आपका परिचय

मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  07-10,  मार्च-जून 2017





अविराम साहित्यिकी 
(समग्र साहित्य की समकालीन त्रैमासिक पत्रिका)
खंड (वर्ष) :  6 / अंक : 1 / अप्रैल-जून 2017 (मुद्रित)

प्रधान सम्पादिका :  मध्यमा गुप्ता

अंक सम्पादक :  डॉ. उमेश महादोषी 

सम्पादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन

मुद्रण सहयोगी :  पवन कुमार 



आवरण रेखाचित्र : रमेश गौतम 



अविराम का यह मुद्रित अंक रचनाकारों व सदस्योंको 14 मई 2017  को तथा अन्य सभी सम्बंधित मित्रों-पाठकों को 18 मई 2017 तक भेजा जा चुका है। 10  जून 2017  तक अंक प्राप्त न होने पर सदस्य एवं अंक के रचनाकार अविलम्ब पुनः प्रति भेजने का आग्रह करें। अन्य मित्रों को आग्रह करने पर उनके ई मेल पर पीडीफ़ प्रति भेजी जा सकती है। पत्रिका पूरी तरह अव्यवसायिक है, किसी भी प्रकाशित रचना एवं अन्य सामग्री पर पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है। इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है-





।।सामग्री।।

अनवरत
स्व. निरंकार देव सेवक (3)
श्यामसुन्दर निगम (4)
राजकुमार कुम्भज/रमेश गौतम (6)
ऋषभदेव शर्मा (7)
ज्ञानचंद मर्मज्ञ/उमाश्री (8)
रमेश प्रसून/अखिलेश अंजुम (9)
एस.एम. रस्तोगी ‘शान्त’/गोपाल ‘राजगोपाल’ (10)
तारिक असलम ‘तस्नीम’ (11)
श्रीहरि वाणी/हरिश्चन्द्र शाक्य (12)
पं.ज्वालाप्रसाद शांडिल्य ‘दिव्य’/कुमार आनन्द पाण्डेय (13)
देवेन्द्र कुमार मिश्रा/सुनील कुमार गुप्ता (14)

सरोकार

वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य पर श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी/रमेश प्रसून की टिप्पणियाँ (15)

उत्तराखण्ड में लघुकथा

विशेष संपादकीय (17)
आशा शैली (18)
बलराम अग्रवाल (19)
योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ (21)
आशा रावत (23)
के. एल. दिवान (24)
कुसुम जोशी (25)
महावीर रंवाल्टा (26)
महावीर उत्तरांचली (28)
शशिभूषण बड़ोनी (30) 
मीरा भारद्वाज (31) 
नीरज सुधांशु (32) 
अर्चना त्रिपाठी (33)
राजेश्वरी जोशी (34)
जगदीश पन्त ‘कुमुद’ (35)
उमेश महादोषी (36)

विमर्श

सोशल मीडिया पर हिन्दी लघुकथा-02 /डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’ (39)

कथा कहानी
सूखती नदी बहने लगी.../ज्योत्सना कपिल (41)

कथा प्रवाह
भगवान अटलानी/प्रभात दुबे (47)
लता अग्रवाल (48)
उपमा शर्मा (49)
मधु जैन (50)
सूरज मुदुल (51)

किताबें

जीवन मूल्यों के संप्रेषण की जीवंत कड़ी: डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’के कहानी संग्रह ‘मन का सुख’ (52)/समाज के यथार्थ को अनावृत करती लघुकथाएँ: डॉ. अशोक गुजराती के लघुकथा संग्रह ‘अन्दाज़ नया’ (53) की उमेश महादोषी द्वारा समीक्षाएँं।

लघुकथा : अगली पीढ़ी

डॉ. संध्या तिवारी की लघुकथाओं पर उमेश महादोषी की प्रस्तुति (55)

स्मृति अशेष 
स्व. रामेश्वर दयाल शर्मा ‘दयाल’ का स्मरण/श्रद्धांजलि (64) 

स्तम्भ 
माइक पर : संपादकीय (आवरण 2)/गतिविधियाँ (65)/प्राप्ति स्वीकार (67)/सूचनाएँ (आवरण-4)

