अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 6 , फरवरी 2013
{अविराम के ब्लाग के इस अंक में प्रख्यात कथाकार एवं चिन्तक श्री विरेन्द्र कुमार गुप्त के उपन्यास ‘‘शून्य से शिखर’’ की प्रख्यात साहित्यकार व समीक्षक डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ द्वारा लिखित समीक्षा रख रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ (डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर) अवश्य भेजें।}
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
‘संन्यास से संसार और संसार से संन्यास’ का समन्वय कराता उपन्यास ‘शून्य से शिखर’
प्रख्यात कथाकार एवं चिन्तक श्री विरेन्द्र कुमार गुप्त का हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ‘‘शून्य से शिखर’’ निःसन्देह हिन्दी कथा जगत की उपलब्धि कहा जाना चाहिए। कथाकार श्री भगवती चरण वर्मा ने अपने चर्चित उपन्यास ‘‘चित्रलेखा’’ में संन्यास की ‘व्यर्थता’ को इतिहास और कल्पना के रंगों में ढाला था, लेकिन कथाकार श्री विरेन्द्र कुमार गुप्त ने तो ‘संन्यास से संसार और संसार से संन्यास के बीच अनूठा समन्वय’ स्थापित कराते हुए ‘‘शून्य से शिखर’’ उपन्यास में समाज, राजनीति और धर्म की त्रिवेणी के बीच रोचक कथा का सृजन किया है।
कथाकार वीरेन्द्र गुप्त ने कथा नायक सदानन्द को निर्मल आश्रम के भिक्षु-संन्यासी से मुख्यमंत्री के पद तक ले जाकर जहाँ राजनीति के दावँ-पेंचों के बीच ‘अध्यात्म-साधना’ पर अत्यन्त गंभीर और सकारात्मक चिन्तन अपने इस उपन्यास ‘शून्य से शिखर’ में दिया है, वहीं सुष्मिता और सुषमा जैसे सजीव नारी-पात्रों के माध्यम से श्रेष्ठ जीवन मूल्यों और नारीत्व की गरिमा भी स्थापित की है।
कथाकार ने ‘शून्य से शिखर’ में कथानक का ताना-बाना इतनी कुशलता से बुना है कि पाठक स्वयं को हर घटना-क्रम के साथ बंधा हुआ सा अनुभव करता है और उपन्यास के सभी पात्रों से पाठक सहज तादात्म्य बनाकर कथारस में डूबा रहता है।
स्वयं कथाकार ने कथानायक सदानन्द के माध्यम से एक विचार दिया है- ‘‘सांसारिक कर्म और कर्म संन्यास के बीच संतुलन एक मनोवैज्ञानिक विषय है, हमने इसे एक सामाजिक द्वैत के रूप में लिया है, जो हानिकर है। हर तथाकथित संन्यासी के भीतर एक सांसारिक गृहस्थ और हर गृहस्थ के भीतर एक संन्यासी निरन्तर वर्तमान रहता है और रहना चाहिए।’’ (पृष्ठ-6)
कथाकार वीरेन्द्र गुप्त ने संन्यास-आश्रमों में ‘मोक्ष’ और ‘निर्वाण’ की खोज मंे रहने वाले संन्यासियों के बीच निर्मल आश्रम के भिक्षु सदानन्द और गृहस्थी समीर के बीच वार्तालाप में ही बेधक प्रश्न उठाया है। ‘‘मैं भिक्षा मांगना और भिक्षा देना, दोनों को ही पाप समझता हूँ।’’ -समीर का यह वाक्य ही ‘शून्य से शिख्र’ उपन्यास की नींव बना है।
कथा-क्रम के अनुसार, कथानायक भिक्षु सदानन्द एक दिन ‘संन्यास’ छोड़कर गृहस्थ बन जाता है और उसके इस जीवन में जन्मदाता माँ-बाप और भाई के साथ-साथ पत्नी ‘सुष्मिता’, ससुर मिश्र जी और मार्गदर्शक मित्र समीर का प्रवेश हो जाता है। कथानायक संस्कृत विद्यालय के शिक्षक से विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री तक बन जाता है।
कथाकार श्री वीरेन्द्र कुमार गुप्त ने अपने उपन्यास में मनोविज्ञान का ऐसा सार्थक प्रयोग किया है कि पाठक उनके पात्रों, कथानायक सदानन्द, मित्र समीर, मिश्र जी, निर्मल बाबा के साथ-साथ सुष्मिता और सुषमा के चरित्र-चित्रण से अभिभूत हो उठता है।
‘शून्य से शिखर’ उपन्यास में कथाकार ने गंभीर चिन्तन को वाणी दी है- ‘‘सीधी सी बात है। स्त्री-पुरुष का संयोग, गृहस्थ ईश्वर का बनाया शाश्वत विधान है। मोक्ष या निर्वाण के लिए यह आपका संन्यास मनुष्य के विकृत अहं की हठ मात्र है, जो प्रकृति की ओर पीठ किये खड़ी है।’’ (पृष्ठ-23)
