अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 7, मार्च 2013
सामग्री : इस अंक मेंसर्व श्री राजकुमार कुम्भज, शिवानन्द सिंह सहयोगी, डॉ. रसूल अहमद ‘सागर’, राजमणि राय ‘मणि’, विजय कुमार पटीर, उदय करण ‘सुमन’, मु. मुजीब ‘आलम’, राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’ व विवेक चतुर्वेदी की काव्य रचनाएँ।
राजकुमार कुम्भज
और यदि यक़ीन करो तो....
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
दूरियां बहुत थीं, दूरियां बहुत हैं, देखते जाइए
मैंने मेरा कहा, जिस भी पक्ष में था मैं
उसने उसका कहा, जिस भी पक्ष में था वह
किंतु, वह क्या, कहां, जो सबका?
किंतु, वह क्या, जो कहे दुःख सबका?
किंतु, वह क्या, कहां, जो कहे यातना सबकी?
यातना सबकी कह नहीं पाया है कोई
यातना सबकी कह नहीं पाया है कभी कोई
यातना सबकी कह पाया है कब कोई
मैं प्रश्न-पुंगव नहीं हूं
लेकिन, मुझे प्रश्न करने दो
मैं प्रश्न करने की आजादी चाहता हूं
मैं प्रश्न करने की आजादी का समर्थक
कहिए, कहिए चाहे जितना
ज़ोर देकर कहिए कि एक अकेली आवाज़
बहुमत का लोकमत बड़ा है
जो अपना गंडासा लिए लोक-समक्ष खड़ा है
और अनायास-अनायास ही जाते हुए
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
छोड़ते हुए संकल्प
कहते हैं कि बहुत कहा फिर भी कम कहा
अंडा-मुर्गी का विवाद व्यर्थ है
मुर्गी से ही निकलते हैं चूजे
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
मान-सम्मान खुद का ही घटता है
और यदि यकीन करो तो....
सिर्फ एक ज़रूरी धुन है
एक धुन है, एक मैं हूँ
और कि अपनी ही धुन में
मैं जा रहा हूँ
और कि अपनी ही धुन में
मैं आ रहा हूँ
पता नहीं मैं आ रहा हूँ
कि जा रहा हूँ
पता नहीं मैं जा रहा हूँ
कि गा रहा हूँ
माना कि धुन अपनी ही है
माना कि मैं आ रहा हूँ, जा रहा हूँ
और गा रहा हूँ
क्योंकि मैं, मैं हूँ
एक धुन है, एक मैं हूँ
एक पत्थर है और मैं राग हूँ
एक बर्फ है और मैं आग हूँ
पता नहीं मैं जा रहा हूँ कि आ रहा हूँ
सिर्फ़ एक ज़रूरी धुन है
मेरे पास
किसी कोने में पड़ा रहा
वही रातें, वही बातें
छुपी हुई थीं जिनमें किसिम-किसिम की घातें
घातें बड़ी पुरानी, प्राचीनकाल की
और मैं अकेला निर्मल, निर्बल
जानता ही नहीं ज़रा भी षड़यंत्र
सब्जी-भाजी में डूबा
नून, तेल, नमक, ईंधन में डूबा
दूध-दूध, पानी-पानी करते डूबा
मेरा क्या है एक ख़ाली बोरा मुड़ा-तुड़ा
किसी कोने में पड़ा रहा
शिवानन्द सिंह सहयोगी
{सहयोगी जी का गीत संग्रह ‘घर-मुँडेर की सोनचिरैया’ वर्ष 2011 में प्रकाशित हुआ था। अर्न्तमन की घनीभूत पीड़ा को समेटे कई मार्मिक गीत इस संग्रह में संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से दो गीत।}
