आपका परिचय

रविवार, 19 मई 2013

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष  :  2, अंक :  8,  अप्रैल 2013

।।जनक छन्द।।

सामग्री :  महावीर उत्तरांचली  के पाँच जनक छंद।



महावीर उत्तरांचली



पांच जनक छन्द

1.
जीवन की नैया चली
तूफानों के बीच भी
लौ यह मुस्काती जली
2.
जीवन इक संग्राम है
‘महावीर’ धीरज धरो
रेखा चित्र : सिद्धेश्वर 
सुख-दुख इसमें आम है
3.
सत्य अनोखा जान तू
मन की आँखे खोलकर
‘क्या हूँ मैं’ पहचान तू
4.
भारत का हूँ अंग मैं
मुझको है अभिमान यह
मानवता के संग मैं
5.
मन में है विश्वास अब
पंख चेतना के लगे
छूने को आकाश अब

  • बी-4/79, पर्यटन विहार, बसुन्धरा एंक्लेव, नई दिल्ली-110096

बाल अविराम

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष :  2,  अंक : 8,  अप्रैल 2013


।।बाल अविराम।।

सामग्री :  श्यामसुन्दर अग्रवाल  की बाल-कहानी 'प्यार का फल' एवं डॉ. महेन्द्र प्रताप पाण्डेय ‘‘नन्द’’ की दो बाल कविताएँ ।


श्यामसुन्दर अग्रवाल



{वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्यामसुन्दर अग्रवाल जी बच्चों के लिए भी शिक्षाप्रद कहानियाँ लिखी हैं। उनकी बाल कथाओं का संग्रह ‘एक लोटा पानी’ पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ था। इसी संग्रह से प्रस्तुत है अपने बाल पाठकों के लिए एक बाल कथा ‘प्यार का फल’।}


प्यार का फल


पेंटिंग : स्तुति शर्मा 
     राजा संपत सिंह के मन में कई दिनों से एक सवाल उमड़-घुमड़ रहा था। आखिर एक दिन उन्होंने अपने मंत्री से पूछ ही लिया, ‘‘दीवान जी, मैं बचपन से देख रहा हूँ कि हमारे राज्य में कुत्ते बहुत पैदा होते हैं। एक कुतिया एक बार में सात-आठ बच्चों को जन्म देती है। भेडें इससे कम बच्चों को जन्म देती हैं। फिर भी भेड़ों के तो झुंड दिखाई देते हैं, परंतु कुत्ते दो-चार ही दिखाई देते हैं। इसका क्या कारण है?’’
     मंत्री बहुत समझदार था। उसने कहा, ‘‘महाराज! इस सवाल का उत्तर मैं आपको कल दूँगा।’’
     उसी दिन शाम को मंत्री राजा को अपने साथ लेकर एक स्टोर में गया। वहाँ उसने राजा के सामने एक कोठे में बीस भेड़ें बंद करवा दी। भेड़ों के बीच में चारे का एक टोकरा रखवा कर कोठा बंद करवा दिया।
     ऐसे ही उसने दूसरे कोठे में बीस कुत्ते बंद करवा दिए। कुत्तों के बीच रोटियों से भरी एक टोकरी रखवा दी।
पेंटिंग : अभय ऐरन 
     अगली सुबह मंत्री राजा को लेकर उन कोठों की ओर गया। उसने पहले कुत्तों वाला कोठा खुलवाया। राजा ने देखा कि सभी कुत्ते आपस में लड़-लड़कर जख्मी हुए पड़े थे। टोकरी की रोटियाँ जमीन पर बिखरी पड़ी थीं। कोई भी कुत्ता एक भी रोटी नहीं खा सका था।
     फिर मंत्री ने भेड़ों वाला कोठा खुलवाया। राजा ने देखा, सभी भेड़ें एक-दूसरी के गले लगी बड़े आराम से सो रहीं थीं। चारे की टोकरी बिल्कुल खाली पड़ी थी।
    तब मंत्री ने कहा, ‘‘महाराज! आपने देखा कि कुत्ते आपस में लड़-लड़कर जख्मी हो गए। वे एक भी रोटी नहीं खा सके। परंतु भेड़ों ने बहुत प्यार से चारा खाया और एक-दूसरी के गले लगकर सो गईं। यही कारण है कि भेड़ों की संख्या बढ़ती जाती है और वे एक साथ रह सकती हैं। लेकिन कुत्ते एक-दूसरे को सहन नहीं कर पाते। जिस बिरादरी में आपस में इतनी घृणा हो, वह कैसे तरक्की कर सकती है।’’
    राजा को अपने सवाल का उत्तर मिल गया था।

  • 575, गली नं.5, प्रतापनगर, पो.बा. नं. 44, कोटकपूरा-151204, पंजाब




डॉ. महेन्द्र प्रताप पाण्डेय ‘‘नन्द’’

{कवि श्री डॉ. महेन्द्र प्रताप पाण्डेय ‘‘नन्द’’ बाल साहित्य में भी लेखनरत हैं। उनकी बाल कविताओं का संग्रह ‘हाल सुहाने बचपन के’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसी संग्रह से प्रस्तुत है बाल पाठकों के लिए उनकी दो बाल कविताएं।}

होली

कितनी प्यारी बोली होती,
रोज-रोज गर होली होती।

रंगों की पिचकारी लेकर,
पेंटिंग : सक्षम गंभीर  
सभी साथ में बाहर जाते,
सबको रंग अबीर लगाकर,
लाल हरे पीले हो जाते,
सभी साथियों के संग सबकी,
कितनी बड़ी ठिठोली होती।
कितनी प्यारी बोली होती,
रोज-रोज गर होली होती।।1।।

मालपुए गुझिये रसगुल्ले,
पापा-मम्मी साथ बनाते,
गरी छुआरे काजू किसमिस,
मिल-जुलकर हम सबही खाते,
मिलने जाते हर घर हम भी,
संग में बहना भोली होती।
कितनी प्यारी बोली होती,
रोज-रोज गर होली होती।

बादल आए

बादल आए, बादल आए।

अपने संग वे पानी लाए।

काले-काले भूरे-भूरे
नहीं हैं थोड़े, पूरे-पूरे,
चित्र  : आरुषि ऐरन 
धरती की तू प्यास बुझा जा,
गीत यही रानी ने गाए।
बादल आए, बादल आए।

मौसम कितना हुआ सुहाना,
लगता अच्छा बाहर जाना।
हरे भरे पेड़ों के ऊपर,
चिड़ियों ने गाया है गाना।
गर्मी थोड़ी शान्त हो गयी,
ऊपर जो बादल मडराये।
बादल आए, बादल आए।

  • पूजाखेत, पोस्ट-द्वाराहाट, जिला अल्मोड़ा-263653 (उत्तराखंड)    

अविराम विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष : 2,  अंक : 8,  अप्रैल  2013

।।सामग्री।।  डॉ. सुरेन्द्र वर्मा का हाइकु विषयक आलेख 'हिंदी हाइकु का सामाजिक सरोकार'।

