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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

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अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 6,  फरवरी 2013 


विश्व पुस्तक मेले में दिशा प्रका. के स्टाल पर प्रज्ञा सम्मान समारोह 
{ दिशा प्रकाशन के स्टाल पर दिखा  'अविराम साहित्यकी' का लघुकथा विशेषांक}      

सुरेश यादव को प्रज्ञा सम्मान 
          


अशोक भाटिया  को प्रज्ञा सम्मान 
 दिनांक 09.02.2013   को विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर दिशा प्रकाशन के स्टाल पर प्रज्ञा सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। भाई मधुदीप,  मधुकांत तथा हरनाम शर्मा द्वारा सर्वश्री अशोक वर्मा,  सुरेश यादव, अशोक भाटिया, आर.के.पंकज,  उमेश महादोषी, सुरेन्द्र गोयल,  श्रीमती कांता बंसल तथा शोभा रस्तोगी को उनकी लेखकीय तथा पत्रकारिता में उपलब्धियों के लिए प्रज्ञा सम्मान से सम्मानित किया गया। सभी सम्मानित साहित्यकारों को शाल, प्रतिक चिह्न, प्रमाण-पत्र  के  साथ दिशा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तकें भी भेंट की गयीं।    
अशोक वर्मा को प्रज्ञा सम्मान 
           

शोभा भारती को प्रज्ञा सम्मान 
इस अवसर पर दिशा प्रकाशन के स्टाल पर भारी भीड़ के साथ कुमार नरेन्दर, राजकुमार निजात, शकुन्त दीप,  सुधीर कुमार तथा अनेक प्रकाशक तथा लेखक बंधु उपस्थित थे। मधुदीप ने सम्मानित लेखकों का परिचय उपस्थित सभी बन्धुओं से करवाया तथा हरनाम शर्मा ने आभार व्यक्त किया। मधुकांत जी ने सूचना प्रदान की कि प्रज्ञा मंच इस वर्ष को प्रख्यात लेखिका स्वर्गीया इंद्रा स्वप्न के जन्मशती के रूप में मना रहा है तथा उनके जन्मदिन पर भव्य समारोह का आयोजन किया जायेगा। 
    पुस्तक मेले के अवसर पर दिशा प्रकाशन ने लघु पत्रिकाओं को सहयोग देने हेतु अपने स्टाल पर कई लघु-पत्रिकाओं को प्रदर्शित किया, जिनमें अविराम साहित्यकी का लघुकथा विशेषांक भी शामिल था। पूरे (समाचार सौजन्य : मधुदीप,  निदेशक, दिशा प्रकाशन)



