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सोमवार, 30 अप्रैल 2018

श्रीकृष्ण 'सरल' जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष सामग्री

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  07-08,  मार्च-अप्रैल 2018 





श्रीकृष्ण 'सरल' स्मरण 


श्रीकृष्ण सरल जी 
{वर्ष 2018 स्वयं को अमर शहीदों का चारण कहने वाले महान तपस्वी राष्ट्रकवि श्रीयुत् श्रीकृष्ण ‘सरल’ का जन्मशताब्दी वर्ष है। 01 जनवरी 1919 को जन्मे सरलजी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, तदापि कहना प्रासंगिक होगा कि महान स्वाधीनता सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद से लेकर अनेकानेक ज्ञात-अज्ञात शहीदों पर शोधकार्य करके महाकाव्यों का सृजन और अपनी जमीन-जायदाद बेचकर स्वयं के व्यय पर उनका प्रकाशन-वितरण करवाने वाले सरलजी का व्यक्तित्व अपने शहीद-प्रेम के कारण अपने समकालीनों में बहुत ऊपर स्थित है। 1965 में अमरशहीद भगतसिंह की पूज्य माताजी श्रीमती विद्यादेवी को उज्जैन लाकर उनका धूमधाम से स्वागत करने वाले सरलजी का यह कथन ‘प्रकाशक लोग पुस्तकें बेचकर जायदाद बनाते हैं, मैंने जायदाद बेचकर पुस्तकें बनाई हैं’ उन्हें राष्ट्रकवियों की प्रथम पंक्ति में लाकर खड़ा करता है। उन्हें स्वाधीनता संग्रामियों का वंशज उचित ही कहा गया है। 

      ऐसे महान साहित्य मनीषी और तपस्वी व्यक्तित्व के जीवन और कर्मगाथा से जुड़े कुछ प्रसंग हम प्रस्तुत स्तम्भ में इस वर्ष में रखने का प्रयास कर रहे हैं। प्रथम कड़ी में प्रस्तुत है-  डॉ. भगीरथ बड़ोले ‘निर्मल’ का आलेख ‘श्री सरल की सुभाष-शोध-यात्रा’। आशा है नई पीढ़ी तक उनकी स्मृतियों की सुगन्ध का एक झोंका अवश्य ही पहुँचाने में हम सफल होंगे। -संतोष सुपेकर, अविराम साहित्यिकी के श्रीकृष्ण ‘सरल’ स्मरण विशेषांक के विशेष संपादक}


भगीरथ बड़ोले ‘निर्मल’




श्री सरल की सुभाष-शोध-यात्रा    

      क्रान्ति और ओज के यशस्वी कवि श्री श्रीकृष्ण सरल का सम्पूर्ण लेखन राष्ट्रीय-सामाजिक चेतना को लेकर आज भी निरंतर गतिशील है। आधुनिक हिन्दी काव्यधारा में राष्ट्रीयता को अभिव्यक्त करने वाले विविध स्वरों के क्रम में श्री श्रीकृष्ण सरल ही एकमात्र ऐसे कवि हैं, जिन्होंने क्रान्तिकारियों के जीवन एवं आदर्शों को ही अपने लेखन का लक्ष्य बनाया है। इस चरित पूजा के पीछे श्री सरल की विराट एवं निश्छल किन्तु संकल्पित हृदय की पूत भावनाएँ ही प्रकट होती हैं। राष्ट्रीयता के प्रति समर्पित क्रान्तिकारी जीवनदर्शन की यह धारा श्री सरल की काव्य-रचना-प्रक्रिया की सहज-स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
      यदि विगत को टटोलें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि क्रान्तिकारियों के प्रति श्री सरल की निष्ठा बचपन से ही अनन्य रही है। अपने बाल्यकाल से ही देश के लिए समर्पित हो जाने वाले क्रान्तिकारियों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने तथा विदेशियों के अनुचित कार्यों का प्रतिकार करने के फलस्वरूप श्री सरल को अनेक कष्ट उठाने पड़े थे। इस आरम्भिक जीवन-काल की कुछ घटनाएँ वस्तुतः उल्लेख्य हैं।
      जब अंग्रेज प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्री शिवराम राजगुरु को गिरफ्तार करके लाहौर ले जा रही थी, तब अशोकनगर स्टेशन पर लोगों की भारी भीड़ जमा थी। किन्तु किसी में इतना साहस नहीं था कि वह अंग्रेजों के इस कार्य का विरोध कर सके। ऐसे समय में वहाँ की बाल-मण्डली के किसी सदस्य ने विचार रखा कि क्या हममें से किसी में इतना साहस है कि वह किसी गोरे को पत्थर का निशाना बना सके? श्री सरल लिखते हैं, ‘‘चुनौती मैंने स्वीकार की और एक बड़ा-सा पत्थर लेकर एक गोरे सैनिक की ओर दे मारा। पत्थर उसकी कनपटी में जाकर लगा और वह तिलमिला गया। पकड़ो-पकड़ो की आवाजें उठ रही थीं और जिधर से रास्ता मिलता, मैं भाग रहा था। आखिर स्टेशन के पोर्टरों ने घेरा डालकर मुझे पकड़ लिया और उन्होंने गोरे सैनिकों के हवाल कर दिया। फिर तो मुझ पर वह मार पड़ी, जिसका कोई हिसाब नहीं। चांटों और घूंसों और बूंटों की ठोकरें भी लगाई गईं। गालों पर उँगलियों के और पैरों पर बूटों के निशान बन चुके थे।’’ यह घटना श्री सरल के प्राथमिक शिक्षण-काल की है। इसी प्रकार हायस्कूल के शिक्षणकाल में श्री सरल ने नगर के पुलिस अधीक्षक की उपस्थिति में अंग्रेजों के प्रति स्पष्ट रूप से प्रतिहिंसा की भावना व्यक्त करने वाली रचना पूरे जोश-खरोश के साथ सुनाई। संघर्ष और दमन के उस काल में चेतावनी मिलने के बाद भी ऐसी रचना सुनाना श्री सरल की निर्भीक क्रान्तिकारी चेतना का ही परिणाम था। शासकीय सेवा में आने के बाद भी यह चेतना उद्बुद्ध ही रही। इस समय श्री सरल ने भूमिगत क्रान्तिकारियों को आवश्यक सहयोग दिया। उनकी सुरक्षा एवं अन्य व्यवस्थाओं के उत्तरदायित्व इन क्रान्तिकारियों के प्रति श्री सरल की कर्तव्य निष्ठा का अटूट प्रमाण है। 
      वस्तुतः क्रान्तिकारी-राष्ट्रीय-चेतना के प्रति श्री सरल के मन और मस्तिष्क में प्रारंभ से ही निष्ठा-भावना रही है। अतः इस समय से अंकुरित इस बीज ने आगे चलकर स्वाभाविक ही वृहद् और व्यापक रूप धारण कर लिया, जिसकी डालियाँ तथा जड़ें निरंतर ही ऊँचाइयों और गहराइयों को छूने लगीं।
      यद्यपि क्रान्तिकारियों अर्थात क्रान्तिकारी-राष्ट्रीय-चेतना के लिए कष्ट उठाने का यह क्रम आज भी विद्यमान है, मात्र संदर्भ ही बदले हैं; तदापि उनकी रचनात्मकता उसी परिमाण में प्रखर से प्रखरतम होती रही है। उनका समस्त संघर्षजीवी सरलतम व्यक्तित्व आज क्रान्ति-नायकों के जीवनादर्शों से ओतप्रोत है। इनकी वंदना को ही अपने जीवन का साध्य मानते हुए श्री सरल ने लिखा भी है-
क्रान्ति के जो देवता मेरे लिए आराध्य,/काव्य साधन मात्र, उनकी वंदना है साध्य।
      वस्तुतः अपने जीवनकाल में क्रान्तिकारियों के प्रत्यक्ष संपर्क में रहने, स्वयं भी क्रान्ति में भाग लेने तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन के साहित्य का आधिकारिक रूप से अध्ययन करने के कारण ही स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात श्री सरल को यह अनुभव हुआ कि जिन्होंने कल्पनातीत दुःख सहते हुए भी क्रान्ति-पथ पर चलकर अपने प्राण न्यौछावर किए- उन सपूतों के प्रति देश के निवासियों में अब पहले जैसा आदरभाव नहीं रहा है और न उन क्रान्तिवीरों की भावना एवं आदर्शों का समाज में अनुकूल सम्मान ही हो सका है। कवि ने इस परिवर्तित परिस्थिति में उन वीरों की वंदना तथा उनके आदर्शों का अनुसरण करने की बात को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया और स्वयं ही समाज के प्रतिनिधि का दायित्व महसूस करते हुए उद्घोषित किया-
‘‘मैं अमर शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ, 
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ।’’
      ये सभी बातें इस तथ्य की परिचायक हैं कि श्री श्रीकृष्ण सरल का कवि-मन अपने सामाजिक दायित्व बोध के प्रति विशेष सजग रहा है। राष्ट्रीयता के उदात्त मूल्यों से अनुप्राणित उनकी समस्त रचनाएँ उस लक्ष्य का साक्ष्य देती हैं कि ‘‘देश के नेतृत्व को आंच और धुआं न लगे।’’
      अद्यावधि श्री श्रीकृष्ण सरल की रचनाओं (पुस्तकों) की संख्या अस्सी (‘क्रान्ति गंगा’ के प्रकाशन तक उसमें दी गई सूची के अनुसार यह संख्या 103 तक पहुँच चुकी थी) के लगभग है। किसी तपस्वी की तरह प्रशंसाभाव की वांछा से मौन, किन्तु कर्तव्य-निष्ठा के निर्वहन की दृष्टि से मुखर श्री सरल की साहित्य-साधना अपने संघर्षशील जीवन में आज भी निरंतर सक्रिय है। यद्यपि प्रारम्भ में उन्होंने भिन्न विषयों पर भी रचनाएँ लिखीं हैं तथापि कुछ समय के उपरान्त उन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए मर-मिटने वाले क्रान्तिकारियों की संघर्ष कथा कहना ही अपने लेखन का प्रमुख लक्ष्य बना लिया। इस पथ पर सरदार भगतसिंह, अजेय सेनानी चन्द्रशेखर आजाद, महारानी अहिल्याबाई, स्वराज्य तिलक, विवेक श्री सरीखे प्रबन्ध काव्यों का प्रणयन हुआ। इनके अतिरिक्त गद्य और पद्य में लिखित अनेक रचनाएँ इन्हीं परिदृश्यों से सम्बन्धित रहीं। यही क्रम सुभाषचन्द्र बोस जैसे महिमामय व्यक्ति के निरूपण की ओर  विशेषतः केन्द्रित हुआ है। संभवतः श्री सरल को ही हिन्दी में सर्वाधिक महाकाव्य लिखने का श्रेय प्राप्त है। हिन्दी में इतने (सात) महाकाव्य लिखने वाला दूसरा लेखक नहीं है।