डॉ. सुरेन्द्र वर्मा



हिन्दी हाइकु का सामाजिक सरोकार

      हाइकु की विषय वस्तु आरम्भ से ही दार्शनिक अनुभूतियाँ  और विचार रहे हैं। दार्शनिक सोच की गम्भीरतम बातों को हाइकु ने कम से कम शब्दों में प्रस्तुत करना अपना लक्ष्य बनाया। जापान में हाइकु-रचनाओं के अंतर्गत बौद्ध, जैन तथा चीनी दर्शन के गूढ़तम विचारों को स्थान दिया गया। किन्तु धीरे धीरे हाइकु की विषय वस्तु में परिवर्तन आया और हाइकु प्रकृति से प्राप्त सूक्ष्म मानवी संवेदनाओं से जुड़ गया इस दौर से हाइकु मुख्यतः प्राकृतिक संस्कृतियों का चित्रण और उनका मानवीकरण हो गया। इसमें प्रकृति के बहाने मानव इच्छाओं, इच्छाओं और यहाँ तक कि मानवी दुर्बलताओं का चित्रण होने लगा। ऋतुओं से एकाकार होना, उनसे एक आंतरिक सम्बन्ध स्थापित करना और उनमें अपने अस्तित्व को विलीन कर हाइकु रचनाओं का सृजन कवि का अभीष्ट हो गया। किन्तु समय बदला और वक्त के साथ-साथ हाइकु की विषय-सामग्री में भी परिवर्तन आने लगा। हाइकु, जो अभी तक मुख्यतः व्यक्ति के सोच और मार्मिक अनुभूतियों का वाहक था, अधिक सामाजिक होने लगा। यह जीवन के यथार्थ से, जनसम्भावनाओं से और व्यक्ति के सामाजिक परिवेश से जुड़ने लगा।
     भारत में अभी भी सामान्य पाठक के मन में हाइकु की विषयवस्तु को लेकर एक भ्रम की स्थिति है। अभी भी यही समझा जाता है कि हाइकु कविताओं में केवल दार्शनिक अनुभूतियाँ और प्रकृति की मार्मिक अभिव्यक्ति ही होनी चाहिए। लेकिन इधर हिन्दी में जो हाइकु रचनाएं आई है उसने इस संकुचित समझ को झुठलाया है। आखिर कवि भी एक सामाजिक परिवेश में रहता है और अपने आर्थिक-राजनैतिक वातावरण से उसकी एक सतत क्रिया-प्रतिक्रिया संपन्न होती रहती है। ऐसे में यह सोचना कि हाइकुकार कोरी कल्पना के हाथी-दांत महल में बंद होकर केवल अपने सूक्ष्म दार्शनिक सोच या अपनी नितांत व्यक्तिगत अनुभूतियों को ही परोसेगा, गलत होगा। हिन्दी के हाइकुकार की आँखे खुली हुई हैं और वह अपने परिवेश के प्रति सजग है। अतः यह कोई अचम्भा नही कि वह अपने हाइकु काव्य में भी अपने परिवेश की विसंगतियों, विमूल्यों, राजनीति के पतन और दुमँुहेपन तथा सामाजिक राजनैतिक विषमताओं को लगातार अभिव्यक्ति दे रहा है। वेशक इसका यह मतलब नहीं है कि गूढ़ दार्शनिक विचार और अनुभूतियों और प्रकृति का मार्मिक चित्रण पूरी तरह हाइकु साहित्य से खारिज कर दिया गया है।
     भारत एक आर्थिक विषमता का देश है। अतः कवि का कोमल हृदय यहाँ की दरिद्रता तो देखकर सहज ही करूणा से भर आता है। सुविधाओं से रहित एक मजदूर के अथक परिश्रम का एक चित्रण देखें कि जिसे सिर से पांव तक कोई राहत नहीं है।
‘‘ईंटे उसके/सिर पे, नंगे पांव/तपती भू पर’’ -डॉ. रमेश कुमार त्रिपाठी)
     इतनी तकलीफ के बावजूद भी, उसे भला क्या मिलता है?
‘‘हंसता रहा/अभावों में अभाव/रोया गरीब’’ -मुकेश रावत
‘‘गरीब मरा/जन्म से ही मरा था/जिया ही कब’’ -रमेशचन्द्र शर्मा ‘चंद्र’
     दरिद्रता दरिद्र है ही। भारतीय समाज में लड़कियों/स्त्रियों की हालत, भले ही उनका परिवार आर्थिक रूप से संपन्न ही क्यों न हो, और भी बुरी है।
‘‘जनक सुता/किससे कहे व्यथा/सब लंकेश’’ -संतोष चौधरी
‘‘खूंटे से बंधी/गाय जैसा जीवन/जीती लड़की’’ -रमेशचन्द्र शर्मा ‘चंद्र’
      किसी ने ठीक ही कहा है, राजनीति बदमाशों का अंतिम आश्रय है। ऐसे में राजनीतिज्ञों का चरित्र हमें सहज ही सालता है-
‘‘नेता की बात/गूलर के फूल सी/अता न पता’’ -बालकृष्ण थोलम्बिया
      ऐसे में भला आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि भारत के सांसद जनता को कोई शिष्ट आचरण का उदाहरण प्रस्तुत कर सकेंगे?
‘‘अच्छे सलीके/संसद के छिलके/मूंगफली के’’ -डॉ ओमप्रकाश शर्मा
      सारे मूल्य ताक पर रख दिए गए है और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सच्चाई विलुप्त हो गई है और ‘‘तोल दी गई/वजन रखकर/ईमानदारी’’ -सतीश राठी
      भ्रष्टाचार का यह हाल है कि जनता की तकलीफ में भी राजनीतिज्ञ और अधिकारी पैसा बनाने से बाज नही आते।
‘‘आ गई बाड़/खुल गया विभाग/बहा रूपया’’ -राजेन्द्र पाण्डेय
      कवि आश्चर्य करता है कि यह कैसे हुआ?
‘‘यह कैसे हुआ/आदमी से भी बड़े/हो गए पैसे’’ -सुधीर कुशवाह
      कोई भी संवेदनशील कवि ऐसे वातावरण में अपने को घुटता हुआ महसूस करेगा। स्वतंत्रता के बाद जन साधारण ने जनतंत्र को लेकर काफी उम्मीदें संजोई थी लेकिन ‘‘झरे सपने/‘राज’ है, ‘नीति’ नहीं/लूटें अपने’’ -डॉ. रामप्रसाद मिश्र
      पूरा का पूरा जनतंत्र, भीड तंत्र में परिवर्तित हो गया हे। तभी तो कवि कटाक्ष करता है-
‘‘भीड तंत्र में/सोचो समझो नहीं/बजाओ ताली’’ -रमेश चन्द्र शर्मा ‘चंद्र’
      आज समाज का पूरा का पूरा माहौल दहशत और डर से भरा हुआ है। कही आंतकवादियों का डर है, कहीं फिरका परस्ती से भय है तो कहीं स्वयं सुरक्षा देने वाली पुलिस से। परिस्थितियों को नियंत्रित करने के बाद भी वास्तविक शांति स्थापित नही हो पाती।
‘‘चीखती रही/हादसे के बाद भी/घाटाल शांति’’ -प्रदीप श्रीवास्तव
     समाज में व्यक्ति अकेला पड़ गया है। भीड़ है लेकिन वह अकेला है। एक दूसरे से कोई मतलब नहीं। संवाद तो अनुपस्थिति है ही। आपसी सम्बन्ध भी अब केवल आर्थिक रह गए हैं।
‘‘खूंटी लटके/सम्बन्ध परिधान/घर बाजार’‘ -अशोक आनन
     ऐसे माहौल में सिवा इसके कि कवि कटाक्ष करे और व्यंग्य को हथियार की तरह इस्तेमाल करे और कोई चारा शेष नहीं है। हाइकु व्यंग्य का वाहक कभी नहीं रहा, लेकिन आज के विसंगत परिवेश में वह तंज करने के लिए बाध्य है -
‘‘दिन दहाड़े/नंगे दरख्त पर/बैठा है उल्लू‘‘ -डॉ. रमेश त्रिपाठी
‘‘सरे बाजार/खूंटियों पर टंगे/चेहरे बिके’’  -डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
      किन्तु इस भयावह माहौल में भी उम्मीद की किरण अभी बाकी है। रात के बाद सुबह फिर आएगी।
‘‘हर अंधेरा/पालात है गर्भ में/प्रकाश रेख’’  -श्री गोपाल जैन
     और यह प्रकाश रेख केवल युवा प्रयत्न में ही देखी जा सकती है- ‘‘है जवान तू/भगीरथ भी है तू/चल ला गंगा’’ -पारस दासोत

  • 10, एच.आई.जी., 1, सर्कुलर रोड, इलाहाबाद (उ.प्र.)


किताबें

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 8,  अप्रैल  2013  


{अविराम के ब्लाग के इस अंक में डॉ. रश्मि बजाज के काव्य संग्रह ‘‘स्वयं सिद्धा’’ की वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ द्वारा एवं पुरुषोत्तम कुमार शर्मा के लघुकथा संग्रह ‘छोटे कदम’ की डा. शरद नारायण खरे द्वारा लिखित समीक्षा रख रहे हैं। लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, एफ-488/2, राजेन्द्र नगर, रुड़की-247667, जिला - हरिद्वार, उत्तराखण्ड के पते पर भेजें।}



नारी अस्मिता और जिजीविषा को उकेरती हैं ‘‘स्वयं सिद्धा’’ की कविताएँ : डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’



