आपका परिचय

सोमवार, 30 अप्रैल 2018

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 



।।हाइकु।।


सुरेश उजाला




हाइकु 

01.

खत्म सुगन्ध
साँस-साँस में व्याप्त
विषाक्त गंध

02.

आज का सच
झूठ की आकृतियाँ
रचता व्यक्ति

03.

भावों नें चूमे
गीत-ग़ज़ल बन
शब्दों के होंठ

04.

आये क्या दिन
वक्त ने चुभो दिये
सैकड़ों पिन

05.

आये न हाथ

छायाचित्र : उमेश महादोषी  
परछाईं मगर
निभाये साथ

06.

प्यार का अर्थ
जान गये तो ठीक
वरना व्यर्थ

07.

सपना टूटा
जीवन का सच भी
निकला झूठा

  • 108-तकरोही, पं. दीनदयालपुरम मार्ग, इन्दिरा नगर, लखनऊ (उ.प्र.)/मोबाइल : 09451144480

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2017


।।जनक छंद ।।


उमेश महादोषी



जनक छंद

01.

मुस्काता शिव देखता
निर्धनता की बाढ़ में
मैकू कैसे तैरता

02.

आँख-आँख में शोर है
सपनों की घुसपैठिया 
काटे देखो डोर है

03.

सर्पीली पगडंडियाँ
अरु हरियाते खेत वे
निगल गईं ये मंडियाँ

04.

ताला लटका द्वार पर
चाबी लेकर उड़ रहा
कौआ है बाजार पर

05.

बगुला बैठा ताक में
पर मछली को ले उड़ा
बाज मुआं आकाश में

06.

आँखों में लहरा रहीं
इठलाती लहरें सघन
तन-मन से टकरा रहीं

07.

छायाचित्र :
डॉ. बलराम अग्रवाल
 

पतझड़ के आह्वान का
मंत्र मिला तुमको मगर
बिन बसन्त किस काम का

08.

धारा का मुख मोड़कर
सींच रहे निज खेत तुम
जनहित चुनरी ओढ़कर!

09.

इस आतंकी जोर से
चिड़ियां सारी गुम हुईं
हथियारों के शोर से

10.

लक्ष्मण रेखा लाँघ तू
शस्त्र उठा पर हाथ में
निसिचर को ललकार तू
  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018



।। कथा कहानी ।। 

लक्ष्मी रानी लाल



कोई और रास्ता न था
     अंधकार भरे आकाश में अपने असंख्य सपनों को उसने टूटते देखा था। समय ने उसे हमेशा छला ही है। समय के विष को घुटकने की अब तक वह अभ्यस्त हो चुकी है, पत्थरों जैसा धीरज रखना उसने अपनी माँ से सीखा है। लेकिन आज पत्थरों जैसी बर्दाश्त की उसकी वह शक्ति कहाँ चली गई! हृदय रो रहा था पर आँखें गीली न थी। सारे आँसू तो उसने निःस्तब्ध रात्रि में ही बहा लिए थे।
      सामानों की खटर-पटर सुबह से सुप्रिया सुन रही थी। पर्दे के पीछे से उसने झाँककर देखा, ट्रक आ चुका था। उसके हृदय के अंदर दर्द की लहरें हिलोरें लेने लगीं। अपने लौह-सदृश इस अटल निर्णय को लेने में उसे वक्त बहुत लगा था। कोमल संवेदनाओं के रेशमी तारों को वह झटके से तोड़ती गई थी। हर एक रेशमी तार को तोड़ते वक्त हाथ ही नहीं, हृदय भी लहूलुहान हो गया क्योंकि ये तार हृदय से जुड़े थे। माया, ममता व स्नेह से सिंचित तार आज बेमानी हो उठे।
      स्मृति की गठरी वह खोलना नहीं चाहती। गठरी समेटने के बाद बेहद अकेलापन महसूस होगा। मन के हाथों विवश होकर वह स्मृतियों के गलियारे में जी-भर भटकती। कुछ अनमोल पलों को सहेजकर हृदय में समेट लेती। मानो वह सुशांत को बाँहों में समेट रही हो। उसके घुँघराले बालों में अपनी स्नेहसिक्त उँगलियाँ उलझा रही हो। उन पलों की स्मृति ही शेष थीं। मातृहीन सुप्रिया ने बाल्यावस्था में ही छोटे भाई सुशांत की उँगलियाँ थाम लीं। कच्ची उम्र जिम्मेदारियों के बोझ तले दबने लगी। गनीमत थी कि पिता ने पुनर्विवाह नहीं किया। अपने दोनों बच्चों को शीतल छाँव में पलते देखकर नियति ने सुप्रिया के साथ क्रूर मजाक किया। जब बेटी के हाथ पीले करने का समय आया पिता ने छोटे भाई की जिम्मेदारियों को उन हाथों में सौंपकर हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं। सुप्रिया ने अपने विषय में कुछ भी सोचना उसी समय बंद कर दिया। प्रतियोगिता परीक्षा में सफल होकर वह बैंक में नियुक्त हो गई।
      सुशांत की शिक्षा-दीक्षा पर उसने समस्त ध्यान कंेद्रित कर दिया। उसकी चेष्टा रहती थी कि सुशांत के पालन-पोषण में कोई ऐसी त्रुटि न रह जाए कि उसे माता-पिता का अभाव खले। उसकी निष्ठा देखकर रिश्तेदार दाँतों तले उँगली दबाते। उज्वल गौरवर्ण, रसीली निष्पाप आँखें तथा स्नेह प्रवण चेहरे की मलिका सुप्रिया के ब्याह की बात छेड़ने से करीबी रिश्तेदार कतराते कि कहीं सुशांत की जिम्मेदारियों का बोझ उनके सिर न आ जाए। बढ़ती उम्र के साथ-साथ सुप्रिया ने समय के साथ चलना सीख लिया। सुशांत ने बड़े होने पर सुप्रिया को कई बार कहा- ”दीदी, तुम ब्याह कर लो। मैं तुम्हारे रिश्ते की बात चलाऊँगा।“ सुप्रिया का जवाब होता- ”अरे नहीं, मेरी शादी की बात भूल जा। तेरी नौकरी होते ही घर में बहू लाऊँगी। पहले एक छोटा घर बनवाऊँगी ताकि बहू को कष्ट न हो।“
      बैंक से कर्ज लेकर सुप्रिया ने छोटा सा मकान खरीद लिया। इस बीच एक प्राइवेट कंपनी में सुशांत की नियुक्ति हो गई। सुप्रिया अवसर की प्रतीक्षा में थी। वधू की तलाश में वह लगी ही थी। अच्छी लड़की मिलते ही उसने चट मँगनी पट ब्याह कर दिया। इला को बहू के रूप में पाकर सुप्रिया निहाल हो गई, उसका हरसंभव खयाल किया। इला ने भी मोहक हँसी के जादू से सभी को मोह रखा। 
      वर्ष बीतने से पहले ही इला ने आदर्शवादिता का नकाब चेहरे से उतार फेंका। सुशांत के दफ्तर से आते ही उसके कान भरना शुरू कर दिया। उसके वाक्चातुर्य के कारण सुप्रिया उसे अविश्वास के घेरे में लेने में असमर्थ रही। सुशांत के व्यवहार में आए परिवर्तन से सुप्रिया आश्चर्यचकित थी। छोटी-छोटी बातों पर वह आक्रोश प्रकट करता। पुरानी स्मृतियाँ सुप्रिया को कचोटतीं। भाई-बहन के आपसी रिश्तों में दरार पड़ने की आशंका स्वप्न में भी नहीं थी। उस दिन सुप्रिया को गहरा सदमा पहुँचा, जब उसे बेसहारा छोड़ पति-पत्नी अन्यत्र रहने चले गए। सुशांत के व्यवहार से सुप्रिया दुःखी अवश्य थी पर घर छोड़कर जाना वह सहन करने में असमर्थ थी। अब घर का कोना-कोना उदासी भरा था। अकेली तो वह थी ही, सूनापन उसे डसने लगा। उसे हर वक्त यही चिंता सताती कि सुशांत का ख्याल इला रख पाती है या नहीं। समय पर भोजन बनाकर देती है या भूखा-प्यासा दफ़्तर चला जाता है। बाहर का खाना खाकर स्वास्थ्य ख़राब न कर ले। समय तेज़्ाी से करवट लेने लगा। सर्दी-गर्मी आती जाती रही पर सुशांत ने सुप्रिया की खोज खबर नहीं ली। इस बीच उसे दो बच्चे भी हो चुके थे। उन्हें देखने की उत्कंठा सुप्रिया को बनी रहती पर अपनी इच्छा को वह हृदय के किसी कोने में दबा देती।
      सुप्रिया प्रायः तनावग्रस्त रहती। एक दिन उसे चक्कर आया, वह गिर पड़ी। सहयोगियों ने अस्पताल पहुँचा दिया। सुशांत को सूचना मिली तो भागा-भागा अस्पताल पहुँचा। होश आते ही सुप्रिया ने सुशांत को देखा। सारे गिले-शिकवे भूल वह सुशांत के हाथ पकड़कर निःशब्द उसे देखती रही। लाख छिपाने पर भी पलकें भीग र्गईं। सुशांत भावविभोर हो उठा- ‘‘दीदी, मेरे पास तुम रहो। वहाँ तुम्हें कोई देखने वाला नहीं।’’ क्रोध से इला की कनपटियाँ गर्म हो उठीं। मगर उसने क्रोध दबा लिया। मीठी मुस्कान बिखेरते हुए कहा- ‘हमें खुशी होती अगर आपकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त होता, पर बात यह है कि मकान-मालिक मकान खाली करने की नोटिस दे चुका है।
      सुप्रिया की तबीयत संभल चुकी थी। उसने तपाक से कहा- ‘‘तुम मेरे पास आ जाओ। वह तुम्हारा भी घर है।’’ इला को इसी उत्तर की अपेक्षा थी। सुप्रिया को उसी दिन अस्पताल से छुट्टी मिल गई। दूसरे दिन इला अपना लाव-लश्कर समेट सुप्रिया के घर आ गई।
      सुप्रिया के पाँव खुशी से जमीन पर नहीं पड़ते। इला ने फिर अपनी वाक्पटुता से सुप्रिया का हृदय जीत लिया। इला ने उसे कार्यभार से मुक्त कर दिया। अपने दोनों भतीजों सागर व समीर के साथ खेलने में वह व्यस्त हो जाती। बच्चों की किलकारियों से घर गूँज उठा।
      अविवाहित सुप्रिया को जैसे अमूल्य निधि मिल गई। दोनों बच्चे उससे चिपके रहना चाहते। सुप्रिया वात्सल्य सुख में डुबकी लगा कर भाव-विभार हो उठी। सहेलियों के समझाने का उस पर असर नहीं पड़ा। रिश्तेदारों की बातों में वह आ गई- ‘‘देख सुप्रिया, तेरे आगे नाथ न पीछे पगहा है, ऐसे में छत भाई को दे देगी तो उसे अलग से ज़्ामीन ख़रीदकर घर बनाने की ज़्ारूरत नहीं होगी और तुम्हें भी सहारा मिल जाएगा।’’ बुआ ने सुप्रिया को आश्वस्त किया। सुप्रिया ने कहना चाहा- ‘बुआ अपनी पूरी ऊर्जा मैंने सुशांत को अपने पाँव पर खड़े होने में खर्च कर दी। उससे अपेक्षा तो मैंने तब की थी कि मेरा सहारा बनकर रहेगा पर हुआ क्या? इला से ब्याह करते ही मुझे वह बेसहारा छोड़ घर से चला गया।’ पर वह कुछ न कह सकी।
      सुप्रिया ने सहर्ष घर की छत पर सुशांत को घर बनाने की अनुमति दे दी। इला का मकसद अब पूरा हो चुका था। छत पर घर बनते ही सुशांत का परिवार अपने घर में शिफ़्ट कर गया। सुप्रिया फिर अकेली हो गई। सब कुछ इतनी जल्दी बदलने की उसने कल्पना नहीं की थी। सागर व समीर ने सुप्रिया के पास आना छोड़ दिया। इला ने तोतेचश्म की तरह नज़्ारें फेर लीं। सामने होती तो अजनबी-सी रहती। सुशांत कार्य की अधिकता का रोना लेकर पीछा छुड़ा लेता। सुप्रिया पूर्ववत सहन करती रही, पर जब दोनों ने दुश्मनी निभानी शुरू की तो सुप्रिया से सहन नहीं हुआ। इला सदा साजिश के फंदे सुप्रिया पर फेंक उसे लपेट लेती। रिश्ते दम तोड़ने लगे तो सुप्रिया ने कठोर निर्णय ले लिया। 
      सुशांत के दफ़्तर से लौटने की प्रतीक्षा में सुप्रिया बरामदे में टहल रही थी। सुशांत ने जैसे ही सीढ़ियों पर चढ़ने के लिए कदम बढ़ाए कि सुप्रिया ने रोक लिया- ‘‘तुमसे कुछ बातें करनी है, कुछ देर रूक जाओ।’’ दीदी की आँखों की भाषा पढ़कर सुशांत सहमकर रूक गया। चेहरे से पसीना पोंछता बरामदे में पड़ी कुर्सी पर पसर गया। सुप्रिया ने संयत होकर कहा- ‘‘तुमने कभी बताया था कि मकान में तुम्हारा चार लाख खर्च हुआ है तो ये रखो साढ़े चार लाख का चेक।’’ सुशांत घबराकर खड़ा हो गया- ‘‘क्या बात है दीदी?’’
      ‘‘बैठो, अभी बताती हूँ। मैंने इस घर को बिल्डर को दे दिया है। एग्रीमेंट साइन हो चुका है। मैंने अपनी व्यवस्था कर ली है। तुम अपनी व्यवस्था कर लो। हमें घर खाली करना है।’’
      ट्रक की आवाज़्ा सुनकर उसने खिड़की से झाँका। ट्रक धूल उड़ाती जा रही थी, पीछे-पीछे स्कूटर पर सुशांत थका-हारा सपरिवार चला जा रहा था। सुप्रिया बिस्तर पर निढाल गिर पड़ी। आँसू पोंछकर उसने सोचा- क्या करती? इसके सिवा कोई रास्ता भी तो नहीं था।

