अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 2, अंक : 6, फरवरी 2013
अविराम का लघुकथा विशेषांक
अविराम के लघुकथा विशेषांक की चार मित्रों- ओमप्रकाश कश्यप, शशिभूषण बड़ोनी, डा.तारिक असलम ’तस्नीम’ व शोभा रस्तोगी शोभा द्वारा लिखी समीक्षाएं प्राप्त हुई हैं। सभी समीक्षाएं यहां रखी जा रही हैं। मित्र पत्रिकाओं से अनुरोध है कि यदि संभव हो तो इनमें से किसी भी समीक्षा को अपने किसी अंक में स्थान देने का अनुरोध स्वीकार करें।
ओमप्रकाश कश्यप
अविराम साहित्यिकी की अविराम लघुकथा यात्रा
अग्रज बलराम अग्रवाल के विशेष अनुग्रह से ‘अविराम साहित्यिकी’ का ई’ संस्करण प्राप्त हुआ था। संपादकीय के माध्यम से बलराम जी की विद्वता एवं विषय संबंधी पैठ का एक और नमूना मिला। मैं उसके बारे सोच ही रहा था कि अगले दिन वे अंक की हार्ड कॉपी लेकर अकस्मात उपस्थित हो गए। मेरे लिए यह समकालीन लघुकथा के तेवरों को समझने का विशेष अवसर था। इसलिए उससे अगले दिन करीब-करीब एक ही बैठक में पूरा अंक एक साथ पढ़ लिया। अंक की विशेषता जिसके लिए बलराम जी की प्रशंसा करनी होगी, हिंदी के दिग्गज लघुकथाकारों द्वारा अपनी लघुकथा-यात्रा के प्रस्थान बिंदु को याद करना रहा। कमलेश भारतीय, सिमर सिदोष, युगल,सतीश दुबे, सतीश राज पुष्करणा, पारस दासोत, सुकेश साहनी, रामेश्वर कांबोज हिमांशु आदि ऐसे लेखक हैं जिन्होंने अपनी लेखकीय ऊर्जा का अधिकांश लघुकथा को समृद्ध करने पर खर्च किया है। उनमें बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी, रामेश्वर कांबोज हिमांशु जैसे कुछ ही लेखक आज अपनी लेखकीय त्वरा को बनाए हैं। लेखकों के इस विशिष्ट आत्मकथ्य को पढ़कर जहाँ उनके लघुकथा संबंधी प्रस्थान बिंदू का संकेत मिलता है, वहीं इसके माध्यम सेसातवें-आठवें दशक में हिंदी लघुकथा के आंदोलन तथा उसके रचनाकारों की जद्दोजहद को भी समझा जा सकता है। इस दृष्टि से यह अंक संग्रहणीय है। हालांकि कुछ निराशा भी पैदा करने वाला है। जिन दिनों यह आंदोलन चरम पर था, उन दिनों लेखकों में होड़ मची रहती थी. तेजी से उभरती लोकप्रिय विधा का हर कोई श्लाका पुरुष बनना चाहता था। इसका परिणाम यह हुआ था कि लेखकों ने संगठित होकर विधा को समृद्ध करने के बजाय अपनी ऊर्जा एक-दूसरे को नीचा दिखाने में ठान ली। उस आत्मश्लाघा और स्पर्धा वाली प्रवृत्ति के चलते लघुकथा आंदोलन का बड़ा नुकसान हुआ। इन आत्मकथ्यों को पढ़कर कोई भी यह अनुमान सहज लगा सकता है कि कुछ लघुकथाकार आज भी आत्मरति से मुक्त नहीं हो पाए हैं। यह जानते हुए भी कि लघुकथा आंदोलन इसी कारण असमय ठंडा पड़ा था, यहां हर कोई कंगूरों की तरह चमकना चाहता है। विधाओं को जमाने के लिए साहित्यकारों मेंनींव का पत्थर बनने जैसा धैर्य और त्याग भी चाहिए।