मैं गीत लिखता रह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
छूट सब अपने गये मैं गीत लिखता रह गया
आँधी उठी उस वक्त की कितनी भयानक थी
जो मौन व्रत धारण किये आई अचानक थी
एक झटके में हिमालय सा सहारा ढह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
उस रात की हर बात में कितनी सचाई है
जो साँस गिनती आस ने रो-रो बताई है
छोड़ देगी सन्निधि सच सितारा कह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
कलम अब उद्गीत होकर गा रही बातें सभी
उस नयन की धार की जो सह गईं रातें कभी
हाल अपने कागजों से रो इशारा कह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
साठ से पहले गई सठिया सुहानी जिन्दगी
ढूँढ़ने कोई लगी मठिया सुहानी जिन्दगी
जोड़ना क्या, क्या जुटाना, है यहाँ क्या रह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
इक इकलौता सपन सलोना
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
काले कुछ घनघोर घनों की छाया छोड़ गया
आई कई लकीरें हैं वय की दीवारों में
कीलें कई नुकीली हैं मन के उद्गारों में
गुमसुम हैं सारे प्रयास के जो भी हैं अवसर
दो साँसों की माला को हकलाता तोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
रिश्तों को भी जंग लग गई ताने देते हैं
कागों की करकस बोली में बाने देते हैं
कुछ भी कहना नहीं जानती बेजबान बोली
छल असमय में असह कुटिलतम नाता जोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
आँखों में आँसू की केवल सरिता बहती है
हृदय द्रवित होता है जब-जब कविता बहती है
दर्द भरे गीतों में केवल अपनी यादों का
झरना कोई दुखदाई नित गाता छोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
कहनों का कुछ असर नहीं है दूरभाष रोये
घंटी कुढ़ती रह जाती है कान कहीं सोये
अंतहीन इस अड़चन की सीमाएँ कुछ होंगी
मधुर मिलन की आशा की अभिलाषा तोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
डॉ. रसूल अहमद ‘सागर’
सभ्यता धन से प्रभावित है
आदमी कब आह्लादित है
वासनाओं से पराजित है
एकता के नाम की क्षमता
जाति-वादों में विभाजित है
नीतियाँ केवल नहीं दोषी
यज्ञशाला तक विवादित है
आस्था अब धर्म में है कम
सभ्यता धन से प्रभावित है
देश हित में जो मरे उनका
हर हृदय में नाम अंकित है
यदि हवाओं पर चलेंगे आप
आपका गिरना सुनिश्चित है
तुम अकेले ही नहीं ‘सागर’
आज सारा विश्व भ्रमित है
राजमणि राय ‘मणि’
गीत
बादल तो गरजता है
बारिश ही नहीं होती।
सब लोग कहा करते बादल में भी है मोती।
बादल है वही अब भी
जो पहले भी दिखते थे
वह बात न लिखते अब
हम पहले जो लिखते थे
धरती माँ है! माँ से बढ़कर वह क्या होती?
बिन चांद के सूरज के
माटी बस माटी है
ले दे कर जीना ही
जीवित परिपाटी है
लगती अब साड़ी-सी यह कोरदार धोती!
