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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 06,  फरवरी 2013 

।।कथा कहानी।।

सामग्री :  डॉ. तारिक असलम ‘तस्नीम’ की  कहानी-  जीवन रेखा।


डॉ. तारिक असलम ‘तस्नीम’




जीवन रेखा

      गर्मियों के शुरूआती दिन थे। हवा खुश्क हो चली थी और हवाओं के साथ चारों तरफ गर्दो-गुब्बार उड़ते दिखाई देने लगे थे। सुबह की पहली किरण के साथ जिस्म से कपड़े उतार फंेकने की ख्वाहिश दिल में गथलने लगी थी। पंखे की तेज रफ्तार हवा जिस्म की सुकून की बजाय एक अजीब से कोफ्त और बदमजगी की एहसास करा रही थी। जिसका कोई समाधान नहीं था। इसलिए सुबह हो जाने के बावजूद न चाहते हुए भी लोग अपने-अपने कमरे में पंखे के नीचे अलसाए से पडे थे।
     रहीम फर्ज की नमाज के बाद मस्जिद से घर लौट चुका था। उसने अपनी फितरत के मुताबिक कुरआन पाक की तिलवात खत्म कर ली थी और अम्मी के हाथों बनी प्यारी सी एक कप चाये पीने के बाद बिस्तर पर यों ही लेट गया था। यों ही लेटे हुए कब उसकी आंखों को झपकी आ गई। यह उसे कतई नहीं मालूम...... लेकिन जब आंख खुली तो उसके चेहरे पर परेशानी की लकीरें साफ दिख रही थीं। चेहरे पर हवाइयां उड रही थी। उसके पूरे जिस्म पर कंपकंपी सी तारी थी। होंठ सूख रहे थे, जिसे तर रखने के लिए वह बार-बार होठों पर जबान फेरता। अजीब सी कैफियत थी उसकी। वह कुछ कहना चाहता था पर अम्मी से कोई ऐसी....वैसी बात कहकर उन्हें बिलावजह परेशानी में डालने का उसका कोई इरादा नहीं था। वह कुछ पल यों ही कमरे में टहलता रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस ख्वाब की ताबीर क्या सच होकर रहेगी? वह अब्बू के कमरे में गया। वह भी अपनी बिस्तर पर नमाज के बाद निहाल से लेटे थे। अभी वह किससे क्या कहे, किससे न कहे! इसी उधेडबन में खोया हुआ था। वह किसी नतीजे पर पहुंचने की नामुमकिन कोशिश में जुटा था।
     अभी वह इसी उलझन में फंसा था कि अचानक कमरे में टेलीफोन की घंटी बज उठी। वह किसी खौफनाक खबर की दहशत में घिरा टेलीफोन की ओर बढ़ा। उसने फोन को कान से लगाया। दूसरी ओर से छोटे चाचा पूछ रहे थे- कौन ? रहीम! अरे! भईया कहां है? एक खबर देनी है। बहुत गडबड़ हो गया है यहां रात में। 
    ‘‘ऐसा क्या हो गया है चाचा जी? सब खैरियत तो है न?’’ रहीम ने सहमते हुए पूछा।
     ‘‘अब क्या कहें रहीम! कल रात कलीमउद्दीन की बीवी चल बसी। उसे हम लोग हस्पताल ले जाने के लिए रिक्शे पर बिठा ही रहे थे। उसने रिक्शा के चार कदम बढ़ते ही रास्ते में दम तोड़ दिया। फिर भी हस्पताल ले गए। एक उम्मीद बची थी। वह भी वहां जाकर टूट गई। भईया को सब बता दीजिए और आप लोग जल्दी से आ जाइए। दादाजी को भी अपने साथ लेते आइए। देर मत कीजिए.... बस निकलने की तैयारी कीजिए.... जोहर (दोपहर) की नमाज के बाद कफन-दफन का इंतेजाम किया गया है, ताकि खानदान के दूसरे लोग भी आ जाएं। अच्छा अब फोन रखता हँू।’’ वह कहना चाहता था कि अब्बू को जगा देता हँू। आप खुद बात कर लीजिए, लेकिन तब तक उन्होंने फोन कट कर दिया। वह चोगा हाथ में पकड़े हुए भौंचक खड़ा रह गया।