लघुकथाओं के बारे में बात की जाए तो विष्णु प्रभाकर, शरद जोशी, परसाई, जगदीश कश्यप, रमेश बतरा आदि की रचनाएं कई-कई बार पढ़ी जा चुकी हैं। ये हिंदी की मानक लघुकथा का दर्जा पा चुकी रचनाएं हैं। इसलिए इन्हेंबार-बार पढ़ना भी अरुचता नहीं। कालीचरण प्रेमी, सुकेश साहनी आदि की लघुकथाएँ भी स्तरीय हैं। इन्होंने अपनी लेखकीय वरिष्ठता को बनाए रखा है। इसके बावजूद यह अंक मुझे खास उत्साहित नहीं करता। हिंदी लघुकथा की गत दो दशकों की यात्रा के बारे में मेरी जो मामूली जानकारी है, उसके आधार पर मुझे लगा कि तब से अब तक कथानक की दृष्टि से हिंदी लघुकथा में नयापन न के बराबर आया है। एक-दो को छोड़कर अधिकांश लघुकथाकारों ने पुराने विषयों को ही लिया है। लगभग अस्सी प्रतिशत रचनाओं के कथानक व्यंजना प्रधान हैं और जीवन के नकारात्मक पक्ष को सामने लाते हैं। माना साहित्य का एक लक्ष्य यह भी है कि वह जीवन के अंधेरे, ऊबड़-खाबड़ कोनों पर भी रोशनी डाले. मगर जरूरी है कि जीवन और समाज में जो कुछ अच्छा है, वरेण्य है, उसे अनिवार्यरूप से प्रकाश में लाए। परंतु अधिकांश लघुकथाकार पहले भी आक्रोश की अभिव्यक्ति करते थे, आज भी कर रहे हैं। इसका एक कारण हिंदी लघुकथा और व्यंग्य का अतिरेकी लगाव है, जिसकी ओर भगीरथ ने अपने साक्षात्कार में संकेत भी किया है।
दरअसल हिंदी व्यंग्य के उभार का जो दौर है, करीब-करीब वही दौर हिंदी लघुकथा की उठान का भी है। शरद जोशी, परसाई, नरेंद्र कोहली, जिनकी लघुकथाएँ मानक लघुकथा के रूप में बार-बार प्रस्तुत की जाती हैं, वे हिंदी के शीर्षस्थ व्यंग्यकार रहे हैं। हिंदी लघुकथा और व्यंग्य की निकटता का एक उदाहरण यह भी हो सकता है कि जिन दिनों लघुकथा अपने नाम को लेकर संघर्ष कर रही थी, तब कुछ रचनाकार इसको लघुव्यंग्य लिखने के हिमायती थे। इसके बावजूद रचना में व्यंग्य की उपस्थिति लघुकथा की अनिवार्यता नहीं है। लघुकथा की कसौटी उसका लघुकलेवर, कसावट और कथातत्व है और कथातत्व प्रधान विधा की विशेषता उसकी विविधता में है। उसको जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से छूकर निकलना चाहिए। तमाम नैराश्य के बावजूद जीवन में बहुत कुछ सकारात्मक भी है। हम एक बेहतर समय में जी रहे हैं, यदि किसी को बेहतर समय मानने में ऐतराज हो तो भी एक साहित्यकार होने की अर्थवत्ता इसमें है कि आसपास जो कुछ सकारात्मक, उम्मीद-भरा घट रहा है, उसको कथा में खुले मन से आने दे। इस विश्वास के साथ कि जनसाधारण नकारात्मक रचनाओं से उतना सबक नहीं लेता जितना सकारात्मक से प्रेरणा लेता है। जीवन और मनुष्य में आस्था बनाए रखने के लिए सकारात्मक दृष्टि बहुत जरूरी है, इस दृष्टि से देखा जाए तो हिंदी लघुकथाएँ मुझे पहले भी निराश करती थीं, आज भी बहुत ज्यादा उत्साह नहीं जगातीं। इस अंक की जिन लघुकथाओं से मुझे संतोष की अनुभूति हुई उनमें मिथलेश कुमारी मिश्र की ‘समाज से हटकर’ तथा शोभा रस्तोगी ‘शोभा’ की ‘गंदा आदमी’ प्रमुख हैं। इनमें भी ‘समाज से हटकर’ तो मानवीय संवेदन से लवरेज अनूठी लघुकथा है, जो इंसानियत के सारी वर्जनाओं से परे और ऊपर नजर आती है। साहित्य की उपलब्धि ऐसे ही क्षणों को उजागर कर, मनुष्यता को महिमामंडित करने में है।
- जी-571, अभिधा, गोविंदपुरम्, गाजियाबाद-201013 (उ.प्र.)
