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मंगलवार, 3 अक्तूबर 2017

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  07-10,  मार्च-जून 2017





।। किताबें ।।




डॉ. उमेश महादोषी



समाज के यथार्थ को अनावृत करती लघुकथाएँ 

अशोक गुजराती हिन्दी लघुकथा के साथ आन्दोलन काल से ही जुड़े हैं। लघुकथा में उनका योगदान मुख्यतः एक सृजक के रूप में ही रहा है, सृजन से इतर कार्य उन्होंने कम ही किया है। अशोक जी की लघुकथाओं का दूसरा संग्रह ‘अंदाज नया’ हाल ही में आया है। इसमें उनकी 71 लघुकथाएँ संग्रहित है। ये लघुकथाएँ सामाजिक जीवन की विसंगतियों और मानवीय चरित्र में आई गिरावट से जुड़े कथ्यों को लेकर सामने आती हैं। पहली ही लघुकथा ‘तेरा तुझको अर्पित, क्या लागे मेरा’ ईमानदारी के आवरण में भी लूट का तरीका खोज लेने के मानवीय चरित्र पर गम्भीर टिप्पणी करती है। लेकिन लूट का यह मामला एकतरफा नहीं है, ऐसी लूट होती इसलिए है कि अपने-अपने लालच की चादर में लिपटे लोग लुटने को तैयार बैठे हैं। परीक्षा में पास होना हो या नौकरी अर्जित करना हो, ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे, जहाँ लोग अपने परिश्रम से अधिक अविश्वसनीय मध्यस्थों पर विश्वास करके अपने लुटने का प्रबंध स्वयं ही करते हैं। दरअसल ये लोग भी तो अप्रत्यक्षतः दूसरों के अवसरों को लूटने की मंशा से ग्रस्त होते हैं। 
      लचर कानून व्यवस्था से मनुष्य इतना भयग्रस्त और भीरु-चरित्र बन रहा है कि वह अपराधियों का शिकार बनकर चाहते हुए भी प्रतिकार नहीं कर पाता। ‘प्रतिगमन’ इसी तथ्य को अनावृत करती है। युवा वय की दोस्ती में पारस्परिक संवादों में लफंगई भाषा का उपयोग स्वभाव में रच-बसकर कितना असावधान बना देता है, इसे ‘संस्कृति’ लघुकथा में देखा जा सकता है। एक्सीडेंट में घायल व्यक्ति की मदद करना बहुधा व्यक्ति को बड़ी परेशानी में डाल देता है, इसे ‘मौत संवेदना की’ में दर्शाया गया है। यद्यपि कानूनी तौर पर इस स्थिति को बदलने के प्रयास हो रहे हैं, किन्तु व्यावहारिक स्तर पर ऐसी ही स्थितियों के चलते मदद करने से पहले लोग हजार बार सोचते हैं। भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं होती, भलेे उसमें संलिप्त व्यक्तियों की होती हो। एक व्यक्ति उसे जहाँ छोड़ता है, दूसरा उससे आगे ले जाता है। भ्रष्टाचार की इस ‘रिले रेस’ में भुक्तभोगी भी मौका मिलने पर पीछे नहीं रहता। लेकिन इस लघुकथा में जो सेल्स टेक्स इंसपेक्टर हजारों की रिश्वत लेता है, उसका स्वयं ढाई सौ रुपये की रिश्वत देने में बखेड़ा खड़ा करना कथ्य और उसे शीर्षक से मिलने वाले सपोर्ट को कमजोर बनाता है। ऐसे में प्रस्तुतीकरण पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान देना चाहिए।
     सामान्य कथ्यों पर केन्द्रित ऐसी अनेक रचनाओं के मध्य कुछ ऐसी भी हैं, जो पाठकों-समालोचकों का अलग से ध्यान खींचती हैं। इनमें एक है ‘परिणति’। मित्र की मृत्यु के दुःख से छुटकारा पाने के लिए पत्नी-साहचर्य का नशा! मनुष्य के इस चरित्र को रचनात्मकता के स्तर पर किस तरह स्वीकार किया जाये, एक कठिन प्रश्न है। ‘स्वत्व’ का अंतिम संवाद, ‘‘साब मारते क्यों हो... आप बी तो रोड पे तुरत जाने को कई बार फाटक से उधर निकलते हो... हम मारते हैं क्या...?’’ इसे स्मरणीय बना देता है। बड़ों व बच्चों के मनोविज्ञान को आमने-सामने खड़ा करती ‘श्रेणी-भेद’ और अविश्वास व विपरीत परिस्थितियों में भी रिश्तों के सम्मान को बचाए रखने का सन्देश देती ‘तीसरा’ भी स्मरणीय हैं। 
      भूमिका में डॉ. बलराम अग्रवाल की यह टिप्पणी अशोक गुजरातीे के लघुकथा-सृजन का यथार्थ हमारे सामने रखती है- ‘‘उनके पास स्थितियों को निरखने-परखने-आकलित करने की गहन मनोवैज्ञानिक दृष्टि तो है ही, व्यंग्याभिव्यक्ति का पैना और अचूक औजार भी है। उनमें कथा धैर्य गज़ब का है और कथा को वह कहीं से भी शुरू करने का माद्दा रखते हैं।... लेकिन उनकी लघुकथाओं का शिल्प, यहाँ तक कि भाषा-निर्वाह भी कभी-कभी लघुकथा जैसा न होकर कहानी-जैसा हो जाता है तो कहीं निबंधपरक (उदाहरणार्थ ‘शापग्रस्त’) भी हो गया है।’’ एक अनुभवी रचनाकार के रूप में हमें अशोक जी की लघुकथाओं के माध्यम से समाज के यथार्थ तक पहुँचने और उसे समझने का अवसर इस संग्रह से अवश्य मिलेगा, क्योंकि समाज के यथार्थ को अनावृत करना ही इन लघुकथाओं का उद्देश्य है।
अंदाज़ नया : लघुकथा संग्रह : डॉ. अशोक गुजराती। प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-30। मूल्य : रु. 240/- मात्र। संस्करण : 2016।
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