  • 24, एम.आई.जी आदित्यपुर-2, जमशेदपुर-831013, झार./मो. 09334826858

श्रीकृष्ण 'सरल' जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष सामग्री

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 





श्रीकृष्ण 'सरल' स्मरण 


श्रीकृष्ण सरल जी 
{वर्ष 2018 स्वयं को अमर शहीदों का चारण कहने वाले महान तपस्वी राष्ट्रकवि श्रीयुत् श्रीकृष्ण ‘सरल’ का जन्मशताब्दी वर्ष है। 01 जनवरी 1919 को जन्मे सरलजी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, तदापि कहना प्रासंगिक होगा कि महान स्वाधीनता सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद से लेकर अनेकानेक ज्ञात-अज्ञात शहीदों पर शोधकार्य करके महाकाव्यों का सृजन और अपनी जमीन-जायदाद बेचकर स्वयं के व्यय पर उनका प्रकाशन-वितरण करवाने वाले सरलजी का व्यक्तित्व अपने शहीद-प्रेम के कारण अपने समकालीनों में बहुत ऊपर स्थित है। 1965 में अमरशहीद भगतसिंह की पूज्य माताजी श्रीमती विद्यादेवी को उज्जैन लाकर उनका धूमधाम से स्वागत करने वाले सरलजी का यह कथन ‘प्रकाशक लोग पुस्तकें बेचकर जायदाद बनाते हैं, मैंने जायदाद बेचकर पुस्तकें बनाई हैं’ उन्हें राष्ट्रकवियों की प्रथम पंक्ति में लाकर खड़ा करता है। उन्हें स्वाधीनता संग्रामियों का वंशज उचित ही कहा गया है। 

      ऐसे महान साहित्य मनीषी और तपस्वी व्यक्तित्व के जीवन और कर्मगाथा से जुड़े कुछ प्रसंग हम प्रस्तुत स्तम्भ में इस वर्ष में रखने का प्रयास कर रहे हैं। प्रथम कड़ी में प्रस्तुत है-  डॉ. भगीरथ बड़ोले ‘निर्मल’ का आलेख ‘श्री सरल की सुभाष-शोध-यात्रा’। आशा है नई पीढ़ी तक उनकी स्मृतियों की सुगन्ध का एक झोंका अवश्य ही पहुँचाने में हम सफल होंगे। -संतोष सुपेकर, अविराम साहित्यिकी के श्रीकृष्ण ‘सरल’ स्मरण विशेषांक के विशेष संपादक}


भगीरथ बड़ोले ‘निर्मल’




