अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 7, मार्च 2013
सामग्री : इस अंक में डॉ.सतीश दुबे, पारस दासोत, श्यामसुन्दर अग्रवाल, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ व रतन चन्द्र रत्नेश की लघुकथाएं।
डॉ. सतीश दुबे
मैंने कहा, ‘‘चालीस पैसे का जोड़ा ले लो.....।’’
उसने उसकी बनावट को देखा तथा फैसला दिया, ‘‘एराल्डाइट की एक शीशी यदि आप ला देंगे तो मैं ही बना लूँगा, सीपी तो मेरे पास रखी है।’’ पत्रिका-विक्रेता की दुकान पर बच्चों की पत्रिकाएं सहज रूप में मैंने उठाई ही थीं कि वह बोल पड़ा, ‘‘कॉलोनी के वाचनालय में सभी पत्रिकाएं आती हैं, खरीदने से क्या फायदा?’’
पैसों के प्रति बच्चे के इस मोह से मुझे झुंझालहट हो रही थी। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह शिक्षा उसे अपनी पाठशाला में मिल रही है। उसकी मम्मी भी जोड़-तोड़ के साथ पैसा खर्च करती है। सोचा, घर पहुँचते ही सबसे पहले इसी विषय पर चर्चा हो। मैंने शीघ्र पहुँचने के लिए पैर बढ़ाने चाहे, बंटी से भी कहा, ‘‘जल्दी चलो, हम लेट हो रहे हैं।’’ किंतु बंटी मेरी बगल वाली साइड में नहीं था।
मैं हक्का-बक्का रह गया, पसीने से तर-बतर। घर पहुँचने पर कोहराम, हाथ थामकर नहीं चलने के लिए स्वयं को प्रताड़ना, पुलिस थाने में रिपोर्ट करने से लेकर पेपर में सूचना देने तक की तमाम योजनाएँ एक के बाद एक उठने लगीं। मस्तिष्क जोरों से चकराने लगा। तभी खयाल आया कि क्यों न पीछे चलकर उसे खोज लिया जाए। मुड़ा ही था कि देखा, बंटी दौड़ता हुआ चला आ रहा है। मेरे निकट कुछ सहमकर वह खड़ा हो गया। मैंने डांटते हुए कहा, ‘‘कहाँ खड़े रह गए थे, जल्दी नहीं चलते, कहीं गुम हो जाते तो?’’
मेरी झल्लाहट को समझते हुए नीचा मुँह करके वह धीरे से बोला, ‘‘पापा जी, वह जो लड़का था न, काला-कलूटा, गंदे कपड़े पहने, उसे भूख लगी थी, पचास का सिक्का मैं उसे दे आया।’’
‘‘पागल हो, ये लोग इसी प्रकार बहाने बनाकर झूठ बोलते हैं और राहगीरों को ठगते हैं।’’
‘‘लेकिन उसका पेट भरा नहीं था, मुझसे उसने कहा कि कल से उसे खाने को कुछ नहीं मिला है।’’
दया की आर्द्रता से वह भीगता जा रहा था, उपदेश देने के लिए मेरे पास शब्द चुक रहे थे। हलका होकर मैं चुपचाप उसका हाथ थामे आगे बढ़ गया। मुझे लगा, ‘‘बच्चे को शाबाशी देकर उसके काम की प्रशंसा करनी चाहिए, किंतु शब्द मेरे गले में अटककर रह गए।
पारस दासोत
{सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार श्री पारस दासोत की प्रतीकात्मक लघुकथाओं का संग्रह ‘यथास्थितिवाद के खिलाफ मेरी लघुकथाएँ’ वर्ष 2012 में प्रकाशित हुआ है। यथास्थिति की पपड़ी को तोड़ते हुए संघर्ष एवं सकारात्मक दिशा बोध देतीं इन्हीं लघुकथाओं में से प्रस्तुत हैं दासोत जी की दो लघुकथाएँ।}
नवगई गाँव में,....
