आपका परिचय

रविवार, 12 नवंबर 2017

लघुकथा विमर्श

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017




{इस ब्लॉग के जुलाई-अगस्त 2017 अंक तक लघुकथा सम्बंधी आलेख एवं साक्षात्कार ‘अविराम विमर्श’  स्तम्भ में प्रकाशित किए जाते रहे हैं। इस अंक से लघुकथा विमर्श सम्बंधी समस्त सामग्री इस नए स्तम्भ ‘लघुकथा विमर्श’ स्तम्भ में ही जाएगी। कृपया पूर्व में प्रकाशित लघुकथा विमर्श की खोज ‘अविराम विमर्श’ स्तम्भ में ही करें।}



डॉ. पुरूषोत्तम दुबे




महाराष्ट्र : लघुकथा का आसमान साफ है


      हिन्दीतर महाराष्ट्र प्रांत से हिन्दी की सोच से परिपूरित होकर हिन्दी लघुकथा का आना हिन्दी लघुकथा सर्जन के सम्मान में एक महती प्रदेय है। महाराष्ट्र से परोसे जाने वाली लघुकथाएँ स्वयं लघुकथाकारों के आन्तरिक द्वन्द्वों से परिचालित होकर लिखी गई मिलती है। यही कारण है कि यहाँ का लघुकथाकार आन्तरिक तौर पर वैचारिक द्वन्द्वों से उत्पन्न तनाव की स्थिति को पहले भोगता नजर आता है। फिर लघुकथाआंे मंे ऐसे भोगे हुए तनावों को उनके यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है। महाराष्ट्र से आने वाली लघुकथाआंे का यदि बारीकी से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि यहाँ के लघुकथाकार ‘केवल लघुकथा हो गई’ सरीखे निराकरण पर यकीन न करके लिखी गई लघुकथा पर बारम्बार विचार कर देश-काल और परिवेश की जरूरत की दृष्टि से उसमें अपेक्षित सुधार कर लघुकथा को अन्तिम रूप देता है। अतएव महाराष्ट्र से आने वाली लघुकथाऐं भाव-प्रवणता से कहीं अधिक विचार प्रवणता से ओत-प्रोत हुई मिलती हैं।
      शब्द जब वाक्य में ढलता है तब लघुकथा अथवा सर्जनात्मक लेखन बनता है। अकेले ‘नाव’ भर लिख देने से नदी और नदी के दोनों तटों का आभास उभर कर सामने आता है। इस सिलसिले मंे हिन्दी के स्थापित समीक्षक रमेश दवे का कहना महत्वपूर्ण है कि ‘‘शब्द की सृष्टि उसके अकेेलेपन में एक भौतिक भाषाई इकाई है लेकिन जब वह सन्दर्भवान, अर्थवान और वाक्यवान होता है तो विचार भी हो जाता है और संवेदन के या सौन्दर्य के नाना रूप धारण कर कविता, कहानी, नाटक, कलाकृति भी बन जाता है।’’ शब्द की यही सृष्टि लघुकथा का विन्यास भी रचती है।
      महाराष्ट्र से आने वाले स्थापित और श्रेष्ठी लघुकथाकारों में शंकर पुणताम्बेकर, घनश्याम अग्रवाल, भगवान वैध ‘प्रखर’, डॉ. दामोदर खड़से, अनन्त श्रीमाली, अशोक गुजराती और सेवासदन प्रसाद के नाम उल्लेखनीय है। इनमें से शंकर पुणताम्बेकर की लघुकथाएँ सामाजिक साम्य और वैषम्य से टकराती मिलती है। उनकी लघुकथा ‘चुनाव’ इन्सपेक्टर राज्य के प्रभुत्व को वर्णित करती है। स्कूल शिक्षक अपने सजातीय पेशे वाले स्कूल इन्सपेक्टर के बच्चे को पहले नम्बर से उत्तीर्ण नहीं करते हुए पुलिस इन्सपेक्टर के बच्चे को पहले नम्बर से उत्तीर्ण करता है। कहने की जरूरत नहीं देश के डण्डा राज्य से पाठक और समाज भलीभांति परिचित है। उनकी ‘चींटी और कबूतर’ लघुकथा ऐसे दनुज के चरित्र को बखान करती मिलती है, जो कालाबाजारी और करचोरी में माहिर होकर समाज में अपना उजला मुखौटा बनाए रखने में अपने संरक्षको के कार्यक्रमों के आयोजनांें के भारी खर्च उठाता है। घनश्याम अग्रवाल की लघुकथाएँ सामाजिक संदर्भो से जुड़ी हुई होकर सामाजिक यथार्थ का कटु रूप उपस्थित करती मिलती है। स्त्री-विमर्श पर केन्द्रित आपकी दो लघुकथाएँ ‘रोटी, कपड़ा मकान’ तथा ‘औरत का गहना’ एक ही साँचे में ढली मगर पृथक-पृथक ऐसी दो स्त्रियों की दास्तानें व्यक्त करती है कि जिन्दा रहने के लिए उन्हंे देह व्यापार के लिए विवश होना पड़ता है और ऐसे कुत्सित व्यापार में शर्म का गहना