श्री सरल की सुभाष-शोध-यात्रा    

      क्रान्ति और ओज के यशस्वी कवि श्री श्रीकृष्ण सरल का सम्पूर्ण लेखन राष्ट्रीय-सामाजिक चेतना को लेकर आज भी निरंतर गतिशील है। आधुनिक हिन्दी काव्यधारा में राष्ट्रीयता को अभिव्यक्त करने वाले विविध स्वरों के क्रम में श्री श्रीकृष्ण सरल ही एकमात्र ऐसे कवि हैं, जिन्होंने क्रान्तिकारियों के जीवन एवं आदर्शों को ही अपने लेखन का लक्ष्य बनाया है। इस चरित पूजा के पीछे श्री सरल की विराट एवं निश्छल किन्तु संकल्पित हृदय की पूत भावनाएँ ही प्रकट होती हैं। राष्ट्रीयता के प्रति समर्पित क्रान्तिकारी जीवनदर्शन की यह धारा श्री सरल की काव्य-रचना-प्रक्रिया की सहज-स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
      यदि विगत को टटोलें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि क्रान्तिकारियों के प्रति श्री सरल की निष्ठा बचपन से ही अनन्य रही है। अपने बाल्यकाल से ही देश के लिए समर्पित हो जाने वाले क्रान्तिकारियों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने तथा विदेशियों के अनुचित कार्यों का प्रतिकार करने के फलस्वरूप श्री सरल को अनेक कष्ट उठाने पड़े थे। इस आरम्भिक जीवन-काल की कुछ घटनाएँ वस्तुतः उल्लेख्य हैं।
      जब अंग्रेज प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्री शिवराम राजगुरु को गिरफ्तार करके लाहौर ले जा रही थी, तब अशोकनगर स्टेशन पर लोगों की भारी भीड़ जमा थी। किन्तु किसी में इतना साहस नहीं था कि वह अंग्रेजों के इस कार्य का विरोध कर सके। ऐसे समय में वहाँ की बाल-मण्डली के किसी सदस्य ने विचार रखा कि क्या हममें से किसी में इतना साहस है कि वह किसी गोरे को पत्थर का निशाना बना सके? श्री सरल लिखते हैं, ‘‘चुनौती मैंने स्वीकार की और एक बड़ा-सा पत्थर लेकर एक गोरे सैनिक की ओर दे मारा। पत्थर उसकी कनपटी में जाकर लगा और वह तिलमिला गया। पकड़ो-पकड़ो की आवाजें उठ रही थीं और जिधर से रास्ता मिलता, मैं भाग रहा था। आखिर स्टेशन के पोर्टरों ने घेरा डालकर मुझे पकड़ लिया और उन्होंने गोरे सैनिकों के हवाल कर दिया। फिर तो मुझ पर वह मार पड़ी, जिसका कोई हिसाब नहीं। चांटों और घूंसों और बूंटों की ठोकरें भी लगाई गईं। गालों पर उँगलियों के और पैरों पर बूटों के निशान बन चुके थे।’’ यह घटना श्री सरल के प्राथमिक शिक्षण-काल की है। इसी प्रकार हायस्कूल के शिक्षणकाल में श्री सरल ने नगर के पुलिस अधीक्षक की उपस्थिति में अंग्रेजों के प्रति स्पष्ट रूप से प्रतिहिंसा की भावना व्यक्त करने वाली रचना पूरे जोश-खरोश के साथ सुनाई। संघर्ष और दमन के उस काल में चेतावनी मिलने के बाद भी ऐसी रचना सुनाना श्री सरल की निर्भीक क्रान्तिकारी चेतना का ही परिणाम था। शासकीय सेवा में आने के बाद भी यह चेतना उद्बुद्ध ही रही। इस समय श्री सरल ने भूमिगत क्रान्तिकारियों को आवश्यक सहयोग दिया। उनकी सुरक्षा एवं अन्य व्यवस्थाओं के उत्तरदायित्व इन क्रान्तिकारियों के प्रति श्री सरल की कर्तव्य निष्ठा का अटूट प्रमाण है। 
      वस्तुतः क्रान्तिकारी-राष्ट्रीय-चेतना के प्रति श्री सरल के मन और मस्तिष्क में प्रारंभ से ही निष्ठा-भावना रही है। अतः इस समय से अंकुरित इस बीज ने आगे चलकर स्वाभाविक ही वृहद् और व्यापक रूप धारण कर लिया, जिसकी डालियाँ तथा जड़ें निरंतर ही ऊँचाइयों और गहराइयों को छूने लगीं।
      यद्यपि क्रान्तिकारियों अर्थात क्रान्तिकारी-राष्ट्रीय-चेतना के लिए कष्ट उठाने का यह क्रम आज भी विद्यमान है, मात्र संदर्भ ही बदले हैं; तदापि उनकी रचनात्मकता उसी परिमाण में प्रखर से प्रखरतम होती रही है। उनका समस्त संघर्षजीवी सरलतम व्यक्तित्व आज क्रान्ति-नायकों के जीवनादर्शों से ओतप्रोत है। इनकी वंदना को ही अपने जीवन का साध्य मानते हुए श्री सरल ने लिखा भी है-
क्रान्ति के जो देवता मेरे लिए आराध्य,/काव्य साधन मात्र, उनकी वंदना है साध्य।
      वस्तुतः अपने जीवनकाल में क्रान्तिकारियों के प्रत्यक्ष संपर्क में रहने, स्वयं भी क्रान्ति में भाग लेने तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन के साहित्य का आधिकारिक रूप से अध्ययन करने के कारण ही स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात श्री सरल को यह अनुभव हुआ कि जिन्होंने कल्पनातीत दुःख सहते हुए भी क्रान्ति-पथ पर चलकर अपने प्राण न्यौछावर किए- उन सपूतों के प्रति देश के निवासियों में अब पहले जैसा आदरभाव नहीं रहा है और न उन क्रान्तिवीरों की भावना एवं आदर्शों का समाज में अनुकूल सम्मान ही हो सका है। कवि ने इस परिवर्तित परिस्थिति में उन वीरों की वंदना तथा उनके आदर्शों का अनुसरण करने की बात को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया और स्वयं ही समाज के प्रतिनिधि का दायित्व महसूस करते हुए उद्घोषित किया-
‘‘मैं अमर शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ, 
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ।’’
      ये सभी बातें इस तथ्य की परिचायक हैं कि श्री श्रीकृष्ण सरल का कवि-मन अपने सामाजिक दायित्व बोध के प्रति विशेष सजग रहा है। राष्ट्रीयता के उदात्त मूल्यों से अनुप्राणित उनकी समस्त रचनाएँ उस लक्ष्य का साक्ष्य देती हैं कि ‘‘देश के नेतृत्व को आंच और धुआं न लगे।’’
      अद्यावधि श्री श्रीकृष्ण सरल की रचनाओं (पुस्तकों) की संख्या अस्सी (‘क्रान्ति गंगा’ के प्रकाशन तक उसमें दी गई सूची के अनुसार यह संख्या 103 तक पहुँच चुकी थी) के लगभग है। किसी तपस्वी की तरह प्रशंसाभाव की वांछा से मौन, किन्तु कर्तव्य-निष्ठा के निर्वहन की दृष्टि से मुखर श्री सरल की साहित्य-साधना अपने संघर्षशील जीवन में आज भी निरंतर सक्रिय है। यद्यपि प्रारम्भ में उन्होंने भिन्न विषयों पर भी रचनाएँ लिखीं हैं तथापि कुछ समय के उपरान्त उन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए मर-मिटने वाले क्रान्तिकारियों की संघर्ष कथा कहना ही अपने लेखन का प्रमुख लक्ष्य बना लिया। इस पथ पर सरदार भगतसिंह, अजेय सेनानी चन्द्रशेखर आजाद, महारानी अहिल्याबाई, स्वराज्य तिलक, विवेक श्री सरीखे प्रबन्ध काव्यों का प्रणयन हुआ। इनके अतिरिक्त गद्य और पद्य में लिखित अनेक रचनाएँ इन्हीं परिदृश्यों से सम्बन्धित रहीं। यही क्रम सुभाषचन्द्र बोस जैसे महिमामय व्यक्ति के निरूपण की ओर  विशेषतः केन्द्रित हुआ है। संभवतः श्री सरल को ही हिन्दी में सर्वाधिक महाकाव्य लिखने का श्रेय प्राप्त है। हिन्दी में इतने (सात) महाकाव्य लिखने वाला दूसरा लेखक नहीं है।
      नेताजी सुभाषचन्द्र बोस से श्रीकृष्ण सरल का मानसिक लगाव सन् 1941 से ही रहा है। इसी समय नेताजी ने देश की आजादी की खोज में भारत छोड़ा था। नेताजी के संबंध में अध्ययन करने और उन्हें इस माध्यम से अधिकाधिक जानने के बाद यह लगाव निरंतर बढ़ता चला गया। इस पथ पर सरलजी को यह प्रतीत हुआ कि ‘‘भारतीय स्वाधीनता संग्राम के बेजोड़ सेनानी, अप्रतिम योद्धा, निष्काम कर्मयोगी, सन्त राजनीतिज्ञ, निष्कलुष महामानव और भारतमाता के अनन्य भक्त सुभाषचन्द्र बोस के प्रति जनमानस में अपार श्रद्धा तो है, पर न उनके विषय में अभी तक प्रामाणिक रूप से बहुत कुछ लिखा गया है और न उनकी सेवाओं का सही मूल्यांकन हुआ है।’’
      अस्तु, एक ओर नेताजी के चारित्रिक गुण, दूसरी ओर उनके वीरता के कर्म और तीसरी ओर इन दोनों बातों के मूल्यांकन का अभाव देखकर श्री सरल ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को अपने साहित्य का चरित नायक बना लिया। इसीलिए जब नेताजी और आजाद हिन्द सेना की वीरता के समाचार देश को झकझोर रहे थे, श्री सरल ने उन पर समग्र और प्रामाणिक रूप से लिखने का संकल्प ले लिया। 
      मैंने जब श्री सरल से पूछा कि आप सभी क्रान्तिकारियों के प्रति समान रूप से निष्ठावान रहे हैं, फिर क्या कारण है कि आपने सुभाषचन्द्र बोस पर ही सबसे अधिक लिखा है। तब सरलजी ने बताया कि सभी क्रान्तिकारियों में तुलनात्मक रूप से सुभाष का चरित्र, चिंतन तथा कर्म ही अधिक व्यवस्थित एंव ठोस है। आजादी की प्राप्ति की दिशा में सर्वाधिक सक्रिय एवं प्रत्यक्ष प्रयत्न सुभाषचंद्र बोस का ही रहा है और अपने इन्हीं वास्तविक एवं व्यापक प्रयत्नों के परिणामस्वरूप सुभाषचंद्र सफलता के अत्यंत निकट पहुँच गए थे। श्री सरल का यह कहना उचित ही है कि कोई भी देश बिना सैन्य सहायता के स्वाधीन नहीं हो सका है। अन्य क्रान्तिकारियों ने इस दिशा में अपने आपको होम कर दिया पर सैन्य संगठन तथा उसके माध्यम से प्रयत्नों को वृहद् आकार देने के प्रयत्न नहीं किए, जबकि सुभाष ने सही रास्ता चुना। अतः देश को स्वतंत्र करने में उनका योगदान अधिक महत्वपूर्ण है।
      इसीलिए सुभाष श्री सरल की दृष्टि में अन्य क्रान्तिकारियों की अपेक्षा प्रमुख बने हुए हैं और ऐसे चरित्र पर लगभग एक दर्जन ग्रन्थ लिखने का संकल्प लेने वाले इस साधक ने अभी तक दस-ग्यारह ग्रन्थ सम्पूर्ण कर लिए हैं, शेष लेखन प्रक्रिया के अधीन हैं।
      यहाँ नेताजी पर लिखित इन प्रकाशित रचनाओं का परिचय देना समीचीन होगा। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पर श्री सरल की प्रथम रचना ‘‘नेताजी सुभाष दर्शन’ है। इसमें नेताजी के जीवन से सम्बन्धित विभिन्न अवसरों की चित्रमय झाँकी तथा गद्य में उन सन्दर्भों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। ‘‘राष्ट्रपति सुभाषचन्द्र बोस’’ तथा ‘‘नेताजी सुभाष जर्मनी में’’ 23 जनवरी 1964 को प्रकाशित गद्य में रचित उनकी दूसरी व तीसरी कृतियाँ हैं। 15 अगस्त 1974 में प्रकाशित ‘‘सुभाषचन्द्र’’ श्री सरल की अतुकान्त काव्य में लिखित चौथी कृति है, जिसमें कवि ने नेताजी के चारित्रिक गुणों को भारतवर्ष के महापुरुषों के समकक्ष ही नहीं रखा, अपितु उसे देश की सांस्कृतिक धारा से अविच्छिन्न देखा है। श्री सरल की पाँचवीं कृति ‘‘सेनाध्यक्ष सुभाष और आजाद हिन्द संगठन’’ है, जो 2 अक्टूबर 1974 को प्रकाशित हुई है। इस वृहद कृति में रचनाकार ने क्रान्तिकारी आन्दोलन और उसमें सुभाष की भूमिका के समस्त महत्वपूर्ण पक्षों को बड़े विस्तार के साथ व्यक्त किया है। ‘नेताजी के सपनों का भारत’ 23 जनवरी 1976 को प्रकाशित श्री सरल की छठी कृति है, जिसमें नेताजी के चिंतक स्वरूप को अधिकाधिक स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है। सातवीं कृति ‘जयहिन्द’ नेताजी के जीवन पर लिखा गया उपन्यास है, जिसे लेखक ने ‘‘सत्य ऐतिहासिक घटनाओं का औपन्यासिक रूपांतर’’ कहा है। ‘‘जय सुभाष’’ नेताजी पर लिखित श्री सरल की आठवीं कृति है, जिसकी रचना-प्रक्रिया महाकाव्यात्मक निकष पर खरी उतरती है। इस कृति के सन्दर्भ में आजाद हिन्द के कर्नल गुरुवक्षसिंह ढिल्लन का यह कथन सर्वथा उचित है कि ‘‘हिन्दी का यह महाकाव्य ‘जय सुभाष’ एक महाकाव्य होने के अतिरिक्त नेताजी सुभाष का एक स्मारक भी सिद्ध होगा। जहाँ यह एक महाकाव्य है, वहीं इसमें उपन्यास की रोचकता, कहानी की क्षिप्रता और इतिहास की प्रामाणिकता भी है। हम इसे आजाद हिन्द आन्दोलन की घटनाओं के दस्तावेज के रूप में भी प्रस्तुत कर सकते हैं। निश्चित रूप से ये समस्त रचनाएँ सुभाष-शोध-यात्रा का परिणाम कही जा सकती हैं। कालजयी सुभाष 1984 ई. में प्रकाशित जीवनपरक गौरव ग्रंथ है।
      यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि श्री सरल ने जिन क्रान्तिकारियों पर अपनी लेखनी चलाई है, उनसे संबंधित घटनाएँ एवं उनका चिंतन मात्र प्रचलित इतिहास ग्रन्थों के बलबूते अंतिम रूप नहीं पा सका है। इतिहास की रचना का क्षेत्र निरंतर शोध का क्षेत्र है। इससे रहित मात्र उसका परंपरागत आकार रचना के विशिष्ट मूल्यों को उद्घाटित नहीं कर सकता। सुभाष के जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करने से पूर्व श्री सरल ने भगतसिंह और आजाद पर लिखे महाकाव्यों की कथा की निर्मिति में अपनी इसी शोध दृष्टि का परिचय दिया है। सुभाषचन्द्र बोस पर लिखते समय उनकी इसी शोध-दृष्टि के विकसित आयाम दृष्टिगोचर होते हैं। श्री सरल ने ‘नेताजी सुभाष दर्शन’ में इसी बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है- ‘‘मेरा यह नियम है कि मैं जिस चरित नायक पर लिखता हूँ, उससे संबंधित सभी क्षेत्रों को अपनी आँखों से देखता हूँ तथा उससे संबंधित व्यक्तियों से मिलकर जानकारी प्राप्त करता हूँ।’’ अपनी इस प्रक्रिया की उपयोगिता को स्पष्ट करते हुए ‘‘जय सुभाष’’ महाकाव्य में श्री सरल का कथन है- ‘‘आजाद हिन्द आन्दोलन से संबंधित भू-भागों का भ्रमण करने से निश्चित ही लेखन पर गहरा प्रभाव पड़ा है।... लगभग तीस वर्षों से आजाद हिन्द आन्दोलन का अध्ययन करते रहने और उससे संबंधित व्यक्तियों से निकट सम्पर्क में रहने के कारण घटनाओं और सिद्धांतों को सही परिप्रेक्ष्य में निरूपित किया जा सका है।’’
      वस्तुतः प्रचलित परंपरागत इतिहास ग्रंथों के अँधेरे में खोये ‘‘सत्य’’ की तलाश के लिए ही श्री सरल यात्रा-रत हुए हैं और इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं होता कि प्रचलित सत्यों की अपेक्षा श्री सरल की शोध-यात्रा से प्राप्त सत्य कहीं अधिक व्यापक तथा गहरे हैं। यदि वे ये यात्राएँ नहीं करते, तो निश्चित ही इन चरित्रों के साथ संपूर्णतः न्याय नहीं कर पाते और एक फरेब से पूर्ण रचनाधर्मिता का स्वरूप ही सामने आता। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। इन यात्राओं से उपलब्ध नये तथ्यों के प्रकटीकरण ने क्रांतिकारी चरित्र को विस्तृति में निरूपित किया तथा अभिव्यक्ति को प्रामाणिकता के साथ ही जीवंत सार्थकता देने का समर्थ प्रयास किया है।
      नेताजी सुभाष बोस पर लेखन के लिए की गई यात्राओं में श्री सरल को विविध प्रकार के अनेकानेक कष्ट उठाने पड़े हैं। इनमें से कुछ कष्टों के सन्दर्भ उनकी पुस्तकों में बिखरे हुए हैं, जबकि कई कष्टों की गाथा अनकही ही रह गई है। उन्होंने एक स्थान पर लिखा भी है- ‘‘जो कुछ मुझ पर बीती है, उसकी पूरी कहानी मैं अभी नहीं लिख रहा हूँ। जब समय आयेगा तो अन्य बातें भी प्रकाश में आ जायेंगी।’’
      इन पंक्तियों को पढ़कर स्वाभाविक ही बहुत कुछ जानने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। उनसे मिलने पर उन्होंने जो कुछ भी बताया, वह चौंकाने के लिए पर्याप्त था। उसमें सुख-दुःख के अनेक सन्दर्भ आपस में गुंथे हुए मिले।
      श्री सरल ने सुभाष-शोध-यात्रा के अंतर्गत भारत के विविध नगरों अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह, बर्मा, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैण्ड, हाँगकाँग, जापान, फारमोसा, पाकिस्तान, नेपाल आदि देशों की यात्राएँ अपने निजी खर्च से की हैं। इन यात्राओं को महत्व देने के क्रम में उन्होंने बताया कि यात्राओं से नये तथ्य मिलते हैं और संबंधित स्थानों पर जाने से मन काल के परिवेश में रहकर भी उससे मुक्ति का अहसास करता हुआ कई प्रकार के प्रभावों को ग्रहण कर लेता है, जिससे लेखन निश्चित ही प्रभावित होता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए श्री सरल ने लिखा भी है- ‘‘मन में महत्वाकाँक्षा जागी- क्या ही अच्छा हो, यदि मैं विदेशों के उन सभी स्थलों के दर्शन कर सकूँ, जहाँ-जहाँ नेताजी के चरण पड़े हैं और शहीदों का खून गिरा है। मन ने सोचा यदि ऐसा नहीं हुआ तो लेखन में जान नहीं आयेगी। और विचार ने संकल्प का रूप ले लिया।’’
      यह सत्य है कि श्री सरल की आर्थिक स्थिति कभी भी संपन्नता से परिपूर्ण नहीं रही। कई बार उन्हें अपने घर का पूरा सामान क्रान्ति-साहित्य-देवता की पूजा के लिए बेच देना पड़ा, तो कई बार और भी अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़े। यद्यपि श्री सरल विदेश-यात्राओं में होने वाले व्यय से अपरिचित नहीं थे, तथापि अपनी दृढ़ संकल्प-शक्ति के बल बूते ही उन्होंने विपरीत परिस्थितियों से सामना किया और उनमें ही अनुकूलताओं की रचना की।
      यात्राओं का संकल्प लेने के बाद श्री सरल ने उन्हें संपादित करने का उद्योग किया। प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय महत्व के कई महानुभाव उनके परिचित थे- घनिष्ट परिचित तथा अच्छे पदों पर आसीन भी थे। सरलजी को विश्वास था कि ये लोग इस दिशा में उन्हें अवश्य ही सहयोग देंगे। इसीलिए उन्होंने उन तमाम सज्जनों को अपने लक्ष्य से परिचित कराया। किन्तु इन ‘समर्थ लोगों’ ने किसी भी प्रकार सहायता देने की अपेक्षा उनके अटूट विश्वास का ही ध्वंस किया। यदि ये लोग वस्तुतः सरलजी को सहयोग देते, तो सरलजी के लिए ये यात्राएँ सुगम हो जातीं।
      अंत में इन सबसे निराश होकर श्री सरल ने स्वाभिमान को महत्व देते हुए अपनी स्थिति के विरुद्ध एक दूसरा ही निर्णय लिया। उन्होंने अपना खेत और मकान बेच दिया, बहुत प्यार से सहेजी हुई घर की कई वस्तुएँ बेच दीं, शहीदों की चित्रावलियाँ बेचीं, जगह-जगह कविता-पाठ किये और यात्राओं के लिए आर्थिक अनुकूलताएँ अर्जित कीं। उन्होंने लिखा भी है- ‘‘इतनी बड़ी और व्यय साध्य यात्रा मैंने किसी शासन या किसी संस्था की कृपा से नहीं, अपने श्रम और स्वावलंबन के आधार पर ही संपन्न की। दान या अनुदान स्वीकार करना मेरे जीवन की पद्धति नहीं है। मैं अपनी कलम से और हाथ-पैरों से मजदूरी कर सकता हूँ और वह मैंने की है।
      यह सिद्ध बात है कि यदि मनुष्य में संकल्प-शक्ति दृढ़ हो तो कड़ी परीक्षा के बाद सब-कुछ अनुकूल हो जाता है। उस समय यानी सन् 1970 में जापान में विश्व-मेला आयोजित हुआ था। इस मेले के कारण कुछ हवाई कम्पनियों ने रियायती मूल्य पर टिकिट जारी किए थे। श्री सरल ने इस अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया। परिणाम यह हुआ कि सीमित धन-राशि से उन्होंने वांछित यात्राएँ पूर्ण कीं।
      विदेश यात्राओं की तैयारी के अन्तर्गत पासपोर्ट आदि की व्यवस्था के क्रम में जिस व्यक्ति ने अभूतपूर्व सहयोग दिया वे थे न्यायाधीश श्री मुरारीलाल तिवारी। इनके सक्रिय सहयोग के कारण श्री सरल की यात्राएँ अत्यंत सहज हो गईं, अन्यथा पासपोर्ट प्राप्त करने की प्रक्रिया अपनी दिखावटी ‘नियमबद्धता’ के कारण कई बार इतनी जटिल हो जाती है कि व्यक्ति को अपना यात्रा-कार्यक्रम ही रद्द करना पड़ता है। श्री सरल के दूसरे महत्वपूर्ण तथा प्रमुख सहयोगी रहे श्री एस.ए. अय्यर। श्री अय्यर ‘आजाद हिन्द सेना’ के मंत्रिमण्डल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रह चुके हैं। इन्होंने श्री सरल को विदेशों में स्थित अपने सहयोगियों के पते ही नहीं दिये, अपितु उन सबके नाम सहयोग देने के लिए एक खुला पत्र भी दे दिया। इस पत्र से श्री सरल की ‘शोध-यात्रा’ अत्यंत सुगम हो गई। इसके कारण ही अनेक लोगों ने कभी-कभी नियम के विरुद्ध जाकर भी अपेक्षित सहयोग किया। फिर तो एक कड़ी से दूसरी कड़ी जुड़ती चली गई और श्री सरल वांछित ध्येय को प्राप्त करने में सफल होते गये।
      यात्रा की आरम्भिक तैयारी में यह सिक्के का एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू परेशानियों की सर्जना करता रहा। यात्रा प्रारम्भ करने से पंद्रह दिन पूर्व श्री सरल भयंकर बस दुर्घटना के शिकार हो गए। चोटें गम्भीर थीं और चिकित्सकों ने विदेश तो क्या नगर से बाहर जाने से मना कर दिया। किन्तु श्री सरल का निश्चय अटल था। वे अपने मन में वर्षों से संजोयी और दबी हुई साध को कैसे टूट जाने देते? उन्होंने किसी का अनुशासन नहीं माना और निश्चित तिथि पर निर्भीकता के साथ यात्रा के लिए चल पड़े।
      यात्रा के पूर्व स्वास्थ्य संबंधी अनुकूल रिपोर्ट्स के लिए भी उन्हें कुछ दिक्कतें उठानी पड़ीं। चूँकि भारतवर्ष में कुछ ‘लेनदेन’ कर देने पर सारे ही काम सुगमता से हो जाते हैं, अतः इसी ‘सुनिश्चित’ प्रक्रिया द्वारा श्री सरल ने इस दिक्कत को भी दूर कर ही लिया और कलकत्ता से प्रारंभ की गई इस यात्रा का पड़ाव था अण्डमान निकोबार द्वीप समूह।
      यात्रा के इस पड़ाव को प्रथम महत्व देने का कारण श्री सरल ने यह बताया था कि सुभाषचन्द्र बोस ने स्वाधीन साम्राज्य का प्रारम्भ यहीं से किया था तथा इन्हीं द्वीप-समूहों को सर्वप्रथम नागरिक प्रशासन प्राप्त हुआ था। अतः स्वाधीन भारत के इस क्षेत्र को प्रमुख एवं प्रथम तीर्थस्थल माना जा सकता है।
      इसी क्रम में संबंधित कुछ प्रश्न पूछने पर श्री सरल ने बताया कि भारत सरकार ने उनके इस अनुष्ठान में न तो कोई सहयोग दिया, न कोई रुकावट ही डाली। वैसे काफी देर तक बार-बार पूछने पर उन्होंने यह अवश्य स्वीकार किया कि विदेशों में खर्च करने के लिए उन्हें विदेशी मुद्रा की आवश्यकता थी, किन्तु प्रयत्न करने के बाद भी रिजर्व बैंक ने उन्हें विदेशी मुद्रा नहीं दी। यह एक महत्वपूर्ण कठिनाई थी। जब मैंने उनसे पूछा कि ऐसी स्थिति में उन्होंने विदेशों में होने वाले खर्च को कैसे पूरा किया, तब सरलजी ने बताया कि यात्रा के टिकिट तो उन्हें भारतीय मुद्रा देने पर भारत में ही उपलब्ध हो गए थे। रही बात राह-खर्च की, तो श्री सुभाषचंद्र बोस का नाम और श्री अय्यर का पत्र- दोनों ही इस दिशा में अनुकूलताएँ सृजित करते रहे। इस सन्दर्भ में मेरी जिज्ञासा का समाधान प्रस्तुत करते हुए श्री सरल ने कहा कि विदेशों में जगह-जगह ‘आजाद हिन्द फौज’ के अनेक सैनिक- जो वहाँ तब छोड़ दिए गए थे- स्थायी रूप से बस गए हैं। इन्हीं लोगों ने उनकी तरह-तरह से सहायता की है। जब जहाज आसमान में 4000-5000 फीट की ऊँचाई पर उड़ता था, तब सरलजी उपस्थित यात्रियों को अपनी रचनाएँ सुनाते थे, जिसके बदले उन्हें पारिश्रमिक मिल जाता था। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी श्रम करके पारिश्रमिक अर्जित किया था। इसी पारिश्रमिक से बहुत सारे खर्च पूरे हो जाते थे। सरलजी के लिए इस प्रकार की अन्यान्य व्यवस्थाएँ नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सैनिकों एवं प्रशंसकों ने जगह-जगह कर दी थी। अतः इससे उनकी बहुत-सी दिक्कतें कम हो गई। यह स्थिति लगभग हर देश में उन्हें अपेक्षित सहयोग देती रही, जिसके कारण सरलजी अपने लक्ष्य को पाने में सफल रहे। अपनी यात्राओं के विविध अनुभवों का उन्होंने अपनी पुस्तक ‘सुभाषचंद्र’ के लेखकीय कथन में बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है।
