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शुक्रवार, 26 मई 2017

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



लघुकथा : अगली पीढ़ी

दीपक मशाल


     {लघुकथा की दूसरी व तीसरी पीढ़ी के लघुकथा लेखन पर केन्द्रित इस स्तम्भ का आरम्भ अविराम साहित्यिकी के मुद्रित प्रारूप में जनवरी-मार्च 2015 अंक से किया गया था। उसी सामग्री को इंटरनेट पर अपने पाठकों के लिए भी हम क्रमश: उपलब्ध करवाना आरम्भ कर रहे हैं। 
इस स्तम्भ का उद्देश्य लघुकथा की दूसरी व तीसरी पीढ़ी के लघुकथा लेखन में अच्छी चीजों को तलाशना और रेखांकित करना है। अपेक्षा यही है कि ये लघुकथाकार अपने समय और सामर्थ्य को पहचानें, कमजोरियों से निजात पायें और लघुकथा को आगे लेकर जायें। यह काम दो तरह से करने का प्रयास है। सामान्यतः नई पीढ़ी के रचनाकार विशेष के उपलब्ध लघुकथा लेखन के आधार पर प्रभावित करने वाले प्रमुख बिन्दुओं व उसकी कमजोरियों को आलेखबद्ध करते हुए समालोचनात्मक टिप्पणी के साथ उसकी कुछ अच्छी लघुकथाएँ दी जाती हैं। दूसरे प्रारूप में किसी विशिष्ट बिषय/बिन्दुओं (जो रेखांकित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो) पर केन्द्रित नई पीढ़ी के लघुकथाकारों की लघुकथाओं में उन लघुकथाकारों की रचनात्मकता के बिन्दुओं की प्रस्तुति कुछ महत्वपूर्ण लघुकथाओं के साथ देने पर विचार किया जा सकता है। प्रस्तुत लघुकथाकारों से अनुरोध है कि समालोचना को अन्यथा न लें। उद्देश्य लघुकथा सृजन में आपके/आपकी पीढ़ी के रचनाकारों की भूमिका को रेखांकित करना मात्र है। कृष्णचन्द्र महादेविया के बाद  इस अंक में हम दीपक मशाल पर प्रस्तुति दे रहे हैं। -अंक संपादक}

दीपक मशाल का लघुकथा में उभरना एक सकारात्मक घटना जैसा है 
डॉ. उमेश महादोषी
         1980 में जन्मे दीपक मशाल का समकालीन लघुकथा सृजन में उभरने का अर्थ है विशुद्धतः इक्कीसवीं सदी की लघुकथा। उनके इस दुनियाँ में पदार्पण तक समकालीन हिन्दी लघुकथा अपना रूपाकार प्राप्त कर चुकी थी और एक रचनात्मक आन्दोलन के तौर पर लघुकथा का सृजन और विमर्श, दोनों ही अपने उत्कर्ष के तात्कालिक शिखर पर पहुँच रहे थे। दीपक जी द्वारा लघुकथा को समझने और सृजन से जुड़ने तक के बीस-तीस वर्षों में लघुकथा कई तरह की घटनाओं और प्रक्रियाओं की साक्षी बन चुकी थी। उसकी शक्ति और कमजोरियों को प्रदर्शित करने वाले सामान्य बिन्दु पूरी स्पष्टता के साथ सामने आ चुके थे, भले उसके अद्यतन होने की प्रक्रिया पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाई हो। इन वर्षों के कालखण्ड में लघुकथा की जन स्वीकार्यता बढ़ने के बावजूद अनेक वरिष्ठ लघुकथाकारों का लघुकथा सृजन से विमुख होना बेहद चिंतनीय था। उनके विमुख होने के कारणों का मुखर और बहुत स्पष्ट न होना भी लघुकथा के लिए एक तरह की चुनौती जैसा रहा है। इस तरह के वातावरण में जब एक जागरूक और सृजनात्मक प्रतिभा से सम्पन्न नया रचनाकार लघुकथा को समझने और उससे जुड़ने का प्रयास करता है, उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है, तो यह इस विधा की भावी सम्भावनाओं की ओर संकेत तो करता ही है, लघुकथा के विधागत विकास में एक सकारात्मक घटना का संकेत भी करता है। दीपक मशाल और उन जैसे अन्य लघुकथाकारों के उभरने को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
