अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 3, अंक : 07- 08, मार्च-अप्रैल 2014
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’, चमेली जुगरान, भगवानदास जैन, किशन स्वरूप, अशोक अंजुम, शुभदा पाण्डेय, सजीवन मयंक, रमेश चन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, श्याम झँवर ‘श्याम’, अवधेश, कृष्ण कुमार त्रिवेदी, कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’ की काव्य रचनाएँ।
दूर चले आए अपनों से
दूर चले आए अपनों से, जीवन को बेहद उलझाया!
संदेहों को पाला मन में, विश्वासों को ठुकराया!!
प्रश्नों के मरुथल में भटके,
उत्तर खोजे नहीं कभी!
उलझे रहे मीन-मेख में,
सीधी राह न चले कभी!!
तर्कों की राहों पर चल के, भाव का धन लुटवाया!
संदेहों को पाला मन में, विश्वासों को ठुकराया!!
स्नेह-दीप के उजियारों को,
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी |
अंधियारा हमने समझा!
गैरों पर नित किया भरोसा,
अपनों को दुश्मन समझा!!
बने गुलाम बुद्धि के हर पल, भावों को खूब रुलाया!
संदेहों को पाला मन में, विश्वासों को ठुकराया!!
आँखों के आँसू तो सूखे,
अधरों पर मुस्कानें ओढ़ी!
कृत्रिमता मन को भाई नित,
सहज भावना हमने छोड़ी!!
घुटघुट कर सो गई भावना, तर्कों को हमने अपनाया!
संदेहों को पाला मन में, विश्वासों को ठुकराया!!
- 74/3, न्यू नेहरू नगर, रूड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखण्ड) / मोबाइल : 09412070351
चमेली जुगरान
{कवयित्री चमेली जुगरान जी का वर्ष 2011 में प्रकाशित कविता संग्रह ‘छूटा हुआ सामान’ हमें हाल ही में पढ़ने का सुअवसर मिला। पाठकों के लिए उनके इस संग्रह से पस्तुत हैं उनकी तीन प्रतिनिधि कविताएँ।}
ऐसा तो था प्यार
हम तो चाहते हैं तुम्हें बहुत
बता रहे थे वे-
फिर बात कही कल की
याद कर हँसे खूब।
एक ने कहा-
पता है जब गिर पड़ी थीं तुम
बीच बाजार में
खुल गई थी साड़ी
दूर पड़ी चप्पल
टेढ़ी-मेढ़ी हुई ऐनक
हँसे थे सड़क पर लोग!
रेखा चित्र : के. रविन्द्र |
बेचारी वृद्धा! दिखाई नहीं देता
घूमने आई हैं।
दूसरे ने ताना मारा
दुबारा हँसे थे घर के लोग
लेकिन इतना सुनकर
रोती रही रात भर इक नन्हीं-सी जान
क्यों न थी मैं वहाँ?
पकड़ती नानी का हाथ
जाहिर है- प्यार होता ही है ऐसा
गिरे कोई तो...
चोट खाता है कोई और!
नाथुला का फौजी
(नाथुला : तिब्बत से जुड़ी पर्वत चोटी)
सीमान्त प्रदेश की
वो महकती शाम
याद आता है ढलकता सूरज
खिलखिलाती हँसी
खनकती सरकती चूड़ियों की झंकार
रेशमी सरसराते आंचल!
किसी की विदाई
किसी की अगुवाई
युद्ध के मँडराते बादल
फिर भी शाम थी नशीली
जाम थे हाथ में!
घर से दूर खड़ा उदास फौजी
तरसती निगाह फेरे बुदबुदाता
कितने दिनों बाद सुनी
रेखा चित्र : शशिभूषण बड़ोनी |
चूड़ियों की खनक
हँसी की उमड़ती नदी
सुनने को व्याकुल मन
लगा हम घर आ गए!