      नेताजी सुभाषचन्द्र बोस से श्रीकृष्ण सरल का मानसिक लगाव सन् 1941 से ही रहा है। इसी समय नेताजी ने देश की आजादी की खोज में भारत छोड़ा था। नेताजी के संबंध में अध्ययन करने और उन्हें इस माध्यम से अधिकाधिक जानने के बाद यह लगाव निरंतर बढ़ता चला गया। इस पथ पर सरलजी को यह प्रतीत हुआ कि ‘‘भारतीय स्वाधीनता संग्राम के बेजोड़ सेनानी, अप्रतिम योद्धा, निष्काम कर्मयोगी, सन्त राजनीतिज्ञ, निष्कलुष महामानव और भारतमाता के अनन्य भक्त सुभाषचन्द्र बोस के प्रति जनमानस में अपार श्रद्धा तो है, पर न उनके विषय में अभी तक प्रामाणिक रूप से बहुत कुछ लिखा गया है और न उनकी सेवाओं का सही मूल्यांकन हुआ है।’’
      अस्तु, एक ओर नेताजी के चारित्रिक गुण, दूसरी ओर उनके वीरता के कर्म और तीसरी ओर इन दोनों बातों के मूल्यांकन का अभाव देखकर श्री सरल ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को अपने साहित्य का चरित नायक बना लिया। इसीलिए जब नेताजी और आजाद हिन्द सेना की वीरता के समाचार देश को झकझोर रहे थे, श्री सरल ने उन पर समग्र और प्रामाणिक रूप से लिखने का संकल्प ले लिया। 
      मैंने जब श्री सरल से पूछा कि आप सभी क्रान्तिकारियों के प्रति समान रूप से निष्ठावान रहे हैं, फिर क्या कारण है कि आपने सुभाषचन्द्र बोस पर ही सबसे अधिक लिखा है। तब सरलजी ने बताया कि सभी क्रान्तिकारियों में तुलनात्मक रूप से सुभाष का चरित्र, चिंतन तथा कर्म ही अधिक व्यवस्थित एंव ठोस है। आजादी की प्राप्ति की दिशा में सर्वाधिक सक्रिय एवं प्रत्यक्ष प्रयत्न सुभाषचंद्र बोस का ही रहा है और अपने इन्हीं वास्तविक एवं व्यापक प्रयत्नों के परिणामस्वरूप सुभाषचंद्र सफलता के अत्यंत निकट पहुँच गए थे। श्री सरल का यह कहना उचित ही है कि कोई भी देश बिना सैन्य सहायता के स्वाधीन नहीं हो सका है। अन्य क्रान्तिकारियों ने इस दिशा में अपने आपको होम कर दिया पर सैन्य संगठन तथा उसके माध्यम से प्रयत्नों को वृहद् आकार देने के प्रयत्न नहीं किए, जबकि सुभाष ने सही रास्ता चुना। अतः देश को स्वतंत्र करने में उनका योगदान अधिक महत्वपूर्ण है।
      इसीलिए सुभाष श्री सरल की दृष्टि में अन्य क्रान्तिकारियों की अपेक्षा प्रमुख बने हुए हैं और ऐसे चरित्र पर लगभग एक दर्जन ग्रन्थ लिखने का संकल्प लेने वाले इस साधक ने अभी तक दस-ग्यारह ग्रन्थ सम्पूर्ण कर लिए हैं, शेष लेखन प्रक्रिया के अधीन हैं।
      यहाँ नेताजी पर लिखित इन प्रकाशित रचनाओं का परिचय देना समीचीन होगा। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पर श्री सरल की प्रथम रचना ‘‘नेताजी सुभाष दर्शन’ है। इसमें नेताजी के जीवन से सम्बन्धित विभिन्न अवसरों की चित्रमय झाँकी तथा गद्य में उन सन्दर्भों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। ‘‘राष्ट्रपति सुभाषचन्द्र बोस’’ तथा ‘‘नेताजी सुभाष जर्मनी में’’ 23 जनवरी 1964 को प्रकाशित गद्य में रचित उनकी दूसरी व तीसरी कृतियाँ हैं। 15 अगस्त 1974 में प्रकाशित ‘‘सुभाषचन्द्र’’ श्री सरल की अतुकान्त काव्य में लिखित चौथी कृति है, जिसमें कवि ने नेताजी के चारित्रिक गुणों को भारतवर्ष के महापुरुषों के समकक्ष ही नहीं रखा, अपितु उसे देश की सांस्कृतिक धारा से अविच्छिन्न देखा है। श्री सरल की पाँचवीं कृति ‘‘सेनाध्यक्ष सुभाष और आजाद हिन्द संगठन’’ है, जो 2 अक्टूबर 1974 को प्रकाशित हुई है। इस वृहद कृति में रचनाकार ने क्रान्तिकारी आन्दोलन और उसमें सुभाष की भूमिका के समस्त महत्वपूर्ण पक्षों को बड़े विस्तार के साथ व्यक्त किया है। ‘नेताजी के सपनों का भारत’ 23 जनवरी 1976 को प्रकाशित श्री सरल की छठी कृति है, जिसमें नेताजी के चिंतक स्वरूप को अधिकाधिक स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है। सातवीं कृति ‘जयहिन्द’ नेताजी के जीवन पर लिखा गया उपन्यास है, जिसे लेखक ने ‘‘सत्य ऐतिहासिक घटनाओं का औपन्यासिक रूपांतर’’ कहा है। ‘‘जय सुभाष’’ नेताजी पर लिखित श्री सरल की आठवीं कृति है, जिसकी रचना-प्रक्रिया महाकाव्यात्मक निकष पर खरी उतरती है। इस कृति के सन्दर्भ में आजाद हिन्द के कर्नल गुरुवक्षसिंह ढिल्लन का यह कथन सर्वथा उचित है कि ‘‘हिन्दी का यह महाकाव्य ‘जय सुभाष’ एक महाकाव्य होने के अतिरिक्त नेताजी सुभाष का एक स्मारक भी सिद्ध होगा। जहाँ यह एक महाकाव्य है, वहीं इसमें उपन्यास की रोचकता, कहानी की क्षिप्रता और इतिहास की प्रामाणिकता भी है। हम इसे आजाद हिन्द आन्दोलन की घटनाओं के दस्तावेज के रूप में भी प्रस्तुत कर सकते हैं। निश्चित रूप से ये समस्त रचनाएँ सुभाष-शोध-यात्रा का परिणाम कही जा सकती हैं। कालजयी सुभाष 1984 ई. में प्रकाशित जीवनपरक गौरव ग्रंथ है।
      यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि श्री सरल ने जिन क्रान्तिकारियों पर अपनी लेखनी चलाई है, उनसे संबंधित घटनाएँ एवं उनका चिंतन मात्र प्रचलित इतिहास ग्रन्थों के बलबूते अंतिम रूप नहीं पा सका है। इतिहास की रचना का क्षेत्र निरंतर शोध का क्षेत्र है। इससे रहित मात्र उसका परंपरागत आकार रचना के विशिष्ट मूल्यों को उद्घाटित नहीं कर सकता। सुभाष के जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करने से पूर्व श्री सरल ने भगतसिंह और आजाद पर लिखे महाकाव्यों की कथा की निर्मिति में अपनी इसी शोध दृष्टि का परिचय दिया है। सुभाषचन्द्र बोस पर लिखते समय उनकी इसी शोध-दृष्टि के विकसित आयाम दृष्टिगोचर होते हैं। श्री सरल ने ‘नेताजी सुभाष दर्शन’ में इसी बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है- ‘‘मेरा यह नियम है कि मैं जिस चरित नायक पर लिखता हूँ, उससे संबंधित सभी क्षेत्रों को अपनी आँखों से देखता हूँ तथा उससे संबंधित व्यक्तियों से मिलकर जानकारी प्राप्त करता हूँ।’’ अपनी इस प्रक्रिया की उपयोगिता को स्पष्ट करते हुए ‘‘जय सुभाष’’ महाकाव्य में श्री सरल का कथन है- ‘‘आजाद हिन्द आन्दोलन से संबंधित भू-भागों का भ्रमण करने से निश्चित ही लेखन पर गहरा प्रभाव पड़ा है।... लगभग तीस वर्षों से आजाद हिन्द आन्दोलन का अध्ययन करते रहने और उससे संबंधित व्यक्तियों से निकट सम्पर्क में रहने के कारण घटनाओं और सिद्धांतों को सही परिप्रेक्ष्य में निरूपित किया जा सका है।’’
      वस्तुतः प्रचलित परंपरागत इतिहास ग्रंथों के अँधेरे में खोये ‘‘सत्य’’ की तलाश के लिए ही श्री सरल यात्रा-रत हुए हैं और इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं होता कि प्रचलित सत्यों की अपेक्षा श्री सरल की शोध-यात्रा से प्राप्त सत्य कहीं अधिक व्यापक तथा गहरे हैं। यदि वे ये यात्राएँ नहीं करते, तो निश्चित ही इन चरित्रों के साथ संपूर्णतः न्याय नहीं कर पाते और एक फरेब से पूर्ण रचनाधर्मिता का स्वरूप ही सामने आता। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। इन यात्राओं से उपलब्ध नये तथ्यों के प्रकटीकरण ने क्रांतिकारी चरित्र को विस्तृति में निरूपित किया तथा अभिव्यक्ति को प्रामाणिकता के साथ ही जीवंत सार्थकता देने का समर्थ प्रयास किया है।
      नेताजी सुभाष बोस पर लेखन के लिए की गई यात्राओं में श्री सरल को विविध प्रकार के अनेकानेक कष्ट उठाने पड़े हैं। इनमें से कुछ कष्टों के सन्दर्भ उनकी पुस्तकों में बिखरे हुए हैं, जबकि कई कष्टों की गाथा अनकही ही रह गई है। उन्होंने एक स्थान पर लिखा भी है- ‘‘जो कुछ मुझ पर बीती है, उसकी पूरी कहानी मैं अभी नहीं लिख रहा हूँ। जब समय आयेगा तो अन्य बातें भी प्रकाश में आ जायेंगी।’’
      इन पंक्तियों को पढ़कर स्वाभाविक ही बहुत कुछ जानने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। उनसे मिलने पर उन्होंने जो कुछ भी बताया, वह चौंकाने के लिए पर्याप्त था। उसमें सुख-दुःख के अनेक सन्दर्भ आपस में गुंथे हुए मिले।
      श्री सरल ने सुभाष-शोध-यात्रा के अंतर्गत भारत के विविध नगरों अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह, बर्मा, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैण्ड, हाँगकाँग, जापान, फारमोसा, पाकिस्तान, नेपाल आदि देशों की यात्राएँ अपने निजी खर्च से की हैं। इन यात्राओं को महत्व देने के क्रम में उन्होंने बताया कि यात्राओं से नये तथ्य मिलते हैं और संबंधित स्थानों पर जाने से मन काल के परिवेश में रहकर भी उससे मुक्ति का अहसास करता हुआ कई प्रकार के प्रभावों को ग्रहण कर लेता है, जिससे लेखन निश्चित ही प्रभावित होता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए श्री सरल ने लिखा भी है- ‘‘मन में महत्वाकाँक्षा जागी- क्या ही अच्छा हो, यदि मैं विदेशों के उन सभी स्थलों के दर्शन कर सकूँ, जहाँ-जहाँ नेताजी के चरण पड़े हैं और शहीदों का खून गिरा है। मन ने सोचा यदि ऐसा नहीं हुआ तो लेखन में जान नहीं आयेगी। और विचार ने संकल्प का रूप ले लिया।’’