अपने नारी विमर्श और प्रखर चिन्तन के लिए जानी जाने वाली कवयित्री रश्मि बजाज का काव्य-संकलन इधर काफी चर्चित रहा है। ‘‘स्वयं सिद्धा’’ शीर्षक से प्रकाशित रश्मि बजाज के काव्य संकलन में छपी कविताओं को दो खण्डों में रक्खा गया है। पहले खण्ड  ‘असुन्दर काण्ड’ में कुल छत्तीस कविताएँ संकलित हैं, तो दूसरा खण्ड ‘सीता नाम ही सत्य है’ शीर्षक कविता पर रक्खा गया है और इसमें कवयित्री रश्मि बजाज की चौंतीस कविताएँ हैं।
     कवयित्री रश्मि की भूमिका ‘नहीं मरती स्त्री’ में उनका ‘स्त्रीवादी’ प्रखर चिन्तन मुखर हुआ है- ‘‘दोस्तो! स्त्री होने के मायने क्या हैं- हर स्त्री यह बखूबी जानती है। मन ही मन वह स्वयं को ‘मादा’ नहीं अपितु ‘मूलतः मनुष्य’ होने के कितने भी दिलासे देती रहे किन्तु बाह्य जगत उसे पल भर भी यह भूलने नहीं देता कि वह सर्वोपरि ‘एक स्त्री’ है और यह ‘जैण्डर-आइडैंटिटी’ ही उसका प्रथम व अन्तिम परिचय है।’’
     कवयित्री का यह विचारोत्तेजक ‘चिन्तन’ हाल ही में घटित ‘दिल्ली रेप-काण्ड’ के परिप्रेक्ष्य में जितना प्रासंगिक है, उतनी ही प्रासंगिक और कुरेदने वाली है उसकी बेहद छोटी, लेकिन बेहद बेधक मात्र तीन पंक्तियों की रचना-
‘‘वाह, नारी
तेरे पल्ले तो
कुछ ना री।’’ (पृष्ठ-36)
    और, इन तीन पंक्तियों की मारक रचना रचने वाली कवयित्री रश्मि बजाज ‘स्त्री’ की ‘अदम्य’ जिजीविषा को शब्द देती है-
‘‘उठा सकती है/अभिव्यक्ति के
सब जोखिम/बस स्त्री ही
उसी के पास/न खोने को
न पाने को/है कुछ भी।’’ (पृष्ठ 17)
    कवयित्री रश्मि बजाज की कविता ‘जिंक्सड’ तो आज के समाज की सोच को ही कटघरे में खड़ा करके ‘स्त्री’ की स्थिति पर बेधक प्रश्न उठाती है, जिनके उत्तर क्या हैं कहीं?
‘‘इनाम है/पैदा होने पर
इनाम है/शाला जाने पर
इनाम है/ब्याह रचाने पर
इतने ‘इंसैंटिव’
देकर भी/नहीं बढ़ती
मेरी ‘प्रोडक्शन’
मैं हूँ/ईश्वर का
‘जिंक्सड आइटम’.... (पृष्ठ 37)
     और, रश्मि जी की उक्त चुभती रचना के साथ ही ‘स्त्री’ का एक और प्रश्न हमारी सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक व्यवस्था के मुँह पर करारा तमाचा जड़ देता है-
‘‘कांस्य, रजत
स्वर्ण, हीरक-
ले सब
दुनिया भर/के पदक
जीवन-खेल में
यह नारी
हार जाती क्यूँ
हर पारी?’’  (पृष्ठ 34)
     कवयित्री रश्मि बजाज ने ‘स्वयं सिद्धा’ की अपनी भूमिका ‘‘नहीं मरती स्त्री’’ में आधी दुनिया के नंगे सच को वाणी दी है- ‘‘मस्जिदों के बन्द बुलन्द दरवाजे, मन्दिरों के आरक्षित दिव्य प्रांगण, खाप पंचायतों की खूनी चौपालें, आतंकित माँओं के आक्रान्त गर्भाशय, कन्या जन्म पर मीडिया-स्पैशल ‘सिम्बौलिक’ बजती थाली का समारोह-स्थल, होली के त्यौहार पर बहिनों के बने ढाल-बुड़कलों की आहुति लेता अग्नि कुण्ड और न जाने कितने स्थान व अनुभव मुँह चिढ़ाते हुए इस 21 वीं सदी में भी स्त्री को उसके ‘शाश्वत दलिता’ होने का निरन्तर एहसास कराते ही रहते हैं। उस पर हैं स्त्री-विरोधी शक्तियों की मक्कार साजिशें जो स्त्री के भगिनीवादी स्नेह-बन्ध को धर्म, जाति व सम्प्रदाय के नाम पर तोड़कर हर स्त्री को ‘अकेली’ और ‘बेचारी’ बनाये रखने के प्रयास में निरन्तर लगी हैं।’’  (पृष्ठ 9)
     और, कवयित्री के इस बेधक चिन्तन की साक्षी बनती है उसकी रचना ‘दो ही’, जिसमें रश्मि बजाज ने युग-यथार्थ को सजीव अभिव्यक्ति दी है-
‘‘जात तो, राजा/दुनिया में/होती हैं
दो ही/एक मर्द/दूजी औरत की
चलती जाती/जब मैं/सड़क पे
निपट अकेली/पड़ती मुझ पे
नज़र एक सी/हरेक मर्द की
नज़र जो कोई/जात न कोई
पात समझती
पहन के/सूट-बूट साफ़ा
उजली सी धोती/तुम भी
लगते हो/उनके संग/उन जैसे ही
दूर खड़ी/तकती रह जाती
मैं बेबस सी.....’’ (पृष्ठ 27)
    आज स्त्रियों की ‘अस्मिता’ की रक्षा के राष्ट्रव्यापी शोर में कवयित्री रश्मि बजाज की उक्त कविता का नंगा सच हमें चौंकाता तो जरूर है, लेकिन ‘कन्या-भ्रूण हत्या’ जैसी मानसिकता ढोने वाले हमारे दिमागों के ताले खुल नहीं पाते? ‘स्वयं सिद्धा’ की यह कविता तो एक खुली चुनौती ही बन गई है, जिसका शीर्षक है ‘एक अज़ान’-
‘‘जोड़ोगे जब/अपने साथ/औरत की भी
एक अज़ान/सच जानो/तब ही तुमको 
फल पाएंगे/रमज़ान, कुरान

खोलो बंद/किवाड़, हुजूर

आए भीतर/खुदा का नूर!

आदम के बच्चे!

हव्वा की/बच्ची को
कब तक/रख पाएगा
तू अल्लाह से दूर?’’
      निःसन्देह, कवयित्री रश्मि बजाज के काव्य-संकलन ‘स्वयं सिद्धा’ की कविताओं में गुंथा ‘आधी दुनिया’ का सच हमें कुरेदने की सामर्थ्य रखता है। कवयित्री का ‘समर्पण’ निश्चय ही स्वयं उसकी अपनी और संसार की हर ‘स्त्री’ की अदम्य और अजस्र जिजीविषा का दस्तावेज बन गया है-
‘‘समर्पण
उस लहर को/जिसमें साहस है
सागर होने का!
समर्पण
उस किरण को/जिसमें हौंसला है
सूरज होने का!
समर्पण
उस जर्रे को/जो कि होना
चाहता है खुदा।’’ (पृष्ठ-15)
‘स्वयं सिद्धा’ की कवयित्री की ये प्रखर ‘स्त्रीवादी’ कविताएँ झकझोरती हैं, सोचने को बाध्य करती हैं, इसीलिए अवश्य पढ़ी जानी चाहिए।
स्वयं सिद्धा (काव्य संग्रह) : रश्मि बजाज। प्रकाशक : वृन्दा पब्लिकेशन्स प्रा.लि.; बी-5, आशीष कांप्लेक्स, मयूर विहार, फेज-1, दिल्ली-110091। पृष्ठ: 113, मूल्य: रु.100/- मात्र। संस्करण: 2013 (प्रथम)।

  • 74/3, न्यू नेहरू नगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार (उत्तराखण्ड)




सामाजिक चेतना की मशाल जाग्रत करती लघुकथाएँ : डा. शरद नारायण खरे


वैसे तो इस संग्रह की प्रायः समस्त लघुकथायें प्रभावशाली हैं, पर आदिदानव का खौंफ, दम घुटती आस, हालात, पहचान, देवीय आवरण, प्यार, मिस्त्री, संदेह, करवा चौथ का व्रत, पंचायती न्याय, सिर में घुसा रावण, जड़, जीने की ललक, दुखाग्रह विशेष रूप से प्रभावित करती है। लघुकथाओं में विविध विषयक संदर्भ है। भावना को प्रधानता दी गई है, तो वहीं सांस्कृतिक चेतनाओं को भी समेटने की कोशिश की गई है। समाज में व्याप्त बुराइयों व दुर्गुणों व मरती हुई संवेदना व सच्चाई की दुर्गति से आहत लघुकथाकार काफी आक्रोश के साथ सार्थक चिंतन हमारे समक्ष लघुकथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करता है। यद्यपि अभी वय की दृष्टि से लघुकथाकार युवा ही है, तो भी उसके सृजन में परिपक्वता व प्रौढ़ता दिखाई देती है। भाषा सधी हुई व सटीक है। शिल्प में ताज़्ागी व प्रस्तुति में प्रभाव है। ग्रामीण व शहरी दोनों परिवेषों से उठाकर लघुकथाएँ रची गई है। राजनीतिक, मूल्यहीनता, आंतरिक कलुशता, कन्याभू्रण हत्या, संबंधों के व्यापारवाद, दोगलेपन, आत्मकेन्द्रण आदि पतनशील यथार्थ से पुरुषोत्तम कुमार जी अवगत है, इसलिए उन्होंने अपनी लघुकथाओं के माध्यम से सामाजिक चेतना की मशाल जाग्रत करने की सफल व सक्षम प्रयास किया है।
          
छोटे कदम :  लघुकथा संग्रह। लेखक :  पुरुषोत्तम कुमार शर्मा। प्रकाशक :  गगन स्वर बुक्स, जी-220, लाजपत नगर, साहिबाबाद, गाजियाबाद-201005, मूल्य: रु.180/, संस्करण: 2013।


  • विभागाध्यक्ष :  इतिहास, शासकीय महाविद्यालय, मण्डला-461661 (म.प्र.)