हिन्दी कथा साहित्य एवं स्वयं प्रकाश विषयक राष्ट्रीय सेमीनार




चित्तौड़गढ़। यथार्थ को संजोते हुए जीवन की वास्तविकता का चित्रण कर समाज की गतिशीलता को बनाये रखने का मर्म ही कहानी हैं। सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता शक्ति एक कथाकार की विशेषता है और स्वयं प्रकाश इसके पर्याय बनकर उभरे हैं। उनकी कहानियों में खास तौर पर कथा और कहन की शैली खासतौर पर दिखती हैं। यही कारण है कि पाठक को कहानियों अपने आस-पास के परिवेश से मेल खाती हुई अनुभव होती हैं। विलग अन्दाज की भाषा शैली के कारण स्वयं प्रकाश पाठकों के होकर रह जाते हैं। चित्तौड़गढ़ में आयोजित समकालीन हिन्दी कथा साहित्य एवं स्वयं प्रकाश विषयक राष्ट्रीय सेमीनार में मुख्यतः यह बात उभरकर आयी।
         सेमीनार का बीज वक्तव्य देते हुए सुखाडिया विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो माधव हाडा ने कहा कि यथार्थ के प्रचलित ढाँचे ने पारम्परिक कहन को बहुत नुकसान पहुंचाया है लेकिन अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के बावजूद स्वयं प्रकाश ऐसे कथाकार हैं जो यथार्थ के नए नए पक्षों का उद्घाटन करते हुए कहन को क्षतिग्रस्त नहीं होने देते। उन्होंने कहा कि कहानी और कथा का भेद जिस तरह से उनकी कहानियों को पढते हुए समझा जा सकता हैवैसा किसी भी समकालीन कथाकार के यहाँ दुर्लभ है। प्रो हाड़ा ने कहा कि आज के दौर में लेखक को स्वयं लेखक होने की चिन्ता खाये जा रही है वहीं मनुष्य एवं मनुष्य की चिन्ता स्वयं प्रकाश की कहानियों में परिलक्षित होती है। हिन्दू कालेज दिल्ली से आए युवा आलोचक पल्लव ने आयोजन के महत्त्व को प्रकाशित करते हुए कहा कि प्रशंसाओं के घटाटोप में उस आलोचना की बडी जरूरत है जो हमारे समय की सही रचनाशीलता को स्थापित करे। इस सत्र में कथाकार स्वयं प्रकाश ने अपनी चर्चित कहानी श्कानदांवश् का पाठ किया जो रोचक कहन में भी अपने समय की जटिल और उलझी हुई सच्चाइयों को समझने का अवसर देती है। पाठक जिसे किस्सा समझकर रचना का आनंद लेता है वह कोरा किस्सा न होकर उससे कहीं आगे का दस्तावेज हो जाती है। सत्र के समापन पर सम्भावना के अध्यक्ष डा. के.सी. शर्मा ने आगे भी इस तरह के आयोजन जारी रखने का विश्वास जताया। शुरूआत में श्रमिक नेता घनश्याम सिंह राणावत, जी.एन.एस. चैहान, जेपी दशोरा, अजयसिंह, योगेश शर्मा ने अतिथियों का अभिनन्दन किया।
       दूसरे सत्र के मुख्य वक्ता युवा कवि अशोक कुमार पांडेय ने अपने समकालीन कथा साहित्य की विभिन्न प्रवृतियों के कईं उदाहरण श्रोताओं के सामने रखे। उन्होंने समय के साथ बदलती परिस्थितियों और संक्रमण के दौर में भी स्वयं प्रकाश के अपने लेखन को लेकर प्रतिबद्ध बने रहने पर खुशी जाहिर की। उन्होंने समकाल की व्याख्या करते हुए कहा कि यह सही है कि किसी भी काल के विभिन्न संस्तर होते हैं. एक ही समय में हम आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक सभी स्तरों पर इन संस्तरों को महसूस कर सकते हैं। लेकिन जहाँ उत्तर-आधुनिक विमर्श इन्हें अलग-अलग करके देखते हैं वहीँ एक वामपंथी लेखक इन सबके बीच उपस्थित अंतर्संबंध की पडताल करता है और इसीलिए उसे अपनी रचनाओं की ब्रांडिंग नहीं करनी पडती। उसके लेखन में स्त्री, दलित, साम्प्रदायिकता, आर्थिक शोषण सभी सहज स्वाभाविक रूप से आते हैं। स्वयं प्रकाश की कहानियाँ इसकी गवाह हैं। उनकी दूसरी खूबी यह है कि वह पूरी तरह एशियाई ढब के किस्सागो हैं, जिनके यहाँ स्थानीयता को भूमंडलीय में तब्दील होते देखा जा सकता है। इस रूप में वह विमर्शों के हवाई दौर में विचार की सख्त जमीन पर खडे महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। सत्र की अध्यक्षता करते हुए कवि और चिंतक डा. सदाशिव श्रोत्रिय ने कहा कि कोइ भी व्यक्ति दूसरों की पीड़ा और व्यथा को समझकर ही साहित्यकार बन सकता है और सही अर्थों में समाज को कुछ दे सकता हैं। उन्होंने स्वयं प्रकाश के साथ भीनमाल और चित्तौड में व्यतीत दिनों पर एक संस्मरण का वाचन किया जिसे श्रोताओं ने पर्याप्त पसंद किया। जबलपुर विश्वविद्यालय की मोनालिसा और राजकीय महाविद्यालय मण्डफिया के प्राध्यापक डा. अखिलेश चाष्टा ने पत्रवाचन कर स्वयं प्रकाश की कहानियों का समकालीन परिदृश्य में विश्लेषण किया। विमर्श के दौरान पार्टीशन, चैथा हादसा, नीलकान्त का सफर जैसी कहानियों की खूब चर्चा रही। इस सत्र का संचालन माणिक ने किया।
        तीसरे सत्र के मुख्य वक्ता डॉ कामेश्वर प्रसाद सिंह ने समाकालीन परिदृश्य में स्वयं प्रकाश की उपस्थिति का महत्त्व दर्शाते हुए कहा कि पार्टीशन जैसी कहानी केवल साम्प्रदायिकता जैसी समस्या पर ही बात नहीं करती अपितु संश्लिष्ट यथार्थ को सही सही खोलकर कर पाठक तक पहुंचा देती है। उन्होंने क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा है? का उल्लेख करते हुए कहा कि मध्यवर्ग का काइंयापन इस कहानी में जिस तरह निकलकर आता है वह इस एक खास ढंग से देखने से रोकता है। इस सत्र में इग्नू दिल्ली की शोध छात्रा रेखासिंह ने पत्र वाचन किया। अध्यक्षता कर रहे राजस्थान विद्यापीठ के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मलय पानेरी ने कहा कि स्वयं प्रकाश की कहानियां नींद से जगाने के साथ आँखें खोल देने का काम भी करती हैं। उन्होंने स्वयं प्रकाश की एक अल्पचर्चित कहानी ढलान पर का उल्लेख करते हुए बताया कि अधेड होते मनुष्य का जैसा प्रभावी चित्र इस कहानी में आया है वह दुर्लभ है। सत्र का संचालन करते हुए डॉ रेणु व्यास ने कहा कि स्वयं प्रकाश की कहानी के पात्रों में हमेशा पाठक भी शामिल होता है यही उनकी कहानी की ताकत होती है।
समापन सत्र में डा. सत्यनारायण व्यास ने कहा कि जब तक मनुष्य और मनुष्यता है जब तक साहित्य की आवश्यकताओं की प्रासंगिकता रहेगी। उन्होंने कहा कि मानवता सबसे बड़ी विचारधारा है और हमें यह समझना होगा कि वामपंथी हुए बिना भी प्रगतिशील हुआ जा सकता है। सामाजिक यथार्थ के साथ मानवीय पक्ष स्वयं प्रकाश की कहानियों की विशेषता है एवं उनका सम्पूर्ण साहित्य, सृजन इंसानियत के मूल्यों को बार-बार केन्द्र में लाता है। सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात समालोचक प्रो. नवलकिशोर ने स्वयं प्रकाश की कहानियों के रचना कौशल के बारीक सूत्रों को पकडते हुए उनकी के छोटी कहानी हत्या का उल्लेख किया।   उन्होंने कहा कि मामूली दिखाई दे रहे दृश्य में कुछ विशिष्ट खोज लाना और उसे विशिष्ट अंदाज में प्रस्तुत करना स्वयं प्रकाश जैसे लेखक के लिए ही संभव है। चित्रकार और कवि रवि कुमार ने इस सत्र में कहा कि किसी भी कहानी में विचार की अनुपस्थिति असंभव है और साहित्य व्यक्ति के अनुभव के दायरे को बढ़ाता हैं। इस सत्र का संचालन कर रहे राजकीय महाविद्यालय डूंगरपुर के प्राध्यापक हिमांशु पण्डया ने कहा कि गलत का प्रतिरोध प्रबलता से करना ही स्वयं प्रकाश की कहानियों को अन्य लेखकों से अलग खड़ा करती है।     
           रावतभाटा के रंगकर्मी रविकुमार द्वारा निर्मित स्वयंप्रकाश की कहानियों के खास हिस्सों पर केन्द्रित करके पोस्टर प्रदर्शनी इस सेमीनार का एक और मुख्य आकर्षण रही। यहीं बनास जन, समयांतर, लोक संघर्ष सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की एक प्रदर्शनी भी लगाई गई। सेमीनार में प्रतिभागियों द्वारा अपने अनुभव सुनाने के क्रम में विकास अग्रवाल ने स्वयंप्रकाश के साथ बिताये अपने समय को संक्षेप में याद किया। आयोजन में गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सहायक आचार्य डॉ गजेन्द्र मीणा प्रतिभागियों के प्रतिनिधि के रूप में सेमीनार पर अपना वक्तव्य दिया। इस सत्र में विकास अग्रवाल ने भी अपनी संक्षित टिप्पणी की। आखिर में आभार आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी लक्ष्मण व्यास ने दिया।
        आयोजन में उदयपुर विश्वविद्यालय से जुडे अध्यापकों एवं शोध छात्रों के साथ नगर और आस-पास के अनेक साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। आयोजन स्थल पर चित्रकार रविकुमार द्वारा कथा-कविता पोस्टर प्रदर्शनी, ज्योतिपर्व प्रकाशन द्वारा स्वयं प्रकाश की पुस्तकों की प्रदर्शनी एवं लघु पत्रिकाओं की प्रदर्शनी को प्रतिभागियों ने सराहा। ( समाचार सौजन्य : डा. कनक जैन, संयोजक, राष्ट्रीय सेमीनार, म-16, हाउसिंग बोर्ड, कुम्भा नगर, चित्तौडगढ -312001)


विश्व पुस्तक मेले में उद्भ्रांत की पुस्तकों का लोकार्पण

    

