आपका परिचय

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 3,   अंक  : 07- 08, मार्च-अप्रैल 2014



।। कथा प्रवाह ।।

सामग्री :  इस अंक में प्रताप सिंह सोढ़ी, कमलेश भारतीय, सुधा भार्गव,  राधेश्याम ‘भारतीय’,  बच्चन लाल बच्चन, वंदना सहाय, वाणी दवे, कृष्ण चन्द्र महादेविया, अजहर हयात, कांता देवांगन, कमलेश चौरसिया, कृष्ण मोहन ‘अम्भोज’, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’, पुष्पा चिले, श्रेयस निसाल, संजय बोरूडे की लघुकथाएं।



प्रताप सिंह सोढ़ी



विडम्बना

     किलकारी निकालते दादी के साथ लुका-छिपी खेल रहे बालक को देख अचानक मुझे बसंती और वह दिन याद आ गया जब अपनी हथेली मेरे सामने रखते हुए उसने पूछा था- ‘‘बीबी जी, आप सबका हाथ देखती हैं, आज मेरा हाथ भी देखकर....।’’ इतना कह वह शरमा गई थी। 
रेखा चित्र : के.रविन्द्र 
     मैंने देखा था उसके फूले पेट और हथेली पर बनी उन रेखाओं को जो वर्तन मांजते-मांजते जगह-जगह से छिल गईं थीं। हथेली के ऊपर बने माउंट उभर कर खुरदरे एवं छोटे-छोटे टिग्गड़ों के समान दिखाई देने लगे थे। हथेली में बनी रेखाएँ बर्तन घिसने की रगड़ से छिल गईं थीं। बड़ी तन्मयता से धुंधली रेखाओं का अध्ययन करने के बाद मैंने अपना फैसला सुनाया था, ‘‘बसंती इस बार तुम्हें लड़का ही होगा।’’
     बसंती के पहले से ही तीन लड़कियाँ थीं और लड़के की आशा में वह चौथे बच्चे को जन्म देने जा रही थी। मेरी भविष्यवाणी सुन उसके चेहरे पर रौनक छा गई थी। बसंती को लड़का ही हुआ, लेकिन लड़के को जन्म देने के बाद वह चल बसी। मैं सोच रही थी कि काश नौ माह अपनी उम्मीद पालने वाली बसंती इस बच्चे के साथ होती।

  • 5, सुख-शान्ति नगर, बिचौली हप्सी रोड, इन्दौर-452016 (म.प्र.)




कमलेश भारतीय




कायर

     सहेलियां दुल्हन को सजाने-संवारने में मग्न थीं। एक चिबुक उठा कर देखती तो दूसरी हथेलियों में रचायी मेंहदी निहारने लगती। कोई आंखों में काजल डालती और कोई मांग में सिंदूर। और एक कलाकृति को रूप-दर्प देकर सभी बाहर निकल गयीं। बारात आ पहुंची थी। 
      तभी राजीव आ गया। थका-टूटा। विवाह में जितना सहयोग उसका था उतना सगे भाइयों का भी नहीं। वह उसके सामने बैठ गया। चुप। जैसे शब्द अपने अर्थ खो चुके हों। भाषा निरर्थक लगने लगी हो। 
     -अब तो जा रही हो, आनंदी?
     -हूं।
     -एक बात बताओगी?
     -हूं।
     लोग तो यही समझते हैं न कि हम भाई-बहन हैं।
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी 

     हूं।
     -पर तुम जो जानती हो, अच्छी तरह समझती रही हो कि मैं तुम्हें बिल्कुल ऐसी ही...इसी रूप में पाने की चाह रखता हूं।
     -हूं।
     -पर क्या तुमने कभी, किसी एक क्षण भी मुझे उस रूप में देखा है? 
     लाल जोड़े में सेे लाल-लाल दो आंखें उसे घूरने लगीं जैसे मांद में कोई शेरनी तड़प उठी हो। 
     -चाहा था...पर तुम कायर निकले। मैं चुप रही कि तुम शुरुआत करोगे। तुम्हें भाई कह कर मैंने जानना चाहा कि तुम मुझे किस रूप में चाहते हो पर तुमने भाई बनना ही स्वीकार कर लिया। और आज तक लोगों को कम खुद को अधिक धोखा देते रहे। सारी दुनिया, मेरे मां-बाप तुम्हारी प्रशंसा करते नहीं थकते...पर मैं थूकती हूं तुम्हारे पौरुष पर...जाओ कोई और बहन ढूंढो।
     वह भीगी बिल्ली सा बाहर निकल आया। बाद में कमरा काफी देर तक सिसकता रहा।

  • उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रन्थ अकादमी, पंचकूला-134113, हरियाणा



सुधा भार्गव 




बंद ताले

छोटे भाई की शादी थी। दिसंबर की कड़ाके की ठण्ड। हाथ पैर ठिठुरे जाते थे, पर बराती बनने की उमंग में करीब 120 लोग लड़की वालों के दरवाजे पर एक दिन पहले ही आन धमके। 
पिताजी सुबह की गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुए जनमासे में चहल कदमी कर रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ दूरी पर 5-6 युवकों की टोली बड़े जोश से बातें करने में व्यस्त थे।
-क्या बात है, तुम लोग नहाये नहीं? पिताजी ने पूछा। 
-कैसे नहायें अंकल, बाथरूम में बाल्टी ही नहीं है।
-अभी बाल्टियाँ मंगवाए देता हूं और क्या चाहिए वह भी देख लो। 
-मेरे बाथरूम में तौलिया भी नहीं है। दूसरा युवक बोला। 
-ठीक है, चुटकी बजाते ही सब हाजिर हो जायेगा ।
पिताजी तो चले गये, पर लड़कों का लाउडस्पीकर चालू था।
-जब इंतजाम नहीं कर सकते तो ये लड़की वाले बारातियों को बुला क्यों लेते हैं! 
-अरे दोस्त, लगता है ये सस्ते में टालने वाले हैं। पर हम ऐसे सस्ते में टलने वाले नहीं।
छाया चित्र : रितेश गुप्ता 

उनकी बातें विराम पर आना ही नहीं चाहती थीं, लेकिन सामने एक सेवक को बाल्टियों, तौलियों से लदा देख उनके बीच मौन पसर गया।
एक बुजुर्ग महाशय को जब यह पता चला कि बारातियों की मांगें पिताजी पूरी कर रहे हैं तो उनसे यह भलमनसाहत सही न गई।
-’’लड़के के पिता होकर समधी के सामने इतना झुकना ठीक नहीं, आखिर हम सब हैं तो बराती। बाराती तो बाराती ही होते हैं।’’ त्रिवेदी जी बोले। 
-लड़के-लड़की का रिश्ता हो जाने के बाद दो परिवार एक हो जाते हैं। मेरी तो यही कोशिश रहेगी कि दोनों के सुख-दुख, मान-अपमान की कड़ियाँ इस प्रकार बिंधी रहें कि भोगे एक तो अनुभूति हो दूसरे को। पिताजी शांत स्वर में बोले। 
सुनने वालों के दिमाग के ताले खुल चुके थे। 

  • जे-703, स्प्रिंगफील्ड अपार्टमेंट, स्पसंेर मॉल के सामन,े बगंलौर-102, कर्नाटक



राधेश्याम ‘भारतीय’



कर्जदार

     गांव में चार-पांच आदमी बैठे ताश खेल रहे थे। इसी बीच एक आदमी पूछ बैठा- ‘‘रामप्रकाश कौन साल सरपंची का चुनाव जीता था।’’
     ‘‘अरे छोड़ न, कै बेतुकी बात लेकर बैठ गया। लाला ने गाँव छोड़े हो लिए आठ-दस साल।’’
     ‘‘बस यूं ही पूछ बैठा, उस साल मेरा छोरा होया था।’’
     ‘‘अरे कमाल कर दिया तैन्ने, अपने छोरे के जन्म का भी पता नहीं।’’
     ‘‘मैं बताऊँ.....।’’ पास बैठा रामभज लुहार बोल पड़ा।
     ‘‘अरे छोड़ नै, सारा दिन तो तेरा पागलां जैसा हाल होया रहवै सै....’’
     ‘‘अभी पहला व्यक्ति अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि तभी दूसरा बोल पड़ा- ‘‘तैन्ने अपना खाया भी याद रहवै सै?’’
छाया चित्र : डॉ.बलराम अग्रवाल 

     यह बात सुनकर सभी ने जोरदार ठहाका लगाया।
     ‘‘भाइयो, मैंने कुछ याद हो, चाहे ना हो पर या बात मैं मरदे दम तक नीं भूल सकदा। बीस मई थी उस दिन... या बात गलत साबित होज्यै तो मेरे चार जूत मारियों।’’
     ‘‘पर रामभज, तू या बात इतने दावे ते क्यूंकर कहवै सै।’’
     ‘‘इस साल मेरे बाबू ने मेरी बाहाण के ब्या ताही दस हजार रुपये कर्ज लिए थे रामप्रकाश तै। मैं हर महीने की बीस तारीख नै शहर जाकर ब्याज देकर आता हूँ। कर्ज आदमी नै पागल बणा दै।’’ इतना कह रामभज माथा पकड़ बैठ गया।

