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शुक्रवार, 26 मई 2017

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



डॉ. सिमर सदोष



आत्म-ग्लानि
      कभी-कभी मुझे लगता, वह आदमी दम्भी है शायद। वह बहुत कम किसी से बात करता। उसके घर में और कौन-कौन हैं, यह शायद ही कोई जानता हो। आस-पड़ोस में भी इस परिवार का कोई आना-जाना नहीं था। तथापि, वह मुझे बहुत अच्छा लगा था... बहुत भला आदमी। जब भी कभी आमना-सामना होता, मैं हाथ जोड़कर नमस्ते कह देता। वह भी बड़े सलीके से उत्तर देकर आगे बढ़ जाता।
      इस बीच कई दिन व्यतीत हो गये, उसे मैंने देखा नहीं था। चिन्ता का उपजना स्वाभाविक था। इधर-उधर गुजरते उसके दरवाजे़ की ओर ताक-झांक की... शायद कोई सुराख दिखे।
      अगले दिन साहस कर मैंने उसके घर का द्वार खटखटाया तो थोड़ी देर बाद उसने पहले थोड़ा-सा, फिर आधा द्वार खोल दिया- आइये... कहिये, कोई काम है क्या? उसने बड़े उदार लहज़े में पूछा था।
      मैंने देखा, उस आदमी के तन पर कुर्ता तो था, नीचे धोती नहीं थी। उसने इसी कारण शायद खड़े होते समय अपनी टांगों को भींच रखा था।
      कुर्ते के नीचे वाले हिस्से की उसकी नंगी टांगों की ओर अपनी नज़र को न जाने देने की मेरी भरसक कोशिशों को शायद उसने भांप लिया था। तत्काल अपने पीछे पड़ी कुर्सी को खींचकर उसने मेरी ओर खिसकते हुए पूछा- कोई जरूरी बात है क्या?
      -क्षमा कीजियेगा मुझे... ऐसा तो कुछ भी नहीं था लेकिन... वो आप कई दिनों से मिले नहीं थे न... आपको देखा भी नहीं था, इसलिये। हकलाते हुए-से मैंने अपनी बात पूर्ण की थी।
      -कोई बात नहीं। आपने ठीक किया, जो आ गये।...घर में कोई नहीं है, इसलिए चाय-वाय की बात...। उसने शायद जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया था।
      -चाय की कोई जरूरत नहीं। बस, आपके बारे में जानना ही था... आप ठीक से तो हैं न! मैंने उठने का उपक्रम करते हुए कहा था।
      -जा रहे हैं... थोड़ी देर ठहर जाते, तो शायद बच्चियाँ आ जातीं। उसने भी औपचारिकता निभानी चाही थी।
      -फिर कभी सही...। मैं चलने को हुआ था।
      -हाँ, आप शायद सोच रहे हों... ये मेरी नंगी टांगों को लेकर। असल में, मेरी दो बेटियाँ हैं। बीवी नहीं है। और भी कोई नहीं है घर में। दोनों बेटियों ने आज कहीं इंटरव्यू पर जाना था। उनके पास कोई ढंग का दुपट्टा नहीं था... सो, चार दिन पहले ही मैंने अपनी धोती उन्हें दे दी थी। कांट-छांट और रंग करके उन्होंने सूटों के साथ मिला लिया... शायद उनका काम बन जाए। मेरा क्या है, महीना खत्म होने को है। पेन्शन मिली, तो नई धोती ले लूंगा।
      उसकी बात जैसे मेरे सिर से होकर गुजर गई थी शायद... या फिर, मेरे भीतर कहीं जाकर चुभ गई थी। आत्म-ग्लानि का एक अजीब-सा मनों भारी बोझ अपने सिर पर लिये बाहर सड़क पर आकर मुझे महसूस हुआ था- मेरे अपने तन पर शायद कोई कपड़ा नहीं रहा था।

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