तक बेच देना होता है। भगवान वैद्य ‘प्रखर’ की लघुकथाएँ ‘विकल्प’ तथा ‘अभिलेख’ अपने ढंग की अलग लघुकथाएँ हैं। ‘विकल्प' लघुकथा में नशाखोर पति खुद के लिए शराब की व्यवस्था जुटाने में अपनी पत्नी को ठेकेदार का हमबिस्तर बनने में झोंक देता है। ‘अभिलेख’ लघुकथा वन-विभाग की उन काली करतूतों को उजागर करती है जिसके अफसरशाह अपनी जेबों में काली कमाई के हरे-हरे नोट भरने हेतु हरे-भरे जंगलों को क्रूरता के साथ जलाकर उनमें फिर से हरियाली रोपने के उद्यम में  दोहरा लाभ उठाते हैं। डॉ. दामोदर खड़से की लघुकथाएँ ‘युक्ति’ और ‘भक्ति’ दोनो धर्म केन्द्रित है। ‘युक्ति लघुकथा में एक पत्थर को सिन्दूर में पोतकर घर की उस दीवार मंे सटकर रख दिया जाता है, जिससे सटकर हर आने जाने वाला जिसको पेशाब घर के रूप में इस्तेमाल करता है और ऐसे पेशाबियों पर नियंत्रण की दृष्टि से उसी दीवार पर ‘बजरंग बली की जय’ लिख दिया जाता है। लघुकथा ‘भक्ति’ दर्शाती है कि वर्तमान में सारे जंगल फल विहीन हो गए हैं, ऐसे में भूख को मिटाने वीर हनुमान कहाँ जाए! अतः वे साक्षात रूप मेें एक बस्ती में प्रकट होते हैं मगर उन पर कोई विश्वास नहीं करता। वे यहाँ मखौल के पात्र बनते हैं, बावजूद इसके अपना परलोक सुधारने में एक वृद्ध उनके चरणों में झुक जाता है। इस प्रकार लघुकथा ‘भक्ति’ समाज में वासित अंधविश्वासी लोगों के लिये स्वर्ग की टिकिट के द्वार खोलती मिलती है।
      अनन्त श्रीमाली की लघुकथाओं- कर्फ्यू, सत्संग तथा हिसाब-किताब में से लघुकथा ‘कर्फ्यू’ सामाजिक सहिष्णुता के बल पर हिन्दू-मुस्लिम को एक साथ चाय पीते हुए वर्णित करती है बरअक्स इसके सामाजिक असहिष्णुता की चिंगारी से लथ-पथ होकर पारस्परिक समभाव को मेटने में हिन्दू-मुस्लिम के यही वर्ग समाज में साम्प्रदायिक आग को भड़काते हैं। अशोक गुजराती की लघुकथाएँ- नौकरी चाहिए, सेल का खेल और हींग लगे न फिटकरी; तीनों ही वर्तमान सन्दर्भो से आप्लावित है। लेकिन उनकी ‘हींग लगे न फिटकरी’ लघुकथा वास्तव में इसी मुहावरे को चरितार्थ करती प्रतीत होती है। प्रस्तुत लघुकथा में कॉलेज की नेतागिरी से उठे एक ऐसे छात्र पर केन्द्रित है जो अपनी विचारधाराओं के दल में शामिल होकर नगर निगम का चुनाव जीत लेता है, फिर थोड़ा रसूखदार बनकर अपने दल के सत्तासीन होेने का फायदा अपने नाम पेट्रोल पंप आवंटित कराकर उठाता है। अंत में सेवासदन प्रसाद की लघुकथा ‘नये साल का विष’ राष्ट्र की चिंता में ऐसे युवक को नायक बनाकर पेश करती है, जो इंजीनियर अथवा डॉक्टर बनकर विदेश में जाने की बजाए गुणी नेता बनकर अपने देश को तरक्की की राह पर खड़ा करना चाहता है। प्रस्तुत लघुकथा भारतीय युवाओं के विदेश के सिलसिले में हो रहे ‘ब्रेन ड्रेन’ के स्थान पर अपने ही देश के हित में ‘ब्रेन गेन’ के उपयोगी प्रतीकों को लेकर घटती है। 
      महाराष्ट्र की लघुकथाओं पर मैं मानता हूँ कि यह आलेख, महाराष्ट्र की लघुकथाओें के विवेचन के संदर्भ में नाकाफी है, लेकिन उक्त विवेचित लघुकथाओं के कई छोर वर्तमान के लघुकथाकारों को लघुकथा विषयक सर्जन हेतु दिशा-बोध कराने में महत्वपूर्ण है। महाराष्ट्र का साहित्यिक परिवेश समुन्नत है, यहाँ से आने वाले नाटकों की एक समृद्ध परम्परा रही है। बंगाल की तरह ही महाराष्ट्र के नाटककारों का वर्चस्व कायम है। लघुकथाओं की सटीकता प्रायः सम्वादों के बूते से कथानकों की बनावट और बुनावट पर अधिक निर्भर करती है, अतएव लघुकथा मंे लघुकथाओं को अनावश्यक विस्तार से बचाने मेें सम्वादों का कैसे उपयोग किया जा सकता है, इसकी प्राथमिक और महती सूझ-बूझ को हासिल करने की दिशा में महाराष्ट्र की लघुकथाएँ अत्यन्त श्रेयस्कर हैं।