अविराम विस्तारित

अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 07-10, मार्च-जून 2017


।। किताबें ।।

डॉ. बुला कार

वैविध्य और भाषा का अनूठा संगम 
इस परिवर्तनकारी समय में काव्य की नयी विधा ‘हाइकु’ के पदार्पण ने, काव्य क्षेत्र में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। यह विधा कम से कम शब्दों में रचनाकार की बात पाठकों के समक्ष रखने में सक्षम है। हाइकु लघुत्तम काव्य रचना है। सत्रह वर्णो में लिखित कविता युगबोध को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रतिध्वनित करती है। ज्वलन्त समस्याओं से रूबरू कराती हाइकु कविता सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन की दिशा में सार्थक भूमिका निभा रही है। इसमें व्यंग्य की अहम् भूमिका है। सभी तथ्यों की दृष्टि से डॉ. सतीश दुबे जी का हाइकु संग्रह ‘सात सौ सत्रह हाइकु मंत्रम्’ बेजोड़ रचना मानी जा सकती है। इन हाइकुओं में विषय वैविध्य के साथ भाषा का अनूठा संगम दिखायी देता है। लघ्वाकार के साथ ‘हाइकु’ में वर्ण सीमा निर्धारित होती है। एक भी वर्ण न ज्यादा, न कम। ऐसी कविता में सृजन काफी मुश्किल होता है। डॉ. दुबे जी ने सात सौ सत्रह हाइकु सृजित कर हमें अभिभूत कर दिया है। कम शब्दों में गुंफित अपने संस्कार और घनीभूत कसाव के कारण वे जो कथ्य-बिम्ब प्रस्तुत करते हैं, वह हमारे मन-मस्तिष्क में संवेदनाओं के अर्थप्रसार विस्फोटक का काम कर जाते हैं। अन्तर्मन में छिपे एहसास, दर्द, अंधविश्वास, कुरीतियाँ, रिश्तों की अहमियत, प्रकृति का अनूठा गान, और भी न जाने कितने तथ्यों को जिए हुए हैं ये सात सौ सत्रह हाइकु। संग्रह की सभी रचनाएँ हमारे अन्तर्मन को झकझोरती हैं। माँ और पिता पर लिखे शब्द प्रवाह, जैसे- ‘‘परिधि कैद/अपनो की उपेक्षा/तन्हा जीवन...’’ और ‘‘पिता ने पिया/संघर्ष का ज़हर/नीलकंठ सा’’ कवि के हृदय की बेचैनी प्रकट करता है। एक कविता में पिता के बताए संघर्षमय जीवन के साथ परिवार के सदस्यों में खुशियों के पल बाँटते रहने का प्रसंग मानो पूरी एक कहानी है- ‘‘बाबा, प्रसाद/फैला बेटे का हाथ/पिता के सामने...’’ । पिता की हार्दिक इच्छा होती है उनके बेटे-बेटियाँ सुखी हों। किन्तु वही बेटा-बहू उन्हें वृद्धाश्रम भेज दें- कितनी पीढ़ादायी स्थिति है! माँ-पिता बेटे को पढ़ा-लिखाकर लायक बनाते हैं, चाव से विवाह करवाते हैं। आशा करते हैं कि उनका बुढ़ापा खुशियों भरा होगा। लेकिन होता क्या है- ‘‘साध के चुप्पी/देखते रहो उन्हें/बड़े हो गये’’ और ‘‘क्या है संभव/वाकयुद्ध या शांति/पत्नी से प्रश्न...’’। माँ के दिवंगता होते ही पिता के सारे मंसूबे खतम हो गए- ‘‘शांत हो गए/तमाम मनसूबे/माँ के जाते ही’’। पिता परिवार के वृक्ष हैं, घर के सभी- बेटे-बेटी आदि को छाया देते हैं। परन्तु पिता वृद्ध होते हैं तब घर में उनकी हैसियत कुछ भी नहीं रहती। सारा जीवन कष्ट सहकर जिन बच्चों का लालन-पालन करते हैं, वे बच्चे बदले में क्या देते हैं- ‘‘बदला मिला/आरियों के रूप में/पिता वृक्ष को’’। 
      घर-घर में पति-पत्नी में आपसी संवाद-विवाद बनते देखे जाते हैं। जब ये विवाद लड़ाई-झगड़े में बदल जाते हैं तो सिर से पानी ऊपर हो उठता है और रिश्ता टूट जाता है। दुबे जी ने समाज के कोने-कोने को परखा है- ‘‘पानी का सेरा/पत्नी-पति विवाद/गिरा औ खत्म’’। विवाद की अति संबंधों को खत्म करती है। घर एक मंदिर होता है, इसमें पति, पत्नी और बच्चा- ये तीन प्रतिमाएँ उसे संभाले रखती हैं। इस मंदिर को बचाए रखने के लिए एक दूसरे के प्रति प्रेम, सौहार्द और अपनत्व भाव की आवश्यकता है। ‘‘घर मंदिर/पति-पत्नी व बच्चा/तीन मूर्तियाँ’’। खुशहाल जीवन इसे ही कहते हैं।