गतिविधियाँ

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 8, अप्रैल 2013 


भाव जगत के कथाकार इलाचंद्र जोशी का स्मरण


फोटो परिचय : संगोष्ठी को संबोधित करती
 भाषा विज्ञान विभाग,
लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व अध्यक्ष
प्रो. ऊषा सिन्हा
कुमाऊँ विश्वविद्यालय की रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ ने जन्मदिन (13 दिसम्बर, 2013) पर भाव जगत के कथाकार इलाचंद्र जोशी का भावपूर्ण स्मरण किया। सृजन पीठ द्वारा राजकीय उच्च्तर माध्यमिक विद्यालय, मल्ला रामगढ़ (नैनीताल) में इलाचंद्र जोशी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित करते हुए मुख्य व्याख्याता लखनऊ विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग की पूर्व अध्यक्ष प्रो. ऊषा सिन्हा ने कहा कि आधुनिक हिंदी साहित्य एवं मनोविज्ञान के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने वालों में इलाचंद्र जोशी प्रमुख हैं। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। विभिन्न विधाओं पर गम्भीर रचनाएँ उनकी हिंदी साहित्य को अमूल्य देन हैं। जोशी जी ने यद्यपि सभी विधाओं में लेखनी चलायी लेकिन उन्हें सर्वाधिक ख्याति मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास के क्षेत्र में मिली। पात्रों की मानसिक स्थिति का जो सजीव चित्रण उनकी कहानियों और उपन्यासों में मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रो. सिन्हा ने कहा कि प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में सामाजिक कुरीतियों के बाह्य जगत को उद्घाटित किया परन्तु इलाचंद्र जोशी ने व्यक्ति के बाह्य जगत से कहीं अधिक महत्व आन्तरिक जगत को दिया है। उन्होंने हिंदी में पहले-पहल मनोविश्लेषण प्रधान उपन्यासों की परम्परा का सूत्रपात किया। चरित्रों के भाव जगत के सूक्ष्म विश्लेषण में उनके उपन्यास बेजोड़ हैं। उनकी विशेषता थी कि अध्ययनशील होते हुए भी दार्शनिकता का प्रभाव उनकी रचनाओं में नहीं दिखाई देता जिस कारण वे आम आदमी के अधिक निकट हैं।
महादेवी वर्मा सृजन पीठ के निदेशक प्रो. देव सिंह पोखरिया ने कहा कि इलाचंद्र जोशी अपने समय के उन प्रबुद्ध साहित्यकारों में थे जिन्होंने भारतीय एवं विदेशी साहित्य का व्यापक अध्ययन किया था। उन पर रवीन्द्रनाथ टैगोर के व्यक्तित्व का विशेष प्रभाव रहा तथा सदैव लिखते रहने की प्रेरणा उन्हें शरतचन्द्र से मिली। जोशी जी कथाकार एवं उपन्यासकार होने के साथ एक सफल सम्पादक, आलोचक तथा पत्रकार भी थे। उनकी मनोविश्लेषणात्मक शैली अन्य लेखकों से बिल्कुल अलग है। इस शैली के कारण ही उनका साहित्य प्रायः दुरूह एवं जटिल प्रतीत होता है।
रा0उ0मा0वि0 मल्ला रामगढ़ के प्राध्यापक मुख्तार सिंह ने कहा कि इलाचंद्र जोशी का संपूर्ण जीवन संघर्षमय रहा। बचपन में पिता की मृत्यु, आर्थिक संकट का निरंतर बने रहना, नौकरी करना और छोड़ना उनका स्वभाव बन गया था। इन विषम परिस्थितियों के बावजूद वह टूटे नहीं बल्कि इन स्थितियों को उन्होंने अपनी रचनाओं का हिस्सा बनाया। उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘जहाज का पंछी’ एक तरह से उनके अपने जीवन की गाथा है।
सृजन पीठ के शोध अधिकारी मोहन सिंह रावत ने बताया कि 1960 में इलाचंद्र जी कुछ महीनों तक महादेवी वर्मा के रामगढ़ स्थित घर ‘मीरा कुटीर’ में रहे जहाँ उन्होंने ‘ऋतुचक्र’ नामक उपन्यास लिखा। पहाड़ी जीवन को लेकर लिखा गया उनका यह एकमात्र उपन्यास है। उल्लेखनीय है कि महादेवी जी के घर ‘मीरा कुटीर’ में ही कुमाऊँ विश्वविद्यालय की महादेवी वर्मा सृजन पीठ स्थापित है।
राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, मल्ला रामगढ़ के प्रधानाचार्य देवेन्द्र कुमार जोशी ने महादेवी वर्मा सृजन पीठ की पहल की सराहना करते हुए कहा कि इस आयोजन से भूले-बिसरे साहित्यकार इलाचंद्र जोशी के व्यक्तित्व के छुए-अनछुए पहलुओं को जानने का अवसर मिला। निरंतर संघर्षरत रहकर जोशी जी ने साहित्य जगत में जो मुकाम हासिल किया, निसंदेह उससे विद्यार्थियों को प्रेरणा मिली होगी। इस प्रकार के आयोजनों की विद्यार्थियों में साहित्यिक जागरूकता उत्पन्न करने में विशेष भूमिका है। उन्होंने भविष्य में भी पीठ द्वारा विद्यालय में साहित्यिक गतिविधियाँ आयोजित कर विद्यार्थियों को साहित्य के प्रति जागरूक व प्रोत्साहित करने पर बल दिया। छात्रा दिलमाया थापा ने अपनी मौलिक कविता का पाठ किया। इससे पूर्व गणमान्य अतिथियों द्वारा इलाचंद्र जोशी के चित्र पर माल्यार्पण से संगोष्ठी का प्रारम्भ हुआ।
इस अवसर पर पीताम्बर दत्त भट्ट, प्रभात कुमार साह, ताहिर हुसैन, मुख्तार सिंह, ईश्वरी दत्त जोशी, शेखर चन्द्र गुणवन्त, बसन्त सिंह बिष्ट, रमेश सिंह रावत, साबिर खाँ, प्रमोद रैखोला, बहादुर सिंह आदि उपस्थित थे। संगोष्ठी का संचालन पीठ के शोध अधिकारी मोहन सिंह रावत ने किया। (समाचार प्रस्तुति : मोहन सिंह रावत, बर्ड्स आई व्यू, इम्पायर होटल परिसर, तल्लीताल, नैनीताल-263 002, उत्तराखण्ड)



‘मौरसदार लड़ता है’ का लोकार्पण
विगत दिनों तिलाड़ी सम्मान समिति के तत्वावधान में महावीर रंवाल्टा के नाटक ‘मौरसदार लड़ता है’ का लोकार्पण उत्तराखंड सरकार में मंत्री प्रीतम सिंह पंवार किया। बड़कोट में सम्पन्न इस कार्यक्रम की अध्यक्षता नगर पंचायत अध्यक्ष बुद्धि सिंह रावत ने की। मुख्य अतिथि श्री प्रीतम सिंह पंवार ने महावीर रंवाल्टा की सृजनशीलता की प्रशंसा करते हुए कहा कि रचनात्मक कार्यों से समाज में नई चेतना विकसित होती है। इस अवसर पर अति.जिलाधिकारी बी.डी.मिश्रा, प्र. वनाधिकारी डी.के. सिंह, उपजिलाधिकारी बड़कोट परमानन्द राम, डॉ.विजय बहुगुणा व श्री सकलचन्द ने भी अपने विचार रखे। संचालन प्रो.आर.एस.असवाल ने किया। (समा.सौजन्य: महावीर रंवाल्टा)



भगवान अटलानी जी बने  सिंधी एडवाइज़री बोर्ड के सदस्य

   


       वरिष्ठ लेखक भगवान अटलानी को केन्द्रीय साहित्य अकादमी के सिंधी एडवाइज़री बोर्ड का सदस्य मनोनीत किया गया है। राजस्थान से मनोनीत होने वाले वे अकेले सदस्य हैं। डा. प्रेमप्रकाश (अहमदाबाद) के संयोजन में गठित बोर्ड में वीना श्रंगी (दिल्ली), जया जादवानी (रायपुर), डा. हूंदराज बलवानी (अहमदाबाद), नंद जवेरी (मुम्बई), खीमन मूलानी (भोपाल), डा. विनोद आसूदानी (नागपुर), डा. कन्हैयालाल लेखवानी (पुणे) और अर्जुन चावला (अलीगढ़) को सम्मिलित किया गया है। इन सबका कार्यकाल पांच वर्षों का होगा।
          अटलानी की अब तक 22 पुस्तकें प्रकाषित हो चुकी हैं। उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी का सर्वोेच्च सम्मान मीरा पुरस्कार तथा राजस्थान सिंधी अकादमी का सर्वोच्च सम्मान सामी पुरस्कार मिल चुका है। वे राजस्थान सिंधी अकादमी के अध्यक्ष रहे हैं। (समाचार सौजन्य : भगवान अटलानी, डी-183,मालवीय नगर, जयपुर-302017)




प्रो.विनोद अश्क के तीसरे ग़ज़ल संग्रह का लोकार्पण

वरिष्ठ कवि-शायर प्रो. विनोद अश्क के तीसरे ग़ज़ल संग्रह ‘तेरे क़दमों के निशां’ का लोकार्पण गत 03 मार्च को सुप्रसिद्ध गीतकार श्री गोपालदास ‘नीरज’ जी द्वारा अलीगढ़ स्थित अपने आवास पर किया गया। साधारण एवं संक्षिप्त कार्यक्रम में श्री नीरज जी एवं प्रो. अश्क ने अपनी-अपनी ग़ज़लों का पाठ भी किया। (समाचार सौजन्य: प्रो. विनोद अश्क, शामली)