जो हम थे वह न रहे
हम खुद ही बदल गए
कुछ पश्चिम से लाकर
पूरब में फिसल गए
आँखों में अब ना रही जो थी पहले जोती।
कुछ बात करें ऐसी
जिस बात से बात बने
इस रिमझिम में क्या है
झमझम बरसात तने
आबाद रहेंगे तब सबके पोता-पोती।
विजय कुमार पटीर
आओ खेलें रंग
रंग बिरंगी होली आई, आओ खेले रंग।
छोड़ सखी! आज लाज शर्म सब, मिल जा साजन संग।।
मार-मार पिचकारी सबको, कर दे तू बेहाल।
चाहने वाले के गाल पर, मल दे लाल गुलाल।।
तू है राधा सोने जैसी, मैं बदन घनश्याम।
दोनों मिलकर आओ खेलें, हो ना जाये शाम।।
देखकर होली में अकेला, करो नयन से वार।
रूठा यार मना ले जानी, दिल पर कर बौछार।।
भीगकर रसिये के रंग में, हुई दिवानी आज।
इस अलबेली ने देकर दिल, खोल दिये सब राज।।
फागुन में झंकार उठे हैं, ढोल मजीरे चंग।
खेल-खेल में भीगी साड़ी, कुर्ती हो गई तंग।।
उदय करण ‘सुमन’
ग़ज़ल
इक छोटा सा है सवाल बाबा
घर-घर में है क्यों वबाल बाबा
भोला सा नजर आता है, क्यों है
वो भी गुरुघंटाल बाबा
नेता तो कुबेर हो गये किंतु
जनता क्यों है फटेहाल बाबा
सज्जन लोग भी चलने लगे क्यों
अब हिंसक भेड़िया चाल बाबा
देवी पूजक भी कन्याओं के
बन गये क्यों क्रूर काल बाबा
क्यों संसद में घुस गये गुण्डे
चोर, डाकू और दलाल बाबा
क्यों सरकार भी चलने लगी अब
शिखन्डी शकुनियों की चाल बाबा
देश के रहबरों ने भी ओढ़ ली
क्यों गिरगिटों की खाल बाबा
मु. मुजीब ‘आलम’
......आचमन की बात करते हैं
हमारे रहनुमा क्या बाँकपन की बात करते हैं
बढ़ाकर देश में नफरत अमन की बात करते हैं
वतन की आबरू के वो हमें लगते हैं अब दुश्मन
सुरा पीकर जो लीडर गुल बदन की बात करते हैं
उसूलों की हुआ करती है अपनी एक मर्यादा
समुन्दर कब नदी से आचमन की बात करते हैं
न खाली कर सके अमृत कलश वो एकता रूपी
सदा से देश में जो विष-वमन की बात करते हैं
किसी दुश्मन से दुश्मन की नहीं है दोस्ती मुमकिन
अँधेरे रौशनी से कब मिलन की बात करते हैं
हँसी आती है ‘आलम’ को मुखौटे देखकर उनके
लगाकर आग घर में जो शमन की बात करते हैं
राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’
मौसम
बिन मौसम मुस्काए मौसम
हमें तभी तो भाए मौसम
अरमानों की सेज सजी है
दुल्हन सा शरमाए मौसम
आए जब सजनी के घर से
शुभ संदेशा लाए मौसम
तरस गया है तन पानी को
मन-धरती पर छाए मौसम
बरस रहा है कतरा-कतरा
खुद से ही कतराए मौसम
देह दहकती जब शोले-सी
‘राज’ हवा बन जाए मौसम
विवेक चतुर्वेदी
ग़ज़ल
क्या बात हो गयी है कोई पूँछता नहीं।
इन उलझनों में कुछ भी नया सूझता नहीं।
दोहराऊँ बार-बार फसाने को किस लिए
जो याद कर लिया मैं उसे भूलता नहीं।
बेदम पड़ी हुयी हैं गिगाहों के सामने
इन हसरतों में जान कोई फूँकता नहीं।
लगता है तुमको और वफादार मिल गये
वर्ना ये ऐतबार यूँ ही टूटता नहीं।
वैसे हैं ज़माने में पराये भी अपने से
इज्ज़त उतारने में कोई चूकता नहीं।
।।कविता अनवरत।।
राजकुमार कुम्भज
और यदि यक़ीन करो तो....
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
दूरियां बहुत थीं, दूरियां बहुत हैं, देखते जाइए
मैंने मेरा कहा, जिस भी पक्ष में था मैं
उसने उसका कहा, जिस भी पक्ष में था वह
किंतु, वह क्या, कहां, जो सबका?
किंतु, वह क्या, जो कहे दुःख सबका?
किंतु, वह क्या, कहां, जो कहे यातना सबकी?
