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रविवार, 2 फ़रवरी 2014

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग : वर्ष  :  03,  अंक  : 03-04,  नवम्बर-दिसम्बर 2013

।।कथा प्रवाह।।


सामग्री :  इस अंक में सु-श्री चित्रा मुद्गल, (स्व.) श्री रमेश बत्तरा, सु-श्री उर्मिकृष्ण, सर्व-श्री असगर वजाहत, युगल, सतीश राठी, हरनाम शर्मा व डॉ. हरदीप कौर संधू की लघुकथाएँ।


लघुकथाएँ जीवन मूल्यों की

{हाल ही वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुकेश साहनी एवं श्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी ने संयुक्त रूप से लघुकथा संकलन ‘‘लघुकथाएँ जीवन मूल्यों की’’ का संपादन किया है। संकलन में 80 लघुकथाकारों की लघुकथाएँ संकलित हैं। इस संकलन से प्रस्तुत हैं सु-श्री चित्रा मुद्गल, (स्व.) श्री रमेश बत्तरा, सु-श्री उर्मिकृष्ण, सर्व-श्री असगर वजाहत, युगल, सतीश राठी, हरनाम शर्मा व डॉ. हरदीप कौर संधू की लघुकथाएँ।}

चित्रा मुद्गल




बोहनी
     उस पुल पर से गुजरते हुए कुछ आदत-सी हो गई। छुट्टे पैसों में से हाथ में जो भी सबसे छोटा सिक्का आता, उस अपंग बौने भिखारी के बिछे हुए अँगोछे पर उछाल देती। आठ बीस की बी.टी. लोकल मुझे पकड़नी होती और हड़बड़ाहट में ही रहती, मगर हाथ यंत्रवत् अपना काम कर जाता। दुआएँ उसके मुँह से रिरियाती-सी झरतीं, आठ-दस डग पीछा करतीं।
     उस रोज इत्तिफ़ाक से पर्स टटोलने के बाद भी कोई सिक्का हाथ न लगा। मैं ट्रेन पकड़ने की जल्दबाजी में बिना भीख दिए गुज़र गई।
    दूसरे दिन छुट्टे थे, मगर एक लापरवाही का भाव उभरा, रोज ही तो देती हूँ। फिर कोई जबरदस्ती तो है नहीं! और बगैर दिए ही निकल गई।
    तीसरे दिन भी वही हुआ। उसके बिछे हुए अँगोछे के करीब से गुजर रही थी कि पीछे से उसकी गिड़गिड़ाती पुकार ने ठिठका दिया- ‘‘माँ, मेरी माँ पैसा नई दिया ना? दस पैसा फ़कत।’’
   ट्रेन छूट जाने के अंदेशे ने ठहरने नहीं दिया, किंतु उस दिन शायद उसने भी तय कर लिया था कि वह बगैर
रेखा चित्र : के. रविन्द्र 
पैसे लिए मुझे जाने नहीं देगा। उसने दुबारा ऊँची आवाज में मुझे संबोधित कर पुकार लगाई। एकाएक मैं खीज़ उठी। भला यह क्या बदतमीजी है? लगातार पुकारे जा रहा है, ‘‘माँ, मेरी माँ’’। मैं पलटी और बिफरती हुई बरसी, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो, तुम्हारी देनदार हूँ क्या?’’

    ‘‘नई, मेरी माँ!’’ वह दयनीय हो रिरियाया, ‘‘तुम देता तो सब देता, तुम नई देता तो कोई नई देता, तुम्हारे हाथ से बोनी होता तो पेट भरने भर को मिल जाता, तीन दिन से तुम नई दिया माँ, भुक्का है, मेरी माँ!’’
    ‘‘भीख में भी बोहनी। सहसा गुस्सा भरभरा गया। करुण दृष्टि से उसे देखा, फिर एक रुपए का एक सिक्का आहिस्ता से उसके अँगोछे पर उछालकर दुआओं से नख-शिख भीगती जैसी ही मैं प्लेटफार्म पर पहुँची, मेरी आठ बीस की गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ चुकी थी। आँखों के आगे मस्टर घूम गया अब?
  • बी-105, वर्धमान अपार्टमेंट, मयूर विहार फेज़ 1, दिल्ली-110091



रमेश बत्तरा (स्व.)