विश्व पुस्तक मेले में गत दिनांक 07 फरवरी को अमन प्रकाशन के स्टॉल पर वरिष्ठ कवि उद्भ्रांत से सम्बंधित पांच पुस्तकों का लोकार्पण करते हुए मूर्धन्य कवि डॉ. केदारनाथ सिंह ने कहा कि एक श्रेष्ठ कवि की नई पुस्तकों का लोकार्पण करते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है। यह कोई औपचारिकता मात्र नहीं है, बल्कि सच्चाई है कि उद्भ्रांत की कृतियों में ऐसा बहुत कुछ है जिसकी समाज को आवश्यकता है। पाठक जब उनकी कविता को पढ़ेंगे तो उन्हें समय की बेहतर समझ मिलेगी क्योंकि उनका समग्र काव्य आज की ज़रूरत को रेखांकित करता है। वरिष्ठ आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि उद्भ्रांत हमारे समय के ऐसे महत्त्वपूर्ण कवि हैं जो हमेशा चर्चा में रहते हैं। उनकी काव्यकृतियों के नये संस्करण होना और उन पर केन्द्रित आलोचना पुस्तकों का लगातार आना यह सिद्ध करता है कि उन्हें भावक पाठक और सहृदय आलोचक दोनों ही उपलब्ध हैं। ऐसा सुयोग बहुत कम कवियों को मिलता है। आलोचक डॉ. कर्णसिंह चौहान ने कहा कि उद्भ्रांत जी से चार दशक पूर्व बाँदा के प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में भेंट हुई थी। फिर उन्होंने कानपुर से ‘युवा’ जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका निकाली जिसने देशभर के प्रगतिशील साथियों को जोड़ दिया। लगभग दो दशक पहले वे दिल्ली आये तो उनकी उपस्थिति से राजधानी की हलचलें बढ़ गईं। उनका साहित्यिक योगदान बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण भी है।
जिन पुस्तकों का लोकार्पण हुआ वे क्रमशः इस प्रकार थीं-उद्भ्रांत रचित खण्डकाव्य ‘वक्रतुण्ड’ का द्वितीय संस्करण, डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय द्वारा सम्पादित समीक्षा पुस्तक ‘वक्रतुण्ड: मिथक की समकालीनता’, उद्भ्रांत द्वारा सम्पादित वाचिक आलोचना की पुस्तिका ‘लोकार्पण की भूमिका: काव्यनाटक और दलित विमर्श’, डॉ. शिवपूजन लाल का आलोचना ग्रंथ ‘उद्भ्रांत का काव्य: मिथक के अनछुए पहलू’ और उद्भ्रांत की बहुचर्चित लम्बी कविता ‘रुद्रावतार’ का मात्र दस रूपये लागत मूल्य  और पांच हजार प्रतियों का गुटका संस्करण, जिसे केदार जी ने ‘विलक्षण प्रयोग’ की संज्ञा दी। दूरदर्शन महानिदेशालय की अतिरिक्त महानिदेशक सुश्री दीपा चंद्रा के मुख्य आथित्य वाले इस कार्यक्रम में सर्वश्री दिनेश मिश्र (भूतपूर्व निदेशक, भारतीय ज्ञानपीठ), जलेस की दिल्ली इकाई के सचिव डॉ. बली सिंह, मीडिया विशेषज्ञ धीरंजन मालवे, दूरदर्शन की साप्ताहिक ‘पत्रिका’ कार्यक्रम के प्रोड्यूसर डॉ. अमरनाथ अमर, दूरदर्शन के सहायक केन्द्र निदेशक श्री पुरुषोत्तम नारायण सिंह और कवि जनार्दन मिश्र तथा अखिलेश मिश्र ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कवि को बधाईयाँ दीं। 
उसी दिन ज्योतिपर्व प्रकाशन के स्टॉल पर उद्भ्रांत के कहानी संग्रह ‘मेरी प्रिय कथाएं’ का लोकार्पण करते हुए डॉ. खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि उद्भ्रांत ने अनेक विधाओं में काम किया है, इसलिए स्वाभाविक है कि ‘ज्योतिपर्व प्रकाशन’ की इस चर्चित कथा श्रंृखला में उनके द्वारा चयनित उनकी कहानियों का संग्रह आता। संग्रह की कहानियां अपने समय की चर्चित कहानियां रहीं हैं किन्तु अपनी कथावस्तु के कारण निश्चय ही आज के पाठक भी उन्हें अवश्य पसंद करेंगे। (समाचार सौजन्य : सुनील, डी1/782ए, हर्ष विहार, दिल्ली-110093)



जनसुलभ साहित्यमाला की 12 पुस्तकों का विमोचन

हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर (उ.प्र.) द्वारा प्रकशित जनसुलभ साहित्यमाला की 12 पुस्तकों के सैट का विमोचन विश्व पुस्तक मेले में संपन्न हुआ। अनेक गणमान्य साहित्यकार और साहित्यप्रेमी उपस्थित थे। प्रत्येक पुस्तक का मूल्य पचास रुपये पूरे सैट का मूल्य कुल पाँच सौ रुपये रखा गया है। सैट में शामिल पुस्तकों में शामिल हैं-  कमरा नंबर 103 (सुधा ओम ढींगरा), इमराना हाज़िर हो  (महेशचंद्र द्विवेदी), कहानियाँ अमेरिका से (संपादक : इला प्रसाद), कुत्तेवाले पापा  (मीना अग्रवाल) व प्रेमचंद की कालजयी कहानियाँ  (संपादक : डॉ. कमलकिशोर गोयनका) {सभी कहानी संग्रह}; लघुकथाएँ मानव-जीवन की (सम्पादक : सुकेश साहनी व  रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु'); दूध का धुला लोकतंत्र (गोपाल चतुर्वेदी), आदमी और कुत्ते की नाक  (डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल) व सच का सामना  (हरीशकुमार सिंह) {व्यंग्य संग्रह}: अफलातून की अकादमी  (डॉ. शिव शर्मा); सिनेमा, साहित्य और संस्कृति (नवलकिशोर शर्मा); मान भी जा छुटकी  (गीतिका गोयल)। (समाचार सौजन्य : रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु' /  डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल)

 शशांक मिश्र भारती को विद्यासागर (डी.लिट.) की उपाधि

       

 गत दिनों विक्रममशिला हिन्दी विद्यापीठ के 17 वें अधिवेशन में मौनतीर्थ गंगाघाट उज्जैन पर मुख्य अतिथिश्री एस.एस. सिसौदिया रामचाकर, विशिष्ट अतिथि डा.हरीशप्रधान कुलाधिपति डा. सुमनभाई जी, कुलपति डा.तेजनारायण कुशवाहा व कुलसचिव डा. देवेन्द्रनाथ साह की उपस्थिति में शाहजहांपुर उ.0प्र. निवासी व रा.इ. का. दुबौला पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड में शिक्षक पद पर कार्यरत श्री शशांक मिश्र भारती को उनकी कृति पर्यावरण की कविताएं के लिए विद्यासागर (डी.लिट.) की उपाधि से अलंकृत किया गया। इनके अलावा 65 हिन्दी सेवियों को विद्यासागर, 88 को विद्यावाचस्पति, 15 को भारतगौरव, 5 को अंग गौरव, 3 को महाकवि, 1 को पत्रकार शिरोमणि, 1को ज्योतिष शिरोमणि, 16 को भारतीय भाषा रत्न, 9 को साहित्य शिरोमणि और 14 को समाजसेवी रत्न से अलंकृत किया गया।
       सम्मानित होने पर अनेक साहित्यकारों शिक्षकों  गाणमान्य नागरिकों ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए बधाई दी है। (समाचार सौजन्य : कु. एकांशी शिखा, सम्पादन सहयोगी, देवसुधा  दुबौला-पिथौरागढ़)