      इस क्रम में अण्डमान-निकोबार में घटित एक प्रसंग विशेष रूप में उल्लेखनीय है। श्री सरल ने कलकत्ता से पोर्टब्लेयर तक की यात्रा जलयान से की थी। उनके ही केबिन में एक आयकर अधिकारी भी थे। श्री अय्यर के पत्र के प्रभाव से श्री सरल की निवास व्यवस्था एवं अन्य प्रबंध समय के पूर्व ही हो जाते थे। पोर्टब्लेयर पर जहाज के रुकते ही वहाँ के एक विशेष अधिकारी ने श्री सरल को इन व्यवस्थाओं की जानकारी देते हुए जहाज खाली होने तक जहाज में ही रुककर प्रतीक्षा करने को कहा। किन्तु पूरे जहाज के खाली हो जाने और अधिक समय बीत जाने पर भी जब वह विशेष अधिकारी सरलजी को लेने नहीं आया, तब सरलजी अकेले ही बाहर निकलकर उस निर्दिष्ट होटल की ओर रवाना हो गए, जहाँ पोर्ट के अधिकारी ने उनके ठहरने की व्यवस्था की थी। होटल पहुँचने पर जब श्री सरल ने अपना परिचय देते हुए पोर्ट के अधिकारी द्वारा की गयी व्यवस्था का उल्लेख किया, तो मैनेजर एकाएक क्रोधित हो गया। उसने श्री सरल को धोखेबाज तथा अन्य समानार्थी विशेषणों से संबोधित करते हुए अपमानित किया तथा बताया कि श्री सरल तो वहाँ पहले ही आ चुके हैं। यह जानकर सरलजी विस्मित हो गए। उन्होंने बड़ी मुश्किल से उस होटल के मैनेजर का क्रोध शांत करते हुए संबंधित विशेष अधिकारी से फोन पर बात करने की अनुमति चाही। श्री सरल से वस्तुस्थिति जानकर वह विशेष अधिकारी तुरंत होटल आया और मैनेजर को आश्वस्त किया कि ये ही वास्तविक ‘‘सरल’’ हैं। तब सहज ही जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि वह व्यक्ति कौन है जो श्री सरल का नाम ओढ़कर होटल में ठहर चुका है। वस्तुतः वह वही आयकर अधिकारी था। उसने पोर्ट पर विशेष अधिकारी और सरलजी का वार्तालाप सुन लिया था। जब विशेष अधिकारी ने जहाज खाली होने पर अपने एक सहयोगी को सरलजी का स्वागत करने भेजा तो अपरिचय का लाभ उठाते हुए वह आयकर अधिकारी स्वयं ‘सरल’ बनकर उनके साथ हो लिया। स्थिति स्पष्ट हो जाने पर वह आयकर अधिकारी खूब लज्जित हुआ और उसने क्षमा भी माँगी। इतना सब होने पर भी श्री सरल ने न केवल उस व्यक्ति को जेल जाने से बचाया, अपितु उसकी सम्मान-रक्षा करते हुए अपने साथ ही ठहराया। यह घटना श्री सरल की विशाल हृदयता को व्यक्त करती है, जो नेताजी के चरित्र का प्रमुख गुण था। इसी क्रम में रंगून में उनके साथ किया गया अप्रत्यासित व्यवहार तथा हाँगकाँग में मृत्यु के जाल में घिरकर सही-सलामत बाहर निकल आने का विशिष्ट अनुभव उनकी पुस्तक ‘‘सुभाषचंद्र’’ में अंकित है, जिन्हें पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाना स्वाभाविक है।
      अपनी इस शोध-यात्रा में श्री सरल वर्मा में वांछित जानकारी एकत्रित नहीं कर सके, न वहाँ के स्थान आदि देख सके, किन्तु शेष सभी देशों में उन्हें वहाँ के लोगों का पर्याप्त सहयोग मिला। उनसे जर्मनी भी जाना संभव नहीं हुआ। किन्तु सन् 1970 में जापान में आयोजित विश्वमेले में जर्मन स्टॉल के सांस्कृतिक अधिकारियों ने उनकी यथेष्ट सहायता कर उन्हें वांछित तथ्यों से अवगत करा दिया।
      इन सभी देशों की यात्राएँ करते समय वहाँ रहने वाले भारतीयों तथा ‘आजाद हिन्द सेना’ के सैनिकों से श्री सरल को भरपूर सहयोग मिला। उन लोगों ने न केवल उनके ठहरने और खाने की व्यवस्था में सहयोग दिया बल्कि तथ्यों को एकत्रित करने और उनको निर्दिष्ट स्थानों पर घुमाने में भी अपनी सक्रियता बताई। विशेषकर थाईलैण्ड में सरदार प्यारासिंह तथा सरदार जोगेन्द्रसिंह के सहयोग को सरलजी कभी विस्मृत नहीं कर सकते। ऐसे अन्य सहयोगी श्री सरल के आत्मीय बन चुके हैं।
      इस पूरी यात्रा में 40-50 हजार रुपये खर्च हुए हैं, किन्तु श्री सरल को इस बात का संन्तोष रहा कि सुभाष के जीवन से संबंधित घटनाएँ जहाँ-जहाँ घटित हुईं, उनमें से अधिकांश क्षेत्रों को उन्होंने अपनी आँखों से देखा है अपने मन में पूरी जीवंतता के साथ अनुभव किया है।
      बातचीत के क्रम में मैंने सरलजी से पूछा कि इस सन्दर्भ में उन्होंने भारत में कहाँ-कहाँ शोध-यात्राएँ कीं तथा विदेशों की अपेक्षा भारत में उन्हें कितनी अनुकूलताओं-प्रतिकूलताओं का अनुभव हुआ, तो श्री सरल ने बताया कि भारत में वे दिल्ली, कलकत्ता, गोंदिया, अमरावती, सूरत आदि स्थानों पर शोध के उद्देश्य से गये, पर हर जगह उन्हें भ्रष्टाचार ही अपनी चरम सीमा पर देखने को मिला। भारत में कई स्थानों पर सामग्री एवं चित्रों के संकलन में उन्हें पर्याप्त धनराशि खर्च करनी पड़ी। न तो शासन ने सहयोग दिया, न संस्थाओं ने, न किसी व्यक्ति ने। वे नेताजी के रिश्तेदारों से भी मिले, पर ऐसी हर जगह उन्हें असहयोग ही मिला है। इस प्रकार सुभाषचन्द्र बोस के जीवन-क्रम से संबंधित शोध-यात्रा में सरलजी को मनुष्य के कई रूपों का परिचय मिला है तथा देश और विदेशों में कई कटु-मधुर अनुभव हुए हैं। समय तो बीत गया, पर अभी भी उन भोगे हुए क्षणों की छाया श्री सरल के स्मृति-पट पर छाई हुई है। 
      मेरे अगले प्रश्न सुभाषचंद्र बोस पर श्री सरल के लेखन, प्रकाशन एवं विक्रय की स्थिति से संबंधित थे। मैंने इस सन्दर्भ में भी उनसे जानना चाहा।
      श्री सरल के सामने आर्थिक अभाव तो प्रारंभ से ही थे, अतः जैसे-तैसे यात्राएँ पूरी कीं। पर इस पथ की कठिनाइयाँ अभी समाप्त नहीं हुईं थीं। आर्थिक अभाव ने लेखन और कृतियों के प्रकाशन पर भी पर्याप्त प्रभाव डाला है। जिस प्रकार श्री सरल ने अपनी यात्राएँ निजी खर्च से संपन्न कीं हैं, उसी प्रकार कृतियों के प्रकाशन में भी उन्हें किसी तरह से पूँजी एकत्रित कर खर्च करनी पड़ी। प्रारंभ में उन्होंने कई प्रकाशकों से संपर्क साधा, किन्तु किसी ने भी श्री सरल का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। वे यह जान गए थे कि घटिया और गन्दे साहित्य के लेखकों को जितनी सहजता के साथ प्रकाशक मिल जाते हैं, उतनी सहजता से युग-निर्माणकारी ठोस एवं शाश्वत साहित्य के रचनाकारों को नहीं मिलते। इससे पूरा युग ही भ्रांत अवधारणाओं में डूबता-उतराता रहता है। क्रांतिकारी विचार-दर्शन को स्वीकारने वाले सरलजी भला इस स्थिति को कैसे स्वीकारते? परिणाम यह हुआ कि अपना घर, घर का सामान, पत्नी के आभूषण एवं अपने तथा बच्चों के कपड़े तक बेचकर उन्होंने स्वयं ही अपनी पुस्तकों का प्रकाशन किया है।
     इसी प्रसंग में एक घटना का वर्णन करते हुए श्री सरल ने बताया कि एक प्रसिद्ध नगर की संस्था ने जन-सहयोग से उनकी एक कृति प्रकाशित करने का प्रस्ताव पारित किया। किन्तु पुस्तक प्रकाशित हो जाने के बाद उन लोगों ने एकत्रित राशि आपस में बाँट ली तथा प्रकाशन का व्यय देने से इंकार कर दिया। यही नहीं, झूठे आश्वासनों द्वारा उन्होंने पुस्तक की एक हजार प्रतियाँ भी निःशुल्क हथिया लीं। इस प्रकार ऐसी प्रवृत्ति वाले कितने ही लोगों ने अलग-अलग दिशाओं से श्री सरल की सरलता का अवैध लाभ उठाया है, जिससे सरलजी को कई बार संकटों में जूझना पड़ा।
      वस्तुतः क्रांतिकारी लेखनरत रचनाकारों को समय-समय पर अपना सब-कुछ बेचकर लेखन की कीमत चुकानी पड़ती है। फिर भी सरलजी को इस बात का संतोष रहा कि प्रकाशन-व्यवस्था में चाहे सब कुछ बिक गया हो, पर ईमान अर्थात रचनाजीवी-धर्म नहीं बिक सका। वह जीवित, जागृत तथा प्रबुद्ध रहा। वस्तुतः श्री सरल ने जो भी राष्ट्रीय लेखन किया है, उसकी पूरी-पूरी कीमत चुकाई है।
     जिस प्रकार प्रकाशन के क्रम में सरलजी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उसी प्रकार उन प्रकाशनों के विक्रय में भी उन्होंने कई कठिनाइयों को सहा है। अनेक साहित्यिक मित्रों ने श्री सरल की स्थिति को जानने के बाद भी उनकी पुस्तकें निःशुल्क प्राप्त करनी चाही और अपने स्वभावगत संकोच के कारण सरलजी को उन्हें वे देनी ही पड़ीं। अनेक विक्रेताओं ने पुस्तकें बेचने के बाद भी श्री सरल को उनका मूल्य नहीं चुकाया। श्री सरल ने अपनी शेष पुस्तकें स्वयं ही फेरी लगाकर बेची हैं।
      प्रकाशन एवं विक्रय के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों ने कई बार श्री सरल को निराश भी कर दिया। कदाचित् निराशा के ऐसे ही क्षणों में श्री सरल ने अनुभव किया- ‘‘यह युग केवल जिन्दा रहने का युग है, कुछ अच्छा काम करने का नहीं। दम तोड़ देने वाली महँगाई, अज्ञानता के युग में ले जाने वाला कागज का अकाल- ये सब हालात न तो लेखकों को ही प्रेरणा दे सकते और न पाठकों को। लोग पुस्तकें खरीदें, यह आशा करना मूर्खता है और इससे बड़ी मूर्खता है इतने बड़े-बड़े पोथे लिखना। फिर भी मैं इस महामूर्खता के लिए प्रतिबद्ध हूँ। इतना साहित्य लिख डाला है और घर में इतना साहित्य निकल आएगा कि मृत्यु के उपरान्त यदि ईंधन उपलब्ध न हो सका तो फूँक देने के लिए साहित्य ही काफी होगा।’’
      मैंने अंत में पुनः श्री सरलजी के सम्मुख शासकीय सहयोग से संबंधित प्रश्न दोहराया, तब उन्होंने बताया कि पुस्तकों को खरीदने में शासन का रुख सदैव ही प्रतिकूल रहा है, पर सरकार का उनके साथ इतना ही सहयोग यथेष्ट था कि शासकीय सेवा में रहने के बाद भी शासन की अनुमति लिए बिना उन्होंने अपनी पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन किया है, जिसके संबंध में शासन ने उनसे कभी कुछ नहीं पूछा और दूसरा सहयोग यह रहा कि अंत तक उनकी नौकरी यथावत बनी रही। उस पर कोई आँच नहीं आई।
      वस्तुतः संघर्षजीवी सरलजी की ये सुभाष-शोध-यात्राएँ संघर्षमय ही रहीं। इन यात्राओं में नैरंतर्य और अनुकूलताएँ रचने के लिए श्री सरल को बहुत श्रम और त्याग करना पड़ा, बहुत कुछ सहना और पीना पड़ा है। किन्तु अपनी अटूट संकल्पशक्ति तथा अपरिमित स्थितियों के विष को पीते रहे और नेताजी के जीवन में सक्रिय नवीन उद्घाटन में समर्थ हो सके। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्री सरल ने अपनी रचनाधर्मिता को  संपूर्ण दायित्वों के साथ सजगता से निवाहा है। उनकी क्रान्तिकारियों के प्रति अनन्य निष्ठा तथा लेखकीय दायित्व के प्रति प्रबुद्ध दृष्टि निश्चय ही स्तुत्य है, अभिवंदनीय है। (‘राष्ट्रकवि सरल स्मारिका’ से साभार) 