    लघुकथा में दीपक मशाल की चर्चा मैं वरिष्ठ लघुथाकारों, विशेषतः डॉ. बलराम अग्रवाल जी व रा. का. हिमांशु जी से सुनता रहा था किन्तु उनकी सृजनात्मक क्षमताओं से वास्तविक परिचय ‘पड़ाव और पड़ताल’ के मधुदीप जी संपादित पाँचवें खण्ड में शामिल उनकी लघुकथाओं के माध्यम से हुआ। ‘पड़ाव और पड़ताल’ में उनकी सभी ग्यारह लघुकथाएँ प्रभावित करती हैं। इसके बाद मैंने दीपक जी की कई अन्य लघुकथाओं को मँगवाकर पढ़ा। लगभग तीन दर्जन लघुकथाओं के पाठ में के आधार पर मुझे लघुकथा में उनकी उपस्थिति सार्थक लगी। लघुकथा के सन्दर्भ में दीपक जी की प्रतिभा को स्वीकारने में किसी को कोई संकोच नहीं होना चाहिए। 
     मोटे तौर पर दीपक जी की अधिकांश लघुकथाएँ किसी न किसी वजह से प्रभावित करती हैं। उनमें कथा तत्व विद्यमान है, कथ्य स्वाभाविक तरीके से प्रकट होते हैं। यथार्थ के प्रस्तुतीकरण में रचनाकार को यह देखना जरूरी होता है कि किस यथार्थ को उसकी नकारात्मकता के साथ प्रस्तुत करना है और किसे नकारात्मक वृत्ति से सकारात्मक वृत्ति की ओर ले जाना है। अधिकांश लघुकथाओं में दीपक जी इस कार्य को बेहद सहजता से अंजाम देते हैं। ‘संशय’ में अवश्य वह चूक गये लगते हैं। इस रचना में सृजन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए लघुकथा को थोड़ा और आगे जाकर यथार्थ में सकारात्मकता लाना चाहिए था। यथार्थ की नकारात्मकता ठेस, क्रान्ति, अहम्, दखल जैसी लघुकथाओं में भी है, किन्तु वहाँ यथार्थ से पर्दा हटाकर रचनाकार अभीष्ट की प्राप्ति कर रहा है। लघुकथा की स्वाभाविकता में वातावरण और भाषा की सानुकूलता की भूमिका अहम् होती है। दीपक जी इस सन्दर्भ में बेहद सफल हैं। निर्धारण में जिस वातावरण की प्रस्तुति है, उसके लिए निश्चित रूप से लेखक को उसे समझना पड़ा होगा, कई चीजों की जानकारी अब या तब अध्ययन और मित्रों से लेनी पड़ी होगी। संशय, मुआवजा जैसी रचनाओं में स्थानीय भाषा का उपयोग, क्रान्ति में फिल्म प्रोडक्शन की शब्दावली, परछाई के संवादों को कथानायक की स्थिति और प्रकृति के अनुरूप रख पाने में उनकी सफलता जाहिर करती है कि उन्होंने लघुकथा को किस स्तर पर समझने का प्रयास किया है। वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्रीकृष्ण त्रिवेदी जी ने अपने एक आलेख में प्रवासी साहित्य के बारे में स्पष्ट किया है कि लेखक जिस देश में प्रवास कर रहा है, उसकी रचनाओं में उस देश का वातावरण और दूसरी चीजों की उपस्थिति ही उसे प्रवासी साहित्य का दर्जा दिला सकती है। इस दृष्टि से लघुकथा ‘समझदार’ को निसन्देह- प्रवासी लघुकथा माना जा सकता है। ‘प्रगति’, ‘पसीजे शब्द’ आदि में भी प्रवासी वातावरण है। उम्मीद है विदेश में रहता यह भारतीय लघुकथाकार कुछ और महत्वपूर्ण प्रवासी लघुकथाएँ देगा। ‘बड़े’ लघुकथा में काव्यात्मक भाषा-शैली का उपयोग प्रभावित करता है। लघुकथाओं के शीर्षक सोचे-समझे और सोद्देश्य रखे गये हैं। कई रचनाओं का अंत प्रतीकात्मक होने के कारण बेहद प्रभावशाली हो गया है। प्रतीकों का उपयोग उन्होंने बहुत खूबसूरती से किया है। उन्होंने छूट गये जैसे कोनों पर टॉर्च की रौशनी डालने का सफल प्रयास भी कई लघुकथाओं में किया है। इसे तजुर्बा, अंगुलियाँ, आतंक आदि में देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं में विषयों की विविधता भी भरपूर है। 
