्वारा मिश्रित काव्यपाठ किया गया। (समाचार सौजन्य : अखिल हिन्दी साहित्य सभा, नासिक)



माधुरी राऊलकर का ग़ज़ल संग्रह लोकार्पित





नागपुर की कवयित्री माधुरी राऊलकर के ग़ज़ल संग्रह ‘परिंदे ये नहीं कहते’ का लोकार्पण श्री गिरीश गाँधी की अध्यक्षता में नागपुर में सम्पन्न एक समारोह में हुआ। इस अवसर पर विधायक गिरीश व्यास व प्रकाश गजभिये प्रमुख अतिथि थे। एम. ए. कारर व डॉ. सागर खादीवाला की विशेष उपस्थिति में आयोजित इस समारोह में माधुरी जी को सम्मानित भी किया गया। कार्यक्रम में शब्बीर विद्रोही, विनोद नायक, टीकाराम साहू, अरुण खरे, विलासिनी नायर, डॉ. प्रेमलता तिवारी, इन्दिरा किसलय, कमलेश चौरसिया, उषा अग्रवाल, डॉ. कृष्णा श्रीवास्तव आदि अनेक साहित्यकार उपस्थित थे। संचालन अविनाश बागड़े तथा आभार प्रदर्शन अनिल मालोकर ने किया। (समाचार सौजन्य : माधुरी राऊलकर)


ईश्वर करुण को हिंदी सेवी सम्मान 
केरल राज्य के त्रिशूर जिले के तटवर्ती इलाके में स्थित एम. ई. एस. अस्माबी कॉलेज की ओर से कवि ईश्वर करुण को हिंदी सेवी सम्मान प्रदान किया गया। सरकारी, साहित्यिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में हिंदी भाषा को दिए गए योगदान को मानते हुए यह सम्मान कॉलेज सभागार में आयोजित समारोह में डॉ. पी.ए.फसल गफूर द्वारा प्रदान किया गया। कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अजिम्स पी मुहम्मद, सचिव अब्दुल सलाम, एम. ई. एस. त्रिशूर जिला अध्यक्ष के.के कुंजू मोयतीन आदि उपस्थित रहे। हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. रंजित एम ने स्वागत व डॉ. सूर्यबोस ने धन्यवाद अर्पण किया। (समाचार सौजन्य : डॉ. रंजित  एम) 



ताल दरवाजा में हुआ कवि सम्मेलन






म.प्र. के ताल दरवाजा में ‘म.प्र लेखक संघ’ के संयोजन में ‘कवि सम्मेलन’ आयोजित किया गया। कवि सम्मेलन में मुख्य अतिथि बुन्देली के ख्यातिप्राप्त कवि डॉ. दुर्गेश दीक्षित रहे एवं अध्यक्षता साहित्यकार आर. एस. शर्मा ने की। विशिष्ट अतिथि थे व्यंग्यकार रामगोपाल रैकवार। संचालन राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी ने किया तथा आभार प्रदर्शन वीरेन्द्र चंसोरिया ने किया। 
       काव्य पाठ करने वाले कवियों में प्रमुख थे- दीनदयाल तिवारी, योगेन्द्र तिवारी ‘योगी’, डॉ. दुर्गेश दीक्षित,
बुन्देली कवि गुलाब सिंह भाऊ, राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’, गण्ेश पन्नालाल शुक्ला, रामगोपाल रैकवार, वीरेन्द्र चंसोरिया, अनवर ‘साहिल’, आर. एस. शर्मा, पूरन चन्द्र गुप्ता आदि। तालदरवाजा अखाड़ा समिति के अध्यक्ष दीपक गिरि गोस्वामी व सहयोगियों द्वारा सभी कवियों को सम्मानित किया गया। (समाचार सौजन्य : राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’)

अविराम के अंक

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



अविराम साहित्यिकी 
(समग्र साहित्य की समकालीन त्रैमासिक पत्रिका)
खंड (वर्ष) :  5 / अंक : 4  / जनवरी-मार्च  2017 (मुद्रित)

