अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 05-06, जनवरी-फ़रवरी 2017
डॉ. गिरीश चन्द्र पाण्डेय ‘प्रतीक’
मौसम की तरह
देखा
मैं कहता था ना
तू भी एक दिन
मौसम की तरह बदल जाएगा
कल तू बदला था
आज मौसम भी बदल गया
तूने तो मौसम को भी मात दे दी
मौक़ा ही नहीं दिया/इस गरीब को
मौसम की मार झेलने को
घिर आया है
बादल उमड़ घुमड़ कर
जैसे तेरी उलाहनाओं ने
पहरा दिया था/मेरी नींद पर
सपने तो कांपने लगे थे
मौसम और तुम एक जैसे ही तो हो
है ना सही बात
मौन भी चीखता है
अरे!! तुम्हें जश्न के ढोल
खूब सुनाई देते हैं
कभी मौन हो चुके
दर्द के क्रन्दन को सुनो
जो फाड़ देगा कान के पर्दे
दहला देगा दिल को
अरे चमचमाते जगमगाते चौराहों को
देख लेते हो
कभी उन कोठरियों को भी/देख लो
जिनके दिए बुझ चुके हैं
तुम्हारी पैदा की गयी काल्पनिक आँधियों से
बहुत पलट लिए हैं पन्ने
रच दिए हैं इतिहास
रेखाचित्र : स्व. पारस दासोत |
नाप लिए हैं भूगोल
जरा समाज शास्त्र को भी तो
देख लो
जिस अर्थ की बात करते हो
क्या वह सार्थक है
निरर्थक हो चुके
मौन की व्यथा को सुन लो
जो चीख रहा है
डेंगू का मच्छर बनते
देर नहीं लगेगी
सुन लो!!!!!
कराह रही है आत्मा
इन फूलों, फूल मालाओं
गुलदस्तों
और शब्दाडंबरो के बोझ तले
दबकर/पुकार रही है आत्मा
बचालो मुझे/इन दोगले चरित्रों से
आगे बढ़कर/उठ रही हैं
अँगुलियाँ मेरे होने और न होने के
प्रश्नों पर
दुत्कार रही है आत्मा
स्वाभिमान के लुट जाने
और घड़ियाली आँसू बहाने पर
सुन लो ठहरकर
वो जाने वालो
मत कुचलो
मत करो सुनी की अनसुनी
मत दबाओ आत्मा की आवाज को
मंच से नहीं बोलती आत्मा
बोलती है
महत्वाकांक्षाओं के बड़े बोल
आज अगर बिना सुने
बोलने गए तो समझ लेना
सुनने वाले बचेंगे नहीं
अब सब कुछ तेरे हाथ में है
- ग्राम-बगोटी पो. बगोटी, लोहाघाट, चम्पावत, उ.खंड/मोबा. 09760235569
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