  • नसीब विहार कॉलोनी, घरोंडा, करनाल-132114, हरियाणा



बच्चन लाल बच्चन





रिश्ता 

    स्टाफ बस की सीटें क्रमशः खाली होती जा रही थीं। लौटती बस से सभी अपने मन के मुताबिक स्टापेज पर उतर रहे थे। हठात् एक लड़की मेरे पास आकर बैठ गई। दो-चार बातें की। मैं सोचता रहा वह मेरे पास आकर क्यों बैठी?
     दूसरे दिन रिसेस के समय पुनः पास आकर बैठ गई और बोली- ‘‘नयी-नयी ड्यूटी ज्वाइन की हूं, यदि आप कुछ न सोचें तो आप मेरे पिता के समान हैं।’’

  • 12/1, मयूरभंज रोड, कोलकाता-700023 (प.बंगाल)

फोन :  033 27003593



‘लघुकथा वर्तिका’ से कुछ लघुकथाएँ 

{नई पीढ़ी की चर्चित लघुकथाकार श्रीमती उषा अग्रवाल ‘पारस’ ने विगत दिनों एक महत्वपूर्ण लघुकथा संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ का सम्पादन किया है। इसके पहले खण्ड में कई वरिष्ठ लघुकथाकारों की लघुकथाएँ शामिल हैं, जबकि दूसरे खण्ड में नई पीढ़ी के 83 लघुकथाकारों, जिनमें कई की तो शुरूआत ही है, को शामिल किया गया है। इस संकलन का सबसे बड़ा योगदान कई नए लोगों को समकालीन लघुकथा से जोड़ना है। इन नए लघुकथाकारों में भविष्य को लेकर असीम संभावनाएं दिखाई देती हैं। प्रस्तुत हैं ‘लघुकथा वर्तिका’ के दूसरे खण्ड के कुछ लघुकथाकारों की एक-एक लघुकथा। } 


वंदना सहाय




सैंटाक्लॉज

    लंबाई छः फुट के करीब, चौड़ी छाती और गाँव में कुश्ती में सबको मात देने वाला यह था बीस-वर्षीय विजय, जो गाँव में अपनी माँ के साथ रहता था।
    विजय को अपनी चौड़ी छाती, नई उगी काली दाड़ी-मूँछों और बड़े जतन से उभारी गई मांसपेशियों पर बड़ा नाज़ था। 
    अचानक कुछ समय बाद विजय की माँ बीमार हो गई। गाँव के डाक्टरों ने उसे शहर ले जाकर दिखलाने को कहा। सरकारी अस्पताल में भर्ती कराने के बावजूद विजय को और भी कई तरह के खर्चों के लिए पैसे कम पड़ रहे थे। वहाँ के वार्ड-बॉय ने तरस खाकर उसे एक केक-पेस्ट्री की दुकान में नौकरी दिला दी।
    क्रिसमस का पर्व आ रहा था, दुकान में सुबह से शाम तक विजय को सैंटाक्लॉज़ का मॉस्क लगाकर और
रेखा चित्र : वंदना सहाय 
उसकी पोशाक पहन लोगों से हाथ मिलाना होता था। बच्चे खुश हो जाते इस टॉफियाँ बाँटते सैंटाक्लॉज से मिलकर।

    और अब अखाड़े के विजयी योद्धा की चौड़ी छाती सैंटाक्लॉज के ढीले पोशाक में छुपकर रह गई थी। उसकी उभरी हुई माँसपेशियाँ और गठा बदन किसी को भी प्रतिस्पर्धा देने में अक्षम था। वह अपनी काली दाड़ी-मँूछों को भूल गया था।
    वहाँ पर खुशियाँ मनाते लोग यह सोच भी नहीं सकते थे कि सफेद दाड़ी-मूँछों वाला यह मात्र बीस वर्ष का सैंटाक्लॉज़ जो लोगों को हँसाकर उनमें खुशियाँ बाँट रहा है, असल में बेरहम वक़्त की धूप में अपनी रजत भवों के शामियाने के नीचे अपनी आँखों में अपनी माँ के स्वस्थ हो जाने पर उसके गाँव लौटने के सपने की हिफाजत कर रहा है।

  • 249, ‘यजुर्वेद’, दीक्षित नगर, नारी रोड, नागपुर-440026 (महारष्ट्र) मोबाइल: 09325887111