अभी अन्तरदेशिया बाई ने, ‘हल को छूने की सजा’ भोगने के लिए हल में बैल के साथ जुतकर, हल को दो कदम भी न चलाया होगा, गाँव वालों को, जमीन में से एक तलवार निकलती हुई दिखाई दी।
इससे पहले,
गाँव वाले तलवार को उठाने हेतु, बढ़ते, वह हल के जुए को अपने कन्धे पर से हटाती हुई दहाड़ी-
‘‘ठहरो! ठहरो ऽ ऽ! लो मैंने छू ली तलवार! सुनाओ ऽ ऽ! मुझको सजा सुनाओ! मैं तलवार भी चलाने को तैयार हूँ।’’
एक कमरे में,....
कुछ चूहे उछल-कूद कर रहे थे, बिल्ली आ गयी।
चूहों ने, बिल्ली को देखते ही, अपने कृत्य को शीघ्र ही सामूहिक नृत्य में बदल दिया। यह देखकर, बिल्ली की आँखें लाल हो गईं।
कुछ ही क्षणों बाद,
बिल्ली ने, जैसे ही एक चूहे को अपने पंजे में दबोचा, साथी चूहे बिल्ली पर उछलने-कूदने लगे।
कोई चूहा, बिल्ली पर पेशाब, तो कोई पोटी कर रहा था।
ऐसा माजरा, बिल्ली ने कभी सपने में भी नहीं देखा था और न ही कभी सोचा था, सो उसकी पकड़ चूहे पर ढीली क्या, छूट गई।
अगले क्षण,
बिल्ली, कमरे के बाहर निकलकर भाग रही थी और सभी चूहे उसके पीछे दौड़ रहे थे।
श्यामसुन्दर अग्रवाल
कन्या के पिता ने कमरे में फैली खामोशी को भंग किया, “आजकल तो जी लड़की की शादी करना सबसे कठिन काम है। अब देखो न, हमारी सुरेखा में कोई कमी नहींदृ एम.ए. किया है, सुंदर है, सभी गुण हैं। कभी किसी ने ंदेखकर नापसंद नहीं किया। लेकिन बात हर बार दहेज को लेकर ही टूट जाती है। हम गरीब आदमी भला मुँह-मांगा दहेज कहाँ से दे सकते हैं!३आप जैसे दहेज की इच्छा न रखने वाले तो बहुत सौभाग्य से ही मिलते हैं।”
देखने-परखने के बाद जब लड़के तथा उसके परिवार वालों ने सुरेखा को पसंद कर लिया तो सुरेखा के पिता ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “डॉक्टर साहब, मैं एक बार फिर निवेदन कर रहा हूँ कि मैं अमीर आदमी नहीं हूँ। अधिक दहेज देना मेरे वश में नहीं है। दहेज के विषय में आपकी कोई विशेष शर्त हो अभी बता दीजिए।”
लड़के के पिता ने कहा कुछ गंभीर होते हुए कहा, “हमारी तो बस एक ही शर्त है कि हम दहेज में एक पैसे की वस्तु भी नहीं लेंगे और शादी भी साधारण ही करेंगे।”
सुरेखा के पिता को जैसे झटका लगा, “यह आप क्या कह रहे हैं, डॉक्टर साहब! हम इतने गरीब तो नहीं कि अपनी बेटी को बिना दहेज के ही विदा कर देंगे। इससे तो हमारी इज्जत ही मिट्टी में मिल जायेगी।”
और बात एक बार फिर दहेज के विषय पर ही टूट गई।
राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’
{कवि-कथाकार राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ जी का लघुकथा संग्रह ‘बात करना बेकार है’ वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ था। मानव जीवन की विसंगतियों और संवेदनाओं को लक्ष्य करती कई अच्छी लघुकथाएं इस संग्रह में शामिल हैं। इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो लघुकथाएँ।}