उद्भ्रांत में दृष्टि की व्यापकता और दार्शनिक तत्व :  प्रो. निर्मला जैन

            उद्भ्रांत की दृष्टि-व्यापकता तथा दार्शनिक तत्व को छूने की कोशिश अद्भुत है जो उनकी लम्बी कविता ‘अनाद्यसूक्त’ में स्पष्ट परिलक्षित होती है। यह बात वरिष्ठ आलोचक तथा साहित्यकार प्रो. निर्मला जैन ने साहित्य अकादेमी के संगोष्ठी कक्ष में अमन प्रकाशन, कानपुर के तत्वावधान में, उद्भ्रांत की लम्बी कविताओं के संग्रह ‘देवदारु-सी लम्बी, गहरी सागर-सी’ तथा उनके साहित्य पर केन्द्रित अन्य लेखकों/सम्पादकों की आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों के लोकार्पण समारोह के अवसर पर ‘उद्भ्रांत का कवि-कर्म’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कही।
उन्होंने कहा कि मिथक का मूल अर्थ वहीं से निकलता है जहाँ से उसका जन्म हुआ है और जब भी कोई कृतिकार उसे अपनी वैचारिक दृष्टि के साथ खींचकर नया गढ़ने की कोशिश करता है तब यदि वह मूल अर्थ की व्यंजना से जुड़ा रहता है तभी उसमें मिथकीय संवेदना बनी रहती है। उन्होंने कहा कि यद्यपि आज लम्बी कविताओं का दौर नहीं है, फिर भी ऐसी कविताएं विचारशून्य नहीं होती हैं। उन्होंने ऐसी रचनाओं के लिए ‘लिबर्टी’ और ‘विज़न’ की आवश्यकता पर बल दिया। नामवर जी को ‘शब्दों का अद्भुत खिलाड़ी’ बताते हुए उन्होंने कहा कि ‘प्रतिभा का विस्फोट’ क्यों कहा इसे समझना होगा। अज्ञेय की ज़्यादातर कविताएं छोटी हैं जबकि मुक्तिबोध लम्बी कविताएं ही लिखते हैं। उनकी कविताओं का फ़ॉर्म भी अलग है। आज कवि के जुझारू व्यक्तित्व से मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा।
पिछले डेढ़ दशक से दिल्ली में स्थाई तौर पर रह रहे उद्भ्रांत की अनेक पुस्तकों के नियमित अंतराल पर लोकार्पण होते रहे हैं तथा उनको केन्द्र में रखते हुए विचारोत्तेजक गोष्ठियाँ भी आयोजित हुईं, किन्तु उद्भ्रांत से सम्बंधित किसी भी गोष्ठी में पहली बार आयीं प्रो. जैन ने कहा कि निमंत्रण के बावजूद वे ऐसी गोष्ठियों में शामिल होने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं, किन्तु यहाँ आकर उद्भ्रांत के रचना-परिमाण से परिचित होने के बाद हतप्रभ लगीं।
इसके पूर्व संगोष्ठी की शुरुआत करते हुए प्रसिद्ध आलोचक डॉ. कर्णसिंह चौहान ने कहा कि ‘राधा-कृष्ण’ जैसे मिथकों पर लिखना उद्भ्रांत की प्राथमिकता रही है, किन्तु इसे सम्हालना उतना ही कठिन है, क्योंकि विषय की प्रासंगिकता के लिए ‘रिजिडिटी’ अनिवार्य होती है, उसमें लचीलापन नहीं होता है। उन्होंने कहा कि राधाभाव एक अमूर्त विषय है जोकि पूर्ण समर्पण के भाव से संयुत है, जबकि उद्धव का प्रसंग राधाभाव का विखण्डन है। उन्होंने कहा कि चीरहरण का पक्ष लेकर उसे न्यायसंगत ठहराना बहुत ही मुश्किल है। उद्भ्रांत में यह क्षमता है कि वे कठिन से कठिन कार्य को सहजता से कर लेते हैं। वे गोपियों के स्नान प्रसंग के माध्यम से आधुनिक नैतिकता की बात को आगे बढ़कर स्पष्ट करते हैं। उन्होंने कहा कि आज खाप पंचायतों के ‘ड्रेसकोड’ को प्रमाणित करते हुए यह कविता वर्तमान संदर्भों से जुड़ती है। नारी स्वतंत्रता और प्रतिबंध पर कविता के माध्यम से नयी राय रखी गयी है। वस्तुतः उद्भ्रांत ने काव्य के जितने रूपों का प्रयोग किया है, समकालीन कवियों में कम ही लोगों ने किया है। किसी भी अन्य कवि ने परिमाण में इतना नहीं लिखा, साथ ही उन पर केन्द्रित आलोचना-कर्म भी विपुल मात्रा में हुआ है। उन पर लिखित और सम्पादित दर्जनों पुस्तकें आई हैं, जो उनके रचनाकर्म के महत्त्व की सूचक हैं।
मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित डॉ. पी.एन. सिंह (गाजीपुर) ने संगोष्ठी में न आ सकने का दुख जताते हुए एक पत्र के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज की। उनके ई-मेल से प्राप्त पत्र को अखिलेश मिश्र ने पढ़ा। पत्र में डॉ. सिंह ने लिखा कि उद्भ्रांत जी ने अपने अन्दर और बाहर दोनों को साधा है, और ठीक से साधा है। इनकी कविताओं में विचार के साथ-साथ सौन्दर्य भी है। इन्हें मिथकों का कवि न मानकर विचारों का कवि मानना उचित होगा। मिथकों को लेते तो हैं, लेकिन उनका अतिक्रमण भी करते रहते हैं, और यह अतिक्रमण ही सामान्य कवियों से उन्हें ऊपर उठाता है। ‘अभिनव पाण्डव’ में महाभारत की घटनाओं को अधर्म मानते हुए कवि ने युधिष्ठिर के पक्ष को भी प्रश्नांकित किया है। इनका प्रत्येक काव्य-संकलन ऐसे ही मूल्यगत संघर्षों की उपज है। इस तरह उद्भ्रांत एक ऐसे कवि हैं जो स्पष्ट पर भी थोड़ी और अस्पष्टता की चादर ओढ़ा कर अपने कवि-विश्व का निर्माण करते हैं।
       संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि उद्भ्रांत का व्यक्तित्व आग्रही है, जिस कारण उनका वक्तव्य महत्त्वपूर्ण और मानवीय तत्वों से युक्त हो जाता है। ‘राधामाधव’ कृति का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि राधा का उल्लेख पहले-पहल अपभ्रंश में मिलता है। उन्होंने सवाल करते हुए कहा कि भक्तिकाल में जो कुछ कहा गया, विशेषतः स्त्री चरित्रों को लेकर, उसका सेक्सुअलटी से क्या कोई रिश्ता है, इस पर विमर्श होना चाहिए। उद्भ्रांत के मिथकीय प्रसंग यथार्थवादी प्रतीत होते हैं। उनकी लम्बी कविताओं का ज़िक्र करते हुए डॉ. त्रिपाठी ने कहा कि उनकी रचनाओं में मानवीय पक्ष बहुत ही सक्षम है जिससे वे अपने को इस स्थिति में लाकर खड़ा कर देते हैं, जहाँ से मूक भी व्यक्त होने लगता है।
        वरिष्ठ आलोचक डॉ. नित्यानंद तिवारी ने कहा कि किसी पुराने आख्यान की सीमा होती है, आप उसे कहीं से कहीं नहीं ले जा सकते, किन्तु उद्भ्रांत जी प्रतीकों के माध्यम से उसे कहीं से कहीं लेकर जा सकते हैं। उन्होंने कहा कि ‘तोता’ कविता उनके काव्य का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं करती। भूमण्डलीकरण आदि बड़े विषयों को तोते पर लाद देंगे तब तो उसे मरना ही पड़ेगा। दरअसल, उद्भ्रांत जी अपनी कविता में सब कुछ कह लेना चाहते हैं। उनकी लम्बी कविताओं में ही आलोचना के सूत्र हैं। वहाँ व्यापकता और गहराई भी है। हालांकि, उनकी लम्बी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि कविताओं में प्रबोधिनी नहीं है, कविता के ड्रामेटिक फार्म टकरा रहे हैं, विज़नरी और विज़न का महत्त्व नहीं रह गया है। उनकी ज़्यादातर लम्बी कविताओं में ‘फ़ार्म’ की व्याकुलता नहीं दिखती, अन्य कविताओं में मिलती है। उन्होंने कहा कि विस्तार से कविता की क्षति होती है और मार्मिक प्रसंग भी ढक जाते हैं, तथापि उनकी कविताओं में गतिशीलता है। नामवर जी के ‘प्रतिभा के विस्फोट’ को याद करते हुए उन्होंने कहा कि इतनी अधिक कविताएं सामने आई हैं कि इसे ‘कविता का विस्फोट तो कहा ही जा सकता है। बहुत पहले शम्भुनाथ सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत सप्तक’ के संदर्भ में कवि उद्भ्रांत की सक्रियता का ज़िक्र करते हुए उन्होंने पिछले दिनों आये कवि के बहुचर्चित काव्यनाटक ‘ब्लैकहोल’ को भी भारती के काव्यनाटक ‘अंधायुग’ के साथ स्मरण किया।
          डॉ. भगवान सिंह ने संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मानक साहित्य में मिथकीय शब्द ‘राधा’ नहीं है, किन्तु बाद के साहित्य में आ जाता है। उन्होंने ‘राधा’ को ‘लक्ष्मी’ के साथ जोडते हुए कहा कि राधा के परिवर्तित स्वरूप में निर्लज्जता, चंचलता में परिवर्तित हो जाती है। उन्होंने कहा कि ऐसी प्रतिध्वनि उत्पन्न करने वाली कविता को तैयार करने में एवं उसकी भाषा गढ़ने में बहुत अधिक श्रम लगता है लेकिन तभी कविता पाठकों तक पहुँचती है। इस दृष्टि से उद्भ्रांत संपूर्णता के कवि हैं।
         इसके पूर्व संगोष्ठी में पधारे प्रबुद्धजनों की चर्चा में भागीदारी के लिए उद्भ्रांत ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि राधामाधव के संकेतित प्रसंगों में स्त्री-स्वातंत्र्य को शाश्वत मूल्यों से जोड़कर देखने की कोशिश है। उन्होंने आलोचकों से कवि के सामने उपस्थित चुनौती को समझने का आग्रह करते हुए कहा कि ऐसे कवि को अपना समय देखना होता है, उस समय को भी देखना होता है जिसके माध्यम से वह वर्तमान समय को देख रहा है तथा साथ में अपने आत्म के भीतर चलते द्वंद्व को भी। इन सभी के संयोग से ही ऐसी कृति संभव हो पाती है। प्रारंभ में उन्होंने लम्बी कविताओं के अपने लोकार्पित संग्रह ‘देवदारु-सी लम्बी, गहरी सागर-सी’ की प्रारंभिक दो कविताओं ‘तोता’ और ‘कृति मेरी पुत्री है’ का पाठ किया।
        संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के तौर पर पधारे दूरदर्शन के महानिदेशक श्री त्रिपुरारि शरण ने चुटकी लेते हुए कहा कि बुद्धिमान व्यक्ति की कसौटी यही है कि जिस विषय पर ज्ञान न हो, उस पर अधिक नहीं बोलना चाहिए। उन्होंने उद्भ्रांत के कवि-कर्म को रेखांकित करते हुए कहा कि जीवन दर्शन की जो सीमारेखा है, उसकी जटिलता के बावजूद वे अपनी बातों को प्रभावी ढंग से रख पाते हैं। यह उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
कार्यक्रम में जिन अन्य पुस्तकों का लोकार्पण हुआ वे इस प्रकार हैं--डॉ. कर्णसिंह चौहान द्वारा सम्पादित ‘राधामाधव’: राधाभाव और कृष्णत्व का नया विमर्श’, डॉ. लक्ष्मीकांत पाण्डेय द्वारा सम्पादित ‘रुद्रावतार और राम की शक्तिपूजा’, श्री अपूर्व जोशी द्वारा सम्पादित ‘अभिनव पाण्डव: महाभारत का युगीन विमर्श’, श्री नंदकिशोर नौटियाल की आलोचना पुस्तक ‘उद्भ्रांत का संस्कृति चिंतन’, श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव द्वारा लिखित आलोचना पुस्तक ‘साहित्य संवाद: केन्द्र में उद्भ्रांत’, उड़िया के प्रख्यात विद्वान पद्मश्री डॉ. श्रीनिवास उद्गाता द्वारा ‘राधामाधव’ का उड़िया काव्यान्तरण तथा उद्भ्रांत विरचित ‘रुद्रावतार’ का नया साहित्यिक संस्करण एवं ‘अभिनव पाण्डव’ का तीसरा संस्करण।
       संगोष्ठी में कवि की धर्मपत्नी श्रीमती ऊषा उद्भ्रांत, पुत्री तूलिका एवं सर्जना के साथ ही सर्वश्री दिनेश मिश्र, वरिष्ठ कथाकार डॉ. मधुकर गंगाधर, पी-7 चैनल के निदेशक श्री शरददत्त, साहित्य अकादेमी के उपसचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी, डॉ. वीरेन्द्र सक्सेना, डॉ. बली सिंह, राजकुमार गौतम, सुश्री कमलेश जैन, अमरनाथ ‘अमर’, हीरालाल नागर, ‘कथा’ के सम्पादक अनुज, राकेश त्यागी, प्रशांतमणि तिवारी तथा बी.एम. शर्मा सहित राजधानी के साहित्य, कला और संस्कृतिकर्मियों की उपस्थिति सराहनीय रही।
            संगोष्ठी का संचालन श्री पुरुषोत्तम एन. सिंह ने किया। संगोष्ठी के आयोजक श्री अरविंद वाजपेयी, प्रबंध निदेशक (अमन प्रकाशन) ने आगंतुकों के प्रति आभार प्रकट किया। (समाचार प्रस्तुतकर्ता :  अखिलेश मिश्र, 256सी, पॉकेट सी,  मयूर विहार, फेस-2, दिल्ली-110091 / suniltomar95@gmail.com)