अविराम की समीक्षाएं




अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 6,  फरवरी  2013 

अविराम का लघुकथा विशेषांक




     
अविराम के लघुकथा विशेषांक की चार मित्रों- ओमप्रकाश कश्यप, शशिभूषण बड़ोनी, डा.तारिक असलम ’तस्नीम’ व शोभा रस्तोगी शोभा द्वारा लिखी समीक्षाएं प्राप्त हुई हैं। सभी समीक्षाएं यहां रखी जा रही हैं। मित्र पत्रिकाओं से अनुरोध है कि यदि संभव हो तो इनमें से किसी भी समीक्षा को अपने किसी अंक में स्थान देने का अनुरोध स्वीकार करें।







ओमप्रकाश कश्यप


अविराम साहित्यिकी की अविराम लघुकथा यात्रा
       अग्रज बलराम अग्रवाल के विशेष अनुग्रह से अविराम साहित्यिकी’ का ’ संस्करण प्राप्त हुआ था। संपादकीय के माध्यम से बलराम जी की विद्वता एवं विषय संबंधी पैठ का एक और नमूना मिला। मैं उसके बारे सोच ही रहा था कि अगले दिन वे अंक की हार्ड कॉपी लेकर अकस्मात उपस्थित हो गए। मेरे लिए यह समकालीन लघुकथा के तेवरों को समझने का विशेष अवसर था। इसलिए उससे अगले दिन करीब-करीब एक ही बैठक में पूरा अंक एक साथ पढ़ लिया। अंक की विशेषता जिसके लिए बलराम जी की प्रशंसा करनी होगीहिंदी के दिग्गज लघुकथाकारों द्वारा अपनी लघुकथा-यात्रा के प्रस्थान बिंदु को याद करना रहा। कमलेश भारतीयसिमर सिदोषयुगल,सतीश दुबेसतीश राज पुष्करणापारस दासोतसुकेश साहनीरामेश्वर कांबोज हिमांशु आदि ऐसे लेखक हैं जिन्होंने अपनी लेखकीय ऊर्जा का अधिकांश लघुकथा को समृद्ध करने पर खर्च किया है। उनमें बलराम अग्रवालसुकेश साहनीरामेश्वर कांबोज हिमांशु जैसे कुछ ही लेखक आज अपनी लेखकीय त्वरा को बनाए हैं। लेखकों के इस विशिष्ट आत्मकथ्य को पढ़कर जहाँ उनके लघुकथा संबंधी प्रस्थान बिंदू का संकेत मिलता हैवहीं इसके माध्यम सेसातवें-आठवें दशक में हिंदी लघुकथा के आंदोलन तथा उसके रचनाकारों की जद्दोजहद को भी समझा जा सकता है। इस दृष्टि से यह अंक संग्रहणीय है। हालांकि कुछ निराशा भी पैदा करने वाला है। जिन दिनों यह आंदोलन चरम पर थाउन दिनों लेखकों में होड़ मची रहती थी. तेजी से उभरती लोकप्रिय विधा का हर कोई श्लाका पुरुष बनना चाहता था। इसका परिणाम यह हुआ था कि लेखकों ने संगठित होकर विधा को समृद्ध करने के बजाय अपनी ऊर्जा एक-दूसरे को नीचा दिखाने में ठान ली। उस आत्मश्लाघा और स्पर्धा वाली प्रवृत्ति के चलते लघुकथा आंदोलन का बड़ा नुकसान हुआ। इन आत्मकथ्यों को पढ़कर कोई भी यह अनुमान सहज लगा सकता है कि कुछ लघुकथाकार आज भी आत्मरति से मुक्त नहीं हो पाए हैं। यह जानते हुए भी कि लघुकथा आंदोलन इसी कारण असमय ठंडा पड़ा थायहां हर कोई कंगूरों की तरह चमकना चाहता है। विधाओं को जमाने के लिए साहित्यकारों मेंनींव का पत्थर बनने जैसा धैर्य और त्याग भी चाहिए। 
    लघुकथाओं के बारे में बात की जाए तो विष्णु प्रभाकरशरद जोशीपरसाईजगदीश कश्यपरमेश बतरा आदि की रचनाएं कई-कई बार पढ़ी जा चुकी हैं। ये हिंदी की मानक लघुकथा का दर्जा पा चुकी रचनाएं हैं। इसलिए इन्हेंबार-बार पढ़ना भी अरुचता नहीं। कालीचरण प्रेमीसुकेश साहनी आदि की लघुकथाएँ भी स्तरीय हैं। इन्होंने अपनी लेखकीय वरिष्ठता को बनाए रखा है। इसके बावजूद यह अंक मुझे खास उत्साहित नहीं करता। हिंदी लघुकथा की गत दो दशकों की यात्रा के बारे में मेरी जो मामूली जानकारी हैउसके आधार पर मुझे लगा कि तब से अब तक कथानक की दृष्टि से हिंदी लघुकथा में नयापन न के बराबर आया है। एक-दो को छोड़कर अधिकांश लघुकथाकारों ने पुराने विषयों को ही लिया है। लगभग अस्सी प्रतिशत रचनाओं के कथानक व्यंजना प्रधान हैं और जीवन के नकारात्मक पक्ष को सामने लाते हैं। माना साहित्य का एक लक्ष्य यह भी है कि वह जीवन के अंधेरेऊबड़-खाबड़ कोनों पर भी रोशनी डाले. मगर जरूरी है कि जीवन और समाज में जो कुछ अच्छा हैवरेण्य हैउसे अनिवार्यरूप से प्रकाश में लाए। परंतु अधिकांश लघुकथाकार पहले भी आक्रोश की अभिव्यक्ति करते थेआज भी कर रहे हैं। इसका एक कारण हिंदी लघुकथा और व्यंग्य का अतिरेकी लगाव हैजिसकी ओर भगीरथ ने अपने साक्षात्कार में संकेत भी किया है।
    दरअसल हिंदी व्यंग्य के उभार का जो दौर हैकरीब-करीब वही दौर हिंदी लघुकथा की उठान का भी है। शरद जोशीपरसाईनरेंद्र कोहलीजिनकी लघुकथाएँ मानक लघुकथा के रूप में बार-बार प्रस्तुत की जाती हैंवे हिंदी के शीर्षस्थ व्यंग्यकार रहे हैं। हिंदी लघुकथा और व्यंग्य की निकटता का एक उदाहरण यह भी हो सकता है कि जिन दिनों लघुकथा अपने नाम को लेकर संघर्ष कर रही थीतब कुछ रचनाकार इसको लघुव्यंग्य लिखने के हिमायती थे। इसके बावजूद रचना में व्यंग्य की उपस्थिति लघुकथा की अनिवार्यता नहीं है। लघुकथा की कसौटी उसका लघुकलेवरकसावट और कथातत्व है और कथातत्व प्रधान विधा की विशेषता उसकी विविधता में है। उसको जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से छूकर निकलना चाहिए। तमाम नैराश्य के बावजूद जीवन में बहुत कुछ सकारात्मक भी है। हम एक बेहतर समय में जी रहे हैंयदि किसी को बेहतर समय मानने में ऐतराज हो तो भी एक साहित्यकार होने की अर्थवत्ता इसमें है कि आसपास जो कुछ सकारात्मकउम्मीद-भरा घट रहा हैउसको कथा में खुले मन से आने दे। इस विश्वास के साथ कि जनसाधारण नकारात्मक रचनाओं से उतना सबक नहीं लेता जितना सकारात्मक से प्रेरणा लेता है। जीवन और मनुष्य में आस्था बनाए रखने के लिए सकारात्मक दृष्टि बहुत जरूरी हैइस दृष्टि से देखा जाए तो हिंदी लघुकथाएँ मुझे पहले भी निराश करती थींआज भी बहुत ज्यादा उत्साह नहीं जगातीं। इस अंक की जिन लघुकथाओं से मुझे संतोष की अनुभूति हुई उनमें मिथलेश कुमारी मिश्र की समाज से हटकर’ तथा शोभा रस्तोगी शोभा’ की गंदा आदमी’ प्रमुख हैं। इनमें भी समाज से हटकर’ तो मानवीय संवेदन से लवरेज अनूठी लघुकथा हैजो इंसानियत के सारी वर्जनाओं से परे और ऊपर नजर आती है। साहित्य की उपलब्धि ऐसे ही क्षणों को उजागर करमनुष्यता को महिमामंडित करने में है।
  • जी-571, अभिधागोविंदपुरम्गाजियाबाद-201013 (उ.प्र.)