छाया चित्र : उमेश महादोषी 
     जब रहीम ने यह खबर सुनी तो उसकी रूह कांप गई। ‘‘अरे! मेरे ख्वाब का मतलब भी तो यही निकलता है। उसने झपकी आने के बाद ख्वाब मेें यही तो देखा था कि एक जगह कुछ लोग जमा है। उनके हाथ दुआ के लिए उठे हैं और उनमें से एक शख्स रहीम से करीब आकर कहता है- ‘‘मगफिरत की दुआ करो... मगफिर (माफी)।’’  जिसके बाद उसकी नींद खुल गई थी। वह किसी अनहोनी की खबर से आतंकित हो उठा था। ओह! यह क्या देखा था मैंने... ओह पहले अम्मी-अब्बू को खबर तो दे दूँ। उसने जो यह बात घर में बतायी तो सब सकते में पड़ गए। 
     जोहरा भाभी गर्भवती थी। यह सबको मालूम था, लेकिन बच्चे की पैदाइश के वक्त ही मौत हो जाएगी। यह किसी के लिए भी यकीन करना कठिन था। दादा जी को यह खबर मिली तो वह रो पड़े। ’’या अल्लाह! अब उसके घर का क्या होगा... अरे! यह सब हुआ तो कैसे ? उसे तकलीफ होते ही हस्पताल क्यों नहीं ले गए लोग? क्या कर रहे थे सब घर में? ऐसी लापरवाही होती है भला... या खुदा यह क्या कहर बरपा किया?’’ दादा जी भरी आंखो से अपना दर्द जाहिर करते रहे। आसमान तकते रहे.... आहें भरते रहे।
      ‘‘रहीम! मैं तो बिना आफिस से छुट्टी की दरख्वास्त मंजूर कराए, गांव नहीं जा सकता। मेरी बजाय तुम दादा जी के साथ गांव चले आओ। आठ बजे की लोकल से। अभी ट्रेन आने में करीब बीस मिनट बाकी हैं। आरा से बस मिल जाएगी। दोपहर के पहले घर पहुंच जाओगे....।’’  जिंदगी में पहली बार रहीम ने भारी मन से गांव जाने के लिए तैयार होने लगा। इससे पहले वह जब भी गांव गया। वहां जाना उसकी दुगुनी खुशी का सबब रहा था। उसे गांव का माहौल बेहद पसंद था। मगर इस बार उसकी खुशियों को न जाने किसकी नजर लग गई थी।
     आनन-फानन की तैयारी के बाद किसी तरह वह दादा जी के साथ गांव पहुंचा तो जोहर की नमाज का वक्त निकल चुका था और मईयत को मस्जिद के करीब नमाजे जनाजा के लिए लाया जा चुका था। अपने-पराये सभी जमा थे वहां पर, बस हमारे पहुंचने का इंतेजार था। पूरा माहौल गम से बोझिल था।
      जब भाभी जान को कब्र में लिटाया गया। कलीम भईया बुक्का फाड़कर से पड़े। किसी तरह कुछ लोगों ने संभाला। हिम्मत से काम लेने की सलाह दी। पर दिल कोई पत्थर तो नहीं जिससे गम का ज्वार नहीं फूटे। फिर भी उनकी आंखो में आंसू थमते से लगे, किन्तु दिल में न जाने कितने गम के पहाड़ तैरते और आपस में टकराते रहे। आखिरी बार भाभी का चेहरा खोलकर सबको दिखाया गया। रहीम ने भी देखा। भाभी का पीलिया के रोगी की तरह पीला पड़ चुका चेहरा। जिस पर तब भी कहीं कोई तनाव या दुख का साया नहीं था। कब्र पर मिट्टी डालने के बाद सबने उनकी मुक्ति की दुआएं कीं और उल्टे पैर घरों को लौट गए।
