इस अंक से रचनाओं के पठन की सुविधा एवं भविष्य में इन रचनाओं की उपयोगिता की दृष्टि अविराम विस्तारित को विधावार उपखण्डों- कविता अनवरत(विभिन्न काव्य रचनाओं का उपखण्ड), कथा प्रवाह (लघुकथा उपखण्ड), क्षणिकाएँ, जनक छन्द एवं अन्य त्रिपदिक छन्द, हाइकु एवं सम्बन्धित रचनाएँ, कथा कहानी (कहानी उपखण्ड), व्यंग्य वाण (व्यंग्य रचनाओं का उपखण्ड) में विभजित कर रहे हैं। अन्य वैचारिक आलेख ‘अविराम विमर्श’ के अन्तर्गत ही जायेंगे। अगला अंक २० अक्टूबर २०११ तक प्रकाशित होगा। आपकी प्रतिक्रियाएं दर्ज करके चर्चा में सहभागी बनें। इससे हमारा उत्साहवर्धन होगा। कृपया रचनाएँ सम्पादकीय पते- डॉ.उमेश महादोषी, ऍफ़-४८८/२, गली-११, राजेंद्र नगर,रुड़की-२४७६६७, जिला- हरिद्वार (उत्तराखंड ) पर भेजें।
।।सामग्री।।
अनवरत : हृदयेश्वर, हितेश व्यास, आचार्य भगवत दुबे, विद्याभूषण, दिनेश चन्द्र दुबे, प्रशान्त उपाध्याय, कृष्ण सुकुमार, गांगेय कमल, डॉ.ए. कीर्तिबर्धन, पवन कुमार 'पवन' एवं टी. सी. सावन की कवितायेँ ।
संभावना : नवोदित कवयित्री विनीता चोपड़ा।
हृदयेश्वर
सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ गीतकार हृदयेश्वर जी का नया गीत संग्रह ‘धाह देती धूप’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। यहाँ इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं हृदयेश्वर जी के दो गीत -
मुझे बहुत भाता है
मुझे बहुत भाता है
देना चीजों को नाम!
विस्मयकारी हैं मेरे हर शब्द
कि ज्यों बोंसाई
जिनकी खातिर मैंने जाने
कितनी आग गँवाई
कितने दिन, कितनी रातों को
फूँका है अविराम!
हासिल मुझको जो दो-पल
वे चुम्बन जैसे कोमल
मेरे छंदों में छलकाते रहते
वे जीवन-जल
वे अकाल में सारस जैसे
हैं मन के सुखधाम!
वे रोटी हैं, माँ हैं
 |
दृश्य छाया चित्र : रोहित काम्बोज |
आकर दुखती रग सहलाते
कल की नई उम्मीदों से
खाली जेबें भर जाते
वे कपिला गइया जैसे हैं
सीधे वो निष्काम!
वे मेरे बचपन के गुइयाँ
रंगों की पिचकारी
मेरे मन की चादर पर वे
सुंदर-सी फुलकारी
वे जन-मन को हलकाते-से
धाह देती धूप
धूप दरवाजे पकड़कर खड़ी गुमसुम
हादसों के बीच
जलते इस शहर में!
हाथ में दिल को लिए ज्यों चल रहे हम
क्या पता गति भीड़ की कब रचे ताण्डव?
किस गली से दनदनाती मौत निकले
किस गली में कहर बनकर बम फटे कब?
खिड़कियों से रोज देखें हम सड़क पर
जिन्दगी को तोड़ते दम
निमिष भर में!
सुरक्षित अब शाम में घर लौट आना
है किले के फतह जैसा इस शहर में
इक अँदेशा खड़ा मग में जलजला-सा
घिसटते-से बढ़ रहे हम किन्तु-पर में
दिवस खाई तो कुएँ-सी रात पसरी
फँसे हम हैं
वक्त के पगले भँवर में!
उँगलियों पर गिन रहे हैं साँस अपनी
अब न बजती बाँसुरी-सी जिंदगी है
भोर में ज्यों धाह देती धूप निकले
नहीं गलबाँही कहीं, या पा-लगी है
कर तमस के हवाले आकाश मन का
त्रिशंकु से लटकते हम हैं
अधर में!