शशिभूषण बड़ोनी 


अविराम का लघुकथांक: एक उल्लेखनीय अंक

     ....अविराम साहित्यिकी ने इधर साहित्य जगत में बहुत कम समय में ही बहुत अच्छी पहचान अर्जित कर ली है। इधर इस पत्रिका का डॉ. बलराम अग्रवाल जी के अतिथि संपादन में समकालीन लघुकथा: यात्राविमर्श और सृजन’  अंक बहुत उल्लेखनीय बन पड़ा है।
    इस अंक में लघुकथा के विकास यात्रा पर लगभग सभी शीर्षस्थ लघुकथाकारों ने बहुत सारी ऐसी अति आवश्यक बातों का उल्लेख किया हैजो रेखांकित करने योग्य हैं। लघुकथा के अधिकांश मास्टर रचनाकार इस अंक मेंशामिल हैं। इनमें अधिकांश ऐसे रचनाकार हैंजिन्होंने लघुकथा के बाल्यकाल से इस विधा को बहुत जतन से पाल-पोषकर आज एक ऐसी सुदृढ़ स्थिति तक पहुँचा दिया है...कि यह विधा के रूप में स्थापित हो गई है। इस अंक में अतिथि संपादक बलराम अग्रवाल जी का श्रम स्तुत्य है। उनका अपने संपादकीय के अंत में यह उद्बोधन अच्छा है—‘‘मेरे लघुकथाकार दोस्तोकोशिश करो कि बोलचाल की भाषा आपके पात्र बोलें और रचना में आपका नरेशन भी केवल विद्वता दिखाने के लिए संस्कृत अथवा अंग्रेजी शब्दों से लैस न हो। दूसरेकथा लेखन नहीं कर पा रहे हों तो कोई बात नहींपठन से मत हटिए। समीक्षाआलोचना में भी हाथ तंग है तो स्तरीय लघुकथाओं के लेखकों को प्रशंसात्मक पत्रई-मेलएस.एम.एस. करने का ही दामन थाम लीजिए। अधिकांश शीर्षस्थ लघुकथाकारों ने अपनी लघुकथा की विकास यात्रा का बहुत अच्छा विवेचन व रेखांकन किया है। कमलेश भारतीयसिमर सदोषडॉ. सतीश दुबेबलरामचित्रा मुद्गलयुगलरामेश्वर काम्बोज हिमांशुसुकेश साहनीअशोक भाटियामाधव नागदापारस दासोतमालती बसंतअशोक गुजराती आदि सभी लघुकथाकारों ने लघुकथा की विकास यात्रा में अपना अमूल्य योगदान किया है। इस अंक में सभी ने इस विधा को पहचान दिलाने के अपने योगदान को रेखांकित करने... इस विधा को पहचान दिलाने में आयी बाधाओं का जिक्र किया है तथा इस विधा की भावी संभावनाओं हेतु यथासंभव सुझाव भी दिये हैं। डॉ. सतीश दुबे जी का लघुकथा विधा में बड़ा योगदान हैलेकिन उनका निसंकोच यह कहना कि बावजूद इसके मैं अपनी रचना प्रक्रिया में उन कमजोर बिन्दुओं को तलाशने की कोशिश कर रहा हूँजिसकी वजह से मेरी दो लघुकथाएँ भी मेरे समकालीन और चहेते मित्रों कीसुकेश साहनी व रामेश्वर काम्बोज हिमांशु द्वारा संपादित सद्यःप्रकाशित संकलन के लिए मेरी पसंद नहीं बन पायीं।
     चित्रा मुद्गल जी का लघुकथा के बारे में यह कहना महत्वपूर्ण है कि सच तो यह है कि लघुकथा ने बड़ी जिम्मेदारी से नयी कविता के जनसरोकारीय दायित्व कोआगे बढ़कर अपने कंधों पर ले लिया।’ अंक में सुप्रसिद्ध लघुकथा मर्मज्ञ युगल जी का आलेख अति महत्वपूर्ण ध्यातव्य है। उनका एक स्थान पर यह वक्तव्य दृष्टव्य है—‘यह विधा अब नयी नहीं रह गयी। चालीस साल गुजर चुके हैं। अफसोस है कि लघुकथा का आलोचना-पक्ष विलक्षण नहीं है। लघुकथाकार अगर स्वयं जीवन्त रहे और उनकी दृष्टि बहुमुखी रही तो वह अपना लोकप्रिय और प्रभावी स्थान बनाए रहेगी।
    सुकेश साहनी व रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी के संपादन में वेब पत्रिका लघुकथा डॉट कॉम ने तो साहित्य जगत का ध्यान बहुत केन्द्रित किया ही है। डॉ. सतीश दुबे जी का अपनी लघुकथाओं का उक्त (वेब पत्रिका के एकस्तम्भ) हेतु न चुना जाना यानी एक बड़े लेखक का भी उक्त संकलन हेतु अपनी रचनाओं का शामिल होने का आग्रह उक्त वेब पत्रिका की लोकप्रियता बड़े रचनाकारों के मध्य समझी जा सकती है। सुकेश साहनीकमल चोपड़ा,अशोक भाटिया की लघुकथाएँ व उनका महत्वपूर्ण रचनाओं के संकलन का काम भी बहुत उल्लेखनीय है। कमल चोपड़ा जी इधर संरचना’ नाम की पत्रिका के वार्षिक अंक निकालते हैंकिन्तु यह बहुत रेखांकित करने योग्य पत्रिका है। संपादक ने इस अंक की एक अभिनव योजना यह जो बनायी कि लघुकथा के जन्म प्रदाता रचनाकारजो दिवंगत भी हो गये हैं, उनकी ससम्मान चित्र सहित जीवनकाल दर्शाते हुए लघुकथाएँ प्रकाशित की हैं। विष्णु प्रभाकरहरिशंकर परसाईशरद जोशीरामनारायण उपाध्यायजगदीश कश्यपरमेश बत्तराकृष्ण कमलेश तथा अभी कुछ ही समय पूर्व अकस्मात दिवंगत हुए लघुकथा के लिए बहुत सक्रिय योगदान देने वाले कालीचरण प्रेमी जी,सभी को स्मरण कर उनकी लघुकथाएँ भी प्रकाशित की हैं। इस अभिनव कार्य हेतु संपादक को साधुवाद!
   इसके अलावा वरिष्ठ लघुकथाकार एवं चिन्तक सूर्यकान्त नागरभगीरथडॉ. शैलेन्द्र कुमार शर्मा तथा प्रतापसिंह सोढ़ी जी के साक्षात्कारों में इस विधा के बारे में बहुत से अर्न्तद्वन्दों का खुलासा दिखता है। इसके अलावा सौ के करीब समकालीन महत्वपूर्ण लघुकथाकारों की ध्यातव्य लघुकथाएँ इस अंक को संग्रहणीय बनाती हैं। संपादक उमेश महादोषी व अतिथि संपादक बलराम अग्रवाल जी को पुनः साधुवाद!
  • आदर्श विहारपो. शमशेरगढ़देहरादून (उ.खंड) 