याद दिलाती हैं ये चूड़ियाँ
ममता भरे संसार की
लाल-पीले दुपट्टे
वो आँगन बिखरती धूप जहाँ
बसन्ती हवा देती थी संदेशे
आ गया बसन्त
कर ले ठिठोली।
मगर कल हमें लौट जाना है
बर्फीली चोटियाँ
करतीं जहाँ इंतजार
आती नहीं आवाज़ वहाँ से
केवल भय है उसका
खड़ा है जो सीमा पार!
बाँधना नहीं मुझे
माँ मैं अब बड़ी
हो गई हूँ-
बाँधना नहीं तुम
पिता को अभिवादन मेरा।
गर्विता हो तुम भी
हीन भावना से फिर भी
दिल जलाती हो मेरा
मानती हूँ दुलार तुम्हारा
लाया है, मुझे यहाँ तक।
रेखा चित्र : उमेश महादोषी |
समर्थ जाना है स्वयं को
परखना है, नापना है
कहीं तुम्हारा प्रतिरूप
तो नहीं बनना मुझे!
क्या बात है माँ!
चाहकर भी तुमसे स्वतंत्र नहीं
मुक्त करो मुझे
मैं अब बड़ी हो गई!
- डी-31, आई.एफ.एस. अपार्टमेन्ट्स, मयूर विहार, फेस-1, दिल्ली-91 / मोबाइल : 09868543734
भगवानदास जैन
ग़ज़ल
दुनिया के मेले में देखे हमने लासानी चेहरे।
लेकिन उनमें ज़्यादातर थे बिल्कुल बेमानी चेहरे।
ढूँढ़ रहे हैं बरसों से हम दुनिया के चिड़ियाघर में,
काश नज़र आ जाएँ यारो कुछ तो इन्सानी चेहरे।
जीहाँ-जीहाँ करने वाले अवसरवादी इस युग में,
दर-दर पर बिकते देखे हमने तो दरबानी चेहरे।
रेखा चित्र : राजेंद्र परदेसी |
अपना मुल्क है अपनी हुकूमत दुख के डेरे हैं फिर भी,
लूट रहे हैं देश को अब भी खुलकर सुल्तानी चेहरे।
बदसूरत चेहरों का जमघट शीशमहल में बैठा है,
क्या जाने कब कर दें ये पथराव की नादानी चेहरे।
जिनकी रगों में ख़ून के बदले केवल पानी बहता है,
हो जाते हैं शर्म से इक दिन वे ही पानी-पानी चेहरे।
थम जाता है वक़्त भी जिनके क़दमों की आहट पाकर,
इतिहासों में गुम हैं अब वे सारे नूरानी चेहरे।
सर्द हैं ज्यादा जर्द भी हैं कुछ गर्द में लिपटे मर्द भी हैं
क्या ही रंग-बिरंगे हैं अब के हिन्दुस्तानी चेहरे।
- बी-105, मंगलतीर्थ पार्क, कैनाल के पास, जशोदानगर रोड, मणिनगर (पूर्व), अहमदाबाद-382445(गुजरात)
किशन स्वरूप
ग़ज़ल
अब हकीकत से यहाँ हर शख़्स कतराने लगा
आइने का सच मुखौटे ओढ़ कर भाने लगा
हो गए सूने सभी चौपाल, पनघट और अलाव
गाँव से हर रास्ता अब शहर को जाने लगा
हर समस्या का उसी के पास हल है दोस्तो
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
हर नया नेता बना, ये ढोल पिटवाने लगा
देख, ऐ बापू! तुम्हारे बन्दरों का क्या हुआ
एक है सालार जिसको मौन-व्रत भाने लगा
कान में उँगली दबाए दूसरा सरकार है
चीखते गणतंत्र की आवाज झुठलाने लगा
तीसरा कानून की मानिन्द अन्धा हो गया
जुर्म हो या जुल्म सब चंगा नज़र आने लगा
हम जहाँ से भी चले थे आ गए लेकिन कहाँ
आदमी को आदमी बौना नज़र आने लगा
- 108/3, मंगल पांडेय नगर, मेरठ-250004 / फोन : 0121-2603523 / मोबाइल : 09837003216
अशोक अंजुम
ग़ज़ल
हादिसातों की कहानी कम नहीं
हौसलों में भी रवानी कम नहीं
मेरे बाजू हैं मुसलसल काम पर
यूँ समन्दर में भी पानी कम नहीं
साथ तेरे जो गुजारी है कभी
चार दिन की ज़िन्दगानी कम नहीं
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
प्यार हमको आपसे था ही नहीं
आपकी ये सचबयानी कम नहीं
हम अँधेरों की कहानी क्यों कहें
साथ में यादें सुहानी कम नहीं
- गली-2, चन्द्रविहार कॉलोनी, (नगला डालचंद), क्वारसी रोड बाईपास, अलीगढ़-202001(उ.प्र.)