यातना सबकी कह नहीं पाया है कोई
यातना सबकी कह नहीं पाया है कभी कोई
यातना सबकी कह पाया है कब कोई
मैं प्रश्न-पुंगव नहीं हूं
लेकिन, मुझे प्रश्न करने दो
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
मैं प्रश्न करने की आजादी चाहता हूं
मैं प्रश्न करने की आजादी का समर्थक
कहिए, कहिए चाहे जितना
ज़ोर देकर कहिए कि एक अकेली आवाज़
बहुमत का लोकमत बड़ा है
जो अपना गंडासा लिए लोक-समक्ष खड़ा है
और अनायास-अनायास ही जाते हुए
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
छोड़ते हुए संकल्प
कहते हैं कि बहुत कहा फिर भी कम कहा
अंडा-मुर्गी का विवाद व्यर्थ है
मुर्गी से ही निकलते हैं चूजे
एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के बीच जाते हुए
मान-सम्मान खुद का ही घटता है
और यदि यकीन करो तो....
सिर्फ एक ज़रूरी धुन है
एक धुन है, एक मैं हूँ
और कि अपनी ही धुन में
मैं जा रहा हूँ
और कि अपनी ही धुन में
मैं आ रहा हूँ
पता नहीं मैं आ रहा हूँ
कि जा रहा हूँ
पता नहीं मैं जा रहा हूँ
कि गा रहा हूँ
माना कि धुन अपनी ही है
माना कि मैं आ रहा हूँ, जा रहा हूँ
और गा रहा हूँ
क्योंकि मैं, मैं हूँ
एक धुन है, एक मैं हूँ
एक पत्थर है और मैं राग हूँ
एक बर्फ है और मैं आग हूँ
पता नहीं मैं जा रहा हूँ कि आ रहा हूँ
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेशी |
सिर्फ़ एक ज़रूरी धुन है
मेरे पास
किसी कोने में पड़ा रहा
वही रातें, वही बातें
छुपी हुई थीं जिनमें किसिम-किसिम की घातें
घातें बड़ी पुरानी, प्राचीनकाल की
और मैं अकेला निर्मल, निर्बल
जानता ही नहीं ज़रा भी षड़यंत्र
सब्जी-भाजी में डूबा
नून, तेल, नमक, ईंधन में डूबा
दूध-दूध, पानी-पानी करते डूबा
मेरा क्या है एक ख़ाली बोरा मुड़ा-तुड़ा
किसी कोने में पड़ा रहा
- 331, जवाहर मार्ग, इन्दौर-452002, म.प्र.
शिवानन्द सिंह सहयोगी
{सहयोगी जी का गीत संग्रह ‘घर-मुँडेर की सोनचिरैया’ वर्ष 2011 में प्रकाशित हुआ था। अर्न्तमन की घनीभूत पीड़ा को समेटे कई मार्मिक गीत इस संग्रह में संग्रहीत हैं। प्रस्तुत हैं उनके इसी संग्रह से दो गीत।}
मैं गीत लिखता रह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
छूट सब अपने गये मैं गीत लिखता रह गया
आँधी उठी उस वक्त की कितनी भयानक थी
जो मौन व्रत धारण किये आई अचानक थी
एक झटके में हिमालय सा सहारा ढह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
छाया चित्र : रोहित कम्बोज |
उस रात की हर बात में कितनी सचाई है
जो साँस गिनती आस ने रो-रो बताई है
छोड़ देगी सन्निधि सच सितारा कह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
कलम अब उद्गीत होकर गा रही बातें सभी
उस नयन की धार की जो सह गईं रातें कभी
हाल अपने कागजों से रो इशारा कह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
साठ से पहले गई सठिया सुहानी जिन्दगी
ढूँढ़ने कोई लगी मठिया सुहानी जिन्दगी
जोड़ना क्या, क्या जुटाना, है यहाँ क्या रह गया
टूट सब सपने गये मैं गीत लिखता रह गया
इक इकलौता सपन सलोना
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