      यह सत्य है कि श्री सरल की आर्थिक स्थिति कभी भी संपन्नता से परिपूर्ण नहीं रही। कई बार उन्हें अपने घर का पूरा सामान क्रान्ति-साहित्य-देवता की पूजा के लिए बेच देना पड़ा, तो कई बार और भी अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़े। यद्यपि श्री सरल विदेश-यात्राओं में होने वाले व्यय से अपरिचित नहीं थे, तथापि अपनी दृढ़ संकल्प-शक्ति के बल बूते ही उन्होंने विपरीत परिस्थितियों से सामना किया और उनमें ही अनुकूलताओं की रचना की।
      यात्राओं का संकल्प लेने के बाद श्री सरल ने उन्हें संपादित करने का उद्योग किया। प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय महत्व के कई महानुभाव उनके परिचित थे- घनिष्ट परिचित तथा अच्छे पदों पर आसीन भी थे। सरलजी को विश्वास था कि ये लोग इस दिशा में उन्हें अवश्य ही सहयोग देंगे। इसीलिए उन्होंने उन तमाम सज्जनों को अपने लक्ष्य से परिचित कराया। किन्तु इन ‘समर्थ लोगों’ ने किसी भी प्रकार सहायता देने की अपेक्षा उनके अटूट विश्वास का ही ध्वंस किया। यदि ये लोग वस्तुतः सरलजी को सहयोग देते, तो सरलजी के लिए ये यात्राएँ सुगम हो जातीं।
      अंत में इन सबसे निराश होकर श्री सरल ने स्वाभिमान को महत्व देते हुए अपनी स्थिति के विरुद्ध एक दूसरा ही निर्णय लिया। उन्होंने अपना खेत और मकान बेच दिया, बहुत प्यार से सहेजी हुई घर की कई वस्तुएँ बेच दीं, शहीदों की चित्रावलियाँ बेचीं, जगह-जगह कविता-पाठ किये और यात्राओं के लिए आर्थिक अनुकूलताएँ अर्जित कीं। उन्होंने लिखा भी है- ‘‘इतनी बड़ी और व्यय साध्य यात्रा मैंने किसी शासन या किसी संस्था की कृपा से नहीं, अपने श्रम और स्वावलंबन के आधार पर ही संपन्न की। दान या अनुदान स्वीकार करना मेरे जीवन की पद्धति नहीं है। मैं अपनी कलम से और हाथ-पैरों से मजदूरी कर सकता हूँ और वह मैंने की है।
      यह सिद्ध बात है कि यदि मनुष्य में संकल्प-शक्ति दृढ़ हो तो कड़ी परीक्षा के बाद सब-कुछ अनुकूल हो जाता है। उस समय यानी सन् 1970 में जापान में विश्व-मेला आयोजित हुआ था। इस मेले के कारण कुछ हवाई कम्पनियों ने रियायती मूल्य पर टिकिट जारी किए थे। श्री सरल ने इस अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया। परिणाम यह हुआ कि सीमित धन-राशि से उन्होंने वांछित यात्राएँ पूर्ण कीं।
      विदेश यात्राओं की तैयारी के अन्तर्गत पासपोर्ट आदि की व्यवस्था के क्रम में जिस व्यक्ति ने अभूतपूर्व सहयोग दिया वे थे न्यायाधीश श्री मुरारीलाल तिवारी। इनके सक्रिय सहयोग के कारण श्री सरल की यात्राएँ अत्यंत सहज हो गईं, अन्यथा पासपोर्ट प्राप्त करने की प्रक्रिया अपनी दिखावटी ‘नियमबद्धता’ के कारण कई बार इतनी जटिल हो जाती है कि व्यक्ति को अपना यात्रा-कार्यक्रम ही रद्द करना पड़ता है। श्री सरल के दूसरे महत्वपूर्ण तथा प्रमुख सहयोगी रहे श्री एस.ए. अय्यर। श्री अय्यर ‘आजाद हिन्द सेना’ के मंत्रिमण्डल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रह चुके हैं। इन्होंने श्री सरल को विदेशों में स्थित अपने सहयोगियों के पते ही नहीं दिये, अपितु उन सबके नाम सहयोग देने के लिए एक खुला पत्र भी दे दिया। इस पत्र से श्री सरल की ‘शोध-यात्रा’ अत्यंत सुगम हो गई। इसके कारण ही अनेक लोगों ने कभी-कभी नियम के विरुद्ध जाकर भी अपेक्षित सहयोग किया। फिर तो एक कड़ी से दूसरी कड़ी जुड़ती चली गई और श्री सरल वांछित ध्येय को प्राप्त करने में सफल होते गये।
      यात्रा की आरम्भिक तैयारी में यह सिक्के का एक पहलू है। इसका दूसरा पहलू परेशानियों की सर्जना करता रहा। यात्रा प्रारम्भ करने से पंद्रह दिन पूर्व श्री सरल भयंकर बस दुर्घटना के शिकार हो गए। चोटें गम्भीर थीं और चिकित्सकों ने विदेश तो क्या नगर से बाहर जाने से मना कर दिया। किन्तु श्री सरल का निश्चय अटल था। वे अपने मन में वर्षों से संजोयी और दबी हुई साध को कैसे टूट जाने देते? उन्होंने किसी का अनुशासन नहीं माना और निश्चित तिथि पर निर्भीकता के साथ यात्रा के लिए चल पड़े।