     कुछ जटिल विषयों को उठाते हुए लघुकथा में अतिरिक्त सावधानी की जरूरत होती है। ‘माचिस’ और ‘दूध’ अच्छी लघुकथाएँ हैं, लेकिन ये और भी अच्छी हो सकती थीं। ‘माचिस’ में कल्पनाशीलता का अंश थोड़ा कम किया जा सकता है और ‘दूध’ में लड़के के व्यवहार (में परिवर्तन) को वेश्या के व्यवहार जैसा स्वाभाविक बनाने की गुंजाइश है। कुल मिलाकर दीपक मशाल की लघुकथा के प्रति समझ असंदिग्ध है। यहाँ हम उनकी चार प्रतिनिधि लघुकथाओं क्रान्ति, आतंक, प्रगति एवं पसीजे शब्द की चर्चा-प्रस्तुति कर रहे हैं।
     सांस्कृतिक-सामाजिक सन्दर्भों में मनुष्य की कार्यगतिविधियों का उद्देश्य सामाजिक चेतना पर केन्द्रित माना जाता है। सांस्कृतिक दृष्टि से कलात्मकता का पुट अधिक हो सकता है और उसकी दिशा मनुष्य के लिए एक आकर्षण का कारण हो सकती है। लेकिन हर गतिविधि का एक अर्थशास्त्र भी होता है, जिसके बिना उसका अस्तित्व संभव नहीं है। स्वाभाविक है कि प्रमुख उद्देश्य के साथ गतिविधि को अस्तित्व में लाने के समायोजन को नकारा नहीं जा सकता। इसके बावजूद प्रमुख उद्देश्य प्रमुख ही रहना चाहिए। सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि का यही पाठ है। लेकिन हमने देखा है कि कला से प्राप्त लोकप्रियता ग्लैमर की ओर ले जाती है। ग्लैमर के साथ पैसा जुड़ता है। पैसा नैतिक-अनैतिक के प्रश्न को दरकिनार करता है। यह चीज जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में है, विशेषतः फिल्मों के क्षेत्र में सीमा से काफी अधिक। सीन कुछ ऐसा बने कि पर्दे पर आग लग जाये। आग लगेगी तो तमाशबीन भी अधिक जुटेंगे। और फिल्मों में पैसे का बड़ा हिस्सा तमाशबीनों की जेब से ही आता है। तो आग की प्रकृति को भी तमाशबीनों की अपेक्षाओं और आदतों का पोषक ही नहीं जनक भी बनना पड़ता है। ‘क्रान्ति’ इसी यथार्थ से पर्दा हटाती है। फिल्म का निर्देशक पर्दे पर आग लगाना चाहता है, इसलिए बार-बार रिटेक से बात न बनने पर सहायक निर्देशक का आइडिया उसे पसन्द आता है और दृश्य व संवाद- दोनों बदल जाते हैं। आग लगाने की कोशिश में शब्दों की प्रकृति और ध्वनित प्रभाव का कोई अर्थ नहीं रह जाता। फिल्म बनाना कितना सांस्कृतिक-सामाजिक रह जायेगा, यह प्रश्न बेमानी हो जाता है। कुछ लोग कहेंगे कि कला में स्वाभाविकता के लिए समाज में घटने वाली यथार्थ घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में ही रखना जरूरी है, पर ऐसे लोगों को यह भी सोचना होगा कि कला में रचनात्मकता को कैसे परिभाषित करेंगे? अभिनेत्री के माध्यम से आप नारी की जिस शक्ति को उभारना चाहते हैं, उसकी चुकायी जा रही कीमत का आकलन क्या जरूरी नहीं है? उसे शक्तिशाली बनाने का अर्थ बाजारू बनाने से अलग होता है। शायद इसीलिए दीपक मशाल जैसा रचनाकार इस कन्टेन्ट पर लघुकथा की जरूरत महसूस करता है। शीर्षक से लेकर रचना का वातावरण लघुकथा की तकनीक के सानुकूल है और कथ्य को सपोर्ट करने वाला भी। 