वाणी दवे

बौने पापा

    इसी दशहरे की बात है। रावण दहन के लिए मैं और मेरा परिवार दशहरा मैदान में गये थे, जहाँ विशालकाय रावण के पुतले को देखने के लिए पूरा शहर इकट्ठा हुआ था। नन्हें बच्चे अपने पापा के कंधों और हाथों पर चढ़कर आतिशबाजी देखकर आनन्दित हो रहे थे। अपने बचपन के दिनों की यादें ताजा कर मुझे भी बड़ा आनंद आ रहा था, लेकिन न जाने कब इस पूरे जमघट में एक परिवार हमारे सामने आकर खड़ा हो गया। अपने तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ उनकी माँ जो कि पहनावे से गरीब और साधारण शक्लो-सूरत वाली थी,
रेख चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
अपनी गोद में साल भर के बच्चे को उठाये थी एवं अन्य बच्चा जो पापा की उँगली पकड़े हुए था, रो रहा था। वह आतिशबाजी देखना चाहता था। उसके पापा ने उसे गोद में उठा लिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि एक बौने से कद-काठी का वह आदमी जिसे खुद कुछ नज़र नहीं आ रहा है, वह अपने नन्हें-से बच्चे को कंधों पर चढ़ाकर आसमान और वह चमक दिखा रहा है, जिसे वह खुद देख पाने में असमर्थ है। पापा ऐसे ही होते हैं। मजबूत कंधों वाले पापा, अपने बच्चों को हर तकलीफ से बचाने वाले पापा।


  • जी-5, सिंचाई कॉलोनी, दशहरा मैदान, उज्जैन (म.प्र.)/08989450821


कृष्ण चन्द्र महादेविया




कपड़े

     श्वेता ठाकुर के मासूम चेहरे के पीछे की ठग और मर्दखोर युवती को सुधारने के प्रयत्न में असफल डॉ. देवा ने उसके हाथ में पैकेट रख दिया। उसने पैकेट खोला और कीमती वस्त्र देखकर उसकी आँखें चमक गईं थीं।
    ‘‘देव, जब आपसे दूसरी बार मिली थी, तब भी आपने मुझे कपड़े दिये थे और फिर आपने बढ़िया सूट दिया है।... यह जानते हुए भी कि अब हम कभी मिल नहीं पायेंगे।’’ उसके चेहरे को ध्यान से देखते हुए श्वेता ठाकुर ने कहा।
    ‘‘श्वेता, जब तुम पहली बार मिली थी, उस दिन तुम्हारे पुराने और फटे कपड़े देखकर मेरा दिल भर आया था। इसलिए दूसरी मुलाकात में तन ढाँपने के लिए वस्त्र दिए थे। आज इसलिए दिये हैं कि जिस रास्ते पर तुम चल पड़ी हो वह अन्ततः बीमारी और बदनामी के सिवाय तुम्हें कुछ नहीं देगा।
रेखा चित्र : शशिभूषण बड़ोनी 
ऐसे में ये कपड़े तुम्हें आज आबरू ढाँपने के लिए दिये हैं।’’ डॉ. देव ने गम्भीरता से कहा और तेज-तेज लौट आया था।

     श्वेता के सिर से पाँव तक तीव्र झनझनाहट सी रेंग गई फिर देवा की सोच पर सोचते हुए उसकी आँखों में सचमुच के आँसू टप-टप बहने लग गये थे।

  • डाकघर महादेव, सुन्दर नगर, जिला मंडी (हि.प्र.)



अजहर हयात

आदर

     ‘‘नहीं-नहीं! बाबाजी गिर जाओगे’’, कॉलेज के लड़के ने बूढ़े को मशविरा दिया। सिटी बस मुसाफिरों से खचाखच भरी थी कि तिल रखने की भी जगह नहीं थी। मगर बूढ़ा एक पैर और एक हाथ के सहारे बस के गेट पर लटक गया। आखिर अंदर से एक ऐसा धक्का लगा कि उसकी पकड़ कमजोर पड़ गई और हाथ छूट गया और पैर उखड़ गये। दूसरे मुसाफिरों ने आवाज लगाई, ‘‘अरे-अरे बस रोको, बस रोको, बूढ़ा गिर गया है’’। बस रुक गई, लोग बूढ़े को देखने लगे। एक ने कहा अरे ये तो मर गया है। सब लोग एक साथ बोल उठे- ‘‘हाय मर गया बेचारा’’। सबने कहा अस्पताल पहुंचा दो और फिर बूढ़े को आहिस्ता से उठाया गया और बस में पूरी एक सीट खाली कर दी गई। बूढ़े की लाश को आदर के साथ रख दिया गया और फिर बस चल पड़ी।