शशिभूषण बड़ोनी
अविराम का लघुकथांक: एक उल्लेखनीय अंक
....अविराम साहित्यिकी ने इधर साहित्य जगत में बहुत कम समय में ही बहुत अच्छी पहचान अर्जित कर ली है। इधर इस पत्रिका का डॉ. बलराम अग्रवाल जी के अतिथि संपादन में ‘समकालीन लघुकथा: यात्रा, विमर्श और सृजन’ अंक बहुत उल्लेखनीय बन पड़ा है।
इस अंक में लघुकथा के विकास यात्रा पर लगभग सभी शीर्षस्थ लघुकथाकारों ने बहुत सारी ऐसी अति आवश्यक बातों का उल्लेख किया है, जो रेखांकित करने योग्य हैं। लघुकथा के अधिकांश मास्टर रचनाकार इस अंक मेंशामिल हैं। इनमें अधिकांश ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने लघुकथा के बाल्यकाल से इस विधा को बहुत जतन से पाल-पोषकर आज एक ऐसी सुदृढ़ स्थिति तक पहुँचा दिया है...कि यह विधा के रूप में स्थापित हो गई है। इस अंक में अतिथि संपादक बलराम अग्रवाल जी का श्रम स्तुत्य है। उनका अपने संपादकीय के अंत में यह उद्बोधन अच्छा है—‘‘मेरे लघुकथाकार दोस्तो, कोशिश करो कि बोलचाल की भाषा आपके पात्र बोलें और रचना में आपका नरेशन भी केवल विद्वता दिखाने के लिए संस्कृत अथवा अंग्रेजी शब्दों से लैस न हो। दूसरे, कथा लेखन नहीं कर पा रहे हों तो कोई बात नहीं, पठन से मत हटिए। समीक्षा, आलोचना में भी हाथ तंग है तो स्तरीय लघुकथाओं के लेखकों को प्रशंसात्मक पत्र, ई-मेल, एस.एम.एस. करने का ही दामन थाम लीजिए।’ अधिकांश शीर्षस्थ लघुकथाकारों ने अपनी लघुकथा की विकास यात्रा का बहुत अच्छा विवेचन व रेखांकन किया है। कमलेश भारतीय, सिमर सदोष, डॉ. सतीश दुबे, बलराम, चित्रा मुद्गल, युगल, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, माधव नागदा, पारस दासोत, मालती बसंत, अशोक गुजराती आदि सभी लघुकथाकारों ने लघुकथा की विकास यात्रा में अपना अमूल्य योगदान किया है। इस अंक में सभी ने इस विधा को पहचान दिलाने के अपने योगदान को रेखांकित करने... इस विधा को पहचान दिलाने में आयी बाधाओं का जिक्र किया है तथा इस विधा की भावी संभावनाओं हेतु यथासंभव सुझाव भी दिये हैं। डॉ. सतीश दुबे जी का लघुकथा विधा में बड़ा योगदान है, लेकिन उनका निसंकोच यह कहना कि ‘बावजूद इसके मैं अपनी रचना प्रक्रिया में उन कमजोर बिन्दुओं को तलाशने की कोशिश कर रहा हूँ, जिसकी वजह से मेरी दो लघुकथाएँ भी मेरे समकालीन और चहेते मित्रों की, सुकेश साहनी व रामेश्वर काम्बोज हिमांशु द्वारा संपादित सद्यःप्रकाशित संकलन के लिए मेरी पसंद नहीं बन पायीं।’
चित्रा मुद्गल जी का लघुकथा के बारे में यह कहना महत्वपूर्ण है कि सच तो यह है कि ‘लघुकथा ने बड़ी जिम्मेदारी से नयी कविता के जनसरोकारीय दायित्व को, आगे बढ़कर अपने कंधों पर ले लिया।’ अंक में सुप्रसिद्ध लघुकथा मर्मज्ञ युगल जी का आलेख अति महत्वपूर्ण ध्यातव्य है। उनका एक स्थान पर यह वक्तव्य दृष्टव्य है—‘यह विधा अब नयी नहीं रह गयी। चालीस साल गुजर चुके हैं। अफसोस है कि लघुकथा का आलोचना-पक्ष विलक्षण नहीं है। लघुकथाकार अगर स्वयं जीवन्त रहे और उनकी दृष्टि बहुमुखी रही तो वह अपना लोकप्रिय और प्रभावी स्थान बनाए रहेगी।’