     स्कूली शिक्षा में कान्वेन्ट कल्चर के माध्यम से कुछ उन्नत चीजों के साथ समस्याएँ भी आई हैं। भाषायी समस्या बहुत बड़ी है। अंग्रेजी सिखाना गलत नहीं है, लेकिन उसे थोपना और इस कदर थोपना कि बच्चों का विकास अवरुद्ध होने लगे, वे दूसरी समस्याओं, विशेषतः मनोवैज्ञानिक, का शिकार होने लगें तो इस पर सिर्फ माता-पिता और सामाजिक लोगों को ही नहीं, स्वयं स्कूल संचालकों और शिक्षा विशेषज्ञों को भी सोचना चाहिए। एक अहम् प्रश्न यह है कि शहरों-कस्बों में अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे हिन्दी वातावरण वाले परिवारों से आते हैं। घर में अंग्रेजी का स्वाभाविक वातावरण नहीं होता। स्कूलों में अंग्रेजी बोलना सिखाने की अलग से कोई व्यवस्था नहीं होती। एक विषय के तौर पर अंग्रेजी की औपचारिक शिक्षा का स्तर भी बहुत संतोषजनक नहीं होता। लेकिन बच्चों को अंग्रेजी में ही बोलने के लिए बाध्य किया जाता है, वे चाहे अपनी बात कह पायें या नहीं। इस प्रक्रिया में इन स्कूलों में बहुत सारे बच्चे गूँगे-बहरे बनकर रह जाते हैं। कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं। यहाँ तक कि उनका स्वाभाविक विकास अवरुद्ध होने लग जाता है। मैंने अपने बेटे के सन्दर्भ में रुड़की के एक प्रमुख स्कूल के प्रिंसिपल के समक्ष इस मुद्दे को उठाया था, प्रिंसिपल साहब संवेदनशील थे सो उन्होंने समस्या को समझा और अपने स्कूल में बच्चों को ऐसी किसी बात को, जिसे वह अंग्रेजी में व्यक्त नहीं कर पा रहे हों, हिन्दी में व्यक्त करने की अनुमति दे दी थी और शिक्षक-शिक्षिकाओं को हिदायत भी। लेकिन हर स्कूल ऐसा नहीं कर पाता है। दीपक मशाल ने इसी समस्या को ‘आतंक’ में बेहद सरल-स्वाभाविक ढंग से उठाया है। बच्चा बाथरूम जाने की अनुमति के लिए अंग्रेजी में नहीं बोल पाता, हिन्दी में पूछने पर टीचर दण्ड देते हैं। इसलिए भयग्रस्त होकर पेशाब आने पर भी वह बाथरूम नहीं जाता और उसका पेशाब पैंट में ही निकल जाता है। लघुकथा का सकारात्मक पक्ष यह है कि शिकायत आने पर उसका पिता बच्चे को सीने से लगाकर प्यार से समस्या को जानने का प्रयास करता है। खेद की बात है कि स्कूल वाले इस बात की शिकायत तो करते हैं लेकिन अपने स्तर पर समस्या को जानने-समझने और समाधान का प्रयास नहीं करते। यह संवेदनहीन स्थिति है। दीपक जी ने ‘आतंक’ में स्कूली आतंक को अभिव्यक्ति तो दी ही है, एक गम्भीर समस्या की ओर भी समाज का ध्यान आकर्षित करने में भी वह सफल हुए हैं।
     जिन लघुकथाओं में जीवन से जुड़े बदलावों की चर्चा हुई है, उनमें सामान्यतः समय के साथ आ चुके बदलाव ही शामिल होते हैं। भविष्य के संभावित बदलावों की एक कल्पना दीपक मशाल की ‘प्रगति’ में देखने को मिलती है। इसमें रचनाकार ने भविष्य के रिश्तों और सम्बोधनों में आने वाले परिवर्तनों का कल्पनाशील किन्तु स्वाभाविक चित्र भविष्य के ही एक समय बिन्दु पर स्थित होकर प्रस्तुत किया है। कल्पनाशीलता का एक अच्छा उदाहरण है यह। आज कई कार्यालयों में