समाचार पत्र के मुख पृष्ठ पर एक चित्र छपा था। एक अबोध और मासूम बालक हाथ में मशीनगन लिये निशाना साध रहा है, और नीचे लिखा था- ‘‘मैं आतंकवादी हूँ।’’
चित्र देखकर मेरे आठ वर्षीय पुत्र ने अपनी कलर की डिबिया खोली, और अपने निर्दोष हाथों से मशीनगन को पार्श्व के रंग से ढककर बोला- ‘‘पापा, मैंने बच्चे के हाथ से मशीनगन छीन ली है।’’
‘‘बहुत अच्छा किया, बेटा। अब नीचे लिखे शब्द भी मिटा दो।’’
बेटे ने ब्रश उठाया और नीचे लिखे शब्द मिटा दिये। कुछ सोचकर मैंने बेटे के हाथ से ब्रश लिया और चित्र के नीचे लिखा- ‘‘मैं देश का भविष्य हूँ।’’
वैद्यजी ने सलाह दी- ‘‘ठीक होना है तो भूख से एक रोटी कम खाओ।’’
‘‘एक रोटी कम खाने से मैं ठीक हो जाऊँगा?’’
‘‘सौ प्रतिशत। भूख जिन्दा रहेगी तो तुम भी जिंदा रहोगे।’’
‘‘समझ गया वैद्यजी। भूख और मनुष्य एक दूसरे के पूरक हैं।’’
रतन चन्द्र रत्नेश
गाँव से रवि अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आया। तकरीबन एक वर्ष पूर्व उसका विवाह हुआ था। गाँव में ही। हम भी उसके विवाह में शामिल हुए थे। पत्नी के साथ वह पहली बार शहर आया था।
मैंने कहा, ‘‘क्यों रवि, आखिर भाभी जी को शहर दिखाने ले ही आए?’’ वह मुस्कराया।
‘‘हाँ, शहर भी देख लेंगे और जिस काम के लिए आये हैं, वह भी हो जायेगा। एक पंथ दो काज।’’
‘‘क्या काम है भाई, कोई खास? मुझे नहीं बताओगे?’’
उसकी पत्नी उठकर रसोई में चली गई, जहाँ मेरी पत्नी हमारे लिए चाय बना रही थी।
रवि ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘यार, तुम्हारी सहायता के बिना तो वह खास काम होने से रहा। मुझे तो शहर और डाक्टरों के बारे में अधिक पता नहीं है। तू तो जानता है कि अपनी जिंदगी गाँव और अपने पुश्तैनी दुकान के आस-पास तक ही सीमित रही है।’’
मैंने कहा, ‘‘खुलकर कहो भई। तुम तो पहेलियाँ बुझाने लगे।’’
वह कहने लगा, ‘‘यार, तुम्हारी भाभी का पाँव भारी है। आजकल ‘टेस्ट’ की बड़ी चर्चा सुनी है, पर साथ ही यह भी पता चला है कि प्राइवेट क्लीनिकों में यह काम अब चोरी-छुपे हो रहा है क्योंकि सरकार ने गर्भस्थ शिशु के लिंग जाँच को अवैध घोषित कर रखा है। हम भी जानने के इच्छुक हैं कि गर्भ में लड़का है या लड़की?’’
मैं सुनकर दंग रह गया। इसका अर्थ यह है कि यह ‘बीमारी’ सुदूर गाँव तक को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है।
मैंने सहज भाव से कहा, ‘‘परिणाम जानने की इतनी उत्सुकता क्यों? सब्र से काम लो।’’ भ्रूण-जाँच करवाकर अपनी स्वाभाविक प्रशन्नता का गला क्यों घोंट रहे हो?’’