  • 9ए, हयात मंजिल, राठोर लेआउट, अनंत नगर, नागपुर-13 (महाराष्ट्र)



कांता देवांगन


नेक तोहफा

   बचपन का वह सुखद क्षण जो हमने अंकल वामसन के साथ गुजारे, भूले से भी भुलाये नहीं जा सकते। बस्ती में खुशियां आती भी तो उनके लाने पर ही। हम बच्चों के लिए तो वह क्रिसमस पर हमारे सेंटाक्लॉज और नये वर्ष पर सूर्य की नई किरणें।
    एक छोटी सी बस्ती में, सब साथ-साथ, दुःख-सुख के साथी थे। दो जून की रोटी का नसीब हो पाना ही हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी। ऐसे में क्रिसमस, नया वर्ष मनाना तो दूर की बात थी। उस बस्ती में केवल वामसन अंकल ही ऐसे थे जिनकी परिस्थिति थोड़ी अच्छी थी। अंकल वामसन एक प्रसन्नचित्त व खुले स्वभाव के व्यक्ति थे। हर किसी का सुख और दुःख बाँटना उनकी जिंदगी का एक हिस्सा था। सबके चेहरे पर मुस्कान बिखेरने की उनके अन्दर एक कला थी।
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी 
    उनका एक बेटा था पीटर, एक अव्वल दर्जे का मुक्केबाज और हँसमुख स्वभाव का मस्तमौला युवक। बात-बात में लोगों को हँसाने वाला युवक। मैं पढ़ाकू और वह पढ़ाई से भागने वाला। हम दोनों में यही एक फर्क था। इसलिए अंकल उसे मुक्केबाजी के लिए प्रोत्साहित करते और मुझे पढ़ाई के लिए। हम दोनों का अपना-अपना उद्देश्य, मैं पढ़ाई में तेज था इसलिए छात्रवृत्ति मिलने पर उच्च पढ़ाई के लिए विदेश चला गया। 
    तीन साल बाद पढ़ाई खत्म होने के बाद आने पर पता चला कि पीटर नशे में धुत रहता है और अंकल वामसन इससे बहुत परेशान रहते हैं तो मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने मन ही मन ठान लिया कि अंकल वामसन की वह पुरानी हँसी और चेहरे की मुस्कान वापस लाकर ही रहूँगा। पीटर को नशामुक्ति केन्द्र में भर्ती करवाकर जब उन्हें पुराना पीटर वापस किया तो उनके चेहरे की वह मुस्कान देखकर मुझे बचपन की वह याद ताजा हो गई, जब अंकल हमें तोहफा देकर हमारे चेहरे की मुस्कान देखकर मुस्कुराया करते थे।

  •   नर्मदा निवास, न्यू कॉलोनी, पचोर, राजगढ़-465683, म.प्र.




कमलेश चौरसिया




मानवता

     पुलिस कांस्टेबल रामधारी के घर से दो मकान आगे उस्मान अली का घर है। नित्यक्रिया से निवृत्त हो दोनों अपने घर से एक साथ निकलते हैं। थोड़ी चहलकदमी कर बतियाते, सुख-दुःख का समाचार पूछते, मंदिर-मस्जिद जाकर अपने-अपने आराध्य से अमन-चैन की दुआ माँगते हैं और अधूरे छोड़े गये वार्तालाप को पूरा करते हुए घर लौटते हैं। यह उनकी दिनचर्या में शामिल है।
    रामधारी के हिन्दू मित्र ने बताया कि पाकिस्तान में बड़ी मारकाट मची है। उसने हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार को मसाले में लपेट चटखारे लेता हुआ धार्मिक उन्माद का जहर कानों में उड़ेल दिया। रामधारी का मन द्रवित हो उठा।
    एक दिन वह करीब 6 बजे अपनी ड्यूटी से घर वापस आ रहा था। उसने देखा कि धर्मोन्माद में उन्मत्त कुछ हिन्दू तलवार, भाले और कट्टे लेकर मुट्ठी भर मुस्लिमों के पीछे भाग रहे हैं। पुलिस को देखकर उन्होंने
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी 
बचाने की गुहार लगाई और दया की याचना की। रामधारी के मन में पाकिस्तान में मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर किये जा रहे अत्याचार का विवरण कौंध गया। वह भी जोश में भर उठा। उसी समय उसे उस्मान अली याद आ गया। उस छवि में अपनों के खोने का दर्द सीने में तीर की शीतलहर पैदा कर गया। वह दहाड़ता हुआ बलवाइयों के सामने ढाल बनकर खड़ा हो गया, लेकिन आक्रोश के उफान में वह स्वयं को बचा नहीं सका। आखिरी साँसें लेते समय उसके चेहरे पर आत्मसंतुष्टि झिलमिला रही थी कि उसने अपने देश के नाम पर बट्टा नहीं लगने दिया और मानवता के नाते अपने जैसे दूसरे मनुष्य को बचाते हुए बलिदान हो गया। 