लड़ाई
     ससुर के नाम आया तार बहू ने लेकर पढ़ लिया। तार बतलाता है कि उनका फौजी बाँका बहादुरी से लड़ा और खेत रहा, देश के लिए शहीद हो गया है।
     ‘‘सुख तो है न बहू!’’ उसके अनपढ़ ससुर ने पूछा, ‘‘क्या लिखा है?’’
     ‘‘लिखा है, इस बार हमेशा की तरह इन दिनों नहीं आ पाऊँगा।’’
     ‘‘और कुछ नहीं लिखा?’’ सास भी आगे बढ़ आई।
     ‘‘लिखा है, हम जीत रहे हैं। उम्मीद है लड़ाई जल्दी ख़त्म हो जायेगी।’’
     ‘‘तेरे वास्ते क्या लिखा है?’’ सास ने मज़ाक किया।
     ‘‘कुछ नहीं।’’ कहती वह मानो लजाई हुई-सी अपने कमरे की तरफ़ भाग गई।
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
     बहू ने कमरे का दरवाजा ठीक उसी तरह बंद किया जैसे हमेशा उसका ‘फौजी’ किया करता था। वह मुड़ी तो उसकी आँखें भीगी हुई थीं। उसने एक भरपूर निगाह कमरे की हर चीज पर डाली मानो सब कुछ पहली बार देख रही हो। अब कौन-कौन सी चीज काम की नहीं रही, सोचते हुए उसकी निगाह पलंग के सामने वाली दीवार पर टँगी बंदूक पर अटक गई। कुछ क्षण खड़ी वह उसे ताकती रही। फिर उसने बंदूक दीवार से उतार ली। उसे खूब साफ़ करके अलमारी की तरफ़ बढ़ गई। अलमारी खोलकर उसने एक छोटी-सी अटैची निकाली और अपने पहने हुए वस्त्र उतारकर अटैची में रखे और वो जोड़ा पहन लिया, जिसमें फ़ौजी ने उसे पहली बार देखा था।
     सज-सँवरकर उसने पलंग पर रखी बंदूक उठाई। फिर लेट गई और बंदूक को बगल में लिटाकर उसे चूमते-चूमते सो गई।



उर्मिकृष्ण 




अमानत
     सारा सामान ट्रक में लादा जा चुका था। कवि शिवा आज नए मकान में जा रहे थे, ‘‘अरी गुड़िया!’’ माँ ने ऊँची आवाज में पुकारा, ‘‘चल, सारा सामान लद चुका है।’’
     चार साल की गुड़िया धीरे-धीरे चलकर बाहर आ रही थी। उसके फ्राक की झोली में कंकड़-पत्थर का बोझा लदा था।
     देखते ही मम्मी झल्लाई, ‘‘यह क्या? पत्थरों का क्या करेगी? फेंक यहीं।’’ मम्मी ने गुड़िया के सारे पत्थर बिखेर दिए। दो क्षण गुड़िया पत्थर बनी बिखरे पत्थरों को देखती रही और फिर फूट-फूटकर रो पड़ी
 ‘‘क्या हुआ, बेटे?’’ पापा ने गोद में उठाते हुए गुड़िया से पूछा।


छाया चित्र : अभिशक्ति 
     गुड़िया रोए जा रही थी। मम्मी ने आगे बढ़कर कहा, ‘‘देखो, आपकी लाड़ली ये पत्थर फ्राक में भरकर ले जा रही थी। नया फ्राक भी बिगाड़ दिया।
     ‘‘ओहो सरिता! कुछ तो सोचतीं उसके पत्थर फेंकने से पहले। ये उसके बचपन की अमानत हैं, तुम्हारे ट्रक-भर सामान से ज्यादा कीमत है गुड़िया के लिए इन पत्थरों की।’’
     सरिता ने गुड़िया को गले लिपटाते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ़ कर दे बेटी, मैंने तुझे दुख पहुँचाया।’’ और तीनों मिलकर बिखरे पत्थर उठाने लगे। गुड़िया खुशी से नाच रही थी।