- ‘गीतायन’, प्रेमनगर, रामभद्र (रामचौरा), हालीपुर-844101, जिला- वैशाली (बिहार)
हितेश व्यास
चेहरा
एक चेहरे की तलाश है
हर एक को
हर एक के पास है
एक चेहरा
एक चेहरा भीड़ में कहीं खो गया है
हो गया है हर आदमी का
एक चेहरा
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दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति |
एक चेहरा हर हाल में बचाना है
पाना है हर आदमी को
एक चेहरा
छोटी छोटी बात
छोटी छोटी बातों पर
मोटा मोटा ध्यान दिया
और तुमने क्या किया?
मोटी मोटी बातों को सहन कर गये
मोटे मोटे भार को वहन कर गये
छोटे छोटे बोझ को उठा न सके
छोटे छोटे बोझ से बार बार थके
जीवन को टुकड़ों में जिया
और तुमने क्या किया?
- 1, मारुति कॉलोनी, पंकज होटल के पीछे, नयापुरा, कोटा-324001(राज.)
आचार्य भगवत दुबे
प्रश्न सारे ज्वलन्त धर आया
दर्द, अड़ियल सा मुसाफिर आया
पूछ बस्ती से मेरा घर आया
उसकी आँखों में हादसे पढ़कर
याद फिर खौफ़ का सफर आया
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दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति |
इम्तिहां छोड़, पुस्तिका में वह
प्रश्न सारे ज्वलन्त धर आया
ले के शुभकामना गया था मैं
चोट खाकर मिरा जिग़र आया
दोस्त के जिस्म की महक लेकर
तीर तरकस में लौटकर अया
शांति का जो कपोत भेजा था
खून से हो के तर-बतर आया
- पिसनहारी-मढ़िया के पास, जबलपुर-482003 (म.प्र.)
करे ठिठौली समय भी, गर्दिश का है फेर।
यश वर्षा की कामना, सूखे का है दौर।।
नाम-दाम सब कुछ मिले, जिनके नाथ महंत।
कर्म करो, फल ना चखो, कहे महागुरु संत।।
।।3।।
हरदम चलती मसखरी, ऐसी हो दूकान।
मौन ठहाके से डरे, सद्गुण से इन्सान।।
।।4।।
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दृश्य छाया चित्र : रोहित काम्बोज |
दस द्वारे का पींजरा, सौ द्वारे के कान।
सबसे परनिन्दा भली, चापलूस मेहमान।।
।।5।।
ऐसी बानी बोलिए, जिसमें लाभ अनेक।
सच का बेड़ा गर्क हो, मस्ती में हो शोक।।
।।6।।
आडम्बर का दौर है, सच को मिले न ठौर।
राजनीति के दांव में, पाखण्डी सिरमौर।।
।।7।।
राज रोग का कहर है, आसन सुधा समान।
जिसको कोई ना तजे, उसे परम पद जान।।
- प्रतिमान प्रकाशन, शिवशक्ति लेन, किशोर गंज, हरमू पथ, रांची-834001 (झारखण्ड)
पाँव
भावों के जंगल में उभरे,
सपनें वाले गाँव।
शायद सूनी रात में महके,
पायल वाले पाँव।।
बदन की खुश्बू उभरी स्वर में,
उमड़ी मन अमराई,
पागल मनुआ लगा पकड़ने,
कल्पित-संग परछांई,
प्यार बिना यूं लगता जीवन,
उजड़ा जैसे गाँव।।
गोरे मुख पर लहराते वे,
गीले सूखे बाल,
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दृश्य छाया चित्र : रोहित काम्बोज |
जलते-बुझते दीप नयन फिर,
देते जीवन ताल,
यादों के कानन में उभरी,
वही बरगदी छांव।।
गीतों का उपहार तुझे दूं,
या लिख भेजूं कविता,
स्वर का यह जादू उतार दूं,
कुछ कह मन-सुख-सरिता,
और तुझे क्या बोल चाहिए,
साथ चले ये पांव।।
- 68, विनय नगर-1, ग्वालियर-12 (म.प्र.)