सुकेश साहनी व रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी के संपादन में वेब पत्रिका लघुकथा डॉट कॉम ने तो साहित्य जगत का ध्यान बहुत केन्द्रित किया ही है। डॉ. सतीश दुबे जी का अपनी लघुकथाओं का उक्त (वेब पत्रिका के एकस्तम्भ) हेतु न चुना जाना यानी एक बड़े लेखक का भी उक्त संकलन हेतु अपनी रचनाओं का शामिल होने का आग्रह उक्त वेब पत्रिका की लोकप्रियता बड़े रचनाकारों के मध्य समझी जा सकती है। सुकेश साहनी, कमल चोपड़ा,अशोक भाटिया की लघुकथाएँ व उनका महत्वपूर्ण रचनाओं के संकलन का काम भी बहुत उल्लेखनीय है। कमल चोपड़ा जी इधर ‘संरचना’ नाम की पत्रिका के वार्षिक अंक निकालते हैं, किन्तु यह बहुत रेखांकित करने योग्य पत्रिका है। संपादक ने इस अंक की एक अभिनव योजना यह जो बनायी कि लघुकथा के जन्म प्रदाता रचनाकार, जो दिवंगत भी हो गये हैं, उनकी ससम्मान चित्र सहित जीवनकाल दर्शाते हुए लघुकथाएँ प्रकाशित की हैं। विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रामनारायण उपाध्याय, जगदीश कश्यप, रमेश बत्तरा, कृष्ण कमलेश तथा अभी कुछ ही समय पूर्व अकस्मात दिवंगत हुए लघुकथा के लिए बहुत सक्रिय योगदान देने वाले कालीचरण प्रेमी जी,सभी को स्मरण कर उनकी लघुकथाएँ भी प्रकाशित की हैं। इस अभिनव कार्य हेतु संपादक को साधुवाद!
इसके अलावा वरिष्ठ लघुकथाकार एवं चिन्तक सूर्यकान्त नागर, भगीरथ, डॉ. शैलेन्द्र कुमार शर्मा तथा प्रतापसिंह सोढ़ी जी के साक्षात्कारों में इस विधा के बारे में बहुत से अर्न्तद्वन्दों का खुलासा दिखता है। इसके अलावा सौ के करीब समकालीन महत्वपूर्ण लघुकथाकारों की ध्यातव्य लघुकथाएँ इस अंक को संग्रहणीय बनाती हैं। संपादक उमेश महादोषी व अतिथि संपादक बलराम अग्रवाल जी को पुनः साधुवाद!
- आदर्श विहार, पो. शमशेरगढ़, देहरादून (उ.खंड)
डा.तारिक असलम ’तस्नीम’
अविराम साहित्यिकी : समय, समाज और सच
अविराम साहित्यिकी समग्र साहित्य की समकालीन त्रैमासिकी का अक्टूबर-दिसम्बर, 2012 अंक समकालीन लघुकथा की यात्रा, विमर्श और सृजन पर केंद्रित है। जिसमें कमोबेश प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधि लघुकथाकारों कीलघुकथाएँ शामिल हैं। इस संदर्भ में उन नवोदित लघुकथाकारों को भी अपेक्षित स्थान मिला है जो अमूमन किसी स्तरीय एवं चर्चित पत्रिका के विशेषांक में शामिल होने से वंचित रह जाते हैं या उन्हें सुनियोजित तरीके से वंचित रखा जाता है।
डा. उमेश महादोषी के संपादन में निरंतर प्रकाशित हो रही इस पत्रिका के विशेषांक के अतिथि संपादक डा. बलराम अग्रवाल हैं, जो एक प्रतिष्ठित लघुकथाकार हैं। लघुकथा के विकास यात्रा के अनेक पड़ावों से गुजरते हुए इन्होंने लघुकथा के उद्भव और विकास को समय-समय पर बखूबी रेखांकित किया है। मेरी नजर में अनेक आग्रहों और पूर्वाग्रहों के बावजूद यह लघुकथा की मूल आत्मा के विरूद्ध किसी छल-प्रपंच को गढ़ते नहीं दिखते। जिनकीवैचारिक प्रखरता और उन्मुक्तता की चर्चा संपादक ने अपने संपादकीय में की है जो बिल्कुल लाजिमी है। इस एक सौ चौबीस पृष्ठीय लघुकथा विशेषांक में बलराम अग्रवाल ने अपने संपादकीय में भी बिल्कुल दो टूक शब्दों में वही सब कुछ कहा है जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है। उनका यह कथन समस्त लघुकथा बिरादरी के लिए गौरतलब है कि- ‘लघुकथाकार के लिए भाषा की पहचान का संकट एक बहुत बड़ा संकट है ...