      नारी के सन्दर्भ में दुबे जी का सकारात्मक दृष्टिकोंण ‘हाइकु’ से बाँधे रखता है। आज स्त्री अबला नहीं, सबला है। भावनात्मक सूत्र को व्यर्थ मानकर, आगे पहुँच रही है। प्लेन उड़ाने वाली, देश-विदेश की कम्पनी में काम करने वाली, पुलिस, शिक्षा, न्याय आदि पदों पर काम करती स्त्री किसी पर निर्भर नहीं है- ‘‘कल्पना परी/प्लेन उड़ा रही/औरत आज’’। दुबे जी ने जहाँ स्त्री के सकारात्मक पक्ष को उभारा है, वहीं उसके नकारात्मक पक्ष पर उँगली भी उठाई है- ‘‘पर्याय बनी/क्लब-बार-कॉल की/औरत आज’’। दुबे जी ने अकेली स्त्री की पीड़ा और पुरुषों की उसके प्रति नकारात्मक दृष्टि को भी चित्रित किया है- ‘‘अकेली नारी/दीदे फाड़ देखते/शंकालु लोग’’। राजनीति के प्रपंच किसी से अछूते नहीं हैं। दुबे साहब ने भी इसे निशाने पर लिया है।
      कोई कविता तभी रमणीय बनती है, जब भाव और कला- दोनों पक्षों में अन्योन्याश्रित मेल और सन्तुलन बना रहे। इस हाइकु संग्रह में दोनों पक्षों का सुन्दर तालमेल है, यही कारण है कि इस संग्रह को पढ़ते हुए सुपरिचित और आत्मीय बोध का परिचय मिलता है। किसी कविता की सकारात्मक स्थापना वही हो सकती है जो मनुष्य की श्रेष्ठ संस्कृति, परम्पराओं और जीवन मूल्यों के सहकार में हो। एक आत्मकेन्द्रित इकाई इस सहकार की संवाहक नहीं हो सकती। अकेलेपन से जूझते कवि के सामाजिक संदर्भ अधिक मूर्त और प्रकट हैं। कवि के लिए संघर्ष के अनुभव बिम्बों की श्रंखला दूर तक जाती है। अन्तर्वस्तु का तनाव जटिल रूप में भी दिखाई देता है। चिन्तन प्रक्रिया हाइकु के रूप या बनावट में भी हस्तक्षेप करती है। 
      ‘हाइकु’ कविता की भाषा में विशिष्टता लाने के लिए दुबे जी संवेदना का अद्भुत मेल लाते हैं। गद्य में चाहे हम जैसे भी तोड़-मरोड़कर भावों को विस्तार दे सकते हैं, परन्तु ‘हाइकु’ जैसी कविता में एक पूरी कहानी रच देना दुष्कर कार्य है। समाज के हर पक्ष को जिस साफगोई से कवि वर्णित करता है, यह मानवीय मूल्यों से उसके लगाव और जड़ता से संघर्ष की उसकी इच्छा का द्योतक है। कवि की शैली विषय-वस्तु के अनुरूप परिवर्तनशील है। अनुभूति जिस ओर प्रेरित करती है, उसी ओर कवि का सहज गमन होता है। कवि ने लोक प्रचलित सहज सरल भाषा और भाव शब्दों के साथ संगति मिलाकर भावार्थ का संप्रेषण किया है। यह सहजता हाइकु को अतिरिक्त शक्ति प्रदान करती है और कथ्य की उपादेयता बढ़ा देती है। दुबे जी ने किसी विषय को अछूता नहीं रखा है, दुनिया में निहित प्रपंचों को तीक्ष्ण और सूक्ष्म नजर से जाँचा परखा है। अन्तर्मन की कविताएँ, निस्वार्थ रिश्तों में स्वान्तः सुखाय भी हैं। ये हाइकु हमारे आसपास के अनेक विषयों को उठाकर रचे गये हैं। संवेदना के धरातल पर जीता हुुआ कवि कथ्य-तथ्य-सत्य की सार्थकता की उचित पहचान कराता है। डॉ. दुबे जी की ये रचनाएँ भाषा, शिल्प की दृष्टि से अनुपम हैं।
सात सौ सत्रह हाइकु मंत्रम् : हाइकु संग्रह : डॉ. सतीश दुबे। प्रकाशक : पार्वती प्रकाशन, 73-ए, द्वारिकापुरी, ज्ञानसागर स्कूल गली, इन्दौर। मूल्य : रु. 100/- मात्र। संस्करण : 2015।  