डा.तारिक असलम ’तस्नीम


अविराम साहित्यिकी : समयसमाज और सच       
                                             
      अविराम साहित्यिकी समग्र साहित्य की समकालीन त्रैमासिकी का अक्टूबर-दिसम्बर, 2012 अंक समकालीन लघुकथा की यात्राविमर्श और सृजन पर केंद्रित है। जिसमें कमोबेश प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधि लघुकथाकारों कीलघुकथाएँ शामिल हैं। इस संदर्भ में उन नवोदित लघुकथाकारों को भी अपेक्षित स्थान मिला है जो अमूमन किसी स्तरीय एवं चर्चित पत्रिका के विशेषांक में शामिल होने से वंचित रह जाते हैं या उन्हें सुनियोजित तरीके से वंचित रखा जाता है।
     डा. उमेश महादोषी के संपादन में निरंतर प्रकाशित हो रही इस पत्रिका के विशेषांक के अतिथि संपादक डा. बलराम अग्रवाल हैंजो एक प्रतिष्ठित लघुकथाकार हैं। लघुकथा के विकास यात्रा के अनेक पड़ावों से गुजरते हुए इन्होंने लघुकथा के उद्भव और विकास को समय-समय पर बखूबी रेखांकित किया है। मेरी नजर में अनेक आग्रहों और पूर्वाग्रहों के बावजूद यह लघुकथा की मूल आत्मा के विरूद्ध किसी छल-प्रपंच को गढ़ते नहीं दिखते। जिनकीवैचारिक प्रखरता और उन्मुक्तता की चर्चा संपादक ने अपने संपादकीय में की है जो बिल्कुल लाजिमी है। इस एक सौ चौबीस पृष्ठीय लघुकथा विशेषांक में बलराम अग्रवाल ने अपने संपादकीय में भी बिल्कुल दो टूक शब्दों में वही सब कुछ कहा है जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है। उनका यह कथन समस्त लघुकथा बिरादरी के लिए गौरतलब है कि- लघुकथाकार के लिए भाषा की पहचान का संकट एक बहुत बड़ा संकट है ...भाषा से तात्पर्य यहाँ वाक्य विन्यास मात्र और शब्द प्रयोग मात्र से नहीं है बल्कि उन समस्त कारकों से है जो कथ्य को संप्रेषणीयता प्रदान करते हैंविषय को रोचक और ग्राह्य बनाते हैं।
विशेषांक की लघुकथाओं से गुजरते हुए इस कथ्य संबंधी भाषागत खामियों को कई एक लघुकथाओं में भी अनुभव किया जा सकता है। इसी प्रकार मेरी लघुकथा यात्रा के तहत जिन लघुकथाकारों ने अपनी विचाराभिव्यक्ति की हैउनमें से कई-एक संभवतः यह तय ही नहीं कर पाये कि उन्हें अपनी लघुकथा यात्रा के तहत किन विचारों और भावनाओं को प्रकट करना है और किस तरहजिससे इसी बहाने जो बातें फिल्टर होकर शब्दों में ढलनी चाहिए थीं वो नहीं हुई। अलबत्ता कुछ ने समकालीन लेखकों के पक्ष में बयानबाजी करते हुए विश्व के महानतम साहित्य के समकक्ष उसे खड़ा करने के लिए शब्दों को बतौर बैसाखी प्रयोग किया है। बावजूद इसके मेरी लघुकथा यात्रा के माध्यम से लघुकथाकारों के इस विधा के प्रति अप्रतिम लगाव तो उजागर होता ही है जो पाठकों के मन पर गहरी छाप छोड़ती हैं। इस किस्म का सार्थक प्रयास एक लम्बे अर्से के उपरान्त देखने को मिला है। बलराम अग्रवाल की यह सूझ बेहद मायनेखेज साबित हुई है। इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता।
     विशेषांक में कुछ-एक दिवंगत साहित्यकारों की रचनाएं भी बतौर स्मरण शामिल हैंजिनमें विष्णु प्रभाकरहरिशंकर प्रसाईकृष्ण कमलेशरमेश बतरा की लघुकथाएं कथ्य एवं संप्रेषणीयता के मामले में हृदयाघात-सा प्रभाव छोड़ती हैं। लघुकथा साहित्य पर बातचीत में सूर्यकान्त नागरभगीरथडा. शैलेश कुमार शर्माप्रतापसिंह सोढ़ी और पुरुषोत्तम दुबे के विचारों के बारे में यही कहूँगा कि कमोबेश एक ही किस्म के सवाल बार-बार पूछे गए हैं। जिस कमी को किसी एक या दो साक्षात्कार से पूरा किया जा सकता था।
     निस्संदेह इस अंक की अधिकतर लघुकथाएँ लघुकथा की सामान्य परिभाषा के अनुरूप गंभीरतापूर्वक चयनित हैं बावजूद इसके बहुतेरी लघुकथाएँ वर्तमान सामाजिक स्थितियों-परिस्थितियों के अनुरूप कथ्यशिल्प और संप्रेषणीयता से पूर्णतया वंचित हैं। वही बाबा आदम की घिसी-पिटी स्थितियों का चित्रण पाठकों के मनन के लिए कोई मार्ग प्रशस्त करता दिखाई नहीं देता। फिर भी कुछ-एक लघुकथाओं में समयसमाज और तात्कालिक सच की गहरी अनुभूति शब्दों में पिरोई गयी है। ऐसे लघुकथाकारों में डा. सतीश दुबे/पाठशालासिमर सदोष/देशपृथ्वीराज अरोड़ा/व्यापारशंकर पुणतांबेकर/और यह वही थाशकुंतला किरण/ अप्रत्याशितमहेश दर्पण/भयपवन शर्मा/उतरा हुआ कोटकमल चोपड़ा/बाँह बेलश्याम सुन्दर अग्रवाल/साझा दर्दसुभाष नीरव/बर्फीफजल इमाम मलिक/ मुसलमानसत्य शुचि/मदद के हाथउर्मि कृष्ण/नई दृष्टिसुरेश शर्मा/बहूयुगल/नुचे पंखों वाली चिड़िया,आशा शैली/मानदंडसमाज से हटकर/मिथिलेश कुमारी मिश्रप्रतापसिंह सोढ़ी/जलनघनश्याम अग्रवाल/प्रजातंत्र का एनेस्थेसियाडा. अशफाक अहमद/सच है नशरद सिंह/भिखारीज्योति जैन/आतंकवादीछाया गोयल/चीरहरण,सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा/चूल्हे में चूल्हानीलम राकेश/ भूमिकाराजेन्द्र वर्मा/शुद्धिप्रभुदयाल श्रीवास्तव/यह भी तो खेल हैहसन जमाल /खुशफहमीशोभा रस्तोगी/गंदा आदमीरेणु चौहान/एक रंग यह भी प्रभावित करती हैं। इन्हें पढ़ते हुए ताजगी का एहसास होता है।
     अशोक भाटिया की लघुकथा एक बड़ी कहानी के संदर्भ में कहना चाहूँगा कि वह मुसलमान से कुरआन की जानकारी के बारे में जैसी अपेक्षाएँ संजोये हुए हैं और जिस तरह इरफान टेलर मास्टर की बातों से निराशा होती है, उसी प्रकार एक आम हिन्दू भी अपने धर्मग्रंथ की मूल भावनाओं के दर्शन से नावाकिफ है। मुसलमानों में यह प्रतिशत 90 के करीब है। इसके लिए लेखक किसी शिक्षित मुसलमान से संपर्क करें तो उन्हें बेशक उनके सारे सवालों का जवाब मिल सकता है।
     महावीर उत्तरांचली ने सरहद में एक ऐसे मुसलिम युवक की सोच को उजागर किया है जो अपनी जिंदगी की नाकामयाबी से तंग आकर पाकिस्तान से हिन्दुस्तान की सरहद की ओर कदम रखता है और गोलियों का शिकार बनता है। लेखक के लिए मेरा मशवरा है कि किसी मजहब को कथ्य के रूप में प्रयोग किया जाये तो लेखक को कम से कम उस मजहब की मूल भावनाओं और संदेश की जानकारी अवश्य होनी चाहिए। उनकी जानकारी के लिए दर्ज है कि इस्लाम मजहब में आत्महत्या जायज नहीं। ऐसा करने वालों को कभी मुक्ति नहीं मिलती और लाश को मिट्टी देने से भी शरियत मना करता है यानी कि मिट्टी देना हराम करार दिया गया है। अब तो आप भी समझ गए होंगे कि एक इंसानी जिंदगी की कितनी कीमत होती है ?
    बहरहालडा. बलराम अग्रवाल और डा. उमेश महादोषी के संयुक्त प्रयास से अविराम साहित्यिकी का यह अंक न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय भी कहने  लायक है। विगत वर्षों में ऐसे प्रयासों में काफी कमी आयी हैइस दृष्टि से अविराम की लघुकथा यात्रा यादगार साबित होगी।
  •  6/सेक्टर-2, हारून नगर कालोनीफुलवारी शरीफपटना-801505