प्रधान सम्पादिका :  मध्यमा गुप्ता

अंक सम्पादक :  डॉ. उमेश महादोषी 

सम्पादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन

मुद्रण सहयोगी :  पवन कुमार 



अविराम का यह मुद्रित अंक रचनाकारों व सदस्योंको 14 फरवरी 2017  को तथा अन्य सभी सम्बंधित मित्रों-पाठकों को 18 फरवरी 2017 तक भेजा जा चुका है। 10 मार्च 2017  तक अंक प्राप्त न होने पर सदस्य एवं अंक के रचनाकार अविलम्ब पुनः प्रति भेजने का आग्रह करें। अन्य मित्रों को आग्रह करने पर उनके ई मेल पर पीडीफ़ प्रति भेजी जा सकती है। पत्रिका पूरी तरह अव्यवसायिक है, किसी भी प्रकाशित रचना एवं अन्य सामग्री पर पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है। इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है-


।।सामग्री।।

प्रेरणा पुंज

डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’  (4)
डॉ. सुधा गुप्ता  (5)
डॉ. बलराम अग्रवाल  (6)
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु  (7)
नारायण सिंह निर्दाेष  (8)
मधुदीप  (9)

आजीवन सदस्य-1

शिवानन्द सिंह सहयोगी  (10)
डॉ. नलिन  (11)
संतोष सुपेकर  (12)
ऊषा कालिया  (13)
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’  (14)
स्वराज सिंह काम्बोज  (15)
डॉ. जेन्नी शबनम  (16)
तोबदन  (17)
रामनरेश ‘रमन’  (18)
उषा अग्रवाल ‘पारस’  (19)
महावीर रंवाल्टा  (20)
राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’  (21) 
सत्य शुचि  (22)
डॉ. मिथिलेश दीक्षित  (23) 
डॉ. ए.कीर्तिबर्द्धन  (24) 
राजेश उत्साही  (25) 
प्रकाश श्रीवास्तव  (26)
मनोहर शर्मा ‘माया’  (27)
संजीव कुमार अग्रवाल  (28)
विज्ञान व्रत  (29)
रामस्वरूप मूंदड़ा  (30)
प्रताप सिंह सोढ़ी  (31)
के. एल. दिवान  (32)
सुदर्शन रत्नाकर  (33)
डॉ.सतीश चन्द्र शर्मा ‘सुधांशु’  (34)
नित्यानन्द गायेन  (35)
डॉ. मालिनी गौतम  (36)
कमलेश चौरसिया  (37)
वंदना सहाय  (38)
डॉ. रघुनन्दन चिले  (39)
कन्हैयालाल अग्रवाल ‘आदाब’  (40)
रजनी साहू  (41)
माधुरी राऊलकर  (42)
डॉ. मालती बसंत  (43)
डॉ. अशोक कुमार गुप्त ‘अशोक’  (44)
कमलेश सूद  (45)
लक्ष्मण लाल योगी  (46)
डॉ. रामकुमार घोटड़  (47)
सुमन शेखर  (48)
डॉ. कपिलेश भोज  (49)
डॉ. विनोद निगम  (50)
पुष्पा मेहरा  (51)
केशव चन्द्र सकलानी ‘सुमन’  (52)
उमेश शर्मा  (53)
चक्रधर शुक्ल  (54)
कृष्णचन्द्र महादेविया  (55)
रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’  (56)
विभा रश्मि  (57)
आभा सिंह  (58)
डॉ. अशोक भाटिया  (59)
आजीवन सदस्य-2

अन्य आजीवन सदस्य 
परिचय संकेत  (60)

अन्य सदस्य

तेज राम शर्मा  (63)
शशिभूषण बड़ोनी  (64)
हरनाम शर्मा  (65)
डॉ. मधुकांत  (66)
रमेश मिश्र ‘आनंद’/अहफ़ाज़ अहमद कुरैशी  (67)
सुरेन्द्र गुप्त ‘सीकर’  (68)
अशफाक अहमद/राजेश्वरी जोशी  (69) 
कोमल वाधवानी ‘प्रेरणा’  (70)
धृति वेडेकर/इन्द्रा किसलय  (71)

स्मृति अशेष 
(स्व. डॉ. सतीश दुबे को श्रद्धांजलि)

दुबे जी की लघुकथाएँ (72) व उमेश महादोषी का आलेख ‘‘डॉ. सतीश दुबे का रचनात्मक व्यक्तित्व: पिचहत्तर वर्षीय यात्रा का सर्वेक्षण’’(75)

स्तम्भ 
माइक पर : उमेश महादोषी का संपादकीय (आवरण 2)
सिर्फ आभार नहीं....! (3)
गतिविधियाँ (86)
प्राप्ति स्वीकार (88)
सूचनाएँ (28, 62, आवरण-3 व 4)