पतझड़ों के नाम फिर मधुमास लिख देना
हारता है मन मेरा विश्वास लिख देना
पीर कैकेयी ठान ले हठ जब कभी मेरी
तब खुशी के राम को वनवास लिख देना
देख लो यदि तुम बिलखता भूख से बचपन
जिन्दगी के नाम तब उपवास लिख देना
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रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
बात आये सुर्खियों में जब मेरे हक की
तृप्ति ले लेना सभी तुम प्यास लिख देना
कल कोई पहचान पूछे आज के युग की
सांस के हर पृष्ठ पर संत्रास लिख देना
हो गये वीरान से अब गांव सुधियों के
छन्द रचती गन्ध का अनुप्रास लिख देना
मन के दफ्तर में अनेकों फाइलें हैं दर्द की
जी सकूं अहसास कुछ अवकाश लिख देना
- 364, शम्भू नगर, शिकोहाबाद-205135 (उ0प्र0)
कृष्ण सुकुमार
ग़ज़ल
किसी सूरत भी मुम्किन हो, हुनर से या दुआओं से
न बुझने दो मुहब्बत के चरागों को हवाओं से
वफ़ा, इन्सानियत, ईमान, सच, मज़हब किसी की भी
हिफ़ाज़त हो नहीं पायी सियासत के खुदाओं से
मुहब्बत, आर्जू, सपने, जुदाई, जुस्तजू, धोखे
बना है आदमी मिलकर, इन्हीं सारी खताओं से
बड़ा होकर बहुत अच्छा है दानिशमन्द हो जाना
मगर मा‘सूमियत को खो न देना बद्दुआओं से
जिन्हें सुन कर बना लेता हूँ तश्वीरे मैं शब्दों की
मुझे आती हैं आवाज़ें न जाने किन ख़लाओं की
- 193/7, सोलानी कुंज, भा.प्रौ.संस्थान, रुड़की-247667, जिला- हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
गांगेय कमल
वीरान खण्डहर
यहां कोठियां आलीशान
बेशुमार इन्सान
वहीं एक पुराना
खण्डहर वीरान
यूं ही चला गया
उधर
झाड़ झंकाड़
फैले जिधर
टूटी फूटी इमारत
जहां/रात सा पसरा
दिन में सन्नाटा है
देख रहा था उसको
और सोच रहा था
उसके वैभव को
अचानक लगा
जैसे कोई कह रहा
आज कैसे आये हो
लगता वक्त के सताये हो
कहो कैसे याद किया
यह वीराना/आबाद किया
हमारी तड़प
महसूस कर सकोगे
 |
दृश्य छाया चित्र : रोहित काम्बोज |
दर्द हमारा
सुन सकोगे
ये मुर्झाये सूखे पत्ते
फड़फड़ाते पक्षी
सहमी सहमी गुमसुम हवा
कहती हमारी कहानी
सिसकियों की जवानी
कभी हम भी
गुलजार थे
हम भी शानदार थे।
हमारी भी आन थी
ऊँचे कंगूरे
बुलन्द दरवाजे
मेहराव प्यारे
दिलकश नजारे
चूड़ियों की खनखन
पायलों की रूनझुन
घोड़ों का हिनहिनाना
चिड़ियों का चहचहाना
जीवन का संगीत
मस्ती के गीत
जिनके लिए कभी
तरसते थे लोग
वो आज,
देखने वालों को
तरसते हैं!