  • शशीपुष्प 74-जे/ए, स्कीम नं. 71, इन्दौर-452009, म.प्र./मो. 09407186940

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017



 {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कालौनी, बदायूं रोड, बरेली, उ.प्र. के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें।स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा }



डॉ. उमेश महादोषी




पीड़ा की एक नदी
‘‘जो भी हमको मिला राह में, बोल प्यार के बोल दिए।/कुछ भी नहीं छुपाया दिल में, दरवाज़े सब खोल दिए।/निश्छल रहना बहते जाना, नदी जहाँ तक जाएगी।’’ रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी की ‘मैं घर लौटा’ काव्य संग्रह की ये पंक्तियाँ महज बंजारों की प्रकृति का चित्रण नहीं करती, स्वयं उनके अपने स्वभाव को भी खोलकर दुनिया के सामने रख देती हैं। हम हिमांशुजी के सृजक से मिलें या व्यक्ति से, उनकी सहजता, सरलता और अनौपचारिकता कुछ ही क्षणों में प्रस्फुटित होकर सामने आ जाती है। एक कवि के
लिए यह सहजता, सरलता और अनौपचारिकता बेहद जरूरी होती है, क्योंकि इन चीजों का संवेदना और उसे संपुष्ट करने वाली न्यायसंगतता के साथ एक रिश्ता होता है। लघुकथा व हाइकु-ताँका के सृजन-अभियानों में अग्रणी भूमिका के साथ उन्होंने काव्य की लगभग हर विधा में सृजन किया है। उनके काव्य-सृजन में भाव और विचार से जुड़ी अनुभूतियों की प्रभावशाली अभिव्यक्ति मिलती है। हिमांशुजी की काव्य रचनाओं के भाव-विचार अद्यतन जीवन-मूल्यों के साथ परिवेशगत वातावरण से आते हैं। यही कारण है कि ‘मैं घर लौटा’ में शामिल उनकी 85 काव्य रचनाओं में से अधिकांश पाठक मन को छू जाती हैं। इन रचनाओं में एक ओर समाज के अनेक वर्गों-समूहों की परिस्थितियों एवं पीड़ा को अभिव्यक्ति मिली है तो मनुष्य की परिवेशजनित सामान्य पीड़ा भी उभरकर सामने आई है। 
      ‘पुरबिया मजदूर’, उनकी परिस्थितियों और उनके प्रति कथित संभ्रांत वर्ग के आचरण को हम सबने देखा है। हिमांशुजी उसे देखकर इस कदर व्यथित हो जाते हैं कि उनके अंतर्मन से एक लम्बी कविता फूटकर सामने खड़ी हो जाती है। ‘‘सफ़र में जो भी टकराता है/जी भरकर गरियाता है/कुहुनी से इसको ठेलकर/खुद पसर जाता है।’’... ‘‘टिकट होने पर भी/प्लेटफार्म पर छूट जाता है/भगदड़ होने पर/पुलिस के डण्डे खाता है,/सिर और पीठ सहलाता है।’’ हिमांशुजी इस संभावना को टटोलना चाहते हैं कि क्या संभ्रांत वर्ग उस ‘पुरबिया मजदूर’ के पसीने के अवदान को स्वीकार करके उसके प्रति अपना आचरण बदलेगा? हालांकि हम सब जानते हैं कि यह वो देश है, जहाँ ‘गरीब रथों’ पर अमीरों का कब्जा होता है और गरीब इन रथों को सपनों की तरह सामने से गुजरता देखता रहता है।
      कवि द्वार से लौटे याचक की पीड़ा को आत्मसात् करके भी व्यथित हो उठता है। लेकिन ‘याचना’ को धंधा बना चुके लोग इस पीड़ा के यथार्थ को संवेदना की सामजिक समझ के दरवाजे तक जाने दें तो कुछ बात बने। बंजारों की फक्कड़ मस्ती और बेटियों की मुस्कानों से आह्लादित कवि को ‘हाँफता हुआ बच्चा’ अपने बस्ते के बोझ से पुनः व्यथित कर जाता है। कवि की संवेदना का यह विस्तार घर बनाने वालों, दिया बनाने वालों आदि तक जाता है।
      मानवीय व्यवहार और रिश्तों से जनित दैनन्दिन पीड़ा इन रचनाओं में कई कदम आगे बढ़कर अभिव्यक्ति पाती है- ‘‘बाँटने आता न कोई/प्यार की पाती यहाँ,/बाँटने आते सभी हैं/दुःख भरी थाती यहाँ।/नाम रिश्तों का रटें/लेकर दुधारा/याद रखना।’’ इन दुःखों का भार सहने का रास्ता भी सुझाता है कवि- ‘‘सुख मिलने का/भरम लिये ही/भार दुःखों का ढोना/हँसी मिलेगी/यही सोचकर/एक उमर तक रोना।/गीली आँखें/पोंछ दर्द को/सहलाते रहना।’’ विभिन्न प्रतीकों-बिम्बों के सहारे अनेक जीवनानुभूतियों और मानव-मन की पीड़ा के विभिन्न रूप संग्रह को विविधिता से आच्छादित करते हैं। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है। राजनैतिक संरक्षण में पनपती लूट और लम्पटपन की संस्कृति पर पैने कटाक्ष भी इस संग्रह का हिस्सा बनकर मौजूदा परिवेश को विवस्त्र कर देते हैं। ‘कहाँ चले गए हैं गिद्ध?’ कविता में चिन्ता और संवेदना को व्यंजना की चादर पर फैलाकर हिमांशुजी जिस तरह धूप दिखाते हैं, वह निसंदेह प्रभावशाली है। समय-समय पर समाज और राष्ट्र के ताने-बाने को तार-तार करने पर आमादा जमात विशेष पर भी कवि ने अपनी व्यंजना के तीर कस-कस कर मारे हैं। ‘‘...लूटो-खाओ, पियो-पिलाओ- आज़ादी है।/....नफरत पलती बस्ती जलती- आज़ादी है।/...जिसका जूता, उसका बूता- आज़ादी है।....’’ संग्रह में कुछ ऐसी रचनाएँ भी हैं जो कवि के स्वाभिमानी और प्रतिनिधि व्यक्तित्व की दृढ़ता को भी सामने रखती हैं।
     अभिव्यक्ति के विविध रूपों को अपने में समाहित किए इस संग्रह को पीड़ा की एक नदी कहना अतार्किक नहीं होगा। इस नदी को पार करने के लिए कवि मानव-मन को सांत्वना देना नहीं भूलता- ‘‘दुःख की नदी बहुत है लम्बी, बहुत ही छोटी नैया/...../दूर किनारा, गहरी धारा, देख नहीं घबराएँ।’’ हिमांशुजी जैसा कवि अपने तमाम अभिव्यक्ति आचरण-व्यवहार को बिना किसी संगत उद्देश्य के जमीन पर नहीं उतारता। उनकी यह कामना इसी ओर संकेत करती है- ‘‘...हरियाली ले आऊँ/खुशहाली दे पाऊँ/नेह-नीर बरसाऊँ/धरती को सरसाऊँ...’’। मुझे कहना ही पड़ेगा- ऐसी काव्याभिव्यक्ति आज के समय की जरूरत है।