भाषा से तात्पर्य यहाँ वाक्य विन्यास मात्र और शब्द प्रयोग मात्र से नहीं है बल्कि उन समस्त कारकों से है जो कथ्य को संप्रेषणीयता प्रदान करते हैं, विषय को रोचक और ग्राह्य बनाते हैं।’
विशेषांक की लघुकथाओं से गुजरते हुए इस कथ्य संबंधी भाषागत खामियों को कई एक लघुकथाओं में भी अनुभव किया जा सकता है। इसी प्रकार ‘मेरी लघुकथा यात्रा’ के तहत जिन लघुकथाकारों ने अपनी विचाराभिव्यक्ति की है, उनमें से कई-एक संभवतः यह तय ही नहीं कर पाये कि उन्हें अपनी लघुकथा यात्रा के तहत किन विचारों और भावनाओं को प्रकट करना है और किस तरह? जिससे इसी बहाने जो बातें फिल्टर होकर शब्दों में ढलनी चाहिए थीं वो नहीं हुई। अलबत्ता कुछ ने समकालीन लेखकों के पक्ष में बयानबाजी करते हुए विश्व के महानतम साहित्य के समकक्ष उसे खड़ा करने के लिए शब्दों को बतौर बैसाखी प्रयोग किया है। बावजूद इसके मेरी लघुकथा यात्रा के माध्यम से लघुकथाकारों के इस विधा के प्रति अप्रतिम लगाव तो उजागर होता ही है जो पाठकों के मन पर गहरी छाप छोड़ती हैं। इस किस्म का सार्थक प्रयास एक लम्बे अर्से के उपरान्त देखने को मिला है। बलराम अग्रवाल की यह सूझ बेहद मायनेखेज साबित हुई है। इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता।
विशेषांक में कुछ-एक दिवंगत साहित्यकारों की रचनाएं भी बतौर स्मरण शामिल हैं, जिनमें विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर प्रसाई, कृष्ण कमलेश, रमेश बतरा की लघुकथाएं कथ्य एवं संप्रेषणीयता के मामले में हृदयाघात-सा प्रभाव छोड़ती हैं। लघुकथा साहित्य पर बातचीत में सूर्यकान्त नागर, भगीरथ, डा. शैलेश कुमार शर्मा, प्रतापसिंह सोढ़ी और पुरुषोत्तम दुबे के विचारों के बारे में यही कहूँगा कि कमोबेश एक ही किस्म के सवाल बार-बार पूछे गए हैं। जिस कमी को किसी एक या दो साक्षात्कार से पूरा किया जा सकता था।
निस्संदेह इस अंक की अधिकतर लघुकथाएँ लघुकथा की सामान्य परिभाषा के अनुरूप गंभीरतापूर्वक चयनित हैं बावजूद इसके बहुतेरी लघुकथाएँ वर्तमान सामाजिक स्थितियों-परिस्थितियों के अनुरूप कथ्य, शिल्प और संप्रेषणीयता से पूर्णतया वंचित हैं। वही बाबा आदम की घिसी-पिटी स्थितियों का चित्रण पाठकों के मनन के लिए कोई मार्ग प्रशस्त करता दिखाई नहीं देता। फिर भी कुछ-एक लघुकथाओं में समय, समाज और तात्कालिक सच की गहरी अनुभूति शब्दों में पिरोई गयी है। ऐसे लघुकथाकारों में डा. सतीश दुबे/पाठशाला, सिमर सदोष/देश, पृथ्वीराज अरोड़ा/व्यापार, शंकर पुणतांबेकर/और यह वही था, शकुंतला किरण/ अप्रत्याशित, महेश दर्पण/भय, पवन शर्मा/उतरा हुआ कोट, कमल चोपड़ा/बाँह बेल, श्याम सुन्दर अग्रवाल/साझा दर्द, सुभाष नीरव/बर्फी, फजल इमाम मलिक/ मुसलमान, सत्य शुचि/मदद के हाथ, उर्मि कृष्ण/नई दृष्टि, सुरेश शर्मा/बहू, युगल/नुचे पंखों वाली चिड़िया,आशा