शोभा रस्तोगी शोभा 


अविराम : स्तरीयसुलझीसुरूचिपूर्णज्ञानवर्धकझकझोरने वाली पत्रिका

    अविराम साहित्यिकी का लघुकथा विशेषांक(अक्टूबर-नवम्बर 2012) दृष्टि-हस्तगत हुआ। आवरण पृष्ठ भी माननीय रघुवीर सहाय जी की लघुकथा से सुसज्जित था। बेजोड़ चित्रों ने इसे अलबेला अंक निरूपित कर दिया। कौतुहलवश अपनी रचना देख मन मुदित हुआ। अनेक धन्यवाद माननीय बलराम जी व माननीय महादोषी जी को जिन्होंने मेरे जैसे नौसिखिया की रचना को स्थान दिया ।
      बलराम जी जैसे सुप्रसिद्ध लेखकमानवीय भावनाओं के कुशल चितेरेनीर-क्षीर समीक्षकपारखी संपादक के हाथों यह लघुकथा अंक अपना एक नयानवेलासुरूचिपूर्णसहेजनीय कलेवर प्राप्त कर सका। 107 लेखकों की रचनाओं को इसमें स्थान दिया है। प्रत्येक की कई लघुकथाओं को पढ़करविचारकर उसमे से एक को छांटना-कितना श्रमसाध्य रहा होगा। प्रसिद्ध लेखकसाहित्यलोक में उड़ान भर रहे लेखकमेरे जैसे अनगढ़ जिन्होंने अभी अपने डैने फड़फड़ाये ही हैंको भी सूचीबद्ध करनावरीयता देना...वाकई सलाम है आद. बलराम अग्रवाल जी की अथक व परिश्रमी कलम को। ये सभी लघुकथा समाज के नायक इन्सान की अनेकानेक भावनाओंउम्र के मोड़,आपदाओं तथा जानवरों पर भी केन्द्रित रही। प्रमुख बात यह रही कि ज्वलंत समस्याएं- बेरोजगारीभ्रष्टाचारगरीबीसामाजिक कुरीतियाँधर्मान्धतापारिवारिक उपद्रवराजनीतिगिरते मानवीय मूल्यमानवीय संवेगप्रकृति चित्रण,अहंभावआधुनिक संस्कृति आदि को बारीकी से चित्रित किया गया है।
     सुप्रसिद्ध व प्रतिष्ठित लेखकों की लम्बी श्रंखलाकमलेश भारतीयसिमर सदोषसतीश दुबेबलरामचित्रा मुद्गलयुगलहिमांशुसुकेश साहनीअशोक भाटियामाधव नागदामालती बसंतपारस दासोतअशोक गुजराती आदि की लघुकथा-रचना कर्म को प्रकाशित कर इस अंक को विशेष व रोचक बना दिया है। सूर्यकांत नागर-ब्रजेश कानूनगोभगीरथ-अर्चना वर्माशैलेन्द्र कु. शर्मा-संतोष सुपेकरपुरुषोत्तम दुबे-प्रताप सिंह सोढी के वार्तालाप में अनेक स्तर पर लघुकथा विषयक चर्चा हुई।... रोचन्ते रोचना दिवि में साहित्य के स्तम्भमूर्धन्य लेखकों की कालजयी रचनाएँ इस अंक को युगों युगों तक सहेजनीय बना देती हैं। इन लेखकों की अंतर्दृष्टिसमझपरख व रचनाकर्म निस्संदेह स्तुत्य है। इनकी अभिव्यंजनावृत्त लघुकथाएं इसके मुख्य पक्ष को उद्घाटित करती हैं। 
     पुरातनमध्यमनवीनरचना व लेखक का संतुलनक्रमप्रकाशन सराहनीय है। इनमें ऐसे रचनाकार भी हैं जिनके अनेकानेक संग्रह छप चुके हैं और मेरे जैसा भी- जिसका अद्यतन कोई साहित्य संग्रह नहीं है। इतना विनम्रऊँची समझकुशल तालमेल आद. बलराम जी का ही है जिन्होंने कई पुस्तकें लघुकथा पर सम्पादित की हैं...तिस पर अपनी एक भी लघुकथा इस अंक में नहीं दी। सम्पादकीय में अनेक लेखकों की बात कीलघुकथा की बात कीलघुकथा का रचना कौशल समझाया नव पल्लवों को। ‘... कथालेखन नहीं कर रहे हैं तो कोई बात नहींपठन से मत हटिये। समीक्षाआलोचना में भी हाथ तंग है तो स्तरीय लघुकथाओं के लेखकों को प्रशंसात्मक पत्र,ई-मेलएस.एम.एस. करने का ही दामन थाम लीजिये। जिन्दा रहने के लिए जरूरी हैमैदान में बने रहना।’ अपनी रचना यात्रा का कोई उल्लेख नहीं...। सभी को मुख्य पृष्ठ पर रखा स्वयं हाशिये पर सरक गए...।
    आत्मा शरीर में होने पर भी दिखती नहीं....आत्मा से ही देह क्रियाशील, मननशील होती है...उसी प्रकार पूरे अंक में आत्मा यथा शरीरे उपस्थित हैं बलराम जी। आद. मध्यमा जीआद. उमेश जी को अविराम जैसी स्तरीय,सुलझीसुरुचिपूर्णज्ञानवर्धकझकझोरने वाली पत्रिका निकालने पर बधाई ...। मुद्रित व अंतर्जालीय दोनों रूपों ने पत्रिका को सुदूर तक मशहूर किया है। पत्रिका के अति उज्जवल भविष्य हेतु ढेरों शुभकामनायें।....
  • RZ-D-  208-बीडी.डी.ए. पार्क रोडराजनगर-।।,  पालम कालोनीनई दिल्ली-110077