मैं घर लौटा : काव्य-संग्रह : रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’। प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-30। मूल्य : रु. 360/- मात्र। सं. : 2015।


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अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  7,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2017



डॉ. उमेश महादोषी





एक निर्विकार दुनिया का सपना
      उपन्यास जीवन व्यवहार का विशिष्ट विन्यास होता है। उसमें एक केन्द्रीय विषय होने के बावजूद जीवन व्यवहार के कई अन्य पक्षों पर भी अपना मन्तव्य रखने का लेखक के पास भरपूर अवसर होता है। औपन्यासिक रचना में पाठकों की अपेक्षाओं और अनेक व्यावहारिक आवश्यकताओं के निर्वहन के बावजूद लेखक अपने दृष्टिकोंण और कौशल को प्रस्तुत करने और उसके लिए पाठकों का समर्थन हासिल करने का प्रयास कर सकता है और करता भी है। इस दृष्टि से श्री एस. एम. रस्तोगी
‘शान्त’ ने अपने काव्योपन्यास (जो कि नई कविता की शैली में एक अनूठी रचना है) ‘सृष्टि-जनक’ में उसके केन्द्रीय विषय ‘प्रेम’ की एक अनूठी व्याखा प्रस्तुत की है। इस व्याखा में स्वाभाविकता और लेखक की अपनी दृष्टि के प्रभाव का संगम आकर्षित करता है। उपन्यास के उत्तरार्द्ध में कथानायक विवेक कथानायिका, अपनी प्रेमिका- विभा, जो असमय काल का ग्रास बनने से पूर्व एक अनौखे तरीके से उसकी पत्नी बन जाती है, जिससे विवेक बेइंतिहा प्रेम करता है, इतना प्रेम कि एक मिसाल खड़ी हो जाती है; की प्रतिमूर्ति राधा से मिलता है, जो उसी के नए कार्यालय में उसकी अधनस्थ कर्मचारी है। राधा को देखने पर वह उसे विभा समझ बैठता है। लेकिन विभा तो दुनिया से जा चुकी है! उपन्यास की केन्द्रीय भूमिका यहीं पर आकर उभरती है। राधा को देखकर विवेक की दशा क्या होती है, उससे भी अधिक राधा पर क्या गुजरती है- एक ओर आफिस में होने वाली कानाफूसी और दूसरी ओर उसका अपना घर-परिवार, इस सबके मध्य विवेक द्वारा निरंतर ‘पूजा’ यानी बिना मार्यादाओं की सीमा के उलंघन के पवित्र प्रेम का अधिकार माँगना। राधा के रूप में विभा की प्रतिमूर्ति विवेक की सुसुप्तावस्था में पड़ी काव्यात्मा को जगा देती है। विवेक राधा को निरंतर कुछ न कुछ लिखकर देता है, जिसमें उसकी अपनी बेचैनी है, याचना है और कविता भी। लेकिन राधा यथाशक्ति इस सबको हँसकर टालती है। विवेक के इष्टमित्र, जो उसके जीवन का हिस्सा हैं, भी राधा से मिलते हैं, तो उसे विभा ही मानकर व्यवहार करते है। राधा परेशान होने लगती है। लेकिन इस उत्तरार्द्ध का अंत, जोकि उपन्यास का भी संपन्न होना है, राधा के द्वारा विभा के प्रति विवेक के निस्वार्थ प्रेम, जो भले विभा की प्रतिमूर्ति होने के कारण स्वयं राधा पर आरोपित हो रहा है, को आत्मसात् करने से होता है। विवेक के हृदयस्थ प्रेम की सृष्टि के जनक को आत्मसात् करने से होता है। दुनिया की तमाम कठिनाइयों और परीक्षाओं से जूझने वाला विवेक का शरीर ब्लड कैंसर को प्रणाम कर इति का साक्ष्य हो जाता है। 
      रस्तोगी साहब ने विवेक के रूप में प्रेम, त्याग और कर्तव्य की प्रतिमूर्ति का जो चरित्र सृजित किया है, निसन्देह वह एक निर्विकार दुनिया का उनका सपना है। बहुत सारे दृश्यों, बहुत सारी कविताओं के माध्यम से इस चरित्र में अपनी रचनात्मक दृष्टि को उतारते दिखते हैं रस्तोगी जी। निराशा में डूबकर प्रेम की प्रेरणा कहीं कुम्हला न जाये, उनके प्रमुख पात्र की कलम से प्रेम समय के शरीर में प्रविष्ट होकर मुखरित होता है कुछ इस तरह- ‘‘माना कि तुम/उन उजालों के सफर से/बाहर आये हो बेदाग/और अब तुम्हें प्राप्य है/घोर अंधकार.../तुम्हें बाँटना है-/उस प्रकाश को/उसके अहसास को/पुष्प जैसे मृदुहास को/उसकी सुगन्ध को/जन जन में...’’। प्रेम का यही प्राप्य होता है, जो इस अनूठे कवि-कथाकार का अभीष्ट है। यदि ऐसा न होता तो प्रमुख सहयोगी पात्रों- आफताब, अनु, प्रफुल्ल घोष के रूप में भी जिस चारित्रिक दृढ़ता का ताना-बाना बुना है, उसकी स्थिति शायद कुछ और होती। इनके अलावा भी जितने चरित्र इस उपन्यास में सृजित किए गए हैं, वे भी एक खूबसूरत दुनिया की कल्पना की ओर ही हमें ले जाते हैं। विभा के पिता, सेठ कृष्ण बिहारी भार्गव द्वारा विभा व विवेक की शादी के प्रस्ताव को ठुकरा देना उनकी कठोरता का परिचायक हो सकता है, लेकिन उसका प्रायिश्चित और उसी विवेक को उसके यथार्थ रूप में स्वीकार करना कदाचित उपन्यास की मूल परिकल्पना के परिणाम के साथ ही खड़ा है।
     उपन्यास ‘सृष्टि-जनक’ के केन्द्र में ‘प्रेम’ की अनूठी व्याख्या के साथ जीवन व्यवहार के कई अन्य बिन्दुओं पर भी रस्तोगी की रचनात्मकता का सकारात्मक पक्ष देखने को मिलता है। विधर्मी साम्प्रदायिक उन्मादियों से घिर जाने पर विभा को बचाने के लिए जिस तरह आफताव और उसके डी.एस.पी. पिता अहमद हुसैन सामने आते हैं, वह हमारे समाज की समरसता को आगे बढ़ाने की लेखक की कामना का ही अंश है। विभा का परिवार हो, विवेक का हो या आफताव व प्रफुल्ल के परिवार हों, इन चारों का कॉलेज, वहाँ का वातावरण, प्रिंसपल की सदाशयता, विवेक के नए ऑफिस के प्रबंधक देवेश गोयल व उनके पिता और भी अनेक पात्र इस उपन्यास में आते हैं, लेकिन एकाद को छोड़कर सभी रिश्तों की जिस सुगंध को उत्सर्जित करते हैं, वह भी पाठक को उसी दिशा में ले जाती है, जहाँ उपन्यास सम्पन्न होकर लेखक की दृष्टि और कामना के साथ खड़ा होता है। विवेक द्वारा झोंपड़- बस्ती के पुनर्वास का कार्य भी इसी की कड़ी है। 
      कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम जो देखते हैं, उसमें हमारी अपेक्षाओं के प्रतिबिम्ब नहीं होते। लेकिन ऐसी ही चीजों से प्रेरित होकर हम वो सृजित करते हैं, जो समाज को हमारी अपेक्षाओं के प्रतिबिम्ब स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है। इस सन्दर्भ में, इस उपन्यास के लेखक द्वारा इसकी प्रस्तावना में लिखे इन शब्दों पर हम गौर करेंगे तो शायद ऐसा कुछ ही ध्वनित होता दिखे- ‘‘प्रस्तुत महाकाव्य के कुछ पात्रों से मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है, उनकी बिडम्बनाएँ सुनी हैं और समाज का नैतिकता या धर्म के नाम पर न स्वीकार करने वाला चेहरा भी देखा है।’’ भले व्यवहारिक दुनियाँ में खूबसूरती का अंश इतना न हो, किन्तु हमें आशावान तो होना ही चाहिए। कविता का उपयोग  सृजित उपन्यास में पाठकीय रुचि तो पैदा करता ही है, उसके साहित्यिक मूल्य को भी बढ़ा रहा है। 
सृष्टि जनक : काव्योपन्यास : एस.एम. रस्तोगी ‘शान्त’। प्रका. : अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्री.(प्रा.), 4697/3, 21-ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली। मू.: रु. 995/- मात्र। सं.: 2016।