सरोकार

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 


हमारे सरोकार 



डॉ. उमेश महादोषी




वैचारिक भँवर में राष्ट्रीयता का प्रश्न
पिछले दिनों राष्ट्रीय सन्दर्भ में कई तरह की चिन्ताएँ उभरकर सामने आई हैं। एक काम करने वाली सरकार को जनहित व राष्ट्रहित के काम करने से रोकने के कई कठोर प्रयासों के साथ हमने देखा है कि एक स्तर विशेष (केन्द्रीय) पर सरकार बदल जाने के कारण मात्र से लोग अपने ही राष्ट्र के खिलाफ किस तरह खड़े हो जाते हैं, जबकि नई सरकार के स्तर पर सामाजिक दृष्टि से कोई विशेष नकारात्मक कार्यवाही सामने न आई हो! किसी सरकार विशेष के खिलाफ खड़े होने की बात समझ में आ सकती है लेकिन सरकार के विरोध के नाम पर राष्ट्र के खिलाफ खड़े होने की कार्यवाही कुछ तो संकेत करती है। ऐसी कार्यवाही रातोंरात एवं किसी सरकार या राजनैतिक दल विशेष का विरोध करने मात्र के लिए नहीं हो सकती! लगता है कि पिछली सरकारों के दौरान देश के अन्दर काफी कुछ ऐसा होता रहा है जिसका आंशिक परिणाम आज सामने है। चीजों को नियंत्रित नहीं किया गया तो भविष्य में देश के समक्ष किसी बड़े संकट के खड़े होने की प्रबल संभावना है। राष्ट्रीय प्रतिबद्धता वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह घोर चिन्ता का विषय है। चूंकि विरोध का प्रश्न राष्ट्रीय अस्मिता पर चोट पहुँचाने वाला है, अतः सामाजिक-राष्ट्रीय अवधारणा को समझते हुए उसके सन्दर्भ में इस स्थिति की वास्तविकता पर विचार करना जरूरी है।
     राष्ट्रीय अवधारणा के पीछे दो प्रमुख पहलू हैं- एक तो मानवीय जीवन में वैयक्तिकता के सूक्ष्मांश के साथ सामूहिक जीवन के आकर्षण (सामाजिकता और राष्ट्रीयता) का स्वाभाविक विपुल अंश होता है। दूसरे, सामूहिक (सामाजिक, राष्ट्रीय और उससे भी आगे सम्पूर्ण मनुष्य जाति) सन्दर्भों में मनुष्य का प्रतिक्रियात्मक स्वभाव हर स्तर पर जीवन-व्यवहार की सीमाएँ तय करता है। मनुष्य के जन्म और उससे आगे के जीवन व्यवहार के साथ हम इसे समझने का प्रयास करते हैं।
     मनुष्य (अपितु हर जीव) के जन्म की एक सुनिश्चित प्रक्रिया होती है, उसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष योगदान करने वाले अनेक होते हैं। उस जन्म से प्रभावित होने और उसे प्रभावित करने वालों का भी एक बड़ा समूह होता है, जिसमें जन्म में योगकर्ताओं के साथ-साथ अनेकानेक अन्य भी शामिल होते हैं। प्रभाव की प्रकृति एवं संपर्क जनित दूसरी चीजों में ऊर्जा की मात्रा व सहधर्मिता के स्तरों के अनुरूप समूह भी कई स्तरों पर संगठनात्मक रूपाकार गृहण करता है। इनमें घर-परिवार, समाज, राष्ट्र और अखिल विश्व आदि रूप शामिल होते हैं। इस तरह ‘मनुष्य’ का (और अन्य जीवों का भी) का जन्म व्यक्तिगत घटना नहीं है। इसी तरह मनुष्य की मृत्यु भी व्यक्तिगत घटना नहीं है। सत्य तो यह है कि मानवीय जीवन में सामान्यतः जन्म से मृत्यु तक कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है (यहाँ मैं रिक्तता की बात नहीं कर रहा हूँ। जीवन से चीजों का निकल जाना रिक्तता पैदा करता है, यह मूल स्थिति नहीं होती है)। हर एक का जीवन किन्हीं न किन्हीं सूत्रों के माध्यम से दूसरे/दूसरों के जीवन से जुड़ा हुआ है। ऐसी स्थिति में मनुष्य के जीवन को मूलतः समधर्मी सहजीवन के रूप में समझा जाना चाहिए, जिसमें सामाजिकता मौलिक व स्वाभाविक रूप से स्थित होती है। यही सामाजिकता सार्वभौमिक तन्त्र द्वारा नियंत्रित भौगोलिक सीमाओं की परिधि में सहज-स्वाभाविक स्वीकार्यता के अधीन एक राष्ट्र का रूप धारण कर लेती है। राष्ट्र की सीमाओं में हर मनुष्य की समधर्मी सहजीवन के अनिवार्य अनुशासन को ग्रहण करने की क्षमताओं और अभ्यस्तता के अनुकूलन से जुड़ी चीजों से मिलने वाली पहचान उभरती है, जो अन्ततः सांस्कृतिक ताने-बाने के रूप में स्थापित होती है। इसी ताने-बाने में अन्य चीजों के साथ सहिष्णुता से असहिष्णुता की ओर जाने वाली एक मापक जैसी अन्तःधारा बहती है, जिस पर उस राष्ट्र के लोगों के सामान्य चरित्र को मापा जा सकता है। यह माप उस राष्ट्र के निवासियों की अपने लोगों के प्रति लगाव को जितना प्रदर्शित करती है, उतना ही राष्ट्र या दूसरी क्षेत्रीय सीमाओं से बाहर अन्यों के प्रति उनके आचार-व्यवहार को भी दर्शाती है। इस आचार-व्यवहार में सामान्यतः स्वपक्षीय दृढ़ता होती है, जिसकी मात्रा प्रमुखतः तीन बातों पर निर्भर करती है, एक- अपने सांस्कृतिक ताने-बाने और परिस्थितियों के प्रति अभ्यस्तता एवं अनुकूलन के सन्दर्भ में अन्य संस्कृतियों एवं उनके लोगों के प्रति ग्राह्यता कितनी है। दूसरे- इस ग्राह्यता के प्रति अन्य राष्ट्र या क्षेत्रीय सीमाओं के लोगों की क्या प्रतिक्रिया है। और तीसरे- अपने लोगों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों, विकास, सुरक्षा आदि से जुड़ी आवश्यकताओं एवं उनके सन्दर्भ में हमारी और दूसरों की सापेक्षिक प्रतिक्रियाओं का क्या स्तर है। इस प्रकार कुछ राष्ट्रों के लोग एक-दूसरे के लोगों के आचरण के प्रति अपेक्षाकृत अधिक सहिष्णु हो सकते हैं, उनमें परस्पर सम्मान की भावना काफी अधिक हो सकती है जबकि कुछ अन्य राष्ट्रों के लोगों के मध्य विपरीत स्थिति हो सकती है। निश्चित रूप से समूहगत सीमाओं के बाहर सहधर्मिता और निर्भरता के बावजूद पाई जाने वाली प्रतिस्पर्धा राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर बहुत स्पष्ट, कभी-कभी तो विकराल रूप में देखने को मिलती है। स्पष्ट है, राष्ट्रीय सीमाओं के पक्ष को नकारा नहीं जा सकता। 
      यहाँ एक और तथ्य उभरता है कि मनुष्य और मनुष्य के मध्य सहधर्मिता के बावजूद एक स्पष्ट विभेद होता है, वह उतना ही सत्य है, जितना स्वयं मनुष्य का होना। राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर इस विभेद को समाप्त करने के संकल्प लिए जा सकते हैं। लेकिन राष्टीªय सीमाओं के बाहर अखिल विश्व स्तर पर हम इस विभेद को यथासंभव न्यून करने के प्रयास कर सकते हैं, विभेद के रहते हुए भी मनुष्य को मनुष्य के साथ खड़ा कर सकने के प्रयास कर सकते हैं, लेकिन इसे पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकते। राष्ट्रीय सीमाओं के इधर-उधर का पारस्परिक व्यवहार सदैव सापेक्षिक और प्रतिक्रियात्मक होता है। कुछ सूक्ष्म स्तरों को अपवाद के तौर पर छोड़ दें, तो यह एक जैविक सिद्धान्त जैसा है। इसलिए हमें स्वीकार करना होगा कि विश्व स्तर पर मनुष्य और मनुष्य के मध्य का यह विभेद मनुष्य के जीवन व्यापार का एक अहं आधार है। इसमें ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’’ की अवधारणा भी स्थित है और सम्पूर्ण विश्व पर आधिपत्य स्थापित करके स्वेच्छाचारी नियंत्रण की महत्वाकांक्षा भी। हर नकारात्मकता का विरोध और सकारात्मकता की प्राप्ति के प्रयास इसके साथ ही करने होंगे। इसलिए राष्ट्रीय सीमाओं की समाप्ति के विचार के विरुद्ध हमें उन्हें संपुष्ट करने के विचार की श्रेष्ठता एवं राष्ट्रों की संप्रभुता के सम्मान को स्थापित-प्रसारित करने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। आज राष्ट्रीय सीमाओं के विरुद्ध जो भी गतिविधियाँ चल रही हैं, वे विचारधाराओं के विस्तार की प्रक्रिया का अंग मात्र हैं, जिनका उद्देश्य अन्ततः वृहद सीमाओं वाली महाशक्ति, जिसमें कुछ प्रभावशाली मानव समूह अन्यों को गुलाम बनाकर अपनी कुण्ठाओं को तृप्त करना चाहते हैं, के निर्माण की आकांक्षा से अधिक कुछ नहीं है। यह कैसे भी सकारात्मकताओं की स्थापना-प्रक्रिया नहीं है। कम शक्तिशाली राष्ट्रों के भावुक प्रवृत्ति वाले लोगों के मध्य व्यक्तिगत अपेक्षाओं-महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की लालसा के वशीभूत कुछ चालाक किस्म के लोग विस्तारवादी परिधि में स्वैच्छिक बन्दी बनकर स्वदेशी भावुक जनों को भी उसी परिधि में खींचने व राष्ट्रीय विचार को विभक्त करने का कार्य करते हैं। ऐसे में प्रतिक्रियास्वरूप राष्ट्रीय विचारधारा के पक्ष में थोड़ी सी भी सुरक्षात्मक सक्रियता आती है तो उसमें कट्टरपन के काल्पनिक प्रतिबिम्ब दिखाने के षणयंत्र किए जाते हैं। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि भावावेशी उत्तेजना पर नियंत्रण रखकर ही राष्ट्रीयता को संपोषित किया जाये।
      भारत सदैव अन्य राष्ट्रों और संस्कृतियों के प्रति उदार व सहिष्णु रहा है। इसके लिए आवश्यक ऊर्जा, साहस व प्रेरणा भी हमारे इस देश को अपने आन्तरिक संगठन से मिलती रही है, जो स्वयं अनेकों संस्कृतियों से मिलकर बना है। इसके अन्तस में विद्यमान अनेकानेक संस्कृतियाँ समग्रतः एक महासंस्कृति के रूप में प्रवाहित हो रही हैं, जिसमें तमाम अन्य राष्ट्र और उनकी संस्कृतियाँ अपना चेहरा देख सकती हैं। स्वाभाविक रूप से हमारी महासंस्कृति किसी राष्ट्र या संस्कृति के लिए संकट का कारण नहीं हो सकती, कभी बनी भी नहीं है। हमारे देश ने जो कुछ भी प्राप्त किया है, उसे पूरी ईमानदारी और अपने सामान्य मानवीय उद्यम से प्राप्त किया है। इसने दूसरों से कभी कुछ छीनना नहीं सीखा, ईर्ष्या भाव नहीं रखा। इसके बावजूद हमारी महासंस्कृति, उसकी अवयव संस्कृतियों और उसमें आस्थावान हमारे लोगों को निशाना बनाया जाता रहा है। हमारे देश की भौगोलिक-सांस्कृतिक-सामाजिक स्थिति का आकर्षण कई विचारधाराओं एवं संस्कृतियों के लोगों के अन्दर भारत के प्रति सम्मान का कारण बनने के स्थान पर ईष्या का कारण बनता रहा है। इन विस्तारवादी बाहरी शक्तियों ने हमसे हमारी सकारात्मकताओं को ग्रहण करने के स्थान पर येनकेन उन्हें नष्ट करने के प्रयास कहीं अधिक किए हैं। ऐसे लोग सदैव इस सुन्दर देश पर नियंत्रण और यहाँ के लोगों और संसाधनों को अपने अधीन रखना चाहते रहे हैं। वे अपने उद्देश्यों में सफल भी होते रहे हैं। आज लम्बे संघर्ष के बाद गुलामी और कई बाह्य नियंत्रणों से हमने अपने-आपको आजाद कर लिया है, तो कुछ दूसरी शक्तियाँ दूसरे तरीकों से हम पर नियंत्रण करना चाह रही हैं। आज हमारे भोलेभाले लोगों को विभिन्न दृष्टियों से बरगलाया जाता है, कुछ चालाक लालची लोगों का उपयोग करके हमारी मौलिक राष्ट्रीय विचारधारा और उसकी शक्ति को तोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। बाहर से आईं कुछ विचारधाराएँ, जिनमें वास्तविक सकारात्मकता नाम मात्र को भी नहीं है, जिनका खूनी चरित्र और हमारे लोगों को गुलाम बनाने की प्रवृत्ति अनेकों बार प्रदर्शित हुई है, स्वयं को हम पर थोपने व हमें लगातार बाँटने के कार्य में लगी हुई हैं। मुझे यह बात लगातार परेशान करती है कि हमारे ही कई प्रतिभावान और ऊर्जावान लोग अपनी सुसंपन्न संस्कृति और विचारधारा के विरुद्ध कुसंस्कृति व खूनी विचारधाराओं की गुलामी को हम पर थोपने की ओर दृढ़तापूर्वक बढ़ रहे हैं। हमें इस स्थिति और इसके पीछे के कारणों पर विचार करना चाहिए।
      हमारा समाज अनेक छोटे-छोटे समूहों में बँटा हुआ है। एक समूह कुछ अनुचित करता है तो दूसरे समूह में उसकी प्रतिक्रिया होती है। बाहरी शक्तियाँ और कुछ अपने ही लोग इसके लिए पूरे समाज एवं राष्ट्र को जिम्मेवार प्रचारित करने लग जाते हैं। इसके बेहद घातक परिणाम सामने आते हैं। इस तरह की परिस्थितियों में, जब राष्ट्र के समक्ष विघटन या पारस्परिक वैमनस्य की प्रक्रिया सौहार्द एवं वैचारिक समरसता की सीमाओं को छिन्न-भिन्न करके राष्ट्र की प्रगति एवं विकास में बाधक बनने लगे तो हमें आत्मावलोचन करना ही चाहिए। जिम्मेवार कारणों की पहचान व विश्लेषण करके उनके प्रभावों को समझना और उनके निदान पर संवेदनशीलता के साथ दृढ़तापूर्वक विचार करना चाहिए। इन कारणों को यदि हम समूहों में बाँटकर देखें तो कम से कम चार प्रकार के कारण हमें प्रमुखतः दृष्टव्य होते हैं- एक, हमारी अपनी आन्तरिक कमजोरियाँ; दो, दूसरों को भावुकता एवं अदूरदर्शितापूर्ण तरीके से दिए गए अवसर; तीन, अपनी संस्कृति एवं विचार के मौलिक सत्य को आंतरिक व बाह्य शक्तियों द्वारा प्रदूषित होने देना, उन्हें रोकने के ठोस प्रयासों व इच्छाशक्ति का अभाव तथा चार, अपनी संस्कृति एवं विचार को युगकालीन आवश्यकताओं के सन्दर्भ में अद्यतन व संपोषित करने के वास्तविक प्रयासों एवं उनके सम्प्रेषण एवं प्रसार संबन्धी सक्रियता की कमी। 
      इन बिन्दुओं पर वास्तविक स्थिति का आकलन बेहद मुश्किल काम है और उससे भी मुश्किल काम है स्थितियों को समझकर उद्देश्य प्राप्ति के रास्तों की पहचान और उन पर चलकर चीजों को ठीक करना। यह कठिनाई प्रमुखतः हर बिन्दु पर मतभिन्नता, उसकी दृढ़ता और उस दृढ़ता से जनित व्यक्तिगत अहं एवं सत्तापिपासा के रास्ते कठोर मनभिन्नता के साथ अपने ही लालची लोगों के माध्यम से बाहरी षणयंत्रों के कारण भी है। मनभिन्नता की गहराती लकीरों ने आज समय को बेहद मुश्किल बना दिया है। चीजों का विरोध आज चेहरों के विरोध में बदल चुका है। लोगों के लिए आज अच्छी-बुरी चीजों का अर्थ नहीं रह गया है। अर्थ है तो पक्ष-विपक्ष में खड़े चेहरों का। बिना वस्तुस्थिति को समझे ही विरोध करना आज रीति बन चुका है। आजकल ऐसे उदाहरण नित्य देखने को मिलते हैं। लेकिन इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि समय-समय पर विखण्डन की स्थितियों को सम्हालने के लिए विशेष शक्ति का उदय हुआ और उस शक्ति की प्रेरणाओं व प्रयासों से हमारा समाज पुनः अखण्ड स्थिति में पहुँचा। जब सकारात्मकता की हवा चलती है तो तमाम नकारात्मक प्रवृत्तियाँ और उनके प्रवर्तक अलग-थलग पड़कर निष्प्रभावी हो जाते हैं। आज किसी ऐसी ही शक्ति की आवश्यकता है, जो आम जन को अपनी दूरगामी दृष्टि और अहं व मोह से रहित तार्किक एवं बहुआयामी सतत संघर्ष के माध्यम से यह अहसास करवा सके कि यदि हमने समय रहते अपने मूल चरित्र को उसकी समग्र और अद्यतन प्रासंगिकता के साथ ग्रहण नहीं किया, तो दूसरों पर नियंत्रण की महत्वाकांक्षा में डूबी अहंकारी शक्तियाँ शीघ्र ही हमें अस्तित्वविहीन कर देंगी। 