/ मोबाइल : 09258779744
शुभदा पाण्डेय
संदूक में नदी
परिवर्तित कम होते हो तुम
क्योंकि परिवर्तित करने वाली हवा
होते ही गर्म
बन जाती है शहरी
तुम्हारे तट पर बसी सई
जाने कहाँ-कहाँ चली गई
एक झाँपी लकड़ी के संदूक से
निकल ही आती है
निकालते हुए तिलकहवा बर्तन
त्यौहारों पर
झाँकते हैं उसमें
वो छत, आँगन, ओसारे
आम, पीपल, बरगद
खेत, खलिहान, कोठिले
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी |
कुछ चीन्हे-अचीन्हे चेहरे
पचरा गाती औरतें
आम छीलती मोती बहिन
चटक चुनरी में सिंगारो भाभी
लछुमन केवटी, पदारथ भड़भूज
खपड़हा के यदु भाई
समायी हैं इसमें
बर्तनों के साथ
नदी बनी जिन्दगी
पूछी जाती है हमेशा
अपनी गंगोत्री के साथ
(सई : एक नदी
पचरा : एक प्रकार का देवी लोकगीत)
- असम विश्वविद्यालय, शिलचर-788011, असम / मोबाइल : 09435376047
सजीवन मयंक
जो पड़ोस में आग लगाकर आये हैं
जो पड़ोस में आग लगाकर आये हैं
खुद अपने भी हाथ जलाकर आये हैं
कल तक सीना ताने जो चलते थे
आज स्वयं ही नजर झुकाकर आये हैं
कल पीठ में जिसने मारा था खंजर
आज उसी को गले लगाकर आये हैं
कल तक बाहों में थे, हमको दिखे नही
वही सामने अब लहराकर आये हैं
जहां अनेंको कश्ती डूबी उसी जगह
रेखा चित्र : उमेश महादोषी |
हम अपनी कश्ती तैराकर आये हैं
रोज शाम से ही सूरज सो जाता है
हम ही उसको सुबह जगाकर आये हैं
तेरी महफिल में न कोई दखल पड़े
हम अपने दुख दर्द छिपाकर आये हैं
- 251, शनिचरा वार्ड-1, नरसिंह गली, होशंगाबाद-461001 (म.प्र.)
रमेश चन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’
गीतिका
कैसे उन्हें मनाने जायें?
कैसे उनको घाव दिखायें?
रीति निभाना भी मुश्किल है
वे हमको वेवफा बतायें
कर्त्तव्यों की बलि वेदी पर
अधिकारों की मांग जतायें
कुशल पूछ आगे बढ़ जाते
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
कितनों के संग प्रीति निभायें?
लगते सबको वे उनके हैं
किस-किस के हिस्से में आयें?
कुछ लोगों के दुःख मिटाकर
वे सबके मसिहा बन जायें
हाथ हिला अभिवादन करते
हँस-मुस्का कर रीति निभायें
- डी-4, उदय हाउसिंग सोसायटी, वैजलपुर, अहमदाबाद-380015, गुजरात
श्याम झँवर ‘श्याम’
पर्यावरण सन्देश
अपने घर में और गली में
रखें स्वच्छता जन-जीवन में
शुद्ध हवा के लिए जरूरी
वाहन कम कर दें जीवन में
वृक्ष नहीं कोई भी काटे
छाया चित्र : रितेश गुप्ता |
कसम, सभी खाएं जीवन में
वृक्ष लगाएं, फूल-उगाएं
सुन्दरता पाएं जीवन में
झरने, फूल, पहाड़, वृक्ष हैं
तोहफे कुदरत के जीवन में
- 581, सेक्टर 14/2 विकास नगर, नीमच-458441 (म.प्र.) / मोबाइल : 09407423981
अवधेश
आपको जयगीत नूतन वर्ष हो!