‘‘दरअसल हम चाहते हैं कि लड़की हो तो गर्भ गिरा दें।’’ उसने कुछ झेंपते हुए कहा।
मेरी आवाज थोड़ी तल्ख हो गई, ‘‘तुम गंवार के गंवार ही रहे। अब क्या लड़का-लड़की में भेद रह गया है बल्कि लड़कियाँ लड़कों से कहीं अधिक सुख दे रही हैं....।’’
‘‘सो तो ठीक है पर.....’’ वह सिर खुजाने लगा।
अंत में निराश होकर मैंने कहा, ‘‘जैसी तेरी इच्छा, पर मैं तुझे किसी भी क्लीनिक का पता देने वाला नहीं। मुझे क्यों पाप का भागी बना रहे हो? जितने दिन चाहो, आराम से रहो, पर क्लीनिक की तलाश तुझे स्वयं करनी पड़ेगी। हाँ, मेरी बात याद रखना। कुदरत के खिलाफ कोई कदम उठाया तो तेरी आत्मा सदा तुझे दुत्कारती रहेगी।’’
दूसरे दिन प्रातः रवि अपनी पत्नी से कहने लगा, ‘‘प्रतिमा, चलो गाँव लौटने की तैयारी करते हैं।’’
मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
‘‘क्यों मेरी बात का बुरा मान गए?’’
उसने कहा, ‘‘नहीं यार, तूने तो मेरी आँख खोल दी। हमें जाँच नहीं करवानी। जो संतान हमें ईश्वर प्रदान करेगा, उसे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।’’
‘‘रात भर में यह परिवर्तन....?’’ मैंने उत्सुकता से पूछा।
‘‘बस समझो, हमसे भयंकर भूल होते-होते रह गई। साथ ही उन प्रश्नों से भी बच गए जो आने वाली पीढ़ी हमसे कुरेद-कुरेद कर पूछेगी और हमारे पास जिनका कोई उत्तर नहीं होगा।’’
।।कथा प्रवाह।।
डॉ. सतीश दुबे
विनियोग
मार्केटिंग करते हुए मैं पूरे रुपए खर्च कर चुका था, किंतु आठ वर्षीय बंटी ने अपने पचास पैसे सुरक्षित रख छोड़े थे। प्लास्टिक के खिलौने लेने से उसने इन्कार कर दिया कि कोई भी पैर रख देगा तो टूटकर चूरदृचूर हो जाएंगे। कागज के फूलों से सजे हुए छोटे गमलों पर उसका मन रीझा, किंतु एक क्षण बाद यह कहकर टाल दिया कि धूल लगने से फूल जल्दी गंदे हो जाएंगे। फुटपाथ पर सीप से बनी हुई बत्तखों की दुकान लगी थी, ‘‘बीस पैसे की एक....।’’मैंने कहा, ‘‘चालीस पैसे का जोड़ा ले लो.....।’’
उसने उसकी बनावट को देखा तथा फैसला दिया, ‘‘एराल्डाइट की एक शीशी यदि आप ला देंगे तो मैं ही बना लूँगा, सीपी तो मेरे पास रखी है।’’ पत्रिका-विक्रेता की दुकान पर बच्चों की पत्रिकाएं सहज रूप में मैंने उठाई ही थीं कि वह बोल पड़ा, ‘‘कॉलोनी के वाचनालय में सभी पत्रिकाएं आती हैं, खरीदने से क्या फायदा?’’