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रविवार, 5 नवंबर 2017

ब्लॉग का मुखप्रष्ठ

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  : 11-12,  जुलाई-अगस्त 2017


प्रधान संपादिका : मध्यमा गुप्ता
संपादक :  डॉ. उमेश महादोषी (मोबाइल : 09458929004)
संपादन परामर्श :  डॉ. सुरेश सपन 
ई मेल :  aviramsahityaki@gmail.com 


शुल्क, प्रकाशन आदि संबंधी जानकारी इसी ब्लॉग के ‘अविराम का प्रकाशन’लेवल/खंड में दी गयी है।


श्रीनाथद्वारा स्थित
प्रभु श्रीनाथजी के मन्दिर का मुख्य द्वार
(छायाचित्र : उमेश महादोषी)




   ।।सामग्री।।
कृपया सम्बंधित सामग्री के पृष्ठ पर जाने के लिए स्तम्भ के साथ कोष्ठक में दिए लिंक पर क्लिक करें।






अविराम विस्तारित : 

काव्य रचनाएँ {कविता अनवरत} :  इस अंक में नारायण सिंह निर्दाेष, रामसनेही लाल शर्मा, शिवानन्द सिंह सहयोगी, महावीर रंवाल्टा की काव्य रचनाएँ।

लघुकथाएँ {कथा प्रवाह} : इस अंक में मधुदीप, उषा अग्रवाल ‘पारस’, अशफाक अहमद,  सत्य शुचि, कमलेश चौरसिया की लघुकथाएँ।

हाइकु व सम्बंधित विधाएँ {हाइकु व सम्बन्धित विधाएँ} :  इस अंक में  विभा रश्मि एवं वंदना सहाय के हाइकु।

क्षणिकाएँ {क्षणिकाएँ}  एवं क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श} : 
अब से क्षणिकाओं एवं क्षणिका सम्बन्धी सामग्री के लिए ‘समकालीन क्षणिका’ ब्लॉग पर जायें।  इसके लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें-