- ‘गांगेय’, शिवपुरी कालोनी, महिला विद्यालय, जगजीतपुर रोड, कनखल, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
पवन कुमार ‘पवन’
हमने जितना समय बिताया पेड़ तले
मौसम ने सब याद दिलाया पेड़ तले
पत्ता पत्ता मस्ती में झूमा उस पल
जब तेरा ऑचल लहराया पेड़ तले
सारा जीवन जो साया बन साथ चला
उसने भी ना साथ निभाया पेड़ तले
ऐसे रूठी धूप न मेरे पास आई
उसको मैंने बहुत बुलाया पेड़ तले
मन में मन-चाहा पाने की आस लिये
आस्थाओं ने दीप जलाया पेड़ तले
 |
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति |
चेहरे खिले परिंदों के मजदूर तनिक
खाना खाने को सुस्ताया पेड़ तले
सच्चाई पे अड़ा जान ही दे बैठा -
लोगों ने इतना समझाया पेड़ तले
गॉव निकाला निश्चित कलुआ को होगा
पंचों ने हुक्का सुलगाया पेड़ तले
चौपालों में आज उसी के गीत सुने
कल जिसको फांसी लटकाया पेड़ तले
‘पवन’ तेरी परवाह किसे है ए सी में
तूने यूं ही मन भरमाया पेड़ तले
- द्वारा बैंक आफ इंडिया, वि0 प0: शारदेन स्कूल,मेरठ रोड, मुजफ्फरनगर (उ0 प्र0)
डॉ0 ए. कीर्तिबर्द्धन
मैं स्वप्नद्रष्टा हूँ।
हरपल जिया करता हूँ।
ख्वाबों की दुनियां
हकीकत में बदलता हूँ।
बाधाएं मेरी चुनौती हैं।
लक्ष्य मात्र विश्राम के कुछ क्षण।
लक्ष्य पाने का मतलब ठहरना नहीं,
अपितु आगे बढ़ना है
नए लक्ष्य पाने तक।
लक्ष्य नाम है नए विश्वास का
एवं उत्साह के साथ
 |
दृश्य छाया चित्र : राधेश्याम सेमवाल |
अनवरत बढ़ते जाने का।
व्यवधान रास्ता रोकने को नहीं
बल्कि प्रेरित करते हैं
नया मार्ग खोजने को।
इसलिए
कर्मठ व्यक्ति
सदैव आगे बढ़ते है।
तथा स्वयं महान बनकर
लक्ष्य को गौरान्वित करते हैं।
- 53, महालक्ष्मी एंक्लेव, जानसठ रोड, मुजफ्फरनगर-251001 (उ0प्र0)
आग
आग............,
एक दिये में ज्योति बन
तिमिर दूर करती है।
दूसरी सीने में जलकर
राख कर देती है।
वैसे आग तो आग ही है
फर्क सिर्फ इतना है कि
 |
दृश्य छाया चित्र : अभिशक्ति |
एक दिखती है दीये में
लपटों के रूप में
दूसरी अमूर्त हैै।
और शायद जो लपटें
दिखाई नहीं देती
वो बेहद घातक होती हैं!
- निदे.-माइन्ड पावर स्पोकेन इंगलिस इंस्टी., निकट सैन्ट पॉल स्कूल, जे.डी.ठाकुर हाउस, भन्जरारु, तह.-चुराह, जिला-चम्बा-176316 (हि.प्र.)
।।सम्भावना।।
नवोदित रचनाकारों को प्रोत्साहन हेतु इस स्तम्भ का आयोजन किया जा रहा है। वरिष्ठ रचनाकार बन्धु अपने परिचित नवोदित रचनाकारों का मार्गदर्शन करें। उन्हें प्रोत्साहन देने हेतु इस स्तम्भ में रचनाएं भिजवायें। इस अंक में विनीता चोपड़ा की रचना भिजवाने के लिए हम वरिष्ठ साहित्यकार आद. डा. अशोक भाटिया जी के आभारी हैं।
विनीता चोपड़ा
तन्हाई
डसने लगी क्यूँ तन्हाई मुझको।
क्यूँ किसी की याद आई मुझको।
दर्द क्यूँ दिल को होने लगा है।
शायद जुदा कोई होने लगा है।
डराती है अपनी ही परछाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............
याद आया मुझे मौसम सुहाना।
जब दिल में किसी के था आसियाना।
रुलाती है आज जुदाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............
तब कोई पास होकर भी दूर लगता था।
आज दूर होकर भी करीब लगता है।
क्यूँ आदत अपनी लगाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............
जब किसी ने दामन हमारा था थामा।
हमने भी अपना हमसफर था माना।
फिर क्यूँ छोड़ गया हरजाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............
बीच मझधार में छोड़ दिया उसने।
बनाकर अपना दिल तोड़ दिया उसने।
बिना कसूर दे गया जुदाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............
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दृश्य छाया चित्र : पूनम गुप्ता |
भले पास अपने कुछ पल थे खुशी के।
वो भी दिन क्या खूब थे जिन्दगी के।
काली नजर किसने लगाई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............
खुशियाँ हमें रास न आई।
धीरे-धीरे पड़ गई जुदाई।
हिजर में क्यूँ न मौत आई मुझको।
डसने लगी क्यूँ ...............
विराना भी अपना लगने लगा है।
गुजरा वक्त सपना लगने लगा है।
गम ‘विनीता’ के दिखाई दें मुझको।
- द्वारा डा. प्रताप सिंह, गाँव- बीड़मारा, डाक- सग्गा, तह. नीलोखेड़ी, जिला- करनाल (हरि.)