जूनियर-सीनियर सभी एक दूसरे को नाम से पुकारते हैं, बिना किसी सम्मानसूचक शब्द का प्रयोग किए। सम्बोधनों से पता ही नहीं चलता कि कौन जूनियर है और कौन सीनियर। निसन्देह ‘प्रगति’ की कल्पनाशीलता कोरी कल्पना नहीं है। कार्यालयों की संस्कृति बहुत सारे अर्थ लेकर घरों और व्यक्तिगत रिश्तों में भी प्रवेश कर रही है। दूसरी ओर बच्चे और उनके माध्यम से आ रही पीढ़ी के लिए बहुत सारे शब्दों-सन्दर्भों के अर्थ बदलते जा रहे हैं। ऐसे में यह लघुकथा भविष्य की स्थितियों पर एक यथार्थ कमेंट प्रस्तुत कर रही है। दीपक जी की यह कल्पना रुचिकर है कि चालीस-पचास वर्षों के बाद बच्चे माता-पिता, दादा-दादी, बुआ-चाचा आदि जैसे शब्दों को भूल चुके होंगे, उनके लिए हर व्यक्ति सिर्फ एक व्यक्ति होगा, जिसका कोई एक नाम होगा। सम्बोधित करने के लिए वह नाम ही पर्याप्त होगा, किसी रिश्ते या आदर सूचक शब्दों का प्रयोग कॉम्प्लीकेटेड चीज बनकर रह जायेगा, जिसे मैनेज करना उस समय की नई पीढ़ी के लिए सम्भव नहीं होगा। जीवन का आनन्द जिसे जिस चीज में मिलता है, उसके लिए जिन्दगी वैसी ही चीजों से जुड़ जाती है। लघुकथा का वातावरण, विशेषतः संवादों में व्याप्त मनोविनोद संकेत करता है कि मम्मी-पापा, दादा-दादी की पीढ़ियों को संतानों की पीढ़ियों के जीवन से जुड़ी चीजों के साथ आनन्दित होना सीख लेना चाहिए। ‘जैनरेशन गैप’ से जनित पीड़ा को पसीने में बहा देने का यही एक तरीका होगा।
     जीवन से जुड़ी कई यथार्थ स्थितियाँ ऐसी होती हैं, जिनमें पर्याप्त नकारात्मकता होती है, लेकिन वही रचनात्मकता का स्रोत बन जाती है। ‘पसीजे शब्द’ एक ऐसी ही लघुकथा है। नकारात्मक यथार्थ के बावजूद रचनात्मक लघुकथा! दीपक जी की सर्वोत्तम लघुकथाओं में से एक। रचना का प्रमुख पात्र, एक ऐसा व्यक्ति है, जो बेहद मेहनती और ईमानदार है और इसी के बलबूते पर उसने एक मुकाम हासिल किया है। लेकिन उसके बचपन से जुड़ी कुछ विशेष (कड़वी) यादें हैं, जिन्हें वह किसी भी रूप में याद नहीं करना चाहता। विदेश में रहता यह व्यक्ति अपनी स्थिति को लगातार मजबूत करने के लिए छुट्टी के दिन भी काम करता है। छोटी सी बेटी द्वारा पावर्टी याने गरीबी का मतलब पूछे जाने पर उसका गला भर आता है। वह कहना चाहता है कि उसकी अपनी सन्तान को गरीबी का मतलब पता न चले यानी जो दुर्दिन उसने देखे हैं, वे सन्तान को न देखने पड़ें, इसीलिए वह इतनी मेहनत करता है, अपना देश छोड़कर परदेश में आ बसा है, लेकिन उसके शब्द दर्द के पसीने में पसीज जाते हैं और वह अपनी बेटी को सीने से भींच लेता है। बेटी उसके आँसुओं में कुछ अर्थ ढूँढ़ने लग जाती है। यह पीड़ा और संवेदनात्मक पराकाष्ठा का क्षण है, जो लघुकथा को चरम पर ले जाता है। चीजों के प्रति उसकी चिड़चिड़ाहट नकारात्मकता को दर्शाती है, वहीं बेटी के प्रति गहनतम प्रेम रचनात्मकता को। संभवतः संतान के प्रति इसी प्रेम के चलते उसने परिश्रम और ईमानदारी का संकल्प लिया और बहुत कुछ (जो रचना में पर्दे के पीछे है) झेलकर भी किसी गलत रास्ते पर नहीं गया, इस सरल-स्वाभाविक रचना में निसन्देह ऐसा कुछ है, जिसमें डूबा जा सकता है, जिसे अन्तर्मन में सहेजा जा सकता है!