पैसों के प्रति बच्चे के इस मोह से मुझे झुंझालहट हो रही थी। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह शिक्षा उसे अपनी पाठशाला में मिल रही है। उसकी मम्मी भी जोड़-तोड़ के साथ पैसा खर्च करती है। सोचा, घर पहुँचते ही सबसे पहले इसी विषय पर चर्चा हो। मैंने शीघ्र पहुँचने के लिए पैर बढ़ाने चाहे, बंटी से भी कहा, ‘‘जल्दी चलो, हम लेट हो रहे हैं।’’ किंतु बंटी मेरी बगल वाली साइड में नहीं था।
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
मैं हक्का-बक्का रह गया, पसीने से तर-बतर। घर पहुँचने पर कोहराम, हाथ थामकर नहीं चलने के लिए स्वयं को प्रताड़ना, पुलिस थाने में रिपोर्ट करने से लेकर पेपर में सूचना देने तक की तमाम योजनाएँ एक के बाद एक उठने लगीं। मस्तिष्क जोरों से चकराने लगा। तभी खयाल आया कि क्यों न पीछे चलकर उसे खोज लिया जाए। मुड़ा ही था कि देखा, बंटी दौड़ता हुआ चला आ रहा है। मेरे निकट कुछ सहमकर वह खड़ा हो गया। मैंने डांटते हुए कहा, ‘‘कहाँ खड़े रह गए थे, जल्दी नहीं चलते, कहीं गुम हो जाते तो?’’
मेरी झल्लाहट को समझते हुए नीचा मुँह करके वह धीरे से बोला, ‘‘पापा जी, वह जो लड़का था न, काला-कलूटा, गंदे कपड़े पहने, उसे भूख लगी थी, पचास का सिक्का मैं उसे दे आया।’’
‘‘पागल हो, ये लोग इसी प्रकार बहाने बनाकर झूठ बोलते हैं और राहगीरों को ठगते हैं।’’
‘‘लेकिन उसका पेट भरा नहीं था, मुझसे उसने कहा कि कल से उसे खाने को कुछ नहीं मिला है।’’
दया की आर्द्रता से वह भीगता जा रहा था, उपदेश देने के लिए मेरे पास शब्द चुक रहे थे। हलका होकर मैं चुपचाप उसका हाथ थामे आगे बढ़ गया। मुझे लगा, ‘‘बच्चे को शाबाशी देकर उसके काम की प्रशंसा करनी चाहिए, किंतु शब्द मेरे गले में अटककर रह गए।
- 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)
पारस दासोत
{सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार श्री पारस दासोत की प्रतीकात्मक लघुकथाओं का संग्रह ‘यथास्थितिवाद के खिलाफ मेरी लघुकथाएँ’ वर्ष 2012 में प्रकाशित हुआ है। यथास्थिति की पपड़ी को तोड़ते हुए संघर्ष एवं सकारात्मक दिशा बोध देतीं इन्हीं लघुकथाओं में से प्रस्तुत हैं दासोत जी की दो लघुकथाएँ।}
अन्तरदेशिया बाई
नवगई गाँव में,....
रेखा चित्र : नरेश उदास |
इससे पहले,
गाँव वाले तलवार को उठाने हेतु, बढ़ते, वह हल के जुए को अपने कन्धे पर से हटाती हुई दहाड़ी-
‘‘ठहरो! ठहरो ऽ ऽ! लो मैंने छू ली तलवार! सुनाओ ऽ ऽ! मुझको सजा सुनाओ! मैं तलवार भी चलाने को तैयार हूँ।’’
सामूहिक नृत्य
एक कमरे में,....