  • ए-47, शास्त्री कॉलोनी, अम्बाला छावनी-133001 (हरियाणा)

    


असगर वजाहत




हँसी
     श्री टी. पी. देव एक शरीफ शहरी थे। अपने काम से काम रखते थे। न किसी का लेना एक, न देना दो। रोज़ सुबह पौने आठ बजे ऑफिस के लिए निकलते थे और शाम सवा छह बजे घर पहुँचते थे। टी.वी. देखते थे। खाना खाते थे। सो जाते थे। अचानक पता नहीं कैसे, एक दिन उन्होंने सोचा कि पिछली बार वे कब हँसे थे? उन्हें याद नहीं आया। सोचते-सोचते थक गए और पता न चला, तो उन्होंने अपनी डायरियाँ, कागज-पत्र उलट-पलटकर देखे, पर कहीं दर्ज न था कि पिछली बार कब हँसे थे।
     फिर वे डॉक्टर के पास गए। उन्होंने बताया कि उन्हें लगता है कि वे शायद कभी हँसे ही नहीं हैं। कहीं यह कोई बीमारी तो नहीं?
     डाक्टर बोला, ‘‘नहीं, यह बीमारी नहीं है, क्योंकि बीमारियों की किताब में इसका जिक्र नहीं है।’’ परंतु श्री टी. पी. देव संतुष्ट नहीं हुए। वे दसियों डाक्टरों, हकीमों, वैद्यों से मिले। सबसे यही सवाल पूछा। सबने वही
जवाब दिया। श्री टी. पी. देव की परेशानी बढ़ती चली गई।
रेखा चित्र : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा 
     एक दिन श्री टी. पी. देव फ्लैट में आने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे तो उन्होंने एक लड़के को हँसते हुए देखा। वे आश्चर्य से देखते रह गए। फिर उससे पूछा- ‘‘बताओ, तुम कैसे हँसते हो?’’
     यह पूछने पर लड़का और जोर से हँसा।
     ‘‘नहीं-नहीं, मुझे बताओ।’’ वे बोले।
     ‘‘लड़का और जोर से हँसने लगा।
     ‘‘बताओ....बताओ।’’ श्री टी. पी. देव ने उसका हाथ पकड़ लिया।
     लड़के ने कहा- ‘‘घर जाकर आईना देखना।’’
     श्री टी. पी. देव ने फ्लैट में आकर सबसे पहले शीशा देख।
     आईने में दसियों साल से न हँसा एक गुरु-गंभीर चेहरा देखकर उन्हें सहसा हँसी आ गई।
  • 79, कलाविहार, मयूर विहार फेज-1, नई दिल्ली-110091