व्यंग्य रचनाएँ {व्यंग्य वाण} :  इस अंक में ध्रुव तांती का व्यंग्यालेख- 'शौचालय और हमारा चिंतन'।

साक्षात्कार {अविराम वार्ता} :  इस अंक में चक्रधर शुक्लजी द्वारा लिया गया वरिष्ठ साहित्यकार श्री श्यामसुन्दर निगमजी का साक्षात्कार

अविराम के अंक {अविराम के अंक} : इस अंक में अविराम साहित्यकी के जुलाई-सितम्बर 2017 मुद्रित अंक में प्रकाशित सामग्री की सूची।

किताबें {किताबें} :  इस अंक में इस अंक में डॉ.शील कौशिक के कविता संग्रह ‘खिड़की से झांकते ही’ की डॉ. बलराम अग्रवाल द्वारा एवं डॉ. सुधा गुप्ता के हाइगा संग्रह ‘हाइगा आनन्दिका’ की उमेश महादोषी द्वारा समीक्षाएँ। 

गतिविधियाँ {गतिविधियाँ} :  पिछले दिनों प्राप्त साहित्यिक गतिविधियों की सूचनाएं/समाचार।

अन्य स्तम्भ, जिनमें इस बार नई पोस्ट नहीं लगाई गई है

सम्पादकीय पृष्ठ {सम्पादकीय पृष्ठ}:  
कहानी {कथा कहानी} : 
जनक व अन्य सम्बंधित छंद {जनक व अन्य सम्बन्धित छन्द} :  
माँ की स्मृतियां {माँ की स्मृतियां} :  
बाल अविराम {बाल अविराम} :
संभावना {संभावना} :  
स्मरण-संस्मरण {स्मरण-संस्मरण} : 
अविराम विमर्श {अविराम विमर्श} :
हमारे सरोकार {सरोकार} : 
लघु पत्रिकाएँ {लघु पत्रिकाएँ} : 
हमारे युवा {हमारे युवा} :  
अविराम की समीक्षा {अविराम की समीक्षा} : 
अविराम के रचनाकार {अविराम के रचनाकार} : 

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  11-12,  जुलाई-अगस्त  2017




।।कविता अनवरत।।



नारायण सिंह निर्दाेष




ग़ज़लें


01. 
ज़िन्दगी ने जितना सँवारा काफ़ी है।
हम कर सके जितना गवारा काफ़ी है।

होता नहीं है जब कोई भी रूबरू
लफ़्ज़ों का एक पल सहारा काफ़ी है।

जब खुद किनारे टूट जाते हैं नदी में
तब नाव का टूटा किनारा काफ़ी है।

ज़िन्दगी! फिर लौट आने के लिये
जिस जगह पर तूने मारा काफ़ी है।

किधर चलें, के मंज़िलें पा सकें
हवा का कुछ कुछ इशारा काफ़ी है।

टूट कर मंज़र सभी बिखरे पड़े हैं
जो आँख ने देखा नज़ारा काफ़ी है।

इस बहाने कुछ गुबार निकला है
सर पे मेरे उड़ता गुब्बारा काफ़ी है।

02. 
सब कुछ तुम पर  छोड़ देते हैं। 
अपनी... आँखें निचोड़ देते हैं।

रेत के, अपने सब घरौंदे हम 
रेखाचित्र : बी.मोहन नेगी 
बना लो महल... तोड़ देते हैं। 

सुना है... उदास चेहरे छीन के
आप... चेहरे हँसोड़ देते हैं।

मँहगी  ...पतलूनें ...पहनते हैं
हमें, ...कब करने होड़ देते हैं।

दईया ...बहुत  दर्द होवे जब
आप ...बईयाँ मरोड़ देते हैं।
  • सी-21, लैह (LEIAH) अपार्टमेन्ट्स, वसुन्धरा एन्क्लेव, दिल्ली-110096/मो. 09810131230 

अविराम विस्तारित

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  11-12,  जुलाई-अगस्त  2017




।।कविता अनवरत।।


रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’




नवगीत

01. परिपाटी

कुरुक्षेत्र हो
पानीपत या
हो हल्दीघाटी
सिर्फ हमारे ही
शहीद होने की
परिपाटी।

खेतों में मौसम
से मरते,
रण में वाणों से
राजाजी को मिले
अमरता
अपने प्राणों से।
सिंहासन के पाये हों
या सिंहपौर की सीढ़ी
अपनी ही अस्थियाँ
सदा
बनती हैं सक्की माटी।

बंजारे सपने लेकर
हम/आजीवन भटके,
छायाचित्र  : उमेश महादोषी 

सागर, शिखर फलाँगे
फिर भी
कभी नहीं अटके
चले सतत हम
लेकिन मंजिल मिली सदा उनको
छाया जिनकी
बहुत बड़ी है
काया है छोटी

वहाँ हथेली पर सरसों
प्रतिपल उगती देखी
यहाँ भूख की सुरसा
आंगन में जगती देखी
राजमहल का शील
हिमालय से भी ऊँचा है
गुजराती ताला है
लेकिन
अरहर की टाटी

चक्कर पर चक्कर
चक्कर पर
नये-नये चक्कर
राजमहल की ईंट-ईंट में
है तिलिस्म का घर
बनकर कुम्भज ऋषि
सोखें हैं
सब सुविधा-सागर
तेरे-मेरे हिस्से में
है सिर्फ मही घाटी।

02. अम्मा सी

यज्ञधूम सी पावन घर में
बैठी है चुपचाप उदासी।

ज्ञान पीटने गया सवेरे
लदा-फँदा बस्ते से बचपन
हबड़-तबड़ में घनी व्यस्तता
लाद पीठ पर भागा यौवन
पीछे छूट गयी है
घर में
शुभकामना बाँटती खासी