      एकबारगी कलीम भईया की जिंदगी वीरान हो गई थी। यह बात पूरे खानदान को गहरे कचोट रही थी। अजीब-अजीब बातंे सुनने को मिल रही थी यानि जितनी मुँह उतनी बातें। बातों के सिलसिला का कोई अन्तिम छोर नहीं था। छोटे चाचा रहीम को पुश्तैनी मकान के सामने तैयब चाचा के चतबूतरे पर बिठाते हुए कहने लगे- ‘‘यह सब हादिसा इतनी जल्दी हो गया कि किसी को वक्त ही नहीं मिला कि आधी रात को कोई कुछ कर सके। अन्दर कलीम की मेहरारू को दर्द हुआ तो घर की औरतों-मर्दो ने समझा कि सब थोड़ी देर में हमेशा की तरह ठीक-ठाक हो जाएगा। वैसे भी जोहरा कोई पहली बार बच्चा तो नहीं जनने जा रही थी। इसके पहले वह पांच बेटियां और तीन बेटों को जन्म दे चुकी थी। यह नौवां बच्चा था जो उसके गर्भ में पल रहा था और अब कुछ ही मिनटों में बाहर आना चाहता था। घर के दरवाजे पर बैठे मर्दो को खुशखबरी का इंतेजार था। रात के करीब साढ़े ग्यारह बज रहे होंगे कि तभी इसी चबूतरे पर रहीम मेरी जरा सी आंख झपक गई। तब जानते हो। मैंने ख्वाब में क्या देखा?’’
      ‘‘क्या देखा चाचा जी? कोई बुरा सपना... ?’’ उसने बेतरह चौंकते हुए पूछा।
      ‘‘हाँ! मैेंने महसूस किया कि सामने के ढलान वली गली से एक अजगर फंुफकारता हुआ दौड़ता चला आ रहा है और वह घर में घुसकर किसी को डस लेता है। यह ख्वाब टूटना था कि मेरे कानों में घर की औरतों के रोने-चीखने की आवाजें पड़ीं। मैं दोड़ कर अंन्दर गया। कमरे में सारी औरतें बेहाल थीं। सबकी आंखों में आंसू थे। जोहरा बस एक ही बाते रटे जा रही थी, ‘‘मुझे डागडर के पास ले चलो... अब मैं नहीं बचूंगी। बस किसी तरह हस्पताल चलो... मेरा दम घुट रहा है... कोई गला दबा रहा है।’’
      ‘‘फिर आप लोगों ने उसे हस्पताल ले जाने में देर क्यांे की ? उसे सही वक्त पर हस्पताल में दाखिल करा दिया गया होता तो शायद भाभी की जान बच जाती और यह परिवार नहीं उजड़ता।’’
     ‘‘अब क्या कहें रहीम! रात के वक्त रिक्शा तलाशने में देर हो गई। कोई चार कदम जाने के लिए तैयार नहीं थ। फिर तो यही कहा जाएगा न कि होनी को कौन टाल सकता है रहीम! वह तो कभी डाक्टर के पास गई ही नहीं। किसी की नहीं सुनती थी। वह सोच रही थी कि हमेशा की तरह यह बच्चा भी घर पर भी पैदा हो लेगा।’’
     ‘‘मगर चाचा जी! पिछली बार जब मैं गांव आया था। तब भाभी जान के चेहरे की रंगत देखकर उनसे कहा भी था। भाभी जान! आप की तबियत कुछ ठीक नही लगती। आप किसी डाक्टर से चेकअप करा लीजिए... तब उसने हंसते हुए धीमे लहजे में कहा था, ‘‘मुझे कुछ नहीं होगा रहीम बाबू! खा पीकर सेहतमंद हो जाऊँगी।’’ और आदतन वह चारपाई पर बैठी मुस्कुराती रही थीं।