युगल




जूते
    चैतू राजमिस्त्री के साथ मजदूर का काम करता था। एक दिन सिर पर से ईंट उतारते समय एक ईंट पांव पर आ गिरी। दाहिने पाँव की उँगलियाँ कुचल गईं। पत्नी बोली- ‘‘पाँव में जूते होते, तो उँगलियाँ नहीं कुचलती।ं’’
     उँगलियों में जो बिच्छू के डंक की तरह टीस थी, उसने दाँत-पर-दाँत रख बर्दास्त करने की कोशिश की- ‘‘तुम्हें क्या पता कि जूते कितने महँगे हो गए हैं। जब पेट चलाना ही दुश्वार हो, तो जूते।’’
     पत्नी हल्दी का गर्म लेप उसकी उँगलियों पर चुपचाप लगाती रही। पेट चलाना तो सचमुच दुश्वार हो रहा था। बेटा मैट्रिक पास कर गया था। सो वह मजदूरी का मोटा काम करना नहीं चाहता था। किसी दूसरे काम से लग भी नहीं रहा था। गाँव के लफंगों के साथ ताश के अड्डे पर जमा रहता था। चैतू को जिस दिन काम नहीं मिलता, वह नीम या बबूल का दातौन तोड़कर क़स्बे में बेच आता। पाँच-सात रुपये आ जाते। एक बार वह जूतों की दुकान में गया भी था। लेकिन बहुत मामूली क़िस्म के जूते की क़ीमत इतनी थी कि दो दिनों की मज़दूरी साफ़ हो जाती।
     अपने जूते के लिए परिवार के लोगों को दो दिनों तक भूखे रखने की बात सोचकर जूते ख़रीदने की हिम्मत नहीं जुटा सका। मन को समझाया, जब पचास साल बिना जूते के कट गए, तो बाक़ी भी कट ही जाएँगे। वैसे इधर कई दिन सपने में उसे अपने जूते वाले पाँव दिखते रहे हैं। चलते-चलते उसके जूते वाले पाँव दूसरे के पाँवों में बदल जाते। उस पाँव पर ईंट आ गिरती।
     चैतू की उँगलियों के कुचले दो महीने भी नहीं हुए थे कि उसके तलवे में शीशे की किरच घुस गई। ख़ून के
रेखा चित्र : राजेन्द्र सिंह 
फव्वारे देखकर बेटा विचलित हो उठा। बाप को क़स्बे के अस्पताल में ले गया। उस दिन उसने बाप के जूते के लिए शिद्दत के साथ सोचा। वह अपने एक पड़ोसी के साथ पंजाब चला गया कि वहाँ कमाई का कोई डौल बैठ जाना चाहिए।

     लौटा वह आठ महीने बाद। बाप के लिए जूते ले आया था। चैतू आँगन में खाट पर लेटा था। बेटे को देखकर माँ उल्लसित हुई, ‘‘इतने दिनों कहाँ रहे बेटा! न कोई पता, न कोई चिट्ठी-पत्री।’’
    आँखें डबडबा आईं। माँ कुछ क्षणों तक जूते देखती रही। फिर उसने चैतू के पाँव पर से चादर हटा दी। बोली- ‘‘किरच वाला तलवे का घाव ज़हरबाद बन गया था। पाँव सड़ने लगा था। डाक्टर ने काट दिया।’’
  • मोहिउद्दीन नगर, समस्तीपुर, बिहार 



सतीश राठी


संवाद 
    छोटी सी बात का बतंगड़ बन गया था। पूरे चार दिनों से दोनों के मध्य संवाद स्थगित था। पत्नी का यह तल्ख़ ताना उसके मन को चीर गया था, ‘‘विवाह को वर्ष-भर हो गया है। एक साड़ी भी लाकर दी है!’’
    शब्दों की आंच में सारा खून छीज गया था। अपमान का पारा सिर चढ़कर तप्त तवे-सा हो उठा था और वह कड़वे नीम से कटु शब्द बोल गया था कि ‘नई साड़ियाँ पहनने का इतना ही शौक़ था तो अपने पिता से कह दिया होता....किसी साड़ियों की दुकान वाले से ब्याह कर देते।‘‘
     तबसे दोनों के बीच स्थगित अबोला आज तक जारी था। यों रोज उसके
रेखा चित्र : बी.मोहन नेगी 
सारे कार्य समय पर पूर्ण हो जाते थे। शेव की कटोरी से लेकर भोजन की थाली तक। बस, सिर्फ़ प्रेम और मनुहार की वे समस्त बातें अनुपस्थित थीं, जिनके बिना वे दोनों एक पल भी नहीं रह पाते थे।