     यह कहते हुए मैं बेहद उत्साहित हूँ कि दीपक मशाल की लघुकथाओं में बहुत कुछ है, जिसकी अपेक्षा की जाती है। नई पीढ़ी के अभी तक मेरी दृष्टि में आये, वह सबसे ऊर्जावान और संजीदा लघुकथाकार हैं। उनके लेखन में परिपक्वता है। इक्कीसवीं सदी में सृजित लघुकथाओं का समुचित प्रतिनिधित्व प्रस्तुत किया है उन्होंने। आने वाले समय में वह लघुकथा के भंडार को समृद्ध तो करेंगे ही, नए आयाम भी देंगे; यह विश्वास किया जा सकता है। 

दीपक मशाल की चार प्रतिनिधि लघुकथाएँ

क्रान्ति 
     शूटिंग जारी थी 
     - साले कमीने, घर में माँ-बहन नहीं है क्या?
     अभिनेत्री ने चीखते हुए सीटी बजाने वाले बदमाश को लताड़ा। 
     - कट, कट, कट... नहीं यार बात नहीं बन रही आमना, एक्स्प्रेशन्स ही ढँग से नहीं आ रहे। फिर ट्राई करते हैं, अबके सही से करना। निर्देशक ने युवा अभिनेत्री को समझाते हुए कहा। 
     - ओके गाइज़, गैट रेडी फॉर रीटेक। क्लैप, रोल लाइट 
     - रोलिंग 
     - रोल साउण्ड, रोल कैमरा 
     - रोलिंग    
     - रोलिंग 
     - एक्शन 
     - साले कमीने, घर में माँ-बहन नहीं है क्या?
     - कट कट, कट इट... वो मज़ा ही नहीं आ रहा, मैं इस सीन को कुछ ऐसा बनाना चाहता हूँ कि लोग आने वाले कई सालों तक याद रखें। पर्दे पर आग लग जाए, कुछ ऐसा कि एक नई क्रान्ति पैदा हो। तुम समझ रही हो न?
     - या नो प्रॉब्लम, वी कैन डू इट अगेन। अभिनेत्री ने कोई ना-नुकुर नहीं की। 
     - अरे मोहन, बाल ठीक कर मैडम के। निर्देशक ने मेकअप आर्टिस्ट को बुलाया कि तभी सहायक निर्देशक ने उससे कुछ मशविरा किया, जिस पर निर्देशक ने खुश होते हुए सहमति की मोहर लगा दी। 
     - हाँ, ये ठीक कह रहे हो, कमाल का पकड़ा तुमने। बदलकर यही कर देते हैं, तहलका मचा देगा ये। 
     - यस गाइज़, वन मोर टाइम... लाइट, कैमरा, एक्शन...  
     अभिनेत्री ने बदमाश के बालों को पकड़ पूरे जोश से उसकी नाक को अपने घुटने पर मारा और 
     - मादर... घर में माँ-बहन नहीं तेरे? भेन के... 

आतंक 
     समर सेन के लिए स्कूल से भेजी गई बेटे की शिक़ायत उन्हें सिर्फ़ हैरान ही नहीं बल्कि परेशांन करने वाली भी थी। खुद की याददाश्त पर ज़ोर देने के बाद भी जब ऐसा कुछ याद न आया तो उन्होंने पत्नी से पूछा 
     - अरे सुनो, क्या विकू कभी रात में भी बिस्तर गीला करता है क्या?
     - नहीं, रात में तो उसने आज तक कभी ऐसा नहीं किया, ये तो पिछले हफ़्ते से हो रहा है कि रोज जब स्कूल से लौटकर आता है तो पैन्ट में ही सू-सू किए आता है। 
     रात को बेटे को बिस्तर में अपने सीने से लगाकर उन्होंने उसके सर पर हाथ फेरते हुए प्यार से पूछा 
     - बेटा क्या बात है, स्कूल में तुम पैंट में क्यों सू-सू कर लेते हो? तुम तो मेरे राजाबेटा हो ना, तुम्हें तो बाथरूम में जाना चाहिए, जैसे घर में जाते हो। 
     विकू उनके सीने से चिपक कर सहमते हुए बोला 
     - पापा, मैं बाथरूम जाने के लिए सर से अंग्रेज़ी में नहीं पूछ पाता और जो बच्चे हिन्दी में पूछते हैं सर उन्हें पनिशमेंट देते हैं।  


प्रगति 
     अपने हर काम के लिए लगभग 90-95 प्रतिशत तक मशीनों पर निर्भर हो चुके मानव को अपने वर्तमान युग को अतीत से सम्बन्ध जोड़कर देखना हास्यास्पद लगने लगा था, तभी न एक दिन मैनी ने ऐजो को एक तस्वीर दिखाते हुए कहा
     - तुम विश्वास कर सकोगे ऐजो कि आज से लगभग पचास साल पहले यानि सन 2000 के आसपास के युग की इस तस्वीर से दुनिया कितनी बदल चुकी है, अगर तुम उस समय पैदा हुए होते तो किमी को बुआ कहकर बुलाते और जॉन को चाचा। 
     - अच्छा! क्या तुम भी अपने रिश्तेदारों को ऐसे ही बुलाती थीं मैनी?