  • गिरीश-201, डब्ल्यू.एच.सी. रोड, धरमपेठ, नागपुर-440010 (महारष्ट्र)



कृष्ण मोहन ‘अम्भोज’




मुँह दिखाई

     आज सरला के हाथ पत्र लिखते हुए कंपकंपा रहे थे। आँखें गीली हो चली थीं। टपकते आंसुओं की बूंदों में अतीत दिखाई देने लगा। तीन साल की उम्र में माँ का साया सर से उठ गया था। पूरा बचपन सौतेली माँ की झिड़कियाँ सहकर ही बीता। दसवीं दर्जा तक पढ़ाई हो सकी और पिता ने हाथ पीले कर दिये। सौतेली माँ और सौतेला भाई दोनों ही उससे छुटकारा पाना चाहते थे। ससुराल आकर भी उसे सासू माँ से सौतेली माँ सा ही व्यवहार मिला। वह यह सब सहकर पथरा सी गई। अब तो पिता का साया भी सर से उठ गया। आज जैसे-
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 
तैसे पत्र लिखकर अपने सौतेले भाई के पास पोस्ट भी कर दिया।

     लिखा था- ‘‘भैया राकेश मैं तुम्हें अपना छोटा भाई ही समझती रही, भले ही तुमने मुझे बहन न माना हो। यहाँ तक कि तुम मुझे अपनी शादी में भी लिवाने नहीं आए। कोई बात नहीं। पिताजी ने कुछ रुपये बचत कर मेरे नाम जमा कर दिये थे। आज मैं उनके कागजात हस्ताक्षर कर तुम्हारे पास भेज रही हूँ। तुम रुपये निकाल लेना और इन्हें मेरी ओर से भावज को मुँह दिखाई समझ लेना।
     यह पत्र जब तुम्हें मिलेगा, मैं इस दुनियां से विदा हो चुकी होऊँगी। तुम्हारी बहन सरला।... पत्र पढ़कर राकेश सन्न रह गया। फूट-फूट कर रोने लगा। शायद उसे अतीत कचोटने लगा।

  • नर्मदा निवास, न्यू कॉलोनी, पचोर, राजगढ़-465683, म.प्र.



डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’




विमल भाई

     विमल भाई ने अभी किताब बंद ही की थी कि छः-सात मित्र उनके कमरे पर आ धमके। दरअसल विमल भाई का सात-आठ प्रतियोगी छात्रों का समूह था और बारी के हिसाब से आज शाम की चाय का प्रोग्राम विमल भाई के ही कमरे पर था। विमल भाई ने कुर्सी पे बैठे-बैठे ही सबको हाय-हैलो किया, महफ़िल जम गयी और देश-दुनिया की ख़बरों पर सबकी टिप्पणियाँ आने लगीं; तभी स्विस राजनयिक के साथ बलात्कार की घटना पर सभी की त्योरियाँ चढ़ गयीं। सुशील जूनियर का कहना था कि जब विदेशी राजनयिक की सुरक्षा हमारी सरकार नहीं कर सकती तो देश की आम स्त्रियाँ अपने आपको कितना सुरक्षित मानें। शिवेन्द्र भाई का तर्क
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी 
था- ‘‘यदि सरकार शोहदों के ख़िलाफ़ काररवाई नहीं करती है तो अपने देश का मालिक भगवान ही है!’’ साथियों के बीच ‘विचारक’ के नाम से मशहूर अबतक शान्तिपूर्वक सभी को सुन रहे मृगेन्द्र जी ने अत्यन्त गम्भीर चिन्ता ज़ाहिर की- ‘‘अपने देश की अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर छीछालेदर हो गयी, क्या कहेंगे आप?’’ चर्चा अपने चरम पर थी कि शिवराम भैया बरबस ही बोल पड़े-‘‘मानवता तो बची ही नहीं....।’’ वे अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाये थे कि विमल भाई अपने निराले अन्दाज़ में मुस्कराते हुए बोल पड़े- ‘‘मानवता अभी खतम कहाँ भइल बाऽ, अगर मानवता बचल ना रहीत त ओकरा के पैतालिस मिनट बाद जिंदा छोड़ दिहितन सब!’’ सबने विमल भाई को दाद दी- ‘‘बिलकुल खरी बात बोले हैं विमल भाई!’’... और सब ज़ोर-ज़ोर से खिलखिला पड़े। विमल भाई अबतक चाय तैयार कर चुके थे। सभी ने ‘मजा आ गया’ के साथ चाय समाप्त की और कल शाम की चाय के लिये शिवराम भैया के यहाँ मिलने का वायदा कर अपने-अपने रूम की राह पकड़ ली। पीसीएस प्री. का इम्तिहान सर पर था।