शांतिनिकेतन (प.बंगाल) में ‘शुभ तारिका’ का लोकार्पण


कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के विश्व भारती, शांतिनिकेतन (बोलपुर, कोलकाता) के मंच पर पत्रिका ‘शुभ तारिका’ के नवीनतम अंक का परिचय ससम्मान प्रसारित हुआ। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के 65वें अधिवेशन 16-18 मार्च 2013 ‘खुला अधिवेशन’ के अवसर पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के प्रधानमंत्री डॉ. विभूति मिश्र, अध्यक्ष सूर्य प्रकाश दीक्षित तथा हिन्दी विभाग शांतिनिकेतन के सचिव डॉ. रामचन्द्र राय द्वारा शुभ तारिका का लोकार्पण किया गया।
पत्रिका की संपादक श्रीमती उर्मि कृष्ण ने सम्मेलन में बताया कि ‘शुभ तारिका’ अम्बाला छावनी (हरियाणा) के विकलांग व्यक्ति डॉ. महाराज कृष्ण जैन द्वारा 41 वर्ष पूर्व एक पृष्ठ से आरंभ की गई। यह हिन्दी मासिक पत्रिका आज सौ-सौ पृष्ठों के साहित्यिक अंक निकाल रही है। इस अधिवेशन में उर्मि कृष्ण ने पूर्वोत्तर की भाषा समस्या और हिन्दी पर अपना आलेख भी प्रस्तुत किया। 
सम्मेलन में देशभर से पधारे भारतीय भाषा प्रेमी, हिन्दी, बंगला, असमिया, तेलगू, तमिल, कन्नड़, के साहित्यकार उपस्थित थे। शुभ तारिका की प्रशंसा के साथ-साथ कई हिन्दीतर प्रदेश के व्यक्तियों ने भी पत्रिका की सदस्यता ली तथा इसे सराहा। ‘खुला अधिवेशन’ का सफल संचालन श्याम कृष्ण पाण्डेय ने किया। (समाचार प्रस्तुतकर्ता : श्रीमती उर्मि कृष्ण, संपादक ‘शुभ तारिका’, ‘कृष्णदीप’, ए-47, शास्त्री कालोनी, अम्बाला छावनी-133001, हरियाणा)




गगन स्वर का पुस्तक लोकार्पण एवं सम्मान समारोह


फोटो : विमोचन करते अतिथिगण 



गगन स्वर साहित्यक एवं सामाजिक पत्रिका/बुक्स (पब्लिकेशन) द्वारा 17 फरवरी, 2013 को हिन्दी भवन, नई दिल्ली में पुस्तक लोकार्पण एवं सम्मान समोराह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की शुरूआत सुप्रसिद्ध गायक कलाकार श्री प्रदीप कुमार सोनी के गीतों द्वारा किया गया। तत्पश्चात ”भारत के लघुकथाकार“, (जिसमें लगभग 65 लघुकथाकारों की चुंनिदा लघुकथाओं का संकलन है।) व श्री पुरुषोत्तम कुमार शर्मा द्वारा लिखित लघुकथा संग्रह ”छोटे कदम“, रचना त्यागी आभा द्वारा रचित ”पहली दूब“ (काव्य संग्रह), थोड़ी-थोड़ी धूप काव्य संकलन आदि किताबों का अनावरण हुआ। रचना त्यागी आभा, सूर्य नारायण शूर, अरविन्द श्रीवास्तव, अनित्य नारायण मिश्रा, पुरुषोत्तम कुमार शर्मा को माँ सरस्वती रत्न सम्मान, 2013 व श्री प्रदीप कुमार सोनी को मानव भूषण श्री सम्मान 2013 से विभूषित किया गया। अध्यक्ष डॉ. एम. डी. थॉमस, मुख्य अतिथि पं.सुरेश नीरव, विशिष्ट अतिथि डॉ. रंजन जैदी, डॉ. शरद नारायण खरे, विश्वास त्यागी, राजकुमार सचान होरी व डॉ.तारा गुप्ता आदि की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। संचालन अरविन्द श्रीवास्तव ने किया। (समाचार सौजन्य: पुरुषोत्तम कुमार शर्मा)




हरिद्वार में लघुकथा गोष्ठी का आयोजन
 
अलकनंदा शिक्षा न्यास,हरिद्वार की वीथिका ‘लेखनी’ द्वारा स्व.शिवचरण विद्यालंकार की स्मृति में पारिजात संस्था के संरक्षक श्री माणिक घोषाल की अध्यक्षता में एक लघुकथा गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी के सूत्रधार थे सूर्यकान्त श्रीवास्तव ‘सूर्य’। गोष्ठी में के.एल. दिवान, गांगेय कमल, माधवेन्द्र सिंह, डॉ.मीरा भारद्वाज, सुखपाल सिंह, कु. सीमा ‘सदफ’, डॉ.श्याम बनौघा, डॉ. सुशील कुमार त्यागी, रजनी रंजना, सूर्यकान्त श्रीवास्तव ‘सूर्य’ एवं दादा माणिक घोषाल ने अपनी लघुकथाओं का पाठ किया।(समाचार सौजन्य: सूर्यकान्त श्रीवास्तव ‘सूर्य’)