  • 119, रायल कृष्णा, एमराल्ड हाईट्स स्कूल के पास, ए.बी. रोड, राऊ, इन्दौर, म.प्र./मोबा. 09425844990

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  07-10,  मार्च-जून 2017



किताबें


डॉ. उमेश महादोषी



जीवन-मूल्यों के संप्रेषण की जीवंत कड़ी: ‘मन का सुख’ कथा-संग्रह 
      वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ जी यूँ तो मूलतः कवि हैं, लेकिन अन्य विधाओं में भी उन्होंने महत्वपूर्ण लेखन करते हुए साहित्य-जगत में अपनी बहुमुखी प्रतिभा की छटा बिखेरी है। इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि मानव जीवन को सम्पूर्णता देने वाला विचार-दर्शन ‘अरुण’जी की अंतरात्मा का अभिन्न साथी है, जो अपने लक्षित पाठक के स्वभाव, सुविधा और सम्प्रेषण की आवश्यकता के अनुरूप सृजनात्मक देह धारण कर (विभिन्न विधाओं में) अभिव्यक्त होता है। लेकिन अरुणजी की मूल (काव्य) प्रवृत्ति हर विधा में साथ रहकर उनके कवि-हृदय की साक्षी बनती है। उनकी कहानियों के सन्दर्भ में भी यही सत्य है। अरुणजी की दस कहानियों के सद्यः प्रकाशित संग्रह ‘मन का सुख’ में उनका विचार-दर्शन उनके साक्षात अनुभवों से गुजरकर कथा-देह को सोद्देश्य धारण करता है। संग्रह की पहली कहानी ‘तब और अब’ में रचनात्मक प्रश्न उठाया गया है कि कथा नायिका किरण सिंह जैसे लोग सफलता की ऊँचाई पर पहुँचकर रिश्तों की उस जीवंतता का अर्थ क्यों भूल जाते हैं, जिसे थोड़े से अपनेपन और अनौपचारिक स्नेह की गर्माहट से पल-दो-पल की मुलाकातों में भी पैदा किया जा सकता है। रिश्तों की जीवंतता की अरुणजी की अपनी व्याख्या बेहद खूबसूरत है, जिसे उन्होंने भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी है संग्रह की अन्तिम कहानी ‘सलाम इस जीवट को’ में।
      आत्मीयता से परिपूर्ण रिश्तों के अनेक पक्षों को अनुभवों की व्यापकता के सहारे ‘अरुण’ जी प्रायः अपनी कहानियों में छूते हैं। ‘जिद्दी’ दो ऐसे मित्रों, तरुण और योगेन्द्र की कहानी है, जिनकी प्रगाढ़ मित्रता बचपन से आरम्भ होकर जीवन के अंतिम पड़ाव तक जाती है। इंजीनियर तरुण का अनौपचारिक अपनेपन व भावुकता का अतिरेक प्राध्यापक योगेन्द्र के स्वाभिमान से टकरा जाता है। तरुण अपने मित्र को आर्थिक परेशानी में महसूस करके सहायता का प्रस्ताव करता है, तो योगेन्द्र को लगता है कि तरुण अपनी आर्थिक सम्पन्नता से उसके स्वाभिमान पर चोट कर रहा है। बस! योगेन्द्र मित्रता को पार्श्व में धकेलकर तरुण को अपने घर से जाने को कह देता है। सामान्य परिस्थितियों में ऐसा ही होता है लेकिन रचनात्मकता घटना को कथा का रूप देती है। जीवन के चौथे पड़ाव में अचानक एक दिन तरुण का बेटा आकर अपने पिता के दर्द और पाश्चाताप भरी स्मृतियों का लिफाफा योगेन्द्र को सौंपता है। कैंसर का ग्रास बन चुके तरुण का पत्र योगेन्द्र को मित्र के प्रेम और अपनेपन के उस अतिरेक का अहसास कराता है, जिसे वर्षों पूर्व वह ‘‘दौलत का अभिमान’’ मानकर ठुकरा चुका था। प्रायः हम अपनी दृष्टि और विवेक के समक्ष दूसरों की दृष्टि और विवेक के बारे में सोचना बंद कर देते हैं। थोड़ी सी समझदारी से इससे बचा जा सकता है। पारिवारिक रिश्तों में पड़ती दरारों को पाटती कहानी ‘‘जीत गई थी ममता’’ में यह समझदारी देखने को मिलती है। 
      एक समय की कथित छोटे लोगों के उपभोग की पारम्परिक स्वाद और वातावरण की अनुभूतियों जैसी चीजें आज दुर्लभ होकर धनाड्य और कथित बड़े लोगों के आकर्षण का केन्द्र और अनेक नए-नए व्यवसायों का आधार बनती जा रही हैं। लेकिन इनके विकास के पीछे अपने परिश्रम और दक्षता का योगदान कर रहे मेहनतकशों को उनका वास्तविक पारिश्रमिक और श्रेय नहीं मिलता। उसे हड़प जाते हैं व्यवसाय के विभिन्न एजेंट। ‘रामरति का सुख’ इसी प्रवृत्ति से पर्दा उठाती एक यथार्थपरक कहानी है।
      समाज में कैंसर की तरह फैल चुकी कन्या भ्रूण हत्या पर अरुणजी ने इस संग्रह में दो कहानी दी हैं- ‘अनूठी प्रेरणा’ और ‘मुस्कुराती जिन्दगी’। इनमें समस्या के दोनों प्रमुख सामाजिक पहलुओं, क्रमशः चिकित्सकों की व्यावसायिक मानसिकता और भारतीय परिवारों में लड़कों को वारिस मानने की परंपरा और मानसिकता, पर प्रहार किया गया है। आजकल बेटियों की क्षमताओं को देखते हुए कई माताएँ अबार्सन से बचकर गर्भस्थ बेटी को जन्म देने का यथाशक्ति प्रयास करने लगी हैं। दोनों ही कहानियों में यह प्रयास देखने को मिलते हैं और प्रयासों के सुखद परिणाम भी। ‘अनूठी प्रेरणा’ की कथानायिका (गर्भस्थ बच्ची का माँ) महिला डाक्टर तथा ‘मुस्कुराती जिन्दगी’ की कथानायिका (गर्भस्थ बच्ची का माँ) अपनी सासू माँ की मानसिकता को बदलकर अपने प्रयास को परिणाम तक पहुँचाती है। 
     अन्य कहानियों में ‘बेटी’ शिक्षा जगत की विसंगतियों एवं ‘मन का सुख’ ज्योतिष और बाबागीरी के माध्यम से ठगी की धंधेबाजी पर चोट करती हैं। वहीं ‘फरिश्ता’ में मेहनतकश और आर्थिक रूप से वंचित वर्ग की संवेदनशीलता को अभिव्यक्त किया गया है। बहुधा मेहनतकश और आर्थिक रूप से वंचित वर्ग के लोगों के प्रति कथित शिक्षित और मध्यम व संपन्न वर्ग के लोगों की धारणा अच्छी नहीं होती है। कुछ घटनाओं को आधार बनाकर गलत धारणाएँ मन में बैठा ली जाती हैं। जबकि संवेदनशीलता और ईमानदारी अपने वास्तविक और निस्पृह रूप में कथित वंचित वर्ग में आज भी बची हुई है। ‘फरिश्ता’ में एक बुजुर्ग रिटायर्ड प्राचार्य को ट्रेन पकड़नी है, उनकी जेब कट जाती है और ट्रेन छूटने ही वाली है। हार्ट पेशेंट और भूख-प्यास व घबराहट से परेशान उन बुजुर्ग को एक संभ्रांत व्यक्ति अपनी बोतल से एक घूँट पानी देने तक से मना कर देता है, वहीं एक युवा कुली न सिर्फ ट्रेन पकड़ने में उनकी मदद करता है, अपनी मजदूरी भी नहीं लेता। उल्टा उन्हें अपनी ओर से आर्थिक मदद का प्रस्ताव भी करता है। 
      निसंदेह डॉ. ‘अरुण’ जैसे वरिष्ठ साहित्यधर्मियों के ऐसे अनुभव आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते हैं। डॉ. अरुणजी स्वयं नैतिक मूल्यों की प्रतिमूर्ति हैं। समाज में व्याप्त अनैतिकता और विसंगतियाँ उन्हें गहरे तक उद्वेलित करती हैं। इस उद्वेलन को वह रचनात्मक सृजन में बदलते हुए अपने विचारों और जीवन-मूल्यों को पीढ़ियों के अन्तर्मन में संप्रेषित और संचारित करने का प्रयास करते हैं। यह कहानी संग्रह भी उनके ऐसे प्रयासों की जीवंत कड़ी है।