साँझ ढले
छायाचित्र  : आकाश अग्रवाल 
लौटी है हलचल
घर में आयीं थकीं थकानें
अस्त-व्यस्त बस्ता
सूखा मुँह
थकन, पसीना औ मुस्कानें
चाय-चूय, किस्से-गप्पें धुन
हँसी-कहानी और उबासी

रोज-रोज की यही कहानी

कहती हैं
छत से दीवारें
थोड़े से सुख ज्यादा दुःख हैं
पर/ये महानगर की मारें
पाँव दबाता घूँघट गायब
पर आशीष वही अम्मा सी
  • 86, तिलक नगर, बाईपास रोड, फ़िरोज़ाबाद-283203 (उ.प्र.)/मो. 09412316779

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।।कविता अनवरत।।


शिवानन्द सिंह सहयोगी



नवगीत


01. सुनो बुलावा!

सुनो बुलावा!
क्या खाओगे!
घर में एक नहीं है दाना

सहनशीलता
घर से बाहर
गई हुई है
किसी काम से
राजनीति को
डर लगता है
किसी ‘अयोध्या’
‘राम-नाम’ से
चढ़ा चढ़ावा!
धरा पुजारी!
असफल हुआ वहाँ का जाना

आजादी के
उड़े परखचे
तड़प रही है
सड़क किनारे
लोकतंत्र का
फटा पजामा
टाँका के है
पड़ा सहारे
रेखाचित्र :
डॉ. सुरेंद्र वर्मा 
लगा भुलावा!
वोटतंत्र यह!
मनमुटाव का सगा घराना

मिला पलायन
माला लेकर
राजतन्त्र के
चित्रकूट पर
भुखमरी का
पेट छ्छ्नता
राजभवन के
घने रूट पर
बँधा कलावा!
जनसेवा का!
जाना है बस क्षितिज उठाना

02.  लिफाफा भूल आया

आज खिड़की पर किसी का 
एक फेंका फूल आया 
लगा धरती के लिये है 
कान का कनफूल आया 

बादलों का झुंड अभिनव 
बूँद की बारात में है 
इन्द्रधनुषी एक गजरा 
सज रहा सौगात में है 
धूप को डोली चढ़ाने
झींसियों का झूल आया

कुछ गुलाबों सी टहनियाँ 
हैं अहमदाबाद में भी 
यह खबर अमरावती की 
रेखाचित्र : बी. मोहन  नेगी 
है इलाहाबाद में भी 
बिन बुलावा बिन बताये  
जेठ में बैतूल आया 

नये किसलय से चिपटकर
बहुत खुश आकाश-जल है  
मौन है बेसुध पड़ा है 
सोच में कुछ द्रवित पल है 
चाहता कुछ नेग देना 
है लिफाफा भूल आया

  • ‘शिवाभा’, ए-233, गंगानगर, मवाना नगर, मेरठ-250001, उ.प्र./मो. 09412212255

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।।कविता अनवरत।।


महावीर रंवाल्टा




दिल्ली

सारी की सारी दिल्ली
लगा रही होती है दौड़ 
और वह
उस दौड़ में अकेला होता है।
गाँव के लोग
गाँव के संस्कार
समाए होते हैं उसके भीतर
और वह
दिल्ली में होता है।
दिल्ली उसकी नहीं सुनती
देखती भर है उसे
टटोलती है जैसे जेब
और वह 
उदासी में घिरा होता है।
पहली बार
भागम-भाग में होती है
उसके लिए दिल्ली
और दिल्ली के लोग
और वह
उन्हें समझने की कोशिश में
रेखाचित्र :
कमलेश चौरसिया
 
मुँह ताकता है
बगलें झाँकता है
पर दिल्ली मुँह मोड़ती है।

भले ही उसकी
अनदेखी करती हो दिल्ली
लेकिन घर लौटने पर भी
उसके साथ होती है दिल्ली
दिल्ली की सड़कें
दिल्ली के लोग
यानि पूरी की पूरी दिल्ली।

मेरी कविता
तमाम अर्थों में
मेरी कविता
दिनभर पसीना बहाते
खेतिहर मजदूरों की
कमजोर कविता है
जिसमें सुगन्धित ‘परफ्यूम’ की जगह
पसीने की दुर्गन्ध है
जो
आधुनिक सभ्य कहलाने वाले
इंसान के लिए
असह्य भी है और इम्तेहान लेवा भी।
मेरी कविता
अस्पताल की खुली दिनचर्या में
मरीजों को लगाये जाने वाले
तमाम इन्जेक्शनों का असर है
मरीजों की कतार की आपाधापी के बीच
मेरे प्रति
कडुवाहट उगलते शब्द है।
मेरी कविता
मरीजों को बाँटी जाने वाली 
छायाचित्र : शशिभूषण बडोनी 
तमाम गोलियों की कडुवाहट है
जिनसे
किसी को आराम मिलता है
किसी को तसल्ली
और किसी को सिवा भ्रम के
कुछ नहीं मिलता।

  • संभावना, महरगाँव, पत्रा. मोल्टाड़ी, पुरोला, जनपद उत्तरकाशी-249185,उ.खंड/मो. 09411834007

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।। कथा प्रवाह ।।

मधुदीप

 