कुछ चूहे उछल-कूद कर रहे थे, बिल्ली आ गयी।
चूहों ने, बिल्ली को देखते ही, अपने कृत्य को शीघ्र ही सामूहिक नृत्य में बदल दिया। यह देखकर, बिल्ली की आँखें लाल हो गईं।
कुछ ही क्षणों बाद,
बिल्ली ने, जैसे ही एक चूहे को अपने पंजे में दबोचा, साथी चूहे बिल्ली पर उछलने-कूदने लगे।
कोई चूहा, बिल्ली पर पेशाब, तो कोई पोटी कर रहा था।
ऐसा माजरा, बिल्ली ने कभी सपने में भी नहीं देखा था और न ही कभी सोचा था, सो उसकी पकड़ चूहे पर ढीली क्या, छूट गई।
अगले क्षण,
बिल्ली, कमरे के बाहर निकलकर भाग रही थी और सभी चूहे उसके पीछे दौड़ रहे थे।
- प्लाट नं.129, गली नं.9 (बी), मोती नगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-21
श्यामसुन्दर अग्रवाल
बीच के लोग
कन्या के पिता ने कमरे में फैली खामोशी को भंग किया, “आजकल तो जी लड़की की शादी करना सबसे कठिन काम है। अब देखो न, हमारी सुरेखा में कोई कमी नहींदृ एम.ए. किया है, सुंदर है, सभी गुण हैं। कभी किसी ने ंदेखकर नापसंद नहीं किया। लेकिन बात हर बार दहेज को लेकर ही टूट जाती है। हम गरीब आदमी भला मुँह-मांगा दहेज कहाँ से दे सकते हैं!३आप जैसे दहेज की इच्छा न रखने वाले तो बहुत सौभाग्य से ही मिलते हैं।”
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
देखने-परखने के बाद जब लड़के तथा उसके परिवार वालों ने सुरेखा को पसंद कर लिया तो सुरेखा के पिता ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “डॉक्टर साहब, मैं एक बार फिर निवेदन कर रहा हूँ कि मैं अमीर आदमी नहीं हूँ। अधिक दहेज देना मेरे वश में नहीं है। दहेज के विषय में आपकी कोई विशेष शर्त हो अभी बता दीजिए।”
लड़के के पिता ने कहा कुछ गंभीर होते हुए कहा, “हमारी तो बस एक ही शर्त है कि हम दहेज में एक पैसे की वस्तु भी नहीं लेंगे और शादी भी साधारण ही करेंगे।”
सुरेखा के पिता को जैसे झटका लगा, “यह आप क्या कह रहे हैं, डॉक्टर साहब! हम इतने गरीब तो नहीं कि अपनी बेटी को बिना दहेज के ही विदा कर देंगे। इससे तो हमारी इज्जत ही मिट्टी में मिल जायेगी।”
और बात एक बार फिर दहेज के विषय पर ही टूट गई।
- 575, गली नं.5, प्रतापनगर, पो.बा. नं. 44, कोटकपूरा-151204, पंजाब
राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’
{कवि-कथाकार राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ जी का लघुकथा संग्रह ‘बात करना बेकार है’ वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ था। मानव जीवन की विसंगतियों और संवेदनाओं को लक्ष्य करती कई अच्छी लघुकथाएं इस संग्रह में शामिल हैं। इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी दो लघुकथाएँ।}
देश का भविष्य
चित्र देखकर मेरे आठ वर्षीय पुत्र ने अपनी कलर की डिबिया खोली, और अपने निर्दोष हाथों से मशीनगन को पार्श्व के रंग से ढककर बोला- ‘‘पापा, मैंने बच्चे के हाथ से मशीनगन छीन ली है।’’
‘‘बहुत अच्छा किया, बेटा। अब नीचे लिखे शब्द भी मिटा दो।’’
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
भूख और मनुष्य
वैद्यजी ने सलाह दी- ‘‘ठीक होना है तो भूख से एक रोटी कम खाओ।’’
‘‘एक रोटी कम खाने से मैं ठीक हो जाऊँगा?’’
‘‘सौ प्रतिशत। भूख जिन्दा रहेगी तो तुम भी जिंदा रहोगे।’’
‘‘समझ गया वैद्यजी। भूख और मनुष्य एक दूसरे के पूरक हैं।’’
- एलआईजी-2-14, सांदीपनी नगर, उज्जैन-456006 (म.प्र.)
रतन चन्द्र रत्नेश
एक फैसला
गाँव से रवि अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आया। तकरीबन एक वर्ष पूर्व उसका विवाह हुआ था। गाँव में ही। हम भी उसके विवाह में शामिल हुए थे। पत्नी के साथ वह पहली बार शहर आया था।
मैंने कहा, ‘‘क्यों रवि, आखिर भाभी जी को शहर दिखाने ले ही आए?’’ वह मुस्कराया।
‘‘हाँ, शहर भी देख लेंगे और जिस काम के लिए आये हैं, वह भी हो जायेगा। एक पंथ दो काज।’’
‘‘क्या काम है भाई, कोई खास? मुझे नहीं बताओगे?’’