      यात्रा के पूर्व स्वास्थ्य संबंधी अनुकूल रिपोर्ट्स के लिए भी उन्हें कुछ दिक्कतें उठानी पड़ीं। चूँकि भारतवर्ष में कुछ ‘लेनदेन’ कर देने पर सारे ही काम सुगमता से हो जाते हैं, अतः इसी ‘सुनिश्चित’ प्रक्रिया द्वारा श्री सरल ने इस दिक्कत को भी दूर कर ही लिया और कलकत्ता से प्रारंभ की गई इस यात्रा का पड़ाव था अण्डमान निकोबार द्वीप समूह।
      यात्रा के इस पड़ाव को प्रथम महत्व देने का कारण श्री सरल ने यह बताया था कि सुभाषचन्द्र बोस ने स्वाधीन साम्राज्य का प्रारम्भ यहीं से किया था तथा इन्हीं द्वीप-समूहों को सर्वप्रथम नागरिक प्रशासन प्राप्त हुआ था। अतः स्वाधीन भारत के इस क्षेत्र को प्रमुख एवं प्रथम तीर्थस्थल माना जा सकता है।
      इसी क्रम में संबंधित कुछ प्रश्न पूछने पर श्री सरल ने बताया कि भारत सरकार ने उनके इस अनुष्ठान में न तो कोई सहयोग दिया, न कोई रुकावट ही डाली। वैसे काफी देर तक बार-बार पूछने पर उन्होंने यह अवश्य स्वीकार किया कि विदेशों में खर्च करने के लिए उन्हें विदेशी मुद्रा की आवश्यकता थी, किन्तु प्रयत्न करने के बाद भी रिजर्व बैंक ने उन्हें विदेशी मुद्रा नहीं दी। यह एक महत्वपूर्ण कठिनाई थी। जब मैंने उनसे पूछा कि ऐसी स्थिति में उन्होंने विदेशों में होने वाले खर्च को कैसे पूरा किया, तब सरलजी ने बताया कि यात्रा के टिकिट तो उन्हें भारतीय मुद्रा देने पर भारत में ही उपलब्ध हो गए थे। रही बात राह-खर्च की, तो श्री सुभाषचंद्र बोस का नाम और श्री अय्यर का पत्र- दोनों ही इस दिशा में अनुकूलताएँ सृजित करते रहे। इस सन्दर्भ में मेरी जिज्ञासा का समाधान प्रस्तुत करते हुए श्री सरल ने कहा कि विदेशों में जगह-जगह ‘आजाद हिन्द फौज’ के अनेक सैनिक- जो वहाँ तब छोड़ दिए गए थे- स्थायी रूप से बस गए हैं। इन्हीं लोगों ने उनकी तरह-तरह से सहायता की है। जब जहाज आसमान में 4000-5000 फीट की ऊँचाई पर उड़ता था, तब सरलजी उपस्थित यात्रियों को अपनी रचनाएँ सुनाते थे, जिसके बदले उन्हें पारिश्रमिक मिल जाता था। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी श्रम करके पारिश्रमिक अर्जित किया था। इसी पारिश्रमिक से बहुत सारे खर्च पूरे हो जाते थे। सरलजी के लिए इस प्रकार की अन्यान्य व्यवस्थाएँ नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सैनिकों एवं प्रशंसकों ने जगह-जगह कर दी थी। अतः इससे उनकी बहुत-सी दिक्कतें कम हो गई। यह स्थिति लगभग हर देश में उन्हें अपेक्षित सहयोग देती रही, जिसके कारण सरलजी अपने लक्ष्य को पाने में सफल रहे। अपनी यात्राओं के विविध अनुभवों का उन्होंने अपनी पुस्तक ‘सुभाषचंद्र’ के लेखकीय कथन में बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है।
      इस क्रम में अण्डमान-निकोबार में घटित एक प्रसंग विशेष रूप में उल्लेखनीय है। श्री सरल ने कलकत्ता से पोर्टब्लेयर तक की यात्रा जलयान से की थी। उनके ही केबिन में एक आयकर अधिकारी भी थे। श्री अय्यर के पत्र के प्रभाव से श्री सरल की निवास व्यवस्था एवं अन्य प्रबंध समय के पूर्व ही हो जाते थे। पोर्टब्लेयर पर जहाज के रुकते ही वहाँ के एक विशेष अधिकारी ने श्री सरल को इन व्यवस्थाओं की जानकारी देते हुए जहाज खाली होने तक जहाज में ही रुककर प्रतीक्षा करने को कहा। किन्तु पूरे जहाज के खाली हो जाने और अधिक समय बीत जाने पर भी जब वह विशेष अधिकारी सरलजी को लेने नहीं आया, तब सरलजी अकेले ही बाहर निकलकर उस निर्दिष्ट होटल की ओर रवाना हो गए, जहाँ पोर्ट के अधिकारी ने उनके ठहरने की व्यवस्था की थी। होटल पहुँचने पर जब श्री सरल ने अपना परिचय देते हुए पोर्ट के अधिकारी द्वारा की गयी व्यवस्था का उल्लेख किया, तो मैनेजर एकाएक क्रोधित हो गया। उसने श्री सरल को धोखेबाज तथा अन्य समानार्थी विशेषणों से संबोधित करते हुए अपमानित किया तथा बताया कि श्री सरल तो वहाँ पहले ही आ चुके हैं। यह जानकर सरलजी विस्मित हो गए। उन्होंने बड़ी मुश्किल से उस होटल के मैनेजर का क्रोध शांत करते हुए संबंधित विशेष अधिकारी से फोन पर बात करने की अनुमति चाही। श्री सरल से वस्तुस्थिति जानकर वह विशेष अधिकारी तुरंत होटल आया और मैनेजर को आश्वस्त किया कि ये ही वास्तविक ‘‘सरल’’ हैं। तब सहज ही जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि वह व्यक्ति कौन है जो श्री सरल का नाम ओढ़कर होटल में ठहर चुका है। वस्तुतः वह वही आयकर अधिकारी था। उसने पोर्ट पर विशेष अधिकारी और सरलजी का वार्तालाप सुन लिया था। जब विशेष अधिकारी ने जहाज खाली होने पर अपने एक सहयोगी को सरलजी का स्वागत करने भेजा तो अपरिचय का लाभ उठाते हुए वह आयकर अधिकारी स्वयं ‘सरल’ बनकर उनके साथ हो लिया। स्थिति स्पष्ट हो जाने पर वह आयकर अधिकारी खूब लज्जित हुआ और उसने क्षमा भी माँगी। इतना सब होने पर भी श्री सरल ने न केवल उस व्यक्ति को जेल जाने से बचाया, अपितु उसकी सम्मान-रक्षा करते हुए अपने साथ ही ठहराया। यह घटना श्री सरल की विशाल हृदयता को व्यक्त करती है, जो नेताजी के चरित्र का प्रमुख गुण था। इसी क्रम में रंगून में उनके साथ किया गया अप्रत्यासित व्यवहार तथा हाँगकाँग में मृत्यु के जाल में घिरकर सही-सलामत बाहर निकल आने का विशिष्ट अनुभव उनकी पुस्तक ‘‘सुभाषचंद्र’’ में अंकित है, जिन्हें पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाना स्वाभाविक है।
      अपनी इस शोध-यात्रा में श्री सरल वर्मा में वांछित जानकारी एकत्रित नहीं कर सके, न वहाँ के स्थान आदि देख सके, किन्तु शेष सभी देशों में उन्हें वहाँ के लोगों का पर्याप्त सहयोग मिला। उनसे जर्मनी भी जाना संभव नहीं हुआ। किन्तु सन् 1970 में जापान में आयोजित विश्वमेले में जर्मन स्टॉल के सांस्कृतिक अधिकारियों ने उनकी यथेष्ट सहायता कर उन्हें वांछित तथ्यों से अवगत करा दिया।
      इन सभी देशों की यात्राएँ करते समय वहाँ रहने वाले भारतीयों तथा ‘आजाद हिन्द सेना’ के सैनिकों से श्री सरल को भरपूर सहयोग मिला। उन लोगों ने न केवल उनके ठहरने और खाने की व्यवस्था में सहयोग दिया बल्कि तथ्यों को एकत्रित करने और उनको निर्दिष्ट स्थानों पर घुमाने में भी अपनी सक्रियता बताई। विशेषकर थाईलैण्ड में सरदार प्यारासिंह तथा सरदार जोगेन्द्रसिंह के सहयोग को सरलजी कभी विस्मृत नहीं कर सकते। ऐसे अन्य सहयोगी श्री सरल के आत्मीय बन चुके हैं।
      इस पूरी यात्रा में 40-50 हजार रुपये खर्च हुए हैं, किन्तु श्री सरल को इस बात का संन्तोष रहा कि सुभाष के जीवन से संबंधित घटनाएँ जहाँ-जहाँ घटित हुईं, उनमें से अधिकांश क्षेत्रों को उन्होंने अपनी आँखों से देखा है अपने मन में पूरी जीवंतता के साथ अनुभव किया है।
      बातचीत के क्रम में मैंने सरलजी से पूछा कि इस सन्दर्भ में उन्होंने भारत में कहाँ-कहाँ शोध-यात्राएँ कीं तथा विदेशों की अपेक्षा भारत में उन्हें कितनी अनुकूलताओं-प्रतिकूलताओं का अनुभव हुआ, तो श्री सरल ने बताया कि भारत में वे दिल्ली, कलकत्ता, गोंदिया, अमरावती, सूरत आदि स्थानों पर शोध के उद्देश्य से गये, पर हर जगह उन्हें भ्रष्टाचार ही अपनी चरम सीमा पर देखने को मिला। भारत में कई स्थानों पर सामग्री एवं चित्रों के संकलन में उन्हें पर्याप्त धनराशि खर्च करनी पड़ी। न तो शासन ने सहयोग दिया, न संस्थाओं ने, न किसी व्यक्ति ने। वे नेताजी के रिश्तेदारों से भी मिले, पर ऐसी हर जगह उन्हें असहयोग ही मिला है। इस प्रकार सुभाषचन्द्र बोस के जीवन-क्रम से संबंधित शोध-यात्रा में सरलजी को मनुष्य के कई रूपों का परिचय मिला है तथा देश और विदेशों में कई कटु-मधुर अनुभव हुए हैं। समय तो बीत गया, पर अभी भी उन भोगे हुए क्षणों की छाया श्री सरल के स्मृति-पट पर छाई हुई है। 
      मेरे अगले प्रश्न सुभाषचंद्र बोस पर श्री सरल के लेखन, प्रकाशन एवं विक्रय की स्थिति से संबंधित थे। मैंने इस सन्दर्भ में भी उनसे जानना चाहा।
      श्री सरल के सामने आर्थिक अभाव तो प्रारंभ से ही थे, अतः जैसे-तैसे यात्राएँ पूरी कीं। पर इस पथ की कठिनाइयाँ अभी समाप्त नहीं हुईं थीं। आर्थिक अभाव ने लेखन और कृतियों के प्रकाशन पर भी पर्याप्त प्रभाव डाला है। जिस प्रकार श्री सरल ने अपनी यात्राएँ निजी खर्च से संपन्न कीं हैं, उसी प्रकार कृतियों के प्रकाशन में भी उन्हें किसी तरह से पूँजी एकत्रित कर खर्च करनी पड़ी। प्रारंभ में उन्होंने कई प्रकाशकों से संपर्क साधा, किन्तु किसी ने भी श्री सरल का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। वे यह जान गए थे कि घटिया और गन्दे साहित्य के लेखकों को जितनी सहजता के साथ प्रकाशक मिल जाते हैं, उतनी सहजता से युग-निर्माणकारी ठोस एवं शाश्वत साहित्य के रचनाकारों को नहीं मिलते। इससे पूरा युग ही भ्रांत अवधारणाओं में डूबता-उतराता रहता है। क्रांतिकारी विचार-दर्शन को स्वीकारने वाले सरलजी भला इस स्थिति को कैसे स्वीकारते? परिणाम यह हुआ कि अपना घर, घर का सामान, पत्नी के आभूषण एवं अपने तथा बच्चों के कपड़े तक बेचकर उन्होंने स्वयं ही अपनी पुस्तकों का प्रकाशन किया है।