‘मन का सुख’: कहानी संग्रह : डॉ. योगेंद्रनाथ शर्मा ‘अरुण’। प्रका. : सस्ता साहित्य मंडल, एन-77, पहली मंजिल, कनॉट सर्कस, नई दिल्ली-1। मूल्य: रु 150/-, सं.: 2017। 
  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004

अविराम विस्तारित

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।। किताबें ।।




डॉ. उमेश महादोषी



समाज के यथार्थ को अनावृत करती लघुकथाएँ 

अशोक गुजराती हिन्दी लघुकथा के साथ आन्दोलन काल से ही जुड़े हैं। लघुकथा में उनका योगदान मुख्यतः एक सृजक के रूप में ही रहा है, सृजन से इतर कार्य उन्होंने कम ही किया है। अशोक जी की लघुकथाओं का दूसरा संग्रह ‘अंदाज नया’ हाल ही में आया है। इसमें उनकी 71 लघुकथाएँ संग्रहित है। ये लघुकथाएँ सामाजिक जीवन की विसंगतियों और मानवीय चरित्र में आई गिरावट से जुड़े कथ्यों को लेकर सामने आती हैं। पहली ही लघुकथा ‘तेरा तुझको अर्पित, क्या लागे मेरा’ ईमानदारी के आवरण में भी लूट का तरीका खोज लेने के मानवीय चरित्र पर गम्भीर टिप्पणी करती है। लेकिन लूट का यह मामला एकतरफा नहीं है, ऐसी लूट होती इसलिए है कि अपने-अपने लालच की चादर में लिपटे लोग लुटने को तैयार बैठे हैं। परीक्षा में पास होना हो या नौकरी अर्जित करना हो, ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे, जहाँ लोग अपने परिश्रम से अधिक अविश्वसनीय मध्यस्थों पर विश्वास करके अपने लुटने का प्रबंध स्वयं ही करते हैं। दरअसल ये लोग भी तो अप्रत्यक्षतः दूसरों के अवसरों को लूटने की मंशा से ग्रस्त होते हैं। 
      लचर कानून व्यवस्था से मनुष्य इतना भयग्रस्त और भीरु-चरित्र बन रहा है कि वह अपराधियों का शिकार बनकर चाहते हुए भी प्रतिकार नहीं कर पाता। ‘प्रतिगमन’ इसी तथ्य को अनावृत करती है। युवा वय की दोस्ती में पारस्परिक संवादों में लफंगई भाषा का उपयोग स्वभाव में रच-बसकर कितना असावधान बना देता है, इसे ‘संस्कृति’ लघुकथा में देखा जा सकता है। एक्सीडेंट में घायल व्यक्ति की मदद करना बहुधा व्यक्ति को बड़ी परेशानी में डाल देता है, इसे ‘मौत संवेदना की’ में दर्शाया गया है। यद्यपि कानूनी तौर पर इस स्थिति को बदलने के प्रयास हो रहे हैं, किन्तु व्यावहारिक स्तर पर ऐसी ही स्थितियों के चलते मदद करने से पहले लोग हजार बार सोचते हैं। भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं होती, भलेे उसमें संलिप्त व्यक्तियों की होती हो। एक व्यक्ति उसे जहाँ छोड़ता है, दूसरा उससे आगे ले जाता है। भ्रष्टाचार की इस ‘रिले रेस’ में भुक्तभोगी भी मौका मिलने पर पीछे नहीं रहता। लेकिन इस लघुकथा में जो सेल्स टेक्स इंसपेक्टर हजारों की रिश्वत लेता है, उसका स्वयं ढाई सौ रुपये की रिश्वत देने में बखेड़ा खड़ा करना कथ्य और उसे शीर्षक से मिलने वाले सपोर्ट को कमजोर बनाता है। ऐसे में प्रस्तुतीकरण पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान देना चाहिए।
     सामान्य कथ्यों पर केन्द्रित ऐसी अनेक रचनाओं के मध्य कुछ ऐसी भी हैं, जो पाठकों-समालोचकों का अलग से ध्यान खींचती हैं। इनमें एक है ‘परिणति’। मित्र की मृत्यु के दुःख से छुटकारा पाने के लिए पत्नी-साहचर्य का नशा! मनुष्य के इस चरित्र को रचनात्मकता के स्तर पर किस तरह स्वीकार किया जाये, एक कठिन प्रश्न है। ‘स्वत्व’ का अंतिम संवाद, ‘‘साब मारते क्यों हो... आप बी तो रोड पे तुरत जाने को कई बार फाटक से उधर निकलते हो... हम मारते हैं क्या...?’’ इसे स्मरणीय बना देता है। बड़ों व बच्चों के मनोविज्ञान को आमने-सामने खड़ा करती ‘श्रेणी-भेद’ और अविश्वास व विपरीत परिस्थितियों में भी रिश्तों के सम्मान को बचाए रखने का सन्देश देती ‘तीसरा’ भी स्मरणीय हैं। 
      भूमिका में डॉ. बलराम अग्रवाल की यह टिप्पणी अशोक गुजरातीे के लघुकथा-सृजन का यथार्थ हमारे सामने रखती है- ‘‘उनके पास स्थितियों को निरखने-परखने-आकलित करने की गहन मनोवैज्ञानिक दृष्टि तो है ही, व्यंग्याभिव्यक्ति का पैना और अचूक औजार भी है। उनमें कथा धैर्य गज़ब का है और कथा को वह कहीं से भी शुरू करने का माद्दा रखते हैं।... लेकिन उनकी लघुकथाओं का शिल्प, यहाँ तक कि भाषा-निर्वाह भी कभी-कभी लघुकथा जैसा न होकर कहानी-जैसा हो जाता है तो कहीं निबंधपरक (उदाहरणार्थ ‘शापग्रस्त’) भी हो गया है।’’ एक अनुभवी रचनाकार के रूप में हमें अशोक जी की लघुकथाओं के माध्यम से समाज के यथार्थ तक पहुँचने और उसे समझने का अवसर इस संग्रह से अवश्य मिलेगा, क्योंकि समाज के यथार्थ को अनावृत करना ही इन लघुकथाओं का उद्देश्य है।
अंदाज़ नया : लघुकथा संग्रह : डॉ. अशोक गुजराती। प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-30। मूल्य : रु. 240/- मात्र। संस्करण : 2016।
  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004

गतिविधियाँ

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{आवश्यक नोट-  कृपया संमाचार/गतिविधियों की रिपोर्ट कृति देव 010 या यूनीकोड फोन्ट में टाइप करके वर्ड या पेजमेकर फाइल में या फिर मेल बाक्स में पेस्ट करके ही ई मेल aviramsahityaki@gmail.com पर ही भेजें; स्केन करके नहीं। केवल फोटो ही स्केन करके भेजें। स्केन रूप में टेक्स्ट सामग्री/समाचार/ रिपोर्ट को स्वीकार करना संभव नहीं है। ऐसी सामग्री को हमारे स्तर पर टाइप करने की व्यवस्था संभव नहीं है। फोटो भेजने से पूर्व उन्हें इस तरह संपादित कर लें कि उनका लोड लगभग 02 एम.बी. से अधिक न रहे।}  


वृहद ‘हिन्दी लघुकथाकार कोश’ के प्रकाशन की तैयारी

वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. बलराम अग्रवाल (मो. 08826499115/ई-मेल  2611ableram@gmail.com) एवं श्री मधुदीप (मो. 09312400709/ई-मेल madhudeep01@gmail.com) के संपादन में ‘हिन्दी लघुकथाकार कोश’ को मूर्तरूप देने की तैयारी अपने अंतिम चरण में है। जिन लघुकथाकारों ने अभी तक अपना विवरण संपादकों को नहीं भेजा है, वे फोन पर संपर्क कर भेज सकते हैं। इस कोश में शामिल होने के लिए एक निर्धारित प्रारूप पर लघुकथाकारों को अपने बारे में जानकारी उपलब्ध करवानी है। प्रारूप के पहले भाग में स्वयं से संबन्धित व्यक्तिगत जानकारी देनी है, जिसमें अपना नाम, जन्मतिथि, जन्मस्थान, शिक्षा, विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रदत्त पुरस्कार एवं सम्मान, प्रकाशित (मौलिक, संपादित, अनूदित) लघुकथा पुस्तकों की सूची, अन्य प्रकाशित मौलिक, संपादित व अनूदित पुस्तकों की अलग-अलग सूची, सम्प्रति, सम्पर्क सूत्र- डाक का पता, मोबाइल नं., ई मेल आई डी की सूचना शामिल होगी। दूसरे भाग में लघुकथाकार को अपनी प्रकाशित (मौलिक, संपादित, अनूदित) लघुकथा पुस्तकों के बारे में परिचयात्मक जानकारी देनी है। इसमें पुस्तक का नाम, प्रकाशन वर्ष (प्रथम संस्करण), पृष्ठ संख्या, मूल्य, संग्रहीत लघुकथाओं की संख्या, भूमिका लेखक का नाम, प्रकाशक का नाम तथा पता, आई.एस.बी.एन. (यदि है तो) शामिल होगी। मधुदीप जी ने यह भी बताया कि यदि किसी साथी के पास किसी दिवंगत लघुकथाकार के बारें में भी जानकारी है, तो वह उसे भी संपादकों को उक्त प्रारूप में उपलब्ध करवा सकते हैं। (समाचार प्रस्तुति : अविराम समाचार डेस्क) 