उसकी पत्नी उठकर रसोई में चली गई, जहाँ मेरी पत्नी हमारे लिए चाय बना रही थी।
रवि ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘यार, तुम्हारी सहायता के बिना तो वह खास काम होने से रहा। मुझे तो शहर और डाक्टरों के बारे में अधिक पता नहीं है। तू तो जानता है कि अपनी जिंदगी गाँव और अपने पुश्तैनी दुकान के आस-पास तक ही सीमित रही है।’’
मैंने कहा, ‘‘खुलकर कहो भई। तुम तो पहेलियाँ बुझाने लगे।’’
वह कहने लगा, ‘‘यार, तुम्हारी भाभी का पाँव भारी है। आजकल ‘टेस्ट’ की बड़ी चर्चा सुनी है, पर साथ ही यह भी पता चला है कि प्राइवेट क्लीनिकों में यह काम अब चोरी-छुपे हो रहा है क्योंकि सरकार ने गर्भस्थ शिशु के लिंग जाँच को अवैध घोषित कर रखा है। हम भी जानने के इच्छुक हैं कि गर्भ में लड़का है या लड़की?’’
मैं सुनकर दंग रह गया। इसका अर्थ यह है कि यह ‘बीमारी’ सुदूर गाँव तक को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है।
मैंने सहज भाव से कहा, ‘‘परिणाम जानने की इतनी उत्सुकता क्यों? सब्र से काम लो।’’ भ्रूण-जाँच करवाकर अपनी स्वाभाविक प्रशन्नता का गला क्यों घोंट रहे हो?’’
‘‘दरअसल हम चाहते हैं कि लड़की हो तो गर्भ गिरा दें।’’ उसने कुछ झेंपते हुए कहा।
मेरी आवाज थोड़ी तल्ख हो गई, ‘‘तुम गंवार के गंवार ही रहे। अब क्या लड़का-लड़की में भेद रह गया है बल्कि लड़कियाँ लड़कों से कहीं अधिक सुख दे रही हैं....।’’
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी |
‘‘सो तो ठीक है पर.....’’ वह सिर खुजाने लगा।
अंत में निराश होकर मैंने कहा, ‘‘जैसी तेरी इच्छा, पर मैं तुझे किसी भी क्लीनिक का पता देने वाला नहीं। मुझे क्यों पाप का भागी बना रहे हो? जितने दिन चाहो, आराम से रहो, पर क्लीनिक की तलाश तुझे स्वयं करनी पड़ेगी। हाँ, मेरी बात याद रखना। कुदरत के खिलाफ कोई कदम उठाया तो तेरी आत्मा सदा तुझे दुत्कारती रहेगी।’’
दूसरे दिन प्रातः रवि अपनी पत्नी से कहने लगा, ‘‘प्रतिमा, चलो गाँव लौटने की तैयारी करते हैं।’’
मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
‘‘क्यों मेरी बात का बुरा मान गए?’’
उसने कहा, ‘‘नहीं यार, तूने तो मेरी आँख खोल दी। हमें जाँच नहीं करवानी। जो संतान हमें ईश्वर प्रदान करेगा, उसे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।’’
‘‘रात भर में यह परिवर्तन....?’’ मैंने उत्सुकता से पूछा।
‘‘बस समझो, हमसे भयंकर भूल होते-होते रह गई। साथ ही उन प्रश्नों से भी बच गए जो आने वाली पीढ़ी हमसे कुरेद-कुरेद कर पूछेगी और हमारे पास जिनका कोई उत्तर नहीं होगा।’’
- 1859, सैक्टर 7-सी, चण्डीगढ़-160019
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