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बुधवार, 24 मई 2017

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर  2016





।। कथा प्रवाह ।।


डॉ.सतीश दुबे साहब को स्मरण करते हुए

{लघुकथा के आधार स्तम्भ और महान सृजक  डॉ. सतीश दुबे साहब विगत 25 दिसम्बर 2016 को  इस दुनिया  विदा हो गए।  श्रद्धेय दुबे साहब भौतिक शरीर के साथ भले हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन लघुकथा के बीच से उठकर वह कभी नहीं जा सकते। लघुकथाकारों में वह वरिष्ठतम थे। सातवें दशक से आरम्भ करके अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उन्होंने लघुकथा के लिए काम किया। सृजन से लेकर लघुकथा के रूप-स्वरूप के निर्धारण, विवादों के समाधान, लघुकथा समीक्षा-समालोचना और नई पीढ़ी को तैयार करना, उनका योगदान हर क्षेत्र में उल्लेखनीय रहा। लघुकथा को विधा के रूप में स्वीकार्यता के लिए जिस समग्र दृष्टि और व्यापक आधार की आवश्यकता थी, उसके लिए की गई हर पहल में दुबे साहब शामिल थे। सच बात तो यह है कि लघुकथा का वर्तमान मुकाम दुबे साहब के बिना संभव नहीं था।
      अविराम के प्रति उनका स्नेह अपरिमित था। उनकी हीरक जयंती के अवसर पर कुछ पत्रिकाओं ने विशेषांक प्रकाशित किए थे, जिन्हें पढ़ने के बाद मैंने उन अंकों को आधार बनाकर उनके व्यक्तित्व और रचनात्मकता पर एक सर्वेक्षणात्मक आलेख लिखने का अपना मंतव्य उनके समक्ष रखा था, उन्होंने उस आलेख की प्रतीक्षा भी की, किन्तु दुर्भाग्य से उसके पूरा होने पर ईश्वर ने इतना समय नहीं दिया कि हम वह आलेख उन्हें पढ़वा पाते। दुबे साहब को स्मरण करते हुए उनकी कुछ लघुकथाओं के साथ उस आलेख को भी हम यहाँ प्रस्तुत कर रहेे हैं। }

डॉ. दुबे साहब की कुछ लघुकथाएँ

उत्स
      लम्बे-चौड़े पाटवाली नदी की ओर गहन-गम्भीर विचार में खोकर उन्होंने इशारा किया- ‘‘नदी की ओर देख रही हो ना? पानी सूख जाने के कारण, देखो प्रवाह, गहराई, इसके जल से अठखेलियां करती हुई तरंगे सब गायब हो गई। इसके जीवन से लुप्त हो गईं। यहाँ तक कि इस शिवालय की मूर्ति-पूजा और घंटियाँ बजना भी बंद हो गईं। न आदमी, न जानवर! पशु-पक्षी सब कन्नी काट गये। समझी ना! जीवन भी यही है। पर इससे सबक लेने की बजाय हम मोहपाश में बँधते जाते हैं। यह जानते हुए भी, पाट कितना भी चौड़ा हो, पानी सूख जाने पर अर्थ ही बदल जाता है.....।’’
      ‘‘अब मैं अपनी बात भी कहूँ....। आपकी निगाह किनारे पर खड़े हुए वृक्षों की ओर है कि नहीं? बताइये! ये हरे-भरे वृक्ष, हवा में लहराते हुए किसका गुण गा रहे हैं? नदी की ये रेत, बड़ी-बड़ी चट्टानें, नदी के उस पानी का अस्तित्व नहीं है क्या? इनका उत्स कहाँ से है? वृक्षों के पत्तों की जड़ों में पानी कौन सा कायम है? श्रीमान जी! पानी सूख जाने से अस्तित्व नष्ट नहीं हो जाता। एक बात और, किसी बढ़ई से पूछ देखिये कि, वृक्ष का डूंड या जड़ काटना आसान है कि टहनियाँ।’’ पत्नी ने गहरे चुभकर चुटकी ली।
      वे फिर अपनी पराजय अनुभव कर रहे थे। उसने उनके चेहरे को पढ़ा तथा मुस्कुराई- ‘‘यहाँ भी क्या यह खटराग लेकर बैठ गये, लीजिये मैं आपको एक गाना सुनाती हूँ....।’’
      गाना सुनकर उन्हें लगा, नदी तरल है, सूख जाने पर भी ठंडी लहरों के झोंके देने की क्षमता उसमें है।
      उनका मूड एकदम बदल गया।