मुइनुद्दीन अतहर सम्मानित




लघुकथा की समर्पित पत्रिका ‘लघुकथा अभिव्यक्ति’ के संपादक व वरिष्ठ साहित्यकार मोह.मुइनुद्दीन ‘अतहर’ को निराला साहित्य एवं संस्कृति संस्थान, बस्ती ने ‘राष्ट्रीय साहित्य गौरव‘ सम्मान तथा पाथेय साहित्य कला अकादमी, जबलपुर द्वारा स्व. गणेश प्रसाद नामदेव स्मृति कथासम्मान ‘साहित्य सार्थी’ से सम्मानित किया है। विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर द्वारा भी अतहर जी को समग्र लेखन एवं सम्पादन हेतु ‘विद्यावाचस्पति’ की मानद उपाधि प्रदान की है।(समाचार सौजन्य: मो. मुइनुद्दीन अतहर)

मंगलवार, 26 मार्च 2013

सामग्री एवं सम्पादकीय पृष्ठ : मार्च 2013

अविराम  ब्लॉग संकलन :  वर्ष  : 2,   अंक  : 7,  मार्च  2013

संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09412842467)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन  
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 

शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के "अविराम का प्रकाशन" लेवल/खंड में दी गयी है।

।।सामग्री।।

छाया चित्र : रोहित काम्बोज 


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अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ  {कविता अनवरत:    इस अंक मेंसर्व श्री राजकुमार कुम्भज, शिवानन्द सिंह सहयोगी, डॉ. रसूल अहमद ‘सागर’, राजमणि राय ‘मणि’, विजय कुमार पटीर, उदय करण ‘सुमन’, मु. मुजीब ‘आलम’, राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’ व विवेक चतुर्वेदी की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ   {कथा प्रवाह} :  इस अंक में डॉ.सतीश दुबे, पारस दासोत, श्यामसुन्दर अग्रवाल, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ व रतन चन्द्र रत्नेश की लघुकथाएं।

कहानी {कथा कहानी  पिछले अंक तक अद्यतन।

क्षणिकाएँ  {क्षणिकाएँ:   डॉ. मिथिलेश दीक्षित व रामस्वरूप मूँदड़ा की क्षणिकाएँ।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ  {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ}  :  इस अंक में डॉ. उर्मिला अग्रवाल के दस तांका ।

जनक व अन्य सम्बंधित छंद  {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द:  पं. ज्वालाप्रसाद शांडिल्य ‘दिव्य’ के पाँच जनक छंद।

बाल अविराम {बाल अविराम: डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ की बाल-कहानी एवं ‘फैज’ रतलामी की कविता। नए बाल चित्रकार- स्तुति शर्मा, राधिका शर्मा, मेहुल कैंथोला व वैभव कैंथोला।
हमारे सरोकार  (सरोकार) :   पिछले अंक तक अद्यतन।

व्यंग्य रचनाएँ  {व्यंग्य वाण:    पिछले अंक तक अद्यतन।

संभावना  {सम्भावना:   इस अंक में विष्णु कुमार शर्मा 'कुमार' अपनी एक कविता के साथ

स्मरण-संस्मरण  {स्मरण-संस्मरण:  पिछले अंक तक अद्यतन।

अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

किताबें   {किताबें} :  इस अंक में रामेश्वर काम्बोज’हिमांशु’, डॉ भावना कुँअर, डॉ हरदीप सन्धु सम्पादित चर्चित हाइकु संकलन "यादों के पाखी" की  डॉ अर्पिता अग्रवाल द्वारा लिखित तथा वरिष्ठ कवयित्री डॉ सुधा गुप्ता के पर्यावरण विषयक हाइकु संग्रह "खोई हरी टेकरी" की डॉ ज्योत्सना शर्मा द्वारा लिखित समीक्षायें

लघु पत्रिकाएँ   {लघु पत्रिकाएँ} :  पिछले अंक तक अद्यतन।

हमारे युवा  {हमारे युवा} :   पिछले अंक तक अद्यतन।

गतिविधियाँ   {गतिविधियाँ} : पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।
अविराम की समीक्षा (अविराम की समीक्षा) : पिछले अंक तक अद्यतन।

अविराम के अंक  {अविराम के अंक} :  अविराम साहित्यकी के जनवरी-मार्च 2013 मुद्रित अंक  में प्रकाशित सामग्री की सूची तक अद्यतन।

अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के पाठक सदस्य (हमारे आजीवन पाठक सदस्य) :  अविराम साहित्यिकी के मुद्रित संस्करण के 26 मार्च  2013  तक बने आजीवन एवं वार्षिक पाठक सदस्यों की सूची।

अविराम के रचनाकार  {अविराम के रचनाकार} : पिछले अंक तक अद्यतन।

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मेरा पन्ना 
  • मित्रो, होली की हार्दिक शुभकामनायें! 
  • आगामी कुछ महीनों में मेरी व्यक्तिगत व्यस्तताएं कुछ अधिक रहने के कारण ब्लॉग के अंकों में कुछ स्तंभों में सामग्री नहीं जा सकेगी; पर जैसे भी बन पड़ेगा, अंक नियमित रखने का प्रयास रहेगा।
  • क्षणिका विशेषांक के लिए सामग्री भेजने का आग्रह एक बार पुन: दोहरा रहा हूँ। जिन मित्रों न्र सूचना न पढ़ी हो, वे निम्न लिंक पर क्लिक करके पिछले माह के सम्पादकीय पृष्ठ पर जाकर जानकारी ले सकते हैं-http://aviramsahitya.blogspot.in/2013/02/2013.html
  • कृपया ई मेल से सामग्री हर हाल में कृतिदेव 010 या यूनीकोड फोन्ट में ही भेजें।
  • पत्रिका का सदस्यता शुल्क कृपया रुड़की पर देय  सी टी एस चेक या बैंक ड्राफ्ट द्वारा ही भेजें, धनादेश (मनिआर्डर) द्वारा न भेजें।

अविराम विस्तारित

अविराम का ब्लॉग :  वर्ष : 2, अंक : 7,  मार्च  2013

।।कविता अनवरत।।

सामग्री : इस अंक मेंसर्व श्री राजकुमार कुम्भज, शिवानन्द सिंह सहयोगी, डॉ. रसूल अहमद ‘सागर’, राजमणि राय ‘मणि’, विजय कुमार पटीर, उदय करण ‘सुमन’, मु. मुजीब ‘आलम’, राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’ व विवेक चतुर्वेदी की काव्य रचनाएँ।



राजकुमार कुम्भज





और यदि यक़ीन करो तो....

एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
दूरियां बहुत थीं, दूरियां बहुत हैं, देखते जाइए
मैंने मेरा कहा, जिस भी पक्ष में था मैं
उसने उसका कहा, जिस भी पक्ष में था वह
किंतु, वह क्या, कहां, जो सबका?
किंतु, वह क्या, जो कहे दुःख सबका?
किंतु, वह क्या, कहां, जो कहे यातना सबकी?
यातना सबकी कह नहीं पाया है कोई
यातना सबकी कह नहीं पाया है कभी कोई
यातना सबकी कह पाया है कब कोई
मैं प्रश्न-पुंगव नहीं हूं
लेकिन, मुझे प्रश्न करने दो
रेखा चित्र  : डॉ सुरेन्द्र वर्मा 

मैं प्रश्न करने की आजादी चाहता हूं
मैं प्रश्न करने की आजादी का समर्थक
कहिए, कहिए चाहे जितना
ज़ोर देकर कहिए कि एक अकेली आवाज़
बहुमत का लोकमत बड़ा है
जो अपना गंडासा लिए लोक-समक्ष खड़ा है
और अनायास-अनायास ही जाते हुए
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
छोड़ते हुए संकल्प
कहते हैं कि बहुत कहा फिर भी कम कहा
अंडा-मुर्गी का विवाद व्यर्थ है
मुर्गी से ही निकलते हैं चूजे
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
मान-सम्मान खुद का ही घटता है
और यदि यकीन करो तो....


सिर्फ एक ज़रूरी धुन है

एक धुन है, एक मैं हूँ
और कि अपनी ही धुन में
मैं जा रहा हूँ
और कि अपनी ही धुन में
मैं आ रहा हूँ
पता नहीं मैं आ रहा हूँ
कि जा रहा हूँ
पता नहीं मैं जा रहा हूँ
कि गा रहा हूँ
माना कि धुन अपनी ही है
माना कि मैं आ रहा हूँ, जा रहा हूँ
और गा रहा हूँ
क्योंकि मैं, मैं हूँ
एक धुन है, एक मैं हूँ
एक पत्थर है और मैं राग हूँ
एक बर्फ है और मैं आग हूँ
पता नहीं मैं जा रहा हूँ कि आ रहा हूँ
रेखा चित्र  : राजेन्द्र परदेशी 

सिर्फ़ एक ज़रूरी धुन है
मेरे पास


किसी कोने में पड़ा रहा

वही रातें, वही बातें
छुपी हुई थीं जिनमें किसिम-किसिम की घातें
घातें बड़ी पुरानी, प्राचीनकाल की
और मैं अकेला निर्मल, निर्बल
जानता ही नहीं ज़रा भी षड़यंत्र
सब्जी-भाजी में डूबा
नून, तेल, नमक, ईंधन में डूबा
दूध-दूध, पानी-पानी करते डूबा
मेरा क्या है एक ख़ाली बोरा मुड़ा-तुड़ा
किसी कोने में पड़ा रहा

  • 331, जवाहर मार्ग, इन्दौर-452002, म.प्र.