      जब रहीम अपने ख्वाब की बात चाचा जी को बताने लगा तो वह सुनकर भौंचक रह गए। फिर तनिक धीमे लहजे में बोले, ‘रहीम! सच बात तो यह है कि उसके ऊपर भूत-प्रेत का साया था। वह भूत खेलाती थी। उसी ने उसकी जान ली है। तुम्हारी चाची भी यही कहती है। यही सही है। वरना एक अच्छी-भली औरत अचानक कैसे मर सकती है। फिर हम दोनों के सपने भी तो यही साबित करते हैं।’’ चाचा ने दिल की तसल्ली के लिए अपनी सोच जाहिर की। रहीम ने उनकी बातें सुनी, किन्तु कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
      दूसरे दिन वह पटना वापसी के लिए तैयार हुआ। कुछ और मेहमान भी जाने को तैयार दिखे। घर मुहल्ले की औरतें दरवाजे पर जमा हो गई। सबकी आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे। तभी एक औरत ने एक नवजात शिशु को कपड़े में लपेटकर सामने किया,- ‘‘यही है.... मुनिया! जिसे जोहरा ने मरने से पहले जन्म दिया। अब इसकी परवरिश कौन करेगा बाबू? यह भी मर जाती तो भला होता....? इस घर में कोई दूसरी औरत है कहां ? सारे बच्चे छोटे हैं। या अल्लाह यह क्या गजब किया..? किस बात की इतनी बड़ी सजा दी कलीम को ? बेचारा तंग-तनहा होकर रह गया...।’’ उसी भीड़ से किसी की आवाज आयी,’’ अरे ! यह बेटी नहीं नागिन है... माँ को ही डस गई’’।
पटना वापसी के कुछ दिनों बाद ही खबर मिली! बच्ची मर गई! किसी ने कहा कि उसकी सही ढंग से देखभल नहीं हुई, किसी ने कहा, उसे नमक चटाकर मार दिया गया। पहले से ही पांच पांच बेटियां क्या कम हैं, जो इसका जिम्मा कोई ढोये।’
      बरसों बाद भी रहीम को अपनी जोहरा भाभी से पहली मुलाकात याद थी। वह एक खुशगवार सुबह थी जब वह सपरिवार गांव गया था। दादी मां और चाचियों के साथ चचेरी भाभी ने भी पटनिया बाबू कहते हुए आवभगत में कोई कोर कसर नहीं रहने दी थी। रात देर तक भाभी उसके साथ अपने पीहर की बातें कहती-सुनती रही थी। उसे चिनिया बादाम मंगाकर खाने को विवश किया था। जब तक वह गांव में रहा हर रात धान के बदले बादाम और कुछ दूसरी खट्टी-मिटी चीजे मंगाकर वह खिलाती रही थीं।
      जोहरा भाभी औसतन कद काठी की होते हुए भी चेहरे से बेहद खूबसूरत दिखती थी। बातें खूब किया करती। हंसी मजाक तो उनके होठों पर चिपके रहते। किसी को रोते हुए भी हंसने को मजबूर कर देना, उनके किरदार की खूंबी थी। रहीम से जोहरा की गहरी छनती। दोनों अधिकतर समय साथ रहते, क्योंकि रहीम रिश्ते में देवर लगता था। इसलिए वह उसे किसी न किसी बहाने छेड़ने से भी नहीं चूकतीं। सज संवर कर रहना। उनको खूब पसंद था।