    लेकिन आज! आज ऑफ़िस से उसे आदेश मिला कि पंद्रह दिनों के डेपुटेशन पर भोपाल ऑफ़िस जाना है, तो घर आकर स्वयं को रोक नहीं पाया वह। रुँधे गले से भीगे शब्द निकल पड़े, ‘‘सुनो सुमि! मेरा सूटकेस सहेज देना, पंद्रह दिनों के लिए भोपाल जाना है।’’
    ‘‘क्या! भोपाल....!! पंद्रह दिनों के लिए...!!’’ और इतना बोलकर सुमि के शेष बचे शब्द आँसुओं में बह निकले। दोनों के मध्य स्थापित अबोला टूट गया। एक-दूसरे को उन्होंने बाँहों में जकड़ लिया। उनकी आँखों से बहते गर्म अश्रु आपस में ढेर सारी बातें करने लगे।

  • 212, उषानगर (मुख्य), इन्दौर-452009 (म॰प्र॰)



हरनाम शर्मा





निबंध-अनुबंध
    ‘हैल्लो, रोहित! कैसे हो? भई, आज शाम, याद है ना! डॉ. सक्सेना अपने पुत्र विलास के डाक्टर होने की खुशी में रंगीन पार्टी दे रहे हैं। सुभाष, विकास, मोहन, विभा, मंजू वगैरह सभी महफ़िल रंगीन बनाएँगे। आठ बजे तक पहुँच जाना। नाच गानों के लिए कानपुर से खास डांसर आएँगी। ड्रिंक्स सर्व करने के लिए रंजू लीडरशिप में गोवा की बार-गर्ल्ज का इंतज़ाम है। अरे भई, बोलते क्यों नहीं?’’
    ‘‘सुनो, ऐसा है....।’’
    ‘‘क्या ऐसा है...., मैं इंतज़ार करूँगा।’’
    ‘‘नहीं, नहीं रविवार को मैंने बिटिया को अपने पिता पर निबंध याद करते सुना... वह रट रही थी.... मेरे
रेखा चित्र : महावीर रंवाल्टा 
पिताजी बहुत अच्छे हैं। वे बहुत चरित्रवान हैं। वे नशाबंदी अभियान में सहयोग देते हैं....। भई, मैं तो डर रहा हूँ। अब जब भी तुम्हारा फ़ोन आता है, आना तो दूर की बात, तुम्हारी बातें सुनते हुए भी डर लगता है! मैं न आ सकूँगा। मुझे माफ़ करना।’’

    मोहन ने टेलीफ़ोन रख दिया, उधर से निरंतर टेलीफ़ोन की घंटियाँ बज रही हैं। मोहन टेलीफ़ोन उठा ही नहीं रहे हैं।
  • ए.जी. 1/54-सी, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018

डॉ. हरदीप कौर संधू 





ख़ूबसूरत हाथ
     एक दिन अध्यापक ने दूसरी कक्षा के बच्चों को उनकी सबसे अधिक प्यारी किसी वस्तु का चित्र बनाने के लिए कहा। किसी ने सुंदर फूल बनाया तो किसी ने रंग-बिरंगी तितलियाँ। कोई सूर्य, चाँद, सितारे बनाने लगा तो कोई अपना सुंदर खिलौना। कक्षा के कोने में बैठी करमो ने बदसूरत-से दो हाथ बनाए। अध्यापक ने हैरान होकर पूछा, ‘‘ये क्या
रेखा चित्र : उमेश महादोषी 
बनाया? हाथ! किसके हैं ये हाथ?’’

     ‘‘ये दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत हाथ हैं; जो मेरी माँ के हैं।’’
     ‘‘तुम्हारी माँ क्या करती हैं?’’
     ‘‘वह मजदूरिन है। दिन-भर सड़क पर पत्थर तोड़ने का काम करती है।’’ करमो ने सिकुड़ते हुए उत्तर दिया। 


  • 28 Bellenden Close, Glenwood 2768, NSW (Sydney-Australia)
  • (भारत में) द्वारा श्रीमती आर के बरार, गली न-1 ,गोबिन्द कॉलोनी, (एस. डी. कॉलिज के निकट) बरनाला -148101 (पंजाब) 
  • ई मेल : hindihaiku@gmail.com

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