काले कुछ घनघोर घनों की छाया छोड़ गया
आई कई लकीरें हैं वय की दीवारों में
कीलें कई नुकीली हैं मन के उद्गारों में
गुमसुम हैं सारे प्रयास के जो भी हैं अवसर
दो साँसों की माला को हकलाता तोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
रिश्तों को भी जंग लग गई ताने देते हैं
कागों की करकस बोली में बाने देते हैं
कुछ भी कहना नहीं जानती बेजबान बोली
छल असमय में असह कुटिलतम नाता जोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल |
आँखों में आँसू की केवल सरिता बहती है
हृदय द्रवित होता है जब-जब कविता बहती है
दर्द भरे गीतों में केवल अपनी यादों का
झरना कोई दुखदाई नित गाता छोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
कहनों का कुछ असर नहीं है दूरभाष रोये
घंटी कुढ़ती रह जाती है कान कहीं सोये
अंतहीन इस अड़चन की सीमाएँ कुछ होंगी
मधुर मिलन की आशा की अभिलाषा तोड़ गया
इक इकलौता सपन सलोना नाता तोड़ गया
- ‘शिवाभा’, ए-233, गंगानगर, मवाना मार्ग, मेरठ-250001 (उ.प्र.)
डॉ. रसूल अहमद ‘सागर’
सभ्यता धन से प्रभावित है
आदमी कब आह्लादित है
रेखा चित्र : मनीषा सक्सेना |
वासनाओं से पराजित है
एकता के नाम की क्षमता
जाति-वादों में विभाजित है
नीतियाँ केवल नहीं दोषी
यज्ञशाला तक विवादित है
आस्था अब धर्म में है कम
सभ्यता धन से प्रभावित है
देश हित में जो मरे उनका
हर हृदय में नाम अंकित है
यदि हवाओं पर चलेंगे आप
आपका गिरना सुनिश्चित है
तुम अकेले ही नहीं ‘सागर’
आज सारा विश्व भ्रमित है
- बकाई मंजिल, रामपुरा, जालौन (उ.प्र.)
राजमणि राय ‘मणि’
गीत
बादल तो गरजता है
बारिश ही नहीं होती।
सब लोग कहा करते बादल में भी है मोती।
बादल है वही अब भी
जो पहले भी दिखते थे
वह बात न लिखते अब
हम पहले जो लिखते थे
धरती माँ है! माँ से बढ़कर वह क्या होती?
बिन चांद के सूरज के
माटी बस माटी है
ले दे कर जीना ही
जीवित परिपाटी है
लगती अब साड़ी-सी यह कोरदार धोती!
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी |
जो हम थे वह न रहे
हम खुद ही बदल गए
कुछ पश्चिम से लाकर
पूरब में फिसल गए
आँखों में अब ना रही जो थी पहले जोती।
कुछ बात करें ऐसी
जिस बात से बात बने
इस रिमझिम में क्या है
झमझम बरसात तने
आबाद रहेंगे तब सबके पोता-पोती।
- ग्राम-पोस्ट: उत्तरी धमौन पट्टी, वाया महनार, जिला: समस्तीपुर (बिहार)
विजय कुमार पटीर
आओ खेलें रंग
रंग बिरंगी होली आई, आओ खेले रंग।
छोड़ सखी! आज लाज शर्म सब, मिल जा साजन संग।।
मार-मार पिचकारी सबको, कर दे तू बेहाल।
चाहने वाले के गाल पर, मल दे लाल गुलाल।।
तू है राधा सोने जैसी, मैं बदन घनश्याम।
दोनों मिलकर आओ खेलें, हो ना जाये शाम।।
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल |
देखकर होली में अकेला, करो नयन से वार।
रूठा यार मना ले जानी, दिल पर कर बौछार।।
भीगकर रसिये के रंग में, हुई दिवानी आज।
इस अलबेली ने देकर दिल, खोल दिये सब राज।।
फागुन में झंकार उठे हैं, ढोल मजीरे चंग।
खेल-खेल में भीगी साड़ी, कुर्ती हो गई तंग।।
- राजकीय छात्रावास के सामने, वार्ड नं.11, रावतसर-335524, जिला हनुमानगढ़ (राज.)