शैली/मानदंड, समाज से हटकर/मिथिलेश कुमारी मिश्र, प्रतापसिंह सोढ़ी/जलन, घनश्याम अग्रवाल/प्रजातंत्र का एनेस्थेसिया, डा. अशफाक अहमद/सच है न, शरद सिंह/भिखारी, ज्योति जैन/आतंकवादी, छाया गोयल/चीरहरण,सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा/चूल्हे में चूल्हा, नीलम राकेश/ भूमिका, राजेन्द्र वर्मा/शुद्धि, प्रभुदयाल श्रीवास्तव/यह भी तो खेल है, हसन जमाल /खुशफहमी, शोभा रस्तोगी/गंदा आदमी, रेणु चौहान/एक रंग यह भी प्रभावित करती हैं। इन्हें पढ़ते हुए ताजगी का एहसास होता है।
अशोक भाटिया की लघुकथा ‘एक बड़ी कहानी’ के संदर्भ में कहना चाहूँगा कि वह मुसलमान से कुरआन की जानकारी के बारे में जैसी अपेक्षाएँ संजोये हुए हैं और जिस तरह इरफान टेलर मास्टर की बातों से निराशा होती है, उसी प्रकार एक आम हिन्दू भी अपने धर्मग्रंथ की मूल भावनाओं के दर्शन से नावाकिफ है। मुसलमानों में यह प्रतिशत 90 के करीब है। इसके लिए लेखक किसी शिक्षित मुसलमान से संपर्क करें तो उन्हें बेशक उनके सारे सवालों का जवाब मिल सकता है।
महावीर उत्तरांचली ने सरहद में एक ऐसे मुसलिम युवक की सोच को उजागर किया है जो अपनी जिंदगी की नाकामयाबी से तंग आकर पाकिस्तान से हिन्दुस्तान की सरहद की ओर कदम रखता है और गोलियों का शिकार बनता है। लेखक के लिए मेरा मशवरा है कि किसी मजहब को कथ्य के रूप में प्रयोग किया जाये तो लेखक को कम से कम उस मजहब की मूल भावनाओं और संदेश की जानकारी अवश्य होनी चाहिए। उनकी जानकारी के लिए दर्ज है कि इस्लाम मजहब में आत्महत्या जायज नहीं। ऐसा करने वालों को कभी मुक्ति नहीं मिलती और लाश को मिट्टी देने से भी शरियत मना करता है यानी कि मिट्टी देना हराम करार दिया गया है। अब तो आप भी समझ गए होंगे कि एक इंसानी जिंदगी की कितनी कीमत होती है ?
बहरहाल, डा. बलराम अग्रवाल और डा. उमेश महादोषी के संयुक्त प्रयास से अविराम साहित्यिकी का यह अंक न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय भी कहने लायक है। विगत वर्षों में ऐसे प्रयासों में काफी कमी आयी है, इस दृष्टि से अविराम की लघुकथा यात्रा यादगार साबित होगी।
- 6/सेक्टर-2, हारून नगर कालोनी, फुलवारी शरीफ, पटना-801505
शोभा रस्तोगी शोभा
अविराम : स्तरीय, सुलझी, सुरूचिपूर्ण, ज्ञानवर्धक, झकझोरने वाली पत्रिका
अविराम साहित्यिकी का लघुकथा विशेषांक(अक्टूबर-नवम्बर 2012) दृष्टि-हस्तगत हुआ। आवरण पृष्ठ भी माननीय रघुवीर सहाय जी की लघुकथा से सुसज्जित था। बेजोड़ चित्रों ने इसे अलबेला अंक निरूपित कर दिया। कौतुहलवश अपनी रचना देख मन मुदित हुआ। अनेक धन्यवाद माननीय बलराम जी व माननीय महादोषी जी को जिन्होंने मेरे जैसे नौसिखिया की रचना को स्थान दिया ।