शिवानन्द सिंह सहयोगी




{सहयोगी जी का गीत संग्रह ‘घर-मुँडेर की सोनचिरैया’ वर्ष 2011 में प्रकाशित हुआ था। अर्न्तमन की घनीभूत पीड़ा को समेटे कई मार्मिक गीत इस संग्रह में संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से दो गीत।}


मैं गीत लिखता रह गया

टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
छूट सब अपने गये मैं गीत लिखता रह गया

आँधी उठी उस वक्त की कितनी भयानक थी
जो मौन व्रत धारण किये आई अचानक थी
एक झटके में हिमालय सा सहारा ढह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
छाया चित्र : रोहित कम्बोज 


उस रात की हर बात में कितनी सचाई है
जो साँस गिनती आस ने रो-रो बताई है
छोड़ देगी सन्निधि सच सितारा कह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया

कलम अब उद्गीत होकर गा रही बातें सभी
उस नयन की धार की जो सह गईं रातें कभी
हाल अपने कागजों से रो इशारा कह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया

साठ से पहले गई सठिया सुहानी जिन्दगी
ढूँढ़ने कोई लगी मठिया सुहानी जिन्दगी
जोड़ना क्या, क्या जुटाना, है यहाँ क्या रह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया


इक इकलौता सपन सलोना

इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
काले कुछ घनघोर घनों की छाया छोड़ गया

आई कई लकीरें हैं वय की दीवारों में
कीलें कई नुकीली हैं मन के उद्गारों में
गुमसुम हैं सारे प्रयास के जो भी हैं अवसर
दो साँसों की माला को हकलाता तोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया

रिश्तों को भी जंग लग गई ताने देते हैं
कागों की करकस बोली में बाने देते हैं
कुछ भी कहना नहीं जानती बेजबान बोली
छल असमय में असह कुटिलतम नाता जोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल 


आँखों में आँसू की केवल सरिता बहती है
हृदय द्रवित होता है जब-जब कविता बहती है
दर्द भरे गीतों में केवल अपनी यादों का
झरना कोई दुखदाई नित गाता छोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया

कहनों का कुछ असर नहीं है दूरभाष रोये
घंटी कुढ़ती रह जाती है कान कहीं सोये
अंतहीन इस अड़चन की सीमाएँ कुछ होंगी
मधुर मिलन की आशा की अभिलाषा तोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया

  • ‘शिवाभा’, ए-233, गंगानगर, मवाना मार्ग, मेरठ-250001 (उ.प्र.)



डॉ. रसूल अहमद ‘सागर’

सभ्यता धन से प्रभावित है

आदमी कब आह्लादित है
रेखा चित्र  : मनीषा सक्सेना 

वासनाओं से पराजित है

एकता के नाम की क्षमता
जाति-वादों में विभाजित है

नीतियाँ केवल नहीं दोषी
यज्ञशाला तक विवादित है

आस्था अब धर्म में है कम
सभ्यता धन से प्रभावित है

देश हित में जो मरे उनका
हर हृदय में नाम अंकित है

यदि हवाओं पर चलेंगे आप
आपका गिरना सुनिश्चित है

तुम अकेले ही नहीं ‘सागर’
आज सारा विश्व भ्रमित है

  • बकाई मंजिल, रामपुरा, जालौन (उ.प्र.)



राजमणि राय ‘मणि’




गीत

बादल तो गरजता है
बारिश ही नहीं होती।
सब लोग कहा करते बादल में भी है मोती।

बादल है वही अब भी
जो पहले भी दिखते थे
वह बात न लिखते अब
हम पहले जो लिखते थे
धरती माँ है! माँ से बढ़कर वह क्या होती?

बिन चांद के सूरज के
माटी बस माटी है
ले दे कर जीना ही
जीवित परिपाटी है
लगती अब साड़ी-सी यह कोरदार धोती!
रेखा चित्र  : बी मोहन नेगी 


जो हम थे वह न रहे
हम खुद ही बदल गए
कुछ पश्चिम से लाकर
पूरब में फिसल गए
आँखों में अब ना रही जो थी पहले जोती।

कुछ बात करें ऐसी
जिस बात से बात बने
इस रिमझिम में क्या है
झमझम बरसात तने
आबाद रहेंगे तब सबके पोता-पोती।

  • ग्राम-पोस्ट: उत्तरी धमौन पट्टी, वाया महनार, जिला: समस्तीपुर (बिहार)


विजय कुमार पटीर






आओ खेलें रंग





रंग  बिरंगी  होली  आई,  आओ  खेले  रंग।
छोड़ सखी! आज लाज शर्म सब, मिल जा साजन संग।।

मार-मार पिचकारी सबको, कर दे तू बेहाल।
चाहने वाले के गाल पर, मल दे लाल गुलाल।।

तू  है  राधा  सोने जैसी,  मैं बदन घनश्याम।
दोनों मिलकर आओ खेलें, हो ना जाये शाम।।
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल 


देखकर होली में अकेला, करो नयन से वार।
रूठा यार मना ले जानी, दिल पर कर बौछार।।

भीगकर  रसिये  के रंग में,  हुई  दिवानी  आज।
इस अलबेली ने देकर दिल, खोल दिये सब राज।।

फागुन में झंकार उठे हैं,  ढोल मजीरे चंग।
खेल-खेल में भीगी साड़ी, कुर्ती हो गई तंग।।

  • राजकीय छात्रावास के सामने, वार्ड नं.11, रावतसर-335524, जिला हनुमानगढ़ (राज.)



उदय करण ‘सुमन’




ग़ज़ल

इक छोटा सा है सवाल बाबा
घर-घर में है क्यों वबाल बाबा

भोला सा नजर आता है, क्यों है
वो भी गुरुघंटाल बाबा

नेता तो कुबेर हो गये किंतु
जनता क्यों है फटेहाल बाबा

सज्जन लोग भी चलने लगे क्यों
छाया चित्र : अभिशक्ति 

अब हिंसक भेड़िया चाल बाबा

देवी पूजक भी कन्याओं के
बन गये क्यों क्रूर काल बाबा

क्यों संसद में घुस गये गुण्डे
चोर, डाकू और दलाल बाबा

क्यों सरकार भी चलने लगी अब
शिखन्डी शकुनियों की चाल बाबा

देश के रहबरों ने भी ओढ़ ली
क्यों गिरगिटों की खाल बाबा

  • सुमन सेवा सदन, रायसिंह नगर, जिला: श्री गंगानगर (राज.)



मु. मुजीब ‘आलम’

......आचमन की बात करते हैं

हमारे रहनुमा क्या बाँकपन की बात करते हैं
बढ़ाकर देश में नफरत अमन की बात करते हैं

वतन की आबरू के वो हमें लगते हैं अब दुश्मन

सुरा पीकर जो लीडर गुल बदन की बात करते हैं

उसूलों की हुआ करती है अपनी एक मर्यादा
समुन्दर कब नदी से आचमन की बात करते हैं

न खाली कर सके अमृत कलश वो एकता रूपी
सदा से देश में जो विष-वमन की बात करते हैं
रेखा चित्र  : महावीर रंवाल्टा 

किसी दुश्मन से दुश्मन की नहीं है दोस्ती मुमकिन
अँधेरे रौशनी से कब मिलन की बात करते हैं

हँसी आती है ‘आलम’ को मुखौटे देखकर उनके
लगाकर आग घर में जो शमन की बात करते हैं

  • छोटी मस्जिद, रामपुरा-285127, जालौन (उ.प्र.)



राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’

मौसम

बिन मौसम मुस्काए मौसम
हमें तभी तो भाए मौसम

अरमानों की सेज सजी है
दुल्हन सा शरमाए मौसम
छाया चित्र : उमेश महादोषी 


आए जब सजनी के घर से
शुभ संदेशा लाए मौसम

तरस गया है तन पानी को
मन-धरती पर छाए मौसम

बरस रहा है कतरा-कतरा
खुद से ही कतराए मौसम

देह दहकती जब शोले-सी
‘राज’ हवा बन जाए मौसम

  • भारतीय खान ब्यूरो, सेक्टर-9, हिरण मगरी, उदयपुर-313002(राज.)



विवेक चतुर्वेदी




ग़ज़ल

क्या बात हो गयी है कोई पूँछता नहीं।
इन उलझनों में कुछ भी नया सूझता नहीं।

दोहराऊँ बार-बार फसाने को किस लिए
जो याद कर लिया मैं उसे भूलता नहीं।

बेदम पड़ी हुयी हैं गिगाहों के सामने
रेखा चित्र  : हिना फिरदोस 
इन हसरतों में जान कोई फूँकता नहीं।

लगता है तुमको और वफादार मिल गये
वर्ना ये ऐतबार यूँ ही टूटता नहीं।

वैसे हैं ज़माने में पराये भी अपने से
इज्ज़त उतारने में कोई चूकता नहीं।

  • 164/10-2, मौ.बाजार कला, उझानी-243639, जिला बदायूँ (उ.प्र.)