      छोटे चाचा और चचेरे भाई दोनों की शादियां एक साथ ही हुई थीं और एक दिन के फासले से दोनों जगह बारात गई थी। छोटी चाची कुछ पढ़ी लिखी थी, जबकि जोहरा भाभी ने पढ़ाई का वक्त सहेलियां के साथ पीहर की गलियों में मटरगश्ती करते हुए गुजारा था या फिर जैसा कि वह रहीम से कहती रही  थी कि जब गंगा नदी के बाढ़ का पानी उनके घर के दरवाजे तक आ लगता। वह किसी नाव पर सवार होकर नदी की सैर करतीं। गीत गातीं। पानी से अठखेलियां करतीं। वह तैरना भी जानती थीं। जबकि छोटी चाची उपन्यासों की शौकीन थीं और वह अपनी किताबों में ही फुर्सत के वक्त काट लिया करतीं।
      मगर रहीम को यह ख्याल आते ही बड़ी घुटन होती कि जोहरा भाभी को पांच बेटियों और तीन बेटों के जन्म देने के बाद भी तसल्ली क्यों कर नहीं हुई थी। वह और बच्चे की ख्वाहिशमंद क्यों थी? घर में खेती-‘बाडी थी और कलीम भईया की छोटी सी सरकारी नौकरी। तिस पर पूरे दस जनों की रात-दिन की आवश्यकताएं। कभी किसी के तन पर पूरे वस्त्र नहीं तो कभी मन मुताबिक खाने पीने की चीजें नहीं, मगर कलीम भईया भाभी का बहुत ख्याल रखते थे। उनकी जरूरत की किसी चीज में कोई कमी नहीं आने देते थे। जोहरा भाभी की खुशी में ही उनकी खुशी में ही उनकी खुशी पोशीदा थी।
       दरअसल इसकी भी एक खास वजह थी। खानदान में जोहरा भाभी के बच्चों के साथ साथ छोटी चाची के बच्चों की तादाद भी तेजी से बढ़ रही थी। कभी चाची जान गर्भवती होतीं तो कभी भाभी जान। एक-दूसरे की खबर लगते ही वह भी इस कोशिश में जुट जाती। नतीजा यह हुआ कि हर साल किसी ने किसी के बच्चे की पैदाईश का सिलसिला जारी रहा। यों कि दोनों के बीच एक शीत युद्ध की स्थिति बन गई और इस युद्ध में छोटी चाची विजयी हुई। जोहरा भाभी जहां नौवीं बच्ची के जन्म के साथ दुनिया को अलविदा कह गयीं। छोटी चाची ने अधिक बेटों को जन्म देकर रिकार्ड कायम किया। इस कोशिश में उनके हाथ भी जले। एक बेटा मानसिक रूप से विक्षिप्त पैदा हुआ। तब कहीं जाकर वह भी थमीं और दूसरे उन्हें जोहरा भाभी की मौत ने सकते में डाल दिया।
      जोहरा भाभी से पहले खानदान में किसी जवान औरत या मर्द की मौत नहीं हुई थी और यह जान भी बच्चे जनने के होड़ में गई थी। यह बात रहीम खूब समझ रहा था। कलीम भईया भाभी की उस हालत में सेहत और खानपान का ख्याल नहीं रख पाये थे। हमेशा की तरह इस बार भी वह बच्चा आराम से जन्म दे लेगी।
      बहरहाल, जोहरा भाभी अब इस दुनिया में नहीं, किंतु रहीम को लगता है कि आज भी वह उसके बेहद करीब बैठी बातें हंसी-मजाक कर रही है। उसे मनुहार कुछ न कुछ खाने को विवश कर रही हैं। उसके उल्टे-सीधे सवाल करके परेशान कर रही है। जिसके चेहरे में जाड़े के धूप सी नरमी और चांदनी सी चमक बसी थी। काश! वह ज्यादा बच्चे की हवस से बच पातीं। वह उनकी कुरबत से महरूम नहीं होता। आखिर घर की रौनक थीं वह।

  • संपादक/कथा सागर त्रैमासिक,  कोर्ट रोड़,  जज कोठी के सामने,  जामताड़ा,  झारखंड-815351

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