बलराम जी जैसे सुप्रसिद्ध लेखक, मानवीय भावनाओं के कुशल चितेरे, नीर-क्षीर समीक्षक, पारखी संपादक के हाथों यह लघुकथा अंक अपना एक नया, नवेला, सुरूचिपूर्ण, सहेजनीय कलेवर प्राप्त कर सका। 107 लेखकों की रचनाओं को इसमें स्थान दिया है। प्रत्येक की कई लघुकथाओं को पढ़कर, विचारकर उसमे से एक को छांटना-कितना श्रमसाध्य रहा होगा। प्रसिद्ध लेखक, साहित्यलोक में उड़ान भर रहे लेखक, मेरे जैसे अनगढ़ जिन्होंने अभी अपने डैने फड़फड़ाये ही हैं, को भी सूचीबद्ध करना, वरीयता देना...वाकई सलाम है आद. बलराम अग्रवाल जी की अथक व परिश्रमी कलम को। ये सभी लघुकथा समाज के नायक इन्सान की अनेकानेक भावनाओं, उम्र के मोड़,आपदाओं तथा जानवरों पर भी केन्द्रित रही। प्रमुख बात यह रही कि ज्वलंत समस्याएं- बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, गरीबी, सामाजिक कुरीतियाँ, धर्मान्धता, पारिवारिक उपद्रव, राजनीति, गिरते मानवीय मूल्य, मानवीय संवेग, प्रकृति चित्रण,अहंभाव, आधुनिक संस्कृति आदि को बारीकी से चित्रित किया गया है।
सुप्रसिद्ध व प्रतिष्ठित लेखकों की लम्बी श्रंखला—कमलेश भारतीय, सिमर सदोष, सतीश दुबे, बलराम, चित्रा मुद्गल, युगल, हिमांशु, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, माधव नागदा, मालती बसंत, पारस दासोत, अशोक गुजराती आदि की लघुकथा-रचना कर्म को प्रकाशित कर इस अंक को विशेष व रोचक बना दिया है। सूर्यकांत नागर-ब्रजेश कानूनगो, भगीरथ-अर्चना वर्मा, शैलेन्द्र कु. शर्मा-संतोष सुपेकर, पुरुषोत्तम दुबे-प्रताप सिंह सोढी के वार्तालाप में अनेक स्तर पर लघुकथा विषयक चर्चा हुई।... रोचन्ते रोचना दिवि में साहित्य के स्तम्भ, मूर्धन्य लेखकों की कालजयी रचनाएँ इस अंक को युगों युगों तक सहेजनीय बना देती हैं। इन लेखकों की अंतर्दृष्टि, समझ, परख व रचनाकर्म निस्संदेह स्तुत्य है। इनकी अभिव्यंजनावृत्त लघुकथाएं इसके मुख्य पक्ष को उद्घाटित करती हैं।
पुरातन, मध्यम, नवीन—रचना व लेखक का संतुलन, क्रम, प्रकाशन सराहनीय है। इनमें ऐसे रचनाकार भी हैं जिनके अनेकानेक संग्रह छप चुके हैं और मेरे जैसा भी- जिसका अद्यतन कोई साहित्य संग्रह नहीं है। इतना विनम्र, ऊँची समझ, कुशल तालमेल आद. बलराम जी का ही है जिन्होंने कई पुस्तकें लघुकथा पर सम्पादित की हैं...तिस पर अपनी एक भी लघुकथा इस अंक में नहीं दी। सम्पादकीय में अनेक लेखकों की बात की, लघुकथा की बात की, लघुकथा का रचना कौशल समझाया नव पल्लवों को। ‘... कथालेखन नहीं कर रहे हैं तो कोई बात नहीं, पठन से मत हटिये। समीक्षा, आलोचना में भी हाथ तंग है तो स्तरीय लघुकथाओं के लेखकों को प्रशंसात्मक पत्र,ई-मेल, एस.एम.एस. करने का ही दामन थाम लीजिये। जिन्दा रहने के लिए जरूरी है—मैदान में बने रहना।’ अपनी रचना यात्रा का कोई उल्लेख नहीं...। सभी को मुख्य पृष्ठ पर रखा स्वयं हाशिये पर सरक गए...।
आत्मा शरीर में होने पर भी दिखती नहीं....आत्मा से ही देह क्रियाशील, मननशील होती है...उसी प्रकार पूरे अंक में आत्मा यथा शरीरे उपस्थित हैं बलराम जी। आद. मध्यमा जी, आद. उमेश जी को अविराम जैसी स्तरीय,सुलझी, सुरुचिपूर्ण, ज्ञानवर्धक, झकझोरने वाली पत्रिका निकालने पर बधाई ...। मुद्रित व अंतर्जालीय दोनों रूपों ने पत्रिका को सुदूर तक मशहूर किया है। पत्रिका के अति उज्जवल भविष्य हेतु ढेरों शुभकामनायें।....
- RZ-D- 208-बी, डी.डी.ए. पार्क रोड, राजनगर-।।, पालम कालोनी, नई दिल्ली-110077
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