उदय करण ‘सुमन’
ग़ज़ल
इक छोटा सा है सवाल बाबा
घर-घर में है क्यों वबाल बाबा
भोला सा नजर आता है, क्यों है
वो भी गुरुघंटाल बाबा
नेता तो कुबेर हो गये किंतु
जनता क्यों है फटेहाल बाबा
सज्जन लोग भी चलने लगे क्यों
छाया चित्र : अभिशक्ति |
अब हिंसक भेड़िया चाल बाबा
देवी पूजक भी कन्याओं के
बन गये क्यों क्रूर काल बाबा
क्यों संसद में घुस गये गुण्डे
चोर, डाकू और दलाल बाबा
क्यों सरकार भी चलने लगी अब
शिखन्डी शकुनियों की चाल बाबा
देश के रहबरों ने भी ओढ़ ली
क्यों गिरगिटों की खाल बाबा
- सुमन सेवा सदन, रायसिंह नगर, जिला: श्री गंगानगर (राज.)
मु. मुजीब ‘आलम’
......आचमन की बात करते हैं
हमारे रहनुमा क्या बाँकपन की बात करते हैं
बढ़ाकर देश में नफरत अमन की बात करते हैं
वतन की आबरू के वो हमें लगते हैं अब दुश्मन
सुरा पीकर जो लीडर गुल बदन की बात करते हैं
उसूलों की हुआ करती है अपनी एक मर्यादा
समुन्दर कब नदी से आचमन की बात करते हैं
न खाली कर सके अमृत कलश वो एकता रूपी
सदा से देश में जो विष-वमन की बात करते हैं
रेखा चित्र : महावीर रंवाल्टा |
किसी दुश्मन से दुश्मन की नहीं है दोस्ती मुमकिन
अँधेरे रौशनी से कब मिलन की बात करते हैं
हँसी आती है ‘आलम’ को मुखौटे देखकर उनके
लगाकर आग घर में जो शमन की बात करते हैं
- छोटी मस्जिद, रामपुरा-285127, जालौन (उ.प्र.)
राजीव कुलश्रेष्ठ ‘राज’
मौसम
बिन मौसम मुस्काए मौसम
हमें तभी तो भाए मौसम
अरमानों की सेज सजी है
दुल्हन सा शरमाए मौसम
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
आए जब सजनी के घर से
शुभ संदेशा लाए मौसम
तरस गया है तन पानी को
मन-धरती पर छाए मौसम
बरस रहा है कतरा-कतरा
खुद से ही कतराए मौसम
देह दहकती जब शोले-सी
‘राज’ हवा बन जाए मौसम
- भारतीय खान ब्यूरो, सेक्टर-9, हिरण मगरी, उदयपुर-313002(राज.)
विवेक चतुर्वेदी
ग़ज़ल
क्या बात हो गयी है कोई पूँछता नहीं।
इन उलझनों में कुछ भी नया सूझता नहीं।
दोहराऊँ बार-बार फसाने को किस लिए
जो याद कर लिया मैं उसे भूलता नहीं।
बेदम पड़ी हुयी हैं गिगाहों के सामने
रेखा चित्र : हिना फिरदोस |
लगता है तुमको और वफादार मिल गये
वर्ना ये ऐतबार यूँ ही टूटता नहीं।
वैसे हैं ज़माने में पराये भी अपने से
इज्ज़त उतारने में कोई चूकता नहीं।
- 164/10-2, मौ.बाजार कला, उझानी-243639, जिला बदायूँ (उ.प्र.)
होली की हार्दिक शुभकामनाएं
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बेहतरीन संग्रह
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