अहमदाबाद इंटरनेशनल लिट्रेचर फेस्टिवल सम्पन्न
अहमदाबाद इंटरनेशनल लिट्रेचर फेस्टिवल धूमधाम से सम्पन्न हुआ। पहले दिन नौ सत्र परिसंवाद के लिए रखे गए, जिनमें प्रमुख थे- कैप्टीवेटिंग स्टोरीलाइंस, मीडिया-ड्रिवन स्टोरीज, लुकिंग फॉर लिट्रेचर, पोएट्री फॉर एवरीवन, रिविजिटिंग मिथॉलजि एंड इट्स रेलवन्स टुडे। शेष सत्रों में पुस्तकों के लाकार्पण एवं गुजराती साहित्य पर चर्चा शामिल थी। सभागार में उपस्थित साहित्यकारों/विद्वतजनों द्वारा बेबाकी से जीवन में मूल्यों की महत्ता को साहित्य के माध्यम से पुनर्रेखांकित किया गया। दूसरे दिन भी समारोह में साहित्य, सिनेमा, संस्कृति पर गंभीर चर्चा हुई। इस दिन का प्रथम सत्र ‘लिट्रेचर एंड सिनेमा’ पर केंद्रित रहा। विमर्श के दौरान सुमाना मुखर्जी, अभिषेक जैन और संदीप नाथ ने अपनी-अपनी योजनाओं के सदर्भ में फिल्म निर्माण प्रक्रिया से सम्बंधित अपने विचार रखे। द्वितीय सत्र में बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी गीतकार एवं अभिनेता पियूष मिश्रा से वरिष्ठ पत्रकार अनुरिता राठौर एवं आइकॉन सॉल्यूशन के अनुभवी निदेशक उमाशंकर यादव ने ‘द पॉवर ऑफ़ वर्ड्स’ विषय पर बातचीत की। अन्य सत्रों के वक्ताओं ने भी गहरी समझ एवं सूझ-बूझ का दिग्दर्शन कराया और श्रोताओं की शंकाओं का समाधान किया। इस चर्चा-परिचर्चा के साथ मुख्य सभागार से सटे हुए कक्षों में कुछ कार्यशालाओं/पाठशालाओं का आयोजन भी किया गया था। साहित्योत्सव के समापन अवसर पर फेस्टिवल निदेशक उमाशंकर यादव ने सम्मानित सहभागियों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि एआईएलफ 2016 एक ऐसा मंच है जहाँ साहित्य, सिनेमा और मीडिया की परिधि में व्यक्ति को व्यक्ति से, समूह को समूह से वैचारिक आदान-प्रदान करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। (समाचार सौजन्य : अवनीश सिंह चौहान)




‘एक बहर पर एक ग़ज़ल’ का लोकार्पण-विमर्श 
11.12.2016 को स्वराज भवन, भोपाल में श्री चंद्रसेन विराट की अध्यक्षता एवं भवेश दिलशाद के संयोजन में वरिष्ठ कवि डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के सद्यः प्रकाशित ग़ज़ल-संग्रह ‘एक बहर पर एक ग़ज़ल’ का लोकार्पण किया गया। विजय वाते मुख्य अतिथि एवं ज़हीर कुरैशी व डॉ. आज़म विमर्शकार थे। संचालन शाइर श्री सलीम ने किया। डॉ. गौतम ने संग्रह में से कुछ चुनी हुई ग़ज़लों का पाठ किया। श्री वाते के अनुसार डॉ. गौतम ने कड़े अनुशासन के साथ ग़ज़लें कही हैं। उनकी ग़ज़लों में साहित्य और जीवनानुभवों का समन्वय देखने को मिलता है। श्री ज़हीर कुरैशी का कहना था कि इन ग़ज़लों में डॉ. गौतम शाइर से अधिक एक छंदशास्त्री के रूप में प्रस्तुत हुए हैं। डॉ. आज़म ने कहा कि डॉ. गौतम की इन 65 बहरों पर 65 ग़ज़लों में कई प्रभावी और तग़ज़्ज़ल से परिपूर्ण रचनाएँ हैं। श्री चन्द्रसेन विराट ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि यह संग्रह केवल एक पुस्तक नहीं, अपितु ग़ज़ल के विद्यार्थियों के लिए एक सन्दर्भ-ग्रन्थ और पाठ्य-पुस्तक का काम करेगा। इस अवसर पर डॉ. गौतम के परिवारीजन- वंशस्थ गौतम (पुत्र), डॉ. मालिनी गौतम (पुत्री), मुक्तक (दौहित्र) तथा बड़ी संख्या में नगर के गण्य-मान्य साहित्यकार उपस्थित थे। (समाचार सौजन्य : डॉ. मालिनी गौतम)



बालसाहित्य सम्मान 2017 के लिए प्रविष्टियाँ आमंत्रित
बालसाहित्य संस्थान अल्मोड़ा द्वारा बालसाहित्य सम्मान 2017 हेतु देश भर से 2013 से 2016 तक प्रकाशित बालसाहित्य पुस्तकों की 3-3 प्रतियाँ, रचनाकार के फोटो-परिचय सहित सचिव बालसाहित्य संस्थान दरबारीनगर, अल्मोड़ा, उ.खंड (विस्तृत जानकारी हेतु मो. 09412162950) के पते पर पंजीकृत डाक या कोरियर से 15 अप्रैल, 2017 तक आमंत्रित की गई हैं। सम्मान हेतु चयनित 10 साहित्यकारों को जून, 2017 में उत्तराखंड में आयोजित राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी में 2100/- रुपए नकद, प्रशस्ति पत्र, शॉल तथा स्मृति चिह्न भेंट किया जाएगा। लोरी, शिशु गीत, बाल गीत, बाल कविता, बाल कहानी, बाल उपन्यास, बाल जीवनी, यात्रा वृतांत, संस्मरण, बाल एकांकी आदि विधाओं पर पुरस्कार दिए जाते हैं।  संस्थान की ओर से विगत 3 वर्षो में सम्मानित साहित्यकार प्रविष्टि न भेजें। (समाचार सौजन्य : उदय किरौला)