अविराम के अंक



अविराम साहित्यिकी 
(समग्र साहित्य की समकालीन  त्रैमासिक पत्रिका) 

खंड (वर्ष) : 1/ अंक : 4  / जनवरी-मार्च  2013   

प्रधान सम्पादिका : मध्यमा गुप्ता
अंक सम्पादक : डा. उमेश महादोषी 
सम्पादन परामर्श : डॉ. सुरेश सपन
मुद्रण सहयोगी : पवन कुमार


अविराम का यह मुद्रित अंक रचनाकारों व सदस्यों को 19 फरवरी  2013  को तथा अन्य सभी सम्बंधित मित्रों-पाठकों को 28 फरवरी  2013  तक भेजा जा चुका  है। अंक प्राप्त न होने पर सदस्य एवं अंक के रचनाकार अविलम्ब पुन: प्रति भेजने का आग्रह करें। अन्य  मित्रों को आग्रह करने पर उनके ई मेल पर पीडीऍफ़ प्रति भेजी जा सकती है। पत्रिका पूरी तरह अव्यवसायिक है, किसी भी प्रकाशित रचना एवं अन्य  सामग्री पर पारिश्रमिक नहीं  दिया जाता है। इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है- 


।।सामग्री।।

लघुकथा के स्तम्भ :  डॉ. शकुन्तला किरण (3), श्याम सुन्दर अग्रवाल (6), प्रतापसिंह सोढ़ी (8)।

कविता अनवरत-1 :  भगवान अटलानी/हृदयेश्वर (10), राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’/सुरेन्द्र दीप (11), रामस्वरूप मूँदड़ा/अशोक अंजुम (12), अमृत लाल मदान/हरिश्चन्द्र शाक्य (13), डॉ. किशन तिवारी/ख़याल खन्ना (14), डॉ. राम अवतार पाण्डेय/राम नरेश ‘रमन’(15) की काव्य रचनाएँ।

मेरी लघुकथा यात्रा :  डॉ. बलराम अग्रवाल (16)।

विमर्श :  कालजयी रचनाओं के सृजेता डॉ. ‘निशंक’/डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’(20), काव्य और छन्द अलग-अलग हैं/डा. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ व डा. उमेश महादोषी की बातचीत (23), लघुकथा की बात और आत्म वक्तव्य/डॉ. पुरुषोत्तम दुबे (24)

आहट :  अनिल जनविजय/डॉ. सुरेन्द्र वर्मा/अनिता ललित की क्षणिकाएँ (26)।

बहस :  ‘साहित्य और भाषा की शुद्धता व संस्कार’ पर राजाराम भादू (27)/अजय चंद्रवंशी (29)/खेमकरण सोमन (30)/चन्द्राजीराव इंगले (32) के विचार।

कविता के हस्ताक्षर :  डॉ. जेन्नी शबनम (34)।

कथा कहानी :  क्या मनु लौटेगा?/विजय (37) व शन्नो/निर्मला सिंह (42)

व्यंग्य वाण :  यह दुनिया पागलखाना/प्रो.शामलाल कौशल(49) अफ़सर बोला/गोविन्द चावला ‘सरल’(50)।

कविता अनवरत-2 :  तोबदन/मुखराम माकड़ ‘माहिर’ (51), शिवशंकर यजुर्वेदी/मनोहर चमोली ‘मनु’ (52), विनीत जौहरी ‘बदायूँनी’/बरुण कुमार चन्द्रा (53), ब्रह्मानन्द झा/मनु महरबान/अशोक भारती देहलवी (54) व श्याम झँवर ‘श्याम’ (55) की काव्य रचनाएँ।

कथा प्रवाह :  डॉ. बलराम अग्रवाल (56), सुधा शुक्ला/ललित नारायण उपाध्याय(57), पुष्पा जमुआर/मनोज सेवलकर (58), डॉ. सुरेन्द्र गुप्त (59), डॉ. उषा उप्पल (60), डॉ. मनोहर शर्मा ‘माया’ (60), राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’(61) की लघुकथाएँ।

किताबें :  कई पड़ावों से गुजरता आदमी/सुभाष नीरव के लघुकथा संग्रह ‘सफर में आदमी‘ की निरुपमा कपूर द्वारा (62);  सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देते ताँका/डॉ रमाकान्त श्रीवास्तव के ताँका संग्रह ‘जियें, जीने दे’ की अमरेन्द्र कुमार पाल द्वारा (63);  जीवन गति के गीत/स्व. चन्द्रपाल शर्मा ‘शीलेश’ के गीत संग्रह की डॉ. सूर्यप्रसाद शुक्ल द्वारा (64);  जज़्बे और जीवनानुभवों से गुज़रती शायरी/ स्व.पं. मेलाराम ‘वफ़ा’ के ग़ज़ल संग्रह ‘संगे-मील’ (65),  स्त्री और प्रकृति की कविताएँ/डॉ. सुरेन्द्र वर्मा के काव्य संग्रह ‘उसके लिए’ (66), गहरे तक प्रभावित करती ग़ज़लें/चन्द्रभान भारद्वाज के ग़ज़ल संग्रह ‘हथेली पर अँगारे’ (67),  मनुष्य के मनोभावों की ग़ज़लें/डॉ. नलिन के ग़ज़ल संग्रह ‘चाँद निकलता तो होगा’ (67),  यथार्थ की रचनात्मक कहानियाँ/के.एल. दिवान संपादित कहानी संकलन ‘आवाज़ लगाती जिन्दगी‘ (68) की डा. उमेश महादोषी द्वारा संक्षिप्त समीक्षाएँ।

माइक पर :

उमेश महादोषी का सम्पादकीय (आवरण 2)

हमारे आजीवन सदस्य : 

अविराम साहित्यकी के आजीवन  सदस्यों की सूची (5)

चिट्ठियाँ : 

विगत अंक पर प्रतिक्रियाएं (69)। 

गतिविधियाँ :

संक्षिप्त साहित्यिक समाचार (72)।

प्राप्ति स्वीकार :

त्रैमास में प्राप्त विविध प्रकाशनों की सूचना (75)