       यहाँ ‘अहं व मोह से रहित तार्किक एवं बहुआयामी सतत संघर्ष’ के सन्दर्भ को थोड़ा स्पष्ट करना जरूरी है। कुछ सकारात्मक मुद्दों पर आंदोलनो के रूप में अनेकानेक प्रयासों का हश्र हम देख चुके हैं। अधिकांश आंदोलनों को अन्ततः सत्ताप्राति की ओर बढ़ते एवं उस तक पहुँचने के साथ समाप्त हो जाते, यहाँ तक कि अपना चरित्र भी गंवाते देखा है। कुछ आन्दोलन दो-चार कदम चलकर छोटी-छोटी सफलताओं को ही अपना गन्तव्य मानकर ठहर जाते हैं। हमारी आजादी का आन्दोलन, जयप्रकाश आन्दोलन और अभी-अभी कथित भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना जी के नेतृत्व में किया गया आन्दोलन, सबके हश्र हमारे सामने हैं। आजादी के आन्दोलन के सन्दर्भ में मुझे लगता है आजादी गन्तव्य का एक (पहला) पड़ाव मात्र होना चाहिए थी। उसके बाद अपने लोगों की मानसिकता एवं चरित्र को गुलामी के वातावरण और परिस्थितियों के प्रभाव से मुक्त कराने तथा अपनी मौलिक राष्ट्रीय अवधारणा को ग्रहण करने के लिए लोगों को तैयार करना प्रमुख काम होना चाहिए था। यह काम उस आन्दोलन ने नहीं किया। अपितु आजादी के संघर्ष से निकले कुछ चालाक लोगों के हाथ में सत्ता सौंपकर उन्हें एक भ्रष्टाचारी एवं अकर्मण्य तन्त्र की स्थापना के लिए खुला छोड़ दिया गया। उस तन्त्र की कमजोरियों व संरक्षण का लाभ उठाकर हमारे देश में राष्ट्रविरोधी तत्व किस तरह शक्ति संचय करते रहे हैं, इसके परिणाम आज दिखाई देने लगे हैं। आजादी का पूरा आन्दोलन विदेशी नियंत्रण से मुक्ति एवं सत्ता प्राप्ति तक सीमित होकर रह गया। आश्चर्यजनक है कि उस आन्दोलन के प्रतिभासंपन्न लोगों ने अंग्रेजी शासन और उससे पूर्व के मुगलिया शासनों के कारण भारतीय जनमानस में आये नकारात्मक प्रभावों व प्रवृत्तियों तथा अवशिष्ट राष्ट्रविरोधी तत्वों  व विचारों का नोटिस तक लेने की आवश्यकता नहीं समझी। जयप्रकाश आन्दोलन भी मुझे नहीं लगता समाज के लिए अपेक्षानुरूप कुछ विशेष कर पाया। उस आदोलन में दिए गए ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के नारे में जिन सात क्रान्तियों (राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक) को शामिल किया गया था, उनके छोटे से अंश मात्र पर भी तो काम नहीं हो सका। पूरा आन्दोलन केवल और केवल केन्द्रीय सत्ता को उखाड़ फेंकने तक सीमित होकर रह गया। वह भी छोटे से समय अन्तराल मात्र के लिए। अन्ना आंदोलन का हश्र तो सबसे अधिक चौंकाने वाला है, जिसका नायक बिना कोई सकारात्मक परिणाम दिए आश्चर्यजनक रूप से फूले हुए गुब्बारे से हवा निकल जाने वाली स्थिति में पहुँच चुका है। इसके पीछे अपनों के द्वारा ही कोई ब्लैकमेलिंग की स्थिति है या आन्दोलन ही पर्दे के पीछे के किसी स्रोत विशेष से प्रायोजित था, सब कुछ अँधेरे में है। लगता है जैसे आन्दोलनकारी मानकर चले थे कि भ्रष्टाचार सिर्फ वही है, जिसे वह अपनी सुविधा के लिए भ्रष्टाचार मानते हैं और वह भी सिर्फ और सिर्फ सरकारों के स्तर पर होता है, जिसे वे एक-दो सप्ताह में लाख-दो लाख की भीड़ एकत्र कर समाप्त कर देंगे। इसे एक राजनैतिक चाल से अलग और क्या माना जा सकता है! संभव है अन्ना जी का उपयोग करने के बाद उनकी सक्रियता का अन्त कैसे और किस रूप में किया जायेगा, यह भी पहले ही सुनिश्चित कर लिया गया हो। यदि आन्दोलनकारियों के पास धैर्य और दूरगामी सोच के साथ वास्तविक सामाजिक उद्देश्य होते तो यह आन्दोलन ऐसी स्थिति में पहुँचने की ओर अग्रसर हो सकता था, जहाँ आठ-दस वर्ष के संघर्ष के माध्यम से कई बड़े सामाजिक उद्देश्य प्राप्त किए जा सकते थे। इस आन्दोलन की परिणति ने भविष्य में किसी भी बड़े आन्दोलन की संभावनाओं को गम्भीर क्षति पहुँचाई है। हर आन्दोलन के अग्रेताओं को सोचना चाहिए कि सत्ता प्राप्ति सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति का रास्ता नहीं होती, अपितु जनमानस के चरित्र एवं सामाजिक चिन्तन, मान्यताओं व स्वीकार्यताओं में बदलावों के माध्यम से सत्ताओं को अपने चरित्र में बदलाव लाने के लिए प्रभावी रूप से प्रेरित करके ही वास्तविक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसे परिवर्तन की अपनी सहज स्वीकार्यता भी होगी और उसके दीर्घकालीन प्रभाव भी। निसन्देह इसके लिए बड़े धैर्य की आवश्यकता होगी। ऐसा कोई परिवर्तन जब भी आयेगा लम्बे किन्तु सघन संघर्ष से ही आयेगा, जिसमें उद्देश्य के प्रति समर्पण होगा, जो अहं, मोह और व्यक्तिगत अपेक्षाओं की प्राप्ति के लालच से सर्वदा दूर होगा। जनतंत्र में लोगों के बदले बिना सरकारों का चरित्र नहीं बदल सकता, इसलिए किसी भी परिवर्तनगामी कार्यवाही का प्राथमिक उद्देश्य लोगों को बदलना होना चाहिए। और लोगों को बदलने की प्रक्रिया का कोई शार्टकट नहीं होता। यह प्रक्रिया परिवर्तन के कई पड़ावों से होकर गुजरती है। कोई एक पड़ाव वास्तविक परिवर्तनगामी आन्दोलन का गन्तव्य नहीं हो सकता।
      जहाँ तक हमारी आन्तरिक कमजोरियों का प्रश्न है, हमारी सामाजिक संरचना और समाज के विभिन्न अवयव समूहों से सम्बद्ध लोगों के असमान सामाजिक एवं आर्थिक विकास के साथ सामाजिक भेदभाव की परम्पराओं व नीतियों ने हमारे सामाजिक-राष्ट्रीय ढाँचे को अपूरणीय क्षति पहुँचाई है। यह एक कठोर सत्य है कि हम अपनी सामाजिक संरचना को मानवीय गुणवत्ता की दृष्टि से अपेक्षा एवं आवश्यकतानुरूप उच्चीकृत एवं अद्यतन नहीं कर पाये हैं। इसके पीछे के जो भी कारण हैं, उनके विश्लेषण एवं सुधार के लिए व्यापक रूप से मान्य प्रयासों की आवश्यकता है। निसन्देह हमारे समाज की संरचना बहुधर्मी, बहुजातीय, बहुभाषी, बहुवैचारिक है। तमाम संरचनात्मक अवयवों के अन्दर भी सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से अनेक उप अवयव हैं। यद्यपि मानवीय एवं सामाजिक समानता की दृष्टियों से देखा जाये तो विभिन्न अवयवों-उप अवयवों के मध्य हितों का टकराव नहीं होना चाहिए, किन्तु कुछ समूहों के अनावश्यक अहं एवं श्रेष्ठता बोध के चलते गंभीर टकराव होते हैं। दुर्भाग्य से हमारे समाज के मार्गदर्शक माने जाने वाले सामाजिक, बौद्धिक, राजनैतिक नेताओं एवं विशेषतः आध्यात्मिक व्यक्तित्वों ने जिस संवेदनशीलता, सदाशयता, निष्पक्षता से मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि रखकर सामाजिक समरसता के रास्ते पर समाज व राष्ट्र को ले जाना चाहिए था, वे अपने कर्तव्य पालन में असफल रहे हैं। ऐसे प्रयासों के लिए यदि कुछ सामाजिक आन्दोलन हुए भी हैं तो वे भी पूर्णतः विफल रहे हैं। अधिकांश आन्दोलन अपने ही कुछ कार्यकर्ताओं व नेताओं की स्वार्थपूर्ति का साधन बनकर रह गये हैं। इस दिशा में समुचित लक्ष्य पाने के लिए विशुद्धतः विशाल सामाजिक संगठन, जो ‘अहं व मोह से रहित तार्किक एवं बहुआयामी सतत संघर्ष’ के लिए प्रतिबद्ध भी हो और सक्षम भी, की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक ऐसा संगठन है, जो अपनी स्वीकार्यता का दायरा बढ़ा सके और अपनी कुछ गतिविधियों को व्यापक आन्दोलन का आकार दे सके तो वह हमारे राष्ट्र को सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया से निकाल कर वैचारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक अखंडता की ओर ले जाने में सक्षम है। देश में किसी अन्य संगठन के पास इतनी व्यापक प्रतिबद्धता, गहन समर्पण, संघर्ष की क्षमता एवं संरचनात्मक ढांचा है ही नहीं कि उसके बारे में सोचा जा सके। चूँकि अन्य अनेक सामयिक आन्दोलनों का हश्र लोग देख चुके हैं, अतः किसी नई संगठनात्मक संरचना के बारे में सोचना भी संभव नहीं है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने काफी कुछ किया है व वर्तमान में काफी कुछ कर रहा है, लेकिन उसने जो कुछ किया है, उसके सापेक्ष बहुत बड़ा अंश शेष है, जिसको अपेक्षित परिणति तक ले जा पाना स्वीकार्यता के दायरे को बिना बढ़ाये एवं अपने अन्तःस्वरूप को एक आन्दोलनात्मक ऊर्जा से जोड़े बिना संभव नहीं है। सामाजिक विषमता को दूर तथा जरूरतमंदों की प्राथमिक जरूरतों को पूरी किए बिना हम अपने लोगों को राष्ट्रविरोधी विचारधाराओं एवं उन्हें संचालित करने वाले तत्वों के चंगुल से बचा नहीं सकेंगे। हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता है कि हम अपने तमाम लोगों को समान मानवीय अधिकारों के दायरे में ला सकें।
     हमारा समाज अपनी सहिष्णुता के लिए विश्व भर में जाना जाता रहा है। हम हर किसी को अपना स्वीकार कर लेते हैं। हम हर किसी को अपने घर में स्थान दे देते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से हमारी यह अच्छाई हमारे लिए ही लगातार पीड़ा और विघटन का कारण बनती चली गई है। आने वाले व्यापारी बनकर आते हैं, शासक बन जाते हैं। निवेशक बनकर आते हैं, सरकारों में दखल देने लग जाते हैं। मानवीय उन्नयन के नाम पर विचार लेकर आते हैं, वैचारिक-सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने लग जाते हैं। बुराइयों एवं असमानता से संघर्ष के नाम पर हमारे लोगों को खूनी रास्ते पर चलने के लिए उकसाते हैं। लड़ाते हैं, विभाजित करते हैं। विकास की चाकलेट दिखाकर धर्म परिवर्तन कराने लग जाते हैं। साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में साझेदारी के नाम पर आकर हमारी सुरक्षा में सेंधमारी करते हैं। हमने कभी नहीं सोचा कि जो देश अपनी संस्कृति एवं सामाजिक-वैचारिक अखंडता के लिए प्रतिबद्ध हैं, वे दूसरों की अच्छी या बुरी कैसी भी वैचारिकता को अपने घर में स्थान नहीं देते। दूसरों को अपने घर में बराबरी का सम्मान देने में भी वे हजार बार सोचते हैं। दूसरों की विचारधारा को किस दृष्टि से देखते हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। मैं यह नहीं कहता कि हम भी उन जैसे ही हो जायें, लेकिन किसी को अपनाते समय, किसी को घर में स्थान देते समय, किसी के विचार को सुनते समय तमाम चीजों के बारे में सचेत तो रहें, दूसरों के उद्देश्य पर दृष्टि रखें, दूसरों के किसी भी तरह के संभावित/प्रस्तावित योगदान का अपने राष्ट्रीय सन्दर्भों में परीक्षण करें। हम जानने का प्रयास करें कि कोई हमारे साथ क्यों खड़ा होना चाहता है? हमें विश्लेषण करना चाहिए कि कैसे अनेकों संस्थाएं गैर सरकारी संगठनों के नाम पर देश को तोड़ने के काम में लगी हैं। हमारे ही कई लोगों को ये संस्थाएँ महान बनाकर प्रस्तुत करती हैं, सरकारों में दखल देकर उन्हें उच्च स्तरों पर सम्मानित करवाकर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करती हैं, फिर उनके जरिए हमें अस्थिर और विभाजित करने वाली करने वाली गतिविधियों को चलाती हैं। हमारे देश में अनेक राष्ट्रनिरपेक्ष (जो कई बार तो राष्ट्रीय सन्दर्भों में समस्या बन जाते हैं।) लोगों को महान व्यक्तित्व के रूप में जानने-मानने की व्यापक रीति-सी स्थापित होती चली गई है। क्या यह चिंताजनक नहीं है? यदि हम सहिष्णुता और सहृदयता के नाम पर घुसपैठियों को घर में घुसायेंगे तो हमारा क्या हश्र होगा, हमारे सामाजिक व राजनैतिक, दोनों स्तरों के नेतृत्व को सोचना चाहिए और देश में चल रही अनेक संस्थाओं और रातोंरात महान बन गए व्यक्तियों की सम्पूर्ण पृष्ठभूमि, उनके वैचारिक दृष्टिकोंण और गतिविधियों की व्यापक समीक्षा होनी चाहिए। जहाँ सामाजिक विघटन की प्रेरक एवं राष्ट्रविरोधी संलिप्तताएँ पाई जायें, वहाँ उन्हें बेनकाब किया जाये। लेकिन समान्तर रूप से सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि एक सतत आन्दोलनबद्ध कार्यवाही के रूप में ऐसी चीजों के प्रति जनता को भी जागरूक बनाया जाये।
      समूचा विश्व जानता है कि भारतीय संस्कृति मानवीय जीवन के सबसे अधिक सामाजिक प्रतिबद्धता, कलात्मक सौन्दर्य, संवेदनात्मक समझ व लोकहितकारी वैज्ञानिक आधारों पर खड़ी है। मानवता को समृद्ध करने वाले मूल्य हमारी संस्कृति में सबसे अधिक और सबसे सघन व प्रभावशाली रूप में विद्यमान हैं। लेकिन हमारी आन्तरिक कमजोरियों और स्वभावगत विनम्रता के चलते विधर्मी और विदेशी शक्तियों ने हमारे ऊपर शासन करते हुए हमारी संस्कृति को न केवल प्रदूषित किया, अपितु उसे नष्ट करने का हर संभव प्रयास किया है। हमारे विचार और दर्शन को विघटित एवं विवादित बनाने वाली कार्यवाहियाँ हुई हैं। हमारा कमजोर हो चुका सामाजिक एवं राजनैतिक नेतृत्व हमारी सांस्कृतिक, वैचारिक एवं राष्ट्रीय अखंडता को बचाकर रख पाने में अक्षम सिद्ध हुआ। आजादी के बाद, जैसे सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता हमारे राष्ट्र को थी, वैसा नेतृत्व कुछ स्वभावगत, कुछ परिस्थतियोंवश और कुछ दबावों के चलते हमें मिल नहीं पाया। यदि कभी अल्पकालिक रूप से समर्थ राजनैतिक नेतृत्व मिला भी तो सांस्कृतिक-वैचारिक नेतृत्व अपेक्षानुरूप नहीं मिल पाया। हमने कभी यह समझने की आवश्यकता नहीं समझी कि सक्षम राजनैतिक नेतृत्व कभी भी सक्षम सामाजिक, सांस्कृतिक-वैचारिक नेतृत्व के सहयोग के बिना राष्ट्र को अपेक्षित दिशा और शक्ति प्रदान नहीं कर सकता। एक लम्बे अन्तराल के बाद आज देश को सक्षम-समर्पित एवं लोकप्रतिबद्ध राजनैतिक नेतृत्व मिला है तो सामाजिक व सांस्कृतिक-वैचारिक क्षेत्रों से उसे अपेक्षित सहयोग मिलना तो दूर, इन क्षेत्रों से लगातार क्रूरतापूर्ण और विचलित करने वाली कार्यवाहियों का सामना करना पड़ रहा है। यह बेहद शर्मनाक है कि सामाजिक व सांस्कृतिक-वैचारिक क्षेत्रों के अनेक प्रमुख माने जाने वाले लोग स्वार्थवश राष्ट्र के विरुद्ध लगातार षणयंत्रों में सहभागी बनते प्रतीत हो रहे हैं। ये लोग काफी कुछ अपने उद्देश्यों में सफल हो पा रहे हैं तो इसके पीछे भी प्रमुख कारण यही है कि आज हमारे लोग, विशेषतः पिछले पचास-साठ वर्षों में पैदा हुई पीढ़ी के लोग हमारी मौलिक सांस्कृतिक-वैचारिक दृष्टि और दर्शन के मर्म को समझते नहीं हैं। इस दिशा में व्यापक जन-जागरण की आवश्यकता है। जाने-अनजाने में राजनैतिक-आर्थिक जागरूकता पर देश में कुछ काम हुआ है, कुछ काम सामाजिक जागरूकता पर भी हुआ है लेकिन सांस्कृतिक-वैचारिक जागरूकता पर अपेक्षित सकारात्मक काम नहीं हुआ है। अपितु इस दिशा में नकारात्मक काम कहीं अधिक हुआ है। किसी भी समाज व राष्ट्र का वास्तविक विकास और समृद्धि सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक विकास व समृद्धि का एक संयुक्त पैकेज होता है। जब तक इन सभी पक्षों पर एक साथ सकारात्मक काम नहीं होगा, तब तक हमारे लोग अपनी अखंडता के महत्व की समझ और उसे बनाए रखने की प्रतिबद्धता के साथ संबद्ध नहीं हो पायेंगे। दुर्भाग्य से पूरे देश में इस दिशा में ठोस प्रयासों एवं इच्छा शक्ति का अभाव ही दिखाई देता है।
     यदि हम अपनी आंतरिक कमजोरियों को दूर करने का संकल्प ले सकें, दूसरों के गुप्त सामाजिक, सांस्कृतिक-वैचारिक व राजनैतिक आक्रमणों से सावधान रह पायें और अपनी मौलिक दृष्टि और दर्शन को प्रदूषण से बचाकर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक विकास व समृद्धि के संयुक्त पैकेज पर आधारित विकास और समृद्धि के मंत्र को स्वीकार व क्रियान्वित कर सकें, तो हमारी युगकालीन सामाजिक-राष्ट्रीय आवश्यकताओं को अद्यतन व संपोषित करने की दृष्टि एवं सक्रियता हमें स्वयमेव मिल जायेगी। लेकिन इस तथ्य को जन-जागरण के मंच के रूप में व्यापक स्तर पर हम स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, यह बेहद चिंतनीय स्थिति है। कम से कम राष्ट्रीय विचारधारा के पोषक संगठनों एवं व्यक्तियों के साथ वर्तमान सरकार से भी इस दिशा में ठोस एवं व्यापक पहल करने की अपेक्षा है। 
     हमें यह बात समझ लेनी होगी कि यदि हम अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित नहीं होंगे, उसके प्रति निष्ठावान नहीं होंगे तो हम अपने मानवीय अधिकारों और जीवन की निर्वाधता के लिए आवश्यक न्यूनतम आजादी को भी बचाकर नहीं रख पायेंगे।
  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मोबा. 09458929004