काव्य-वीणा सम्मान के लिए प्रविष्टियाँ आमंत्रित
कोलकाता की राष्ट्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक व सामाजिक संस्था ‘परिवार मिलन’ ने रु. 51000/- के काव्य-वीणा सम्मान हेतु वर्ष 2005 के बाद प्रकाशित काव्य कृतियाँ (4 प्रतियों में) रचनाकार के संक्षिप्त परिचय व पासपोर्ट आकार के दो फोटो सहित 30 अप्रैल 2017 तक 4, एस.एन. चटर्जी रोड, बेहाला, कोलकाता-700038 (दूरभाष 24477957/23983128) के पते आमंत्रिक की हैं। कृति के कला एवं भाव, दोनों ही पक्षों के आधार मूल्यांकन किया जायेगा। (समाचार सौजन्य: राजेन्द्र कानूनगो)




कृष्ण कुमार यादव ‘मानसश्री सम्मान’ से विभूषित
हिंदी साहित्य सृजन के क्षेत्र में उत्कृष्ट सेवाओं के लिए जोधपुर क्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएँ श्री कृष्ण कुमार यादव को मौन तीर्थ सेवार्थ फाउण्डेशन, उज्जैन द्वारा ‘मानसश्री सम्मान-2016’ से सम्मानित किया गया। श्री यादव को सम्मानस्वरुप स्मृति चिन्ह, प्रशस्ति पत्र और पाँच हजार रूपये की राशि दी गई। उज्जैन में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में श्री यादव को उक्त सम्मान मध्य प्रदेश के सूचना आयुक्त श्री हीरालाल त्रिवेदी और संतश्री सुमन भाई द्वारा प्रदान किया गया। श्री यादव की विभिन्न विधाओं में सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं लेखन के साथ ब्लॉगिंग से भी जुड़े हुए हैं। (समाचार सौजन्य : रत्नेश कुमार मौर्य)




कमल कपूर के लघुकथा-संग्रह का लोकार्पण
सिरसा के युवक सदन में ‘प्रादेशिक लघुकथा मंच’ के तत्वावधान में कमल कपूर के  लघुकथा- संग्रह ‘आँगन-आँगन हरसिंगार’ का लोकार्पण डॉ. रूप देवगुण, डॉ अशोक भाटिया, डॉ शमीम शर्मा, कमलेश भारतीय एवं सरदार विक्रमजीत सिंह रे के कर-कुसुमों से सम्पन्न हुआ। कृति में पारिवारिक-सामाजिक सरोकारों से जुड़ी 97 लघुकथाएँ हैं। (समाचार सौजन्य : कमल कपूर)    

शुक्रवार, 26 मई 2017

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल: 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


छायाचित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल 
   ।।सामग्री।।
कृपया सम्बंधित सामग्री के पृष्ठ पर जाने के लिए स्तम्भ के साथ कोष्ठक में दिए लिंक पर क्लिक करें।


सम्पादकीय पृष्ठ {सम्पादकीय पृष्ठ}:  नई पोस्ट नहीं।

अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} :  इस अंक में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. कपिलेश भोज,जितेन्द्र जौहर, डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, डॉ. गिरीश चन्द्र पाण्डेय ‘प्रतीक’ व हमीद कानपुरी की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. अशोक भाटिया, डॉ. सिमर सदोष व मार्टिन जॉन  की लघुकथाएँ।

कहानी {कथा कहानी} : इस अंक में सुशांत सुप्रिय की कहानी ‘हमला’ व छत्रसाल क्षितिज की ‘भूलना मत...’।

लघुकथा : अगली पीढ़ी  {लघुकथा : अगली पीढ़ी} : इस अंक में दीपक मशाल की लघुकथाओं पर उमेश महादोषी की प्रस्तुति ।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ} : अब से क्षणिकाओं एवं क्षणिका सम्बन्धी सामग्री के लिए ‘समकालीन क्षणिका’ ब्लॉग  जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें-

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में प्रतापसिंह सोढ़ी व डॉ. सुषमा सिंह के हाइकु।

किताबें {किताबें} :  इस अंक में वाणी दवे के लघुकथा संग्रह  ‘अस्थायी चार दिवारी’  की प्रो. बी. एल. आच्छा द्वारा, कमल चोपड़ा के लघुकथा संग्रह ‘अनर्थ’ की राधेश्याम भारतीय द्वारा व  हरिशंकर शर्मा जी की पुस्तक ‘शहर की पगडंडियाँ’ की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा समीक्षाएँ।

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017




।।कविता अनवरत।।


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’



बंजारे हम
जनम-जनम के बंजारे हम
बस्ती बाँध न पाएगी।
अपना डेरा वहीं लगेगा
शाम जहाँ हो जाएगी।

जो भी हमको मिला राह में
बोल प्यार के बोल दिये।
कुछ भी नहीं छुपाया दिल में
दरवाजे सब खोल दिये।
निश्छल रहना बहते जाना
नदी जहाँ तक जाएगी।

ख्वाब नहीं महलों के देखे
चट्टानों पर सोए हम।
फिर क्यों कुछ कंकड़ पाने को
रो-रो नयन भिगोएँ हम।
मस्ती अपना हाथ पकड़ कर
मंज़िल तक ले जाएगी।

ओ चिरैया
छायाचित्र : डॉ. बलराम अग्रवाल 

ओ चिरैया!
कितनी गहरी 
हुई है तेरी प्यास!