तिमिर पर आरूढ़ ज्योर्तिकर्ष हो
ज्ञान वारिधि में विमल आमर्ष हो
आपके शुभगीत हम गाते रहें
आपको शुभगीत नूतनवर्ष हो
विहंग जब बोलें सुकंठ सम्हालकर
मिलें जब प्रिय-प्रियतमा भुज डालकर
आपके मुद मान का स्वागत करें
आपके शुभमान जीवन ज्ञान पर
आपको जब प्राप्त नव उत्कर्ष हो
स्नेहमय, जीवनव्रती संघर्ष हो
आपके प्रिय गीत हम गाते रहें
छाया चित्र : ज्योत्सना शर्मा |
आपको प्रियगीत, नूतनवर्ष हो
राष्ट्रवट सुखदा फले फलता रहे
चेतना की छाँह प्रिय मिलता रहे
खो न जायें हम प्रमादी बन यहाँ
भावना के गीत से समता रहे
आपको जब नेहदीपक यश मिले
जीवनी में सदा ही अपयश धुले
आपके जयगीत हम गाते रहें
आपको जयगीत नूतन वर्ष हो
आपके मुदगीत हम गाते रहें
आपको मुदगीत नूतनवर्ष हो
- 2, ब्रह्मपुरी, सीतापुर-261001 (उ.प्र.)
कृष्ण कुमार त्रिवेदी
ग़ज़ल
रोको शायर की कलम, अब न लिखे ऐसी ग़ज़ल
न जमीं जाये खिसक, न फलक जाये दहल
गर्द-ए-आइना को अब न हटाओ लोगो,
राज खुल जायेगा, है कौन असल कौन नकल।
शास्त्र पर बैठ के मत समझो है दरख्त अपना,
गजर बजते ही तेरा, छूट जाये अपना दखल।
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर |
मैं हूँ मदहोश, संभाले रहो मुझको साकी,
जाम लवरेज है, रोको कहीं जाये न मचल।
वो शमां और थी, जो जलती थी तेरे खातिर,
शीशा-ए-कैद में है हुस्न, रे पागल तू संभल।
तेरे जज्बातों की, कौन करे कद्र यहां,
तोड़ दो कलम को और कागजों को डालो मसल।
- श्री ऑफसैट प्रिण्टर्स, राजेन्द्र नगर, रामपुरा, जालौन, उ. प्र.
कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’
ग़ज़ल
कभी बरबाद कर बैठे, कभी आबाद कर बैठे
ज़रा से होश में आए, तुम्हें फिर याद कर बैठे
हमें मारा कहाँ खंजर से, बस नज़रों से है मारा
सुनेगा कौन कहाँ अब मेरी, किसे फरियाद कर बैठे
जो दिन भर चाँद बनके, चाँदनी देते रहे मुझको
रेखा चित्र : मनीषा सक्सेना |
मुहब्बत तेरी खुशबू छोड़ खुद बरबाद कर बैठे
बना मेहमान रक्खा है, तुझे इस दिल के दर्पन में
मिली जब-जब भी फुर्सत, साथ तो संवाद कर बैठे
शुरू से अन्त तक कहते रहे, दुनियाँ में क्या रक्खा
इसी दुनियाँ में अपनी जिन्दगी आबाद कर बैठे
अभी तक जिसको मैंने अपनी आँखों से नहीं देखा
वो सूरत अजब और अचूक होगी याद कर बैठे
- 38-ए, विजयनगर, करतारपुरा, जयपुर-302006, राज.
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