अविराम के अंक

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018



अविराम साहित्यिकी 
(समग्र साहित्य की समकालीन त्रैमासिक पत्रिका)
खंड (वर्ष) :  6 / अंक : 4 / जनवरी-मार्च 2018 (मुद्रित)

प्रधान सम्पादिका :  मध्यमा गुप्ता

अंक सम्पादक :  डॉ. उमेश महादोषी 

सम्पादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन

मुद्रण सहयोगी :  पवन कुमार 


रेखाचित्र : संदीप राशिनकर 




अविराम  साहित्यिकी का यह मुद्रित अंक रचनाकारों व सदस्योंको 14 फ़रवरी 2018  को तथा अन्य सभी सम्बंधित मित्रों-पाठकों को 18 फ़रवरी 2018  तक भेजा जा चुका है।10  मार्च 2018  तक अंक प्राप्त न होने पर सदस्य एवं अंक के रचनाकार अविलम्ब पुनः प्रति भेजने का आग्रह करें। अन्य मित्रों को आग्रह करने पर उनके ई मेल पर पीडीफ़ प्रति भेजी जा सकती है। पत्रिका पूरी तरह अव्यवसायिक है, किसी भी प्रकाशित रचना एवं अन्य सामग्री पर पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है। इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है-


।।सामग्री।।

अनवरत-1 (काव्य रचनाएँ)

सुधा गुप्ता (3)
श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी (4)
संदीप राशिनकर (5)
श्रीराम दवे (6)
प्रतापसिंह सोढ़ी/हितेश व्यास (8)
राजेन्द्र परदेसी/पं. गिरिमोहन गुरु (9)
ब्रह्मजीत गौतम/मुकुट सक्सेना (10)
नरेश कुमार उदास (11)

सरल शताब्दी वर्ष पर विशेष

काव्यांजलि (सरल जी की कविताओं की प्रस्तुति) (12) 
ऐसे थे वे: गड़बड़ नागर (19)

छत्तीसगढ़ में लघुकथा

लोकबाबू/सनत कुमार जैन (20)
बाल कृष्ण गुप्ता ‘गुरु’/अख्तर अली (21)
कृष्णधर शर्मा/उर्मिला आचार्य (22)
महेश राजा/के.पी.सक्सेना ‘दूसरे’ (23)
प्रदीप कुमार शर्मा (24)
शैल चन्द्रा (25)
संतोष श्रीवास्तव ‘सम’/खुदेजा (26)
अशोक चतुर्वेदी/मधु सक्सेना (27)
सुरेश तिवारी/सुषमा झा/ विमल तिवारी (28)
आरती सिंह ‘एकता’/सुधा वर्मा (29)
वर्षा रावल (30)
ममता जैन/करमजीत कौर (31)
रजनी साहू (32)
अमृता जोशी/आलोक कुमार सातपुते (33)
कीर्ति गांधी/पूर्णिमा सरोज (34)
विश्वनाथ देवांगन/बी. प्रकाश मूर्ति (35)
उषा अग्रवाल (36)

विमर्श 

समकालीन लघुकथा: सामान्य अनुशासन/बलराम अग्रवाल (37)

अनवरत-2 (काव्य रचनाएँ)

शालिनी सचिन (46)
रमेश चन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’/उदय करण सुमन/जिया उर रहमान जाफरी (47)
पदमांजलि (48)

कथा प्रवाह (लघुकथाएँ)

स्व. पारस दासोत/भगीरथ (49)
बी. एल. आच्छा (50)
संतोष सुपेकर/निर्देश निधि (51)
रमेश गौतम (52)
मनीषा सक्सेना (53)
कमल कपूर/हेमचन्द्र सकलानी (54)
ज्योत्स्ना कपिल (56)

लोकरंग 

प्रकृति का उल्लास पर्व है वसंत/कृष्ण कुमार यादव (57)

किताबें (समीक्षााएँ)

सकारात्मक चिंतन की रचनात्मक कहानियाँ: प्रतापसिंह सोढ़ी के कहानी संग्रह ‘हम सब गुनहगार हैं’ (61)/सहज-सरल जीवन के लिए संघर्ष की कविताएँ: ख़ुदेजा के कविता संग्रह ‘संगत’ (62) तथा नई पीढ़ी की प्रेमाभिव्यक्ति की कहानियाँ: ज्योत्स्ना ‘कपिल’ के कहानी संग्रह ‘प्यासी नदी बहती रही’ (63) की उमेश महादोषी द्वारा समीक्षाएँ।

स्तम्भ
माइक पर: संपादकीय (आव. 2)/गतिविधियाँ (65)/प्राप्ति स्वीकार (68)/ सूचनाएँ (36, 48, 55, 60 एवं आवरण-3)