विकल्प 
      कल रात को गाँव से आए मेरे मित्र के फोन ने मुझे दुविधा में डाल दिया है। पूरा किस्सा बयान करने से पहले मुझे आपको अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में थोड़ा-बहुत अवश्य बताना पड़ेगा अन्यथा मैं अपनी बात आपको पूरी तरह समझा नहीं पाऊँगा ।
     मेरे परिवार में इस समय चार पीढ़ियाँ हैं। मेरी दादी (दादाजी नहीं हैं), पिताजी-माताजी, मैं-मेरी पत्नी और मेरा चौबीस वर्षीय शादीशुदा पुत्र। मैं अपने माता-पिता तथा पुत्र-पुत्रवधू के साथ शहर के इस तीन-मंजिले मकान में रहता हूँ।
     मेरे लाख प्रयास करने पर भी मेरी नब्बे वर्षीय दादी कभी शहर में आकर हमारे साथ इस मकान में रहने को तैयार नहीं हुईं। झगड़ा वही शाश्वत है। गाँववाले घर को दादीजी अपना मानती हैं और इस शहरवाले घर को माताजी अपना मानती हैं। मेरी पत्नी का मानना है कि उसका तो अब तक अपना कोई घर है ही नहीं। पुत्र और पुत्रवधू का तो वे जानें या आप समझें।
     हाँ तो पाठको! रात को गाँव से आए मेरे दोस्त के फोन ने मुझे विचलित तो किया ही है, दुविधा में भी डाल दिया है। गाँव में दादीजी सख्त बीमार हैं और वहाँ पर उनकी तीमारदारी को जो महिला मैंने रखी हुई है वह उन्हें सँभालने में अब असमर्थ है।
     पूरी रात मैंने कसमकस में जागते हुए व्यतीत की है लेकिन अभी तक किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सका हूँ।
     पाठको! पूरी रात की जद्दोजहद के बाद मेरे सामने चार विकल्प उभरकर आए हैं। पहला- मैं कार्यालय से एक महीने का अवकाश लेकर पत्नी सहित दादीजी की सेवा-देखभाल के लिए गाँव में चला जाऊँ। शायद मैं पत्नी की मनुहार करके किसी तरह इसके लिए उसे तैयार कर लूँ! दूसरा- मैं माताजी के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करूँ कि वे इस समय किसी तरह दादीजी के साथ एडजस्ट कर लें, हालाँकि यह बहुत दूर की कौड़ी लगता है। तीसरा- मैं दादीजी को गाँव से लाकर सीधा हस्पताल में भरती करा दूँ और भुगतान पर पूर्णकालिक नर्सों को उनकी सेवा में लगा दूँ। हालाँकि इससे मुझपर जो आर्थिक दबाव पड़ेगा वह मेरी कमर तोड़ देगा मगर किसी-न-किसी तरह मुझे उस खर्च को  वहन करना ही होगा। चौथा विकल्प है कि मैं भी अपने पिता और पुत्र की तरह इस स्थिति से आँखें मूँदकर कुढ़ता रहूँ।
     तो पाठको! आप मुझे कौनसे विकल्प की सलाह देते हैं? शायद आपकी सलाह ही मुझे इस उलझन से बाहर निकाल सके!

  • 138/16 त्रिनगर, दिल्ली-110 035/मो. 9312400709

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।। कथा प्रवाह ।।


उषा अग्रवाल ‘पारस’




कंधे का सहारा
      खबर मिली, पड़ोस की दादीजी का देहावसान हो गया। लगभग आठ दशक लाँघ चुकी दादीजी बेटे-बहू, पोते-पोती सब सुख देख चुकी थीं।
      जल्दी-जल्दी काम निपटा मैं भी अंतिम विदाई में शामिल होने जा पहुँची। सारा परिवार, रिश्तेदार, अपने-अपने तरीके से व्यस्त दिखाई पड़ रहे थे। सांत्वना के दो बोल किससे बोलूँ, मैं नजर दौड़ा रही थी। तभी दीवार के सहारे चुपचाप उदास खड़ी कमलाबाई दिखाई दी। कहने को तो अनेकों बहुयें, पोताबहुयें थीं, लेकिन जबसे दादीजी ने बिस्तर पकड़ा, कमलाबाई ही उनका सब काम किया करती थी। मैंने उसके करीब जाकर जैसे ही कहा- ‘‘चलीं गईं दादीजी’’, कमला मेरे कंधे पर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसका रुदन सुनकर कई लोग हमारी ओर आकर एकत्र हो गये। उन सबकी आँखों में भी आँसू आने लगे।
      मैं कमला को चुप कराने लगी। कमला के आँसू पल भर को रुकते और वह सामान्य होने के प्रयास में धीरे-धीरे मेरे कंधे से सिर हटाकर आँसू पोंछती। तभी उसका सिर पुनः मेरे कंधे पर चला जाता और फिर से उसकी रुलाई फूट पड़ती।
      मैं सोच रही थी, रोने के लिए कंधे का सहारा कितना जरूरी हो जाता है।

  • 201, सांई रिजेन्सी, रविनगर चौक, अमरावती रोड, नागपुर-440033, महा./मो. 09028978535

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।। कथा प्रवाह ।।


अशफाक अहमद




एक ज़ख्म और सही
      तुम यहाँ क्यों आती हो?
      तुमसे मिलने....।
      परन्तु रोजाना आने का कारण?
      मैं नहीं जानती। लेकिन यह सच है कि आपसे मिलने के बाद मेरे मन को शान्ति मिलती है और मैं सुकून महसूस करती हूँ।
      सुनो, यह पागलों की तरह बातें न करो। मैंने प्रेम से तौबा कर ली है। यूँ भी मेरे दिल में कई दर्द पल रहे हैं। मेरा दिल जख़्मों से चूर है।
      मैं जानती हूँ, इसीलिए उन जख़्मों को भरने के लिए कह रही हूँ एक जख़्म और सही।

  • 41-ए, टीचर्स कॉलोनी, मर्कज-ए-इस्लामी के सामने, जफर नगर, नागपुर-440013, महा./मो. 09422810574