     इसी प्रसंग में एक घटना का वर्णन करते हुए श्री सरल ने बताया कि एक प्रसिद्ध नगर की संस्था ने जन-सहयोग से उनकी एक कृति प्रकाशित करने का प्रस्ताव पारित किया। किन्तु पुस्तक प्रकाशित हो जाने के बाद उन लोगों ने एकत्रित राशि आपस में बाँट ली तथा प्रकाशन का व्यय देने से इंकार कर दिया। यही नहीं, झूठे आश्वासनों द्वारा उन्होंने पुस्तक की एक हजार प्रतियाँ भी निःशुल्क हथिया लीं। इस प्रकार ऐसी प्रवृत्ति वाले कितने ही लोगों ने अलग-अलग दिशाओं से श्री सरल की सरलता का अवैध लाभ उठाया है, जिससे सरलजी को कई बार संकटों में जूझना पड़ा।
      वस्तुतः क्रांतिकारी लेखनरत रचनाकारों को समय-समय पर अपना सब-कुछ बेचकर लेखन की कीमत चुकानी पड़ती है। फिर भी सरलजी को इस बात का संतोष रहा कि प्रकाशन-व्यवस्था में चाहे सब कुछ बिक गया हो, पर ईमान अर्थात रचनाजीवी-धर्म नहीं बिक सका। वह जीवित, जागृत तथा प्रबुद्ध रहा। वस्तुतः श्री सरल ने जो भी राष्ट्रीय लेखन किया है, उसकी पूरी-पूरी कीमत चुकाई है।
     जिस प्रकार प्रकाशन के क्रम में सरलजी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उसी प्रकार उन प्रकाशनों के विक्रय में भी उन्होंने कई कठिनाइयों को सहा है। अनेक साहित्यिक मित्रों ने श्री सरल की स्थिति को जानने के बाद भी उनकी पुस्तकें निःशुल्क प्राप्त करनी चाही और अपने स्वभावगत संकोच के कारण सरलजी को उन्हें वे देनी ही पड़ीं। अनेक विक्रेताओं ने पुस्तकें बेचने के बाद भी श्री सरल को उनका मूल्य नहीं चुकाया। श्री सरल ने अपनी शेष पुस्तकें स्वयं ही फेरी लगाकर बेची हैं।
      प्रकाशन एवं विक्रय के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों ने कई बार श्री सरल को निराश भी कर दिया। कदाचित् निराशा के ऐसे ही क्षणों में श्री सरल ने अनुभव किया- ‘‘यह युग केवल जिन्दा रहने का युग है, कुछ अच्छा काम करने का नहीं। दम तोड़ देने वाली महँगाई, अज्ञानता के युग में ले जाने वाला कागज का अकाल- ये सब हालात न तो लेखकों को ही प्रेरणा दे सकते और न पाठकों को। लोग पुस्तकें खरीदें, यह आशा करना मूर्खता है और इससे बड़ी मूर्खता है इतने बड़े-बड़े पोथे लिखना। फिर भी मैं इस महामूर्खता के लिए प्रतिबद्ध हूँ। इतना साहित्य लिख डाला है और घर में इतना साहित्य निकल आएगा कि मृत्यु के उपरान्त यदि ईंधन उपलब्ध न हो सका तो फूँक देने के लिए साहित्य ही काफी होगा।’’
      मैंने अंत में पुनः श्री सरलजी के सम्मुख शासकीय सहयोग से संबंधित प्रश्न दोहराया, तब उन्होंने बताया कि पुस्तकों को खरीदने में शासन का रुख सदैव ही प्रतिकूल रहा है, पर सरकार का उनके साथ इतना ही सहयोग यथेष्ट था कि शासकीय सेवा में रहने के बाद भी शासन की अनुमति लिए बिना उन्होंने अपनी पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन किया है, जिसके संबंध में शासन ने उनसे कभी कुछ नहीं पूछा और दूसरा सहयोग यह रहा कि अंत तक उनकी नौकरी यथावत बनी रही। उस पर कोई आँच नहीं आई।
      वस्तुतः संघर्षजीवी सरलजी की ये सुभाष-शोध-यात्राएँ संघर्षमय ही रहीं। इन यात्राओं में नैरंतर्य और अनुकूलताएँ रचने के लिए श्री सरल को बहुत श्रम और त्याग करना पड़ा, बहुत कुछ सहना और पीना पड़ा है। किन्तु अपनी अटूट संकल्पशक्ति तथा अपरिमित स्थितियों के विष को पीते रहे और नेताजी के जीवन में सक्रिय नवीन उद्घाटन में समर्थ हो सके। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्री सरल ने अपनी रचनाधर्मिता को  संपूर्ण दायित्वों के साथ सजगता से निवाहा है। उनकी क्रान्तिकारियों के प्रति अनन्य निष्ठा तथा लेखकीय दायित्व के प्रति प्रबुद्ध दृष्टि निश्चय ही स्तुत्य है, अभिवंदनीय है। (‘राष्ट्रकवि सरल स्मारिका’ से साभार) 

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