  • 24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.)-212601/ मोबाइल  09839942005



पुष्पा चिले


कफन

    ‘‘मालकिन एक पुराना कम्बल या रजाई दे दो। बहुत जाड़ा लगता है, एक कम्बल से बच्चों को तो किसी तरह ढक देती हूँ परन्तु मेरी रातें नहीं कटतीं।’’
    संध्या कहीं जाने को तैयार हो रही थी। 
    ‘‘कमली आज तो मैं समाजसेवा के एक कार्यक्रम में जा रही हूँ, कल-वल निकाल दूँगी।’’ 
    करीब दस दिन बाद पैरों में तेल लगाते हुए कमली ने फिर कम्बल वाली बात दुहराई।
    ‘‘अरे हाँ! मैं भूल गई थी। कल जरूर निकाल दूँगी।’’ पन्द्रह दिन निकल गये। इस बीच कमली ने दबी जुबान से फिर संध्या से निवेदन किया।
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 

    ‘‘अरे बाबा, निकाल दूँगी। बार-बार भूल जाती हूँ। घर की जिम्मेदारी, फिर समाज सेवा के काम। क्या-क्या याद रखूँ।’’
     तीन-चार दिन बाद संध्या गरम कपड़ों का ट्रंक धूप में रखवा रही थी। उसी में नीचे एक पुराना कम्बल पड़ा मिल गया। उसे याद आया कि कमली ने कम्बल माँगा था। उसने कम्बल निकलवा लिया, सोचा कल कमली आयेगी तो उसे दे दूँगी।
    दूसरे दिन सुबह कमली की लड़की वैजंती आई। वह कुछ कहती, इससे पहले ही संध्या उसे कम्बल देते हुए बोली- ‘‘ले वैजंती, यह अपनी माँ को दे देना। बड़ा गरम है।’’
     ‘‘मालकिन.... माई तो...।’’
     ‘‘क्या बात है। बोल ना! ये गंगा-जमुना क्यों बहाये जा रही हो?’’
    ‘‘कल रात... रात ठंड के मारे... माई की... मौत हो गई।’’ लाइये मालकिन यह कम्बल मरने के बाद कफन तो ओढ़ लेगी माई।

  • 232, मागंज वार्ड नं.1, दमोह-470661 (म.प्र.) / मोबाइल : 09977058102



श्रेयस निसाल

सौरभ का नया मित्र

    सौरभ की छुट्टियाँ चल रही थीं और घर बैठे-बैठे वह बोर हो रहा था। उसने सोचा अपने पास-पड़ोस में कुछ खोजबीन की जाये। साइकिल निकाली और अपने मिशन पर चल दिया। कई जगहों पर वह घूमता रहा।
    उसे बड़ा अच्छा लगा इस तरह से घूमना। अतः उसने निश्चय किया कि अब वह रोज इसी तरह घर से बाहर निकलेगा। एक दिन ऐसे ही टहलते हुए उसने देखा कि एक कुत्ता कुछ लँगड़ाते हुए चल रहा है और दर्द से परेशान है। वह तुरन्त साइकिल से नीचे उतरा और उस मूक प्राणी के पास पहुँच गया। वैसे भी सौरभ को प्राणियों से अधिक लगाव था। मूक प्राणी बिचारे अपनी सहायता के लिए गुहार नहीं लगा सकते। आव देखा न ताव। सौरभ ने पानी की बोतल से उस कुत्ते के जख्म को धो दिया। जख्म अभी ताजा था और अधिक गहरा नहीं था।
     दिन बीतते रहे। हमेशा की तरह सौरभ अपनी साइकिल पर सवार हो घूमने जाता रहा। घूमते-घूमते एक
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
दिन वह किसी अंजान इलाके में पहुँच गया। अचानक सड़क के कुछ आवारा कुत्ते उसे देखकर जोर-जोर से भौंकने लगे। सौरभ घबरा गया कि कहीं ये कुत्ते उस पर हमला न कर दें। अचानक सड़क के दूसरी ओर से एक कुत्ता आया और वह उन आवारा कुत्तों पर टूट पड़ा।