कथाकार ने सदानन्द और समीर के वार्तालाप के द्वारा ‘चित्रलेखा’ के कथाकार भगवती चरण वर्मा से बहुत आगे बढ़ कर ‘संन्यास’ पर मंथन किया है- ‘‘पहला अन्तर यह है कि गृहस्थ श्रम करके अपनी और अपने आश्रितों की रोटी अर्जित करता है। संन्यासी परोपजीवी है। दूसरे, गृहस्थ उत्पादन करता है.....उसके द्वारा किया गया उत्पादन केवल उसके लिए नहीं होता, सबके लिए होता है। संन्यासी का लक्ष्य केवल अपनी आत्मा का उद्धार रहता है।’’ (पृष्ठ-31)
सच यह है कि कथाकार श्री वीरेन्द्र गुप्त ने समाज की ज्वलन्त समस्या पर यह महत्वपूर्ण उपन्यास रचा है।
कथाकार ने यत्र-तत्र बुद्ध द्वारा संन्यास को एक ‘संस्था’ बनाकर ‘भिक्षुओं के संघ’ बनाने को प्रतिगामी माना है और गृहस्थ को समाज का आधार माना है- ‘‘मैं समझता हूँ, जो साधना संन्यासी करता है, वह गृहस्थ के सब कर्त्तव्यों का पालन करते हुए भी की जा सकती है। सांसारिक युद्धों को लड़ना अपने में एक तपस्या है। एक सच्चा गृहस्थ संन्यासी से कहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वह चुनौतियों से भागता नहीं।’’ (पृष्ठ-53)
कथानायक सदानन्द के साथ पत्नी सुष्मिता और प्रेयसी सुषमा का ‘त्रिकोंण’ बनाकर कथाकार वीरेन्द्र गुप्त ने नारीत्व को जो गरिमा दी है, वह पाठक के हृदय को अभिभूत कर लेती है। सुषमा के चरित्रांकन में तो जैसे उपन्यासकार ने उदात्त को ही रूपायित कर दिया है। त्याग, दृढ़ता, संकल्प-शक्ति और कर्मशीलता जैसे उदात्त जीवन-मूल्यों को कथाकार ने सुषमा और सुष्मिता के माध्यम से अनूठी अभिव्यक्ति दी है।
कथाकार वीरेन्द्र कुमार गुप्त का यह उपन्यास निश्चय ही उनके पूर्व उपन्यासों की ही तरह सकारात्मक चिन्तन प्रधान रोचक कृति है, जिसमें वर्तमान राजनीति के दाँव-पेंच से लेकर सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर भी सार्थक चिन्तन पाठकों को मिलेगा। ‘‘शून्य से शिखर’’ निश्चय ही हिन्दी-जगत में स्थान बनाएगा, इस विश्वास के साथ मैं सुधी पाठकों को इस कृति का परिचय दे रहा हूँ।
‘शून्य से शिखर’ : उपन्यास। लेखक : वीरेन्द्र कुमार गुप्त। प्रकाशक : मित्तल एण्ड संस, सी-32, आर्यनगर सोसायटी, मदर डेयरी, पटपड़गंज, दिल्ली-110092। मूल्य : रु.200/-। संस्करण : 2013 (सजिल्द)। पृष्ठ : 127।
कथाकार वीरेन्द्र गुप्त ने कथा नायक सदानन्द को निर्मल आश्रम के भिक्षु-संन्यासी से मुख्यमंत्री के पद तक ले जाकर जहाँ राजनीति के दावँ-पेंचों के बीच ‘अध्यात्म-साधना’ पर अत्यन्त गंभीर और सकारात्मक चिन्तन अपने इस उपन्यास ‘शून्य से शिखर’ में दिया है, वहीं सुष्मिता और सुषमा जैसे सजीव नारी-पात्रों के माध्यम से श्रेष्ठ जीवन मूल्यों और नारीत्व की गरिमा भी स्थापित की है।
कथाकार ने ‘शून्य से शिखर’ में कथानक का ताना-बाना इतनी कुशलता से बुना है कि पाठक स्वयं को हर घटना-क्रम के साथ बंधा हुआ सा अनुभव करता है और उपन्यास के सभी पात्रों से पाठक सहज तादात्म्य बनाकर कथारस में डूबा रहता है।
स्वयं कथाकार ने कथानायक सदानन्द के माध्यम से एक विचार दिया है- ‘‘सांसारिक कर्म और कर्म संन्यास के बीच संतुलन एक मनोवैज्ञानिक विषय है, हमने इसे एक सामाजिक द्वैत के रूप में लिया है, जो हानिकर है। हर तथाकथित संन्यासी के भीतर एक सांसारिक गृहस्थ और हर गृहस्थ के भीतर एक संन्यासी निरन्तर वर्तमान रहता है और रहना चाहिए।’’ (पृष्ठ-6)