जंगल जलकर
खाक हुए हैं
पर्वत-घाटी 
राख हुए हैं।
आँखों में 
हरदम चुभता है
धुआँ-धुआँ आकाश।

तपती 
लोहे-सी चट्टानें 
धूप चली 
धरती पिघलाने
सपनों में
बादल आ बरसे,
जागे, हुए उदास।

उड़ी है
निन्दा जैसी धूल,
चुभन-भरे
पग-पग हैं बबूल
यही चुभन
रचती है तेरी-
पीड़ा का इतिहास।

कुछ वीर छन्द...

एक तरफ़ हैं वीर बाँकुरे, मस्तक अर्पण को तैयार।
दूजी ओर डटे बातूनी, बातों की भाँजें तलवार।।

अगर देश की रक्षा करना, कर लो अब इनकी पहचान।
रेखाचित्र  : उमेश महादोषी 

खाते-हैं ये अन्न वतन का, और ज़ुबाँ पर पाकिस्तान।।

गद्दारों ने सदा दगा की, लूटा अपना हिन्दुस्तान।
बीज सदा नफ़रत के बोए, खोया भारत का सम्मान।।

सीमा पर गोलों की वर्षा,  प्राण लुटाते सच्चे लाल।
मस्ती करते कायर घर में, खूब उड़ाते हैं तर माल।।

भेजो इनको सीमाओं पर, समझेंगे अपनी औकात।
आ जाएगी अक्ल इन्हें फिर, खाएँगे जब जूते लात।।
  • जी-902,जे एम अरोमा, सेक्टर-75, नोएडा-201301, उ.प्र./मोबा. 09313727493

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अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  05-06,  जनवरी-फ़रवरी  2017



डॉ. कपिलेश भोज



तुम्हारा मिलना

तुम्हारा मुस्कुरा कर मिलना
जैसे
सहसा उमंगों का समंदर
लहरा कर
आ गया हो पास


और
तुम्हारा चंद कदम साथ चलना
जैसे
भीतर उमड़ पड़ा हो
ऊर्जा का ज्वार


फिर तुम्हारा बोलना
जैसे
रातरानी की गंध से
गमक उठा हो
ताज़ा हवा का
रेखाचित्र  : रमेश गौतम 

एक स्नेहिल झोंका...

तलाशकभी कौसानी
कभी सोमेश्वर
कभी अल्मोड़ा
कभी नैनीताल की
जानी-पहचानी सड़कों
और कभी
किसी निचाट दुपहरी में
अपने गाँव लखनाड़ी के
दरख़्तों के बीच गुजरती
ख़ामोश पगडंडी पर
चहलक़दमी करते हुए
किसे ढूँढ़ रहा हूँ मैं
और
बार-बार क्यों लौट आता हूँ
रीता का रीता


प्रकृति की मोहकता भी
क्यों नहीं दे पा रही
मुझे सुकून


आख़िर कब मिलेंगे मुझे
अपनत्व भरे हृदय
और/कब दिखेंगे
स्नेह से छलछलाते नयन...
और कब तक रहेगी जारी
यह तलाश...
  • सोमेश्वर, जिला अल्मोड़ा-263637 (उत्तराखण्ड)/मोबा. 08958983636

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जितेन्द्र जौहर



मुक्तक

01.
किसी दरवेश के किरदार-सा जीवन जिया होता।
हृदय के सिंधु का अनमोल अमरित भी पिया होता।
नहीं होता तृषातुर मन, हिरन-सा रेत में व्याकुल
अगर अन्तःकरण का आपने मंथन किया होता।

02.
नहीं है आरजू कोई कि मुझको मालो-ज़र दे दे।
तू लम्बी ज़िन्दगी दे या कि मुझको मुख़्तसर दे दे।
मुझे जो भी दे, जैसा दे, सभी मंजूर है लेकिन
इनायत कर यही मुझ पर कि जीने का हुनर दे दे।

03.
मुकद्दर आज़माने से, किसी को कुछ नहीं मिलता।
रेखाचित्र : संदीप राशिनकर 

फ़क़त आँसू बहाने से, किसी को कुछ नहीं मिलता।
हरिक नेमत उसे मिलती, पसीना जो बहाता है
कि श्रम से जी चुराने से किसी को कुछ नहीं मिलता।

04.
जिधर देखो, उधर केवल, अँधेरा ही अँधेरा है।
निशा के जाल में उलझा हुआ, घायल सवेरा है।
बुरे हालात हैं ‘जौहर’, नगर से राजधानी तक
सियासत के दरख़्तों पर, उलूकों का बसेरा है।
  • आई आर- 13/6, रेणुसागर, सोनभद्र-231218, उ.प्र./मोबा. 09450320472

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डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा



सत्य छुपाया तम ने....
आज पुकारा है जननी ने, जाग ज़रा सोई सन्तान!
फ़र्ज़ निभाने की बेला है, बदनीयत ताके शैतान।।

बढ़े शहर की ओर, बोलते, फिरें घूमते रंगे सियार।
इनके दिल में खौफ जगा दे, तू भी भर ऐसी हुंकार।।

भाँति-भाँति के भ्रम फैलाते, कुछ अपने घर के ग़द्दार।
सबक़ सिखाना बहुत ज़रूरी, बनना दो-धारी तलवार।।

चन्दन वन को खूब मिले हैं, सत्य सदा सर्पों के हार।
लेकिन मानव के हित, रखना, उन्हें कुचलने का अधिकार।।
छायाचित्र : उमेश महादोषी 


जिनके पास दया ना ममता, जिन्हें प्रिय मारक हथियार।
सीख यही इतिहास सिखाता, करो तुरत उनका संहार।।

एक बार की भूल क्षमा हो, फिर कुटिलों पर कुटिल प्रहार।
सोलह बार छोड़िए, ज़िंदा, रहे न दुश्मन दूजी बार।।

मुझे सुहाए गले मात के, वीरा अरि मुण्डों की माल।
दिप-दिप दमके स्वर्ण शिखरिणी, फिर जननी का उन्नत भाल।।

सूरज चमका ज़ोर गगन में, दिशा-दिशा फैला उजियार।
सत्य छुपाया तम ने लेकिन, आकर रवि ने दिया उघार।।

  • टॉवर एच-604, प्रमुख हिल्स, छरवडा रोड, वापी , जिला वलसाड-396191(गुजरात)