    यह वही कुत्ता था जिसकी सौरभ ने सुश्रूवा की थी। आज उसी ने सौरभ को बचाया। अब वह बिल्कुल ठीक हो गया था। जरूरतमंद की सहायता का नतीजा उसकी आँखों के सामने था।
    इसके बाद सौरभ ने कभी अपने आपको अकेला महसूस नहीं किया। वह कुत्ता उसका मित्र बन गया था। जिसे उसने प्यार से ‘लियो’ नाम दिया था।

  • नागपुर/ मोबाइल : 09823046901


संजय बोरूडे

शादी का तरीका

    बाबा साहब ने लड़की पसंद की थी। अब शादी की रस्में, दहेज और बाकी शर्तों की चर्चा करने के लिये उसे और घरवालों को बुलाया।
    सब रिश्तेदारों और मेहमानों के सामने बाबा साहब ने बताया, ‘‘मुझे लड़की शत-प्रतिशत पसंद है और मेरी कोई शर्त या माँग नहीं है। मेरी अच्छी खासी नौकरी है। मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है। आपकी बेटी पढ़ी-लिखी और सुशील है इसलिये मुझे पसंद है और तो और मैं यह भी कहना चाहूँगा कि हो सके तो शादी सीधे-सादे तरीके से करोगे तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है।’’
    ‘‘तो क्या शादी के लिये जो भी पैसा खर्च होने वाला है....’’ लड़की के मामा पूछने लगे।
    ‘‘नहीं-नहीं।’’ बाबा साहब के पिता ने बात काटते हुये कहा- ‘‘आप गलत समझ रहे हैं। हमे शादी के खर्चे के पैसे भी नहीं चाहिये।’’
    सब दंग रह गये और लड़की खुशी से उछलने लगी। इतना सरल और सुशील लड़का अपना जीवन साथी
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 
होगा, ये सोचकर उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था।

    ‘‘फिर ये कैसी शादी? ना बारात, ना समारोह। हमारे घर की पहली शादी है, वह तो बड़ी धूमधाम से होनी चाहिये।’’ लड़की के चाचा जो मशहूर व्यापारी थे, बोले।
    ‘‘ठीक है।’’ बाबा साहब ने कहा, ‘‘तो कम से कम दिल दहला देने वाला और कान फोड़ने वाला डी.जे. मत लगवाइयेगा।’’
    ‘‘ये कैसी शादी की बात कर रहे हैं? क्या आप हमें भिखारी समझ रहे हैं?’’ लड़की का भाई ताव में आ गया। ‘‘अगर डी.जे. नहीं होगा तो मेरे दोस्त नाचेंगे कैसे? पूरा गाँव शादी में शरीक होगा और आप ये कह रहे हैं?’’
    ‘‘आपका सुधारवादी ढंग और सोच अपने पास रखिये। नहीं होगी शादी’’ लड़की के मशहूर व्यापारी चाचा बोले। ‘‘आपसे अच्छे कई रिश्ते मिल जायेंगे, जो हमारी बराबरी के होंगे और हैसियत के भी।’’

  • 204, मुला, शासकीय निवासस्थाने, डी.एस.पी. चौक, अहमद नगर-414001 (महाराष्ट्र) / मोबाइल : 09372560518

1 टिप्पणी:

  1. Aadarniya Mahadoshiji
    Aviram ka naya ank dekha. Achchha laga. kavitayen aur gazalen milijuli hain. Dr Yogendra nath Sharma 'Arun' ka geet door chalen prabhavit karta hai. Bhaav ke star par unki pakad achchhi hai, halanki geet mein Chhanddosh iske prvaaah ko rokta hai. yadi lay mein pravah hota to yeh geet bahut hi sunder hota. Ashok Anjum ne gazal par apni pakad kayam rakhi hai aur padhkar achchha lagta hai. Shubhda pandey ka 'Sandook mein Nadi' grameen Sanskrruti ka achchha parichayak hai aur kavita ka ras dene mein kamyab raha hai. Sanjeevan Mayank aur Krishna kumar ke gazlen prabhavit nahin kar patin. laghukathayen kuch achchhi to kuchh ausat hain.Aage aur achchhe ank ki ummeed hai.

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