आकाशी छत के लोग
      बालकनी में बैठे-बैठे आसपास की लंबी सैर करने के बाद दृष्टि सामने के जिस मैदान पर स्थिर हो जाया करती है, आज वह वहीं खड़ा था।
      निपट अँधेरे के बीच आग से निकलने वाले स्वर्णिम प्रकाश में दमकते हुए अनेक चेहरे। हथेलियों से रोटियाँ थेप रही औरतें, उनके आसपास बैठे आदमी, बच्चे-खच्चे। ‘आए की खिलाव मोटी-छोटी रोटी, पिलाव प्यासे को पानी’ आदर्श के सामने मत्था टेक वह उनकी हँसी-खुशी के वातावरण में खो गया।
      ‘‘आप लोग कहाँ के रहने वाले हैं?’’
      ‘‘रेणे वाले तो राजस्थान मेवाड़ में हैं जी, पर ये पूरी धरती माता हमारा घर और आसमान हमारी छत है जी, और साबजी आप...?
     ‘‘वो सामने वाली बिल्डिंग की तीसरी मंजिल के बीच वाले फ्लैट में....।’’
     इशारे की अंगुली वह नीची भी नहीं कर पाया था कि, बातचीत में हस्तक्षेप कर मुखर हो रही एक युवती हाथ हिलाते हुए बोली- ‘‘ऐसा कैसा घर जी आपका, जां से न धरती छी सको, न आसमान देख सको....।’’
     टिप्पणी सुन हतप्रभ सा निरुत्तर-मुद्रा में वह युवती की ओर देखने लगा। वह समझ नहीं पा रहा था, संवाद का अगला सिलसिला कहाँ से शुरू करे।

अगला पड़ाव
    अपने बच्चों की अब तक की जीवन-यात्रा से सम्बन्धित विभिन्न अनुभवों, प्रसंगों, उम्रानुकूल चर्चा-चुहुल, बलात खोखले हंसी-ठट्ठों के बावजूद दिल-दिमांग के खालीपन की यथावत ऊब से निजात पाने के लिए कुर्सियाँ लगाकर दोनों आँगन में बैठ गए।
    इधर-उधर निगाह घुमाते हुए अचानक बापू की निगाह बाउन्ड्री-वॉल के समतल भाग पर बीच में पड़े दानों को एक-दूसरे की चोंच में खिलाते हुए चिड़ा-चिड़िया की गतिविधियों पर जाकर ठहर गई। उन्होंने बा को हरकत में लाने के लिए इशारा करते हुए पूछा- ‘‘इन परिंदों को पहचाना, नहीं ना...? मैं बताता हूँ, यह वही युगल-जोड़ी है, जिन्होंने दरवाजे के साइड में लगे वुडन-बोर्ड की खाली जगह पर तिनका-तिनका चुनकर घोंसला बनाने से चूजों के पंखों में फुर्र होने की शक्ति आने तक की प्रक्रिया को अंजाम दिया था। ये वे ही तो हैं जो आज भी यदाकदा दरवाजे की चौखट पर मौन बैठे रहते हैं और तुम कमेन्ट्स करती हुई कहती हो- ‘‘देखो बेचारों की सूनी आँखें बच्चों का इंतजार कर रही हैं....।’’
    ‘‘आप भी ना, कुछ तो भी बातें करते हो। अच्छा ये बताओ, आपने इन्हें कैसे पहचाना?’’
    ‘‘अरे, जो हमारे आसपास प्रायः दिखते हैं, उन्हें कौन नहीं पहचान लेगा? वैसे भी परिन्दों के संसार का यह नियम है कि वे बसेरा बनाने के लिए चुना गया वृक्ष और घर, विशेष परिस्थितियों तक छोड़ते नहीं हैं...।’’
    बापू ने महसूस किया बा का ध्यान उनकी बातों की ओर कम, चिड़ा-चिड़िया की गतिविधियों पर अधिक केन्द्रित था। अपने ध्यान से उपजी सोच को बापू के साथ बाँटते हुए वह बोली, ‘‘लगता है अपने फर्ज से निपटकर इन्होंने अपनी नई जिन्दगी शुरू कर दी है।’’
    बापू ने महसूस किया यह कहते हुए बा के चेहरे पर उत्साह और प्रसन्नता के भाव तरल बदलियों की तरह घुमड़ रहे हैं।

  •  परिवार संपर्क :  श्रीमती मीना दुबे, 766, सुदामा नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.)/मो. 09617597211

आलेख
डॉ. सतीश दुबे का रचनात्मक व्यक्तित्व :  पिचहत्तर वर्षीय यात्रा का सर्वेक्षण

इस आलेख को निम्न लिंक (डॉ. बलराम अग्रवाल संचालित ब्लॉग 'जनगाथा') पर पढ़ा जा सकता है-

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