     ऐजो ने उत्सुकतावश और जानना चाहा। 
     मैनी के बोलने से पहले ही पास में सोफेनुमा कुर्सी पर पसरे सैम ने बताना चालू किया।
     - अरे नहीं, हमारे समय तक कुछ और बदलाव आये थे। हमने उस समय के चाचा-बुआ को अंकल-आंटी कहना शुरू कर दिया था। 
     - हाऊ इंट्रेस्टिंग! कितनी जल्दी बदलाव आते गए! क्या मिस्टर समीर और मिस रिमी को भी उस समय में मैं चाचा-बुआ कहकर बुलाता सैम?
     ऐजो ने रिश्तों के नामों पर डिसकशन में मजा लेना शुरू कर दिया था। 
     - नहीं डिअर यहाँ चाचा की पार्टनर को लोग चाची कहते थे, समीर और रिमी को तुम उस समय में दादा-दादी कहते।
     ब्लैक कॉफ़ी के सिप मारते हुए ऐजो ने फिर कहा 
     - कितना कॉम्प्लीकेटेड था न सबकुछ उस समय, कैसे मैनेज करते थे तुम लोग? और तुम दोनों को कैसे बोलता मैं उस समय मैनी?
     - सैम को पापा और मुझे मम्मी। हँसते हुए मैनी ने जवाब दिया। 


पसीजे शब्द 
     जब उसने पहली बार इस पराई ज़मीन पर क़दम रखा था तो जेब में दस पाउंड और बैग में तीन जोड़ी कपड़े भर थे। आज ये न सिर्फ उसका कहना है बल्कि लोगों का मानना भी है कि पंद्रह सालों में उसने अपनी लगन, मेहनत और ईमानदारी के दम पर ‘फर्श से अर्श’ तक का सफ़र तय किया है। मगर बचपन की न जाने वो कौन सी यादें हैं जिनका वह अपने आज से कोई भी रिश्ता नहीं रखना चाहता था। कोई भारतप्रेमी अंग्रेज़ दोस्त उससे भारत के विषय में जानकारी लेना चाहता तो वह चिड़चिड़ा हो उठता।
     आज इतवार को शत-प्रतिशत छुट्टी घोषित करती गुनगुनी धूप निकली थी लेकिन उसने आज भी एक क्लाइंट को समय दे रखा था। दफ्तर जाने के लिए जूतों में पैर डाले, तस्मे बाँधे, फिर कलाई पर घड़ी पहन ही रहा था कि तभी उसकी फूल सी बेटी हाथ में पेन-कॉपी और जिहन में सवाल लिए उसके पास आई। 
     - पापा ये पावर्टी क्या होती है?
     वह पल भर को ठिठका, बेटी के माथे को चूमा फिर ठण्डी आवाज़ में बोला 
     - गरीबी बेटा! 
     वह जोर से खिलखिला उठी। 
     - ओह्हो आप भी न बुद्धू हो पापा... हिंदी मीनिंग तो मुझे भी पता है लेकिन गरीबी का मतलब क्या होता है।
     जवाब भरे गले से निकला 
     - तुम्हें इसका मतलब पता न चले इसीलिये तो.... 
     शेष शब्द दर्द के पसीने में पसीज गए, उसने अचानक बेटी को सीने से भींच लिया। बेटी उसके आँसुओं में गरीबी के मायने ढूँढने में लग गई।
  • दीपक मशाल, कोलम्बस-ओहायो/ईमेल : mashal.com@gmail.com
  • भारत में : द्वारा श्री रामबिहारी चौरसिया, मालवीय नगर, बजरिया कोंच (शुक्लाजी की दुकान के सामने), जिला जालौन-285205, उ.प्र.

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