कथाकार वीरेन्द्र गुप्त ने संन्यास-आश्रमों में ‘मोक्ष’ और ‘निर्वाण’ की खोज मंे रहने वाले संन्यासियों के बीच निर्मल आश्रम के भिक्षु सदानन्द और गृहस्थी समीर के बीच वार्तालाप में ही बेधक प्रश्न उठाया है। ‘‘मैं भिक्षा मांगना और भिक्षा देना, दोनों को ही पाप समझता हूँ।’’ -समीर का यह वाक्य ही ‘शून्य से शिख्र’ उपन्यास की नींव बना है।
कथा-क्रम के अनुसार, कथानायक भिक्षु सदानन्द एक दिन ‘संन्यास’ छोड़कर गृहस्थ बन जाता है और उसके इस जीवन में जन्मदाता माँ-बाप और भाई के साथ-साथ पत्नी ‘सुष्मिता’, ससुर मिश्र जी और मार्गदर्शक मित्र समीर का प्रवेश हो जाता है। कथानायक संस्कृत विद्यालय के शिक्षक से विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री तक बन जाता है।
कथाकार श्री वीरेन्द्र कुमार गुप्त ने अपने उपन्यास में मनोविज्ञान का ऐसा सार्थक प्रयोग किया है कि पाठक उनके पात्रों, कथानायक सदानन्द, मित्र समीर, मिश्र जी, निर्मल बाबा के साथ-साथ सुष्मिता और सुषमा के चरित्र-चित्रण से अभिभूत हो उठता है।
‘शून्य से शिखर’ उपन्यास में कथाकार ने गंभीर चिन्तन को वाणी दी है- ‘‘सीधी सी बात है। स्त्री-पुरुष का संयोग, गृहस्थ ईश्वर का बनाया शाश्वत विधान है। मोक्ष या निर्वाण के लिए यह आपका संन्यास मनुष्य के विकृत अहं की हठ मात्र है, जो प्रकृति की ओर पीठ किये खड़ी है।’’ (पृष्ठ-23)
कथाकार ने सदानन्द और समीर के वार्तालाप के द्वारा ‘चित्रलेखा’ के कथाकार भगवती चरण वर्मा से बहुत आगे बढ़ कर ‘संन्यास’ पर मंथन किया है- ‘‘पहला अन्तर यह है कि गृहस्थ श्रम करके अपनी और अपने आश्रितों की रोटी अर्जित करता है। संन्यासी परोपजीवी है। दूसरे, गृहस्थ उत्पादन करता है.....उसके द्वारा किया गया उत्पादन केवल उसके लिए नहीं होता, सबके लिए होता है। संन्यासी का लक्ष्य केवल अपनी आत्मा का उद्धार रहता है।’’ (पृष्ठ-31)
सच यह है कि कथाकार श्री वीरेन्द्र गुप्त ने समाज की ज्वलन्त समस्या पर यह महत्वपूर्ण उपन्यास रचा है।
कथाकार ने यत्र-तत्र बुद्ध द्वारा संन्यास को एक ‘संस्था’ बनाकर ‘भिक्षुओं के संघ’ बनाने को प्रतिगामी माना है और गृहस्थ को समाज का आधार माना है- ‘‘मैं समझता हूँ, जो साधना संन्यासी करता है, वह गृहस्थ के सब कर्त्तव्यों का पालन करते हुए भी की जा सकती है। सांसारिक युद्धों को लड़ना अपने में एक तपस्या है। एक सच्चा गृहस्थ संन्यासी से कहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वह चुनौतियों से भागता नहीं।’’ (पृष्ठ-53)
कथानायक सदानन्द के साथ पत्नी सुष्मिता और प्रेयसी सुषमा का ‘त्रिकोंण’ बनाकर कथाकार वीरेन्द्र गुप्त ने नारीत्व को जो गरिमा दी है, वह पाठक के हृदय को अभिभूत कर लेती है। सुषमा के चरित्रांकन में तो जैसे उपन्यासकार ने उदात्त को ही रूपायित कर दिया है। त्याग, दृढ़ता, संकल्प-शक्ति और कर्मशीलता जैसे उदात्त जीवन-मूल्यों को कथाकार ने सुषमा और सुष्मिता के माध्यम से अनूठी अभिव्यक्ति दी है।
कथाकार वीरेन्द्र कुमार गुप्त का यह उपन्यास निश्चय ही उनके पूर्व उपन्यासों की ही तरह सकारात्मक चिन्तन प्रधान रोचक कृति है, जिसमें वर्तमान राजनीति के दाँव-पेंच से लेकर सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर भी सार्थक चिन्तन पाठकों को मिलेगा। ‘‘शून्य से शिखर’’ निश्चय ही हिन्दी-जगत में स्थान बनाएगा, इस विश्वास के साथ मैं सुधी पाठकों को इस कृति का परिचय दे रहा हूँ।
‘शून्य से शिखर’ : उपन्यास। लेखक : वीरेन्द्र कुमार गुप्त। प्रकाशक : मित्तल एण्ड संस, सी-32, आर्यनगर सोसायटी, मदर डेयरी, पटपड़गंज, दिल्ली-110092। मूल्य : रु.200/-। संस्करण : 2013 (सजिल्द)। पृष्ठ : 127।
- 74/3, न्यू नेहरू नगर, रुड़की-247667, जिला-हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
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